13/11/2019 द हिंदू संपादकीय- Mains Sure Shot for UPSC IAS Exam
वर्तमान संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता और इसकी प्रासंगिकता पर गांधीवादी विचार की विवेचना करे (200 शब्द)
प्रसंग: वर्तमान संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता और इसकी प्रासंगिकता पर गांधीवादी विचार।
धर्मनिरपेक्षता पर यूरोपीय और भारतीय के बीच अंतर:
धर्मनिपेक्षता का अर्थ :– इसका अर्थ है देश में सभी धर्मो के बीच समानता तथा राज्य द्वारा किसी धर्म का पक्षपात नहीं
धर्मनिरपेक्ष राज्य कि विशेषताए:-
1.सभी धर्मो के बीच समानता
2.कानून द्वारा किसी धर्म का पक्षपात नहीं
3.सभी धर्मो के लोग को अपने धर्म के पालन प्रचार और प्रसार कि आजादी
4.राज्यो द्वारा किसी भी धर्म को राजकीय धर्म घोषित नहीं किया जाता
धर्मनिरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल :
1.धर्म और राज्यो का एक – दूसरे के मामले मे हस्त्क्षेप न करने कि अटल नीति
2.व्यक्ति और उसके अधिकारों को केंद्रीय महत्व देना
3.समुदाय आधारित अधिकारों पर कम ध्यान देना
4.विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता एक मुख्य सरोकार होना
धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल :
1.राज्यों द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति
2.एक धर्म के भिन्न पन्थो के बीच समानता पर जोर देना
3.अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों पर ध्यान देना
4.व्यक्ति और धार्मिक समुदायों दोनों के अधिकारों का संरक्षण
धर्मनिरपेक्षता :-किसी एक समुदाय का अन्य समुदाय पर वर्चस्व नहीं होना चाहिए | एक ही धार्मिक समुदाय के भीतर व्यक्ति के किसी एक समूह का दुसरे समूह पर हावी होना उचित नहीं है तथा किसी भी व्यक्ति को धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए |
धर्मनिरपेक्षता समाज के लिए आवश्यक बाते :
1.भिन्न धर्मो के अनुयायियो के बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो
2.किसी एक धार्मिक समुदायों के भीतर सभी वर्ग तथा समूहों की स्वतंत्रता और समानता के अधिकार रूप से प्राप्त हो
3.नास्तिको को भी जीवित रहने और उन्नति के उतने ही अधिकार हो जितने किसी भी मजहब के मानने वाले को
4.धर्म व्यक्ति के जीवन का एक निजि मामला है | हिन्दुत्व,इस्लाम और इसाई को एक निजी विषय ही रखा जाये किसी भी स्थिति मे धर्म का सार्वजनिक वाद-विवाद का विषय न रखा जाए और न ही उसमे राजननैतिक प्रवेश होने दिया जाए
भारत मे धर्मनिरपेक्षता :- भारत के सम्विधान मे एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए आवश्यक सभी बाते शामिल हो गयी
1.संविधान द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अंतः करण कि स्वंतत्रता तथा किसी भी धर्म को मानने उस पर आचरण करने का अधिकार प्रदान किया है
2.पूर्णतया राज्यकोष से संचलित किसी भी सिक्षा संस्था मे कोई भी धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी
3.सभी धार्मिक समुदायों को चल और अचल संपत्ति अर्जित करने और उस पर अपना स्वामित्व बनाए रखने का अधिकार होगा
4.ऐसा कोई कर वसूला जाए जिसका उद्देश्य किसी भी धर्म समूह व समुदाय को धार्मिक सहायता प्रदान करता हो
3.प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह किसी भी धर्म का मानने वाला हो एक जैसे अधिकार प्रदान किए जाते है
भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद पश्चिमी धर्मनिरपेक्षवाद से भिन्न है :-
1.राज्य तथा धर्म के बीच प्रथकारी कोई दिवार नहीं है :- हमारे संविधान राज्य को धर्म से पूर्ण रूप से अलग नहीं करता भारत मे राज्यो विभिन्न धार्मिक समुदायों के आर्थिक वित्तीय राजनैतिक या अन्य क्रियाकलापों को नियमित करने कि अनुमति दी गयी है
- धार्मिक और भाषीय समूहों के अधिकार :- व्यक्ति को अतः करण की स्वतन्त्रता प्रदान कीगयी है इसके साथ ही संविधान धार्मिक अल्पसंख्यको के अधिकारो कि रक्षा करता है ताकि वह गरिमा के साथ जीवन व्यतीत कर सके
3.किसी धर्म परिवर्तन पर रोक :- धर्म के प्रचार का अर्थ है की धार्मिक मान्यताओ को किसी अन्य व्यक्तियों तक पहुचाने का अधिकार या अपने धर्म के सिद्धांतो कि व्याख्या करना
भारत में एक राष्ट्र के तौर पर धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है, सरकार की सभी धर्मों से एक समान दूरी बनाए रखना। दरअसल, यह पश्चिम के देशों और अमेरिका आदि की धर्मनिरपेक्षता से काफी अलग है।
भारत और पश्चिम की धर्मनिरपेक्षता के मध्य विद्यमान अंतर को हम एक उदहारण के माध्यम से समझ सकते हैं।
यदि पश्चिम के किसी देश में चर्च की कोर कमेटी द्वारा यह तय कर दिया जाए कि आगे से कोई महिला प्रिस्ट नहीं बन सकती तो सरकार और न्यायालय इन मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
जबकि यदि भारत में कोई मठ या मंदिर किसी महिला सदस्य को महंत बनाने से इनकार करता है तो सरकार और न्यायालय इन मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं।
आधुनिक समय में धर्मनिरपेक्ष राज्य कि आवश्यकता के कारण :-
- व्यक्ति अपनी धार्मिक पहचान के प्रति अत्याधिक संवेदनशील होता है इसलिए वह किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह के अहिन्शापूर्ण व्यवहार के खिलाफ सुरक्षा प्राप्त करना चाहेगा
2.धार्मिक स्वतंत्रता किसी भी सभ्य समाज की प्रमुख विशेषता है
3.धर्म निरपेक्ष राज्य नास्तिको के भी जीवन और संपत्ति की रक्षा करेगा और उन्हें अपने जीवन शैली और जीवन जीने का अधिकार प्रदान करेगा
4.धर्मनिरपेक्षता राज्य राजनैतिक दृष्टि से ज्यादा स्थायी है
भारतीय धर्मनिरपेक्षता कि आलोचना
1.यह धर्म विरोधी राष्ट्र है :-भारत विभाजन के फलस्वरुप हमने पाकिस्तान के गठन होते देखा जहा इस्लाम का वर्चस्व है यदि तर्क के आधार पर देखा जाये तो भारत के लिए उचित था कि वह स्वम् को हिन्दू राज्य घोषित कर देता
2.धर्मनिरपेक्ष पश्चिमी देशो कि अवधारणा :-युरोपिए राज्य में जहाँ इशाई धर्म का बोल बाला है धर्मनिरपेक्षवाद का अर्थ है की राज्य ईसाई चर्च के आधीन नहीं है इसके पश्चात देशो में समाज को धर्मनिरपेक्ष बनाने का अर्थ है इसमें एक ऐसा रूप प्रदान करना जिससे यह धर्म को नियंत्रण में न रखे
3.अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता को बढावा देने के खतरे :- संविधान द्वारा अल्पसंख्यक समुदायों के कुछ लोगो को विशेषाधिकार प्रदान किए गए है आलोचको का कहना है कि धर्म के आधार पर किसी भी विशेष सुविधा या अधिकार प्राप्त करना गलत है
4.अन्य धर्मो कि तुलना मे एक धर्म के मामलो मे बहुत ज्यादा हस्ताक्षेप :-राज्य ने हिन्दू विवाह अधिनियम विशेष विवाह अधिनियम जैसे कानून द्वारा हिन्दू समाज में सुधार लाने कि चेष्टा की
संविधान में धर्मनिरपेक्षता का उल्लेख:
- धर्मनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग भारतीय संविधान के किसी भाग में नहीं किया गया था, लेकिन संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद मौज़ूद थे जो भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाते हैं।
मसलन संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत देश के सभी नागरिक कानून की नज़र में एक समान हैं।
वहीं अनुच्छेद 15 के तहत धर्म, जाति, नस्ल, लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव पर पाबंदी लगाई गई है।
अनुच्छेद 16 के तरह तक सार्वजनिक रोज़गार के क्षेत्र में सबको एक समान अवसर प्रदान करने की बात की गई है। (कुछ अपवादों के साथ)
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द की बजाय पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग 1976 में 42वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया है।
संविधान के अधीन भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य हैं, ऐसा राज्य जो सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और निष्पक्षता का भाव रखता है।
संविधान में भारतीय राज्य का कोई धर्म घोषित नही किया गया है और न ही किसी खास धर्म का समर्थन किया गया है।
मूल अधिकार और धर्मनिरपेक्षता:
- भारतीय संविधान निर्माताओं ने मूल अधिकारों के अंतर्गत बहुत से ऐसे प्रावधान किये हैं, जो राज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को बढ़ावा देते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रत्येक व्यक्ति को अपने धार्मिक विश्वास और सिद्धांतों का प्रसार करने या फैलाने का अधिकार है।
अनुच्छेद 26 धार्मिक संस्थाओं की स्थापना का अधिकार देता है। इसके अलावा अनुच्छेद 27 कहता है कि नागरिकों को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था की स्थापना या पोषण के एवज में कर देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद 28 कहता है कि राज्य की आर्थिक सहायता द्वारा चलाए जा रहे शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नही दी जाएगी।
जबकि संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदायों को स्वयं के शैक्षणिक संस्थान खोलने एवं उन पर प्रशासन का अधिकार देता है।
भारत में धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप:
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा अमेंरिका की तरह धर्म और राज्य के बीच अलगाव पर आधारित नही है।
भारत की धर्मनिरपेक्षता न तो पूरी तरह धर्म के साथ जुड़ी है और न ही इससे पूरी तरह तटस्थ है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता के इन मूल्यों को ही सैद्धान्तिक अंतर के रूप में बताया गया है।
गौरतलब है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद मामले में दिए अपने निर्णय में धर्मनिरपेक्षता को भारत की आधारभूत संरचना का हिस्सा माना है।
भारत में धर्मनिरपेक्षता का विचार:
- भारत में धर्मनिरपेक्षता की दो संबंधित लेकिन समान रूप से विशिष्ट अवधारणाएँ विकसित हुई हैं।
- पहले धर्मनिरपेक्षता के लिए संवैधानिक दृष्टिकोण है जो राजसी दूरी मॉडल (principled distance model) के बारे में बात करता है। इसमें वह राज्य शामिल है जो किसी भी एक धर्म के प्रति पूर्वाग्रह के बिना सभी धर्मों से समान दूरी बनाए रखता है।
- दूसरे दृष्टिकोण में सांप्रदायिक सद्भाव मॉडल शामिल है, जिसका श्रेय महात्मा गांधी को जाता है। यह गांधीवादी अवधारणा संवैधानिक दृष्टिकोण से विशिष्ट है और प्रमुखतावाद की आशंकाओं के वर्तमान संदर्भ में इसके पुनरुद्धार की तत्काल आवश्यकता है।
गांधीवाद धर्मनिरपेक्षता
- गांधी ने हमेशा इस विचार को खारिज कर दिया था कि दुनिया में कभी भी एक धर्म हो सकता है, एक समान धार्मिक कोड, जैसा कि सभी मानव जाति के लिए था। गांधी ने माना कि एक ही ईश्वर की राहें कई हैं, लेकिन लक्ष्य एक था क्योंकि ईश्वर एक था और एक ही है । गांधी का मानना था कि सभी मनुष्यों के लिए एक गहरी इच्छा थी कि इसे गहरी सामाजिकता कहा जाए।
- गांधी अपने आप में एक अंत के रूप में मानवीय संबंधों को महत्व देते हैं। वे दूसरों के साथ रचनात्मक संबंध की इच्छा रखते हैं।
- मनुष्य बस एक दूसरे के बिना नहीं कर सकते हैं, और कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अपने लोगों के साथ कितना पसंद करते हैं, उन्हें हमेशा उन लोगों के साथ रहने की ज़रूरत होती है जिनके साथ वे भिन्न होते हैं, उन लोगों तक पहुंचने के लिए जिनके साथ वे असहमत हैं।
- दुनिया की धार्मिक विविधता और मानव जाति के लिए कभी एक धर्म होने की असंभवता, आपसी सम्मान, और सांप्रदायिक सद्भाव को शांति और शांति सुनिश्चित करने के लिए एक आवश्यकता बनाता है। गांधी का मानना था कि यह मानव की गहरी गुणवत्ता के गुण के आधार पर एक वास्तविकता बन सकती है।
- लेकिन ऐसे समय होते हैं जब यह सांप्रदायिक रूप से निरंतर सद्भाव परेशान होता है या टूट जाता है। ऐसी स्थिति में राज्य को कदम रखना होगा। ऐसे परिदृश्य के लिए राज्य को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए और सभी से दूर होना चाहिए।
- धार्मिक आडंबरों के समय में गांधीवादी अवधारणा अपरिहार्य है।
- इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता उस राज्य की एक महत्वपूर्ण गुणवत्ता को चिह्नित करती है, जिससे समुदायों के बीच एक निश्चित गुणवत्ता और समाजवाद को बढ़ावा देने के लिए यह सभी धार्मिक-दार्शनिक दृष्टिकोणों से दूर हो जाता है।
- गांधी ने महसूस किया कि सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की जिम्मेदारी का एक बड़ा हिस्सा स्वयं समुदायों के साथ है।
धर्मनिरपेक्षता के गांधीवादी मॉडल की विशिष्टता:
- आधुनिक पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता के विपरीत, जो अलग-अलग स्वतंत्रता और समानता के लिए चर्च और राज्य को अलग करती है और न तो समुदाय और न ही बिरादरी के लिए एक स्थान है, गांधीवादी गर्भाधान की मांग है कि राज्य सभी धार्मिक समुदायों के सदस्यों के बीच बेहतर संबंधों के लिए धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए, विशेष रूप से अगर वे परस्पर अलग हैं। यह गांधीवादी धर्मनिरपेक्षता को विशिष्ट बनाता है।
- यह गांधीवादी दृष्टिकोण सामरिक विचारों से उपजा नहीं था, बल्कि गहरे विश्वास और तर्क के आधार पर था। उनके दृष्टिकोण में विभिन्न संस्कृतियों के बीच के अंतर को स्वीकार करना शामिल था, लेकिन एक ही समय में यह सब एक साथ जोड़ना था। गांधी ने माना कि एक और एक ही ईश्वर की राहें कई हैं, लेकिन लक्ष्य एक था क्योंकि ईश्वर एक था और एक ही।
- गांधीवादी विचारों का अर्थ था कि किसी और के देवता पर हर हमला, अपने ही देवता का खंडन था; प्रत्येक का दावा है कि एक का अपना ईश्वर दूसरे के ईश्वर की अवमानना की तुलना में दूसरे की तुलना में बेहतर है। यह धर्मों के बीच अनावश्यक एक-अपभ्रंश से बचना होगा।
Q- प्रवृत्ति से धार्मिक देश के लोगों पर धर्मनिरपेक्षता को थोपा जाना कहीं उनमें सांप्रदायिकता को तो जन्म नहीं देता? टिप्पणी करें।
- धर्मनिरपेक्षता से आशय यह है कि धर्म को राज्य के मामलों का हिस्सा नहीं होना चाहिये। भारत में धर्मनिरपेक्षता “सर्व धर्म समभाव” अर्थात् सभी धर्मों की समानता पर आधारित है। दूसरी ओर सांप्रदायिकता का अर्थ पूरे मानव समाज की तुलना में किसी एक विशेष नृजातीयता, जातीयता अथवा धर्म के प्रति दृढ़ विश्वास से है।
- भारत में सांप्रदायिकता आधुनिक राजनीति के उद्भव का परिणाम है। जिसकी जड़ें 1905 के बंगाल विभाजन से लेकर 1909 के भारत सरकार अधिनियम और 1932 के कम्युनल अवार्ड तक बिखरी हुई हैं।
- धर्मनिरपेक्ष शब्द भारतीय संविधान में 42वें संविधान संशोधन के बाद जोड़ा गया था। 1994 में उच्चतम न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषता घोषित किया।
- कई धर्मों का जन्म स्थल होने के साथ-साथ भारत में सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की भावना एक परंपरा के रूप में विद्यमान रही है। धर्मनिरपेक्षता शब्द भले ही संविधान में बाद में जोड़ा गया, परंतु यह विशेषता तो हम अशोक के धम्म और अकबर के दीन-ए-इलाही में कई सदियों पहले से ही देखते आए हैं। भारत में आज भी सभी धर्म एक जैसा सम्मान और संवैधानिक संरक्षण प्राप्त करते हैं।
- एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार भारत में धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा संचालित होती है। अल्पसंख्यकों को शिकायत है कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। तीन तलाक के मसले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि सामाजिक सुधारों के नाम पर निजी कानूनों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। जैन धर्मावलंबी भी अपनी संथारा प्रथा का बचाव उसके हज़ारों सालों से चले आने के आधार पर करते आए हैं।
- एक ओर अल्पसंख्यक यह सोचते हैं कि राज्य बहुसंख्यकों से प्रभावित होकर ही अल्पसंख्यकों के मामलों में दखल देता है, वहीं बहुसंख्यकों को यह संदेह होता है कि राज्य अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रहा है। ऐसी प्रवृत्ति समुदायों में सांप्रदायिकता बढ़ाने का काम करती है।
- सांप्रदायिकता के लिये धर्मनिरपेक्षता को ज़िम्मेदार मानना बिल्कुल भी उचित नहीं है। यह सत्य है कि गहरी धार्मिकता से जुड़े लोगों को धार्मिक आधारों पर आसानी से गुमराह किया जा सकता है, परंतु ऐसे में धर्मनिरपेक्षता ही उस द्वेषपूर्ण भावना का शमन करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। धर्मनिरपेक्षता भारत के बहु-सांस्कृतिक समाज की एकता की आधारशिला है। यह न केवल एक संवैधानिक मूल्य है , बल्कि इसे प्रत्येक भारतीय की आत्मा और चरित्र का गुण होना चाहिये क्योंकि सांप्रदायिक सौहार्द्र स्थापित करना केवल राज्य की नहीं वरन् नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है।