23/10/2019 द हिन्दू एडिटोरियल नोट्स

प्रश्न – राजकोषीय संघवाद का क्या अर्थ है? भारत जैसे देश के लिए यह महत्वपूर्ण क्यों है? (250 शब्द)

प्रसंग – व्यय परिषद की स्थापना का सुझाव।

  • हाल ही में केंद्र व राज्यों के बीच बढ़ते वित्तीय तनाव के चलते नीति आयोग द्वारा राजकोषीय संघवाद को नया स्वरूप देने पर बल दिया गया है। नीति आयोग ने सुझाव दिया है कि राजकोषीय संघवाद का एक बार समीक्षा करना आवश्यक है।
  • भारतीय संसदीय शासन प्रणाली में सहयोगी संघवाद की परिकल्पना की गई है, जिसके तहत संघ और राज्यों के बीच पारस्परिक सहयोग एवं समन्वय पर बल दिया गया है। संविधान के भाग 12, अनुच्छेद 264-300क के तहत संघ तथा राज्यों के मध्य वित्तीय संबंधों के बारे में प्रावध शन किया गया है। यह प्रावधान भारत शासन अधि नियम 1935 से लिया गया है। संघ सरकार को सातवीं अनुसूची में वर्णित विषयों पर कर लगाने की शक्ति है जबकि राज्य सरकारों को राज्य सूची पर कर आरोपित करने की शक्ति है।
  • भारतीय संविधान में राजकोषीय संघवाद को बढ़ावा देने के लिए जिस संस्थागत ढाँचे की परिकल्पना की गयी है, वह है वित्त आयोग। वित्त आयोग केन्द्र एवं राज्यों के बीच केन्द्रीय कर राजस्व के विभाजन का उल्लेख करता है।

भारत में राजकोषीय संघवाद

  • भारत सरकार अधिनियम 1919 और 1935 के तहत केंद्र और राज्यों के बीच राजकोषीय संघवाद और राजस्व साझेदारी के सिद्धांतों को औपचारिक रूप दिया गया।
  • स्वतंत्रता के पश्चात केंद्र तथा राज्यों के बीच वित्तीय व राजकोषीय संबंधों की व्याख्या संविधान के भाग-12 के अध्याय (1) में किया गया। इस अध्याय में संघ तथा राज्यों के बीच वित्तीय साधनों का भी विभाजन किया गया है।
  • उल्लेखनीय है कि विभाजन के तहत कुछ कर केवल राज्य सरकारों को सौंपे गए हैं। राज्य सरकारें अपने द्वारा लगाए गए इन करों को स्वयं एकत्रित करती हैं और स्वयं ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उस धन का व्यय करती हैं।
  • वहीं अनुच्छेद 266 के अंतर्गत भारत और राज्यों की संचित निधियों तथा लोक लेखाओं की स्थापना की गई है।
  • संविधान के अनुच्छेद 273, 275 एवं 282 के अंतर्गत राज्यों को तीन प्रकार का सहायता अनुदान प्रदान किया गया है।

अनुच्छेद-280 एवं 281 के तहत राजकोषीय संघवाद को संतुलित करने के लिए वित्त आयोग के निम्नलिखित कर्त्तव्य निर्धारित किये गए हैं जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण कर्त्तव्य इस प्रकार हैं-

  • उन सिद्धांतों की सिफारिश करना जिनके तहत अनुच्छेद-275 के अधीन भारत की संचित निधि से राज्यों को अनुदान दिया जाता है।
  • करों की शुद्ध प्राप्तियाँ केंद्र तथा राज्यों में किस तरह वितरित किया जाना चाहिए तथा राज्यों का अंश विभिन्न राज्यों के मध्य किस अनुपात में बाँटा जाएगा, इसकी सिफारिश करना।
  • ध्यान देने योग्य बात है कि वित्त आयोग की सिफारिशें बाध्यकारी प्रकृति की नहीं होती हैं, लेकिन अनुच्छेद-281 में प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति संविधान के उपबंधों के तहत वित्त आयोग द्वारा की गई प्रत्येक सिफारिश को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखवाएगा। इसके अतिरिक्त इसे स्पष्टीकरण ज्ञापन भी रऽवाना होता है जिसके तहत इस बात की पुष्टि होती है कि प्रत्येक सिफारिश के संबंध में क्या कार्रवाई की गई है। ऐसे में वित्त आयोग की सिफारिशों को अस्वीकार करना सरकार के लिये कठिन हो जाता है।

राजकोषीय संघवाद को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता क्यों

  • केन्द्र सरकार के पास राज्य सरकारों की तुलना में कर से ज्यादा आय होती है, जिससे उसके पास वित्तीय शक्ति का संकेन्द्रण होता है लेकिन उनकी जवाबदेहिता कम होती है। उदाहरण के तौर पर केंद्र सरकार कुल करों का लगभग 60% एकत्र करती है, जबकि इसकी व्यय जिम्मेदारी (रक्षा, आदि के रूप में संवैधानिक रूप से अनिवार्य जिम्मेदारी निभाने के लिए) कुल सार्वजनिक व्यय का केवल 40% ही है।
  • संविधान में जो वित्तीय प्रावधान मौजूद हैं उससे भी राजकोषीय असंतुलन की स्थिति पैदा हुई है। नतीजतन राजकोषीय संघ को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। उल्लेखनीय है कि राजकोषीय असंतुलन दो तरह से बढ़ा है-
  1. ऊर्ध्वाधर राजकोषीय असंतुलन
  2. क्षैतिज राजकोषीय असंतुलन

1- ऊर्ध्वाधर (लंबवत) राजकोषीय असंतुलन- यदि केन्द्र सरकार की आय उसके व्यय से अधिक हो जबकि राज्यों की आय व्यय से कम हो तो इसे ऊर्ध्वाधर असंतुलन कहते हैं।

2- क्षैतिज राजकोषीय असंतुलन- भारत के 29 राज्यों के बीच भी राजकोषीय असंतुलन की स्थिति मौजूद है। कुछ राज्य ऐसे हैं जिनकी राजकोषीय क्षमता अधिक है। वह सार्वजनिक सुविधाओं और सेवाओं को उपलब्ध कराने की क्षमता रखते हैं। उदाहरण के तौर पर गुजरात और तमिलनाडु लेकिन कुछ राज्य ऐसे भी हैं जिनकी राजकोषीय क्षमता कमजोर है। उनके पास इतनी क्षमता नहीं है कि वे सार्वजनिक सेवाओं को अच्छे से उपलब्ध करा सकें। उदाहरण के तौर पर बिहार एवं यूपी। उपरोक्त स्थिति को क्षैतिज राजकोषीय असंतुलन कहते हैं।

यहाँ हम क्षैतिज असंतुलन को और गहराई से समझ सकते हैं। विभिन्न राज्यों के बीच जो राजकोषीय असंतुलन होता है, वह सामान्यतः दो प्रकार का है-

टाइप-I: अलग-अलग राज्य की अलग- अलग क्षमता होती है, जिसके तहत वे बुनियादी सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं को उपलब्ध कराते हैं। सार्वजनिक सेवाएँ, जैसे- स्वच्छता, स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा आदि इसके अन्तर्गत आते हैं।

टाइप-II: इसके अन्तर्गत बुनियादी संरचना (Infrastructure) को मजबूत बनाने, पूँजीगत घाटा हस्तांतरण को कम करने आदि पर ध्यान दिया जाता है।

  • ऊर्ध्वाधर (लंबवत), क्षैतिज राजकोषीय असंतुलन के अतिरिक्त वर्तमान समय में अन्तरराज्यीय असन्तुलन भी एक अन्य चुनौती पेश कर रही है। उदाहरण के लिए देखा गया है कि कर्नाटक के उत्तर में विकास का स्तर कुछ है, जबकि दक्षिण में कुछ होता है। इसी तरह, महाराष्ट्र में अलग-अलग इलाकों में विकास अलग-अलग स्तर का पाया गया है। वहीं उत्तर प्रदेश के पश्चिमी यूपी में हालात अलग हैं जबकि पूर्वी यूपी में अलग हैं। नतीजतन राज्यों के अन्दर भी विकास को लेकर तनाव बढ़ा है।
  • जीएसटी के शुरू होने से भी राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हुई हैं क्योंकि राज्यों के पास जीएसटी दरों के संदर्भ में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की शत्तिफ़ नहीं होती है। इसकी दरें केंद्र और राज्यों द्वारा संयुक्त रूप से तय की जाती हैं।
  • राज्यों की स्वायत्तता की रक्षा हेतु संविधान में उल्लिखित संस्थाओं ने ऊर्ध्वाकार असंतुलनों को ठीक करने में सहायता नहीं दी है।
  • भारतीय संविधान में निहित उत्तरदायित्वों एवं शक्तियों के वितरण में बड़े पैमाने पर असंतुलन है।

सरकारी प्रयास

  • केन्द्र और राज्यों के बीच राजकोषीय संघवाद को मजबूत करने के लिए सरकार द्वारा किए गए महत्वपूर्ण प्रयासों को निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है-
  • सरकार ने संघ व राज्यों के मध्य किये जाने वाले राजस्व वितरण में तनाव को कम करने के लिए 80वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, वर्ष 2000 में परिवर्तित किया। इस संशोधन में यह प्रावधान किया गया कि संघ सूची में निर्दिष्ट सभी कर और शुल्कों का विभाजन संघ और राज्यों के बीच किया जाएगा।
  • ठीक इसी तरह डॉ- वाई. वी. रेड्डी की अध्यक्षता में 14 वें वित्त आयोग ने जब राज्यों को राजस्व के 42% विचलन की सिफारिश की तो केंद्र सरकार ने इसे भी स्वीकार कर लिया। उल्लेखनीय है कि इससे 2015-16 में राज्यों को 50% से अधिक राजस्व अंतरित हुआ।
  • सरकार द्वारा सहकारी संघवाद को मजबूत बनाने की दिशा में एक अन्य कदम नीति आयोग की स्थापना करना रहा है। नीति आयोग की गवर्निंग काउंसिल में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और संघशासित प्रदेशों के लेफ्रिटनेंट गवर्नर शामिल होते हैं। नीति आयोग राज्यों की आपसी सहमति से योजनाओं का निर्माण करता है। उल्लेऽनीय है कि हाल ही में नीति आयोग राज्यों के प्रदर्शन को मापने के लिये (स्वास्थ्य, शिक्षा और जलप्रबंधन) एक सूचकांक लेकर आया है ताकि राज्यों के सामाजिक कार्यक्रमों के परिणामों को जानने, एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने और नवाचारों को साझा करने में मदद मिल सके।
  • सरकार ने राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम पर गठित एनके- सिंह आयोग की सिफारिशों को गत वर्ष राजकोषीय संबंध में मजबूती लाने के लिए स्वीकारा है। विदित हो कि एफआरबीएम (FRBM) के बारे में एन. के. सिंह समिति ने एक राजकोषीय परिषद के गठन का सुझाव दिया है जो कि एक स्वतंत्र निकाय होगा। यह किसी भी दिये गए वर्ष के लिये सरकार की राजस्व घोषणाओं की निगरानी करेगा। नतीजतन राजकोषीय नीतियों में राज्यों की स्थिति और भी सशक्त होगी क्योंकि कर्जमाफी और इस तरह की योजनाओं का भार अब केंद्र के ऊपर डालने की परंपरा धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी।
  • सरकार ने राजकोषीय संघवाद को मजबूती प्रदान करने की अगली कड़ी के रूप में वस्तु और सेवा कर या जीएसटी 1 जुलाई 2017 से पूरे देश में लागू किया। उल्लेखनीय है कि जीएसटी में ‘एक राष्ट्र, एक बाजार’ की परिकल्पना के कारण अप्रत्यक्ष करों जैसे- उत्पाद शुल्क, सेवा कर, बिक्री कर इत्यादि को एक ही नियम के अंतर्गत ला दिया गया है। इसके क्रियान्वयन से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिए जीएसटी परिषद को अनुच्छेद 279क के तहत केंद्र और राज्यों से संबंधित एक संवैधानिक निकाय के रूप में गठित किया गया।
  • गौरतलब है कि वित्त आयोग के द्वारा सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी गयी है जिसमें कहा गया है कि भारत सरकार द्वारा चलाई जा रही कुछ योजनाओं को बंद करने की आवश्यकता है, साथ ही कई केन्द्र प्रायोजित योजनाओं के लिए केन्द्र द्वारा होने वाले अंशदान में भारी कटौती करने की भी सिफारिश की है। इन योजनाओं में शामिल हैं- पुलिस बलों का आधुनिकीकरण, स्वच्छ भारत मिशन, राजीव गांधी पंचायत सशक्तिकरण इत्यादि। इसके अतिरिक्त वित्त आयोग ने राजकोषीय संघवाद को बढ़ावा देने के लिए सामान्य राज्यों और विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों के वर्गीकरण को समाप्त करने की सिफारिश की है।

ऐतिहासिक मुद्दे

  • वर्ष 1982 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम.जी. रामचंद्रन सरकारी स्कूलों के बच्चों को मध्याह्न भोजन कार्यक्रम के अंतर्गत लाना चाहते थे ताकि छात्र नामांकन में सुधार हो सके।
  • इस कार्यक्रम के लिये 150 करोड़ रुपए के अतिरिक्त व्यय की आवश्यकता थी जो राज्य सरकार के पास उपलब्ध नहीं था। इस अतिरिक्त व्यय हेतु तमिलनाडु में बेचे जाने वाले सामानों पर अतिरिक्त बिक्री कर लगाया गया। इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन के फलस्वरूप तमिलनाडु की साक्षरता दर में तेज़ी से वृद्धि दर्ज़ की गई और कुछ दशकों में तमिलनाडु को भारत के सर्वाधिक साक्षर राज्यों में गिना जाने लगा।

वर्तमान मुद्दे

  • वस्तु और सेवा कर के क्रियान्वयन के पश्चात् राज्यों ने अप्रत्यक्ष करों को लगाने की अपनी शक्तियाँ खो दीं है। इसके अतिरिक्त भारत में राज्य सरकार के पास आयकर और बिक्री कर लगाने की कोई शक्ति नहीं है।
  • वर्तमान में केंद्र सरकार कुल कर राजस्व पूल का 52% अपने रखता है और शेष 48% सभी राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों को वितरित करता है।
  •  भारत न केवल संस्कृति के मामले में, बल्कि आर्थिक विकास के विभिन्न स्तरों पर विभिन्न राज्यों के साथ आर्थिक रूप से भी एक विविध देश है। इसलिए यह सोचना गलत होगा कि सभी राज्य एक केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा शासित हो सकते हैं।
  • राज्य सरकारों की स्वायत्तता की आवश्यकता है और इस वास्तविक स्वायत्तता के लिए, वास्तविक वित्तीय स्वायत्तता एक आवश्यक है।
  • इसके अलावा, राज्यों के राजकोषीय संघवाद को कम करने के लिए कोई भी उपाय केंद्र और राज्यों के बीच अधिक तनाव पैदा कर सकता है और इसका अंतिम असर विकास प्रक्रिया को रोकना होगा।

वैश्विक परिदृश्य: 

  • भारत के विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में राज्य सरकारों के साथ-साथ स्थानीय सरकारों को भी आयकर लगाने का अधिकार है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका के अतिरिक्त ब्राज़ील, जर्मनी जैसे देश भी राज्य और स्थानीय स्तर पर आयकर एकत्र करते हैं।

 आगे की राह

  • राजकोषीय संघवाद की ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज असंतुलन को समाप्त करने के लिए वित्त आयोग, नीति आयोग, जीएसटी परिषद और विकेंद्रीकरण जैसे चार स्तंभों का पुनर्गठन किया जाना चाहिए।
  • विकास के असंतुलन को कम करके व राज्यों के बीच क्षेत्रीय और उप-असमानताओं को दूर करने के लिए नीति आयोग को विशेष प्रकार के दायित्व देने की आवश्यकता है।
  • नीति आयोग को एक स्वतंत्र मूल्यांकन कार्यालय बनाना चाहिए जो राजस्व और पूँजीगत अनुदान के उपयोग की प्रभावकारिता की निगरानी और मूल्यांकन कर सके।
  • वित्त आयोग को बुनियादी सार्वजनिक वस्तुओं, सेवाओं और पूँजी घाटे के प्रावधान से निपटने के दोहरे कार्य से राहत दिया जाना चाहिए। इसे बुनियादी सार्वजनिक वस्तुओं के असंतुलन (टाइप I) को हटाने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए सीमित किया जाना चाहिए।
  • विदित हो कि नीति आयोग बुनियादी ढाँचे और पूँजीगत घाटे (टाइप II) के दायरे में काम करने के लिए दूसरे स्तंभ के रूप में काम कर सकता है।
  • राज्य वित्त आयोगों को केंद्रीय वित्त आयोग के समान दर्जा मिलना चाहिए और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण (धन, कार्य और कार्यवाहियों) की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए।
  • वस्तु और सेवा कर की संरचना को सरल बनाया जाना चाहिए। इसके लिए जीएसटी परिषद को अपने स्वयं के सचिवालय और स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा एक पारदर्शी तरीके को अपनाना चाहिए।
  • विकेंद्रीकरण पर बल दिया जाना चाहिए क्योंकि विकेंद्रीकरण स्थानीय वित्त और राज्य वित्त आयोग को मजबूत करके नए राजकोषीय संघवाद के तीसरे स्तंभ के रूप में काम कर सकता है।
  • पंचायती राज और नगर निगम के लिए अलग से संचित निधि की व्यवस्था करनी चाहिए। हालाँकि इसके लिए अनुच्छेद 266, 268, 243ज, 243भ इन सभी में संशोधन करना होगा। इससे रुपया सीधे संचित निधि में आयेगा जिससे राज्य व केन्द्र पर इनकी निर्भरता समाप्त हो जाएगी।
  • केंद्र और राज्यों को अपने केंद्रीय जीएसटी (सीजीएसटी) और राज्य जीएसटी (एसजीएसटी) संग्रह को बराबर के अनुपात में योगदान करना चाहिए।
  • राजकोषीय परिषद की स्थापना करना चाहिए जिससे केन्द्र और राज्यों के बीच संसाधनों के बँटवारे की प्रक्रिया के मूल भावना पर आघात न हो।
  • निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रभावी विकेंद्रीकरण, पारदर्शी जीएसटी शासन, स्वतंत्र वित्त आयोग और प्रभावी नीति आयोग के आधार पर नए वित्तीय संघीय व्यवस्था का निर्माण भारत के अद्वितीय सहकारी संघवाद को मजबूत कर सकता है।
  • केन्द्र को वास्तविक संघीय स्वरूप में अपने समन्वयकारी, सुधारात्मक और नेतृत्व संबंधी कार्यों का निर्वहन करना चाहिए।
  • 14वें वित्त आयोग ने सुझाव दिया था कि केन्द्र से राज्यों को वित्त आयोग की सिफारिशों के बाहर का कोई भी हस्तांतरण एक नई संस्थागत व्यवस्था (आदर्श रूप से अंतर्राज्यीय परिषद के तत्वावधान में) के माध्यम से होना चाहिए। इस व्यवस्था में केन्द्र राज्य क्षेत्र विशेषज्ञों को सम्मिलित होना चाहिए।
  • एफआरबीएम (FRBM) मानदंडों के प्रवर्तन को और अधिक कठोर बनाया जाना चाहिए।
  • एक समान्य जीएसटी दर तय किया जाना चाहिए तथा निर्यात पर जीएसटी को हटाया जाना चाहिए।

 

 

नोट: ‘रिकॉर्डिंग अपराध’ शीर्षक वाला लेख पर्याप्त सामग्री नहीं है, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े हैं जिन्हें नोट किया जा सकता है।

यह लेख किस बारे में है?

  • यह लेख वर्ष 2017 के लिए भारत में अपराध के बारे में है जो हाल ही में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) द्वारा जारी किया गया था।

ये महत्वपूर्ण आंकड़े हैं:

  • 2016 के बाद से व्यापक रूप से महिला देश के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या में 6% की वृद्धि हुई, जबकि अनुसूचित जातियों के खिलाफ 13% की वृद्धि हुई।
  • राज्यों में होने वाले अपराधों और वास्तव में रिपोर्ट किए गए अपराधों में भी अंतर है। हालांकि इस आंकड़े में सुधार हुआ है लेकिन अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है। यह विशेष रूप से बलात्कार के मामलों में दिखाई देता है, जहां दिल्ली के यूटी ने प्रति एक लाख जनसंख्या पर 12.5 की दर दर्ज की, जिसे मध्य प्रदेश (14.7%) और छत्तीसगढ़ (14.6%) ने पीछे छोड़ दिया। लेकिन 2012 से दिल्ली में बलात्कार के मामलों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है और शायद यह इस तरह के मामलों की उच्च दर को समझा सकता है।
  • यह तथ्य कि दिल्ली ने 2017 में महानगरीय शहरों के बीच दर्ज किए गए कुल आईपीसी अपराधों में से 40.4% दर्ज किए हैं, आसान (यानी ऑनलाइन) के उपयोग के कारण भी उन्हें पंजीकृत करने की संभावना है।
  • अंत में रिपोर्ट से पता चलता है कि पूर्वोत्तर के राज्यों और शेष देश में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसी महत्वपूर्ण जनजातीय आबादी वाले राज्यों में अन्य देशों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक हत्या की दर है।

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