सामान्य अध्ययन
GS-1 से GS-4
The Hindu Editorials in Hindi Medium
दिसम्बर 2020
क्रम-सूची
GS-1 मेन्स
1.विषय – विधि विरुद्ध धर्म सम्परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020
2.विषय – मोनपा हस्तनिर्मित कागज़ निर्माण कला
3.विषय – उत्तरी अटलांटिक विक्षोभ का भारतीय मानसून पर प्रभाव
4.विषय – शक्ति अधिनियम
5.विषय – सहारा मरुस्थल की धूल और आर्कटिक उष्मन
6.विषय – विश्व धरोहर सिंचाई संरचना
GS-2 मेन्स
1.विषय – विश्व धरोहर स्थलों का संरक्षण और आदिवासी एवं देशज लोगों के अधिकार
2.विषय -भारत-नेपाल सम्बंध – नए आयाम
3.विषय -चुनावी बॉण्ड और सूचना का अधिकार
4.विषय -नए भारतीय मिशन
5.विषय -भारत की दो-तरफ़ा चुनौतियाँ
6.विषय -ब्रेक्जिट समझौते के बाद होने वाले बदलाव
7.विषय -देश की पहली न्यूमोकॉकल कॉन्जुगेट वैक्सीन ‘न्यूमोसिल’
8.विषय -सूडान के लिये समझौते का निहितार्थ
9.विषय -एथनोमेडिसिन : विलोपन की कगार पर
10.विषय -ईरान परमाणु समझौता और अमेरिकी दृष्टिकोण
11.विषय -नेपाल में राजनीतिक संकट
12.विषय -विद्युत (उपभोक्ताओं के अधिकार) नियम, 2020
13.विषय -शिगेला : आँतों का संक्रमण
14.विषय -भारत ‘करेंसी मैनिपुलेटर्स’ लिस्ट में
15.विषय -भारत में कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद की बढ़ती प्रवृत्ति
16.विषय -S-400 समझौता और भारत की चिंताएँ
17.विषय -पश्चिमी सहारा क्षेत्र पर मोरक्को की सम्प्रभुता को वैधता
18.विषय -विज़न 2035 : भारत में जन स्वास्थ्य निगरानी
19.विषय -सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के लिये लैंसेट नागरिक आयोग
20.विषय -ऑस्ट्रेलिया का प्रस्तावित कानून : ‘समाचार मीडिया अनिवार्य मोलभाव (बार्गेनिंग) संहिता’
21.विषय -भारत में व्यावसायिक शिक्षा तथा कौशल विकास : समस्याएँ तथा समाधान
22.विषय -मातृभाषा में तकनीकी शिक्षा
23.विषय -न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व
24.विषय -झारखंड में तम्बाकू पर प्रतिबंध
25.विषय -समुद्री संचार मार्गों से जुड़ी चिंताएँ
26.विषय -मध्य-पूर्व में भू-राजनीतिक अशांति और भारतीय उपमहाद्वीप
27.विषय -आयुर्वेदिक चिकित्सकों को सर्जरी की वैधानिक अनुमति : आवश्यकता एवं चिंताएँ
GS-3 मेन्स
1.विषय- मानव निर्मित आर्द्रभूमि और अपशिष्ट जल का शोधन
2.विषय-पृथ्वी का औसत माध्य तापमान और 1.5 ℃ तापमान का स्तर
3.विषय-सशक्त एम.एस.एम.ई. (MSME) भविष्य की संवृद्धि के वाहक
4.विषय-कीटों की दुनिया : पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के लिये महत्त्व
5.विषय-कॉप-15 के पाँच वर्ष
6.विषय-शुष्क इलाकों में जलभृत मानचित्रण
7.विषय-तीव्र आर्थिक संवृद्धि के आधार स्तंभ
8.विषय-क्रिप्टोकरेंसी पर भारत की रणनीति
9.विषय-राष्ट्रीय रेल योजना : भविष्य का मार्गदर्शक
10.विषय-हरित भवन : विशेषताएँ, चुनौतियाँ एवं सुझाव
11.विषय-पोषण एजेंडे में बदलाव की आवश्यकता
12.विषय-पी.एम. वाणी : डिजिटल इंडिया से डिजिटल भारत की ओर
13.विषय-एकल कृषि पैटर्न से उत्पन्न समस्याएँ
14.विषय-सरकारी उपक्रमों की बढ़ती समस्याएँ
15.विषय-उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट : 2020
16.विषय-कोच्चि और लक्षद्वीप के बीच सबमरीन ऑप्टिकल फाइबर केबल कनेक्टिविटी योजना
17.विषय-लक्षद्वीप पूर्णतः जैविक केन्द्रशासित राज्य घोषित
18.विषय-ए.आई. आधारित अर्थव्यवस्था का महत्त्व
19.विषय-जैविक कृषि से नई उम्मीद
20.विषय-क्वांटम सुप्रीमेसी
21.विषय-गूगल की मुफ्त क्लाउड स्टोरेज नीति में परिवर्तन
22.विषय-किसान आंदोलन और खरीद प्रक्रिया
23.विषय-एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड
GS-1 मेन्स
1.विषय – विधि विरुद्ध धर्म सम्परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म सम्परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020’ प्रख्यापित किया गया।
पृष्ठभूमि
- भारत की स्वतंत्रता से पूर्व ब्रिटिश काल के दौरान कोटा, पटना, सुरगुजा, उदयपुर और कालाहांडी जैसी रियासतों ने ब्रिटिश मिशनरियों से हिंदू धार्मिक पहचान को संरक्षित करने के प्रयास में धार्मिक रूपांतरण को प्रतिबंधित करने वाले कानून पारित किये थे। वर्तमान में भी विवाह के लिये किये जाने वाले धर्म परिवर्तन के साथ-साथ अन्य कारणों से होने वाले सामूहिक धर्म परिवर्तन राजनीतिक और कानूनी चर्चा में रहें हैं।
कानून के प्रमुख बिंदु
- इस कानून के द्वारा गैरकानूनी तरीकों, जैसे- छलपूर्वक, बलप्रयोग, अनुचित प्रभाव, दबाव, प्रलोभन एवं धोखाधड़ी के माध्यम से धर्म परिवर्तन किये जाने को संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध बनाने के साथ-साथ कारावास का प्रावधान किया गया है।
- कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने अर्थात् बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन से सम्बंधित मामलों में 15,000 के जुर्माने के साथ कम से कम एक वर्ष का कारावास होगा, जिसे पाँच वर्ष की अवधि तक बढ़ाया जा सकता है।
- हालाँकि, यदि कोई नाबालिग, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय से जुड़ी कोई महिला या व्यक्ति का उक्त गैरकानूनी तरीकों से धर्म परिवर्तित किया जाता है तो 25,000 रूपए के अर्थदंड के साथ कारावास की न्यूनतम अवधि तीन वर्ष होगी, जिसे 10 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
- साथ ही, अध्यादेश में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के विरुद्द सख्त कार्रवाई का प्रावधान है, जिसमें कम से कम तीन वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की जेल की सजा और 50,000 रूपए का अर्थदंड होगा। ऐसे संगठन का लाइसेंस भी रद्द कर दिया जाएगा।
अन्य प्रावधान
- ऐसे मामले में एफ.आई.आर. पीड़ित व्यक्ति, उसके माता-पिता, भाई-बहन या रक्त सम्बंधी, विवाह या गोद लेने द्वारा सम्बंधित किसी अन्य व्यक्ति द्वारा की जा सकती है।
- अध्यादेश के अनुसार धर्मांतरण का कारण बनने वाले या इसको प्रेरित करने वाले व्यक्ति पर ही इस बात को सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी होगी कि यह धर्मांतरण विवाह के लिये या अन्य किसी गैरकानूनी तरीके से नहीं किया गया है।
- अध्यादेश के अनुसार, किसी एक धर्म के पुरुष द्वारा किसी अन्य धर्म की महिला के साथ ‘गैरकानूनी धर्मांतरण’ के एकमात्र उद्देश्य से किया गया विवाह शून्य घोषित कर दिया जाएगा। साथ ही, उत्तर प्रदेश में विवाह से सम्बंधित धार्मिक रूपांतरण के लिये ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा अनुमोदन को आवश्यक कर दिया गया है।
- हालाँकि, यदि कोई भी व्यक्ति अपने पुराने या मूल धर्म को पुन: अपना लेता है, तो उसे इस अध्यादेश के तहत धर्म परिवर्तन नहीं माना जाएगा।
- विशेषज्ञों के अनुसार प्रस्तावित कानून में अंतर-जातीय विवाह (Interfaith) पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
मुआवज़े का प्रावधान
- अध्यादेश में यह भी कहा गया है कि न्यायालय उक्त धर्मांतरण के पीड़ित को आरोपी द्वारा देय उचित मुआवजा भी मंजूर करेगा, जो अधिकतम 5 लाख रूपए तक हो सकता है।
- इस प्रकार अर्थदंड और मुआवज़े दोनों का भार आरोपी पर ही पड़ेगा।
धर्म परिवर्तन की शर्तें
- धर्म परिवर्तन की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को जिला मजिस्ट्रेट या अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट के समक्ष कम से कम 60 दिन पहले एक निर्धारित प्रारूप में अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन का एक घोषणा पत्र देना होगा।
- साथ ही, धर्म परिवर्तन कराने वाले किसी भी व्यक्ति को ऐसे समारोह आयोजित करने से एक माह पूर्व डी.एम. या ए.डी.एम. को निर्धारित प्रपत्र में अग्रिम सूचना भी देना होगा। इस प्रावधान का उल्लंघन करने पर एक से पांच वर्ष जेल की सजा हो सकती है।
विपक्ष में तर्क
- कार्यकर्ताओं के अनुसार इस अध्यादेश द्वारा दलितों और धर्म विशेष के लोगों को भावनात्मक रूप से एक-दूसरे के विरुद्ध करके ध्रुवीकरण किया जा रहा है।
- साथ ही, तर्क दिया जा रहा है कि यह अध्यादेश दलितों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने से रोकने के लिये है, क्योंकि दलितों का ईसाई और इस्लाम धर्म में ज़्यादा धर्मांतरण नहीं देखा गया है जबकि बौद्ध धर्म में इनका सामूहिक धर्मांतरण देखा गया है।
- इसके अतिरिक्त कहा जा रहा है कि यह अध्यादेश संविधान के अनुच्छेद 21 (व्यक्तिगत स्वतंत्रता) और 25 (धर्म की स्वतंत्रता) के उपबंधों के प्रतिकूल है।
- साथ ही अंतर-जातीय व अंतर-धार्मिक विवाह के सम्बंध में पहले से ही विशेष विवाह अधिनियम मौजूद है अत: इस प्रकार के कानून की ज़रूरत नहीं है।
- चूँकि उत्तर प्रदेश में अंतर-जातीय विवाह को प्रोत्साहित करने की योजना मौजूद है। ऐसी स्थिति में इस कानून की प्रासंगिकता को लेकर सवाल उठ रहे हैं।
पक्ष में तर्क
- यह कानून दलित अधिकारों की रक्षा में सहायक होगा और जबरन, गैरकानूनी तथा धोखे से किये जाने वाले धर्म परिवर्तन को रोकेगा।
- इससे लालच के चलते होने वाले धर्म-परिवर्तन पर अंकुश लगेगा। साथ ही, धर्म को छुपाकर या अन्य गैरकानूनी तरीके से किये जाने वाले विवाह पर रोक लगेगी जिससे महिला अधिकारों की रक्षा की जा सकेगी।
- राज्य को इस सम्बंध में कानून बनाने का अधिकार उच्चतम न्यायालय के वर्ष 1977 के स्टेनिसलॉस बनाम मध्य प्रदेश के निर्णय से मिलता है। इसमें न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने अवैध धर्मांतरण रोकने के लिये मध्य प्रदेश और ओडिशा के द्वारा लाए गए कानून को वैध घोषित किया था।
- उत्तर प्रदेश विधि आयोग के अनुसार वर्तमान में अवैध धर्म परिवर्तन को लेकर राज्य में कोई कानून नहीं है। आई.पी.सी. में सिर्फ धार्मिक भावना आहत करने, देवी देवताओं को अपमानित करने और धार्मिक स्थलों को क्षति पहुँचाने को लेकर ही दंडनीय प्रावधान है। अत: गैर-कानूनी धर्मांतरण को रोकने के लिये इस प्रकार के कानून की आवश्यकता थी।
2.विषय – मोनपा हस्तनिर्मित कागज़ निर्माण कला
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 1 : भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के कला के रूप, भारत की विविधता)
संदर्भ
- खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग (KVIC) के समर्पित प्रयासों से हाल ही में, 1000 वर्ष पुरानी परंपरागत मोनपा हस्तनिर्मित कागज़ निर्माण कला पुनः जीवंत हो गई है।
प्रमुख बिंदु
- मोनपा हस्तनिर्मित कागज़ निर्माण कला लगभग 1000 वर्ष पुरानी है। यह कला धीरे-धीरे अरुणाचल प्रदेश के तवांग ज़िले में स्थानीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गई थी।
- उत्कृष्ट बनावट वाले हस्तनिर्मित कागज़ों को स्थानीय भाषा में मोन शुगु कहा जाता है।
- इस कागज़ का विशेष ऐतिहासिक और धार्मिक महत्त्व है क्योंकि इसका प्रयोग बौद्ध मठों में धर्मग्रंथों और स्तुति गान लिखने के लिये भी किया जाता है।
- मोनपा हस्तनिर्मित कागज़, शुगु शेंग नामक स्थानीय पेड़ की छाल से बनाया जाता है, जो अपने औषधीय गुणों के लिये जाना जाता है। अतः इस कागज़ के लिये कच्चे माल की उपलब्धता की समस्या अमूमन उत्पन्न नहीं होती।
- पूर्व में, मोनपा का उत्पादन इतने वृहद स्तर पर होता था कि इन कागज़ों को तिब्बत, भूटान, थाईलैंड और जापान जैसे देशों में भी बेचा जाता था क्योंकि उस समय इन देशों में कागज़ उत्पादन का कोई स्थापित उद्योग मौजूद नहीं था।
- लेकिन धीरे-धीरे स्थानीय उद्योग में गिरावट दर्ज होने लगी और स्वदेशी हस्तनिर्मित कागज़ का स्थान निम्नस्तरीय चीनी कागज़ ने ले लिया।
कागज़ उद्योग के पुनरुद्धार के प्रयास
- मोनपा हस्तनिर्मित कागज़ उद्योग के पुनरुद्धार का प्रयास वर्ष 1994 में किया गया था, लेकिन वह असफल रहा क्योंकि तवांग की विभिन्न भौगोलिक चुनौतियों के कारण यह बहुत ही कठिन कार्य था।
- हस्तनिर्मित कागज़ के उच्च वाणिज्यिक मूल्य के कारण, इसका उपयोग अरुणाचल प्रदेश में स्थानीय रोज़गार की दशा को सुधारने के लिये किया जा सकता है। यह विशिष्ट स्थानीय उत्पाद के रूप में प्रधानमंत्री के ‘स्थानीय से वैश्विक’ मंत्र का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा साबित हो सकता है।
- हस्तनिर्मित कागज़ के अलावा, तवांग को दो अन्य स्थानीय कलाओं के लिये भी जाना जाता है- हस्तनिर्मित मिट्टी के बर्तन और हस्तनिर्मित फर्नीचर, जो समय के साथ विलुप्त होते जा रहे हैं। के.वी.आई.सी. द्वारा छह महीने के अंदर इन दोनों स्थानीय कलाओं के पुनरुद्धार के लिये योजनाओं की शुरूआत की जाएगी। कुम्हार सशक्तिकरण योजना के अंतर्गत प्राथमिकता के आधार पर हस्तनिर्मित मिट्टी के बर्तनों का पुनरुद्धार बहुत जल्द शुरू किया जाएगा।
- मोनपा हस्तनिर्मित कागज़ यूनिट, स्थानीय युवाओं के लिये एक प्रशिक्षण केंद्र के रूप में भी कार्य करेगी। के.वी.आई.सी. देश के विभिन्न हिस्सों में इस प्रकार की अन्य इकाइयों की स्थापना भी करेगा।
- ध्यातव्य है कि तवांग में अभिनव प्लास्टिक मिश्रित हस्तनिर्मित कागज़ का उत्पादन इस क्षेत्र में प्लास्टिक कचरे में कमी लाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित होगा।
3.विषय – उत्तरी अटलांटिक विक्षोभ का भारतीय मानसून पर प्रभाव
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र–1 : महत्त्वपूर्ण भू–भौतिकीय घटनाएँ, भौगोलिक विशेषताएँ)
संदर्भ
- हाल ही में, ‘साइंस’ नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार ‘उत्तरी अटलांटिक विक्षोभ भारतीय मानसून को प्रभावित कर सकता है।
अटलांटिक विक्षोभ
- अगस्त के अंत और सितम्बर की शुरुआत में उत्तर अटलांटिक के वायुमंडल में हवाओं और चक्रवात की विसंगतियों से वायुमंडलीय विक्षोभ उत्पन्न होता है।
- यह विक्षोभ एक लहर के रूप में भारत की ओर मुड़ता है और तिब्बत के पठार पर बने निम्न-दाब क्षेत्र के कारण उसकी और आकर्षित हो जाता है। इससे भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून का चक्र प्रभावित होता है।
- ध्यातव्य है कि दक्षिण-पश्चिम मानसून के निर्माण के दौरान बंगाल की खाड़ी/अरब सागर की ओर से आने वाली हवाएँ तिब्बत के पठार पर बने निम्न-दाब क्षेत्र की ओर आकर्षित होती हैं।यह भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून के आगमन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
मानसून के मौसम में सूखा
- अनुसंधान के अनुसार, पिछली सदी में जिन वर्षों में अल-नीनो की घटनाएँ नहीं हुईं, उस दौरान भारत में मानसूनी मौसम में जो सूखे की घटनाएँ देखी गईं, वे उप-मौसमी कारणों का परिणाम थीं।
- उत्तरी अटलांटिक विक्षोभ के कारण सूखे की परिघटना अल-नीनो के दौरान पड़ने वाले सूखे से इस रूप में भिन्न है कि इस दौरान भारत में मानसून कमज़ोर रहता है।
सूखे की स्थिति : तुलनात्मक अध्ययन
- साइंस जर्नल के इस अनुसंधान में वर्ष 1900 से 2015 तक सूखे की उपरोक्त दोनों श्रेणियों में दैनिक वर्षा का विश्लेषण किया गया, इस विश्लेषण में वर्षा की कमी के कारणों में नाटकीय अंतर देखा गया।
- अल-नीनो के दौरान जून के मध्य से वर्षा की कमी शुरू हो जाती है जो उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, अगस्त के मध्य तक अल्प वर्षा की स्थिति बनी रहती है;धीरे-धीरे इस स्थिति का प्रसार पूरे देश में होने लगता है।
- जिन वर्षों में अल-नीनो की घटना नहीं देखी गई, उस दौरान पड़ने वाले सूखे में जून माह में वर्षा की स्थिति मध्यम रही। इसके बाद मध्य-जुलाई से मध्य-अगस्त (भारत में सर्वाधिक वर्षा का समय) तक वर्षा की स्थिति में सुधार देखने को मिला। फिर अगस्त के अंत में वर्षा में अचानक बहुत अधिक कमी आ जाती है और पुन: सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
अनुसंधान कार्य
- अनुसंधान में, अगस्त के अंत में भारतीय मौसम के व्यवहार को प्रभावित करने वाले घटकों का पता लगाने के क्रम में, अल-नीनो की अनुपस्थिति वाले वर्षों में पड़ने वाले सूखे के समय चलने वाली हवाओं पर ध्यान दिया गया।
- यह अध्ययन, विशेष रूप से प्रशांत क्षेत्र में प्रचलित संकेतकों की अनुपस्थिति में सूखे की बेहतर भविष्यवाणी के लिये एक नया अवसर प्रदान करता है।
- साथ ही, इस अनुसंधान में मानसून और इसकी परिवर्तनशीलता के साथ-साथ सूखे की स्थिति के बेहतर पूर्वानुमान के लिये प्रशांत और हिंद महासागर के अलावा मध्य अक्षांशों के प्रभाव को भीमॉडल प्रयासों में शामिल किया जाना चाहिये।
4.विषय – शक्ति अधिनियम
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 1 : विषय– महिलाओं की भूमिका उनके रक्षोपाय)
चर्चा में क्यों?
- महाराष्ट्र में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों पर अंकुश लगाने के लिये, राज्य मंत्रिमंडल ने ‘शक्ति अधिनियम’ को प्रस्तुत किया है।इस अधिनियम को विगत वर्ष आंध्र प्रदेश द्वारा लाए गए दिशा अधिनियम की तर्ज पर लाया गया है।
शक्ति अधिनियम : प्रमुख प्रावधान
- इस अधिनियम में दोषियों को मौत की सजा के साथ ही भारी जुर्माने सहित कड़ी सजा का प्रावधान है।
- महिलाओं और बच्चों के खिलाफ मामलों की जाँच और परीक्षण के लिये विशेष पुलिस बल और अलग अदालतें स्थापित की जाएंगी।
- अपराधियों को दोषी पाए जाने पर कम से कम दस वर्ष के लिये कारावास की सजा दी जाएगी लेकिन अपराध के जघन्य होने की स्थिति में इस अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है।
- प्लास्टिक सर्जरी और चेहरे के उपचार के लिये एसिड अटैक पीड़ित को 10 लाख रुपए की राशि दी जाएगी और यह राशि दोषी से जुर्माने के रूप में एकत्र की जाएगी।
- अपराध दर्ज किये जाने की तारीख से 15 कार्य दिवसों के भीतर जाँच पूरी हो जानी चाहिये, विशेष परिस्थितियों में इसे 7 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है।
- चार्जशीट दायर होने के बाद, मुकदमा प्रतिदिन के आधार पर लड़ा जाएगा और 30 कार्य दिवसों की अवधि के भीतर पूरा किया जाएगा।
- कुछ मामलों में पीड़ितों और गवाहों के सबूतों की रिकॉर्डिंग कैमरे के द्वारा की जाएगी।
आगे की राह
- कई कानूनों के बावजूद बलात्कार की घटनाओं को रोका नहीं जा पा रहा है। वास्तव में, अब अत्यधिक क्रूरता के मामले सामने आने लगे हैं।
- यह कानून बलात्कार के मामलों में जाँच को तेज़ और ट्रायल को फास्ट ट्रैक करने का प्रावधान करता है।
- बेहतर पुलिसिंग की ज़रूरत है, जिससे सार्वजनिक स्थानों को महिलाओं के लिये सुरक्षित बनाया जा सके, अलग-अलग क्षेत्रों की चौबीसों घंटे निगरानी सुनिश्चित की जा सके और ज़रूरी स्थानों पर पुलिस की तैनाती की जा सके।
- बलात्कार के मामलों में सज़ा से ज़्यादा इस तरह की घटनाओं को रोका जाना ज़्यादा ज़रूरी है और इसके लिये सभी हितधारकों की ओर से ठोस प्रयासों की आवश्यकता है।
- यह ध्यान देना आवश्यक है कि सिर्फ कठोर सज़ा के कारण अपराधी अपराध नहीं छोड़ देगा बल्कि अपराधियों में पकड़े जाने का डर और फिर बच के ना निकल पाने का डर का होना अधिक ज़रूरी है।
5.विषय – सहारा मरुस्थल की धूल और आर्कटिक उष्मन
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 : विषय– महत्त्वपूर्ण भू–भौतिकीय घटनाएँ, भौगोलिक विशेषताएँ और उनके स्थान– अति महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताएँ और वनस्पति एवं प्राणिजगत में परिवर्तन व इसके प्रभाव)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार जून 2020 में आर्कटिक पर समुद्री-बर्फ का आवरण पहले की अपेक्षा कम था, अर्थात् बड़ी मात्रा में वहां की बर्फ पिघली है।
- ऐसा अनुमान है कि सहारा मरुस्थल से उठने वाली धूल ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। इसे वैश्विक तापन के एक संकेत के रूप में समझा जाना चाहिये।
मुख्य बिंदु
- धूल पृथ्वी के वायुमंडल का एक महत्त्वपूर्ण घटक है, जिसका व्यापक प्रभाव मानव स्वास्थ्य तथा जलवायु पर पड़ता है।
- सहारा रेगिस्तान दुनिया भर में धूल का सबसे बड़ा स्रोत है। जून 2020 में यहाँ से अमेरिका में सबसे बड़े और घने धूल के बादल भी पहुँचे, जिसने अब तक के धुल से जुड़े सभी रिकॉर्डों को तोड़ दिया था।
- सैन डिएगो में स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशिनोग्राफी के वायुमंडलीय वैज्ञानिकों ने उन स्थितियों के बारे में पता लगाया है, जब 2020 में यह तूफान आया था। कुछ शोधकर्ताओं ने इस धूल के तूफान को ‘गॉडज़िला’ नाम दिया था।
- धूल का यह तूफ़ान 6,000 मीटर की ऊँचाई तक पहुँच गया था। अटलांटिक महासागर के ऊपर कुछ स्थानों में, इसकी मोटाई दोगुनी थी।
- संयुक्त अरब अमीरात में खलीफा विश्वविद्यालय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के वैज्ञानिकों ने धूल के तूफान की भयावहता को एक प्रकार के उच्च दबाव प्रणाली के विकास द्वारा स्थापित स्थितियों के लिये ज़िम्मेदार ठहराया।
- इसने पश्चिम अफ्रीका पर उत्तर-दक्षिण दबाव को बढ़ा दिया था, जिससे उत्तर-पूर्वी हवाएँ लगातार तेज़ी से बह रही थीं। सहारा पर उत्तरी हवाओं के तेज़ होने से जून 2020 की दूसरी छमाही में कई दिनों तक लगातार धूल की मात्रा में वृद्धि होती रही।
- माना जाता है कि आर्कटिक क्षेत्र के गर्म होने से मध्य अक्षांशों और उपग्रहों में हवा के पैटर्न में बदलाव होता है और मौसम की गम्भीर घटनाएँ घटित होती हैं, हालाँकि इस अवधारणा को लेकर वैज्ञानिकों में मतभेद है।
धूल का वैश्विक प्रभाव
- दुनिया भर में हवा के माध्यम से फैलने वाली धूल के अनेक परिणाम होते हैं, जो मौसम से लेकर विमान यात्रा तक विभिन्न चीज़ों को प्रभावित करते हैं।
- धूल के स्रोत हज़ारों मील दूर महाद्वीपों पर मिट्टी की उर्वरता को भी बढ़ाते हैं। धूल के द्वारा महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्व जैसे लोहा और अन्य खनिज इन महाद्वीपों पर पहुँचते हैं। ये पोषक तत्त्व महासागर पारिस्थितिक तंत्र को भी प्राप्त होते हैं।
- यह भी माना जाता है कि धूल की चादर से समुद्र की सतह से सूर्य की रोशनी वापस चली जाती है जिससे यह ठंडा हो जाता है, जो चक्रवात के लिये उपलब्ध ऊर्जा की मात्रा को कम कर देता है।
6.विषय – विश्व धरोहर सिंचाई संरचना
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 : कला एवं संस्कृति)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, ‘सिंचाई एवं जल निकासी पर अंतर्राष्ट्रीय आयोग’ (WHIS) द्वारा भारत के चार स्थलों को विश्व धरोहर सिंचाई संरचना स्थल के रूप में मान्यता दी गयी है।
शामिल किये गए स्थल
- इसमें आंध्र प्रदेश का कुंबुम टैंक, कुर्नूल-कुडापाह नहर, पोरुमामिल्ला टैंक (अनंतराज सागरम) तथा महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग ज़िले में 490 वर्ष पुरानी झील धामपुर शामिल हैं।
- वर्ष 2018 में तेलंगाना के कामरेड्डी ज़िले में स्थित पेद्दा चेरू टैंक तथा निर्मल ज़िले में स्थित सदरमट एनीकट को डब्ल्यू.एच.आई.एस. स्थल के रूप में नामित किया गया था।
शामिल अन्य स्थल
- विश्व स्तर पर अन्य मान्यता प्राप्त स्थलों में इस वर्ष चीन की 4, ईरान की 2, तथा जापान की 3 संरचनाएँ शामिल की गई हैं। 42 स्थलों के साथ जापान में अब इन स्थलों संख्या सबसे अधिक है, जबकि चीन में 23 तथा भारत, ईरान और श्रीलंका के 6-6 स्थल शामिल हैं।
- प्रत्येक देश में इससे सम्बंधित एक राष्ट्रीय समिति होती है जो अपने स्थलों के बारे में आई.सी.आई.डी. के साथ जानकारी साझा करती है। जिसके पश्चात इसे अंतर्राष्ट्रीय जूरी को सौंपा जाता है।
क्या हैं मानदण्ड?
- डब्ल्यू.एच.आई.एस. का दर्जा प्राप्त करने के लिये प्रमुख मानदंड यह हैं कि कोई संरचना 100 वर्ष से अधिक पुरानी, कार्यात्मक, खाद्य सुरक्षा प्राप्त और अभिलेखीय मूल्य की होनी चाहिये।
- सर्वप्रथम राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक स्थल के गुणों के आधार पर उसका मूल्यांकन किया जाता है और प्रस्ताव केंद्र को भेजा जाता है, फिर सी.डब्ल्यू.सी. (Central Water Commission) की एक टीम विवरणों को सत्यापित करने के लिए ज़मीनी सर्वेक्षण (ऑन-ग्राउंड) करती है।
सिंचाई एवं जल निकासी पर अंतर्राष्ट्रीय आयोग (International Commission on Irrigation and Drainage-ICID)
- आई.सी.आई.डी. वर्ष 1950 में स्थापित सिंचाई, जल निकासी और बाढ़ प्रबंधन विशेषज्ञों का एक वैश्विक गैर-लाभकारी, गैर-सरकारी संगठन है जो प्रतिवर्ष यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों की भांति अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सिंचाई संरचनाओं को मान्यता देता है।
- इसका मुख्य उद्देश्य दुनिया भर की सभ्यताओं में सिंचाई के विकास सम्बंधी इतिहास की पहचान कर ‘सतत् कृषि जल प्रबंधन’ को बढ़ावा देना है। साथ ही, इन संरचनाओं के माध्यम से सतत् सिंचाई के दर्शन और ज्ञान को समझकर उन्हें भावी पीढ़ियों के लिये संरक्षित करना है।
धामपुर झील
- धामपुर झील द्वारा प्रत्येक वर्ष 237 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जाती है। इस झील को जल की प्राप्ति कावड़ेवाड़ी और गुरुमवाड़ी बांध से निकलने वाली दो धाराओं से होती है। यह स्थल धामपुर और काल्से के ग्रामीणों द्वारा वर्ष 1530 में बनाया गया था।
- धामपुर झील भारत में शीर्ष 100 आर्द्रभूमि में से एक है, जिसकी पहचान केंद्र सरकार ने तेज़ी से बहाली और सुधार के लिये की है। इसे महाराष्ट्र सरकार द्वारा रामसर साइट (अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्रभूमि) के रूप में प्रस्तावित किये जाने की उम्मीद है। इस वेटलैंड में 193 पुष्प और 247 पशुवर्गीय प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
GS-2 मेन्स
1.विषय – विश्व धरोहर स्थलों का संरक्षण और आदिवासी एवं देशज लोगों के अधिकार
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र : 2 – अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय)
संदर्भ
- यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थलों (प्राकृतिक) तथा जैव विविधता के संरक्षण के लिये किये जा रहे उपायों से पश्चिमी घाट में निवास करने वाले आदिवासियों तथा वहाँ के देशज लोगों के अधिकार प्रभावित हो रहे हैं।
- साथ ही, उन्हें उनके प्राकृतिक आवासों से भी दूर किया जा रहा है, जो कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत उनको प्राप्त वन अधिकारों का उल्लंघन है।
पृष्ठभूमि
- वर्ष 2012 में पश्चिमी घाट के 39 ऐसे क्षेत्र जिनमें राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य तथा आरक्षित वन शामिल हैं, यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित किये गए थे।
- ये सभी प्राकृतिक स्थल जैव विविधता की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इन घोषित विश्व विरासत स्थलों में से 10 स्थल कर्नाटक में हैं।
आदिवासियों तथा देशज लोगों की चिंताएँ
- पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा इन विरासत स्थलों को पहचानने की प्रक्रिया शुरू होने से पश्चिमी घाट के आदिवासी तथा देशज लोग चिंतित हैं।
- दशकों से इस क्षेत्र में बसे हुये इन देशज लोग को अपने भूमि संबंधी अधिकारों के समाप्त होने की आशंका है।
- इन क्षेत्रों को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील घोषित किया गया है, जिससे इनमें चयनित गतिविधियाँ प्रतिबंधित होती हैं, जिस कारण ये आदिवासी तथा देशज लोग और भी असंतुष्ट हैं।
- वन अधिकार अधिनियम, 2006 के लागू होने तथा वर्ष 2007 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थानीय निवासियों के अधिकारों की घोषणा के पश्चात पश्चिमी घाट में रहने वाले इन आदिवासी तथा देशज लोगों का विश्व धरोहर स्थलों की घोषणा के उपरांत अपने भविष्य के प्रति अनिश्चितता का सामना करना अवश्य ही चिंताजनक है।
पश्चिमी घाट में निवास करने वाली जनसंख्या की संरचना
- कर्नाटक की कुल जनसंख्या का 6.95% भाग आदिवासी जनसंख्या का है। इस जनसंख्या में विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (PVTGs) सहित पश्चिमी घाट के देशज लोगों का हिस्सा 44.2% है।
- पश्चिमी घाट में गुवालिस, कुनबीस, हलाक्की वक्कला, कारे वक्कला, कुंबी और कुलवाड़ी मराठी जैसे समुदायों बड़ी संख्या में निवास करते हैं।
- वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत वे ‘अन्य परंपरागत वन निवासी’ के रूप में रह रहे हैं। इस अधिनियम के अनुसार उन लोगों को ‘अन्य परंपरागत वन निवासी’ माना गया था जो पिछली तीन पीढ़ियों अर्थात् पिछले 75 वर्षों से इन वनों में रह रहे हैं और जीविकापार्जन के लिये वन भूमि का उपयोग करते हों।
- ये लघु वनोत्पाद, जैसे- दालचीनी, कोकम आदि को एकत्रित करके अपनी जीविका का निर्वाह करते हैं।
कर्नाटक में वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन की स्थिति
- कर्नाटक ‘वन अधिकार अधिनियम’ को लागू करने में अन्य राज्यों की तुलना में असफल रहा है।
- जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अनुसार, 30 अप्रैल 2018 तक राज्य ने वन अधिकार हेतु प्रस्तुत किये गए कुल दावों में से केवल 7% को ही मान्यता दी थी और राज्य का दावा था कि उसने 70% मामलों का निपटान कर दिया है।
- साथ ही, आदिवासियों द्वारा किये गए दावों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों द्वारा किए गए दावों को निपटाने में सरकार के दृष्टिकोण में स्पष्ट असंगति दृष्टिगोचर होती है।
- आँकड़ों के अनुसार, कुल प्रस्तुत दावों में 5% दावे आदिवासियों द्वारा किये गए थे जिनमे से लगभग सभी का निपटान कर दिया गया, जबकि अन्य दावों को वैध साक्ष्य के अभाव में खारिज कर दिया गया। इसका आशय यह है कि अन्य पारंपरिक वन निवासियों द्वारा प्रस्तुत दावों को असंगत माना गया।
वास्तविक परिदृश्य
- इस पूरे मुद्दे के संदर्भ में यह विचार सही नहीं है कि आदिवासियों या अन्य पारंपरिक वन निवासियों को वन अधिकारों से वंचित करना संरक्षण का उद्देश्य है।
- कानून के अनुसार, संरक्षण के लिये केवल उन भूमियों को मान्यता दी जाती है जहाँ लोग 13 दिसंबर 2005 की तुलना में, बाद के समय में अपना दावा सिद्ध नहीं करते हैं।
- इसके अतिरिक्त, पारंपरिक वन निवासियों द्वारा दावा की गई भूमि का संयुक्त विस्तार तुलनात्मक रूप से उस भूमि से कम है जो बाँध-निर्माण, खनन, विद्युत संयंत्रों और रेलवे लाइनों एवं सड़कों के निर्माण हेतु प्रयुक्त हुई है।
- सरकार के आँकड़ो के अनुसार वन संरक्षण अधिनियम लागू होने से पूर्व ही वर्ष 1980 तक 43 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र पर कानूनी एवं अवैध रूप से अतिक्रमण कर लिया गया था।
- हालाँकि वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद भी वन संरक्षण की दिशा में विशेष परिवर्तन नहीं आया है।
- जैव विविधता के संरक्षण के लिये देशज लोगों को अपने प्राकृतिक आवास से अलग करने संबंधी अपनाया गया दृष्टिकोण उनके और संरक्षणवादियों के मध्य संघर्ष का मूल कारण है।
- इस दृष्टिकोण से संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन का विचार पूरी तरह से विफल सिद्ध हो चुका है।
- ग्लोबल एन्वायरनमेंट आउटलुक रिपोर्ट में भी यह उल्लेख किया गया है कि विश्वभर में संरक्षित क्षेत्र का तो विस्तार हो रहा है परंतु जैव विविधता का ह्रास हुआ है।
- इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि अन्य उपायों की तुलना में आदिवासी समूह या अन्य पारंपरिक वन निवासी प्रकृति के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
आगे की राह
- पश्चिमी घाट को विश्व धरोहर स्थल के रूप में घोषित करना इस क्षेत्र की समृद्ध जैव विविधता को संरक्षित करने के लिये उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि वनों पर निर्भर लोगों के अधिकारों को मान्यता देना।
- इसके लिये यह आवश्यक है कि जैव विविधता के संरक्षण के लिये इस प्रकार के उपाय किये जाएँ जो वन निवासियों के अधिकारों का भी हनन न करें।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इस बात की पुष्टि की गई है कि जैव विविधता को संरक्षित करने के लिये उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को कानूनी रूप से सशक्त होना चाहिये।
- वन अधिकार अधिनियम इस उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये एक आदर्श साधन है। इसे धरातल पर साकार रूप देने के लिये सरकार को चाहिये कि वह क्षेत्र में अपनी एजेंसियों और वनों पर निर्भर लोगों के बीच विश्वास कायम करने के प्रयास करे।
- यह विश्वास कायम करने के लिये आवश्यक है कि उन्हें भी देश के बाकी सभी नागरिकों के समान समझा जाए।
अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006
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2.विषय -भारत-नेपाल सम्बंध – नए आयाम
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी सम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय व वैश्विक समूह)
भूमिका
- हाल ही में, सम्बंधों को सामान्य बनाने के क्रम में भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने नेपाल की यात्रा की। विनाशकारी भूकम्प के बाद नेपाल में वर्ष 2015 में पांच महीने की नाकेबंदी के बाद से भारत और नेपाल के सम्बंध तनावपूर्ण रहे हैं।
- नेपाल के आर्थिक और राजनीतिक मामलों में चीन के बढ़ते हस्तक्षेप और भारत के साथ सीमा-विवाद के कारण भी दोनों देशों के मध्य सम्बंध सामान्य नहीं हैं।
एक–दूसरे के प्रति अपरिवर्तनशील दृष्टिकोण
- भारत- नेपाल सम्बंध कभी भी विवाद मुक्त नहीं रहे हैं, क्योंकि दोनों पक्षों के दृष्टिकोण में अभी तक बदलाव नहीं आया हैं।
- नेपाल के राजनेता और राजनीतिक दल राष्ट्रवादी होने और स्वंय को भारत-विरोधी दिखाने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं, विशेषकर चुनाव से पहले ये इस तरह की भावना को बढ़ाते हैं और इस प्रतिस्पर्धा में लगे रहते हैं कि कौन अधिक राष्ट्रवादी हो सकता है।
- वर्ष 2017 के चुनाव में प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने स्वयं को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया जो नाकेबंदी के दौरान भारत के विरुद्ध खड़ा था और इससे चुनाव में उनको फायदा भी पहुँचा।
- साथ ही, नेपाल के नक्शे में नया क्षेत्र जोड़कर उन्होंने फिर से राष्ट्रवादी भावनाओं को हवा दी। यह उनकी सरकार का कोविड-19 महामारी के दौरान खराब प्रबंधन से ध्यान हटाने का एक अच्छा प्रयास था।
- भारत की सोच है कि वह नेपाल में सहायता व विकास परियोजनाओं को गति प्रदान करके नेपालियों के दिल में जगह बना सकता है, परंतु नेपाल में दशकों से अरबों रुपए लगाने के बावज़ूद भी ऐसा नहीं हो पाया है।
भारत और चीन द्वारा नेपाल को दी जाने वाली सहायता में नीतिगत अंतर
- भारत और चीन द्वारा नेपाल को प्रदान की जाने वाली सहायता में नीतिगत अंतर के लिये दो मुद्दों को समझना जरूरी है।
- सबसे पहले, भारत और चीन के अलावा अन्य देशों द्वारा नेपाल को दी जाने वाली सभी प्रकार की सहायता नेपाल सरकार की योजनाओं के माध्यम से दी जाती है। नेपाल में भारतीय सहायता को ऐसे रूप में देखा जाता है, जैसे भारत, नेपाल के नियोजित विकास में योगदान देने की बजाय उसका समर्थन प्राप्त करना चाहता है।
- दूसरा, भारत को नेपाल के सरकारी बजट के बाहर सहायता प्रदान करने में चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और इसके लिये चीन धरातल पर दिखाई देने वाली व मूर्त परियोजनाओं के साथ-साथ रणनीतिक अवस्थिति की परियोजनाओं को चुनता है।
- अप्रैल, 2015 के भूकम्प के बाद से नेपाल में चीनी भागीदारी बढ़ी है और नेपाल निश्चित रूप से चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में रणनीतिक प्रभाव वाला एक क्षेत्र है।
भारत और नेपाल के मध्य जन–से–जन सम्पर्क
- इस यात्रा के दौरान विदेश सचिव ने जन-से-जन सम्पर्क का मुद्दा उठाया, जो कि एक स्वागत योग्य कदम है। हालाँकि, इसमें पिछले दो दशकों में दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखे गए हैं।
- पहला यह कि नेपाल के श्रम कार्यबल में भारत एक बड़ा हिस्सेदार है और उनके द्वारा प्रत्येक वर्ष लगभग 3 बिलियन डॉलर भारत भेजा जाता हैं। भारत को धन-प्रेषण के मामले में नेपाल आठवें स्थान पर है, इसलिये सरकार को यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि भारत में कई परिवारों की जीविका नेपाल से प्रेषित धन पर निर्भर करती है।
- चूँकि पिछले 20 वर्षों में नेपालियों ने सौ से अधिक देशों में प्रवास किया है अत: यह भी समझने की आवश्यकता है कि अब नेपाली नौकरियों या शिक्षा के लिये भारत पर अधिक निर्भर नहीं रहे है।
- नेपाल की लगभग तीन-चौथाई आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है। इनसे जुड़ाव के लिये भारत को अब अलग तरीके से रणनीति बनाने की आवश्यकता है।
- साथ ही, नेपाल को भी भारतीय युवाओं जुड़ने का प्रयास करना चाहिये।
जन–से–जन सम्पर्क (People-to-people ties)
- ‘पीपुल-टू-पीपल’ सम्पर्क का अर्थ है दो देशों के आम नागरिकों के मध्य विभिन्न स्तरों पर बिना किसी आधिकारिक हस्तक्षेप और मार्गदर्शन के बातचीत। हालाँकि, इस तरह के सम्पर्क के लिये उन्हें उचित वीज़ा और यात्रा दस्तावेज प्राप्त करने होते हैं, परंतु उसके बाद राज्य की भूमिका वहीं समाप्त हो जाती है।
- इस तरह के सम्पर्क पेशेवर निकायों, जैसे- बार काउंसिल, व्यापारिक मंडलों व संघों, उद्योगपतियों के समूहों, शैक्षिक संस्थानों व कलाकारों, संगीतकारों, गायकों, फिल्मी हस्तियों, खिलाड़ियों और महिलाओं आदि के माध्यम से हो सकते हैं।
प्रख्यात व्यक्तियों का समूह
- पिछले पांच वर्षों में, सम्बंधों को सामान्य बनाने की दिशा में आशा की एकमात्र झलक ‘प्रख्यात व्यक्तियों के समूह’ (Eminent Persons Group) का निर्माण करना था। हालाँकि, इस समूह को रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद भंग कर दिया गया था और इस रिपोर्ट पर आज तक कोई चर्चा नहीं हुई है।
- विदेश सचिव ने अपने नवीनतम दौरे में ‘प्रख्यात व्यक्ति समूह’ के मुद्दे पर कोई बात नहीं की है। साथ ही, दोनों सरकारों द्वारा जारी किये गए संयुक्त बयान में भी कुछ नया नहीं है।
निष्कर्ष
- कुछ बुनियादी बातों को ध्यान रखने की आवश्यकता है, जैसे दोनों देशों के भूगोल को नहीं बदला जा सकता है और दोनों देशों की सीमाएँ भी खुली रहेंगी, क्योंकि दोनों तरफ लाखों लोगों की आजीविकाएँ एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
- इसके अतिरिक्त, चीन पड़ोस में विभिन्न हितों के साथ एक बड़ा वैश्विक नेता बनने की ओर अग्रसर है। इसी परिप्रेक्ष्य में भारत-नेपाल सम्बंधों को बेहतर करने के लिये विशेष रणनीति बनाने की आवश्यकता है।
3.विषय -चुनावी बॉण्ड और सूचना का अधिकार
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : शासन व्यवस्था) संदर्भ
- केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) के एक हालिया आदेश ने वर्ष2018 की चुनावी बॉण्ड योजना (Electoral Bond Scheme) में अंतर्निहित समस्याओं को एक बार फिर से उजागर कर दिया है।
वर्तमान मुद्दा
- केंद्रीय सूचना आयोग ने भारतीय स्टेट बैंक के उस तर्क को सही ठहराया है, जिसमें कहा गया है कि आर.टी.आई. अधिनियम के तहत दान या चंदा दाताओं, प्राप्तकर्ताओं और उसके विवरण को प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है।
- भारतीय स्टेट बैंक के खिलाफ दायर एक अपील के संदर्भ में सी.आई.सी. ने यह मत व्यक्त किया है। इस निर्णय से सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के तहत चुनावी बॉण्ड से संबंधित दान दाताओं और प्राप्तकर्ताओं के बारे में किसी प्रकार का विवरण प्राप्त करने के सभी प्रभावी रास्ते बंद हो गए हैं।
योजना में निहित समस्या
- इस योजना के अंतर्गत राजनीतिक दान देने वालों की पहचान छुपाने के साथ-साथ दान की राशि को भी गुप्त रखा जाता है। वास्तव में यह योजना अपारदर्शी और मनमानी को बढ़ावा देने वाली है।
- इस प्रकार, इस योजना में दोनों पक्षों को अघोषित लाभ पहुँचाने की व्यवस्था है, जिसमें राजनीतिक दल और अधिकांशत: कॉर्पोरेट शामिल हैं। ऐसी व्यवस्था चुनावी लोकतंत्र की सर्वोत्तम प्रथाओं के विरुद्ध होने के साथ-साथ वाक व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के भी प्रतिकूल है।
- ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ’ (2003) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वाक व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के बारे में जानकारी प्राप्त करना मतदाताओं का मौलिक अधिकार है।
आर.टी.आई. अधिनियम का दुरुपयोग
- यह योजना एस.बी.आई. के माध्यम से राजनीतिक दलों को दान देने के लिये बैंकिंग सुविधा उपलब्ध कराती है। इससे संबंधित सूचना को सार्वजनिक न करने के संबंध में एस.बी.आई. ने आर.टी.आई. अधिनियम की धारा 8 के तहत प्रदत्त दो आधारों का प्रयोग किया है, जो सूचना के प्रकटीकरण के लिये कुछ छूट प्रदान करता है।
- पहला, जो जानकारी माँगी गई है उसमें प्रत्ययी संबंध या विश्वास के रिश्ते (Fiduciary Capacity) का प्रश्न न हो और दूसरा इसमें कोई सार्वजनिक हित न शामिल हो।
- धारा 8 (2) के अनुसार, यदि सार्वजनिक हित किसी व्यक्ति/संस्थान के संरक्षित हितों के नुकसान से अधिक महत्त्वपूर्ण है तो ऐसी जानकारी माँगी जा सकती है। हालाँकि, यह बाध्यकारी नहीं है और केंद्रीय सूचना आयोग इस मामले में निर्णय लेने में स्वतंत्र है, जिसका दुरूपयोग किया जाता रहा है।
- राजनीतिक मामले में जनहित निर्विवाद रूप से संरक्षित हितों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। साथ ही, सी.आई.सी. ने पहले के एक आदेश में राजनीतिक दलों को आर.टी.आई. अधिनियम के तहत सार्वजनिक प्राधिकरण माना है।
- दान दाताओं से पार्टियों को प्राप्त धन मतदाताओं के लिये स्वाभाविक रूप से उनके वित्तपोषण और कार्यप्रणाली को समझने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- अत: इस मुद्दे को सार्वजनिक महत्त्व का न मानना सी.आई.सी. की विफलता को दर्शाता है। साथ ही, तकनीकी आपत्तियों का सहारा लेना आर.टी.आई. अधिनियम के उद्देश्य को ही प्रभावित करता है।
अंतिम मध्यस्थ
- सी.आई.सी. का आदेश चुनावी बॉण्ड और इसी प्रकार की अन्य सहवर्ती जानकारी के संबंध में किसी भी आर.टी.आई. अनुरोध पर रोक लगा देता है।
- इस योजना के संबंध में कानून का निर्धारण करने और केंद्रीय सूचना आयोग के निर्णय की व्याख्या करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है।
- चुनावी बॉण्ड और इसकी पारदर्शिता के संबंध में ए.डी.आर. (ADR) और एक राजनीतिक दल द्वारा दायर याचिकाएँ विचाराधीन हैं। इसलिये, केंद्रीय सूचना आयोग के निर्णय को भी उच्चतम न्यायालय में सुना जा सकता है।
- इन याचिकाओं के संबंध में चुनाव आयोग ने वर्ष 2017 में उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हलफनामे में कहा कि राजनीतिक दलों को प्राप्त दान और उसके खर्च के तरीकों की घोषणा चुनाव प्रक्रिया में बेहतर पारदर्शिता तथा जवाबदेही के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
निष्कर्ष
- राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के बारे में सार्वजनिक जानकारी स्वतंत्र और निष्पक्ष लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अनिवार्य तथा अपरिहार्य हिस्सा है। राजनीतिक वित्तपोषण से संबंधित जानकारी को गुप्त रखना लोकतंत्र के बुनियादी स्तंभों के ही विरुद्ध है।
- जब मतदाता को यह जानने की अनुमति है कि कोई उम्मीदवार कितने मुकदमों का सामना कर रहा है, तो उसे यह भी जानने का अधिकार होना चाहिये कि उस दल और उसके उम्मीदवार का खर्च कौन वहन कर रहा है?
- एक अनसुलझा कानून उतना ही खतरनाक होता है जितना की एक गलत कानून, अत: न्यायालय को निर्णायक रूप से चुनावी बॉण्ड की संवैधानिकता और संबंधित सवालों का निपटारा करना आवश्यक है।
4.विषय -नए भारतीय मिशन
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : अंतर्राष्ट्रीय संबंध)
संदर्भ
- हाल ही में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वर्ष 2021 में एस्टोनिया, पराग्वे और डोमिनिकनगणराज्य में 3 भारतीय राजनयिक मिशन खोलने को मंजूरी प्रदान की है।
- पराग्वे और डोमिनिकन गणराज्य दोनों ने वर्ष 2006 में भारत में राजनयिक मिशन स्थापित किये थे। विदित है कि सरकार ने वर्ष 2018 में 18 मिशन खोलने की घोषणा की थी। हालाँकि, उनमें से सभी को अभी तक स्थापित नहीं किया जा सका है।
कार्यान्वयन रणनीति
- इन देशों में भारतीय मिशन खोलने से भारत का राजनयिक दायरा बढ़ाने, राजनीतिक संबंधों को मज़बूत करने के साथ-साथ द्विपक्षीय व्यापार, निवेश और आर्थिक सहभागिता में वृद्धि करने में सहायता मिलेगी।
- साथ ही, इससे जन से जन संपर्क को मज़बूत करने, बहुपक्षीय मंचों में राजनीतिक पहुँच को बढ़ावा देने और भारत के विदेश नीति के उद्देश्यों के लिये समर्थन जुटाने में मदद मिलेगी।
- इन देशों में भारतीय मिशन वहाँ के भारतीय समुदाय और उनके हितों की रक्षा के लिये बेहतर तरीके से सहायता कर पाएंगे।
उद्देश्य
- भारत की विदेश नीति का उद्देश्य मित्र देशों के साथ सहभागिता के माध्यम से भारत की तरक्की और विकास के लिये एक अनुकूल वातावरण बनाना है। वर्तमान समय में पूरे विश्व में भारतीय मिशन और पोस्ट मौजूद हैं, जो साझेदार देशों के साथ संबंधों के वाहक के तौर पर कार्य करते हैं।
- इन तीन नए भारतीय मिशनों को खोलने का फैसला ‘सबका साथ सबका विकास’ या तरक्की व विकास को लेकर हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकता की प्राप्ति की दिशा में एक भविष्यगामी कदम है।
- भारत की अधिक राजनयिक उपस्थिति अन्य बातों के साथ-साथ भारतीय कंपनियों को बाज़ार तक पहुँच उपलब्ध करवाएगी और वस्तुओं व सेवाओं के निर्यात को बढ़ावा देगी।
- इसके अतिरिक्त, यह ‘आत्मनिर्भर भारत’ के लक्ष्य के अनुरूप घरेलू उत्पादन और रोज़गार को बढ़ाने में प्रत्यक्ष रूप से प्रभावी होगा।
राजनयिक मिशनों के प्रकार
दूतावास (Embassy)
- दूतावास एक राजनयिक मिशन होता है जो आम तौर पर दूसरे देश की राजधानी शहर में स्थित होता है। यह कॉन्सुलर (Consular) सेवाओं सहित कई अन्य सेवाएँ प्रदान करता है। राजदूत एक राज्य प्रमुख का दूसरे देश में प्रतिनिधि होता है और इसलिये यह कॉन्सुल (वाणिज्यक दूत) से अलग होता है। एक देश से दूसरे देश में केवल एक ही राजदूत हो सकता है, जबकि कॉन्सुल कई हो सकते हैं।
उच्चायोग/हाई कमीशन (High Commissions)
- उच्चायोग एक राष्ट्रमंडल देश का दूसरे राष्ट्रमंडल देश में स्थित दूतावास/राजनयिक मिशन है। राष्ट्रमंडल राष्ट्र के सदस्य के रूप में अन्य राष्ट्रमंडल सदस्यों की राजधानियों में स्थित भारतीय राजनयिक मिशनों को उच्चायोग के रूप में जाना जाता है।
सहायक उच्चायोग (Assistant High Commissions)
- राष्ट्रमंडल देशों के राजधानियों से इतर अन्य प्रमुख शहरों में स्थित अपने कुछ कॉन्सुलर मिशनों (Consular Missions) को भारत ‘सहायक उच्चायोग’ कहता है।
महावाणिज्यिक दूतावास (Consulates-General)
- महावाणिज्यिक दूतावास एक ऐसा राजनयिक मिशन है जो आमतौर पर राजधानी शहर के अलावा अन्य प्रमुख शहरों में स्थित होता है और कॉन्सुलर सेवाओं की एक पूरी शृंखला प्रदान करता है। हालाँकि, यूनाइटेड किंगडम में बर्मिंघम व एडिनबर्ग और श्रीलंका के हंबनटोटा शहर में स्थित कॉन्सुलर मिशनों को ‘वाणिज्य दूतावास-जनरल’ के नाम से जाना जाता है।
वाणिज्यिक दूतावास (Consulate)
- वाणिज्यिक दूतावास एक ऐसा राजनयिक मिशन है जो महावाणिज्य दूतावास के समान ही है, परंतु यह सेवाओं की एक पूरी शृंखला प्रदान नहीं कर सकता। वाणिज्यिक दूतावास एक राज्य की सरकार का दूसरे देश में एक आधिकारिक प्रतिनिधि होता है। यह आम तौर पर अपने देश के नागरिकों की सहायता व सुरक्षा करने तथा दोनों देशों के लोगों के बीच व्यापार व मित्रता को सुविधाजनक बनाने के लिये कार्य करता है।
मानद वाणिज्यिक दूतावास (Honorary Consul)
- मानद वाणिज्यिक दूतावास एक राजनयिक मिशन है, जो केवल सीमित सेवाएँ प्रदान करता है।
स्थायी मिशन (Permanent Mission)
- स्थायी मिशन किसी प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संगठन के लिये एक राजनयिक मिशन है।
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5.विषय -भारत की दो-तरफ़ा चुनौतियाँ
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी संबंध)
संदर्भ
- हाल के दिनों में भारत के समक्ष चीन-पाकिस्तान के रूप में दो-तरफ़ा सैन्य खतरे के रूप में दो-मोर्चों पर चुनौतियाँ (Two-Front War) उत्पन्न हुईं हैं। इस संदर्भ में टू-फ्रंट वॉर की वास्तविकता का आकलन करने के लिये क्षमता निर्माण और राजनीतिक व कूटनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
टू–फ्रंट वॉर संबंधी धारणाएँ
- टू-फ्रंट वॉर के संबंध में दो विपरीत धारणाएँ हैं; पहला, भारतीय सेना का दृष्टिकोण है कि चीन-पाकिस्तान के रूप में दो-तरफ़ा सैन्य खतरा एक वास्तविकता है जिसके लिये क्षमताओं का विकास करना आवश्यक है।
- दूसरी ओर, देश के राजनीतिक वर्ग और रणनीतिक समुदाय के अनुसार, अतिरिक्त संसाधनों व धन हेतु दबाव बनाने के लिये सेना द्वारा टू-फ्रंट वॉर की चुनौती का अधिक प्रचार किया जा रहा था।
- इस संबंध में तर्क है कि ऐतिहासिक रूप से चीन ने कभी भी भारत-पाकिस्तान संघर्ष में सैन्य हस्तक्षेप नहीं किया है। साथ ही, भारत और चीन के मध्य आर्थिक, कूटनीतिक एवं राजनीतिक संबंध दोनों देशों के बीच किसी भी तरह के सशस्त्र संघर्ष की संभावना को ख़ारिज करते हैं। परिणामस्वरूप, भारतीय रणनीतिक विचार पाकिस्तान पर अधिक केंद्रित रहा।
घुसपैठ और अतिक्रमण का प्रभाव
- भारतीय सेना के अनुसार चीन के साथ पारंपरिक संघर्ष की संभावना कम थी जबकि पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के कारण पश्चिमी सीमा पर संघर्ष की संभावना अधिक थी।
- इस वर्ष लद्दाख में चीनी घुसपैठ और भारतीय सेना तथा पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (चीन) के बीच झड़प के साथ बातचीत में गतिरोध ने चीनी सैन्य खतरे को अब अधिक स्पष्ट एवं वास्तविक बना दिया है।
- भले ही वर्तमान में सीमा पर जारी भारत-चीन संकट का शांतिपूर्ण समाधान हो जाए फिर भी चीन की सैन्य चुनौती आने वाले समय में भारतीय सैन्य रणनीतिकारों का ध्यान अधिक आकर्षित करेगी।
- पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा (LOC) पर स्थिति के लगातार बिगड़ने से टू-फ्रंट वॉर की स्थिति अधिक चिंताजनक हो गई है। वर्ष 2017 से 2019 के बीच संघर्ष विराम उल्लंघन में चार गुना वृद्धि हुई है।
चीन–पाकिस्तान सैन्य संबंध
- चीन-पाकिस्तान सैन्य संबंधो में प्रगाढ़ता कोई नई बात नहीं है परंतु वर्तमान में इसका प्रभाव पहले से कहीं अधिक है। चीन ने दक्षिण एशिया में भारत के प्रभाव को कम करने के लिये पाकिस्तान को हमेशा एक विकल्प के रूप में देखा है।
- पिछले कुछ वर्षों में इन दोनों देशों के बीच संबंध अधिक मज़बूत हुए हैं। साथ ही, इनकी रणनीतिक सोच में बहुत अधिक तालमेल भी दृष्टिगोचर होता है। वर्ष 2015 से 2019 के बीच पाकिस्तान के कुल हथियारों के आयात में चीन का हिस्सा 73% था।
- हाल ही में, चीन और पाकिस्तान के मध्य संपन्न शाहीन IX वायु सेना अभ्यास के बाद पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष ने कहा कि इससे दोनों वायु सेनाओं की युद्धक क्षमता में काफी सुधार होगा और उनके बीच अधिक सामंजस्य के साथ अंतर-संचालनीयता में भी वृद्धि होगी।
- टू-फ्रंट वॉर खतरे जैसे परिदृश्य में यदि चीन के साथ उत्तरी सीमा पर संघर्ष आरंभ हो जाता हैं तो ऐसी स्थिति में पाकिस्तान भारत की सैन्य व्यस्तता का लाभ उठाकर जम्मू-कश्मीर में उग्रवाद व आतंकवाद को बढ़ाने का प्रयास करेगा।
- हालाँकि, पाकिस्तान द्वारा बड़े पैमाने पर संघर्ष की संभावना नहीं है क्योंकि इससे तीन परमाणु सशस्त्र राज्यों के बीच युद्ध छिड़ जाएगा। साथ ही, युद्ध से पाकिस्तान को होने वाले लाभ की अपेक्षा उसकी अर्थव्यवस्था और सेना को दूरगामी नुकसान अधिक होंगे। अत: पाकिस्तान एक हाइब्रिड संघर्ष के रूप में कम जोखिम वाले विकल्प को प्राथमिकता देगा जिसमें युद्ध की संभावना न हो।
- विदित है कि हाइब्रिड युद्ध एक ऐसी सैन्य रणनीति है जिसमें राजनीतिक युद्ध के साथ-साथ पारंपरिक युद्ध, अनियमित युद्ध व साइबर युद्ध को शामिल किया जाता है। साथ ही, इसमें अन्य उपायों, जैसे- फर्जी समाचार, कूटनीति, कानूनी युद्ध और चुनाव में विदेशी हस्तक्षेप का भी प्रयोग किया जाता है।
भारत की दुविधा
- दो-मोर्चों पर संघर्ष की स्थिति में भारतीय सेना के सामने दो मुख्य समस्याएँ- संसाधन और रणनीति की हैं। दोनों पर गंभीर खतरे से निपटने के लिये लगभग 60 लड़ाकू स्क्वाड्रन की आवश्यकता है, जो भारतीय वायु सेना (IAF) के वर्तमान स्क्वाड्रन संख्या की दोगुनी है।
- दोनों मोर्चों पर अलग-अलग युद्ध का सामना करना स्पष्टत: न तो व्यावहारिक है और न ही इस स्तर का क्षमता निर्माण संभव है । साथ ही, प्राथमिक मोर्चे के लिये आवंटित किये जाने वाले संसाधनों की मात्रा भी महत्त्वपूर्ण है। यदि भारतीय सेना और भारतीय वायु सेना की अधिकांश युद्धक सामग्री उत्तरी सीमा की ओर भेज दी जाती है, तो उसे पश्चिमी सीमा के लिये अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता होगी।
- इसके अतिरिक्त, पाकिस्तान की ओर से हाइब्रिड संघर्ष की स्थिति में यदि भारतीय सेना पूरी तरह से रक्षात्मक रहती है तो यह पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर में अपनी गतिविधियों को जारी रखने और पश्चिमी मोर्चे पर अपनी भागीदारी को बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित कर सकता है।
- साथ ही, पाकिस्तान के खिलाफ अधिक आक्रामक रणनीति अपनाने से होने वाले व्यापक संघर्ष में सीमित संसाधनों की उपलब्धता एक समस्या होगी। अत: सिद्धांत के साथ-साथ क्षमता को विकसित करने की भी आवश्यकता है।
- सैद्धांतिक विकास के लिये राजनीतिक नेतृत्व के साथ नजदीकी विचार-विमर्श की आवश्यकता होगी क्योंकि राजनीतिक उद्देश्य तथा मार्गदर्शन के बिना तैयार किया गया कोई भी सिद्धांत जब निष्पादित किया जाता है तो वह खरा नहीं उतरता है।
- क्षमता निर्माण पर भी एक गंभीर बहस की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान आर्थिक स्थिति रक्षा बजट में किसी भी महत्त्वपूर्ण वृद्धि की अनुमति नहीं देती है।
कूटनीति का महत्त्व
- दो-तरफ़ा चुनौती का सामना करने के लिये कूटनीति की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसके लिये भारत को अपने पड़ोसियों के साथ बेहतर संबंध स्थापित करने होंगे। ताकि चीन और पाकिस्तान इस क्षेत्र में भारत को नियंत्रित करने, बाध्य करने और रोकने का प्रयास न कर सके।
- भारत को ईरान सहित पश्चिम एशिया के साथ ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने, समुद्री सहयोग, सद्भावना और संबंधो को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
- साथ ही, भारत को अमेरिका के कारण रूस से संबंध को कमजोर नहीं करना चाहिये क्योंकि रूस, भारत के खिलाफ क्षेत्रीय एकीकरण को प्रभावहीन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
- यहाँ तक कि क्वाड (भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका) और हिंद-प्रशांत की नई समुद्री रणनीति से महाद्वीपीय क्षेत्र में केवल चीन-पाकिस्तान के दबाव को कम किया जा सकता है।
कश्मीर
- टू-फ्रंट वॉर की चुनौती की वास्तविकता को समझते हुए पश्चिमी मोर्चे पर दबाव कम करने के लिये सर्वाधिक आवश्यकता राजनीतिक इच्छाशक्ति की है। कश्मीर में शांति कायम करने के उद्देश्य से लम्बे समय के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक पहुँच बढ़ाने और हल निकालने की आवश्यकता है।
- इससे पाकिस्तान के साथ संभावित तालमेल भी बढ़ सकता है, बशर्ते, उसको कश्मीर में आतंकवादी घुसपैठ पर रोक लगाने के लिये राजी किया जाए ।
- एक उभरते और आक्रामक महाशक्ति के रूप में चीन, भारत के लिये बड़ा रणनीतिक खतरा है और भारत के लिये चीन द्वारा तैयार की गई रणनीति में पाकिस्तान एक मोहरा है। अत: भारत केंद्रित चीन-पाकिस्तान नियंत्रित रणनीति के प्रभाव को राजनीतिक रूप से कम किया जा सकता है।
आगे की राह
- भारत को दो-मोर्चों पर खतरों का सामना करने के लिये तैयार रहना होगा। इसके लिये संभावित खतरे के स्वरुप और उसका मुकाबला करने के लिये आवश्यक क्षमता निर्माण के वास्तविक विश्लेषण की आवश्यकता है।
- भारत ने विमान, जहाज़ों और टैंकों जैसे प्रमुख प्लेटफार्मों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है जबकि भविष्य की तकनीकों, जैसे- रोबोटिक्स, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, साइबर, इलेक्ट्रॉनिक युद्ध आदि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। चीन और पाकिस्तान की युद्ध-लड़ने की रणनीतियों के विस्तृत आकलन के आधार पर सही संतुलन बनाने और नई तकनीक पर ध्यान देना होगा।
- इस प्रकार, किसी भी निश्चितता के साथ दो-मोर्चों पर संघर्ष को परिभाषित करना असंभव है। हालाँकि, इस खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है अत: इससे निपटने के लिये सिद्धांत के साथ-साथ क्षमता को विकसित करने की भी आवश्यकता है।
6.विषय -ब्रेक्जिट समझौते के बाद होने वाले बदलाव
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
संदर्भ
- यू.के. ने 47 वर्ष बाद यूरोपीय संघ की सदस्यता त्याग दी है। यू.के. और यूरोपीय संघ के मध्य ब्रेक्जिट के बाद आर्थिक संबंध और उसकी प्रकृति को लेकर चल रही 11 माह की संक्रमण अवधि 31 दिसम्बर को समाप्त हो जाएगी।
- इस अवधि के समाप्त होने से कुछ दिन पूर्व ही दोनों पक्षों ने व्यापार और सहयोग समझौता किया है। यूरोपीय संघ के राष्ट्रों द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकृत किया गया नया समझौता 1 जनवरी से लागू होगा।
- इस समझौते की पुष्टि यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के संसद द्वारा की जानी है और जब तक समझौते को औपचारिक रूप से अनुमोदित व हस्ताक्षरित नहीं किया जाता है, तब तक यह अनंतिम आधार पर लागू होगा।
01 जनवरी से होने वाले बदलाव : व्यापार
- यू.के. 31 दिसंबर को 23:00 जी.एम.टी. (GMT) पर यूरोपीय संघ के एकल बाज़ार और सीमा शुल्क संघ के साथ-साथ यूरोपीय संघ की सभी नीतियों तथा अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को त्याग देगा। सीमा शुल्क संघ के तहत यू.के. अब यूरोपीय संघ के अन्य सदस्य देशों के साथ अलग से बातचीत नहीं कर सकता है।
- इसका तात्पर्य यह है कि वस्तुओं, सेवाओं और पूँजी के साथ-साथ लोगों की मुक्त आवाजाही एक जनवरी से बंद हो जाएगी क्योंकि यूरोपीय संघ और ब्रिटेन अब अलग-अलग नियमों के साथ दो अलग-अलग बाज़ार बन जाएंगे।
- यूरोपीय संघ का सदस्य रहते हुए यू.के. अलग से अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ व्यापार वार्ता नहीं कर सकता था, लेकिन अब वह अपनी व्यापार नीति का निर्धारण कर सकेगा।
- साथ ही, एक मुक्त व्यापार समझौते के तहत यू.के. और यूरोपीय संघ ने 100% टैरिफ उदारीकरण पर सहमति व्यक्त की है, जिसका अर्थ है कि ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच आने-जाने वाले सामानों पर कोई टैरिफ या कोटा लागू नहीं होगा।
- कोई टैरिफ लागू न होने का अर्थ है कि वस्तुओं के व्यापार पर कोई कर नहीं लगेगा और शून्य कोटा का अर्थ है कि व्यापार के लिये वस्तुओं की मात्रा पर कोई सीमा नहीं होगी।
- यह पहला मौका है, जब यूरोपीय संघ किसी व्यापारिक भागीदार के साथ शून्य कोटा और शून्य टैरिफ के लिये सहमत हुआ है। हालाँकि, नए व्यापार समझौते के प्रभावी होने से कागजी कार्रवाई और लालफीताशाही बढ़ने की आशंका है।
यात्रा और मत्स्यन संबंधी बदलाव
- यू.के. और यूरोपीय संघ के बीच यात्रा करने वाले लोगों के लिये प्रवेश अभी भी वीज़ा मुक्त रहेगा, परंतु उनकी स्क्रीनिंग व जाँच हो सकती है और अब वे बायोमेट्रिक पासपोर्ट का उपयोग नहीं कर सकेंगे। साथ ही, यू.के. अब यूरोपीय संघ के डिज़ाइन को अपनाने से पूर्व जारी किये गए नीले पासपोर्ट पर लौट आएगा।
- इसके अलावा, यू.के. को अपने मछली पकड़ने वाले क्षेत्र पर संप्रभुता प्राप्त होगी जो वार्ता के प्रमुख बिंदुओं में एक था। यू.के. 31 दिसंबर को यूरोपीय संघ की सामान्य मत्स्य नीति को त्याग देगा परंतु वर्तमान नियम काफी हद तक संक्रमण काल (5 वर्ष तक) के दौरान बने रहेंगे।
- इसका आशय है कि यूरोपीय नौकाओं को यू.के. के मछली पकड़ने वाले क्षेत्र तक अधिक पहुँच प्राप्त होती रहेगी और दोनों पक्ष संयुक्त रूप से यूरोपीय संघ और यू.के. के जल क्षेत्र में मछली के स्टॉक का प्रबंधन करेंगे।
समझौते के अन्य पहलू
- इनमें मोबाइल रोमिंग जैसे मुद्दे शामिल हैं। यूरोपीय संघ के देशों और यू.के. के मध्य यात्रा करने वाले लोगों को रोमिंग शुल्क देना पड़ सकता है। हालाँकि, यह नेटवर्क ऑपरेटर पर निर्भर करेगा।
- साथ ही, एक जनवरी से इलेक्ट्रॉनिक्स और कपड़ों की टैक्स-फ्री एयरपोर्ट बिक्री (Tax-Free Airport Sales of Electronics and Clothing) बंद हो जाएगी। ब्रिटेन में जारी किये गए घरेलू पासपोर्ट यूरोपीय संघ में मान्य नहीं होंगे और यू.के. से आने वाले यात्री गैर-यूरोपीय संघ के देशों से आने वाले यात्रियों पर लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन होंगे।
- यह समझौता अंतर्राष्ट्रीय कानूनों पर आधारित है न कि यूरोपीय संघ के कानून पर अर्थात् यूरोपीय न्यायालय अब पुरानी भूमिका नहीं निभा सकता और न ही ब्रिटेन को अब यूरोपीय संघ के कानून का पालन करने की आवश्यकता है।
ब्रेक्जिट प्रक्रिया का प्रारंभ
- इसकी शुरुआत जनवरी 2013 में एक जनमत संग्रह की घोषणा के साथ हुई, जिसमें ब्रिटिश जनता को ब्रेक्जिट के पक्ष या विपक्ष में मतदान करना था। कैमरून के दूसरे कार्यकाल के दौरान यूरोपीय संघ के जनमत संग्रह अधिनियम, 2015 को पारित किया गया और जनमत संग्रह जून 2016 में आयोजित किया गया।
- ब्रेक्जिट 29 मार्च 2019 को होने वाला था परंतु सांसदों द्वारा यूरोपीय संघ के साथ ‘थेरेसा मे’ द्वारा किये गए सौदे को अस्वीकार करने के बाद 29 मार्च की समय सीमा दो बार विलंबित हुई।
- अंततः 2020 के प्रारंभ में यूरोपीय संघ को छोड़ने की औपचारिक घोषणा के बाद 11 माह की संक्रमण अवधि की शुरुआत हुई।
आयरिश बैकस्टॉप
- थेरेसा मे के बाद बोरिस जॉनसन ने पदभार संभाला। सांसदों के लिये सबसे महत्त्वपूर्ण बिंदुओं में से एक आयरिश बैकस्टॉप (Irish Backstops: उत्तरी आयरलैंड और आयरलैंड के बीच प्रस्तावित सीमा व्यवस्था) था जो उत्तरी आयरलैंड (यू.के. का एक हिस्सा) और आयरलैंड गणराज्य (यूरोपीय संघ का हिस्सा) के बीच सीमा की प्रकृति को नियंत्रित करता है।
- इस समझौते का आशय यह सुनिश्चित करना था कि उत्तरी आयरलैंड और आयरलैंड गणराज्य के बीच कोई कठोर सीमा न हो। जॉनसन के नेतृत्व में बैकस्टॉप हटा दिये गए और इसकी बजाय एक आयरिश सागर सीमा बनाई गई।
- अब, 1 जनवरी से उत्तरी आयरलैंड और यू.के. के बाकी हिस्सों के बीच एक नई व्यापार सीमा होगी, जिसका अर्थ है कि उत्तरी आयरलैंड अभी भी यूरोपीय संघ के एकल बाज़ार के अधीन होगा और उसके सीमा शुल्क नियमों का पालन करेगा।
7.विषय -देश की पहली न्यूमोकॉकल कॉन्जुगेट वैक्सीन ‘न्यूमोसिल’
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2, स्वास्थ्य)
संदर्भ
- हाल ही में, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (Serum Institute of India) ने स्वास्थ्य संगठन ‘पथ’ एवं ‘बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन’ के साथ मिलकर स्वदेशी रूप से विकसित देश की पहली न्यूमोकॉकल कॉन्जुगेट वैक्सीन’न्यूमोसिल’ विकसित की है।
प्रमुख बिंदु
- इस वैक्सीन का विकास देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल के लिये एक मील का पत्थर साबित होगा। न्यूमोकॉकल या निमोनिया/ न्यूमोनिया रोग विश्वभर में पाँच साल से कम उम्र के बच्चों के लिये अभी भी बड़ा खतरा है। यूनिसेफ़ की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 में भारत में निमोनिया से 1,27,000 बच्चों की मृत्यु हुई थी।
- वैश्विक रूप से पाँच वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में निमोनिया मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण है। भारत में पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु के सबसे बड़े दो कारण निमोनिया और डायरिया हैं।
- न्यूमोसिल, कमज़ोर प्रतिजन के लिये मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के निर्माण में सहायक होगी। न्यूमोसिल, गावी की वैक्सीन के मुकाबले 30% सस्ती है और इसकी प्रति डोज़ में मात्र 2-3 डॉलर की लागत आएगी।
- न्यूमोसिल को ड्रग्स कंट्रोलर जनरल (इंडिया) द्वारा जुलाई, 2020 में लाइसेंस दिया गया था।
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2017 में, न्यूमोकॉकल कॉन्जुगेट वैक्सीन को भारत के यूनिवर्सल इम्यूनाइज़ेशन प्रोग्राम (UIP) के तहत शामिल किया गया था।इसकी शुरुआत चरणबद्ध तरीके से हिमाचल प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में की गई है।
- सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, डोज़/खुराक के हिसाब से विश्व का सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता है तथा वह कोविशील्ड का निर्माण भी कर रहा है, जो एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड की कोरोना वायरस वैक्सीनका भारतीय संस्करण है । सीरम इंस्टीट्यूट की वैक्सीन का प्रयोग लगभग 170 देशों में किया जाता है और विश्व का प्रत्येक तीसरा बच्चा इस इंस्टिट्यूट द्वारा बनाई गई किसी न किसी वैक्सीन से प्रतिरक्षित है।
न्यूमोकॉकल रोग
- स्ट्रेप्टोकॉकस न्यूमोनियाजीवाणु, जिसे न्यूमोकॉकल जीवाणु, न्यूमोकॉक्सी (बहुवचन), और न्यूमोकॉकस (एकवचन) भी कहा जाता है, छोटे बच्चों में रुग्णता का एक प्रमुख कारण है।
- अभी तक लगभग 90 प्रकार के न्यूमोकॉकल जीवाणुओं के बारे में जानकारी मिली है।
- इन जीवाणुओं के कारण अन्य रुग्णताओं के साथ-साथ रक्तप्रवाह संक्रमण (बैक्टीरिमिया), मेनिंजाइटिस, साइनुसाइटिस तथा कुछ अन्य संक्रमण भी हो सकते हैं।
- समग्र रूप से, स्ट्रेप्टोकॉकस न्यूमोनिया के कारण होने वाली विभिन्न रुग्णताओं को न्यूमोकॉकल रोग कहा जाता है। विकासशील देशों में इस रोग की स्थिति अधिक गंभीर है।
- इसके घातक परिणामों को देखते हुए, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2018 में सभी देशों में नियमित टीकाकरण कार्यक्रमों में न्यूमोकॉकल कॉन्जुगेट वैक्सीन (PCV) को शामिल करने की सिफारिश की।
- न्यूमोकॉकल रोग से वयस्क भी बड़ी संख्या में प्रभावित होते हैं। इस रोग के लक्षण विभिन्न जीवाणुओं के कारण उत्पन्न रुग्णता के आधार पर अलग-अलग होते हैं। न्यूमोकॉकल न्यूमोनिया के सामान्य लक्षणों में बुखार, सीने में दर्द, कफ और साँस का फूलना शामिल हैं।
- न्यूमोकॉकल रोग के टीके का निर्माण जीवाणु जनित सेरोटाइप से सुरक्षा के लिये किया जाता है, जो अधिकांश न्यूमोकॉकल रोगों के लिये उत्तरदायी होता है।
- न्यूमोकॉकल कॉन्जुगेट वैक्सीन/टीके (PCVs) के प्रचलित सेरोटाइप्स में 7 (PCV7), 10 (PCV10), और 13 (PCV13) आदि प्रमुख हैं। न्यूमोसिल को सेरोटाइप 6 ए और 19 ए के द्वारा निर्मित किया गया है।
- इन सबके अतिरिक्त, एक अनकॉन्जुगेट टीका, जिसमें 23 सेरोटाइप्स (PPSV23) शामिल हैं, भी उपलब्ध है। अनकॉन्जुगेट टीका एक पॉलिसैकराइड टीका होता है और सभी पॉलीसेकराइड टीकों के तरह ही यह भी वयस्कों में अधिक प्रभावी होता है क्योंकि यह दो वर्ष से कम आयु वाले बच्चों में सतत् रूप से प्रतिरक्षा क्षमता का निर्माण नहीं करता है।
8.विषय -सूडान के लिये समझौते का निहितार्थ
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : अंतर्राष्ट्रीय संबंध)
संदर्भ
- हाल ही में, इज़रायल और सूडान ने अमेरिकी मध्यस्थता से आपसी सम्बंधों को सामान्य बनाने पर सहमति व्यक्त की है। अमेरिका द्वारा सूडान को आतंकवाद के राज्य प्रायोजकों की सूची से हटाने से इज़राइल के साथ समझौते का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- यह निर्णय रिपब्लिकन पार्टी की विदेश नीति की उपलब्धि को चिन्हित करता है। हालाँकि, विश्लेषकों का मानना है कि इस समझौते के सूडान के लिये दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
समझौते का प्रारंभ
- इज़राइल तथा सूडान कृषि पर प्रारंभिक ध्यान देते हुए आर्थिक और व्यापार लिंक खोलने की योजना पर विचार कर रहे हैं। हालाँकि, राजनयिक सम्बंधों की औपचारिक स्थापना जैसे मुद्दों को बाद में हल किया जाएगा।
- कुछ समय पूर्व ही संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ऐसे अरब राज्य बन गए हैं, जो इज़रायल के साथ औपचारिक सम्बंधों के लिये सहमत हुए हैं। इस समझौते को अब्राहम अकॉर्ड के नाम से जाना जाता है।
वर्तमान दुविधा
- सूडान सरकार द्वारा इज़राइल को मान्यता देना उस देश के लोगों का एकमात्र विशेषाधिकार होना चाहिये न कि किसी महाशक्ति के दबाव में ऐसा करना चाहिये। सूडान का यह निर्णय स्पष्ट तौर पर सूडान को आतंकी सूची से बाहर किये जाने के बदले के रूप में देखा जा रहा है।
- अमेरिका द्वारा सूडान को आतंकवाद के राज्य प्रायोजकों की सूची से हटाने कई निहितार्थ हो सकते हैं। किसी संप्रभु राष्ट्र से ऐसी आशा नहीं की जाती है कि कोई विदेशी देश इसकी नीति का निर्धारण करे। विदित है कि सूडान इस सूची में वर्ष 1993 से था।
- संवेदनशील ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए प्रधानमंत्री अब्दुल्ला हमदोक ने स्वयं इस दुविधा को व्यक्त किया था कि इज़रायल को उनकी गैर-निर्वाचित सरकार को औपचारिक मान्यता देने के महत्त्वपूर्ण निर्णय की जिम्मेदारी लेनी चाहिये।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- वर्ष 1967 के छह-दिवसीय युद्ध के मद्देनजर सूडान ने अरब लीग की मेजबानी की थी, जिसमें इज़रायल की मान्यता को अस्वीकार करने, उससे वार्ता न शुरू करने और इज़रायल के साथ शांति की मांग न करने के लिये कथित तौर एक संकल्प को अपनाया था।
- अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सूडान की स्थिति का निर्धारण करने के लिये दोनों देशों के बीच गुप्त द्विपक्षीय संबंधों की दुहाई देना भी उचित नहीं होगा।
- दूसरी ओर, सूडान को आतंकवाद प्रायोजक मानने वाले कारक अपेक्षाकृत स्पष्ट हैं। ये वर्ष 1996 तक ओसामा बिन लादेन को शरण देने के अलावा फिलिस्तीन मुक्ति संगठन, हमास और हिजबुल्लाह के लिये पूर्व सैन्य शासन से प्राप्त होने वाले समर्थन से संबंधित हैं।
- सूडान को आतंकी सूची से हटाने की पृष्ठभूमि वर्ष 2017 में अमेरिका द्वारा आर्थिक प्रतिबंधो में ढील के साथ ही शुरू हो गई थी। इसके बाद वर्ष 2019 में 23 वर्षों के बाद दोनों देशों ने एक-दूसरे के यहाँ अपने राजदूत भेजे ।
वर्तमान स्थिति
- सूडान ने 30 वर्षों के तानाशाही शासन को उखाड़ फेंका है और इस उत्तरी अफ्रीकी देश में अगस्त 2019 से चल रहे लोकतांत्रिक संक्रमण के चलते वर्ष 2022 में आम चुनाव होने की संभावना है।
- पिछले वर्षों में बड़े पैमाने पर होने वाले विद्रोह का अंतिम उद्देश्य सैन्य शासन को सत्ता से बाहर करना था, जो अभी भी संक्रमणकालीन सरकार में साझेदार है।
- सूडान का विशाल तेल भंडार वर्ष 2011 में अलग होने वाले दक्षिण सूडान में चला गया है। साथ ही, कोविड-19 और भयानक बाढ़ ने खाद्यान्न की कमी, अत्यधिक महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं में वृद्धि कर दी है।
लाभ
- अमेरिका के साथ हुआ सौदा सूडान को वैश्विक वित्तीय संस्थानों तक महत्त्वपूर्ण पहुँच प्रदान करेगा, डॉलर के लेन-देन को फिर से शुरू करेगा और लगभग तीन दशकों के बाद विदेशी निवेश को पुनर्जीवित करेगा।
- सूडान का अपने राष्ट्रीय ऋण संबंधी समस्याओं को हल कर और निवेश के अवसरों को प्रदान कर वैश्विक समुदाय के साथ पुन: एकीकरण इस समग्र प्रयास का महत्त्वपूर्ण घटक होना चाहिये।
चिंताएँ
- वैश्विक सुरक्षा वाले इस मामले में अमेरिका का लेन-देन वाला दृष्टिकोण घातक सिद्ध हो सकता है और सूडान को आतंकवाद के राज्य प्रायोजकों की सूची से बाहर करना इसी का परिणाम माना जा रहा है।
- दुर्भाग्य से, सूडान की उभरती स्थिति के मूल्यांकन में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अपने चुनावी लाभ और पश्चिम एशियाई शांति प्रक्रिया में उनके कई विवादास्पद हस्तक्षेप निर्णायक साबित हुए हैं।
- इस समझौते से इस बात की चिंता व्यक्त की जा रही है कि हालिया घटनाओं से सूडान के पूर्व तानाशाह को नरसंहार और युद्ध अपराधों की जाँच के लिये अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय को सौंपने के लिये सेना पर दबाव कम हो सकता है।
- सूडान की संक्रमणकालीन सरकार और सैन्य नेतृत्व इस मुद्दे पर विभाजित हैं कि इज़रायल के साथ संबंधों को कितनी तेज़ी से और किस सीमा तक स्थापित किया जाए। इससे दोनों में मतभेद उत्पन्न हो सकता है और लोकतांत्रिक संक्रमण को धक्का लग सकता है।
- साथ ही, सूडान यह भी चाहता है कि उसको आतंकवाद के राज्य प्रायोजकों की सूची से हटाने के फैसले को स्पष्ट रूप से इज़रायल के साथ संबंधों से न जोड़ा जाए। यह प्रदर्शित करता है कि निर्णय दबाव में लिया गया है, जो राष्ट्रीय संप्रभुता का दावा करने वाले सूडान के लिये खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
9.विषय –एथनोमेडिसिन : विलोपन की कगार पर
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2, स्वास्थ्य)
संदर्भ
- आधुनिक चिकित्सा पद्धति से पूर्व भारत सहित विश्व के अनेक देशों में रोगों के निदान तथा उपचार के लिये पारंपरिक या नृजातीय चिकित्सा पद्धति (Ethno medicine) को अपनाया जाता था। भारत के आदिवासी एवं जनजातीय क्षेत्रों में आज भी इस पद्धति का प्रयोग होता है लेकिन पिछले कुछ समय से यह देखा गया गया है कि यह पद्धति धीरे धीरे समाप्त हो रही है और इसका स्थान आधुनिक चिकित्सा पद्धति (Allopathy) ले रही है।
नृजातीय चिकित्सा अथवा एथनोमेडिसिन (Ethno medicine) : एक परिचय
- प्रत्येक समाज में सामान्य रोगों के उपचार के लिये कुछ पद्धतियाँ विकसित होती हैं जिनमे पारंपरिक तरीकों को अपनाया जाता है। हम कह सकते हैं कि यह स्वास्थ्य से संबंधित ज्ञान और सिद्धांत हैं जो लोगों को विरासत में मिलते हैं या वे एक संस्कृति में रहकर सीखते हैं।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) एथनोमेडिसिन को विभिन्न संस्कृतियों के देशज सिद्धांतों, विश्वासों तथा ज्ञान, कौशल एवं प्रथाओं के योग के रूप में परिभाषित करता है।
- इसमें पादप, जीव या खनिज आधारित औषधि, अध्यात्मिक उपचार, मानवीय तकनीक, ज्ञान या कौशल तथा व्यायाम को शामिल किया जाता है। शारीरिक तथा मानसिक रोग की रोकथाम, निदान, उपचार में इन सभी घटकों को एकल या संयोजन के आधार पर प्रयोग किया जाता है।
- एथनोमेडिसिन इस सिद्धांत पर आधारित है कि मनुष्य शारीरिक और सांस्कृतिक/सामाजिक दोनों प्रकार का प्राणी है। यह एथनोमेडिसिन तथा आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा के बीच का मूल अंतर है, जहाँ मानव को केवल शारीरिक प्राणी (मानसिक रोगों को छोड़कर) माना जाता है।
एथनोमेडिसिन की शुरुआत
- आदिकाल से ही प्रजातीय समूहों में जड़ी-बूटियों का प्रयोग उपचार हेतु होता रहा है। भारत, ग्रीस तथा अरब सहित विश्व की अनेक प्राचीन सभ्यताओं ने अलग-अलग चिकित्सा पद्धतियों को विकसित किया लेकिन वे सभी मुख्य रूप से पादप आधारित थीं।
- अलग-थलग रहने वाले जनजातीय समुदाय रोगों के उपचार हेतु स्वंय की विकसित चिकित्सा पद्धति को ही अपनाते हैं।
- डब्ल्यू.एच.ओ. के एक अनुमान के अनुसार, विकासशील देशों में लगभग 88% लोग अपनी प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की जरूरतों के लिये मुख्य रूप से पारंपरिक दवाओं पर निर्भर हैं।
- भारत के अधिकांश लोक समुदायों में स्वास्थ्य देखभाल की जीवंत पारंपराएँ विद्यमान हैं, जो स्थानीय रूप से उपलब्ध वनस्पतियों तथा जीवों के प्रयोग पर आधारित हैं।
- इसके अंतर्गत माँ-शिशु की देखभाल, घरेलू उपचार के साथ-साथ सांप के विष, दंत-चिकित्सा, अस्थि-भंजन और पुरानी बीमारियों से संबंधित उपचारों को शामिल किया जाता है।
एथनोमेडिसिन की प्रक्रिया
- एथनोमेडिसिन निदान से लेकर उपचार तक होने वाला एक समूह-आधारित अभ्यास है जिसमें बीमारियों को, किसी समूह के सदस्य के सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन से परिभाषित किया जाता है।
- इसमें लोगों का एक समूह इलाज के लिये आवश्यक सामग्रियों को इकट्ठा करता है और लेप या काढ़ा तैयार करता है। इसमें उपचार की एक विस्तृत प्रक्रिया शामिल होती है जिसमें लोगों का एक समूह या पूरा गाँव भाग लेता है और मुख्य उपचारकर्ता की उपचार प्रक्रिया में मदद करता है।
- कभी-कभी इसमें उपचार प्रक्रिया जनजातीय या स्वदेशी धर्म की प्रथाओं पर आधारित होती है जिसमें किसी वृक्ष या स्थान या प्रकृति की पूजा की जाती है।
- प्रत्येक समुदाय में किसी विशेष स्थान या वृक्ष को पवित्र माना जाता है; उदाहरणस्वरूप, उराँव जनजाति साल के वृक्ष (Shorea robusta tree) तथा कदम्ब (Nauclea parvifolia) के पेड़ के आसपास की जगह की पूजा करती है।
एथनोमेडिसिन के समक्ष संकट
- एथनोमेडिसिन पद्धति में औषधि के रूप में जड़ी-बूटियों का प्रयोग किया जाता है जिन्हें जंगलों से प्राप्त किया जाता है। लेकिन जंगल के वन विभाग के अंतर्गत आने से यह पद्धति काफी हद तक प्रभावित हुई है।
- टिम्बर राज्य के लिये राजस्व का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया है जिसके कारण वनों की कटाई में वृद्धि हुई है। साथ ही, खनन, कृषि, उद्योग, निर्माण आदि के लिये भी बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हो रही है जिससे वनों में पारंपरिक या औषधीय पादप समाप्त हो रहे हैं।
- इसके अतिरिक्त, कई औषधीय पादपों को खरपतवार घोषित किया गया है, जिससे धीरे-धीरे यह समाप्त हो रहे हैं।
- इस चिकित्सा पद्धति से संबंधित दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं और न ही इन्हें संहिताबद्ध ही किया गया है। यह पद्धति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सामान्यता मौखिक या अनौपचारिक रूप से हस्तांतरित होती है, वर्तमान में इस पद्धति को जानने वाले कम लोग ही बचे हैं जिस कारण यह धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है।
- वर्तमान में आधुनिक तथा एलोपैथी औषधियों का प्रयोग बढ़ रहा है, जनजातीय समूहों में भी इनका प्रचलन आरम्भ हो गया है जिससे लोग एथनोमेडिसिन की बजाय एलोपैथी को अपना रहे हैं।
- एथनोमेडिसिन की तुलना में आधुनिक चिकित्सा पद्धति अधिक विकसित है जिस कारण लोग आधुनिक चिकित्सा को अधिक अपना रहे हैं।
- इसके अतिरिक्त, पिछले कुछ दशकों में हर्बल उपचार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है जिस कारण औषधीय पौधों की बड़े पैमाने पर कटाई तथा पशुओं के अवैध शिकार में भी वृद्धि हुई है। इससे एथनोमेडिसिन में प्रयुक्त होने वाले औषधीय पौधे नष्ट हो रहे हैं।
एथनोमेडिसिन का भविष्य
- एथनोमेडिसिन एक ग़ैर-संहिताबद्ध पद्धति है इसलिये इसकी उपयोगिता को मापना एक चुनौती है। हालाँकि, एलोपैथी के प्रभाव से, एथनोमेडिसिन ने भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के समान नाम वाले रोगों की पहचान करना शुरू कर दिया है।
- एथनोमेडिसिन के कार्यान्वयन में एकरूपता लाने के तत्काल प्रयास किये जाने चाहिये हालाँकि भारतीय गुणवत्ता परिषद् तथा फाउंडेशन फ़ॉर रिवाइटेलाइजेशन ऑफ़ लोकल हेल्थ ट्रेडिशन (FRLHT) ने इसके अंतर्गत उपचार के प्रमाणन के लिये विशेष योजना तैयार की है।
- भविष्य हेतु एथनोमेडिसिन पद्धति को संरक्षित करने के लिये इसका दस्तावेज़ीकरण आरंभ किया गया है। इसके तहत झारखंड में लगभग पचास पौधों के विभिन्न भागों का उपयोग करते हुए 29 विभिन्न प्रकार के लेप और काढ़े तैयार करने के तरीकों का दस्तावेज़ीकरण किया गया है।
- चार्ल्स एनीनम ने अपने लेख ‘इकोलॉजी एंड एथनोमेडिसिन’ में लिखा है कि विभिन्न समुदायों के लोकगीत वर्तमान नृजातीय औषधियों को खोजने में महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक साबित हुए हैं। कई महत्त्वपूर्ण आधुनिक औषधियों (जैसे- डिजीटॉक्सिन, रिसरपाइन, टूबोक्यूराइन, एफेड्रिन आदि) को लोककथाओं के प्रमुख नामों से खोजा गया है। अतः एथनोमेडिसिन के विकास हेतु लोकगीतों एवं लोककथाओं की पड़ताल होनी चहिये।
- पिछले कुछ समय से लोग आधुनिक चिकित्सा या एलोपैथी औषधियों के स्थान पर पारंपरिक पद्धतियों व तरीकों को अपना रहे हैं अतः एथनोमेडिसिन के संदर्भ में भी यह उम्मीद की जा सकती है कि जनजातीय समुदायों के साथ-साथ अन्य लोग भी इस पद्धति को अपनाएंगे।
निष्कर्ष
- एथनोमेडिसिन दूर-दराज के क्षेत्रों तथा नृजातीय समूहों के लिये रोगों के उपचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। साथ ही, यह इनकी दैनिक आजीविका में भी उल्लेखनीय योगदान देती है। वर्तमान समय में जब देश की एक बड़ी आबादी अभी भी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है तो इस आबादी के लिये यह चिकित्सा एक वरदान है।
- अतः एथनोमेडिसिन के विकास तथा संरक्षण की दिशा प्रयास होने चाहिये। यद्यपि कुछ क्षेत्रों में पारंपरिक औषधीय पौधों के बारे में प्राप्त जानकारी का दस्तावेज़ीकरण किया गया है लेकिन औषधीय पौधों के उपयोग से संबंधित जानकारी प्राप्त करने की दिशा में और अधिक प्रयासों व शोध की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, नृजातीय चिकित्सा पद्धति के संरक्षण के उपायों को भी तत्काल लागू किया जाना चाहिये।
10.विषय -ईरान परमाणु समझौता और अमेरिकी दृष्टिकोण
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी संबंध, भारत से संबंधित व इसके हितों को प्रभावित करने वाले करार)
संदर्भ
- हाल ही में, अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में जीत दर्ज करने वाले डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन ने पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा (डेमोक्रेटिक) द्वारा हस्ताक्षरित और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प (रिपब्लिकन) द्वारा निरस्त किये गए ईरान परमाणु समझौते को बचाने की इच्छा जताई है।
- यह विचार अमेरिका के अलावा इस समझौते के अन्य पक्षकारों- ईरान, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, चीन और रूस के विदेश मंत्रियों के बीच एक उच्च स्तरीय सम्मेलन में व्यक्त किया गया। इनका लक्ष्य आर्थिक प्रतिबंधों में ढील के बदले ईरान को परमाणु बम विकसित करने से रोकना है।
क्या है ईरान परमाणु समझौता?
- ईरान परमाणु समझौते को आधिकारिक रूप से ‘संयुक्त व्यापक कार्य योजना’ (JCPOA) के नाम से वियना में जुलाई, 2015 में ईरान और P5 तथा जर्मनी व यूरोपीय संघ के मध्य हस्ताक्षरित किया गया था। P5 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के पाँच स्थाई सदस्य- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन और रूस शामिल हैं। यह समझौता जनवरी, 2016 से लागू हुआ।
- P5+1 को ‘E3+3’ के रूप में भी संदर्भित किया जाता है। इसमें यूरोपीय संघ के तीन देशों (E3 : फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी) के अलावा तीन गैर-यूरोपीय देश (अमेरिका, रूस और चीन) भी शामिल हैं।
- समझौते के तहत संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और अमेरिका द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों से राहत के बदले ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने पर सहमत हुआ।
- समझौते में ईरान द्वारा चलाए जाने वाले परमाणु संवर्द्धन संयंत्रों की संख्या को सीमित करने के साथ-साथ उन्हें पुराने मॉडल तक सीमित कर दिया गया। ईरान ने भारी जल के रिएक्टर को भी रीकॉन्फ़िगर किया ताकि वह प्लूटोनियम का उत्पादन न कर सके। साथ ही, ईरान फोरदो स्थित अपने संवर्द्धन संयंत्र को एक अनुसंधान केंद्र में बदलने पर सहमत हो गया।
- इसके अतिरिक्त, इसने संयुक्त राष्ट्र की परमाणु निगरानी संस्था ‘अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी’ (IAEA) को अधिक पहुँच प्रदान करने तथा अन्य साइटों के निरीक्षण की अनुमति प्रदान की।
- इसके बदले में वैश्विक शक्तियों ने उन आर्थिक प्रतिबंधों को हटा लिया जो ईरान को अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग और वैश्विक तेल व्यापार से रोकता था। साथ ही, ईरान को वाणिज्यिक विमान खरीदने तथा अन्य व्यापारिक सौदे की अनुमति प्रदान की गई और विदेशों में ईरान की संपत्ति को भी अनफ्रीज़ कर दिया गया।
- समझौते के तहत ईरान के यूरेनियम संवर्द्धन और भंडार की मात्रा संबंधी प्रतिबंध समझौते के 15 वर्ष बाद वर्ष 2031 में समाप्त हो जाएगा।
- वर्ष 2016 में आई.ए.ई.ए. ने यह स्वीकार कि ईरान ने परमाणु समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा किया है और ईरान पर अधिकाँश प्रतिबंध हटा दिये गए। इस प्रकार, ईरान ने धीरे-धीरे वैश्विक बैंकिंग प्रणाली में प्रवेश किया और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की बिक्री शुरू की।
अमेरिका का समझौते से बाहर होने का कारण
- अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने समझौते में ईरान पर बहुत अधिक नरमी दिखाने के साथ-साथ ईरान के बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम और क्षेत्रीय संघर्षों में उसके शामिल होने जैसे मुद्दों को संबोधित नहीं करने के कारण इसकी आलोचना की थी।
- तत्पश्चात डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति पद ग्रहण करने के बाद अमेरिका ने पहले तो ईरान के साथ समझौते पर पुन: बातचीत की कोशिश की परंतु मई 2018 में उसने इस समझौते से बाहर होने का एकतरफा निर्णय ले लिया। इसके बाद से अमेरिका और ईरान के मध्य संबंधों में लगातार गिरावट आई है।
- ट्रम्प प्रशासन ने पुन: प्रतिबंध आरोपित करने के साथ-साथ इस हाइड्रोकार्बन-समृद्ध राष्ट्र के साथ व्यवसाय करने वाले अन्य देशों को भी चेतावनी दी। ईरान से तेल खरीदने के लिये भारत सहित आठ देशों को प्राप्त अस्थायी छूट भी अप्रैल 2019 में समाप्त हो गई।
समझौते से अमेरिका के बाहर होने के बाद की स्थिति
- अमेरिका के समझौते से हटने के बावजूद ईरान ने जे.सी.पी.ओ.ए. के तहत अपनी प्रतिबद्धताओं को जारी रखने की बात कही और जून 2018 में ईरान ने समझौते के अनुरूप संवर्द्धन के बुनियादी ढाँचे में विस्तार की घोषणा की।
- हालाँकि, मई, 2019 में अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ईरान ने कहा कि वह समझौते की कुछ प्रतिबद्धताओं का पालन तब तक नहीं करेगा जब तक कि अन्य सदस्य इसकी आर्थिक माँगों पर सहमत नहीं होते। इसके दो महीने बाद आई.ए.ई.ए. ने पुष्टि की कि ईरान ने अपनी संवर्द्धन सीमा को पार कर लिया है।
- इस वर्ष जनवरी में ईरान के शीर्ष सुरक्षा और खुफिया कमांडर मेजर जनरल क़स्सीम सोलेमानी की अमेरिकी ड्रोन हमले में हत्या के बाद ईरान ने कहा कि वह परमाणु समझौते को न मानते हुए यूरेनियम संवर्द्धन के लिये लगाई गई सीमाओं का पालन नहीं करेगा। हालाँकि, ईरान ने आई.ए.ई.ए. के साथ सहयोग को जारी रखने की बात कही।
- दिसंबर में अमेरिका-ईरान संबंधों में उस समय तल्खी और बढ़ गई जब ईरान के वरिष्ठ परमाणु वैज्ञानिक मोहसेन फखरीज़ादेह की हत्या कर दी गई।
निष्कर्ष
- हाल की उच्च स्तरीय बैठक में भाग लेने वाले देशों ने समझौते को बचाने के लिये अपनी प्रतिबद्धताओं पर पुनः बल दिया है।
- साथ ही, जे.सी.पी.ओ.ए. का पूर्ण और प्रभावी कार्यान्वयन सभी पक्षों के साथ-साथ एशिया में शांति के लिये अभी भी महत्त्वपूर्ण बना हुआ है।
- हालाँकि, समझौते को उसके मूल स्वरूप में पुन: शुरू करने में चुनौती है क्योंकि ईरान वर्तमान में समझौते की कई प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन कर रहा है। यद्यपि ईरान ने स्पष्ट किया है कि यदि अमेरिका और तीनों यूरोपीय देश अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं तो वह तेज़ी से पुरानी स्थिति पर लौट आएगा।
- हालाँकि फ़खरीज़ादेह की हत्या इस समझौते को पुनर्जीवित करने के लिये बाइडन द्वारा किये जाने वाले प्रयासों को जटिल कर सकती है।
11.विषय -नेपाल में राजनीतिक संकट
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव, भारत एवं इसके पड़ोसी संबंध)
संदर्भ
- हाल ही में, नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने संसद के निचले सदन ‘प्रतिनिधि सभा’ को भंग करने की अनुसंशा की, जिसे राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने मंजूरी प्रदान कर दी है।
- इससे पाँच वर्ष पुराने संविधान के समक्ष नई चुनौती के साथ-साथ आंतरिक राजनीतिक संकट पैदा हो गया है। भारत का पडोसी देश होने के कारण नेपाल में उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता और अशांति का आकलन आवश्यक है।
वर्तमान समस्या
- संसद के भंग होने के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री के घोषणा के अनुसार नए चुनाव अगले वर्ष अप्रैल और मई में होंगे और तब तक वे कार्यवाहक सरकार का नेतृत्व करेंगे। साथ ही, इस समय नेपाल में उसे पुन: हिंदू राज्य बनाने की माँग को लेकर आंदोलन भी चल रहा है।
- पार्टी में विभाजन के बाद ओली अल्पमत में है। हालाँकि, संसद के भंग होने और उनके कार्यों को राष्ट्रपति का समर्थन प्राप्त होने के कारण ओली के पास किसी के प्रति जवाबदेह हुए बिना शासन की शक्ति होगी।
- प्रधानमंत्री के खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच के लिये एक स्थाई समिति की बैठक से कुछ समय पूर्व ही प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया गया।
समस्या का कारण
- पार्टी में ओली का विरोध कर रहे पुष्प कमल दहल प्रचंड ने मुख्यधारा की राजनीति में आने से पहले एक दशक (1996-2006) तक माओवादी विद्रोह का नेतृत्व किया है।
- ओली हिंसा की राजनीति के विरोधी थे। हालाँकि, उन्होंने वर्ष 2017 में माओवादी दलों से अपनी पार्टियों को आपस विलय करने के लिये संपर्क किया। यह ओली के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा का ही परिणाम था।
- ओली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनिफाइड मार्क्सवादी लेनिनवादी का नेतृत्व कर रहे थे और प्रचंड नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का प्रतिनिधित्त्व करते थे। विलय के बाद दोनों नेताओं ने सहमति व्यक्त की कि वे बारी-बारी से सरकार का नेतृत्व करेंगे। हालाँकि, इस वादे को ओली ने नहीं निभाया और इस प्रकार दलीय विभाजन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- एक अन्य मुद्दा हाल ही में लाया गया एक संशोधन अध्यादेश है। आरोप है कि संवैधानिक परिषद अधिनियम में संशोधन नियंत्रण और संतुलन को कमज़ोर करेगा तथा महत्वपूर्ण नियुक्तियाँ करने में प्रधानमंत्री को अधिक शक्ति प्रदान करेगा।
संविधान के समक्ष चुनौती
- वर्तमान घटनाक्रम ने वर्ष 2015 के संविधान और इसकी प्रमुख विशेषताओं, जैसे- संघवाद, धर्मनिरपेक्षता और गणतंत्र पर एक प्रश्न चिह्न लगा दिया है। दो-तिहाई बहुमत वाली पार्टी में फूट से सरकार और व्यवस्था के प्रणालीगत पतन की चिंता जताई जा रही है।
- नेपाल में समय से पूर्व सदन का विघटन कोई नई बात नहीं है, परंतु वर्ष 2015 के नए संविधान के बाद यह पहला ऐसा उदाहरण है। नए संविधान में समय पूर्व विघटन के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान की गई है।
- नए संविधान में वैकल्पिक सरकार के गठन की संभावना के बिना इस तरह के कदम की परिकल्पना नहीं है। नेपाल का नया संविधान सदन को भंग करने की अनुमति तभी देता है, जब पाँच वर्ष का कार्यकाल समाप्त हो गया हो और त्रिशंकु की संभावना हो तथा कोई भी दल सरकार बनाने में सक्षम न हो।
- चूँकि राष्ट्रपति ने प्रतिनिधि सभा के विघटन को मंजूरी प्रदान कर दी है, इसलिये अब इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय लिया जाएगा।
- विदित है कि वर्ष 1991 के संविधान में प्रधानमंत्री के पास संसद को भंग करने का विशेषाधिकार प्राप्त था। इस संविधान को वर्ष 2006 में समाप्त कर दिया गया, जिसके अंतर्गत अदालत ने माना था कि कार्यपालिका को विधायिका के समक्ष विचाराधीन मुद्दे को छीनने का अधिकार नहीं है।
सेना और चीन
- नेपाली सेना ने स्पष्ट कर दिया है कि वह वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम में तटस्थ रहेगी। इसका तात्पर्य यह है कि अगर ओली कानून-व्यवस्था बनाए रखने और सुरक्षा बलों की मदद से शासन करने की कोशिश करते हैं, तो सेना के रवैये को लेकर अनिश्चितता बनी रहेगी।
- वर्ष 2006 के बाद से नेपाल की आंतरिक राजनीति में चीन एक बड़ा कारक रहा है। यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से नेपाली राजनीति में लॉबिंग में संलग्न रहा है। चीन के द्वारा नेपाल में अपनी उपस्थिति बढ़ाने का कारण वर्ष 2006 के राजनीतिक परिवर्तन में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका होने की धारणा है।
- चीन ने व्यापार व निवेश, ऊर्जा, पर्यटन तथा भूकंप के बाद पुनर्निर्माण जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में भी निवेश किया है। साथ ही, यह नेपाल में एफ.डी.आई. का सबसे बड़ा स्रोत भी है।
भारत और नेपाल
- भूकम्प के बाद नेपाल में वर्ष 2015 में पाँच महीने की नाकेबंदी के बाद से भारत और नेपाल के सम्बंध तनावपूर्ण रहे हैं। नेपाल के आर्थिक व राजनीतिक मामलों में चीन के बढ़ते हस्तक्षेप और भारत के साथ सीमा-विवाद के कारण भी दोनों देशों के मध्य सम्बंध सामान्य नहीं हैं।
- दोनों देशों का एक–दूसरे के प्रति अपरिवर्तनशील दृष्टिकोण भी संबंधों में तनाव का एक कारण है। नेपाल के राजनेता तथा राजनीतिक दल राष्ट्रवादी होने और स्वंय को भारत-विरोधी दिखाने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं।
- साथ ही, नेपाल के नक्शे में नया क्षेत्र जोड़कर ओली ने फिर से राष्ट्रवादी भावनाओं को हवा दी। भारत की सोच है कि वह नेपाल में सहायता व विकास परियोजनाओं को गति प्रदान करके नेपालियों के दिल में जगह बना सकता है, परंतु नेपाल में दशकों से अरबों रुपए लगाने के बावज़ूद भी ऐसा नहीं हो पाया है।
- भारत और चीन द्वारा नेपाल को दी जाने वाली सहायता में नीतिगत अंतर भी दोनों के मध्य संबंधों में परिलक्षित होता है। भारत को नेपाल के सरकारी बजट के बाहर सहायता प्रदान करने में चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और इसके लिये चीन धरातल पर दिखाई देने वाली व मूर्त परियोजनाओं के साथ-साथ रणनीतिक अवस्थिति की परियोजनाओं को चुनताहै।
निष्कर्ष
- नेपाल के राजशाही से गणतंत्रीय लोकतंत्र की ओर संक्रमण के बीच वर्ष 2017 में सरकार गठन के बाद ओली के पास कई संकटोंके बीच लोकतंत्र को बचाने का मौका था।
- अर्थव्यवस्था में मंदी, महामारी के संकट और कई चुनौतियों के बीच नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता भारत व चीन सहित दक्षिण एशिया पर व्यापक प्रभाव डालेगी।
- चीन और भारत के बीच की तल्खी इस समस्या में वृद्धि कर सकती है। वर्तमान स्थिति मेंभारत को कूटनीति प्रयासों के साथ–साथ नेपाल से जन–से–जन सम्पर्क में वृद्धि और नेपाल युवाओं को भारतीय युवाओं से जोड़ने का प्रयास करना चाहिये।
12.विषय -विद्युत (उपभोक्ताओं के अधिकार) नियम, 2020
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : पारदर्शिता और जवाबदेही के महत्त्वपूर्ण पक्ष, ई–गवर्नेंस, नागरिक चार्टर, पारदर्शिता एवं जवाबदेही)
संदर्भ
- हाल ही में, केंद्रीय विद्युत मंत्रालय ने देश में विद्युत उपभोक्ताओं के अधिकारों को तय करते हुए नियम लागू किये हैं।
- इन नियमों को विद्युत उपभोक्ताओं को सशक्त बनाने के लिये लागू किया गया है। गौरतलब है कि विद्युत प्रणालियाँ उपभोक्ताओं को सेवा प्रदान करने के लिये ही होती हैं और उनको विश्वसनीय सेवाएँ और गुणवत्तापूर्ण बिजली पाने का अधिकार है।
आवश्यकता
- देश में विद्युत वितरण कंपनियों का (सरकारी या निजी) लगभग एकाधिकार हो गया है और उपभोक्ताओं के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है।
- ऐसी स्थिति में इन नियमों के माध्यम से उपभोक्ताओं के अधिकारों को तय करना और इन अधिकारों को लागू करने के लिये प्रणाली का विकास करना आवश्यक हो गया था।
विद्युत (उपभोक्तओं के अधिकार) नियम में शामिल प्रमुख क्षेत्र
- उपभोक्ताओं के अधिकार तथा वितरण लाइसेंसधारियों के दायित्व के साथ-साथ नए कनेक्शन जारी करना तथा वर्तमान कनेक्शन में संशोधन।
- मीटरिंग प्रबंधन, बिलिंग व भुगतान और डिस्कनेक्शन एवं रि-कनेक्शन।
- आपूर्ति की विश्वसनीयता और प्रोज्यूमर के रूप में कन्ज्यूमर।
- लाइसेंसधारियों के कार्य प्रदर्शन मानक और क्षतिपूर्ति व्यवस्था व तंत्र।
- उपभोक्ता सेवा और शिकायत समाधान व्यवस्था।
अधिकार और दायित्व
- अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप प्रत्येक वितरण लाइसेंसधारियों को किसी परिसर के मालिक या उस परिसर में रह रहे व्यक्ति के अनुरोध पर विद्युत की आपूर्ति करनी होगी।
- वितरण लाइसेंसधारियों द्वारा विद्युत् आपूर्ति के लिये न्यूनतम सेवा मानक उपभोक्ताओं का अधिकार है। आवेदक के पास ऑनलाइन आवेदन का विकल्प रहेगा। साथ ही, नए कनेक्शन देने और वर्तमान कनेक्शन में संशोधन के लिये मेट्रो शहर में अधिकतम समय-सीमा 7 दिन तथा अन्य नगरपालिका क्षेत्रों में 15 दिन तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 30 दिन होगी।
मीटिरिंग, बिलिंग और भुगतान
- मीटर के बिना कोई कनेक्शन नहीं दिया जाएगा और मीटर ‘स्मार्ट प्री-पेमेंट मीटर’ या ‘प्री-पेमेंट मीटर’ होंगे।
- उपभोक्ताओं को ऑनलाइन या ऑफलाइन भुगतान का विकल्प उपलब्ध होने के साथ-साथ बिलों के अग्रिम भुगतान का भी प्रावधान है।
आपूर्ति की विश्वसनीयता एवं कार्यप्रदर्शन मानक
- डिस्कनेक्शन तथा रि-कनेक्शन के प्रावधानों के साथ वितरण लाइसेंसधारी सभी उपभोक्ताओं को 24×7 विद्युत आपूर्ति करेगा। हालाँकि, कृषि जैसे कुछ श्रेणियों के उपभोक्ताओं के लिये आपूर्ति के घंटों/समय में कमी की जा सकती है।
- प्रोज्यूमर की स्थिति कन्ज्यूमर (Consumer as Prosumer) के रूप में बनी रहेगी और उन्हें सामान्य उपभोक्ता की तरह ही अधिकार प्राप्त होंगे। उन्हें स्वयं या सेवा प्रदाता के माध्यम से नवीकरणीय ऊर्जा (RE) उत्पादन इकाई स्थापित करने का अधिकार होगा। इसमें रूफ टॉप सोलर फोटोवॉल्टिक (PV) प्रणालियाँ शामिल हैं।
- विदित है कि प्रोज्यूमर एक ऐसा व्यक्ति है जो उपभोग और उत्पादन दोनों करता है। प्रोज्यूमर (Prosumer) शब्द प्रदाता (Provider) और उपभोक्ता (Consumer) शब्दों का सम्मिलित रूप है। ऐसे उपभोक्ता अपनी जरूरतों के लिये उत्पादों को डिजाइन या अनुकूलित करने का प्रयास करते हैं।
- आयोग सभी वितरण लाइसेंसियों के लिये कार्यप्रदर्शन मानक अधिसूचित करेगा और इनके उल्लंघन की दशा में उपभोक्ताओं को मुआवजा राशि का भुगतान किया जाएगा।
क्षतिपूर्ति व्यवस्था
- उपभोक्ताओं को स्वचालित रूप से मुआवजे का भुगतान किया जाएगा, जिसके लिये कार्यप्रदर्शन मानकों की निगरानी की जाएगी।
- ऐसे कार्यप्रदर्शन मानक जिनके लिये मुआवजे का भुगतान किया जाएगा, उनमें निम्नलिखित शामिल हैं :
- निर्दिष्ट अवधि से अधिक समय तक उपभोक्ता को आपूर्ति नहीं किया जाना और निर्दिष्ट सीमा से अधिक संख्या में आपूर्ति में बाधा।
- कनेक्शन, डिस्कनेक्शन, रि-कनेक्शन एवं शिफ्टिंग में लगने वाले समय के साथ-साथ उपभोक्ता श्रेणी और लोड परिवर्तन में लगने वाला समय।
- उपभोक्ताओं के विवरण में परिवर्तन और दोषपूर्ण मीटरों को बदलने में लिया गया समय।
- वोल्टेज से संबंधी शिकायतों के समाधान की अवधि तथा बिल संबंधी शिकायतें।
उपभोक्ता सेवा और शिकायत समाधान व्यवस्था
- वितरण लाइसेंसधारी केंद्रीकृत टोल फ्री कॉल सेंटर और कस्टमर रिलेशन मैनेजर प्रणाली के माध्यम से सभी सेवाएँ प्रदान करने का प्रयास करेगा।
- साथ ही, उपभोक्ता शिकायत समाधान फोरम में कन्ज्यूमर और प्रोज्यूमर के प्रतिनिधि होंगे। निर्दिष्ट समय-सीमा के अंतर्गत विभिन्न स्तर के फोरमों द्वारा विभिन्न प्रकार की शिकायतों का समाधान किया जाएगा। शिकायत समाधान के लिये अधिकतम समय-सीमा 45 दिन है।
अन्य प्रावधान
- वरिष्ठ नागरिकों को उनके घर पर आवेदन प्रस्तुतीकरण, बिलों का भुगतान जैसी सभी सेवाएँ प्रदान की जाएंगी।
- उपभोक्ताओं को बिजली कटौती के समय की जानकारी दी जाएगी। अनियोजित कटौती या खराबी की सूचना भी उपभोक्ताओं को इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से दी जाएगी और बिजली बहाली का अनुमानित समय भी बताया जाएगा।
लाभ
- इन नियमों को लागू करने से यह सुनिश्चित होगा कि नए बिजली कनेक्शन, रिफंड तथा अन्य सेवाएँ समयबद्ध तरीके से प्रदान की जा सकें। ये नियम विद्युत उपभोक्ताओं को सशक्त बनाने के युग का प्रारंभ है।
- जानबूझकर उपभोक्ताओं के अधिकारों की अनदेखी करने पर सेवा प्रदाता दंडित होंगे। ये नियम सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं के केंद्र बिंदु में उपभोक्ताओं को रखने से संबंधित हैं। इन नियमों से देश में लगभग 30 करोड़ वर्तमान और संभावित उपभोक्ताओं को लाभ मिलेगा।
- साथ ही, ये नियम देश में कारोबारी सुगमता को और आसान बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम हैं।
13.विषय -शिगेला : आँतों का संक्रमण
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य)
संदर्भ
- हाल ही में, उत्तरी केरल के कोझिकोड ज़िले में शिगेला से संक्रमण के कुछ नए मामले सामने आए हैं। इसके प्रसार को रोकने के लिये निवारक उपायों की तत्काल आवश्यकता होती है। यह एक वैश्विक समस्या है, जो ज्यादातर विकासशील देशों में संक्रमण काकारण बनती है।
क्या है शिगेला संक्रमण?
- शिगेला (Shigella) एक प्रकार का बैक्टीरिया है जिससे आँतों में गंभीर संक्रमण होता है। यह एक संक्रामक रोग है। शिगेला संक्रमण को शिगेलोसिस (Shigellosis) भी कहते हैं।
- यह बैक्टीरिया दस्त/अतिसार (Diarrhea) के लिये उत्तरदाई मुख्य रोगाणुओं में से एक है। यह रोग विशेष रूप से अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई क्षेत्रों में बच्चों को प्रभावित करता है।
- यह बैक्टीरिया अंतर्ग्रहण (Ingestion) के माध्यम से शरीर में प्रवेश करने के बाद बड़ी आँत (Colon) के उपकला अस्तर (Epithelial Lining) को प्रभावित करता है। इसके परिणामस्वरूप कोशिकाओं में सूजन व जलन प्रारंभ हो जाती है और गंभीर मामलों में कोशिकाएँ नष्ट भी हो जाती है।
- जीवों द्वारा अवशोषण अथवा मुँह के माध्यम से पोषक तत्वों एवं भोज्य पदार्थ के उपभोग की प्रक्रिया को अंतर्ग्रहण कहते हैं।
- उल्लेखनीय है कि शिगेला बैक्टीरिया की बहुत कम संख्या भी किसी व्यक्ति को बीमार करने में सक्षम है।
सामान्य लक्षण
- शिगेला रोगाणु के शरीर में प्रवेश करने के एक-दो दिनों के भीतर ही इसके लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं। इस रोग के लक्षण मध्यम से लेकर गंभीर तक होते हैं।
- इस रोग का सामान्य लक्षण दस्त (अधिकतर खूनी एवं पीड़ायुक्त), पेट दर्द, बुखार, मतली (Nausea) और उल्टी हैं।
- कुछ संक्रमितों में इसका कोई लक्षण नहीं दिखाई देता है परंतु वे बीमारी फैला सकता है। इससे किसी भी आयु के लोग संक्रमित हो सकते हैं लेकिन 10 वर्ष से कम आयु के बच्चों को शिगेला के संक्रमण का खतरा सबसे अधिक रहता है।
क्या है प्रसार का कारण?
- यह एक अत्यधिक संक्रामक रोग है, जो व्यक्ति-से-व्यक्ति में फैलता है। बच्चों की देखभाल और उनके शौच संबंधी कार्यों में संलग्न लोगों के द्वारा बिना धुले और गंदे हाथों से खाना खाने से भी इसका प्रसार होता है।
- साथ ही, दूषित पानी पीने या बासी भोजन का सेवन करने से व्यक्ति शिगेला संक्रमण की चपेट में आ सकता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार यह संक्रमण पानी और भोजन के माध्यम से फैलता है। विश्व भर में इसके प्रसार का सबसे सामान्य रूप दूषित भोजन और पानी ही है।
- इस बात की भी अत्यधिक संभावना है कि एक ही शौचालय का उपयोग करने से भी यह संक्रमण दूसरों में फैल जाए।
संक्रमण की गंभीरता
- अधिकांश मामलों में इससे पीड़ित रोगी कुछ दिनों तक दस्त की समस्या का सामना करते है और फिर धीरे-धीरे इसमें कमी आ जाती हैं और इसके अधिकतर मामलें गंभीर नहीं होते है
- यदि दस्त एक सप्ताह से अधिक समय तक रहता है और रोगी बुखार व पेट दर्द से पीड़ित है, तो उचित परामर्श आवश्यक है। ।
- हालाँकि, कुछ मामलों में यदि गंभीर लक्षणों को भी एक सप्ताह तक नज़रंदाज़ कर दिया जाता है तो शिगेला संक्रमण से दौरे, गुदा द्वार में समस्या और रिएक्टिव अर्थराइटिस (Reactive Arthritis) जैसी जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु भी हो सकती है।
संक्रमण से बचाव
- विशेषज्ञों के अनुसार, इससे बचाव के लिये विशेष रूप से बच्चों की शौच क्रिया में संलग्नता के बाद और भोजन तैयार करने व खाने से पहले साबुन से हाथ धोना महत्त्वपूर्ण है।
- साथ ही, पूल, तालाबों और झीलों में तैरते समय पानी को न निगलने और उबला हुआ पानी पीने की सलाह दी जाती है।
- अस्वास्थ्यकर स्थितियों में तथा बाहर के संदूषित आहार को खाने से भी बचना चाहिये। साथ ही बेहतर साफ-सफाई और व्यक्तिगत स्वच्छता से इसके प्रसार को रोका जा सकता है।
- विशेषज्ञ ऐसे व्यक्तियों के साथ यौन संबंध ना बनाने की सलाह देते है, जो हाल ही में शिगेला संक्रमण से उबरा हो। इसके अतिरिक्त कुंओं सहित अन्य जल स्रोतों का सुपर-क्लोरिनेशन किया जाना भी आवश्यक है।
14.विषय -भारत ‘करेंसी मैनिपुलेटर्स’ लिस्ट में
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 : भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
संदर्भ
- हाल ही में, अमेरिका ने सख्त रुख अपनाते हुए भारत को चीन, ताइवान आदि देशों के साथ ‘करेंसी मैनिपुलेटर्स’ यानी मुद्रा में हेर-फेर करने वाले देशों की ‘निगरानी सूची (Currency Monitoring watch list) ‘ में डाल दिया है।
- ध्यातव्य है कि अमेरिका ने भारत सहित जिन दस देशों को इस सूची में डाला है, वे सभी इसके बड़े व्यापारिक साझेदार हैं।
प्रमुख बिंदु :
- यदि कोई देश अंतर्राष्ट्रीय व्यापार प्रतिस्पर्धा में अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिये अपने देश की मुद्रा और अमेरिकी डॉलर के बीच की विनिमय दर को प्रभावित (मुद्रा अवमूल्यन या अधिमूल्यन दोनों ही मामलों में) करने की कोशिश करता है, तो अमेरिकी ट्रेज़री विभाग द्वारा उसे करेंसी मैनिपुलेटर घोषित कर निगरानी सूची में डाल दिया जाता है।
- इस निगरानी सूची में भारत, चीन, ताइवान के अलावा जापान, दक्षिण कोरिया, जर्मनी, इटली, सिंगापुर, थाइलैंड और मलेशिया शामिल हैं।
- अमेरिका ने वियतनाम और स्विट्ज़रलैंड को पहले ही करेंसी मैनिपुलेटर्स की सूची में रखा हुआ है।
- अमेरिकी वित्त मंत्रालय ने कांग्रेस में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पिछली चार तिमाहियों (जून 2020 तक) में अमेरिका के चार प्रमुख व्यापारिक साझेदार देशों-भारत, वियतनाम, स्विट्ज़रलैंड और सिंगापुर ने लगातार अपने विदेशी मुद्रा विनिमिय बाज़ार में दखल दिया है।
- अमेरिका की तरफ से कहा गया है कि वियतनाम और स्विट्ज़रलैंड द्वारा सम्भावित रूप से अनुचित हेर-फेर की वजह से अमेरिका की प्रगति पर असर पड़ा है तथा अमेरिकी कामगारों और कंपनियों को नुकसान पहुँचा है।
- गौरतलब है कि भारतीय रिज़र्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2019 की दूसरी छमाही में भारत द्वारा विदेशी मुद्रा की खरीद में तेज़ी आई है। इसी तरह वर्ष 2020 की पहली छमाही में भी भारत के द्वारा विदेशी मुद्रा खरीद में तेज़ी देखी गई है।
मुद्रा निगरानी सूची (Currency Monitoring Watch List)
- अमेरिकी ट्रेज़री विभाग एक अर्ध–वार्षिक रिपोर्ट जारी करता है, जिसके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में हो रहे विकास और विदेशी विनिमय दरों का निरीक्षण किया जाता है।
- चीन अपनी मुद्रा को लगातार कमज़ोर करने के कारण इस निगरानी सूची में लगातार बना हुआ है ।
- सूची में शामिल होने पर अमेरिका की तरफ से किसी भी प्रकार की सज़ा या प्रतिबंध का प्रावधान नहीं है, लेकिन यह सूची में शामिल किये गए देश की वैश्विक वित्तीय छवि को खराब करता है।
निगरानी सूची के लिये निर्धारित मानदंड
अमेरिका के ट्रेड फैसिलिटेशन एंड ट्रेड इनफोर्समेंट एक्ट, 2015 के अनुसार यदि कोई देश निम्नलिखित तीन में से दो मानदंडों को पूरा करता है, तो उसे वॉच लिस्ट/ मॉनिटरिंग लिस्ट/ निगरानी सूची में रखा जाता है :
- यदि लगातार 12 महीनों से कोई देश अमेरिका के साथ अत्यधिक व्यापार अधिशेष की स्थिति में है।
- यदि वह देश 12 महीनों की अवधि में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) के कम से कम 2 प्रतिशत के बराबर चालू खाता अधिशेष की स्थिति में है।
- यदि विगत 12 महीनों (या कम से कम 6 महीनों में) में किसी देश द्वारा उस देश की जी.डी.पी. के कम से कम 2% के बराबर की विदेशी मुद्रा खरीद लगातार की जा रही है।
भारत के लिये निहितार्थ
- भारत ने हमेशा से अतिरिक्त मुद्रा अधिमूल्यन को रोकने और घरेलू वित्तीय स्थिरता के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश की है।
- भारत को निगरानी सूची में होने के कारण, रिज़र्व बैंक द्वारा वित्तीय स्थिरता की सुरक्षा के लिये किये जाने वाले, विदेशी मुद्रा परिचालन को अस्थाई रूप से रोकना पड़ सकता है।
- इसके मुख्यतः दो परिणाम हो सकते हैं- (1) रुपए का अधिमूल्यन (2) रिज़र्व बैंक की ब्याज दर नीति पर अतिरिक्त तरलता का नकारात्मक प्रभाव।
- भारत के निर्यात पर रुपए के अधिमूल्यन का प्रभाव पड़ने की भी सम्भावना है।
- भारतीय नीति निर्माताओं को अमेरिका में नीति-निर्माण की अप्रत्याशित प्रकृति के प्रति संवेदनशील होना होगा, विशेषकर वैश्विक व्यापार से जुड़ी नीतियों के प्रति।
15.विषय -भारत में कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद की बढ़ती प्रवृत्ति
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र – 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)
संदर्भ
- हाल ही में, भारत की कम्पनी ‘फ्यूचर रिटेल’ ने अमेरिका की कम्पनी ‘अमेज़न’ पर ‘21वीं सदी की ईस्ट इंडिया कम्पनी जैसा व्यवहार करने’ और ‘अमेरिका में बिग ब्रदर की भूमिका अदा करने’ का आरोप लगाया है।
कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद
- ‘कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद’ का उपयोग राजनीतिक दर्शन और आर्थिक सिद्धांत के रूप में किया जाता है। इसके अंतर्गत एक विशेष प्रकार की राजनीतिक संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद में राज्य की प्राथमिकता व्यक्ति या नागरिक न होकर की ‘कॉर्पोरेट समूह’ होते हैं।
- इस सिद्धांत के अनुसार, कॉर्पोरेट समूह के हित राष्ट्रहित के समान होते हैं तथा राज्य घरेलू कॉर्पोरेट हितों के प्रति पक्षपाती रवैया अपनाकर, घरेलू निगमों को विदेशी स्वामित्व से संरक्षण प्रदान करता है।
भारत में कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद की बढ़ती प्रवृति
- भारत में पिछले कुछ समय से व्यावसायिक सौदों के रूप विदेशी कम्पनियों द्वारा किये गए अधिग्रहण को औपनिवेशिक शक्ति (ईस्ट इंडिया कम्पनी) के पुनरागमन के रूप में देखा जा रहा है।
- हाल ही में, अमेज़न-रिलायंस-फ्यूचर कॉर्पोरेट रिटेल विवाद सुर्खियों में रहा, जिसमें विदेशी कम्पनियों के लिये विलय और अधिग्रहण (Merger & Acquisition) की नीति के तहत अल्पसंख्यक अंशधारकों के अधिकार तथा इकाइयों की ऋण संरचना में नियमों के अनुपालन सम्बंधी उल्लंघन को आधार बनाकर व्यावसायिक सौदों पर रोक लगाई गई।
- भारत में घरेलू डिजिटल भुगतान एप्लीकेशन लगातार लॉन्च हो रहे हैं, जबकि ‘व्हाट्सएप पे’ एप्लीकेशन अपेक्षित अनुमोदन प्राप्त करने के बावजूद सर्वोच्च न्यायलय में लम्बित है।
- भारत में चीनी कम्पनियों के सम्बंध में तो कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद की भावनाएँ और स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती हैं। भारत सरकार ने पिछले कुछ महीनों से भारत में चीनी निवेश पर गम्भीर प्रतिबंध लगाए हैं।
- जैसा कि कुछ समय पहले चीन के साथ सीमा विवाद को लेकर भारत में आक्रामक जन प्रतिरोध के कारण भारत में संचालित चीन के लगभग सभी ऐप को प्रतिबंधित किया गया था। साथ ही, चीन से एफ.डी.आई. के लिये पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता को लागू करते हुए चीनी खरीददारों को सार्वजनिक खरीद अनुबंधों में भाग लेने पर भी प्रतिंबंध लगाया गया।
कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद की व्यवहार्यता
- एक सम्प्रभु राष्ट्र होने के नाते भारत अपने अधिकारों के तहत आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने और घरेलू व्यवसायों को संरक्षण प्रदान करने के लिये प्रतिबद्ध है। विशेष रूप से महामारी के समय में आत्मनिर्भर भारत और मेक इन इंडिया अभियानों का दृढ़ता से प्रोत्साहन देना, भारत के एक सम्प्रभु शक्ति होने का वास्तविक परिचायक है।
- इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में कार्यरत कई विदेशी कम्पनियों के व्यावसायिक मॉडल संदिग्ध हैं, अतः देश की आंतरिक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार की इकाइयों को प्रतिबंधित करना आवश्यक है।
कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद के नकारात्मक पक्ष
- निगमों की विदेशी पहचान को आधार बनाकर भारत में उनके संचालन तथा उनके द्वारा की गई अधिग्रहण प्रक्रियाओं पर रोक लगाने से भारत की वैश्विक स्तर पर आकर्षक निवेश स्थान की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
- गूगल, फेसबुक, अमेज़न तथा कई अन्य विदेशी कम्पनियाँ भारत में व्यापक स्तर पर रोज़गार प्रदान करती हैं। कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद जैसी प्रवृत्तियों के बढ़ने से भारत में रोज़गार संकट और गहरा सकता है।
- अनुचित आधारों पर विदेशी कम्पनियों को प्रतिबंधित करने से देश में प्रतिस्पर्धी वातावरण में गिरावट आएगी, जो अंततः उपभाक्ताओं और सम्बंधित कम्पनी में कार्य करने वाले कर्मचारियों के शोषण की सम्भावनाओं को बढ़ाता है।
- कॉर्पोरेट राष्ट्रवाद जैसी प्रवृत्तियों से संरक्षणवाद को बढ़ावा मिलता है, जो अंततः व्यापार युद्ध का रूप ले सकता है।
16.विषय -S-400 समझौता और भारत की चिंताएँ
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : भारत से सम्बंधित और भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
संदर्भ
- हाल ही में, अमेरिका ने रूस से S-400 वायु रक्षा प्रणालियों की खरीद को लेकर तुर्की पर प्रतिबंध लगा दिया है। विदित है कि अमेरिका ने पिछले वर्ष F-35 जेट कार्यक्रम से तुर्की को बाहर कर दिया था। भारत भी S-400 वायु रक्षा प्रणाली की खरीद की तैयारी में है।
- ऐसी स्थिति में अमेरिका में होने वाले सत्ता परिवर्तन और नीतियों के बारे में भारत को सचेत रहने की आवश्यकता है।
S-400 वायुरक्षा मिसाइल प्रणाली
- S-400 प्रणाली को रूस ने डिज़ाइन किया है। यह लम्बी दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली (SAM) है। इस प्रणाली को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित भी किया जा सकता है।
- वर्तमान में यह विश्व की खतरनाक व अत्याधुनिक मिसाइल रक्षा प्रणाली है। इसे अमेरिका द्वारा विकसित ‘टर्मिनल हाई एल्टीट्यूड एरिया डिफेंस सिस्टम’ (THAAD) से भी बहुत उन्नत माना जाता है।
- यह प्रणाली 30 किमी. तक की ऊँचाई और 400 किमी. की सीमा के भीतर विमानों, चालक रहित हवाईयानों (UAV), बैलिस्टिक और क्रूज़ मिसाइलों सहित सभी प्रकार के हवाई लक्ष्यों को भेद सकती है।
- साथ ही, यह प्रणाली एक ही समय में 100 हवाई लक्ष्यों को ट्रैक करने के साथ छह लक्ष्यों को एक साथ भेद सकती है। यह रूस की लम्बी दूरी की मिसाइल रक्षा प्रणाली की चौथी पीढ़ी है।
S-400 प्रणाली की विशेषताएँ
- S-400 की क्षमताएँ प्रसिद्ध अमेरिकी पैट्रियट प्रणाली के लगभग बराबर हैं। S-400 वायु रक्षा प्रणाली एक बहुक्रियात्मक रडार, लक्ष्य को स्वयं से पहचानने एवं उसे लक्ष्यीकृत करने की प्रणाली के साथ-साथ विमान-रोधी मिसाइल प्रणाली, लॉन्चर तथा कमांड एंड कंट्रोल सेंटर से सुसज्जित है।
- यह प्रणाली बहुस्तरीय सुरक्षा प्रणाली बनाने के लिये तीन प्रकार की मिसाइलों को भेदने में सक्षम है। S-400 प्रणाली को पाँच मिनट के भीतर तैनात किया जा सकता है। साथ ही, इसे थल सेना, वायु सेना तथा नौसेना की मौजूदा और भविष्य की वायु रक्षा इकाइयों में भी एकीकृत किया जा सकता है।
परिचालन स्थिति
- पहली S-400 प्रणाली वर्ष 2007 से परिचालन अवस्था में है, जिसे मॉस्को की सुरक्षा में तैनात किया गया है। रूसी और सीरियाई सेनाओं की सुरक्षा के लिये वर्ष 2015 में इसे सीरिया में तैनात किया जा चुका है।
- हाल ही में, रूस ने अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिये क्रीमिया में S-400 प्रणाली को तैनात किया है।
- वर्ष 2015 में चीन ने इस प्रणाली की छह बटालियन खरीदने के लिये समझौते किया, जिसकी डिलीवरी जनवरी 2018 में शुरू हुई।
भारत के लिये S-400 की आवश्यकता
- चीन द्वारा S-400 प्रणाली के अधिग्रहण को इस क्षेत्र में एक गेम चेंजर के रूप में देखा जा रहा है। हालाँकि, भारत के विरुद्ध इसकी प्रभावशीलता सीमित है।
- विशेषज्ञों के अनुसार इसे भारत-चीन सीमा पर तैनात किये जाने और हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों की ओर स्थानांतरित किये जाने की स्थिति में भी दिल्ली मुश्किल से ही इसकी परिधि में आएगी।
- S-400 भारत के लिये दोहरे-मोर्चे (पाकिस्तान-चीन) पर युद्ध के साथ-साथ F-35 जैसे लड़ाकू विमान का सामना करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
सी.ए.ए.टी.एस.ए. (CAATSA)
- सी.ए.ए.टी.एस.ए. का पूरा नाम- ‘काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट’ (Countering America’s Adversaries through Sanctions Act- CAATSA) है।
- यह एक अमेरिकी संघीय कानून है जो ईरान, उत्तर कोरिया और रूस की आक्रामकता का सामना दंडात्मक व प्रतिबंधात्मक उपायों के माध्यम से करता है। इसके तहत अन्य प्रतिबंधों के साथ-साथ उन देशों/व्यक्तियों के खिलाफ भी प्रतिबंध लगाया जा सकता है जो रूस के साथ महत्त्वपूर्ण रक्षा एवं खुफिया सौदों में संलग्न हैं।
- इस अधिनियम की धारा 235 में 12 प्रतिबंधों का उल्लेख किया गया है, जिसमें कुछ निर्यात लाइसेंस पर प्रतिबंध तथा प्रतिबंधित व्यक्तियों द्वारा इक्विटी/ऋण के माध्यम से अमेरिकी निवेश पर प्रतिबंध शामिल हैं।
- हालाँकि, जुलाई 2018 में अमेरिका ने कहा था कि वह भारत, इंडोनेशिया और वियतनाम को सी.ए.ए.टी.एस.ए. प्रतिबंधों में छूट देने के लिये तैयार है।
अमेरिकी दृष्टिकोण में परिवर्तन के आसार
- अमेरिकी चुनाव में रूसी हस्तक्षेप के आरोपों एवं वैश्विक स्तर पर रूस की कार्रवाइयों के चलते अमेरिका सी.ए.ए.टी.एस.ए. के माध्यम से रूस के रक्षा व ऊर्जा व्यवसाय को प्रभावित करना चाहता है। इस प्रकार, यदि अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बाद रूस से तनाव में वृद्धि होती है तो यह भारत के हितों को प्रभावित कर सकता है।
- सिप्री (SIPRI) के अनुसार वर्ष 2010 से 2017 की अवधि के दौरान रूस भारत का शीर्ष हथियार आपूर्तिकर्ता था। हालाँकि, इसी अवधि के दौरान भारत के हथियारों के आयात में रूसी हिस्सेदारी घटकर 68% रह गई, जो 2000 के दशक में 74% के उच्च स्तर पर थी। इस प्रकार, भारत के अधिकांश हथियार सोवियत/रूसी मूल के हैं।
भारत की चिंता
- सी.ए.ए.टी.एस.ए. अधिनियम के अनुसार अमेरिकी विदेश विभाग ने 39 ऐसी रूसी संस्थाओं को अधिसूचित किया है, जिनके साथ समझौता करने वाले पक्षों पर प्रतिबंध लगाया जा सकता हैं। गौरतलब है कि S-400 की निर्माता कम्पनी उन 39 संस्थाओं की सूची में शामिल है। इस प्रकार सी.ए.ए.टी.एस.ए. को यदि कड़ाई से लागू किया जाता है, तो रूस से भारत की रक्षा खरीद प्रभावित होगी।
- S-400 प्रणाली के अलावा ‘प्रोजेक्ट 1135.6’ के तहत युद्धपोत और ‘Ka226T हेलीकॉप्टर’ से सम्बंधित प्रक्रिया भी प्रभावित होगी। साथ ही, यह भारत-रूस एविएशन लिमिटेड, मल्टी-रोल ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट लिमिटेड और ब्रह्मोस एयरोस्पेस जैसे संयुक्त उपक्रमों को भी प्रभावित करेगा।
- इसके अतिरिक्त, यह भारत के स्पेयर पार्ट्स (कल-पुर्जे), अन्य रक्षा घटकों, कच्चे माल और सहायक सामग्री की खरीद को भी प्रभावित करेगा।
- उल्लेखनीय है कि पिछले कई वर्षों से भारत की रक्षा आपूर्ति में अमेरिकी हिस्सेदारी में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है और वह भारत के लिये एक प्रमुख हथियार आपूर्तिकर्ता बनना चाहता है। ऐसी स्थिति में सम्भव है कि अमेरिका भारत को सी.ए.ए.टी.एस.ए. के तहत प्राप्त छूट को निलम्बित न करे।
भारत को प्राप्त छूट का वैश्विक महत्त्व
- इस छूट से भारत के रक्षा आयात में रूस के प्रभाव को कम करके अमेरिकी हिस्सेदारी बढ़ाने में मदद मिलेगी। साथ ही, यह भारत को अमेरिका के साथ रसद (Logistics) समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिये प्रेरित किया है।
- इसके अतिरिक्त, चीन को नियंत्रित करने के लिये हिंद-प्रशांत और क्वाड जैसे रणनीतिक मंच पर भारत का सहयोग प्राप्त करना आसान होगा।
- इस छूट से उन सिद्धांतों को भी बल मिलता है कि एक सम्प्रभु देश के रूप में भारत के रणनीतिक हितों का निर्धारण कोई तीसरा देश नहीं कर सकता है।
- ट्रम्प प्रशासन के अप्रत्याशित होने, वैश्विक शक्ति परिदृश्य में अनिश्चितता, चीन के अधिक मुखर होने और रूस को नए साझेदार की तलाश जैसी स्थितियों में भारत अपने हितों के अनुरूप निर्णय ले सकता है और किसी भी बड़ी शक्ति के साथ सम्बंधों के चलते भारत को किसी अन्य के विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा।
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17.विषय -पश्चिमी सहारा क्षेत्र पर मोरक्को की सम्प्रभुता को वैधता
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की राजनीति का प्रभाव)
संदर्भ
- हाल ही में, मोरक्को ने अमेरिका की मध्यस्थता से इज़रायल के साथ सम्बंधों को सामान्य बनाने पर सहमति व्यक्त की है। मोरक्को ऐसा करने वाला चौथा अरब राष्ट्र है।
- साथ ही, इसी समझौते के तहत अमेरिका ने पश्चिमी सहारा के विवादित क्षेत्र पर मोरक्को के दावे को भी मान्यता प्रदान की है। अमेरिकी राष्ट्रपति के अनुसार, मोरक्को का गम्भीर, विश्वसनीय तथा यथार्थवादी प्रस्ताव शांति एवं समृद्धि का एकमात्र आधार है।
पश्चिमी सहारा क्षेत्र: पृष्ठभूमि
- स्पेन का उपनिवेश रहा पश्चिमी सहारा क्षेत्र उत्तर पश्चिम अफ्रीका में स्थित एक विशाल एवं शुष्क क्षेत्र है। यह क्षेत्र आकार में काफी बड़ा है परंतु यहाँ निवास करने वाले लोगों की संख्या छह लाख से भी कम है।
- पहली बार वर्ष 1884 में यह क्षेत्र स्पेन के नियंत्रण में आया और वर्ष 1934 में उसके द्वारा ‘स्पेनिश सहारा’ नामक एक प्रांत का गठन किया गया।
- वर्ष 1957 में इस क्षेत्र के उत्तर में स्थित पड़ोसी देश मोरक्को ने पूरे क्षेत्र पर अपना दावा करते हुए सदियों पुरानी स्थिति को बहाल करने की मांग की। विदित है कि मोरक्को वर्ष 1956 में फ्रांसीसी शासन से स्वतंत्र हुआ था।
सहरावी जातीय समूह और स्पेन से स्वतंत्रता का प्रयास
- उपरोक्त स्थितियों के बीच पश्चिमी सहारा क्षेत्र में निवास करने वाले सहरावी (Sahrawi) जातीय समूह ने स्पेन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिये प्रयास शुरू कर दिये।
- इसी संदर्भ में वर्ष 1973 में ‘पॉपुलर फ्रंट फॉर लिबरेशन ऑफ सागिया एल-हमरा’ और ‘रियो डी ओरो’ (पोलिसारियो फ्रंट) के मध्य एक गुरिल्ला युद्ध छिड़ गया। विदित है कि इन दोनों समूहों का नाम स्पेनिश सहारा प्रांत के दो क्षेत्रों से सम्बंधित है।
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस क्षेत्र के वि-औपनिवेशीकरण की मांग के दस साल बाद वर्ष 1975 में स्पेन ने पश्चिमी सहारा क्षेत्र को खाली कर इसे मोरक्को एवं मॉरिटानिया के मध्य विभाजित कर दिया।
- पश्चिमी सहारा क्षेत्र के उत्तरी हिस्से का दो-तिहाई भाग मोरक्को को जबकि दक्षिण का शेष एक-तिहाई भाग मॉरिटानिया को प्राप्त हुआ। हालाँकि, यह विभाजन अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) के सहरावियों के लिये आत्मनिर्णय के फैसले के विपरीत था।
- पोलिसारियो फ्रंट ने इस विभाजन का विरोध करते हुए अल्जीरिया के समर्थन से सशस्त्र संघर्ष को जारी रखा। साथ ही, वर्ष 1976 में सहरावी अरब डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (SADR) नामक निर्वासित सरकार का गठन किया गया।
- तीन वर्ष बाद मोरक्को ने फिर से मॉरिटानिया के हिस्से वाले क्षेत्र को अपने में शामिल कर लिया। हालाँकि वर्ष 1991 में संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता से यहाँ संघर्ष विराम लागू हुआ।
युद्ध विराम के बाद की स्थिति
- मोरक्को वर्ष 1991 के संघर्ष विराम समझौते के अनुरूप सहरावियों के लिये एक स्वतंत्र जनमत संग्रह आयोजित करने पर सहमत हो गया था। परंतु वर्ष 2001 में नए राजा मुहम्मद VI ने जनमत संग्रह करवाने से इनकार कर दिया।
- इसी समय मोरक्को ने अपने हजारों निवासियों को पश्चिमी सहारा में बसने के लिये प्रोत्साहित किया, जिससे इस क्षेत्र के जनसांख्यिकीय संतुलन में तेज़ी से बदलाव हुआ।
- इसके उपरांत, मोरक्को ने इस क्षेत्र के लिये व्यापक स्वायत्तता का प्रस्ताव रखा। हालाँकि, पोलिसारियो फ्रंट का कहना है कि स्थानीय निवासियों को जनमत संग्रह का अधिकार है।
- एस.ए.डी.आर. को लगभग 70 देशों द्वारा मान्यता दी गई है। साथ ही, यह अफ्रीकी संघ का सदस्य भी है, परंतु विश्व की प्रमुख शक्तियों के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र ने इसे मान्यता प्रदान नहीं की है।
- अल्जीरिया के शरणार्थी शिविरों में 1 लाख से अधिक सहरावी रहते हैं और मॉरिटानिया के समर्थन से अपनी माँगो के लिये संघर्षरत हैं।
- पिछले महीने यहाँ स्थिति उस समय ख़राब हो गई जब मोरक्को ने एस.ए.डी.आर. से अलग करने वाली सीमा के बफर क्षेत्र में प्रवेश किया और पोलिसारियो फ्रंट ने वर्ष 1991 के युद्धविराम के अनुसार इसका विरोध किया।
खनिज संसाधन
- यह क्षेत्र खनिज संसाधनों से सम्पन्न है। यहाँ पर फॉस्फेट के प्रचुर भंडार पाए जाते हैं, जो सिंथेटिक उर्वरकों के निर्माण का एक प्रमुख घटक है।
- इसके अतिरिक्त, यह क्षेत्र लाभप्रद मत्स्य संसाधनों से भरपूर होने के साथ-साथ अपतटीय (Off-shore) तेल का भी स्रोत माना जाता है।
- वर्ष 1991 के संघर्ष विराम के बाद से पश्चिमी सहारा के लगभग 80% क्षेत्र पर मोरक्को का नियंत्रण है, जिसमें फॉस्फेट भंडार और मत्स्य संसाधन क्षेत्र शामिल हैं।
- ‘द अटलांटिक’ के अनुसार अपने खनिज भंडार को मिलाकर वर्तमान में मोरक्को के पास विश्व के फॉस्फेट भंडार का 72% से अधिक है, जबकि चीन इस मामले में लगभग 6% के साथ दूसरे स्थान पर है।
अमेरिका के फैसले का प्रभाव
- अमेरिका का निर्णय मोरक्को के लिये एक प्रतीकात्मक जीत है क्योंकि मोरक्को अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों द्वारा उसके दावे को मान्यता प्रदान करने को लेकर कई दशकों से प्रयासरत था।
- साथ ही, इस निर्णय से उसके दावे को अन्य राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त करने का भी मार्ग प्रशस्त होगा।
- इससे यह चिंता भी उत्पन्न हो गई है कि यह निर्णय क्षेत्र में संघर्ष व हिंसा में वृद्धि के साथ पश्चिमी अफ्रीका को अस्थिर कर देगा तथा इस क्षेत्र को इस्लामी उग्रवाद से मुक्त कराने के अमेरिका व फ्रांस के दशकों के प्रयासों को कमज़ोर कर देगा।
- इससे अमेरिका और अल्जीरिया के सम्बंधो पर भी नकारात्मक असर पड़ने की उम्मीद है।
- इज़रायल को मान्यता देने के लिये मुस्लिम-बहुल राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त करने के लिये ट्रम्प प्रशासन के इस दृष्टिकोण की भी आलोचना की जा रही है।
- इसी क्रम में, इज़रायल के साथ सम्बंधों को सामान्य करने के लिये सूडान को अमेरिका ने ‘आतंकवाद प्रायोजक राज्य’ की सूची से बाहर कर दिया है।
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18.विषय -विज़न 2035 : भारत में जन स्वास्थ्य निगरानी
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र – 2 : सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, नीति आयोग ने ‘विज़न 2035 : भारत में जन स्वास्थ्य निगरानी’ नाम से एक श्वेत पत्र जारी किया है।
विज़न 2035 के प्रमुख लक्ष्य
- भारत की जन स्वास्थ्य निगरानी प्रणाली को अधिक प्रतिक्रियाशील और भविष्योन्मुखी बनाकर प्रत्येक स्तर पर कार्रवाई करने की तैयारी को सुदृढ़ करना।
- बीमारियों की पहचान, बचाव और नियंत्रण को बेहतर बनाने के लिये केंद्र और राज्यों के बीच डाटा-शेयरिंग तंत्र को उन्नत बनाना।
- ग्राहक फीडबैक तंत्र से युक्त नागरिकों के अनुकूल (Citizen-Friendly) जन स्वास्थ्य निगरानी प्रणाली के माध्यम से लोगों की निजता और गोपनीयता को सुनिश्चित करना।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर की जन स्वास्थ्य आपदाओं पर भारत के क्षेत्रीय और वैश्विक नेतृत्व का निर्धारण करना।
विज़न 2035 का महत्त्व
- इसके अंतर्गत व्यक्तिगत इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड को निगरानी का आधार बनाकर सुझाव देने की प्रणाली पर बल दिया गया है, जिससे स्वास्थ्य सम्बंधी आँकड़ों में पारदर्शिता आने से विश्वसनीय आँकड़े प्राप्त हो सकेंगे।
- इसके तहत त्रिस्तरीय जन स्वास्थ्य व्यवस्था को आयुष्मान भारत कार्यक्रम के साथ संलग्न कर जन स्वास्थ्य निगरानी के लिये भारत के दीर्घकालिक स्वास्थ्य लक्ष्यों को सुनिश्चित किया जा सकेगा।
विज़न 2035 में सार्वजानिक स्वास्थ्य निगरानी में अंतराल वाले क्षेत्रों के लिये समाधान
- भारत में स्वास्थ्य निगरानी गतिविधियों के लिये समर्पित एक कुशल और मज़बूत स्वास्थ्य कार्यबल का निर्माण किया जाना चाहिये। साथ ही मानव, पशु, पौधे और पर्यावरण के एकसाथ अवलोकन के लिये एकीकृत स्वास्थ्य दृष्टिकोण पर आधारित प्रणाली के निर्माण पर बल दिये जाने की आवश्यकता है।
- केंद्र और राज्यों के सहयोग पर आधारित स्वास्थ्य सम्बंधी शासन व्यवस्था की निगरानी के लिये एक मज़बूत तंत्र की स्थापना की जानी चाहिये।
- डाटा विश्लेषण की नई तकनीकों, डाटा विज्ञान, कृत्रिम बुद्धिमत्ता तथा मशीन लर्निंग के बेहतर उपयोग से सटीक तथा वास्तविक समय में स्वास्थ्य सम्बंधी आँकड़े प्राप्त किये जा सकते हैं।
- मॉलिक्यूलर आधारित निदान, जीनोटाइपिंग और फेनोटाइपिंग सहित नई नैदानिक तकनीकों के साथ प्रयोगशालाओं की क्षमताओं को मज़बूत किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
- मानव-पशु-पर्यावरण के बीच बढ़ते सम्पर्क के चलते नई बीमारियों की शीघ्र पहचान कर संक्रमण के प्रसार की शृंखला को तोड़ने के लिये एक लचीली स्वास्थ्य निगरानी व्यवस्था के निर्माण की दिशा में यह विज़न दस्तावेज एक सराहनीय कदम है।
महत्त्वपूर्ण शब्दावली
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19.विषय -सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के लिये लैंसेट नागरिक आयोग
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 : स्वास्थ्य)
चर्चा में क्यों ?
- भारत में सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज और प्रत्येक नागरिक के लिये गुणवत्तापूर्ण एवं किफायती स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने की रूपरेखा तैयार करने के उद्देश्य से हाल ही में, लैंसेट के साथ मिलकर एक पैनल का गठन किया गया है।
- लैंसेट नागरिक आयोग (Lancet Citizens’ Commission) नामक इस पैनल का नेतृत्व स्वास्थ्य और व्यापार क्षेत्र की प्रतिष्ठित हस्तियाँ करेंगी। पैनल का गठन ‘लक्ष्मी मित्तल एंड फैमिली साउथ एशिया इंस्टीट्यूट’ और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के तत्वाधान में किया गया है।
लैंसेट नागरिक आयोग
- उद्देश्य: सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (UHC) के कार्यान्वयन के लिये सहभागितापूर्ण सार्वजनिक सहभागिता को सुनिश्चित करना।
- मिशन:
- एक लचीली स्वास्थ्य प्रणाली का निर्माण करने के लियेरोडमैप तैयार करना, जिससे भारत में सभी नागरिकों के लिये व्यापक, जवाबदेह, सुलभ, समावेशी और सस्ती गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित की जा सके।
- सम्पूर्ण भारत में ज़मीनी सर्वेक्षण, सार्वजनिक परामर्श और ऑनलाइन चर्चा के माध्यम सेसुझाव आमंत्रित करना।
- शैक्षणिक संस्थानों, नागरिक समाज और अन्य हितधारकों के साथ मिलकरविभिन्न स्तर पर संवाद स्थापित करना और ज्ञान साझा करना।
- फोकस: भारत की स्वास्थ्य प्रणाली की अवसंरचना पर।
- सिद्धांत: आयोग को चार सिद्धांतों द्वारा निर्देशित किया जाएगा :
- स्वास्थ्य क्षेत्र की सभी समस्याओं को कवर करना।
- रोकथाम और दीर्घकालिक देखभाल सुधार पर ध्यान देना।
- वित्तीय सुरक्षा पर ध्यान देना।
- एक ऐसी स्वास्थ्य प्रणाली का निर्माण, जो सभी के लिये समान गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाओं को सुनिश्चित कर सके।
सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (Universal Health Coverage – UHC)
- यू.एच.सी. का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों और समुदायों को बिना किसी वित्तीय कठिनाई के स्वास्थ्य सेवाएँ प्राप्त हों। इसमें स्वास्थ्य संवर्धन से लेकर रोकथाम, उपचार, पुनर्वास और उपशामक देखभाल तक आवश्यक, गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं की पूरी शृंखला शामिल है।
- ‘सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज दिवस’ प्रतिवर्ष 12 दिसम्बर को मनाया जाता है।
- इसका उद्देश्य देश के किसी भी नागरिक की आय के स्तर, सामाजिक स्थिति, लिंग, जाति या धर्म की बात किये बिना सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज का न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करना है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार विश्वभर में लगभग एक अरब लोग आवश्यकतानुसार स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को प्राप्त करने में असमर्थ हैं। इसके अलावा, लगभग एक सौ पचास मिलियन लोग प्रतिवर्ष स्वास्थ्य देखभाल की वजह से होने वाले खर्चों के कारण वित्तीय संकट का सामना करते हैं तथा लगभग सौ मिलियन लोग स्वास्थ्य भुगतान के परिणामस्वरूप गरीबी रेखा के नीचे भी पहुँच जाते हैं।
भारत में यू.एच.सी. के सूत्रीकरण के लिये दस सिद्धांतों को निर्देशित किया गया है:
- सार्वभौमिकता।
2. समानता।
3. बहिष्कार एवं भेदभाव का उन्मूलन।
4. तर्कसंगत एवं गुणवत्तापूर्ण व्यापक देखभाल।
5. वित्तीय सुरक्षा।
6. रोगियों के अधिकारों का संरक्षण।
7. मज़बूत सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये प्रावधान।
8. उत्तरदायित्व एवं पारदर्शिता।
9. समुदाय की भागीदारी।
10. स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुँच।
सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के लाभ:
- बड़ी संख्या में लोगों के स्वास्थ्य में सुधार।
- कुशल, उत्तरदायी एवं पारदर्शी स्वास्थ्य प्रणाली।
- गरीबी में कमी।
- अधिक उत्पादकता।
- नौकरियों में बढ़ोतरी।
- वित्तीय सुरक्षा।
- अधिक समानता।
20.विषय -ऑस्ट्रेलिया का प्रस्तावित कानून : ‘समाचार मीडिया अनिवार्य मोलभाव (बार्गेनिंग) संहिता’
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, ऑस्ट्रेलिया की संसद में ‘समाचार मीडिया अनिवार्य मोलभाव संहिता’ (मीडिया बार्गेनिंग कोड) पेश की गई है। यह अपने आप में ‘दुनिया का पहला’ ऐसा मीडिया कानून है, जिसके तहत गूगल और फेसबुक जैसी प्रौद्योगिकी कम्पनियों को अपने प्लेटफ़ॉर्म पर समाचार सामग्री प्रदर्शित करने के लिये समाचार एजेंसियों को क्षतिपूर्ति के रूप में भुगतान करना पड़ेगा।
प्रमुख बिंदु
- इस प्रस्तावित कानून के अनुसार, बड़ी प्रौद्योगिकी कम्पनियों को ऑस्ट्रेलिया में प्रमुख मीडिया कम्पनियों के साथ ख़बरों के उपयोग, उनका प्रदर्शन तथा उससे होने वाली कमाई के उचित वितरण के विषय पर बातचीत करने के लिये एक साथ एक मंच पर लाया जाएगा।
- ध्यातव्य है कि वर्तमान में डिजिटलीकरण के समय में लोग समाचार एजेंसियों के आधिकारिक टीवी चैनल या मुद्रित समाचार पत्र का उपयोग करने की बजाय गूगल, फेसबुक तथा यूट्यूब जैसे ऑनलाइन माध्यमों का प्रयोग कर रहे हैं, जिससे विज्ञापन कम्पनियाँ समाचार कम्पनियों को सीधे ऑफलाइन विज्ञापन देने की बजाय ऑनलाइन माध्यमों को प्राथमिकता दे रही हैं।
- इस प्रकार, विज्ञापन उद्योग के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर शिफ्ट होने से समाचार कम्पनियों को तुलनात्मक रूप से नुकसान उठाना पड़ रहा है।
- मीडिया और प्रौद्योगिकी कम्पनी किसी तय कीमत पर समझौता नहीं कर पाती हैं तो बाध्यकारी निर्णय लेने के लिये एक स्वतंत्र मध्यस्थ की नियुक्ति की जाएगी।
- अगर डिजिटल कम्पनियाँ मध्यस्थ के निर्णय का पालन करने में असमर्थ रहती हैं तो उन पर 74 लाख अमेरिकी डॉलर तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।
- एक सर्वे के अनुसार, ऑनलाइन विज्ञापनों में गूगल की हिस्सेदारी 53% तथा फेसबुक की हिस्सेदारी 23% है।
प्रस्तावित कानून से लाभ
- प्रस्तावित कानून के तहत ऑनलाइन विज्ञापन बाज़ार में सभी को समान प्रतिस्पर्धा का अवसर मिलने के साथ ही ऑस्ट्रेलिया में एक स्थाई और व्यवहार्य मीडिया परिदृश्य सुनिश्चित हो सकेगा।
- इससे मूल समाचार सामग्री तैयार करने वाली संस्थाओं तथा समाचार प्रकाशकों को उचित प्रतिफल प्राप्त होगा।
प्रस्तावित कानून से जुड़ी समस्याएँ
- इस प्रस्तावित कानून में गूगल तथा फेसबुक जैसी कम्पनियों तथा समाचार एजेंसियों के बीच अनिवार्य बातचीत के लिये एक मध्यस्थता मॉडल का तो प्रावधान किया गया है लेकिन इसमें दोनों पक्षों के मध्य समाचार प्रदर्शन से होने वाली कमाई के वितरण से सम्बंधित किसी अनुपातिक फार्मूले का अभाव है।
- राजस्व वितरण या प्रौद्योगिकी कम्पनियों द्वारा समाचार एजेंसियों को जाने वाली क्षतिपूर्ति से सम्बंधित किसी स्पष्ट फार्मूला के अभाव में दोनों पक्षों के बीच हितों के टकराव को लेकर विवाद बढ़ने की आशंका है। इस प्रकार, मध्यस्थ का निर्णय बाध्यकारी होने के कारण प्रशासनिक तंत्र द्वारा सम्बंधित प्रौद्योगिकी कम्पनियों का शोषण किये जाने की सम्भावना है।
- इस प्रकार के कानूनों से स्वंतत्र बाज़ार प्रणाली में राज्य के हस्तक्षेप से अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ उस देश में कार्य करने के लिये हतोत्साहित होंगी, जिससे उस देश में निवेश और रोज़गार सृजन का जोखिम उत्पन्न हो सकता है।
21.विषय -भारत में व्यावसायिक शिक्षा तथा कौशल विकास : समस्याएँ तथा समाधान
(प्रारम्भिक परीक्षा : आर्थिक और सामाजिक विकास– सतत् विकास, गरीबी, समावेशन, आदि; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)
संदर्भ
- भारत में विश्व की सबसे अधिक युवा आबादी निवास करती है, जिसे शिक्षित करके अर्थव्यवस्था के लिये उपयोगी बनाना कठिन कार्य है। कोविड-19 के कारण सभी को शिक्षा मुहैया कराना तथा कौशल विकास सम्बंधी कार्यों का प्रशिक्षण देना और भी चुनौतीपूर्ण है।
- एक सर्वेक्षण के अनुसार नई नौकरियों में विश्वविद्यालयों के स्नातकों की अपेक्षा व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त अभ्यर्थी अधिक भुगतान प्राप्त करने में सक्षम हैं। साथ ही, व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले लोगों को नौकरी प्राप्त करने में भी अपेक्षाकृत कम समय लगता है।
समस्याएँ
- भारत में ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009’ के अंतर्गत 6 से 14 वर्ष की आयु-वर्ग के बच्चों के लिये मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। इसके तहत दी जाने वाली शिक्षा व्यावसायिक शिक्षा तथा कौशल विकास की तुलना में पुस्तकीय ज्ञान और लिखित परीक्षाओं पर अधिक केंद्रित है।
- एक तरफ जहाँ व्यावसायिक शिक्षा कार्यक्रमों की सर्वसुलभता नहीं है, वहीं तकनीकी और कौशल विकास से सम्बंधित कार्यक्रम केवल शहरी आबादी तक ही सीमित हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी पहुँच नगण्य है।
- भारत में कौशल विकास के तहत आने वाले बढ़ई तथा दर्जी जैसे पेशों को लेकर लोगों में कम रुची देखी गई है। साथ ही, इन कार्यों को सामाजिक रूप से निम्न कोटि का माना जाना भी एक चुनौती है।
सरकार के प्रयास
- पिछले एक दशक में भारत में कौशल विकास सम्बंधी पारिस्थितिकी तंत्र में तेज़ी से परिवर्तन हुए हैं। वर्ष 2009 में राष्ट्रीय कौशल विकास नीति की शुरुआत की गई थी, कौशल विकास से सम्बंधित चुनौतियों तथा मानकों को ध्यान में रखते वर्ष 2015 में इसे नए सिरे से शुरू किया गया।
- इसके कुछ समय पश्चात् ही भारत को ‘विश्व का कौशल केंद्र’ स्थापित करने के उद्देश्य से ‘कौशल भारत मिशन’ शुरू किया गया। इसके तहत गुणवत्तापूर्ण कौशल विकास पर बल दिया गया।
- शिक्षा क्षेत्र में सुधार हेतु नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत भी कई कदम उठाए गए हैं। इसके अंतर्गत, वर्ष 2025 तक 50% शिक्षार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जाएगी। साथ ही, कक्षा 6 से ही स्थानीय अर्थव्यवस्था से सम्बंधित पाठ्यक्रमों को शामिल किया जाएगा।
आगे की राह
- हाल ही में, यूनेस्को द्वारा जारी ‘स्टेट ऑफ़ द एजुकेशन रिपोर्ट फॉर इंडिया-2020’ भारत की व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण पर केंद्रित है, इसमें भारत के कौशल विकास क्षेत्र में उभरती हुई चुनौतियों का ज़िक्र किया गया है। साथ ही, इसमें नीतियों को प्रभावी रूप से लागू करने पर भी ज़ोर दिया गया है।
- भारत में व्यावहारिक शिक्षा प्रारूपों, जैसे- तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा तथा प्रशिक्षण (Technical and Vocational Education and Training- TVET) कार्यक्रमों को लागू किया जाना चाहिये।
- कौशल विकास क्षेत्र से सम्बंधित आँकड़ों के एकत्रीकरण तथा विश्लेषण पर आधारित गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान के माध्यम से व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रभावी रूप से लागू किया जा सकेगा।
- कौशल विकास तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा दिये जाने से जनसांख्यिकीय लाभांश में वृद्धि होगी, जिससे राष्ट्रीय आय के साथ-साथ प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि होगी।
- कौशल विकास तथा व्यावसायिक शिक्षा प्रणालियों में अंतर-मंत्रालयी सहयोग के माध्यम से एक मज़बूत समन्वय तंत्र की आवश्यकता है, जिससे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उद्देश्यों को भी प्राप्त करने में मदद मिलेगी।
- लोगों ने वर्तमान समय के लिये आवश्यक कौशल या तो नौकरी के दौरान सीखे हैं या फिर व्यावहारिक अनुप्रयोग पर केंद्रित पाठ्यक्रमों के आधार पर। इससे पता चलता है कि व्यावसायिक शिक्षा व्यवहारिक कौशल प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है।
22.विषय -मातृभाषा में तकनीकी शिक्षा
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र –2 : विषय – शिक्षा, मानव संसाधनों से सम्बंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से सम्बंधित विषय।)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, केंद्रीय शिक्षा मंत्रीने मातृभाषा में छात्रों को तकनीकी शिक्षा प्रदान करने से सम्बंधित रोडमैप तैयार करने के लिये एक टास्कफोर्स (कार्यबल) का गठन किया है।
प्रमुख बिंदु :
कार्यबल :
- अध्यक्षता : इसकी स्थापना उच्च शिक्षा सचिव की अध्यक्षता में की जाएगी।
- उद्देश्य : छात्रों को मातृभाषा में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों जैसे चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कानून आदि की शिक्षा प्रदान करने के लक्ष्य को प्राप्त करना।
- यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति का भी हिस्सा है। जिसमें कक्षा 8 तक क्षेत्रीय भाषा में शिक्षण की बात की गई है ताकि छात्र पाठ्यक्रम को बेहतर तरीके से समझ पाएँ और पाठ्यक्रम को लेकर अधिक सहज हों।
- कार्य : यह विभिन्न हितधारकों द्वारा दिये गए सुझावों को ध्यान में रखकर एक महीने में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा।
क्षेत्रीय भाषाओं में तकनीकी शिक्षा प्रदान करने के कारण :
- यह देखा गया है कि मानव मन उस भाषा में हुए संचार के प्रति अधिक ग्रहणशील होता है, जिस भाषा में वह बचपन से पला बढ़ा है। जब क्षेत्रीय भाषाओं में समझाया जाता है, विशेषकर मातृभाषा में, तो छात्रों द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति को समझना काफी आसान हो जाता है।
- दुनिया भर में, कक्षाओं में विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षण कार्य किया जाता है, चाहे वह फ्रांस या जर्मनी या रूस या चीन जैसा देश हो, जहाँ 300 से अधिक भाषाएँ और बोलियाँ हैं।
- यह सामाजिक समावेशन, साक्षरता दर में सुधार और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में मदद करेगा। समावेशी विकास के लिये भाषा एक उत्प्रेरक बन सकती है। मौजूदा भाषाई बाधाओं को हटाने से समावेशी शासन के लक्ष्य को साकार करने में सहायता मिलेगी।
चुनौतियाँ :
- क्षेत्रीय भाषाओं में तकनीकी शिक्षा प्रदान करने के लिये आवश्यकता होती है-
- कुशल शिक्षकों की, जो अंग्रेजी के साथ-साथ स्थानीय भाषा में भी विधिवत रूप से कक्षाएँ ले सकें
- क्षेत्रीय भाषाओं में पुस्तकों और संदर्भ सामग्री की
- तकनीकी सहायता जैसे ऑडियो अनुवाद आदि की।
स्पष्ट है कि अभी इन क्षेत्रों में बड़े स्तर पर कार्य किया जाना बाकी है।
क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिये सरकार की पहलें :
- हाल ही में, घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा को बढ़ावा देती है।
- वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग (Commission for Scientific and Technical Terminology- CSTT) क्षेत्रीय भाषाओं में विश्वविद्यालय स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन के लिये अनुदान प्रदान करता है। यह आयोग वर्ष 1961 में सभी भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली विकसित करने के लिये स्थापित किया गया था।
- भारतीय भाषाओं के केंद्रीय संस्थान (CIIL), मैसूर के माध्यम से राष्ट्रीय अनुवाद मिशन (National Translation Mission- NTM) का कार्यान्वयन हो रहा है, जिसके तहत विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में निर्धारित विभिन्न विषयों की पाठ्य-पुस्तकों का आठवीं अनुसूची की भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है। सी.आई.आई.एल. की स्थापना वर्ष 1969 में शिक्षा मंत्रालय द्वारा की गई थी।
- भारत सरकार लुप्तप्राय और संकटग्रस्त भाषाओं के संरक्षण के लिये ‘प्रोटेक्शन एंड प्रिज़र्वेशन ऑफ़ एनडेंजर्ड लैंग्वेजेज़’ नाम से एक योजना चला रही है।
- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) भी देश में उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देता है और ‘केंद्रीय विश्वविद्यालयों में लुप्तप्राय भाषाओं के लिये केंद्र की स्थापना’ योजना के तहत नौ केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अनुदान व सहायता प्रदान करता है।
- हाल ही में, केरल सरकार की एक पहल ‘नमथ बसई’ द्वारा आदिवासी क्षेत्रों के बच्चों को स्थानीय भाषा में शिक्षा प्रदान करने की चर्चा देशभर में हुई और यह बच्चों के लिये काफी हद तक फायदेमंद भी साबित हुआ।
वैश्विक प्रयास :
- वर्ष 2018 में चांग्शा, चीन में यूनेस्को द्वारा की गई यूले उद्घोषणा ने विश्वभर में भाषाई विविधता और संसाधनों की रक्षा करने की दिशा में केंद्रीय भूमिका निभाई है।
- संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2019 को स्थानिक भाषाओं का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष (International Year of Indigenous Languages- IYIL) घोषित किया था। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थानिक भाषाओं के अस्तित्व की रक्षा, उनका समर्थन और उन्हें बढ़ावा देना था।
आगे की राह
- विभिन्न देशों ने अंग्रेजी के स्थान पर अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने में सफलता हासिल की है और उन देशों से विश्व स्तर के वैज्ञानिक, शोधकर्ता, तकनीशियन और विचारक अपनी प्रसिद्धि बिखेर रहे हैं। भाषा की बाधा तभी तक है जब तक सम्बंधित भाषा में उचित प्रोत्साहन का अभाव है। सरकार को क्षेत्रीय भाषाओं में मूल वैज्ञानिक लेखन और पुस्तकों के प्रकाशन को प्रोत्साहित करना चाहिये ताकि लोगों में स्थानिक भाषाओं को लेकर जागरूकता और जिज्ञासा बढ़े।
- साथ ही, विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि कम उम्र में यदि बच्चों को अभ्यास कराया जाए तो वे कई भाषाएँ सीख सकते हैं। अतः अग्रेज़ी भाषा के साथ ही स्थानीय भाषाओं को भी समान रूप से पढ़ाया जा सकता है।
23.विषय -न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : न्यायपालिका तथा अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, भारत के महान्यायवादी ने सर्वोच्च न्यायलय में कहा कि संवैधानिक अदालातों में लैंगिक संवेदनशीलता में सुधार के लिये महिला न्यायाधीशों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिये।
पृष्ठभूमि
- सामान्यतः लैंगिक भेदभाव का प्रमुख कारण महिलाओं के लिये अवसरों की कमी, हिंसा, बहिष्कार तथा कार्यस्थलों पर शोषण आदि हैं। सार्वजानिक जीवन में महिलाओं की पर्याप्त भागीदारी लैंगिक न्याय का एक मूल घटक है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सार्वजानिक संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी को सतत् विकास लक्ष्य एजेंडा 2030 में भी शामिल किया गया है।
न्यायपालिका में महिलाओं की स्थिति
- सर्वोच्च न्यायलय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 हैं जिनमें वर्तमान में केवल 2 महिला न्यायाधीश ही कार्यरत हैं, जबकि उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में समग्र रूप से 1,113 न्यायाधीशों की अधिकतम सीमा है। इनमें से न्यायाधीश के रूप में केवल 80 महिलाएँ ही कार्यरत हैं। ध्यातव्य है कि भारत में अब तक कोई भी महिला सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश नहीं रही है।
न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से लाभ
- न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सुधार होने से महिलाओं के प्रति यौन हिंसा से सम्बंधित मामलों में अधिक संतुलित तथा सशक्त दृष्टिकोण विकसित हो सकेगा।
- न्यायलयों में महिला न्यायाधीशों के प्रतिनिधित्व से अधिक समावेशी तथा सहभागी न्यायपालिका का निर्माण हो सकेगा।
- वैश्विक स्तर पर शोध से पता चलता है कि न्यायपलिका में महिलाओं की उपस्थिति से महिलाओं के लिये न्यायलयों में अनुकूल वातावरण निर्मित होता है तथा न्यायिक निर्णयों की गुणवत्ता में सुधार होता है।
आगे की राह
- संवैधानिक तथा वैधानिक न्यायलयों का यह दायित्व है कि वे स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक तंत्र के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करें।
- सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के पास होता है इसलिये न्यायपालिका में महिलाओं को उचित प्रतिधिनित्व देने की शुरुआत स्वयं सर्वोच्च न्यायालय से होनी चाहिये।
- पितृसत्तात्मक सोच के कारण न्यायाधशों तथा वकीलों का व्यवहार महिलाओं के प्रति रुढ़िवादी हो सकता है। इसलिये न्यायाधीशों तथा वकीलों के लिये लैंगिक संवेदनशीलता से सम्बंधित एक अनिवार्य प्रशिक्षण कार्यक्रम लागू किया जाना चाहिये।
- नकारात्मक संस्थागत नीतियों तथा प्रथाओं को चुनौती देने के लिये एक मज़बूत महिला समर्थित पहल की आवश्यकता है। उदाहरणस्वरूप जॉर्डन, ट्यूनीशिया और मोरक्को जैसे देशों में महिला न्यायाधीशों के संघों ने न्यायिक प्रणाली को अधिक संवेदनशील बनाने के लिये सक्रिय रूप से एक संगठित पहल की शुरुआत की है।
निष्कर्ष
- न्यायपलिका में महिलाओं और पुरूषों के समान प्रतिनिधित्व से न्यायिक भेदभाव के सभी रूपों को समाप्त करने में सहायता मिलेगी, जिससे देश में मज़बूत, पारदर्शी, स्वंतत्र तथा समावेशी न्यायिक संस्थानों का निर्माण हो सकेगा।
प्री फैक्ट्स :
- वर्ष 1987 में केरल की एम. फातिमा बीवी को सर्वोच्च न्यायालय में प्रथम महिला न्यायाधीश के रूप नियुक्त किया गया था।
- एस.डी.जी.– 5 (लैंगिक समानता और सभी महिलाओं तथा लड़कियों को सशक्त बनाना) तथा एस.डी.जी.- 16 (स्थायी विकास के लिये शांतिपूर्ण और समावेशी समाज को बढ़ावा देना)
- महिला अधिकारों पर बीजिंग घोषणा (महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त करने से सम्बंधित)।
24.विषय -झारखंड में तम्बाकू पर प्रतिबंध
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : विषय– स्वास्थ्य, सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)
चर्चा में क्यों
- हाल ही के एक आदेश में झारखंड सरकार ने, राज्य सरकार के सभी कर्मचारियों के लिये तम्बाकू उत्पादों के किसी भी प्रकार के उपभोग पर प्रतिबंध लगा दिया है।
प्रमुख बिंदु
- राज्य सरकार ने सभी राज्य के सरकारी कर्मचारियों के लिये एक शपथ पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया है कि वे तम्बाकू के किसी भी रूप का सेवन नहीं करेंगे।
- तम्बाकू उत्पादों में सिगरेट, बीड़ी, खैनी, गुटखा, पान मसाला, जर्दा या सुपारी के साथ-साथ हुक्का, ई-हुक्का, ई-सिगरेट और वे सभी तम्बाकू उत्पाद शामिल हैं, जिन्हें किसी अन्य नाम से प्रयोग में लाया जा रहा है।
- सिगरेट और अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम, 2003 (Cigarettes and other Tobacco Products Act-COTPA) को लागू करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रम के राज्य स्तर (National Tobacco Control Programme’s state chapter) की बैठक में यह निर्णय लिया गया।
- यह निर्णय 1 अप्रैल, 2021 से प्रभावी होगा।
- हालाँकि आदेश के उल्लंघन के मामले में किसी भी प्रकार के दंडात्मक प्रावधान पर अभी कोई स्पष्टता नहीं है।
- सरकार पंचायत स्तर के संस्थानों का उपयोग करके कर्मचारियों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिये भी उपाय कर रही है।
- ज़िला परिषदों, पंचायत समितियों और ग्राम पंचायतों को प्रत्येक ग्राम सभा की बैठक में तम्बाकू नियंत्रण चर्चा आयोजित करने के लिये कहा गया है।
- प्रतिबंधित तम्बाकू उत्पादों के राज्य में प्रवेश को रोकने के लिये पुलिस को चेकपोस्टों पर सतर्कता बढ़ाने का आदेश दिया गया है।
- इससे पहले अप्रैल 2020 में, झारखंड ने कोविड -19 संक्रमण की सम्भावना में वृद्धि को देखते हुए, सार्वजनिक स्थलों पर तम्बाकू उत्पादों की बिक्री और उनकी ऑनलाइन बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया था।
भारत में तम्बाकू नियंत्रण
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन :
- भारत ने वर्ष 2004 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के ‘फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल’ (WHO FCTC) की पुष्टि की।
सिगरेट और अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम (COTPA), 2003 :
- इस अधिनियम ने सिगरेट अधिनियम 1975 का स्थान लिया। वर्ष 1975 के अधिनियम में काफी हद तक वैधानिक चेतावनियाँ ही शामिल थीं जैसे – ‘धूम्रपान स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है आदि। इन चेतावनियों को सिगरेट के पैकेट और होर्डिंग्स या विज्ञापनों में प्रदर्शित किया जाता था। इस अधिनियम में गैर-सिगरेट तम्बाकू उत्पाद शामिल नहीं थे।
- वर्ष 2003 के अधिनियम में सिगार, बीड़ी, चेरूट, पाइप तम्बाकू, हुक्का, चबाने वाले तम्बाकू, पान मसाला और गुटखे को भी शामिल किया गया।
राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रम (NTCP), 2008
- उद्देश्य: तम्बाकू की खपत को नियंत्रित करना और तम्बाकू से होने वाली मौतों को कम करना और जागरूकता फैलाना।
- कार्यान्वयन: एन.टी.सी.पी. को त्रिस्तरीय संरचना- केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण प्रकोष्ठ (NTCC) (ii) राज्य स्तर पर राज्य तम्बाकू नियंत्रण प्रकोष्ठ (STCC) और (iii) ज़िला स्तर पर ज़िला तम्बाकू नियंत्रण प्रकोष्ठ (DTCC) के माध्यम से कार्यान्वित किया जाता है।
सिगरेट और अन्य तम्बाकू उत्पाद (पैकेजिंग और लेबलिंग) संशोधन नियम, 2020:
- इस नियम में तम्बाकू उत्पादों पर मुद्रित करने के लिये वर्धित सचित्र चेतावनियों (enhanced pictorial images) के साथ कुछ विशेष स्वास्थ्य चेतावनियों को जोड़ा गया।
mCessation कार्यक्रम
- यह तम्बाकू की समाप्ति के लिये मोबाइल प्रौद्योगिकी का उपयोग करने वाली एक पहल है।
- भारत ने वर्ष 2016 में सरकार के डिजिटल इंडिया पहल के हिस्से के रूप में पाठ संदेश (Text messages) का उपयोग कर mCessation कार्यक्रम शुरू किया।
- वर्ष 1981 के प्रदूषण अधिनियम में धूम्रपान को वायु प्रदूषक के रूप में मान्यता दी गई।
- वर्ष 2000 के केबल टेलीविज़न नेटवर्क संशोधन अधिनियम के द्वारा भारत में तम्बाकू और शराब पर विज्ञापनों के प्रसारण पर प्रतिबंध लगाया गया।
- भारत सरकार ने खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम 2006 के तहत नियम जारी किये हैं, जो यह कहते हैं कि तम्बाकू या निकोटीन का उपयोग खाद्य उत्पादों में सामग्री के रूप में नहीं किया जा सकता है।
25.विषय -समुद्री संचार मार्गों से जुड़ी चिंताएँ
मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र – 2 : भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
पृष्ठभूमि
- प्राचीनकाल से ही विभिन्न सभ्यताओं और देशों के मध्य वाणिज्यिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया ने वैश्विक सम्बंधों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है, जिसने राष्ट्रों के निर्वाह और समुद्री राजनीति पर उल्लेखनीय प्रभाव डाला है।
पूर्वी गलियारा तथा समुद्री संचार मार्ग (Sea Lanes of Communication -SLOCs)
- पूर्वी गलियारा वैश्विक व्यापार के लिये समुद्री मार्ग का लम्बा और व्यस्त नेटवर्क है जो उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और एशिया के प्रमुख औद्योगिक केंद्रों को जोड़ता है।
- इस गलियारे में किसी भी प्रकार का व्यवधान वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिरता को गम्भीर रूप से प्रभावित कर सकता है। इस मार्ग में दुनिया के कुछ सबसे संवेदनशील समुद्री संचार मार्ग शामिल हैं, जिनमें दक्षिण चीन सागर जैसे सम्भावित महत्त्वपूर्ण फ्लैश प्वाइंट भी हैं। वर्षों से, इन एस.एल.ओ.सी पर दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में तनाव की स्थिति बनी हुई है।
- एस.एल.ओ.सी. बंदरगाहों के मध्य प्राथमिक समुद्री मार्गों को संदर्भित करता है, जिनका उपयोग व्यापार के लिये तथा रसद सामग्री को पहुँचाने के लिये किया जाता है। इनका उपयोग विशेष रूप से नौसेना के संचालन के लिये भी किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि युद्ध के समय ये मार्ग खुले हैं या बंद।
- दक्षिण पूर्व एशिया में तीन प्रमुख एस.एल.ओ.सी. मलक्का, लोम्बोक और सुंडा जलडमरूमध्य हैं।
समुद्री मार्गों से सम्बंधित चिंताएँ
- पिछले 50 वर्षों में शिपिंग लागत में लगातार गिरावट आई है, जिसने विनिर्माण तथा खुदरा क्षेत्र के प्रसार को व्यापक स्तर पर प्रोत्साहित किया है। वर्तमान में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं के मध्य सस्ते और कुशल समुद्री मार्गों ने समुद्री परिवहन को प्रतिस्पर्धा का केंद्र बिंदु बना दिया है।
- प्रमुख राज्य अभिकर्ता (स्टेट एक्टर्स) मुख्य रूप से वाणिज्यक गतिविधियों के लिये इन एस.एल.ओ.सी. पर निर्भर होते हैं। साथ ही, इन मार्गों के रणनीतिक महत्त्व के कारण प्रतिस्पर्धा की स्थिति बनी रहती है।
- भविष्य में इन समुद्री मार्गों के संसाधनों पर हितधारकों के रूप में महाशक्तियों की लगातार बढ़ती संख्या तथा उनके मध्य टकराव प्रतिस्पर्धा से आगे बढ़कर एक युद्ध का रूप ले सकती है।
- समुद्री मार्ग के सम्बंध में राष्ट्रों द्वारा कथित भूस्थैतिक खतरों से निपटने के लिये समुद्री कानून अस्पष्ट हैं। इसलिये समुद्री रणनीतिक खतरों से निपटने के लिये राष्ट्रों को अपनी नौसैनिक क्षमताओं को विकसित करने या एक मज़बूत सुरक्षा गठजोड़ का निर्माण करना पड़ता है।
आगे की राह
- हाल के वर्षों में, जानबूझकर समुद्री स्थिरता के उल्लंघन के मामलों में वृद्धि देखी गई है। इसलिये समुद्री सुरक्षा को नियंत्रित करने वाले कानूनी ढाँचे में कमियों का पता लगाकर उन्हें पूरा करना चाहिये। साथ ही, नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था में व्यवधान के सम्भावित जोखिमों का आकलन करना भी आवश्यक है।
- समुद्री कानून सार्वजानिक अंतर्राष्ट्रीय कानून का हिस्सा होते हैं, जिनका उद्देश्य तटीय देशों तथा उनके प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग एवं संरक्षण के लिये भौगोलिक अधिकार क्षेत्र और कर्तव्यों को सुनिश्चित करना है।
निष्कर्ष
- समुद्री मार्गों की सुरक्षा से सम्बंधित कई समस्याएँ हैं, जैसे कि जहाजों पर हमले, नौवहन तक पहुँच में बाधा, दुर्घटना के जोखिम और पर्यावरण सम्बंधी चिंताएँ। व्यापार और कनेक्टिविटी में वृद्धि तथा वैश्वीकरण पर बढ़ती निर्भरता के कारण समुद्री मार्गों की समग्र सुरक्षा के लिये वैश्विक सहयोग आवश्यक है।
26.विषय -मध्य-पूर्व में भू-राजनीतिक अशांति और भारतीय उपमहाद्वीप
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी सम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय व वैश्विक समूह तथा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
पृष्ठभूमि
- हाल ही में, एक शीर्ष ईरानी परमाणु वैज्ञानिक (मोहसिन फखरीज़ादेह) की हत्या ईरान की बढ़ती रणनीतिक कमजोरियों को उजागर करती है। साथ ही, यह मध्य-पूर्व में राजनीतिक सच्चाई को रेखांकित करती है जिसमें सही या गलत होने से अधिक महत्त्वपूर्ण उस देश की मज़बूत रणनीतिक स्थिति है। मध्य-पूर्व में इस भू-राजनीतिक अशांति के भारतीय उपमहाद्वीप के लिये कई निहितार्थ हैं। इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता के लिये मध्य-पूर्व को नए तरीके से परिभाषित करने वाली प्रवृत्तियों से भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को निपटना होगा। इन प्रवृत्तियों का विश्लेषण नीचे किया गया है।
ईरान का बढ़ता अलगाव
- रिपब्लिकन सहित ट्रम्प प्रशासन, इज़रायल और खाड़ी के अरब देशों के साझा हित, अमेरिका के अगले राष्ट्रपति को ईरान के साथ परमाणु कूटनीति को नवीनीकृत करने से रोकने और ईरान को अलग-थलग बनाए रखने में ही है। फखरीज़ादेह की हत्या इसी राजनीतिक उद्देश्य को प्राप्त करने से सम्बंधित है।
- ऐसी स्थिति में यदि ईरान सख्त जवाबी कार्रवाई करता है, तो यह इज़रायल और अमेरिका के साथ चौतरफा टकराव में वृद्धि करेगा, जो बाइडन प्रशासन के साथ सकारात्मक बातचीत और जुड़ाव की सम्भावनाओं को ख़त्म कर देगा।
- साथ ही, इस प्रकार के टकराव से ईरान की आंतरिक कमज़ोरी का पर्दाफाश होगा जिससे कट्टरपंथियों एवं उदारवादियों के बीच आंतरिक विभाजन में वृद्धि होगी।
- हाई-प्रोफाइल ईरानी ठिकानों पर होने वाले लगातार हमले इसके समाज में विरोधियों व शत्रुओं के प्रवेश का संकेत देते हैं, क्योंकि घरेलू स्तर पर शासन के प्रतिद्वंद्वी अब इज़रायल के मोसाद सहित विदेशी सुरक्षा एजेंसियों के साथ सहयोग करने को तैयार हैं।
- ईरान की आंतरिक राजनीतिक कमज़ोरी को ट्रम्प प्रशासन द्वारा बड़े पैमाने पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों ने अत्यधिक जटिल बना दिया है।
- हालाँकि, दक्षिण एशिया में ईरान के लिये काफी सद्भावना है परंतु भारत और इसके पड़ोसी देश अरब या अमेरिका के साथ ईरान के संघर्षों में नहीं पड़ना चाहते हैं।
इज़रायल–अरब सम्बंधों में परिवर्तन
- दूसरी क्षेत्रीय प्रवृत्ति इजरायल-अरब सम्बंधों में तेजी से होने वाला परिवर्तन है। पिछले कुछ महीनों में इज़रायल के बहरीन व संयुक्त अरब अमीरात के साथ सम्बंध सामान्य हुए हैं और सऊदी अरब के साथ भी सम्बंधों के सामान्य होने की अटकलें हैं। इज़राइल के साथ अरब देशों के बढ़ते सम्बंध ईरान के लिये चिंता का विषय है।
- पाकिस्तान ने भी इज़रायल को मान्यता देने के लिये सऊदी अरब और यू.ए.ई. द्वारा उस पर दबाव डाले जाने की बात स्पष्ट तौर पर कही है। यदि पाकिस्तान इज़रायल को मान्यता देता है, तो बांग्लादेश भी इससे पीछे नहीं रहना चाहेगा। इज़राइल के साथ आर्थिक और तकनीकी सहयोग बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था और विदेश नीति में सकारात्मक भूमिका निभाएगा।
- बांग्लादेश और पाकिस्तान के रूप में विश्व के दो बड़े इस्लामिक देशों के साथ इज़रायल के सम्बंध उसके लिये भी वैचारिक और राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण सिद्ध होंगे।
सऊदी अरब और तुर्की के बीच प्रतिद्वंद्विता
- ऐसे समय में जब सऊदी अरब, मिस्र और यू.ए.ई. मध्य-पूर्व को राजनीतिक व धार्मिक संतुलन की ओर ले जाना चाहते हैं तो वहीं कभी धर्मनिरपेक्ष रहा तुर्की अब राजनीतिक इस्लाम का नया समर्थक बन गया है।
- सऊदी अरब के साथ तुर्की की प्रतिद्वंद्विता पहले से ही भारत और पाकिस्तान पर प्रभाव डाल रही है। भारत के साथ तुर्की के सम्बंध सामान्य नहीं है और वह अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का सहयोग कर रहा है।
- जबकि यह पाकिस्तान के लिये खाड़ी देशों के विरुद्ध एक महत्त्वपूर्ण विरोध को प्रदर्शित करता है, क्योंकि खाड़ी देश भारत के साथ रणनीतिक सम्बंधों को आगे बढ़ा रहे हैं।
- हालाँकि, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के पास पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने का विकल्प है जिसकी भरपाई तुर्की या मलेशिया द्वारा नहीं की जा सकती है।
निष्कर्ष
- यद्यपि भारत ने हाल के वर्षों में मध्य पूर्व के साथ अपने जुड़ाव को मज़बूत करने के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण समायोजन करने के साथ-साथ नीतियों में परिवर्तन किये हैं, फिर भी इस क्षेत्र में तेज़ी से हो रहे बदलावों पर भारत को पैनी नजर रखनी होगी।
27.विषय -आयुर्वेदिक चिकित्सकों को सर्जरी की वैधानिक अनुमति : आवश्यकता एवं चिंताएँ
मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र – 2 : सरकारी नीतियों एवं विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, सेंट्रल काउंसिल ऑफ़ इंडियन मेडिसिन (आयुष मंत्रालय के अंतर्गत एक वैधानिक निकाय) ने स्नातकोत्तर आयुर्वेदिक चिकित्सकों को विभिन्न प्रकार की 58 सामान्य सर्जरी, जैसे नाक, कान एवं गला (ENT), नेत्र और दंत चिकित्सा प्रक्रियाओं, के लिये औपचारिक प्रशिक्षण की अनुमति प्रदान की है।
भारत में आयुर्वेदिक चिकित्सकों की पेशेवर स्थिति
- इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने एलोपैथी के चिकित्सा मानकों तथा प्रणालियों को ध्यान में रखते हुए आयुर्वेदिक चिकित्सकों को आयुर्वेदिक सर्जरी की अनुमति प्रदान की है।
- आयुष मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि स्नातकोत्तर आयुर्वेदिक चिकित्सक पहले से ही अपने प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के तहत आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों में विभिन्न सामान्य सर्जरी प्रक्रियाएँ सीख रहे हैं।
- वर्तमान में गैर-एलोपैथिक डॉक्टरों तथा आयुर्वेदिक सर्जरी में स्नातकोत्तर करने वालों अभ्यर्थियों के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
आयुर्वेदिक चिकित्सकों की आवश्यकता
- अनेक व्यक्ति आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली के कम दुष्प्रभावों को देखते हुए एलोपैथी की बजाय आयुर्वेद प्रणाली से उपचार को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन प्रशिक्षित आयुर्वेद चिकित्सकों तथा दवाइयों की अनुपलब्धता के कारण उन्हें चिकित्सा सुविधाएँ नहीं मिल पाती हैं।
- सर्जन सहित एलोपैथिक डॉक्टरों की कमी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी कार्य करने की अनिच्छा के चलते सरकार ने यह निर्णय लिया है। साथ ही, सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा प्रदान करने वाले आयुर्वेदिक चिकित्सा छात्रों के लिये स्नातकोत्तर की सीटों में कोटा की व्यवस्था तथा रूरल बॉन्ड का प्रावधान किया है।
सम्बंधित चिंताएँ
- आयुर्वेद चिकित्सकों को सामान्य सर्जरी की अनुमति देने में चिंता का विषय इनका अल्पकालिक तथा निम्नस्तरीय गुणवत्तायुक्त प्रशिक्षण है, जो भारत में चिकित्सा मानकों के स्तर को कम करता है।
- भारत में चिकित्सा देखभाल की गुणवत्ता अधिकतर व्यक्तिगत संसाधनों पर निर्भर है। ऐसे में, आयुर्वेदिक स्नातकों को प्रदान की गई सर्जरी करने की अनुमति का लक्ष्य जनसंख्या के उस वर्ग तक चिकित्सीय सेवाओं को पहुँचाना है, जो आधुनिक चिकित्सीय सेवाओं को वहन नहीं कर सकते हैं।
मरीजों के अधिकार सम्बंधी पहलू
- रोगी को यह जानने का अधिकार होना चाहिये कि उसका सर्जन कौन होगा, वह किस चिकित्सा पद्धति से मरीज का उपचार करेगा।
- शहरी तथा ग्रामीण रोगियों की देखभाल सम्बंधी गुणवत्ता के स्तर में कोई अंतर नहीं होना चाहिये।
आगे की राह
- साक्ष्य-आधारित एप्रोच की सहायता से चिकित्सा सुविधाओं में असामनता तथा अनुपलब्धता के अंतर को कम या समाप्त करने के लिये कार्य-साझाकरण तथा कुशल और गुणवत्तायुक्त रेफरल तंत्र विकसित करने जैसे उपायों को व्यावहारिक रूप से लागू करना होगा।
- ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों की कमी को पूरा करने का सबसे सुरक्षित और प्रभावी तरीका सरकारी मेडिकल कॉलेजों की संख्या में वृद्धि करना है जिससे एक वहनीय स्वास्थ्य प्रणाली की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकेगी।
- अमेरिका के चिकित्सा आँकड़ों से पता चलता है कि सर्जरी के सभी पहलुओं पर गम्भीरता से विचार तथा कार्य करने के बावजूद प्रति वर्ष 4,000 त्रुटियाँ होती हैं। इसलिये भारत को मज़बूत और व्यावहारिक पेशेवर सहिंता तथा सुरक्षित चिकित्सा पद्धति सुनिश्चित करने हेतु एक तीव्र प्रतिक्रियात्मक कानूनी तंत्र विकसित किये जाने की आवश्यकता है।
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य
- आयुष मंत्रालय द्वारा आयुर्वेदिक चिकित्सकों को सर्जरी के लिये औपचारिक प्रशिक्षण की अनुमति इंडियन मेडिसिन सेंट्रल काउंसिल (पोस्ट ग्रेजुएट आयुर्वेद एजुकेशन) रेगुलेशन, 2016 में संशोधन के तहत दी गई है।
- वर्ष 2019 में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम में सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाताओं को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा में औपचारिक रूप से शामिल किया गया था।
GS-3 मेन्स
1.विषय– मानव निर्मित आर्द्रभूमि और अपशिष्ट जल का शोधन
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
संदर्भ
- यमुना में बहने वाले अनुपचारित वाहित मल (Untreated Sewage) के कुछ हिस्से को प्राकृतिक रूप से उपचारित करने की योजना बनाई जा रही है। इससे वाहित मल उपचार संयंत्रों पर पड़ने वाले भार को कम किया जा सकता है। दिल्ली में इस अनोखे और धारणीय प्रयोग पर कार्य चल रहा है।
एक अभिनव प्रयोग
- लगभग 200 हेक्टेयर भूमि पर विकसित किये जा रहे दक्षिणी दिल्ली जैव विविधता पार्क में 11 कंस्ट्रक्टेड वेटलैंड सिस्टम (Constructed Wetland Systems) का निर्माण किया जा रहा है।
- कंस्ट्रक्टेड वेटलैंड सिस्टम में प्राकृतिक रूप से वाहित मल का शोधन/उपचार करने के लिये बोल्डर्स (पत्थर के टुकड़े) और विभिन्न प्रकार के पौधों का उपयोग किया जाता है।
- वर्ष 2016 में दिल्ली में ही नीला हौज जैव विविधता पार्क में एक झील को पुनर्जीवित करने के लिये कंस्ट्रक्टेड वेटलैंड सिस्टम का सफलतापूर्वक उपयोग किया जा चुका है।
प्रक्रिया
- इस प्रक्रिया में तीन-चरण होते हैं और इसमें विद्युत की आवश्यकता नहीं होती है। नाले के मुहाने या वाहित मल के स्रोत पर बोल्डर्स और पौधों का उपयोग करके एक आर्द्रभूमि परिसर का निर्माण किया जाता है।
- यह स्रोत या नाली एक ऑक्सीकरण तालाब (Oxidation Pond) में जाकर मिलती है, जो उपचार प्रक्रिया का पहला चरण है। यहाँ अपशिष्ट में उपस्थित ठोस और जैविक पदार्थ को तार की जाली से हटा दिया जाता है और वायुमंडलीय ऑक्सीजन जल में घुल जाती है।
- विदित है कि ऑक्सीकरण तालाब को अपशिष्ट स्थिरीकरण तालाब (Waste Stabilization Ponds : WSPs) भी कहा जाता है। इनका उपयोग वाहित मल से जैविक सामग्री और रोगाणुओं को हटाने के लिये किया जाता है।
- इसके बाद पानी बोल्डर्स से बने छोटे-छोटे चैनलों व रिज से होकर गुजरता है और हलचल पैदा होने के कारण वातन/वायु-मिश्रण (Aeration- द्रव में गैस को मिलाना) की प्रक्रिया होती है। वातन के कारण पानी और वायु के निकट संपर्क से छोटे-छोटे बुलबुले उत्पन्न होते हैं और उसमें घुली गैसों को बाहर निकालते हैं।
- बोल्डर्स के कारण जितनी अधिक हलचल उत्पन्न होती है ऑक्सीजन संतृप्ति और पानी की गुणवत्ता उतनी बेहतर होती है। हलचल के कारण ही जलप्रपात में अधिकतम ऑक्सीजन संतृप्ति होती है और इसलिये पानी की गुणवत्ता बहुत अच्छी होती है।
- उपचार प्रक्रिया के अंतिम चरण में इस जल को पौधों की कई प्रजातियों से गुजारा जाता है, जो आर्सेनिक सहित भारी धातुओं के उपचार में प्रभावी होते हैं। इन पौधों में टाइपा (Typha), फरागमाइट्स (Phragmites), इपोमिया (Ipomoea) और साइप्रस (Cyprus) शामिल है।
- अशोधित वाहित मल इन पौधों के लिये भोजन का कार्य करते है और पौधे इससे पोषक तत्त्वों का कर्षण करते हैं, जो इनकी वृद्धि में भी सहायक होते हैं।
लाभ
- वाहित मल उपचार संयंत्रों (STPs) को चलाने के लिये बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जबकि इस प्राकृतिक विधि में विद्युत की आवश्यकता नहीं होती है।
- साथ ही, वाहित मल की मात्रा कम या अधिक होने पर वाहित मल उपचार संयंत्र कार्य नहीं करते हैं। कंस्ट्रक्टेड वेटलैंड सिस्टम इनका एक व्यवहार्य विकल्प प्रदान करता है।
- साथ ही, यह महंगे वाहित मल उपचार संयंत्रों की आवश्यकता को भी कम करता है। उपचारित पानी को आर्द्रभूमि के माध्यम से नदी में छोड़ा जाता है, जो पुनर्भरण और जल निकायों की स्वच्छता में सहायक होता है।
- उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया ने नीला हौज जैव विविधता पार्क स्थित झील में घुलित ऑक्सीजन (DO) की सांद्रता बढ़ा दी है जो 4 मिग्रा. प्रति लीटर के आस-पास है और यह पानी में मछली के प्रसार के लिये आवश्यक घुलित ऑक्सीजन मानदंड के करीब है।
2.विषय-पृथ्वी का औसत माध्य तापमान और 1.5 ℃ तापमान का स्तर
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3- पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
संदर्भ
- हाल ही में हुए, एक शोध के अनुसार, वर्ष2027 से 2042 के बीच पृथ्वी का औसत माध्य तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से5 ℃ ऊपर पहुँच जाएगा।
प्रमुख बिंदु
- जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) ने अनुमान लगाया था कि वर्ष 2052 तक पृथ्वी तापमान के इस स्तर को पार करेगी, लेकिन नए शोध के अनुसार थ्रेसहोल्ड वर्ष 2042 को माना जा रहा है।
- नवीन शोध में शोधकर्ताओं ने ज़्यादा सटीक मॉडल का उपयोग किया है।
पृष्ठभूमि
- शुरुआत में शोधकर्ताओं ने वैश्विक तापमान वृद्धि को 2℃ से नीचे रखे जाने का तर्क दिया था।
- सर्वप्रथम वर्ष 1975 में अर्थशास्त्री विलियम नॉर्डहॉस के एक लेख के बाद से वैश्विक तापन के लिये सुरक्षित सीमा के रूप में 2℃ का विचार प्रचलन में आया था।
- वर्ष 1990 के दशक के मध्य तक यूरोपीय पर्यावरणीय बैठकों में 2℃ की सीमा को ही आधार माना जाता था और वर्ष 2010 की कैनकन COP तक यह सीमा ही संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक नीति का हिस्सा थी।
- हालांकि, छोटे द्वीपीय देश और समुद्रों के निकटस्थ देश 2℃ की थ्रेसहोल्ड सीमा से नाखुश थे और वे सीमा को कम किये जाने की माँग कर रहे थे, क्योंकि उनका मानना था कि ज़्यादा सीमा का समुद्र-स्तर के लिये नकारात्मक होगी।
2 °C की सीमा पर 1.5 ° C को प्राथमिकता
- बढ़ते वैश्विक तापन की वजह से पारिस्थितिक तंत्र पहले से ही प्रभावित है, 5 °C की अपेक्षा 2 °C की सीमा की वजह से यह जोखिम बढ़ेगा ही।
- यदि पृथ्वी का औसत माध्य तापमान 5 °C के जगह 2 °C तक बढ़ गया तो हीटवेव, सूखे और बाढ़ से जुड़ी घटनाएँ ज़्यादा होंगीं तथा समुद्र का स्तर भी 10 सेमी. तक बढ़ जाने का अनुमान है।
- ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में ग्लेशियर्स पिघलने की घटनाएँ भी बढ़ सकती हैं।
- 5°C की तुलना में 2 °C के स्तर पर प्रमुख फसलों का उत्पादन और उनकी गुणवत्ता भी प्रभावित होगी तथा पशुधन पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ेगा।इन सब वजहों से विश्व के कई हिस्सों में भोजन की उपलब्धता पर भी असर पड़ेगा।
क्या होते हैं जलवायु मॉडल
- जलवायु मॉडल, पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों के मैथेमैटिकल सिमुलेशन होते हैं। इनमें वातावरण, महासागर, बर्फ, धरती की सतह और सूर्य प्रमुख हैं।
- हालाँकि ये मॉडल पृथ्वी के बारे में अब तक प्राप्त जानकारियों पर आधारित होते हैं। इसके बावजूद इन मॉडल्स के द्वारा भविष्य के बारे किये गए अनुमानों में अनिश्चितता बनी रहती है।
- तापमान से जुड़े अनुमानों को व्यक्त करने के लिये IPCC सामान्य परिसंचरण मॉडल (GCM) का उपयोग करता है।
सामान्य परिसंचरण मॉडल (General Circulation Model – GCM)
- जी.सी.एम. वायुमंडल, महासागर, क्रायोस्फीयर और भूमि की सतह पर भौतिक प्रक्रियाओं को दर्शाता है।
- यह वर्तमान में वैश्विक जलवायु प्रणाली पर ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को प्रदर्शित करने के लिये उपलब्ध सबसे उन्नत मॉडल है।
नया मॉडल
- तापमान के पूर्वानुमान का नया मॉडल, जलवायु के ऐतिहासिक आँकड़ों पर आधारित है। जबकि इसके विपरीत जी.सी.एम. मॉडल सैद्धांतिक संबंधों पर आधारित है।
- यह मॉडल तापमान के प्रत्यक्ष आँकड़ों और कुछ अनुमानों पर आधारित है। जिसकी मदद से जलवायु संवेदनशीलता और इसकी अनिश्चितता के बारे में पता लगाया जाता है।
3.विषय-सशक्त एम.एस.एम.ई. (MSME) भविष्य की संवृद्धि के वाहक
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र –3, भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय)
संदर्भ
- कोविड–19 महामारीके कारण सूक्ष्म,लघु एवं मध्यम उद्योग (MSMEs) बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। लॉकडाउन के कारण सभी प्रकार की आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प रहीं, जिससे अनेक लघु उद्योग गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं तथा वित्तपोषण संबंधी आवश्कताओं को पूरा करने के लिये सरकारी नीतियों व उपायों की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
सूक्ष्म,लघु एवं मध्यम उद्योगों का महत्त्व
- सूक्ष्म,लघु एवं मध्यम उद्योग अर्थव्यस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लगभग 6.3 करोड़ एम.एस.एम.ई. देश की जी.डी.पी. में एक-तिहाई का योगदान देते हैं और आबादी के एक बड़े हिस्से को विशेषकर असंगठित क्षेत्र में रोज़गार प्रदान करते हैं।
- भारत में विनिर्माण क्षेत्र की तुलना में सेवा क्षेत्र को अधिक महत्त्व दिया जाता है, ऐसे में एम.एस.एम.ई. ने घरेलू उत्पादों को आयातित उत्पादों के समक्ष प्रतिस्पर्धी बनाया है।
- एम.एस.एम.ई. आत्मनिर्भरता की स्थिति को प्राप्त करने के साथ-साथ भारत की आर्थिक रणनीति में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
- ये उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों के औद्योगीकरण में भी उल्लेखनीय योगदान देते हैं। लघु एवं मध्यम उद्यम पूरक इकाइयों की तुलना में बड़े उद्योग होते हैं,जो देश के सामाजिक और आर्थिक विकास में भी योगदान देते हैं।
- घरेलू उत्पादन में वृद्धि, न्यून निवेश आवश्यकताएँ, परिचालनात्मक लचीलापन, स्थानिक गतिशीलता, उचित घरेलू तकनीक विकसित करने की क्षमता और प्रशिक्षण प्रदान करके निर्यात बाज़ार द्वारा नए उद्यमियों के प्रवेश के माध्यम सेएम.एस.एम.ई. क्षेत्रराष्ट्र के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सूक्ष्म,लघु एवं मध्यम उद्योगों के समक्ष चुनौतियाँ
- बैंकिंग क्षेत्र तक व्यापक पहुँच न होने के कारण अधिकाँश एम.एस.एम.ई. वित्तीय आवश्यकताओं के लिये एन.बी.एफ़.सी. और सूक्ष्म वित्त संस्थानों (MFI) पर निर्भर होते हैं। ऐसे में जब एन.बी.एफ़.सी. या सूक्ष्म वित्त संस्थानों में पूंजी या तरलता की कमी होती है तब इन उद्योगों को भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
- इस क्षेत्र के लिये ऋण माँग तथा ऋण आपूर्ति में एक बड़ा अंतर है। इस क्षेत्र को औपचारिक रूप से 16 ट्रिलियन रुपए का ऋण प्राप्त होता है, जबकि इसकी समग्र मांग 36 ट्रिलियन है। इस प्रकार, ऋण माँग तथा ऋण आपूर्ति में 20 ट्रिलियन का अंतर है।
- वर्तमान समय में लगभग 6.3 करोड़ एम.एस.एम.ई. में से केवल 1.1 करोड़ ही जी.एस.टी. व्यवस्था के अंतर्गत पंजीकृत हैं। इनमें भी आयकर दाखिल करने वालों की संख्या तो और भी कम है, जिस कारण इस क्षेत्र को डाटा के आभाव में पर्याप्त ऋण और अन्य लाभ प्राप्त नहीं हो पाते।
- एक अनुमान के मुताबिक एम.एस.एम.ई. क्षेत्र जर्मनी तथा चीन की जी.डी.पी. में क्रमशः 55% और 60% का योगदान देताहै, जबकि भारत में इस स्तर को प्राप्त करने के लिये अभी एक लंबा रास्ता तय करना होगा।
- इसके अतिरिक्त, आधारभूत ढाँचे की कमी, बाज़ार तक पहुँच का न होना, आधुनिक तकनीक का आभाव, कौशल विकास एवं प्रशिक्षण का आभाव तथा जटिल श्रम कानून भी एम.एस.एम.ई. क्षेत्र के लिये चुनौती उत्पन्न करते हैं।
सरकारी प्रयास
- महामारी के समय में एम.एस.एम.ई. क्षेत्र को बढ़ावा देने केउद्देश्य से आत्मनिर्भर भारत अभियान के अंतर्गत इस क्षेत्र के लिये निम्नलिखित घोषणाएँ की गईं-
- सूक्ष्म,लघु एवं मध्यम उद्योगों के लिये 3 लाख करोड़ रुपए की आपातकालीन कार्यशील पूंजी सुविधा
- ऋणग्रस्तसूक्ष्म,लघु एवं मध्यम उद्योगों के लिये 20,000 करोड़ रुपए का ग़ैर-प्राथमिकता क्षेत्र ऋण
- एम.एस.एम.ई. फंड ऑफ़ फंड्स के माध्यम से 50,000 करोड़ रुपए की इक्विटी का प्रावधान।
- एम.एस.एम.ई. क्षेत्र के विकास के लिये जनवरी 2019 में एम.एस.एम.ई. मंत्रालय ने एक स्थाई पारिस्थितिकी तंत्र बनाने के उद्देश्य से निर्यात संवर्द्धन परिषद् का गठन किया।
- इस क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से वर्ष 2018 में ब्याज अनुदान योजना शुरू की गई। भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक इस योजना के लिये नोडल एजेंसी है।
- एम.एस.एम.ई. इकाईयों का विस्तृत डाटा-आधार निर्मित करने तथा सार्वजनिक खरीद नीति के तहत खरीद प्रक्रिया में भाग लेने के उद्देश्य से एम.एस.एम.ई. डाटा बैंक का गठन किया गया।
- एम.एस.एम.ई. क्षेत्र की विपणन क्षमता को घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाने के लिये विपणन संवर्द्धन योजना शुरू की गई।
- इसके अतिरिक्त, स्फूर्ति योजना, एस्पायर योजना, साख गारंटी कोष, ज़ीरो डिफेक्ट ज़ीरो इफ़ेक्ट, स्टैंड-अप तथा मुद्रा (MUDRA) जैसी योजनाएँ भी एम.एस.एम.ई. क्षेत्र के विकास से संबंधित हैं।
सुधार हेतु सुझाव
- एम.एस.एम.ई. क्षेत्र का वृहद स्तर पर औपचारीकरण (Formalization) होना चाहिये। हालाँकि इन उद्योगों का पंजीकरण, प्रमाणन तथा प्रलेखन तेज़ी से हो रहा है।जहाँ वर्ष 2015 में केवल 22 लाख पंजीकृत एम.एस.एम.ई. थे, वहीं अब यह संख्या 88 लाख हो गई है।
- भारत में बॉण्ड बाज़ार धीरे-धीरे विकसित हो रहा है। अतः एम.एस.एम.ई. बॉण्ड जारी करने का प्रयास करना चाहिये। इससे ऋण पूंजी बाज़ारों की भागीदारी को बढ़ावा मिल सकता है।
- एम.एस.एम.ई. क्षेत्र को बेहतर समझने, इससे संबंधित डाटा व सूचनाओं का प्रयोग करने तथा इसके लिये उचित नीतियों के निर्माण के लिये सरकार को एक स्वतंत्र निकाय का गठन करना चाहिये, जो इस क्षेत्र के लिये एक परामर्शदाता की भूमिका निभाएगा।
- वर्तमान के श्रम कानून एम.एस.एम.ई. क्षेत्र के लिये अनुकूल नहीं हैं। अतः विकासोन्मुख ढाँचा प्रदान करने के लिये ऐसे श्रम कानून बनाए जानेचाहियें जो इस क्षेत्र के लिये अनुकूल हों तथा श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा करने में भी सक्षम हों।
- इसके अतिरिक्त, इस क्षेत्र के विकास हेतु कर-व्यवस्था में सुधार, ई-कॉमर्स को बढ़ावा, बाज़ार तक आसान पहुँच और व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं कौशल विकास जैसे उपायों को अपनाना चाहिये।
निष्कर्ष
- एम.एस.एम.ई. क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। आर्थिक विकास को गति देने तथा‘आत्मनिर्भर भारत’ के सपने को साकार करने के लिये इन उद्योगों के विकास को प्राथमिकता देना आवश्यक है।
- हालाँकि, सरकार इनके विकास की दिशा में लगातार प्रयास कर रही है, लेकिन ये प्रयास वर्तमान में पर्याप्त नहीं हैं। अतः वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए प्रभावी उपायों को अपनाना तथा एक सक्षम तंत्र का निर्माण करना आवश्यक है।
4.विषय-कीटों की दुनिया : पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के लिये महत्त्व
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र– 3:संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
संदर्भ
- कीट सभी स्थलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के लिये जैविक नींव के रूप में कार्य करते हैं। इन्हें सिर्फ हानिकारक समझना पारिस्थितिकी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के लिये भी लाभदायक नहीं है। अधिकांश कीट मनुष्यों के लिये हानिकारक नहीं बल्कि लाभदायक हैं। इनके बिना प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाएगा।
कीट (Insect)
- छह संयुक्त पैरों वाला कोई भी छोटा जीव, जिसका शरीर तीन भागों (सिर, वक्ष और उदर)में विभाजित हो, कीट (Insect) कहलाता है। इनमें पंख, दो स्पर्श-सूत्र (Antennae) और एक बाह्य कंकाल होता है।
- कीटों के वैज्ञानिक अध्ययन को ‘कीटविज्ञान’ (Entomology) कहते हैं, जो प्राणी विज्ञान (Zoology) की एक शाखा है।
- कीटों की लगभग करोड़ प्रजातियाँ मौजूद हैं। इनमें झींगुर (Beetle), तितली एवं शलभ (Moth), मधुमक्खी, ततैया,चीटियों, टिड्डे, ड्रैगनफ्लाई और मक्खियों की प्रजातियाँ शामिल हैं।
विशेषताएँ
- अधिकांश कीटों में एक सुरक्षात्मक खोल होता है और वे उड़ सकते हैं। साथ ही, उन्हें अल्प भोजन एवं रहने के लिये कम स्थान की आवश्यकता होती है। ये बड़ी संख्या में संतानोत्पत्ति में सक्षम होते हैं।
- उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों तथा समुद्र को छोड़कर विश्व के प्रत्येक हिस्से में कीट पाए जाते हैं। ये अधिकांशतः पेड़, पौधों, फलों और मशरूम का भक्षण करते हैं। साथ ही, कुछ बड़े आकार के कीट छोटे पक्षियों व छोटे जन्तुओं को भी खाते हैं।
- लेडीबर्ड (Ladybird) पौधों और सब्जियों को खाने वाले कीटोंका भक्षण करतीहै। कीटों को पृथ्वी का सबसे मज़बूत प्राणी माना जाता है क्योंकि वे अपने भार के 850 गुना तक वज़न ले जाने में सक्षम होते हैं।
पारिस्थितिकी के लिये महत्त्व
- पर्यावरण संतुलन में कीट महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिये ये अत्यंत आवश्यक हैं।
- कीट पोषक तत्त्वों के चक्रण, पौधों के परागण और बीजों के प्रसार या स्थानांतरण में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त, ये मृदा संरचना को बनाए रखने, उर्वरता में सुधार करने तथा अन्य जीवों की जनसंख्या को नियंत्रित करने के साथ-साथ खाद्य शृंखला में एक प्रमुख खाद्य स्रोत के रूप में भी कार्य करते हैं।
- पृथ्वी पर लगभग 80% पुष्प पादपों का परागण कीटों द्वारा किया जाता है। भौंरे, मधुमक्खियाँ, भृंग, तितलियाँ और मक्खियाँ परागण में सहायक (Pollinators) होती हैं।
- इसके अतिरिक्त, लेडीबर्ड बीटल्स, लेसविंग, परजीवी ततैया जैसे कीट अन्य हानिकारक कीटों, आर्थ्रोपोड्स और कशेरुकियों को नियंत्रित करते हैं।
- साथ ही, कीट मृदा उर्वरता में भी सुधार करते हैं। गुबरैला एक रात में अपने वज़न के लगभग 250 गुने गोबर को निस्तारित कर सकता है। ये गोबर को खोदकर और उपभोग करके मृदा पोषक-चक्र व उसकी संरचना में सुधार करते हैं।
- गुबरैले की अनुपस्थिति गोबर पर मक्खियों को एक प्रकार से निवास प्रदान कर सकती है।अत: कई देशों ने पशुपालन के लाभ और बीमारियों के प्रसार को रोकने के लिये यह प्रस्तावित किया है।
- पर्यावरण की सफाई में भी इनकी महती भूमिका है। ये मृत और जैविक अपशिष्टों के विघटन में सहायक होते हैं। विघटन की प्रक्रिया के बिना बिमारियों का प्रसार तेज़ी से होने के साथ-साथ कई जैविक-चक्र भी प्रभावित होंगे।
- कीट पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य संकेतक के रूप में कार्य करते हैं। साथ ही, प्रमुख वैज्ञानिक सिद्धांतों में अनुसंधान मॉडल के रूप में इन कीटों का उपयोग किया गया है।
खाद्य के रूप में
- कीट खाद्य-शृंखला का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। विभिन्न प्रकार के कवक कई प्रकार के कीटों की श्वासनली में प्रवेशकर उन्हें भीतर से मार देते हैं।
- लगभग 113 देशों में 3,000 जातीय समूहों द्वारा अनुमानत: 1,500 कीट प्रजातियों का खाद्य के रूप में उपभोग किया जाता है।
- पूर्वी अरुणाचल प्रदेश में छह स्थानीय समुदायों द्वारा 51 कीट प्रजातियों को भोजन के रूप में प्रयोग किया जाता है।
आर्थिक महत्त्व
- कीटों का आर्थिक महत्व भी है। इनसे शहद, रेशम, मोम और अन्य उत्पाद प्राप्त होते हैं।
- स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में पोषक तत्त्वों के चक्रण का मूल्य अनुमानतः 3 ट्रिलियन डॉलर है। गुबरैले, झींगुर, मक्खियाँ, तिलचट्टे इत्यादि पोषक तत्त्वों के पुनर्चक्रण में सहायक होते हैं।
- कुछ कीट और उनके लार्वा प्राकृतिक रूप से जैविक नियंत्रण का कार्य करते हैं। कीटों द्वारा किये गए प्राकृतिक जैविक नियंत्रण का मूल्य लगभग 400 बिलियन डॉलर आंका गया है।
हानिकारक कीट
- कुछ ऐसे भी कीट हैं जो फसलों को नष्ट करते हैं और बीमारियों का प्रसार करते हैं। हालाँकि, इनकी संख्या 1% से भी कम है। मच्छर, पिस्सू, जूँ और कुछ मक्खियाँ बीमारियों का प्रसार करती हैं।
- कोलोराडो बीटल आलू की फसलों को नष्ट करने के लिये उत्तरदायी हैं। टिड्डे कृषि फसलों को नष्ट कर देते हैं। दीमक जैसे कीट घरों और लकड़ियों को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं।
कीटों के नष्ट होने का कारण
- भारत के साथ-साथ विश्व स्तर पर कई कीट प्रजातियों की संख्या धीरे-धीरे घट रही है। प्राकृतिक आवास में कमी इसका प्रमुख कारण है। साथ ही, कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग इसका अन्य कारण है।
- लगभग 98% कीट पारिस्थितिकी तंत्र के लिये सहायक और उपयोगी हैं। 20वीं सदी की शुरुआत में प्रकाशित ‘ब्रिटिश भारत के जीव-जंतु’ अभी तक भारतीय कीटों पर एकमात्र दस्तावेज़ है।
- वर्तमान में कीटों के संरक्षण के लिये कोई योजना नहीं है। साथ ही, इस विषय पर कोई अद्यतन अध्ययन, साहित्यएवं संग्रह भी मौजूद नहीं है।अत: यह समय की माँग है कि भारत सरकार लाभकारी कीटों के संरक्षण के अतिरिक्त ‘नामित व ज्ञात कीटों’ के साथ ‘गैर-नामित व अज्ञात कीटों’ के दस्तावेज़ीकरण की पहल करे।
5.विषय-कॉप-15 के पाँच वर्ष
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र – 3: विषय– संरक्षण, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
संदर्भ
- हाल ही में, पेरिस समझौते (2015) को पाँच वर्ष पूरे हुए हैं। इस अवसर पर भारत और यूरोपीय संघ सहित अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ‘जलवायु परिवर्तन तथा इसके दुष्प्रभावों से निपटने की दिशा में किये गए प्रयासों और आगे की रणनीति’ पर विचार-विमर्श के लिये ‘जलवायु महत्त्वाकांक्षी शिखर सम्मेलन-2020’ में एकत्रित हुए।
पेरिस समझौते के पाँच वर्ष : एक समीक्षा
- पेरिस समझौते के पाँच वर्ष बाद, विश्व अभी भी निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने से दूर है। इस समझौते के अनुसार, वर्ष 2030 तक वैश्विक ताप-वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर के ताप-स्तर की तुलना में 2℃ से अधिक न होने देना तथा इस सदी के अंत तक ताप-वृद्धि को 1.5℃ तक सीमित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था।
- वर्तमान उत्सर्जन स्तर को देखते हुए 1.5℃ के लक्ष्य को प्राप्त करने में वर्ष 2030 तक विश्व का कार्बन बजट खत्म हो जाएगा, क्योंकि वर्तमान में भारत समेत विश्व का एक बड़ा हिस्सा सस्ते कोल ईंधन और प्राकृतिक गैस के उपयोग संबंधी अधिकारों की माँग कर रहा है और ऐसा होने पर कार्बन उत्सर्जन और बढ़ेगा। यह भी स्पष्ट है कि अक्षय ऊर्जा आधारित नई ऊर्जा व्यवस्था को पूर्णतया लागू करने में अभी अधिक समय लगेगा।
- एक समस्या यह भी है कि तय लक्ष्य तक पहुँचने के लिये कोई विशेष रणनीति तैयार नहीं की गई है जिससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो सके। ऐसे बहुत कम देश हैं जिन्होंने वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कठिन लक्ष्य निर्धारित किया है।
- इस समझौते में कार्रवाई के लिये एक रूपरेखा तैयार की गई थी और सहकारी समझौते की नींव रखी गई थी, लेकिन अमेरिका जो सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता है, इस समझौते से बाहर हो गया जिससे यह समझौता कमज़ोर हुआ है।
- हालाँकि कोविड–19 महामारी से पूर्व इस दिशा में कुछ उत्साहजनक संकेत प्राप्त हुए थे, जैसे इंडोनेशिया और अमेरिका ने कोयला उत्पादन के लिये अपने अनुमानों को कम कर दिया था। लेकिन अब ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका और रूस ने अपने तेल एवं गैस उत्पादन में और अधिक वृद्धि का अनुमान व्यक्त किया है।
- अगर निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने की संभावनाओं के देखें तो भारत वर्ष 2030 तक 2℃ तक के लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम है लेकिन इसकी नीतियाँ भविष्य के 1.5 ℃ के लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम नहीं लग रहीं।
- अमेरिका, रूस, चीन और जापान के वर्तमान प्रयासों के अनुसार ये देश वर्ष 2030 तक 4℃ तथा ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अन्य देश 3℃ तक उत्सर्जन के स्तर को प्राप्त कर सकेंगे।
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम प्रोडक्शन गैप रिपोर्ट’ के अनुसार, वर्ष 2030 तक 2℃ तक के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये वैश्विक जीवाश्म ईंधन के उत्पादन में अगले एक दशक तक वार्षिक रूप से औसत 6% की गिरावट दर्ज की जानी चाहिये।
- भविष्य के 1.5 ℃ के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये वर्ष 2030 तक कोयला उत्पादन को वार्षिक 11% तथा तेल एवं गैस के उत्पादन को 4% से 3% तक घटाना होगा, लेकिन कुछ देशों का लक्ष्य वर्ष 2030 तक जीवाश्म ईंधनों के उत्पादन में 50% तक की वृद्धि करनी है, जो निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये संगत या अनुकूल नहीं है।
- एक संभावना यह भी व्यक्त की गई है कि यदि सभी देश पेरिस समझौते में तय प्रतिबद्धताओं को पूरा कर भी लेते हैं, तो भी वर्ष 2030 तक ग्लोबल वार्मिंग 3℃ से अधिक होगी।
ग्रीन रिकवरी के लिये प्रयास
- समृद्ध भविष्य के लिये वैश्विक अर्थव्यवस्था को हरित अर्थव्यवस्था में बदलना आवश्यक है। साथ ही, कोविड महामारी की रिकवरी के लिये भी ग्रीन रिकवरी का होना आवश्यक है।
- वर्ष 2050 तक यूरोपीय संघ ने जलवायु तटस्थता की स्थिति को प्राप्त करने के लिये दिसंबर 2019 में एक नए विकास मॉडल एवं रोडमैप- ‘हमारे भविष्य का यूरोपीय संघ’ की शुरुआत की और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये दीर्घकालिक बजट में एक ट्रिलियन यूरो की राशि का प्रावधान किया है।
- साथ ही, यूरोपीय संघ के नेताओं ने सर्वसम्मति से वर्ष 1990 के स्तरों की तुलना में 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को लगभग 55% तक कम करने के लक्ष्य के प्रति भी सहमति व्यक्त की। यूरोपीय संघ द्वारा 55% के लक्ष्य को प्राप्त करने से वर्ष 2030 में 100 बिलियन यूरो तथा वर्ष 2050 तक 3 ट्रिलियन यूरो तक की बचत होगी।
‘यूरोपीय संघ का भारत के साथ कार्य करना
- यूरोपीय संघ और भारत पेरिस समझौते के पूर्ण कार्यान्वयन के लिये प्रतिबद्ध हैं। भारत ने इस संबंध में कई महत्त्वपूर्ण पहलें की हैं, जैसे- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, आपदा प्रतिरोधक अवसंरचना के लिये गठबंधन तथा उद्योग संक्रमण के लिये नेतृत्व समूह का गठन।
- भारत और यूरोपीय संघ आगामी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों (जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो में COP-26 और जैवविविधता पर कुनमिंग सम्मेलन में COP-15 की सफलता के लिये भी एक-साथ मिलकर कार्य कर रहे हैं।
- साथ ही, यूरोपीय संघ हरित निवेश और सर्वोत्तम प्रथाओं और प्रौद्योगिकियों के साझाकरण पर भारत के साथ मिलकर काम करना जारी रखेगा।
आगे की राह
- कोई भी देश या सरकार अकेले जलवायु परिवर्तन से नहीं निपट सकती, इसके लिये विश्व भर के साझेदारों को एक-साथ मिलकर सहयोग को बढ़ावा देने के लिये सभी मार्गों का अनुसरण करना होगा।
- इस वैश्विक प्रयास में भारत भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इसी संदर्भ में भारत द्वारा पिछले कुछ वर्षों में सौर एवं पवन ऊर्जा का तेज़ी से विकास आवश्यक कार्रवाई का एक अच्छा उदाहरण है।
- पेरिस समझौते की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने और सभी के भविष्य को सुरक्षित रखने की दिशा में वैश्विक गतिशीलता की भावना का भी विकास हो रहा है।
- पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने के पाँच वर्ष बाद, यह पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ‘नेट ज़ीरो उत्सर्जन’ के लिये स्पष्ट रणनीतियों और वर्ष 2030 तक 2℃ तक के लक्ष्य को प्राप्त के लिये वैश्विक स्तर पर प्रयासों को बढ़ाने के लिए आगे आए।
- आवश्यक रणनीतियों एवं प्रयासों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचा जा सकता है। वर्तमान समय इस संदर्भ में वैश्विक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, स्थानीय और व्यक्तिगत प्रयासों के माध्यम से ‘बेहतर निर्माण करने का एक अवसर हैं’।
- अगर अभी जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास तेज़ नहीं किये गए तो आने वाली पीढ़ी को जलवायु परिवर्तन का बोझ उठाना पड़ेगा।
निष्कर्ष
- जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये सार्वजनिक नीतियाँ अपरिहार्य हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। एक बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये छोटे स्तर भी व्यक्तिगत कार्यों को बढ़ावा देना होगा। यह प्रयास पेरिस समझौते के माध्यम से शुरू हो चुके हैं और तेज़ी से बढ़ भी रहे हैं।
- जलवायु तटस्थता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये विश्वभर के वैज्ञानिकों, व्यवसायियों, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और नागरिकों को एकजुट होना होगा, जिससे हम सभी सीमाओं से परे जाकर पर्यावरण व पृथ्वी को साझा कर सकेंगें और एक बेहतर भविष्य के निर्माण में भागीदार होंगे।
6.विषय-शुष्क इलाकों में जलभृत मानचित्रण
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
संदर्भ
- हाल ही में, उत्तर-पश्चिम भारत के शुष्क इलाकों में हाई-रिज़ॉल्यूशन मानचित्रण और प्रबंधन के लिये केंद्रीय भूजल बोर्ड, जल शक्ति मंत्रालय और एन.जी.आर.आई. (NGRI), हैदराबाद के बीच समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुए हैं।
कार्यक्रम में शामिल क्षेत्र
- जलभृत मानचित्रण कार्यक्रम के अंतर्गत राजस्थान, गुजरात और हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में यह कार्य किया जाएगा।
- परियोजना के पहले चरण में लगभग 1 लाख वर्ग किमी. का क्षेत्र कवर किया जाएगा। इसमें पश्चिमी राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों (बीकानेर, चुरू, गंगानगर, जालौर, पाली, जैसलमेर, जोधपुर और सीकर ज़िले के कुछ हिस्से) को कवर किया जाएगा।
- साथ ही, गुजरात के शुष्क क्षेत्रों (राजकोट, जामनगर, मोरबी, सुरेंद्रनगर और देवभूमि द्वारका ज़िलों) के साथ-साथ हरियाणा के कुछ क्षेत्रों (कुरुक्षेत्र और यमुनानगर ज़िलों) को भी इसके अंतर्गत शामिल किया जाएगा।
अध्ययन के लक्ष्य
- अध्ययन के प्रमुख लक्ष्यों में हेलीबोर्न (Heliborne) भू-भौतिकीय अध्ययनों का उपयोग करके हाई-रिज़ॉल्यूशन जलभृत मानचित्रण (Aquifer Mapping) और कृत्रिम तरीके से पुनर्भरण (Artificial Recharge) करने के लिये स्थलों की पहचान करना शामिल है।
- साथ ही, 3-डी भू-भौतिकीय मॉडल, क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर तलों का भू-भौतिकीय विषयगत मानचित्रण (Thematic Maps), डी-सैचुरेटेड और सैचुरेटेड जलभृतों के सीमांकन के साथ-साथ प्रमुख जलभृतों की जियोमेट्री तैयार की जाएगी।
- इसके अतिरिक्त, अपेक्षाकृत ताज़े एवं खारे जलक्षेत्रों के साथ जलभृत प्रणाली और कृत्रिम या प्रबंधित जलभृत पुनर्भरण के माध्यम से भूजल निकासी तथा जल संरक्षण के लिये उपयुक्त स्थलों का चयन भी शामिल है।
भूजल और जलभृत (Ground Water and Aquifer)
- चट्टानों तथा मिट्टी से रिसकर भूमि के नीचे जमा होने वाले जल को ‘भूजल’ कहते हैं। जिन चट्टानों में भूजल जमा होता है, उन्हें जलभृत कहा जाता है।
- दूसरे शब्दों में जलभृत पृथ्वी की सतह के नीचे स्थित उस संरचना को कहा जाता है, जिसमें मुलायम चट्टानों, छोटे-छोटे पत्थरों, चिकनी मिट्टी और गाद के भीतर सूक्ष्मकणों के रूप में जल भरा रहता है। सतह में जिस गहराई पर पानी मिलता है, उसे जल-स्तर (Water-level) कहते हैं। मूलतः स्वच्छ भूजल वाटर-टेबल के नीचे स्थित जलभृत में ही पाया जाता है।
- जलभृतों में जिन स्थानों पर जल भरता है, वे संतृप्त क्षेत्र कहलाते हैं।
- भूजल का अतिदोहन उस परिस्थिति को कहते हैं जब एक समयावधि के बाद जलभृतों की औसत निकासी दर, औसत पुनर्भरण की दर से अधिक होती है।
- भारत में सतही जल की अपेक्षा भूजल की उपलब्धता कम है। फिर भी भूजल की विकेंद्रित उपलब्धता के कारण इसका दोहन आसानी से किया जा सकता है। भारत की कृषि व पेयजल आपूर्ति में इसकी हिस्सेदारी बहुत अधिक है।
भूजल स्तर में गिरावट के कारण
- इसका मुख्य कारण, कृषि के लिये भूजल की बढ़ती माँग और अधिकांश क्षेत्रों में भूजल उपलब्धता पर ध्यान दिये बिना फसलों का पैटर्न निर्धारित करना।
- भूजल स्त्रोतों में बढ़ता प्रदूषण और प्रदूषण को नियंत्रित करने एवं भूजल पुनर्भरण के लिये सरकारों द्वारा किसी प्रभावी कार्यक्रम को लागू न किया जाना।
- भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन पर शांता कुमार की अध्यक्षता वाली समिति ने पाया कि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा में प्रभावी मूल्य समर्थन केवल धान और गेहूँ पर दिया गया, जो कि जल-गहन फसलें हैं। ये फसलें काफी हद तक भूजल पर निर्भर होती हैं।
भूजल स्तर में सुधार के लिये सुझाव
- भूजल के अतिदोहन की समस्या से निपटने के लिये कृषि में माँग प्रबंधन का प्रयोग किया जाना चाहिये। इससे कृषि में भूजल पर निर्भरता कम होगी।
- भूजल निकासी, मानसूनी वर्षा और जल-स्तर के अनुसार क्षेत्र-विशेष के लिये फसलों का चयन।
- ड्रिप और स्प्रिंकलर प्रणाली जैसी आधुनिक सिंचाई तकनीकों को अपनाना, ताकि वाष्पीकरण और कृषि में जल के उपयोग को कम किया जा सके।
- विनियामक उपायों के माध्यम से भूजल के प्रयोग को नियंत्रित करना जैसे, सिंचाई के लिये कुओं की गहराई को निर्धारित करना, कुओं के बीच न्यूनतम दूरी को तय करना।
- राष्ट्रीय जल प्रारूप विधयेक, 2013 के अनुसार, सिंचाई के लिये विद्युत् के प्रयोग को विनियमित करके भूजल दोहन को कम किया जा सकता है। साथ ही, राष्ट्रीय जल नीति, 2020 में भी सुझाव दिया गया है कि भूजल निकासी के लिये दी जाने वाली विद्युत सब्सिडी पर पुनर्विचार किया जाना चाहिये।
जल और विधान
- वर्तमान में भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882 प्रत्येक भू-स्वामी को ज़मीन के भीतर या उसकी सतह पर मौजूद जल को एकत्रित तथा निस्तारित करने का अधिकार देता है। ऐसी स्थिति में भूजल निकासी को विनियमित करना कठिन हो जाता है।
- वर्तमान में जल संबंधी विषयों को राज्य सूची में रखा गया है। वर्ष 2012 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय जल नीति को रेखांकित किया जिसमें पानी की मांग के प्रबंधन, उपभोग क्षमता, बुनियादी और मूल्य संबंधी सिद्धांतों को पेश किया था। राष्ट्रीय जल नीति के सुझावों के मद्देनज़र वर्ष 2013 में सरकार ने राष्ट्रीय जल प्रारूप विधेयक का मसौदा प्रकाशित किया। इसका उद्देश्य राज्य सरकारों के लिये रूपरेखा तैयार करना था।
जल और संस्थागत संरचना
- जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्रालय देश में जल संरक्षण व प्रबंधन के लिये उत्तरदाई है। वहीं, ग्रामीण विकास मंत्रालय भूजल प्रबंधन से संबंधित कुछ कार्यक्रमों व योजनाओं का क्रियान्वयन करता है।
- इसके अतिरिक्त पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय प्रदूषण (विशेष रूप से जल प्रदूषण तथा भूजल संदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) के लिये आंशिक रूप से उत्तरदाई है।
जल प्रबंधन में केंद्रीय संस्थानों की भूमिका
- केंद्रीय जल आयोग- राज्य सरकारों के सहयोग से जल संसाधनों के संरक्षण, समन्वय और जल की गुणवत्ता का निरीक्षण।
- केंद्रीय भूजल बोर्ड- भूजल संसाधनों का सतत् प्रबंधन, निरीक्षण, कार्यान्वयन और आकलन।
- केंद्रीय भूजल प्राधिकरण- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अनुसार भूजल संसाधनों के विकास व प्रबंधन का विनियमन एवं नियंत्रण।
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड- जल (प्रदूषण की रोकथाम व नियंत्रण) अधिनियम, 1974 का क्रियान्वयन।
7.विषय-तीव्र आर्थिक संवृद्धि के आधार स्तंभ
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)
संदर्भ
- कोविड–19 महामारीके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। वर्ष 2009 में आई आर्थिक मंदी के बाद यह विश्व का सबसे बड़ा आर्थिक संकट है। ऐसे में, यह पड़ताल करना आवश्यक है कि वर्ष 2020-21 में भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कैसा रहा और वर्ष 2021-22 में इसके लिये क्या संभावनाएँ हैं?
वित्तीय वर्ष 2020-21 में भारतीय अर्थव्यवस्था
- वर्ष 2020-21 में अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को चार तिमाहियों के आधार पर समझा जा सकता है- प्रथम तिमाही में लॉकडाउन के कारण सभी आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प थीं,जिसके चलते अर्थव्यवस्था में 23.9% की गिरावट दर्ज की गई।
- दूसरी तिमाही में, लॉकडाउन के पश्चात् आर्थिक गतिविधियाँ पुनः शुरू होने से अर्थव्यस्था में गिरावट का स्तर कम होकर 7.5% रह गया।
- वर्तमान वित्तीय वर्ष की दूसरी छमाही में यदि जी.डी.पी. का स्तर पिछले वर्ष के स्तर पर बना रहता है, तो इस वर्ष अर्थव्यवस्था में गिरावट या संकुचन लगभग 7.7% तक सीमित रह सकता है।
- हालाँकि, वर्तमान वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही में जी.डी.पी. में अधिक वृद्धि की उम्मीद नहीं की जा सकती, परंतु यदि चौथी तिमाही में जी.डी.पी. में वृद्धि होती है तो वित्तीय वर्ष 2020-21 का संपूर्ण संकुचन 6% से 7% के बीच रह सकता है।
वित्तीय वर्ष 2020-21 में सुधार के उपाय
- वित्तीय वर्ष 2020-21 में जी.डी.पी. में अपेक्षित वृद्धि दर को प्राप्त करने के लिये अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि की आवश्यकता है।इसके लिये जी.एस.टी. संग्रह में वृद्धि और कोयला, इस्पात व सीमेंट जैसे उद्योगों में बेहतर उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
- अक्तूबर 2020 में विनिर्माण क्षेत्र में सकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई है, जो निजी क्षेत्र के बेहतर प्रदर्शन को इंगित करती है।
- हालाँकि, पर्यटन एवं होटल उद्योग को इस संकट से उबरने में समय लग सकता है, क्योंकि यह महामारी से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला क्षेत्र है।
- इस प्रकार, यदि सभी क्षेत्रों में सकरात्मक वृद्धि दर्ज की जाती है तो इस वित्तीय वर्ष में अर्थव्यस्था का संकुचन 6% से 7% तक सिमट सकता है, जो कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के भारतीय अर्थव्यवस्था में 10.3% तक की गिरावट के अनुमान में सुधार को दर्शाता है।
वित्तीय वर्ष 2021-22 में संभावनाएँ
- वित्तीय वर्ष 2021-22 में यदि अर्थव्यवस्था 8% की दर से वृद्धि करती है तो वर्ष 2020-21 के संकुचन की भरपाई की जा सकेगी और भारतीय अर्थव्यवस्था पुनः वर्ष 2019-20 के स्तर पर आ जाएगी।
- वर्ष 2021-22 में 8% की वृद्धि दर प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि महामारी के कारण आरोपित सभी प्रकार के प्रतिबंध वापस ले लिये जाएँ और अर्थव्यवस्था वापस सामान्य स्थिति में लौट आए।
- जिन क्षेत्रों में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि प्रासंगिक है, उन क्षेत्रों में सार्वजनिक व्यय बढ़ने से वे अर्थव्यवस्था की समग्र वृद्धि दर को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, निजी क्षेत्र भी आर्थिक विकास को गति देने के लिये अपनी पूर्व रणनीतियों को संशोधित कर रहा है, जो कि सकरात्मक संकेत है।
- इन सब में, व्यापार तथा विकास के लिये अनिश्चित वैश्विक वातावरण आशंका का माहौल उत्पन्न करता है। कई विकसित देश अभी भी महामारी से बचाव हेतु वैक्सीन के लिये प्रयासरत हैं। यद्यपि वैक्सीन इस समस्या का स्थाई समाधान प्रस्तुत करेगी, परंतु इसमें अधिक समय लगने की संभावना है।
- वर्तमान में व्यापार के प्रति व्याप्त दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है। वृद्धि दर को बढ़ावा देने के लिये विभिन्न देशों द्वारा व्यापार पर प्रतिबन्ध आरोपित करना अथवा अपनी सीमाओं को बंद करना अल्पकाल दृष्टि से सहायक हो सकता है, परंतु दीर्घकाल में यह विकास की संभावनाओं को ही क्षीण करेगा।
- यद्यपि वर्ष 2021-22 में भारतीय निर्यात में वृद्धि से अर्थव्यवस्था में विकास को बढ़ावा मिलेगा, किंतु अभी के लिये यह आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि मुख्यतः घरेलू कारकों पर ही निर्भर हो, क्योंकि विकास केवल उपभोग आधारित ही नहीं बल्कि निवेश आधारित भी होना चाहिये।
कैसी हो मौद्रिक नीति ?
- वर्ष 2020-21 में परिस्थितियों के अनुसार मौद्रिक नीति बेहद आक्रामक रही। मौद्रिक नीति में तीन प्रमुख तत्त्व शामिल हैं; नीतिगत दर में परिवर्तन के माध्यम से ब्याज दरों में कमी, विभिन्न उपायों के माध्यम से तरलता बढ़ाना तथा नियामक परिवर्तन, जैसे- ऋण अधिस्थगन।
- अर्थव्यवस्था के सुचारू संचालन के लिये वित्तीय प्रणाली में पर्याप्त तरलता को बनाए रखा गया। हालिया मौद्रिक नीति के अनुसार, नवंबर 2020 के अंत तक आरक्षित धन में 15.3% की और धन की आपूर्ति में 12.5% की वृद्धि हुई।
- चूँकि वित्तीय प्रणाली में पर्याप्त तरलता को अपनाया गया है, अतः मुद्रास्फीति के उच्च रहने की संभावना रहेगी।
- इसके अतिरिक्त, मुद्रास्फीति वस्तुओं एवं सेवाओं की उपलब्धता के साथ-साथ प्रणाली में समग्र तरलता या मुद्रा आपूर्ति के द्वारा निर्धारित होती है, फिर भी वर्ष 2020 जैसे कठिन वर्ष में परिस्थितियों के अनुकूल मौद्रिक नीति के पर्याप्त औचित्य हो सकते हैं।
राजकोषीय पहलें
- ऐसी कठिन परिस्थिति में सार्वजनिक व्यय महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लोक प्रशासन, रक्षा एवं अन्य सेवाओं के क्षेत्र, जो नीतिगत हस्तक्षेप के अधीन हैं, उनका प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। वर्ष 2020-21 की दूसरी तिमाही में इस क्षेत्र की गिरावट12.2% थी।
- उच्च सार्वजनिक व्यय से जुड़ी प्रोत्साहन नीतियों के लागू किये जाने से यह उम्मीद की जा रही है कि ये अर्थव्यवस्था को गति प्रदन करेंगे।
- यह अनुमान लगाया गया था कि वर्ष 2020-21 में केंद्र का राजकोषीय घाटा कुल जी.डी.पी. का 8% होगा, परंतु सार्वजनिक व्यय में धीमी गति के कारण यह घाटा इस वर्ष जी.डी.पी. का केवल 6% हो सकता है।
- सरकारी व्यय को अभी से तेज़ किया जाना चाहिये ताकि वर्तमान वित्तीय वर्ष में संकुचन कम हो सके। वर्ष 2021-22 में जी.डी.पी. में वृद्धि के साथ-साथ सरकारी राजस्व को बढ़ाने के प्रयास भी किये जाने चाहिये।
- इसके अतिरिक्त, राजकोषीय घाटे को कम करने की प्रक्रिया भी शुरू होनी चाहिये। इसके लिये आवश्यक है कि सरकार पूंजीगत व्यय में तीव्र वृद्धि के माध्यम से विकास संबंधी कार्यों को प्रोत्साहित करे।
- साथ ही, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की एक विस्तृत निवेश योजना तैयार करके इसे आगामी बजट के हिस्से के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
संवृद्धि और निवेश
- महामारी के विरुद्ध प्रभावी उपायों को अपनाने के साथ-साथ आर्थिक विकास एवं निवेश की प्रक्रिया को भी तेज़ किया जाना चाहिये। ध्यातव्य है कि पिछले एक दशक में, निवेश दर में गिरावट बनी हुई है।वर्ष 2011-12 में निवेश दर जी.डी.पी. की 38.9% थी, जो वर्ष 2018-19 में गिरकर 32.2% रह गई।
- हाल ही में, कॉर्पोरेट टैक्स दर में बदलाव सहित कुछ अन्य उपायों से निवेश को बढ़ाने में मदद मिल सकती है। निवेश हेतु अनुकूल माहौल बनाने के लिये ठोस प्रयास किये जाने चाहिये। इस संदर्भ में शुरू की गई ‘नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन’ एक अच्छी पहल है।
- इसके अतिरिक्त, सरकार को अपने स्तर पर और अधिक निवेश करने के लिए आगे आना चाहिये। साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिये कि निवेश गैर-आर्थिक कारकों से भी प्रभावित होता है, जिनमें सामाजिक सामंजस्य सबसे महत्त्वपूर्ण है।
- विकास दर को तीव्र करने के संदर्भ में कुछ सुधार भी महत्त्वपूर्ण हैं, परंतु इसके लिये अनुकूल समय और आम सहमति का होना भी आवश्यक है। उदाहरण के लिये, हाल ही में किये गए श्रम सुधार तब प्रस्तुत होने चाहिये थेजब अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में होती।
निष्कर्ष
- वर्ष 2025 तक भारत द्वारा 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को प्राप्त करना वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार कठिन है।
- वर्ष 2019 में भारतीय अर्थव्यवस्था लगभग 7 ट्रिलियनडॉलरथी, अतः 5 ट्रिलियन डॉलर के स्तर को प्राप्त करने के लिये लगातार छह वर्ष तक 9% की वार्षिक संवृद्धि दर होनी चाहिये, जो कि अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। महामारी के उपरांत आर्थिक संवृद्धि का पुनः पटरी पर लौटना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि नौकरियाँ और रोज़गार केअवसर आर्थिक संवृद्धि से ही प्राप्त होंगे।
- अतः नीति-निर्माताओं के लिये यह आवश्यक है कि वे सर्वप्रथम आर्थिक संवृद्धि के लक्ष्य को प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करें।
8.विषय-क्रिप्टोकरेंसी पर भारत की रणनीति
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र– 3 : सूचना प्रौद्योगिकी, कंप्यूटर, रोबोटिक्स)
संदर्भ
- हाल ही में, क्रिप्टोकरेंसी के मूल्य में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई। बिटकॉइन ने 20,000 अमेरिकी डॉलर के मूल्य को पार कर लिया है।क्रिप्टोकरेंसी के मूल्य में हुई इस वृद्धि से भारत में भी इसके प्रचलन व वैधता से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर पुनर्विचार की माँग उठने लगी है।
क्रिप्टोकरेंसी : अवधारणा
- क्रिप्टोकरेंसी कम्प्यूटराइज़्ड डाटाबेस पर संग्रहीत एक डिजिटल मुद्रा है। सुरक्षा की दृष्टि से इसे मज़बूत क्रिप्टोग्राफ़ी के उपयोग द्वारा डिजिटल बही-खातों में रिकॉर्ड किया जाता है। ये बही-खातें विश्व स्तर पर क्रिप्टोकरेंसी के उपयोगकर्ताओं के लिये वितरित होते हैं।
- क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से किये गए प्रत्येक लेन-देन को ब्लॉक (Blocks) के रूप में कूटबद्ध किया जाता है। कई ब्लॉक एक-दूसरे से मिलकर वितरित बही-खाते (Distributed Ledger) पर ब्लॉकचेन का निर्माण करते हैं।
- क्रिप्टोकरेंसी में इनक्रिप्शन एल्गोरिद्म (Encryption algorithms) के रूप में भी अतिरिक्त सुरक्षा होती है। क्रिप्टोग्राफ़िक अथवा कूटबद्ध (Coded) विधियों का उपयोग मुद्रा के साथ-साथ उस नेटवर्क को भी सुरक्षित बनाने के लिये किया जाता है, जिस पर इसका कारोबार किया जा रहा है।
- वर्तमान में, विश्व भर में लगभग 1500 से अधिक क्रिप्टोकरेंसी प्रचलन में हैं। फेसबुक द्वारा घोषित ‘लिब्रा’ के अतिरिक्त बिटकॉइन, एथरियम आदि क्रिप्टोकरेंसी के कुछ अन्य उदाहरण हैं।
क्रिप्टोकरेंसी के लाभ
- डिजिटल मुद्रा होने के कारण क्रिप्टोकरेंसी का सबसे बड़ा लाभ इसकी गोपनीयता है। इसी कारण इसके लेन-देन में किसी प्रपत्र की अनिवार्यता नहीं है और न ही इसके लिये निजी जानकारी अथवा पहचान साझा करने की आवश्यकता होती है।
- क्रिप्टोकरेंसी का विनियमन किसी भी संस्था द्वारा नही किया जाता, जिस कारण इसका लेन-देन आसन होता है। इसके लिये किसी मध्यस्थ की भी आवश्यकता नहीं होती और न ही इसके लिये अतिरिक्त शुल्क देना पड़ता है।
- डिजिटल मुद्रा होने के कारण इसमें किसी प्रकार की धोखाधड़ी होने की सम्भावना बहुत कम होती है। साथ ही, क्रिप्टोकरेंसी पर वैश्विक मंदी, अवमूल्यन एवं नोटबंदी का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
क्रिप्टोकरेंसी की चुनौतियाँ
- किसी वैध संस्था द्वारा विनियमन न होने से इसके मूल्य में भारी उतार-चढ़ाव के कारण अस्थिरता का सामना करना पड़ सकता है।
- गोपनीयता के कारण आतंकी अथवा ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों में इसका दुरुपयोग होने की संभावना अधिक है।
- इस मुद्रा पर केंद्रीय बैंक का कोई नियंत्रण नहीं होता है, जिस कारण इस पर मौद्रिक नीतियों का कोई प्रभाव नही पड़ेगा।
- बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इसके माध्यम से वित्तीय लेन-देन करके ‘कर अपवंचना’ को बढ़ावा दे सकती हैं।
भारत में क्रिप्टोकरेंसी की स्थिति
- वित्तीय वर्ष 2018-19 में भारत सरकार ने क्रिप्टोकरेंसी को लीगल टेंडर के रूप में मान्यता प्रदान करने से इंकार करते हुए कहा था कि सरकार अवैध गतिविधियों के वित्तपोषण और भुगतान प्रणाली में इसके उपयोग को रोकने के लिये आवश्यक उपाय करेगी।
- नवंबर 2017 में गठित एक अंतर-मंत्रालयी समिति की रिपोर्ट के आधार पर जुलाई 2019 में प्रस्तुत ‘क्रिप्टोकरेंसी प्रतिबंध एवं आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विनियमन विधेयक, 2019’ के फ्रेमवर्क में सरकार ने क्रिप्टोकरेंसी को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित करने की मांग की थी।
- साथ ही, समिति ने क्रिप्टोकरेंसी के महत्त्व को देखते हुए रिज़र्व बैंक को भविष्य में स्वयं की डिजिटल करेंसी जारी करने का सुझाव दिया था।
- इसी संदर्भ में भारतीय रिज़र्व बैंक ने क्रिप्टोकरेंसी में पारदर्शिता के अभाव तथा इसकी अस्थिर प्रकृति को देखते हुए अप्रैल 2018 में सभी वित्तीय संस्थानों में क्रिप्टोकरेंसी के किसी भी प्रकार के वित्तीय लेन-देन को प्रतिबंधित कर दिया था।
- हालाँकि बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने रिज़र्व बैंक द्वारा लगाए गए इन प्रतिबंध को ख़ारिज करते हुए कहा था कि क्रिप्टोकरेंसी प्रकृति में एक ‘वस्तु/कमोडिटी’ है। अतः इसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता।
क्या होनी चाहिये आगे की राह ?
- वर्तमान में, भारत में क्रिप्टोकरेंसी को अपनाने को लेकर स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी नहीं किये गए हैं और सरकार अभी भी असमंजस की स्थिति में है।
- सरकार मुद्रा-ब्लॉकचेन से संबंधित प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने की दिशा में कार्य कर रही है। चूँकि क्रिप्टोकरेंसी भी इसी प्रौद्योगिकी से संबंधित है, अतः भविष्य में सरकार इसे वैधता प्रदान करने पर विचार कर सकती है।
- ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी और क्रिप्टोकरेंसी परस्पर जुड़े हुए हैं। चीन ने अपने यहाँ क्रिप्टोकरेंसी एक्सचेंज्स की अनुमति प्रदान की थी, जिस कारण आज चीन में सर्वाधिक ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी आधारित स्टार्टअप्स हैं।
- सरकार आधुनिक डिजिटल उपकरणों के माध्यम से किसी की पहचान की पुष्टि कर सकती है। ऐसे में क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से व्यापर पर प्रतिबंध लगाना उचित नहीं है।
- वर्तमान में ऑनलाइन गेमिंग एक उभरता हुआ क्षेत्र है जो मुख्य रूप से डिजिटल मुद्रा पर ही आधारित है। अतः इसके लिये एक आसान भुगतान प्रणाली की आवश्कता है जिसे क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से पूरा किया जा सकता है।
- सरकार को क्रिप्टोकरेंसी के बाज़ार पर एकाधिकार के मुद्दे पर भी विचार करना चाहिये। क्रिप्टोकरेंसी को प्रतिबंधित करके सरकार बड़ी कंपनियों को इसमें संपत्ति अर्जित करने का अवसर दे रही है। चूँकि क्रिप्टोकरेंसी के बढ़ते बाज़ार के कारण इसे लंबे समय तक प्रतिबंधित नहीं रखा जा सकता, ऐसे में प्रतिबंध समाप्त होने पर सरकार के लिये इसे विनियमित करना आसान नहीं होगा।
- फेसबुक ‘लिब्रा’ के माध्यम से क्रिप्टोकरेंसी के बाज़ार में उतर चुकी है। ऐसे में भारत के पास भी एक अवसर है कि वह इसमें भागीदार बनकर क्रिप्टोकरेंसी के बाज़ार को समझे, क्योंकि बिना बाज़ार को समझे नियामक की भूमिका निभाना भी आसान नहीं होगा।
- सरकार क्रिप्टोकरेंसी को वैध मुद्रा के रूप में मान्यता न देकर इसे व्यापार-योग्य वस्तु घोषित कर सकती है और कर की प्रयोज्यता के संदर्भ में स्पष्टीकरण दे सकती है।
- इसके अतिरिक्त, महामारी-प्रेरित लॉकडाउन के कारण अनेक उद्योग-धंधे मंदी का सामना कर रहे हैं। ऐसे में क्रिप्टोकरेंसी और ब्लॉकचेन आधारित प्रौद्योगिकी इस क्षेत्र में रोज़गार सृजन में सहायक सिद्ध हो सकती हैं। साथ ही, यह $ 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को प्राप्त करने में भी मददगार साबित होगा।
- वैश्विक स्तर पर क्रिप्टोकरेंसी के बढ़ते प्रचलन को देखते हुए माना जा रहा है कि सरकार आगामी बजट में क्रिप्टोकरेंसी को अपनाने की दिशा सकारात्मक कदम उठा सकती है ।
निष्कर्ष
- वर्तमान में क्रिप्टोकरेंसी का महत्त्व लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में सरकार को चाहिये कि वह इस पर स्पष्ट कानून बनाकर इसे विनियमित करे। इसके लिये मौजूदा ‘फेमा’ (FEMA) तथा सेबी के कानूनों में संशोधन कर धन के प्रवाह व पूंजी जुटाने संबंधी विकल्पों को विनियमित किया जा सकता है।
- इसी प्रकार, कर की प्रयोज्यता पर स्पष्टता लाने के लिये आयकर और जी.एस.टी. कानूनों में संशोधन किये जा सकते हैं। अतः अर्थव्यवस्था में सुरक्षा, अवसर और संवृद्धि तभी बढ़ेंगे जब वह नए समाधानों को स्वीकार करेगी।
9.विषय-राष्ट्रीय रेल योजना : भविष्य का मार्गदर्शक
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3: बुनियादी ढाँचा : ऊर्जा, बंदरगाह, सड़क, विमानपत्तन, रेलवे आदि)
संदर्भ
- भारतीय रेलवे ने क्षमता और उत्पादन संबंधी कमियों को दूर करने तथा माल ढुलाई (फ्रेट) तंत्र में अपनी औसत हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिये ‘राष्ट्रीय रेल योजना’ (National Rail Plan) का मसौदा पेश किया है। साथ ही, वर्ष 2024 तक कुछ महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं के त्वरित कार्यान्वयन के लिये ‘विज़न 2024’ को भी लॉन्च किया है।
योजना के उद्देश्य/मुख्य बिंदु
- इस योजना का उद्देश्य, वर्ष 2030 तक माँग के सापेक्ष बेहतर क्षमता निर्माण करना है, ताकि वर्ष 2050 तक होने वाली माँग में वृद्धि संबंधी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।
- इसका लक्ष्य कार्बन उत्सर्जन को कम करना और वर्ष 2030 तक माल ढुलाई में रेलवे की औसत हिस्सेदारी को वर्तमान के 27% से बढ़ाकर 45% करना है। इसके लिये परिचालन क्षमता और वाणिज्यिक नीति पहलों पर आधारित रणनीति तैयार की जाएगी।
- इसका एक उद्देश्य, माल ढुलाई और यात्री दोनों क्षेत्रों में वर्ष 2030 तक वार्षिक आधार पर और वर्ष 2050 तक दशकीय आधार पर माँग में वृद्धि का पूर्वानुमान लगाना भी है। साथ ही, मालगाड़ियों की औसत गति को वर्तमान के 22 किमी. प्रतिघंटा से बढ़ाकर 50 किमी. प्रतिघंटा करके माल ढुलाई के समय में कमी लाना है।
- इसके अतिरिक्त, रेल परिवहन की कुल लागत को लगभग 30% कम करना और उससे अर्जित लाभों को ग्राहकों तक हस्तांतरित करने का भी विचार है।
- इस योजना को अवसंरचना संबंधी क्षमता बढ़ाने तथा रेलवे एवं व्यापार की औसत हिस्सेदारी में वृद्धि करने की रणनीतियों के लिहाज से तैयार किया गया है।
विज़न 2024
- ‘विज़न 2024’ को राष्ट्रीय रेल योजना के एक घटक के रूप में शुरू किया गया है। इसके तहत, निर्धारित समय-सीमा के साथ ‘पूर्वी तट’, ‘पूर्व-पश्चिम’ और ‘उत्तर-दक्षिण’ नाम के तीन समर्पित माल गलियारों (Freight Corridors) की पहचान की गई है।
- साथ ही, कई नए हाई-स्पीड माल गलियारों की भी पहचान की गई है और दिल्ली-वाराणसी के मध्य हाई-स्पीड रेल संबंधी सर्वेक्षण भी जारी है।
- ‘विज़न 2024’ के तहत, यात्री परिवहन के लिये रोलिंग स्टॉक (Rolling Stock) की आवश्यकता के साथ-साथ माल ढुलाई के लिये माल-डिब्बों की आवश्यकता का आकलन किया जाएगा।
- साथ ही, दिसंबर 2023 तक 100% विद्युतीकरण (हरित ऊर्जा) के साथ-साथ वर्ष 2030 और उसके बाद वर्ष 2050 तक यातायात में बढ़ोतरी के लिये लोकोमोटिव की आवश्यकताओं का भी आकलन किया जाएगा।
- इन ज़रूरतों के लिये आवश्यक पूँजी निवेश का आकलन करने के साथ-साथ वित्त के नए स्रोतों एवं पी.पी.पी. मॉडल सहित वित्तपोषण के नए मॉडलों की पहचान की जाएगी।
- परिचालन और रोलिंग स्टॉक के स्वामित्व, माल और यात्री टर्मिनलों के विकास, ट्रैक संबंधी अवसंरचना के विकास/संचालन जैसे क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की निरंतर भागीदारी को भी बढ़ाने का प्रयास किया जाएगा।
क्या है आगे की योजना ?
- राष्ट्रीय रेल योजना के तहत, माँग से अधिक क्षमता निर्माण और माल ढुलाई में रेलवे की औसत हिस्सेदारी को 45% तक बढ़ाने के लिये वर्ष 2030 तक पूँजी निवेश में आरंभिक वृद्धि की परिकल्पना की गई है।
- साथ ही, अर्जित राजस्व अधिशेष को वर्ष 2030 के बाद भावी पूँजी निवेश के लिये पर्याप्त माना गया है। इससे रेल परियोजनाओं में राजकोषीय वित्तपोषण की आवश्यकता नहीं होगी।
- इस योजना मसौदे को विभिन्न मंत्रालयों के पास उनके विचार जानने के लिये भेजा जा रहा है। रेलवे ने इस योजना को जनवरी 2021 तक अंतिम रूप देने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
किन बातों पर ध्यान देना आवश्यक ?
- राष्ट्रीय रेल योजना के सफल कार्यान्वयन के लिये भारतीय रेलवे को निजी क्षेत्र, सार्वजनिक उपक्रमों, राज्य सरकारों और उपकरण विनिर्माताओं/उद्योगों के साथ मिलकर कार्य करने की संभावनाओं की तलाश करनी चाहिये।
- अवसंरचनात्मक माँग में वृद्धि के साथ उत्पन्न होने वाली बाधाओं की पहचान और निवारण के साथ-साथ रेल मार्गों की माँग के अनुरूप नेटवर्क क्षमता में वृद्धि करने पर ध्यान देना।
- इन बाधाओं को समय रहते दूर करने के लिये ट्रैक कार्य, सिग्नलिंग और रोलिंग स्टॉक में उपयुक्त तकनीक के साथ परियोजनाओं का चयन करने पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
- राष्ट्रीय रेल योजना भविष्य की विकास योजनाओं का मार्गदर्शन करेगी। यह रेलवे की समस्त भावी अवसंरचनात्मक, व्यावसायिक और वित्तीय योजना के लिये एक साझा मंच प्रदान करेगी।
10.विषय-हरित भवन : विशेषताएँ, चुनौतियाँ एवं सुझाव
(मुख्य परीक्षा सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3 ; संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
संदर्भ
- हाल ही में, भारत के उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने ‘ग्रीन रेटिंग फॉर इंटीग्रेटेड हैबिटेट असेसमेंट’(GRIHA) काउंसिल द्वारा आयोजित 12वीं जी.आर.आई.एच.ए. समिट का उद्घाटन करते हुए भारत में हरित भवनों की अवधारणा को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर बल दिया।
हरित भवन
- हरित भवन एक ऐसी निर्माण परियोजनाएँ होती हैं, जो अपने डिज़ाइन, निर्माण या संचालन में पर्यावरण से सम्बंधित नकारात्मक प्रभावों को कम करने के साथ ही हमारे प्राकृतिक वातावरण और जलवायु पर सकारात्मक प्रभाव डालती हैं।
हरित भवनों की विशेषताएँ
- इन इमारतों में ऊर्जा, जल और अन्य संसाधनों का कुशल उपयोग किया जाता है। साथ ही, इनमें स्वच्छ ऊर्जा के रूप में अक्षय ऊर्जा का उपयोग किया जाता है, जैसे- सौर ऊर्जा।
- इनमे प्रदूषण और अपशिष्ट पदार्थों में कमी के पर्याप्त उपायों को अपनाने के साथ-साथ , अपशिष्ट पदार्थों को पुनर्चक्रण भी किया जाता है।
- इन भवनों के अंदर प्राकृतिक रूप से वायु के आवागमन (Ventilation) की बेहतर व्यवस्था की जाती है।
- इन भवनों के निर्माण में पर्यावरण के अनुकूल निर्माण सामग्री का उपयोग किया जाता है, जिससे ये इमारतें बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर हमारे जीवन स्तर में सुधार लाती हैं।
- उपरोक्त सूचीबद्ध विशेषताओं के आधार पर किसी भी इमारत को चाहे वह घर, कार्यालय, स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक केंद्र या किसी अन्य प्रकार की संरचना हो, उसे हरित भवन की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है।
हरित भवनों के निर्माण से सम्बंधित चुनौतियाँ
- जागरूकता का अभाव : भारत में एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी हरित इमारतों और इसके दीर्घकालिक लाभों से अवगत नहीं है। इसके अतिरिक्त, इन इमारतों के संदर्भ में एक गलत धारणा यह भी है कि इन इमारतों की निर्माण लागत बहुत अधिक है।
- अपर्याप्त सरकारी नीतियाँ और प्रक्रियाएँ : हरित भवनों के निर्माण की स्वीकृति के लिये बिल्डर्स और डेवलपर्स को एक जटिल और लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इस प्रकार, प्रशासनिक जटिलताओं के चलते निर्माणकर्ता हतोत्साहित होते हैं।
- कुशल कार्यबल और विशेषज्ञों का अभाव : भारत में हरित भवनों के निर्माण और रखरखाव के लिये कुशल कार्यबल तथा विशेषज्ञों की भारी कमी है। वर्तमान में भारत में नीति निर्माताओं से लेकर आर्किटेक्ट, इंजीनियर, ठेकेदार और श्रमिकों तक किसी भी समूह के पास हरित इमारतों के निर्माण के लिये पर्याप्त ज्ञान और कौशल उपलब्ध नहीं है।
सुझाव
- हरित भवनों के लाभों के बारे में लोगों में जागरूकता लाने के लिये एक ‘जन जागरूकता अभियान’ शुरू किये जाने की आवश्यकता है।
- निजी और सरकारी दोनों ही क्षेत्रों की सहायता से हरित भवनों के निर्माण को बढ़ावा दिया जाना चाहिये, जिसमें निजी क्षेत्र पर्याप्त पूँजी तथा नवाचारी प्रौद्योगिकी उपलब्धता कराएगा तथा सरकारी क्षेत्र कुशल नीति निर्माण में सहायता प्रदान करेगा।
- वित्तीय संस्थानों द्वारा आसान ऋण उपलब्धता तथा सरकार द्वारा कर राहत प्रोत्साहन के माध्यम से हरित भवनों के निर्माण को प्रोत्साहित करना चाहिये।
- हरित इमारतों के निर्माण तथा नियमों के अनुपालन से संबंधित स्वीकृतियों के लिये ‘एकल खिड़की मंजूरी’ (Single Window Clearance) प्रदान करने के लिये एक ऑनलाइन पोर्टल बनाया जाना चाहिये।
अन्य प्रमुख तथ्य
- अगर पारम्परिक अकुशल निर्माण प्रक्रियाओं को जारी रखा जाता है, तो वर्ष 2050 तक ये इमारतें 70% ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिये उत्तरदायी होंगी, जो भारत की हरित महत्वाकांक्षाओं के लिये बड़ी बाधाएँ उत्पन्न कर सकती हैं।
- भारत की कुल ऊर्जा खपत का 40% से अधिक का उपयोग आवासीय और वाणिज्यिक भवनों में किया जाता है तथा इसमें वार्षिक रूप से 8% की वृद्धि हो रही है।
- ‘ग्रीन रेटिंग फॉर इंटीग्रेटेड हैबिटेट असेसमेंट’ (GRIHA ): ऊर्जा और संसाधन संस्थान (The Energy and Resources Institute-TERI) द्वारा विकसित भारत में हरित भवनों के निर्माण के लिये यह एक राष्ट्रीय रेटिंग प्रणाली है, जिसे भारत सरकार द्वारा वर्ष 2007 में मान्यता दी गई थी।
11.विषय-पोषण एजेंडे में बदलाव की आवश्यकता
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : जन वितरण प्रणाली, बफर स्टॉक तथा खाद्य सुरक्षा सम्बंधी विषय)
संदर्भ
- हाल ही में, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5) के प्रथम चरण के निष्कर्षों के आधार पर 22 राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों के लिये डाटा फैक्ट शीट जारी की हैं।
- इन 22 राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में कुछ प्रमुख राज्य जैसे तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और मध्य प्रदेश शामिल नहीं हैं। फिर भी पोषण के परिणाम चिंतित करने वाली तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
चिंताजनक परिणाम
- इन 22 राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में से 16 में वर्ष 2015-16 में आयोजित एन.एफ़.एच.एस-4 (NFHS-4) की तुलना में गम्भीर कुपोषण के प्रसार में वृद्धि हुई है।
- हालाँकि, छह राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में कुपोषण के प्रसार में कुछ गिरावट आई है परंतु इसमें केरल और कर्नाटक ही दो बड़े राज्य शामिल हैं।
- साथ ही, वयस्क कुपोषण जैसे अन्य संकेतकों के प्रसार में भी वृद्धि हुई है। इसे 18.5 किग्रा./मी.2 से कम बॉडी मास इंडेक्स (BMI) के रूप में मापा गया है।
एनीमिया का स्तर
- अधिकाँश राज्यों में बच्चों के साथ-साथ वयस्क महिलाओं के एनीमिया स्तर में भी वृद्धि हुई है, जबकि केवल चार छोटे राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में एनीमिया में गिरावट देखी गई है।
- इनमें लक्षद्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, दादरा एवं नगर हवेली, दमन व दीव और मेघालय शामिल हैं।
वजन की समस्या
- कम भार वाले (Underweight) पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों का प्रतिशत भी 16 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में बढ़ा है।
- साथ ही, अधिकांश राज्यों/संघ राज्य प्रदेशों में भी बच्चों व वयस्कों में अधिक वजन व मोटापे की प्रवृत्ति में वृद्धि देखी जा रही है।
- यह दोनों स्थितियाँ गुणवत्ता और मात्रा के स्तर पर भारत में आहार की अपर्याप्तता की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।
बाल्यावस्था/शैशवकालीन बौनापन (Childhood Stunting)
- एन.एफ़.एच.एस-4 के आँकड़ों की तुलना में 22 राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में से 13 में शैशवकालीन बौनेपन की समस्या में वृद्धि देखी गई है।
- साथ ही, शेष नौ में से पाँच राज्यों में पिछले पाँच वर्ष की अवधि के दौरान 1 प्रतिशतांक से भी कम का सुधार देखा गया है। यद्यपि सिक्किम, मणिपुर, बिहार और असम राज्यों में कुछ सुधार देखा गया है, हालाँकि ये सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्यों से कम है।
- विदित है कि वर्ष 2017 में शुरू किये गए पोषण अभियान का उद्देश्य बौनेपन में प्रति वर्ष 2 प्रतिशतांक की कमी के लक्ष्य को प्राप्त करना है।
- विदित है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन बौनेपन को ‘मानव विकास असमानताओं का एक सूचक’ मानता है। साथ ही, शैशवकालीन बौनेपन को चिरकालिक कुपोषण के साथ-साथ समग्र स्वास्थ्य का एक सूक्ष्म संकेतक भी माना जाता है।
स्वच्छता की स्थिति
- स्वास्थ्य, पोषण और अन्य सामाजिक-आर्थिक संकेतकों से सम्बंधित आँकड़ों को पेश करने वाली एन.एफ़.एच.एस-5 फैक्ट शीट में कुछ सकारात्मक प्रवृत्तियाँ भी दिखाई पड़ती हैं।
- कुपोषण के निर्धारकों तत्त्वों, जैसे- स्वच्छता तक पहुँच, खाना पकाने हेतु स्वच्छ ईंधन और महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार देखने को मिला है।
- साथ ही, महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा में कमी और बैंक खातों तक महिलाओं की अधिक पहुँच भी सकारात्मक संकेत हैं। हालाँकि, इनमें भी अंतराल बना हुआ है और कुछ राज्य दूसरों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं।
कारण
- पिछले तीन दशकों के दौरान ऐसे कई मौके आए हैं जब भारत की आर्थिक विकास दर काफी उच्च रही है। हालाँकि, इस अवधि में असमानता में वृद्धि, श्रम बल के अनौपचारिक क्षेत्र में अधिक संलग्नता और रोज़गार लोचशीलता में कमी देखी गई है।
- मनरेगा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, समेकित बाल विकास योजना (ICDS) और मिड डे मील जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तथा सार्वजनिक कार्यक्रमों में विस्तार ने निरपेक्ष गरीबी में कमी लाने के साथ-साथ पोषण संकेतकों के सुधार में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
- हालाँकि, वित्त पोषण में कमी और उपेक्षा के कारण ये तंत्र लगातार कमज़ोर हो रहे हैं। उदाहरणस्वरुप दिसम्बर, 2019 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2017-18 के बाद से पोषण अभियान के लिये जारी धनराशि का केवल 32.5% ही उपयोग किया गया।
- पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक विकास में मंदी, ग्रामीण मज़दूरी में स्थिरता और बेरोजगारी के उच्च स्तर के कारण भी इन समस्याओं में वृद्धि हुई है। यह प्रवृत्ति देश के विभिन्न हिस्सों में कथित भुखमरी से होने वाली मौतों की बढ़ती संख्या में परिलक्षित होती है।
- महामारी और लॉकडाउन से प्रेरित आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप स्थिति और भी खराब हो सकती है। ‘हंगर वॉच’ के सर्वेक्षण में खाद्य असुरक्षा के साथ-साथ भोजन की खपत में बड़े स्तर पर कमी देखी गई है। यह समस्या विशेषकर गरीब और कमज़ोर परिवारों में अधिक है।
दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता
- यह समस्या पोषण से सम्बंधित कुछ पहलुओं को ही हल करने के दृष्टिकोण का परिणाम है। पूरक पोषण (अच्छी गुणवत्ता के अंडे, फल, आदि), संवृद्धि व विकास की उचित निगरानी जैसे प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के साथ-साथ समेकित बाल विकास योजना एवं स्कूलों में दिये जाने वाले भोजन के माध्यम से खाद्य व्यवहार में परिवर्तन करने और इन्हें अधिक संसाधन प्रदान किये जाने की आवश्यकता है।
- सार्वभौमिक मातृत्व लाभ (Universal Maternity Entitlements) और बाल देखभाल जैसी सेवाओं के माध्यम से विशेष स्तनपान, शिशु एवं छोटे बच्चों को उचित आहार प्रदान करने के साथ-साथ महिलाओं के अवैतनिक कार्य को मान्यता देने के मुद्दे पर भी प्रगति किये जाने की आवश्यकता है।
- खाद्य पदार्थों के उत्पादन में पोषण युक्त कृषि प्रणाली को विकसित करने की आवश्यकता है।
- कुल मिलाकर मुख्य मुद्दा यह है कि कुपोषण के मूल निर्धारकों को लम्बे समय तक नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है। इन निर्धारकों में घरेलू खाद्य सुरक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच और न्यायसंगत लैंगिक समानता शामिल हैं।
- साथ ही, एक रोज़गार केंद्रित विकास रणनीति भी अनिवार्य है जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य और सामाजिक सुरक्षा के लिये बुनियादी सेवाओं का सार्वभौमिक प्रावधान शामिल हो।
निष्कर्ष
- बाल कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिये न केवल प्रत्यक्ष कार्यक्रम बल्कि देश में प्रारम्भ किये गए आर्थिक विकास के समग्र मॉडल पर भी गम्भीर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।
- साथ ही, कुपोषण की चिंताजनक स्थिति इसे दूर करने की दिशा में प्रतिबद्धता और प्राथमिकता के साथ-साथ तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता को इंगित करती है।
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12.विषय-पी.एम. वाणी : डिजिटल इंडिया से डिजिटल भारत की ओर
संदर्भ
- हाल ही में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने देशभर में पब्लिक डाटा ऑफिस (PDO) के द्वारा सार्वजनिक रूप से वाई-फाई सेवा प्रदान करने के लिये ‘पी.एम. वाणी’ नामक एक वृहत नेटवर्क के प्रस्ताव के लिये दूरसंचार विभाग को मंज़ूरी दी है।
- ऐसा माना जा रहा है कि पी.एम. वाणी परियोजना वर्तमान समय में भारत में उभरते ई-डिवाइड को पाटने के लिये एक विकसित तथा विकेंद्रीकृत अवसंरचना के निर्माण में सक्षम होगी। ध्यातव्य है कि डिजिटल इण्डिया योजना (या विशेष रूप से भारत नेट) अब तक अपेक्षानुसार सफल साबित नहीं हो पाई है।
प्रमुख बिंदु
- “पी.एम. वाणी” (Prime Minister Wi-Fi Access Interface – PM WANI) परियोजना को भारत में वाई-फाई के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम के रूप में देखा जा रहा है।
- इस परियोजना के तहत सम्पूर्ण देश में वृहत स्तर पर डाटा सेंटर तथा पब्लिक डाटा ऑफिस (PDO) खोले जाएंगे।
- उल्लेखनीय है कि पब्लिक डाटा ऑफिस के लिये न तो लाइसेंस की ज़रुरत होगी और न ही पंजीकरण की। इसके अलावा, इन पर किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लगेगा।
- इसके तहत स्थानीय किराना दुकानों तथा गली-मोहल्ले की दुकानों पर भी सार्वजनिक वाई-फाई नेटवर्क या ‘एक्सेस पॉइंट’ लगाए जा सकेंगे।
- पी.डी.ओ. के प्राधिकार और अकाउंटिंग के लिये पब्लिक डाटा एग्रीगेटर (PDA) नियुक्त किये जाएंगे।
- यह एक थ्री टियर परियोजना (पब्लिक डाटा ऑफिस, पब्लिक डाटा एग्रिगेटर एवं पी.एम. वाणी ऐप) है।
- इस परियोजना के अमल में आने पर भारत, अमेरिका, कनाडा, स्विट्ज़रलैंड और सिंगापुर जैसे देशों की कतार में शामिल हो जाएगा, जहाँ आम नागरिकों के लिये व्यापक स्तर पर वाई-फाई नेटवर्क स्थापित किया गया है।
- हाल ही में, नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने कहा कि यदि सही दिशा में प्रयास किये गए तो वर्ष 2025 तक भारत डिजिटल तकनीकों के उपयोग से 1 ट्रिलियन डॉलर का राजस्व अर्जित कर सकता है।
- पी.एम. वाणी को उमंग ऐप के समान ही वृहत रूप से उपयोगी माना जा रहा है, जिसके द्वारा लगभग 2084 सेवाओं व 194 सरकारी विभागों तक आम लोगों की पहुँच सुनिश्चित हुई है।
प्रमुख चुनौतियाँ
- ट्राई के हालिया आँकड़ों के अनुसार वर्तमान में लगभग 54% भारतीयों तक इंटरनेट की पहुँच है, किंतु 75वें दौर के एन.एस.ओ. के सर्वेक्षण के अनुसार केवल 20% भारतीय जनता ही इंटरनेट का भलीभाँति प्रयोग कर पाने में सक्षम है। अतः शुरुआत में पी.एम. वाणी के प्रसार में मुश्किलें आ सकती हैं।
- भारत में जनसंख्या घनत्व ऐसे देशों से ज़्यादा है, जो सार्वजनिक स्तर पर वाई-फाई की सुविधा दे रहे हैं। अतः वृहत जनसंख्या तक पी.एम. वाणी के विस्तार में अवसंरचनागत बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है।
- भारत में भौगोलिक विषमता भी एक प्रमुख चुनौती है। पहाड़ी एवं पूर्वोत्तर राज्यों में उचित नेटवर्क का न होना अभी भी प्रमुख समस्या बना हुआ है।
सम्भावनाएँ
- इंडिया इंटरनेट-2019 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों के समान ही इंटरनेट की पहुँच है, बल्कि ग्रामीण भारत में लगभग दोगुने उपभोक्ता हैं, यद्यपि यहाँ इंटरनेट का उपयोग अधिक नहीं होता। अतः यदि प्रयास किये जाएँ तो दोनों ही क्षेत्रों में पी.एम. वाणी के द्वारा इंटरनेट की पहुँच बढ़ाई जा सकती है।
- इस रिपोर्ट के अनुसार लगभग 99% भारतीय मोबाइल के माध्यम से इंटरनेट का उपयोग करते हैं, जिनमें से लगभग 88% 4G नेटवर्क से जुड़े हुए हैं। इस वजह से आम 4G सेवा प्रदाताओं पर भार बढ़ता जा रहा है, पी.एम वाणी इस भार को कम करने में सहायक है।
आगे की राह
- पी.एम. वाणी परियोजना को भारत के डिजिटल क्षेत्र में एक गेम चेंजर के तौर पर देखा जा रहा है, जो न सिर्फ भारत को डिजिटली सशक्त बनाने में सहायक होगी बल्कि इसके द्वारा देशभर में सार्वजनिक वाई-फाई सेवाओं का बड़ा नेटवर्क तैयार करने में भी सहायता मिलेगी, जिससे देश में रोज़गार के अवसर भी बढ़ेंगे।
- हालाँकि भारत को पूर्व में लॉन्च की गई उन योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिये, जो बड़े स्तर पर लागू किये जाने के बाद भी प्रभावशाली साबित नहीं हो पाईं।
13.विषय-एकल कृषि पैटर्न से उत्पन्न समस्याएँ
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : देश के विभिन्न भागों में फसलों का पैटर्न, सिंचाई के विभिन्न प्रकार एवं सिंचाई प्रणाली)
संदर्भ
- वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन के बीच धान-गेहूँ के एकल कृषि पैटर्न पर सवाल उठाए जा रहे हैं। यह समस्या उत्तरी भारत, विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा में अधिक है। अतः लगातार केवल धान-गेहूँ की खेती से उत्पन्न समस्याओं और इसके लिये उपलब्ध वैकल्पिक फसल पैटर्न व अन्य व्यवस्थाओं के बारे में विश्लेषण आवश्यक है।
एकल कृषि पैटर्न (Monoculture) के प्रचलन का कारण
- हरित क्रांति के दौरान उत्तर भारत, विशेषकर पंजाब और हरियाणा में किसानों का ध्यान धान और गेहूँ की खेती पर ही केंद्रित हो गया क्योंकि हरित क्रांति का सर्वाधिक सकारात्मक प्रभाव धान और गेहूँ के उत्पादन पर ही पड़ा था।
- परिणामस्वरुप चना, मसूर, सरसों और सूरजमुखी की जगह गेहूँ की खेती ने ले ली जबकि कपास, मक्का, मूंगफली और गन्ने के क्षेत्र को धान की बुवाई ने प्रतिस्थापित कर दिया।
- हालाँकि, कुछ क्षेत्रों में सब्जियों (विशेष रूप से आलू और मटर) और फलों (किन्नू) की कृषि की जाती है, परंतु इसे फसल विविधीकरण नहीं कहा जा सकता है।
एकल कृषि पैटर्न से समस्या
- एक ही कृषि भूमि पर साल-दर-साल एक ही फसल उगाने से रोग और कीट के हमलों की सम्भावना बढ़ जाती है। फसलों की आनुवंशिक विविधता जितनी अधिक होती है, कीटों और रोगाणुओं के प्रति पौधों की प्रतिरोधकता उतनी ही अधिक होती है।
- साथ ही, दालों और फलियों के विपरीत गेहूँ और धान की खेती वातावरण से नाइट्रोजन का स्थिरीकरण नहीं कर सकती।
- गेहूँ और धान की निरंतर कृषि फसल चक्रीकरण को बाधित करती है, जिससे मृदा में पोषक तत्त्वों की कमी के का रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भरता बढ़ जाती है।
- हालाँकि, पंजाब में गेहूँ का उत्पादन मुख्य मुद्दा नहीं है क्योकि वहाँ इसका उत्पादन स्वाभाविक रूप से मृदा और कृषि-जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल है। साथ ही, पंजाब में इसकी खेती राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी वांछनीय है। अत: पंजाब की वास्तविक समस्या धान की खेती को लेकर है।
- पंजाब के भूजल स्तर में औसतन 0.5 मीटर प्रति वर्ष की गिरावट आई है। इसका प्रमुख कारण राज्य में धान की खेती और सिंचाई के लिये विद्युत की मुफ्त आपूर्ति है।
- धान को अधिक जल की आवश्यकता होती है। आमतौर पर गेहूँ की सिंचाई पाँच बार की जाती हैं जबकि धान की सिंचाई लगभग 30 बार की जाती है।
- धान ग्रीष्म ऋतु की फसल है, जिसे पर्याप्त जल की आवश्यकता होती है और जो उच्च तापमान के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील नहीं है। अत: इसे पूर्वी, मध्य और दक्षिणी भारत में उगाया जाता है, जहाँ पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।
उपाय
- इस सम्बंध में पंजाब भूमिगत जल संरक्षण अधिनियम, 2009 को लागू करना एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जो क्रमश: 15 मई और 15 जून से पहले धान की नर्सरी/बुवाई और रोपाई पर रोक लगाता है।
- हालाँकि, इससे धान की पूसा-44 जैसी किस्मों से सम्बंधित समस्या पैदा हो गई। चूँकि पूसा-44 लम्बी अवधि की फसल है अत: उसकी कटाई और गेहूँ की बुवाई के मध्य कम समय मिलने के कारण धान के पुआल (Paddy Stubble) को जलाने की समस्या पैदा हो गई। ध्यातव्य है कि वर्ष 2012 में पंजाब के गैर-बासमती धान के क्षेत्र का लगभग 39% हिस्सा पूसा-44 की बुवाई के अंतर्गत ही था।
- दुसरे शब्दों में कहें तो पंजाब में भूजल संरक्षण दिल्ली में वायु प्रदूषण का एक कारण बन गया।
- इस समस्या के निदान के लिये पी.आर.-126 जैसी कम अवधि और अधिक उत्पादन वाली धान की किस्मों का विकास एक महत्त्वपूर्ण कदम है। ऐसी ही अन्य किस्मों का भी विकास किया जाना चाहिये।
- साथ ही, यदि धान की रोपाई की जगह उसकी बुवाई को प्राथमिकता दी जाए तो सिंचाई की संख्या को 3 से 4 तक कम किया जा सकता है।
- इसके अतिरिक्त, सुनिश्चित सरकारी मूल्य एवं प्रति एकड़ प्रोत्साहन द्वारा कपास, मक्का, मूंगफली एवं खरीफ दालों (अरहर, मूंग और उड़द) के साथ-साथ चना, सरसों या सूरजमुखी के उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिये।
- फसल विविधीकरण और फसल चक्र को अपनाकर भू-जल स्तर में गिरावट को रोका जा सकता है। साथ ही, कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को कम करके मृदा, जल और वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के साथ-साथ और खाद्य जाल में रसायनों के प्रवेश को कम किया जा सकता है।
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14.विषय-सरकारी उपक्रमों की बढ़ती समस्याएँ
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र – 3 : उदारीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव)
संदर्भ
- विगत कुछ वर्षों से सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) की आर्थिक स्थिति निरंतर ख़राब हो रही है, जिससे इनके समक्ष कई समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं।
सरकारी उपक्रमों की प्रमुख समस्याएँ
- सरकार पिछले कई वर्षों से सरकारी उपक्रमों से निरंतर लाभांश प्राप्त कर रही थी लेकिन अब पी.एस.यू. इस स्थिति में नहीं हैं कि वे लाभांश भुगतान में सरकार की अपेक्षाओं के अनुरूप वृद्धि कर सकें।
- अतिरिक्त लाभांश भुगतान के अलावा सूचीबद्ध सरकारी उपक्रमों से बाज़ार पूंजीकरण बढ़ाने से सम्बंधित रूपरेखा पेश करने का भी दबाव बनाया जा रहा है। स्वाभाविक है कि पी.एस.यू. के विनिवेश के समय उच्च बाज़ार पूंजीकरण सरकार को अधिक आर्थिक मदद पहुंचाता है।
- वर्तमान में सरकार तथा पी.एस.यू. के बीच व्यवहार और सरकारी अपेक्षाओं को लेकर बुनियादी तालमेल का अभाव है। अक्सर सरकारी बैंकों सहित तमाम सरकारी उपक्रमों का उपयोग सरकार अपनी बजटीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये करती है, जिससे इन उपक्रमों की निवेश क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- यदि सरकारी उपक्रम नियमित रूप से उच्च लाभांश देते रहे तो उनके पास पूंजीगत निवेश के लिये कम संसाधन उपलब्ध होंगे, जिससे इन उपक्रमों की वृद्धि पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
- सरकारी उपक्रमों द्वारा कम पूंजीगत निवेश के चलते भविष्य में इनके राजस्व और लाभ में भी कमी आएगी, जिससे लाभांश भुगतान की क्षमता में कमी के चलते सरकार की आय में भी कमी आएगी। ध्यातव्य है है कि सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रमों में सरकार ही सबसे बड़ी अंशधारक होती है।
- वर्तमान में सरकारी उपक्रमों के बाज़ार मूल्य में निरंतर गिरावट आ रही है, जिसका मुख्य कारण सरकार द्वारा पीएसयू के प्रबंधन में अनावश्यक हस्तक्षेप तथा अतिरिक्त लाभांश की माँग करना है।
- सरकारी हस्तक्षेप के अलावा पी.एस.यू. के सुस्त परिचालन के तरीकों के कारण ये निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम नहीं हैं।
सुझाव
- सरकार द्वारा पी.एस.यू. के विनिवेश से आय स्रोत के अलावा गैर जरूरी परिसम्पत्तियों के मौद्रीकरण की योजना प्रस्तुत की जानी चाहिये क्योंकि गैर जरूरी परिसम्पत्तियों की बिक्री से नकदी जुटाने में मदद मिलेगी।
- सरकारी उपक्रमों और इनके प्रबंधन के उचित कामकाज के लिये आवश्यक स्वायत्तता देनी चाहिये, जिससे ये बाज़ार प्रतिस्पर्धा का सामना करने में सक्षम हो सकें।
निष्कर्ष
- सरकारी उपक्रमों पर, सरकारी राजस्व की कमी की पूर्ति हेतु उनकी परिसम्पत्ति बेचने के लिये अनावश्यक दबाव बनाना और उनसे उच्च लाभांश की मांग करने से पी.एस.यू. की वृद्धि के अवसर सीमित हो रहे हैं।
- इसलिये सकारात्मक परिणामों की प्राप्ति के लिये सरकारी उपक्रमों से जुड़ी नीतियों की समीक्षा में दीर्घकालिक लक्ष्यों को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
15.विषय-उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट : 2020
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3 : विषय– संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन।)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट (Emission Gap Report) 2020 प्रकाशित की गई।
- यू.एन.ई.पी. की यह वार्षिक रिपोर्ट, पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुरूप, अनुमानित उत्सर्जन स्तरों के बीच अंतर को मापती है। ध्यातव्य है कि इस सदी का प्रमुख लक्ष्य ग्लोबल वार्मिंग के स्तर को 2°C से कम करके1.5°C पर लाना है।
प्रमुख बिंदु (वर्ष 2019 के विश्लेष्णात्मक आँकड़े)
रिकॉर्ड ग्रीन हाउस गैस (GHG) उत्सर्जन
- वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन लगातार तीसरे वर्ष, वर्ष 2019 में भी बढ़ता रहा, जो भूमि उपयोग परिवर्तन ( land use changes -LUC ) को शामिल किये बिना 52.4 गीगाटन कार्बन समकक्ष (GtCO2e) के रिकॉर्ड उच्च स्तर तक पहुँच गया ।
- हलाँकि विगत कुछ समय में ऐसे संकेत मिले हैं, जो यह बताते हैं कि वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की वृद्धि दर धीमी हुई है।
- हलाँकि आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओ.ई.सी.डी.) देशों की अर्थव्यवस्थाओं में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में गिरावट आ रही है और गैर- ओ.ई.सी.डी. अर्थव्यवस्थाओं में यह उत्सर्जन बढ़ रहा है।
रिकॉर्ड कार्बन उत्सर्जन:
- जीवाश्म ईंधन और कार्बोनेट से जीवाश्म कार्बन डाइऑक्साइड (Fossil carbon dioxide) का उत्सर्जन कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन पर हावी रहा।
- जीवाश्म कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन वर्ष 2019 में रिकॉर्ड 38.0 Gt CO2 तक पहुँच गया।
दावानल/वनाग्नि के कारण बढ़ता जी.एच.जी. उत्सर्जन
- वर्ष 2010 के बाद से, वैश्विक ग्रीन हाउस गसों का उत्सर्जन औसतन प्रति वर्ष 1.4% बढ़ा है, लेकिन वर्ष 2019 में दावानल में वृद्धि के कारण यह उत्सर्जन 2.6% की तेज़ी से बढ़ा है।
जी–20 देशों में भारी मात्रा में उत्सर्जन
- पिछले एक दशक में, शीर्ष चार उत्सर्जक देशों (चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, EU27 + यू.के. और भारत) ने भूमि उपयोग परिवर्तन (LUC) के बिना कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 55% का योगदान दिया है ।
- शीर्ष सात उत्सर्जक देश (रूस, जापान सहित अंतर्राष्ट्रीय परिवहन) 65% उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार हैं तो वहीं जी -20 के सदस्य देशों ने 78% का योगदान दिया है।
- यदि भारत के उत्सर्जन की बात की जाए तो वर्ष 2019 के दौरान भारत में 3.7 गीगाटन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ था। यहाँ प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2.7 टन CO2 था।
उत्सर्जन पर महामारी का प्रभाव:
- CO2 उत्सर्जन वर्ष 2020 में, वर्ष 2019 के उत्सर्जन स्तर के मुकाबले 7% तक घट सकता है।
- अन्य ग्रीन हाउस गैसें, जैसे- मीथेन (CH4) और नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) की वायुमंडलीय सांद्रता में वृद्धि वर्ष 2019 और 2020, दोनों में जारी रही।
- महामारी के कारण उत्सर्जन में सबसे कम गिरावट परिवहन क्षेत्र में रही। चूँकि लम्बे समय तक लॉकडाउन रहा इस वजह से परिवहन गतिविधियाँ कम रहीं।
गम्भीरता
- वर्तमान दर से यदि देखा जाए तो दुनिया अभी भी इस सदी में 3°C से अधिक तापमान वृद्धि की ओर बढ़ रही है।
- पेरिस समझौते में प्रयास के स्तर को अभी भी 2°C के लक्ष्य हेतु तिगुना और 1.5°C के लक्ष्य के लिये कम से कम पाँच गुना बढ़ाया जाना चाहिये।
- वैश्विक तापमान में 3°C की बढ़ोत्तरी दुनिया भर में मौसम सम्बंधी तीव्र घटनाओं का कारण बन सकती है।
आगे की राह
- रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कोविड–19 की आर्थिक मार से उबरने के लिये अगर अभी पर्यावरण के अनुकूल निर्णय लिये जाते हैं तो वर्ष 2030 तक के अनुमानित ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन (Greenhouse gas emissions) में 25% की कमी लाई जा सकती है।
- भारत ने अपने उत्सर्जन में कमी लाने के लिये कई प्रयास किये हैं। इसी दिशा में उसने वर्ष 2020 की पहली छमाही में कोई नया ताप विद्युत् प्लांट स्थापित नहीं किया है। यही वजह है कि भारत में कोयले से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा में करीब 0.3 गीगावाट की कमी आई है।
- इसके अतिरिक्त, भारत सौर ऊर्जा पर भी विशेष ध्यान दे रहा है, वर्ष 2022 तक अपने कृषि क्षेत्र में सौर ऊर्जा के अनुप्रयोगों को बढ़ाने और 25 गीगावाट क्षमता विकसित करने के लिये पी.एम. कुसुम योजना भी चला रहा है।
16.विषय-कोच्चि और लक्षद्वीप के बीच सबमरीन ऑप्टिकल फाइबर केबल कनेक्टिविटी योजना
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : सूचना प्रौद्योगिकी)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भारत के मुख्य भू-भाग कोच्चि और लक्षद्वीप द्वीपों (के.एल.आई. परियोजना : KLI Project) के मध्य सबमरीन फाइबर केबल कनेक्टिविटी योजना को स्वीकृति प्रदान की।
प्रस्तावित योजना
- इस परियोजना के अंतर्गत एक समर्पित सबमरीन ऑप्टिकल फाइबर केबल (OFC) के माध्यम से कोच्चि और लक्षद्वीप के 11 द्वीपों के बीच सीधे दूरसंचार लिंक उपलब्ध कराने की परिकल्पना की गई है।
- इन द्वीपों में कवरत्ती, कलपेनी, अगति, अमिनी, एंड्रोथ, मिनीकॉय, बंगाराम, बित्रा, चेटलाट, किल्तान और कदमत्त्त शामिल हैं।
- इस परियोजना के कार्यान्वयन की अनुमानित लागत 1072 करोड़ रुपए है, जिसमें पांच वर्षों के लिये संचालन व्यय को भी शामिल किया गया है। इस परियोजना को दूरसंचार विभाग के यूनिवर्सल सेवा बाध्यता कोष (Universal Service Obligation Fund: USOF) द्वारा वित्त पोषित किया जाएगा।
- विदित है कि यूनिवर्सल सेवा बाध्यता कोष का उद्देश्य ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में लोगों के लिये आर्थिक रूप से उचित कीमतों पर गुणवत्तापूर्ण आई.सी.टी. सेवाओं तक गैर-भेदभावपूर्ण पहुँच को सुनिश्चित करना है।
क्रियान्वयन रणनीति एवं लक्ष्य
- भारत संचार नगर लिमिटेड को इस परियोजना की क्रियान्वयन एजेंसी तथा टेलीकम्युनिकेशंस कंसल्टेंट इंडिया लिमिटेड (TCIL) को यू.एस.ओ.एफ. की सहायता करने के लिये तकनीकी सलाहकार नामित किया गया है।
- इस परियोजना के तहत सम्पत्तियों के स्वामित्व का अधिकार यू.एस.ओ.एफ. के पास रहेगा। इस परियोजना को मई 2023 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।
- उल्लेखनीय है कि अगस्त, 2020 में चेन्नई और अंडमान-निकोबार के मध्य सबमरीन ऑप्टिकल फाइबर केबल लिंक का उद्घाटन किया गया था।
प्रभाव
- दूरसंचार के बुनियादी ढाँचे में वृद्धि देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास से बहुत निकटता से जुड़ा हुआ है और रोज़गार सृजन की दिशा में महत्त्वपूर्ण है।
- इस सम्पर्क योजना की मंजूरी से लक्षद्वीप के द्वीपों में दूरसंचार सुविधाओं में उच्च क्षमता के बैंडविड्थ की उपलब्धता से काफी सुधार होगा। सबमरीन कनेक्टिविटी परियोजना नागरिकों को घर पर ही ई-सुशासन सेवाओं के वितरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।
- इसके अलावा, मत्स्य क्षेत्र में क्षमता विकास, नारियल आधारित उद्योगों, पर्यटन, दूरस्थ शिक्षा और टेलीमेडिसिन सुविधाओं के क्षेत्र में काफी मदद मिलेगी। साथ ही, ब्लू इकॉनमी के विकास में योगदान मिलेगा।
- इस परियोजना से अनेक उद्यमों की स्थापना के साथ-साथ ई-कॉमर्स गतिविधियों को बढ़ावा देने और शैक्षिक संस्थानों में ज्ञान साझा करने में पर्याप्त मदद मिलेगी। लक्षद्वीप के द्वीपों में लॉजिस्टिक सेवाओं के एक विशाल हब बनने की क्षमता है।
लक्षद्वीप और संचार
- अरब सागर में स्थित लक्षद्वीप भारत के लिये सामरिक दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। इन द्वीपों में रहने वाले लोगों को सुरक्षित, मज़बूत, विश्वसनीय और वहनीय दूरसंचार सेवाओं की उपलब्धता पूरे देश के लिये सामरिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- लक्षद्वीप में इस समय दूरसंचार कनेक्टिविटी उपग्रहों के माध्यम से प्रदान की जा रही है। आँकड़ों आधारित सेवाओं को उपलब्ध कराने में बैंडविड्थ की कमी एक बड़ा अवरोध है। समाज के समावेशी विकास के लिये उपयुक्त क्षमता की बैंडविड्थ ई-सुशासन और ई-बैंकिंग के लिये पहली आवश्यकता है।
- लक्षद्वीप में उच्च क्षमता वाली बैंडविड्थ सुविधा को उपलब्ध कराया जाना देश में डिजिटल इंडिया के लक्ष्यों को हासिल करने तथा ई-सुशासन के राष्ट्रीय उद्देश्य को मूर्त रूप देने के अनुरूप है।
17.विषय-लक्षद्वीप पूर्णतः जैविक केन्द्रशासित राज्य घोषित
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र –3: विषय – कृषि, सिंचाई के विभिन्न प्रकार एवं सिंचाई प्रणाली)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, लक्षद्वीप समूह को भारत की भागीदारी गारंटी प्रणाली के तहत 100% जैविक केंद्रशासित राज्य (Organic Agricultural Area) घोषित किया गया है।
प्रमुख बिंदु
- लक्षद्वीप में कृषि अब बिना किसी रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग के की जाती है, जिससे लोगों को सुरक्षित भोजन के विकल्प प्राप्त हो रहे हैं। साथ ही, इससे कृषि भी अधिक पर्यावरण अनुकूल हो गई है अर्थात् मृदा प्रदूषण आदि नगण्य हो गए हैं।
- इससे पहले वर्ष 2016 में सिक्किम भारत का पहला ‘100% जैविक’ राज्य घोषित किया गया था।
- लक्षद्वीप की 32 वर्ग किमी. की भौगोलिक कृषि भूमि को केंद्र सरकार की परम्परागत कृषि विकास योजना (जैविक खेती सुधार कार्यक्रम) के तहत आवश्यक प्रमाणपत्र प्राप्त करने के बाद पूर्ण रूप से जैविक घोषित किया गया।
- ध्यातव्य है कि इससे पूर्व लक्षद्वीप प्रशासन ने रसायन मुक्त क्षेत्र बनाने के लिये अक्तूबर 2017 से कृषि कार्यों के लिये सिंथेटिक रसायनों की बिक्री, उपयोग और राज्य में उनके प्रवेश पर औपचारिक प्रतिबंध लगा दिया था।
भागीदारी गारंटी प्रणाली (Participatory Guarantee System- PGS)
- पी.जी.एस. जैविक उत्पादों को प्रमाणित करने की एक प्रक्रिया है, जो यह सुनिश्चित करती है कि उनका उत्पादन निर्धारित गुणवत्ता मानकों के अनुसार हो।
- इस प्रणाली का क्रियान्वयन एवं निष्पादन कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा किया जाता है।
- यह प्रमाणन केवल किसानों या किसान समूहों के लिये है और यह केवल कृषि गतिविधियों, जैसे कि फसल उत्पादन, प्रसंस्करण, पशुपालन एवं ऑफ-फार्म प्रसंस्करण पर लागू होता है।
जैविक कृषि से लाभ
1) कृषकों की दृष्टि में
- भूमि की ऊर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है।
- सिंचाई अंतराल में वृद्धि होती है और फसल-चक्र का विकल्प मिलता है।
- रासायनिक उर्वरक पर निर्भरता कम होने से लागत में कमी आती है।
- फसलों की उत्पादकता में वृद्धि।
- बाज़ार में जैविक उत्पादों की मांग बढ़ने से किसानों की आय में भी वृद्धि होती है।
2) मृदा की दृष्टि से
- जैविक खाद के उपयोग से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है।
- भूमि की जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है।
- भूमि से जल का वाष्पीकरण कम होता है।
3) पर्यावरण की दृष्टि से
- भूमि के जल स्तर में वृद्धि होती है।
- मृदा, खाद्य पदार्थ और भूमि में पानी के माध्यम से होने वाले प्रदूषण में कमी आती है।
- कचरे का उपयोग खाद निर्माण में किये जाने से बीमारियों में कमी आती है।
- फसल उत्पादन की लागत में कमी एवं आय में वृद्धि।
- अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में जैविक उत्पाद की बेहतर गुणवत्ता।
18.विषय-ए.आई. आधारित अर्थव्यवस्था का महत्त्व
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अधययन प्रश्नपत्र– 3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी– विकास एवं अनुप्रयोग और रोज़मर्रा के जीवन पर इसका प्रभाव)
संदर्भ
- कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) की उपयोगिता अब केवल व्यवसायों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कुछ अर्थव्यवस्थाओं ने भी आर्थिक संवृद्धि के साधन के रूप में ए.आई. क्षमताओं के निर्माण पर अपना ध्यान केंद्रित किया है। अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ के देशों जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाएँ पहले से ही इस दौड़ में अगली पंक्ति में हैं।
- पिछले कुछ वर्षों में, भारत ने भी कृत्रिम बुद्धिमता प्रौद्योगिकी को अपनाने के लिये कई महत्त्वपूर्ण प्रयास किये हैं। हालाँकि अभी भी ऐसे कई क्षेत्र हैं, जिनमें भारत को ए.आई. प्रौद्योगिकी को अपनाने हेतु अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
ए.आई. आधारित अर्थव्यवस्था का महत्त्व
- डाटा तथा ए.आई. आधारित सेवाएँ भारत की आर्थिक संवृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। नैसकॉम के अनुसार, डाटा और ए.आई. प्रौद्योगिकी से वर्ष 2025 तक भारत की जी.डी.पी. में $ 450 बिलियन से $ 500 बिलियन तक योगदान होने का अनुमान है, जो भारत सरकार के $ 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था के लक्ष्य का लगभग 10% है।
- ए.आई. का बढ़ता चलन अर्थव्यवस्था में व्यापक स्तर पर तकनीकी रोज़गार के अवसर पैदा करेगा।
- ए.आई. तकनीक बैंक और अन्य सेवा प्रदाताओं की कुछ साझा समस्याओं के लिये समाधान उपलब्ध करा सकती है। यह तकनीक ऋण आवेदन प्रक्रिया में तेज़ी लाने तथा ग्राहक सेवा में सुधार करने के साथ-साथ बेहतर प्रशासन के लिये भी समाधान उपलब्ध कराने में सक्षम है।
- दूरसंचार विभाग के अनुसार, भारत में लॉकडाउन के बाद से इंटरनेट की खपत में 13% की वृद्धि हुई है। चूँकि इंटरनेट ए.आई. का अभिन्न अंग है अत: उपभोक्ताओं द्वारा इंटरनेट की बढ़ती खपत लोगों में ए.आई. तकनीक के उपयोग की समझ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
सरकार के प्रयास
- भारत ने सरकारी प्रयासों तथा निजी क्षेत्र के निवेश के माध्यम से पिछले कुछ वर्षों में ए.आई. क्षमता-निर्माण में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। इसी दिशा में भारत सरकार ने ए.आई. के उपयोग तथा अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के लिये एक वैश्विक सम्मेलन ‘सामाजिक सशक्तिकरण के लिये जवाबदेह कृत्रिम बुद्धिमत्ता, 2020’ का आयोजन किया।
- ‘सभी के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता’, नीति आयोग की राष्ट्रीय स्तर पर प्रौद्योगिकी आधारित समावेशी विकास के लिये एक महत्त्वपूर्ण रणनीति है। इसके तहत स्वास्थ्य देखभाल, कृषि, शिक्षा, स्मार्ट शहरों तथा बुनियादी ढाँचे के विकास हेतु ए.आई. आधारित समाधानों की पहचान की जाएगी।
- हाल ही में, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट्र सरकार ने ए.आई. तकनीक को अपनाने के लिये नई नीतियों एवं रणनीतियों की घोषणा की है। प्रौद्योगिकी कम्पनियों ने भी अपने ग्राहकों की समस्याओं के समाधान हेतु वैश्विक स्तर पर ए.आई. उत्कृष्टता केंद्र स्थापित किये हैं।
- वर्तमान में भारत में एक सम्पन्न ए.आई. स्टार्ट-अप पारिस्थितिकी तंत्र मौजूद है। भारत में कैंसर स्क्रीनिंग तथा स्मार्ट कृषि जैसे क्षेत्रों में ए.आई. तकनीक को विकसित करने का प्रयास किया जा रहा हैं।
सम्बंधित समस्याएँ तथा सुझाव
- भारत ने कौशल विकास के माध्यम से कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में कार्यबल में अभूतपूर्व वृद्धि की है लेकिन कार्यबल की बढ़ती मांग की तुलना में इसकी आपूर्ति अत्यधिक कम है।
- इसलिये भारत को ए.आई. तथा मशीन लर्निंग क्षेत्र से सम्बंधित मानव संसाधन की पर्याप्त उपलब्धता के लिये क्षेत्रीय स्तर पर कौशल विकास कार्यक्रमों तथा तकनीकी रूप से सुसज्जित उत्कृष्टता केंद्रों के निर्माण हेतु प्रयास करने चाहिये।
- ए.आई. अर्थव्यवस्था के निर्माण में डाटा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिये गोपनीयता के अधिकार को ध्यान में रखते हुए एक संतुलित दृष्टिकोण के साथ डाटा का उपयोग किया जाना चाहिये। साथ ही डाटा को नियंत्रित करने तथा उसके नैतिक उपयोग के लिये एक सशक्त क़ानूनी ढाँचे की भी आवश्यकता है।
- भारत में कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित क्षेत्रों में उपयोग के लिये डाटा के विश्लेष्ण तथा वर्गीकरण के लिये ‘डाटा प्रबंधन केंद्रों’ का अभाव है। अतः सरकार को निजी क्षेत्र की सहायता से डाटा प्रबंधन ढाँचे में निवेश करने की ज़रूरत है, जिससे ए.आई. प्रौद्योगिकी में आवश्यकतानुसार परिणामों के लिये त्रुटिरहित डाटा की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके।
निष्कर्ष
- भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में ए.आई. प्रौद्योगिकी का भविष्य आशाजनक है। इस प्रौद्योगिकी की क्षमताओं को वास्तविक रूप देने के लिये भारत को प्रतिभा विकास, डाटा का नैतिक उपयोग तथा सुशासन के लिये मज़बूत नीतियों एवं प्रौद्योगिकी अवसंरचना के निर्माण की दिशा में कार्य करना चाहिये और इसके लिये दीर्घकालीन निवेश के साथ-साथ दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
19.विषय-जैविक कृषि से नई उम्मीद
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3: विषय – कृषि)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, बिजनौर और पास के क्षेत्रों में किसानों द्वारा जैविक कृषि या आर्गेनिक फार्मिंग के फलसवरूप न सिर्फ अच्छी पैदावार हुई है, बल्कि किसानों को आर्थिक रूप से भी अधिक फायदा हुआ है।
- विगत कुछ वर्षों से किसानों में जैविक कृषि को लेकर विभिन्न आशंकाएँ थीं जो अब धीरे-धीरे दूर हो रही हैं।
- प्रधानमंत्री ने भी मन की बात कार्यक्रम में जैविक कृषि की फायदों पर ज़ोर दिया था।
- पर्यावरण और स्वास्थ्य पर रासायनिक कृषि के गम्भीर दुष्प्रभावों को देखते हुए धीरे-धीरे ही सही लेकिन जैविक व प्राकृतिक कृषि की ओर लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। यह कृषि अपार सम्भावनाओं का दरवाजा खोलती है।
- हालाँकि भारत में यह कृषि अब भी सीमित क्षेत्रफल में ही हो रही है। राज्य सरकारों व केंद्र सरकार द्वारा अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।
जैविक कृषि : प्रमुख बिंदु
- विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (CSE) की रिपोर्ट के अनुसार, रसायन मुक्त कृषि को बढ़ावा देने के लिये बड़े स्तर पर सुनियोजित, महत्वाकांक्षी, बड़े बजट वाले देशव्यापी कार्यक्रम की सख्त ज़रूरत है, जिससे विभिन्न विभाग, मंत्रालय, केंद्र और राज्य सरकारें एकजुट होकर समन्वित प्रयास कर सकें।
- सरकार द्वारा किसानों के लिये एक अच्छे जैविक बाज़ार को उपलब्ध कराना अति आवश्यक है। उच्च गुणवत्ता के देसी बीज, जैविक और बायो फर्टिलाइजर, जैविक खाद आदि की उपलब्धता सस्ते मूल्य पर सुनिश्चित करानी होगी।
- रासायनिक खाद की सब्सिडी को जैविक खाद की तरफ मोड़ना चाहिये, जिससे किसानों को जैविक का विकल्प मिल सके।
- स्थानीय स्तर पर कृषि विस्तार सेवाओं को इस बड़े बदलाव के लिये सक्षम बनाए जाने की सख्त ज़रुरत है।
- जैविक सर्टिफिकेशन व्यवस्था में सुधार कर इसे किसानों की आवश्यकता के अनुरूप ढालना होगा। पी.जी.एस. सर्टिफिकेशन द्वारा पैदा किये उत्पाद को फूड प्रोक्योरमेंट प्रोग्राम और मिड डे मील जैसी योजनाओं से जोड़ने की ज़रुरत है, जिससे किसानों का जैविक उत्पाद खरीदा जा सके।
- कृषि राज्य का विषय है, अंत: खासतौर पर राज्य सरकारों को विभिन्न दिशाओं में समुचित और समन्वित प्रयास करने होंगे, जैसे- जैविक बीज और खाद, किसानों का प्रशिक्षण, मार्केट लिंकेज, ऑर्गेनिक वैल्यू चैन डेवलपमेंट और किसानों के लिये जैविक उत्पादों का लाभकारी मूल्य मिलना सुनिश्चित करना होगा।
- ये सभी प्रयास प्राकृतिक और जैविक कृषि का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
जैविक और प्राकृतिक कृषि की बाधाएँ
- रसायन मुक्त कृषि अब भी मुख्यधारा में आने के लिये संघर्ष कर रही है। केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से इस दिशा में अभी तक गम्भीर प्रयास नहीं हुए।
- किसान, उपभोक्ता और सरकारों के सामने भी रसायन मुक्त उत्पाद को बढ़ावा न देने के अपने कारण हैं। इन बाधाओं की वजह से जैविक और प्राकृतिक कृषि के विस्तार पर नकारात्मक असर पड़ा है।
- आज देश में जैविक कृषि पर कोई राष्ट्रीय स्तर का मिशन या महत्वाकांक्षी एक्शन प्लान नहीं है। राष्ट्रीय जैविक कृषि नीति निष्क्रिय-सी हो चुकी है। एक तरफ जहाँ रासायनिक उर्वरकों को साल में सरकार की तरफ से 70 से 80 हज़ार करोड़ की सब्सिडी दी जाती है, वहीं जैविक कृषि की मुख्य योजनाओं को सिर्फ कुछ सौ करोड़ ही दिये जाते हैं।
- आश्चर्य की बात है कि अब तक वैज्ञानिक समुदाय और नीति निर्माताओं ने जैविक और प्राकृतिक कृषि के सम्पूर्ण फायदों जैसे- पर्यावरण, आर्थिक, सामाजिक, पोषण और सतत् विकास लक्ष्य सम्बंधी तथ्यों को पूरी तरह से या तो समझा नहीं या समझकर भी नीति निर्माण में महत्त्व नहीं दिया।
- एक तरफ जहाँ रासायनिक कृषि को बढ़ावा देने के लिये एग्रो-केमिकल इंडस्ट्रीज़ की बड़ी लॉबी रहती है, वहीं बहुत सारी आशंकाओं के चलते रसायन मुक्त कृषि को उच्च स्तर पर राजनैतिक सहयोग भी हासिल नहीं हो पाता।
- देश की कृषि शिक्षा व्यवस्था और वैज्ञानिक समुदाय रासायनिक कृषि पर ही बात करता है और रसायन मुक्त कृषि को बड़े स्तर पर ले जाने की ओर अग्रसर नहीं है।
- हमारे देश का कृषि तंत्र किसानों का सही मार्गदर्शन और सहयोग प्रदान करने में विफल रहा है। किसानों को उत्पादों का सही मूल्य लेने के लिये संघर्ष करना पड़ता है और काफी समय बाज़ार की भागदौड़ में निकालना पड़ता है।
- वर्तमान में जैविक मार्केट लिंकेज की सरकार द्वारा लगभग नगण्य व्यवस्था है या जहाँ है भी तो बहुत ही छोटे स्तर पर है। रसायन मुक्त कृषि का तेज़ी से प्रचार-प्रसार न होने का एक बड़ा कारण उचित मूल्य न मिल पाना भी है।
- सरकार की किसी भी योजना में किसानों द्वारा योजना के तहत उत्पादित कृषि उत्पादों को खरीदने का कोई प्रावधान नहीं है। इसी के साथ किसानों को उत्तम गुणवत्ता और उचित दाम पर जैविक बीज, जैविक खाद आदि की व्यवस्था नहीं है।
आगे की राह
- जैविक और प्राकृतिक कृषि से होने वाले अनेक फायदे, जैसे- पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण, जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन अनुकूलता, मिट्टी का स्वास्थ्य, मनुष्यों और पशुओं के स्वास्थ्य पर होने वाले सकारात्मक परिणाम आदि पर वास्तविक वैज्ञानिक डाटा विकसित करना चाहिये, जिससे नीतिगत फैसले लेते समय इन कारकों को भी ध्यान में रखा जाए।
- जैविक या प्राकृतिक कृषि की तरफ मुड़ने वाले किसानों को भी न केवल रासायनिक कृषि की तरह बराबर का सहयोग मिलना चाहिये बल्कि उनकी समस्याओं को समझकर उनका समुचित मार्गदर्शन भी करना चाहिये।
- अनुभवी किसानों को रसायन मुक्त कृषि के ज्ञान का प्रचार- प्रसार करना चाहिये।
20.विषय-क्वांटम सुप्रीमेसी
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र –3 : विषय – विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी– विकास एवं अनुप्रयोग और रोज़मर्रा के जीवन पर इसका प्रभाव, कम्प्यूटर, रोबोटिक्स)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, चीन ने गूगल के सुपर कम्प्यूटर के प्रोटोटाइप से 10 बिलियन गुना तेज़ कम्प्यूटर का निर्माण करने और इस क्षेत्र में अपनी क्वांटम सुप्रीमेसी (Quantum Supremacy) का दावा किया है।
- ध्यातव्य है कि विगत वर्ष गूगल ने विश्व के सबसे उन्नत सुपर कम्प्यूटर बनाने की घोषणा की थी, जो साइकामोर नामक एक क्वांटम प्रोसेसर (Cycamore Quantum Processor) की सहायता से किसी गणना को 200 सेकंड में हल कर सकता है, जिसे विश्व के अन्य सबसे तेज़ सुपर कम्प्यूटर 10,000 वर्ष में हल कर पाएंगे।
क्या है ‘क्वांटम सुप्रीमेसी’?
- कैलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी के प्रोफेसर जॉन प्रेस्किल द्वारा वर्ष 2012 में सर्वप्रथम ‘क्वांटम सुप्रीमेसी’ शब्द का प्रयोग किया गया था।
- क्वांटम सुप्रीमेसी एक ऐसी तकनीक है, जो कम्प्यूटिंग की स्पीड को बहुत अधिक बढ़ाती है, इसके द्वारा कैलकुलेशन प्रोसेसिंग की स्पीड बढ़ाकर समय की बचत की जा सकती है।
- क्वांटम कम्प्यूटर्स डेस्कटॉप या लैपटॉप के डिज़ाइन में असेम्बल नही होते हैं, बल्कि ये अलग-अलग पार्ट्स में होते हैं, जिन्हें सर्वर रूम में रखा जाता है।
- ऐसा माना जा रहा है कि क्वांटम प्रोसेसरों के कारण न सिर्फ बड़े डेटा और इंफॉर्मेशन को बहुत कम समय में प्रोसेस किया जा सकेगा बल्कि नई दवाओं की खोज से लेकर शहरों का मैनेजमेंट और ट्रांसपोर्ट जैसे काम भी आसान हो जाएंगे।
क्रांतिकारी तकनीक
- क्वांटम कम्प्यूटिंग विश्व की वर्तमान दशा-दिशा बदलने की क्षमता रखती है। यह दवाओं और चिकित्सा के क्षेत्र से लेकर, संचार के तौर-तरीकों और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) को पूरी तरह से बदलकर रख देगी।
- वर्तमान में आई.बी.एम. (IBM), माइक्रोसॉफ्ट (Microsoft) और गूगल (Google Inc.) जैसी बड़ी आई.टी.कम्पनियाँ इसे बनाने का प्रयास कर रही हैं। अमेरिका (America) और चीन (China) ने इस तकनीक को सबसे पहले हासिल करने के लिये अरबों डॉलर का निवेश किया हुआ है।
- विगत वर्ष गूगल के वैज्ञानिकों ने दावा किया था कि उन्होंने क्वांटम सुप्रीमेसी तकनीक विकसित करने में सफलता हासिल कर ली है।
- करीब 35 सालों से इस तकनीक पर काम कर रहे गूगल ने तो यहाँ तक घोषणा कर दी थी कि उसने इस क्वांटम चिप की मदद से सामान्य कम्प्यूटर से होने वाले 10 हज़ार साल की गणना को 200 सेकंड्स में ही पूरा कर लिया था। हालांकि माइक्रोसॉफ्ट और आई.बी.एम. ने गूगल के इस दावे को झूठा करार दिया था।
क्वांटम कम्प्यूटर और उनकी तकनीक
- एक साधारण कम्प्यूटर चिप बिट्स (Bits) का उपयोग करता है। ये छोटे स्विच की तरह होते हैं जिन्हें शून्य से दर्शाया जाता है। प्रत्येक ऐप जिनका हम उपयोग करते हैं, हर वो वेबसाइट जिसे हम खोलते हैं और हर फोटो जो हम कैमरे या मोबाइल से खींचते हैं, वे सभी ऐसे ही लाखों-करोड़ों बिट्स और 1 व 0 के संयोजन से बनती हैं।
- लेकिन यह तकनीक हमें आज तक यह नहीं बता पाई कि वास्तव में ब्रह्मांड किस तरह काम करता है। यहाँ तक कि मानव द्वारा बनाए गए सबसे बेहतरीन सुपर कम्प्यूटर भी आज तक इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए।
- पिछली शताब्दी में भौतिक विज्ञानियों ने पता लगाया था कि अगर हम इतने छोटे हो जाएँ कि माइक्रोस्कोप से भी नज़र न आएँ तब हमारे शरीर पर गुरुत्वाकर्षण और ब्रह्मांड बिल्कुल अलग तरह का प्रभाव डालेगा। इन्हीं प्रभावों के बारे में क्वांटम तकनीक इस्तेमाल की जाती है।
- बिट्स की बजाय क्वांटम कम्प्यूटर क्यूबिट्स (Qbits) का उपयोग करते हैं। यानी बिट्स की तरह ऑन या ऑफ होने की बजाय ये क्यूबिट्स उस स्थिति में भी हो सकते हैं जिसे ‘सुपरपोजिशन’ (Super Position) कहा जाता है, जहाँ वे एक ही समय में ऑन या ऑफ अथवा दोनों के बीच की स्थिति (Spectrum) में भी हो सकते हैं।
- क्यूबिट्स की सुपर पोजिशन ही क्वांटम तकनीक को इतना शक्तिशाली बनाती है। इसे ऐसे समझें कि अगर हम एक साधारण कम्प्यूटर को भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता बताने के लिये कहें तो वह हर सम्भव रास्ते को बारी-बारी से आजमाएगा जब तक कि सही रास्ता न मिल जाए जबकि एक क्वांटम कम्प्यूटर एक ही बार में भूलभुलैया से बाहर निकलने वाले हर रास्ते को दिखा सकता है।
- यह दो सम्भावित सिरों के बीच मौजूद अनिश्चितता को पकड़ लेता है, जो साधारण कम्प्यूटर के बस की बात नहीं है। भौतिक विज्ञानी अभी भी पूरी तरह से नहीं समझ पाए हैं कि यह कैसे या क्यों काम करता है। लेकिन क्वांटम कम्प्यूटिंग की मदद से हम उन जटिल सवालों के जवाब भी पा सकते हैं जिन्हें हल करने में हमारे सुपर कम्प्यूटर्स को लाखों साल लगेंगे।
क्वांटम कम्प्यूटर की क्षमताएँ
- क्वांटम कम्प्यूटर तेज़ी से या अधिक कुशलता (Lightning Speed and Accurecy) से काम करने तक सीमित नहीं है। इससे हम ऐसे काम भी कर सकेंगे जिनके बारे में हमने कभी कल्पना तक नहीं की है।
- इनकी मदद से हम आर्टिफिशियल इंटेलीजेंसी को तेज़ी से विकसित कर सकेंगे। गूगल पहले से ही सेल्फ ड्राइविंग कारों (self-Driving Cars) के सॉफ्टवेयर में सुधार करने के लिये उनका उपयोग कर रहा है।
- हमारे सुपर कम्प्यूटर केवल बुनियादी अणुओं (Molecules) का ही विश्लेषण कर सकते हैं लेकिन क्वांटम कम्प्यूटर उन्हीं बुनियादी अणुओं का उपयोग उन्हें समझने की कोशिश के दौरान ही कर सकता है। इसका मतलब है ज़्यादा कुशल और आधुनिक उत्पाद, बेहतर चिकित्सा तकनीक, सस्ती दवाएँ और बड़े पैमाने पर बेहतर सौर पैनलों का निर्माण, जो इलेक्ट्रिक कारों में बैटरी का नया विकल्प बन सकती हैं।
- वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि क्वांटम तकनीक अल्ज़ाइमर का कारगर इलाज खोजने में मदद कर सकती है।
- इसके अलावा शेयर बाज़ार और मौसम का सटीक पूर्वानुमान, क्रिप्टोग्राफी में सुधार कर एन्क्रिप्शन सिस्टम को सपुरफास्ट और सरल बनाना जैसे काम क्वांटम कम्प्यूटर चुटकियों में कर सकता है।
- दुनिया भर में खुफिया एजेंसियों के पास बड़ी मात्रा में एन्क्रिप्टेड डेटा को ट्रैक करने में भी इसका उपयोग किया जा सकेगा। क्वांटम एन्क्रिप्शन को कॉपी या हैक नहीं किया जा सकता है। ये पूरी तरह से किसी भी प्रकार की सेंधमारी से मुक्त होंगे।
21.विषय-गूगल की मुफ्त क्लाउड स्टोरेज नीति में परिवर्तन
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : सूचना प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटर)
चर्चा में क्यों?
- गूगल ने अपने ऑनलाइन क्लाउड स्टोरेज नीति में 1 जून, 2021 से बदलाव करने का निर्णय लिया है।
गूगल की वर्तमान नीति
- गूगल की वर्तमान नीति के अनुसार उपयोगकर्ताओं को एक नियमित गूगल अकाउंट पर 15GB स्टोरेज स्पेस मुफ्त प्रदान किया जाता है। यह माइक्रोसॉफ्ट के वनड्राइव (OneDrive) और एप्पल के आईक्लाउड (iCloud) पर प्रदान किये जाने वाले 5GB मुफ्त स्टोरेज की तुलना में काफी अधिक है।
- यह 15GB स्पेस उपयोगकर्ता के जीमेल, ड्राइव और फोटोज़ के लिये होता है। ड्राइव में गूगल डॉक्स व गूगल शीट्स जैसी एप से बनाई जाने वाली सभी फाइलें व स्प्रेडशीट शामिल होती हैं।
- गूगल की परिभाषा के अनुसार अपलोड की गई उच्च रिज़ॉल्यूशन वाली फोटो को स्पेस बचाने के लिये कम्प्रेस किया जाता है। 16MP से बड़ी तस्वीरें को 16MP में तथा 1080p से अधिक रिज़ॉल्यूशन की सभी वीडियो को भी हाई-डेफ़िनिशन 1080p के आकार में रिसाइज़ कर दिया जाता हैं।
- साथ ही, एक्सप्रेस रिज़ॉल्यूशन में फ़ोटो अधिकतम 3MP की और वीडियो 480p रिज़ॉल्यूशन की होती हैं।
नीति में प्रमुख बदलाव
- 1 जून, 2021 से गूगल फ़ोटो अब पहले की तरह निःशुल्क नहीं होगा और इसके बाद अपलोड किये गए सभी फ़ोटो और वीडियो की गणना अकाउंट स्टोरेज के रूप में की जाएगी।
- साथ ही गूगल काफी दिनों से निष्क्रिय अकाउंट से सामग्री (Content) को भी डिलीट करेगा।
नीति में बदलाव का कारण
- गूगल के प्रत्येक उत्पाद व सेवाओं के उपयोगकर्ताओं की संख्या 1 बिलियन से अधिक है और इतनी अधिक मात्रा में मुफ्त क्लाउड स्टोरेज प्रदान करना सम्भव नहीं है।
- गूगल के अनुसार उपयोगकर्ता पहले से कहीं अधिक सामग्री अपलोड कर रहे हैं। वास्तव में जीमेल, गूगल ड्राइव और गूगल फ़ोटो पर प्रत्येक दिन 4.3 मिलियन जी.बी. से अधिक की सामग्री अपलोड की जा रही है।
- कम्पनी ‘गूगल वन’ कार्यक्रम के तहत अतिरिक्त स्टोरेज के लिये भुगतान का विकल्प प्रदान करती है और इन उपयोगकर्ताओं को इस बदलाव से चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है।
- अधिक फ़ोटो और वीडियो अपलोड करते रहने की स्थिति में सेवा के लिये भुगतान करना होगा क्योंकि दिये गए 15GB को जीमेल, फ़ोटो और ड्राइव में विभाजित किया गया है।
निष्क्रिय खातों से सामग्री को हटाना
- नई नीति के तहत गूगल निष्क्रिय खातों से सामग्री को डिलीट कर देगा। इन उत्पादों या सेवाओं से सम्बंधित ऐसे अकाउंट जो दो वर्ष से अधिक समय से निष्क्रिय हैं, उन से सामग्री को हटाया जा सकता है।
- डाटा डिलीट करने से पहले गूगल इसकी सूचना उपभोक्ता को प्रदान करेगा और इसमें सामग्री को डाउनलोड करने का भी विकल्प दिया जाएगा।
- यदि 2 वर्ष के लिये स्टोरेज सीमा को पार कर लिया गया है, तो भी सामग्री डिलीट की जा सकती है।
22.विषय-किसान आंदोलन और खरीद प्रक्रिया
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य से सम्बंधित विषय, जन वितरण प्रणाली– उद्देश्य, कार्य, सीमाएँ)
चर्चा में क्यों?
- कृषि अधिनियम, 2020के विरोध में उत्तर भारत में एक बार पुन: किसानों का प्रदर्शन शुरू हो गया है। किसान संगठनों ने इन अधिनियमों को वापस लेने की माँग की है।
प्रदर्शन और चिंताएँ
- पंजाब और हरियाणा इस विरोध के केंद्र बिंदु है। पंजाब और हरियाणा के किसानों के विरोध का मुख्य कारण ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम’ है, जो राज्य सरकार द्वारा विनियमित कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) के बाहर भी फसलों की बिक्री और खरीद की अनुमति देता है।
- किसानों की मुख्य चिंता अधिनियम में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को अनिवार्य न किये जाने तथा आने वाले समय में इसे ख़त्म करने की आशंका और अनाज की सार्वजनिक खरीद प्रक्रिया में बदलाव को लेकर है।
- किसान नेताओं का मानना है कि नवीनतम अधिनियम का मूल उद्देश्य भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन पर शांता कुमार की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों को लागू करना है।
- वर्ष 2015 में प्रस्तुत इस रिपोर्ट में पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में भारतीय खाद्य निगम की सभी खरीद संचालन गतिविधियों को राज्य सरकार की एजेंसियों को सौंपने को कहा गया था।
- एक शंका यह भी है कि अनुबंध कृषि (Contract Farming) में किसानों का पक्ष कमज़ोर होगा और वे कीमतों का उचित निर्धारण नहीं कर पाएँगे। साथ ही, प्रायोजक न मिलने के कारण छोटे किसान अनुबंध कृषि कर पाने में असमर्थ होंगे।
- किसानों को डर है कि प्रभावशाली निवेशक उन्हें बड़े कॉर्पोरेट कानून फर्मों द्वारा तैयार किये गए प्रतिकूल अनुबंधों के लिये बाध्य करेंगे और इसमें देयताओं व दायित्वों से सम्बंधित ज़्यादातर मामलें किसानों की समझ से परे होंगें।
- ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक’ के विरोध का बिंदु यह है कि अनिवार्य वस्तुओं पर भण्डारण की सीमा समाप्त कर देने से अब इनकी अधिक जमाखोरी होगी अर्थात् इन वस्तुओं को कम कीमत पर अधिक मात्रा में खरीदकर, कुछ समय पश्चात इन वस्तुओं की मांग में वृद्धि होने पर इन्हें अधिक कीमतों पर बेचा जा सकता है, जिससे उत्पादक और उपभोक्ता दोनों ही हानि उठाएंगे।
- सरकार के अनुसार ये कानून किसानों को अपनी उपज को कहीं भी बेचने की स्वतंत्रता देता है परंतु किसानों का कहना है कि इससे कृषि का निगमीकरण का होगा।
पंजाब और हरियाणा में कृषि: जीवन रेखा के रूप में
- पंजाब और हरियाणा में किसान एम.एस.पी. के माध्यम से सार्वजनिक खरीद पर बहुत अधिक निर्भर हैं।
- पंजाब और हरियाणा में धान उत्पादन का लगभग 88% और गेहूं उत्पादन का लगभग 70% (2017-18 और 2018-19 में) सार्वजनिक प्रक्रिया के माध्यम से खरीदा गया है।
- इसके विपरीत आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और उत्तर प्रदेश जैसे अन्य प्रमुख धान उत्पादक राज्यों में चावल उत्पादन का केवल 44% सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा खरीदा जाता है।
- साथ ही मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों में कुल उत्पादन का केवल एक-चौथाई (लगभग 23%) सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा खरीदा जाता है।
- यह पंजाब व हरियाणा में एम.एस.पी. और सार्वजनिक खरीद प्रणाली पर किसानों की भारी निर्भरता को दर्शाता है।
इन राज्यों में मंडियों की स्थिति
- बिहार और उत्तर प्रदेश की मंडियों से पंजाब में प्रत्येक दिन लगभग 3-4 लाख टन धान पहुँचता है। ऐसा इसलिये है क्योंकि पंजाब की मंडियों में बिक्री के लिये उपलब्ध धान की अधिकतम फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीद लिया जाता है।
- बिहार और यू.पी. में मंडियों के अधिक विकसित न होने के कारण व्यापारी कम मूल्य पर किसानों से धान खरीदते हैं और इसे पंजाब ले जाकर खरीद मूल्य से दोगुने (एम.एस.पी.) पर बेचते हैं।
- इस प्रकार, पंजाब में अधिक कीमत पाने के लिये कमोडिटी व्यापारियों द्वारा अवैध विपणन चैनलों की कई रिपोर्टें सामने आई है।
- पंजाब में 95% और हरियाणा में 70% से अधिक धान उगाने वाले किसानों को एम.एस.पी. का लाभ मिलता है, जबकि पश्चिम बंगाल में केवल 7.3% और यू.पी. में 3.6% किसान खरीद मूल्य पर धान बेचने में सक्षम हैं।
- शायद यह भी एक कारण है कि नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का विरोध मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा तक ही सीमित है।
- पूर्वोत्तर राज्यों में वर्ष 2018-19 में 7.3 मिलियन टन धान के उत्पादन के मुकाबले केवल 1.1 लाख टन धान की खरीद की गई। वहीं, पी.डी.एस. और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से 2.7 मिलियन टन धान वितरित किया गया। यदि इस क्षेत्र में उचित मात्रा में धान की खरीद होती, तो अन्य राज्यों से धान की ढुलाई का दबाव कम हो जाता।
- यह खरीद प्रक्रिया के विस्तार और मज़बूती की आवश्यकता की ओर इशारा करता है।
- कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (CACP) ने भी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और अन्य पूर्वी व पूर्वोत्तर राज्यों के साथ देश के सभी क्षेत्रों के सीमांत और छोटे किसानों को खरीद प्रक्रिया के अंतर्गत लाने की बात कही है।
- किसानों के खरीद प्रक्रिया तक पहुँच न होने का कारण अन्य राज्यों में खरीद प्रक्रिया का पंजाब और हरियाणा की तरह बुनियादी ढाँचे का पर्याप्त विकास नहीं होना है।
- देश में केवल 6% किसान ही अपनी फसल को एम.एस.पी. पर बेच पाते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि शेष 94% किसान खुले बाज़ार में विपणन से खुश हैं।
सरकार का दायित्व
- यदि पंजाब व हरियाणा के किसानों को खरीद प्रणाली की आवश्यकता है, तो सरकार को इसकी और भी अधिक आवश्यकता है।
- इसका कारण पी.डी.एस. और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत सरकार के दायित्व हैं। एन.एफ.एस.ए. के तहत प्रदान की जाने वाली सहायता कानूनी होने के साथ-साथ अधिकारों से भी सम्बंधित हैं।
- लगभग 80 करोड़ एन.एफ.एस.ए. लाभार्थियों के साथ-साथ आठ करोड़ अतिरिक्त प्रवासी हैं जिन्हें पी.डी.एस. के माध्यम से सहायता की आवश्यकता है।
- इस प्रकार, सरकार को पी.डी.एस. व्यवस्था बनाए रखने के लिये विशेष रूप से इन दोनों राज्यों से अनाज की निर्बाध आपूर्ति की आवश्यकता है।
- पिछले तीन वर्षों में देश में कुल धान उत्पादन का लगभग 40% (45 मिलियन टन) और गेहूं उत्पादन का 32% (34 मिलियन टन) सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा पी.डी.एस. आपूर्ति के लिये खरीदा गया है।
- कोरोना वायरस महामारी और प्रवासी संकट के कारण सरकार ने सार्वजनिक वितरण के लिये अधिक मात्रा का निर्धारण किया है जो देश के चावल उत्पादन का लगभग आधा (49%) और गेहूं उत्पादन का 35% हिस्सा है।
- इसका मतलब है कि सरकार को पिछले वर्षों की तुलना में भारी मात्रा में अनाज खरीदने की जरूरत है और सरकार खुले बाज़ार में जाने का जोखिम नहीं उठा सकती है।
सुधार की आवश्यकता
- यदि सरकार इतनी बड़ी मात्रा में अनाज खरीदना चाहती है तो उसे इन दोनों राज्यों की ओर रुख करने की जरूरत है। पिछले तीन वर्षों में लगभग 35% चावल और 62% गेहूं की खरीद इन राज्यों से हुई है। साथ ही, कुल मोटे अनाज का लगभग 50% इन दोनों राज्यों से ही आया है।
- इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि सार्वजनिक खरीद प्रणाली को समाप्त करना न तो किसानों के हित में है और न ही सरकार के हित में।
- इसलिये, यह जरूरी है कि सरकार किसान समूहों तक पहुंचे और उन्हें एम.एस.पी.-खरीद प्रणाली की अपरिहार्यता का आश्वासन दे। सरकार को उनकी जायज चिंताओं का निराकरण करते हुए इस पहल को लागू करने की जरूरत है।
- किसी विनियामक तंत्र की अनुपस्थिति (निजी प्रयोजकों द्वारा निष्पक्ष कार्य-प्रणाली सुनिश्चित करने के लिये) और व्यापार क्षेत्र के लेन-देन में पारदर्शिता की कमी प्रमुख मुद्दे हैं जिन्हें तत्काल हल किये जाने की आवश्यकता है।
- एम.एस.पी. को कानूनी अधिकार बनाने के लिये एक तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये। साथ ही, अन्य राज्यों के किसानों को पंजाब और हरियाणा की तरह विनियमित मंडियों के एक विशाल नेटवर्क की आवश्यकता है।
23.विषय-एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र –3 : विषय– आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन,भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना,समावेशी विकास)
चर्चा में क्यों?
- भारत में कृषि सुधारों के लिये एक बड़े कदम के तौर पर, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में यूनियन कैबिनेट ने जुलाई, 2020 में नई केंद्रीय योजना- एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड को मंज़ूरी दी थी। हाल ही में, इस योजना का वित्तीय अनुमोदन सरकार द्वारा कर दिया गया है।
- यह योजना सीमित समयावधि के लिये तथा ऋण वितरण के लिये निर्धारित प्रक्रिया के साथ मंज़ूर की गई है।
इंफ्रास्ट्रक्चर फंड का महत्त्व :
- केंद्र सरकार द्वारा अनुमोदित एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड से कृषि और कृषि प्रसंस्करण के लिये औपचारिक ऋण सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के नए अवसर पैदा होने की उम्मीद है।
ऋण वितरण :
- इस ऋण का वितरण चार वर्षों में होगा जो वर्ष 2020 में 10,000 करोड़ रूपये की मंज़ूरी के साथ शुरू होकर अगले 3 वित्त वर्षों में 30,000 करोड़ रुपये तक होगा।
- एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड के तहत विपणन सहकारी समितियों, प्राथमिक कृषि साख समितियों, स्वयं-सहायता समूहों, किसान उत्पादक संगठनों, संयुक्त देयता समूहों, स्टार्टअप, कृषि-उद्यमियों, बहुउद्देशीय सहकारी समितियों, राज्य/ केंद्र एजेंसी या स्थानीय निकाय प्रायोजित पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और एग्रीगेशन इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोवाइडर्स को वित्तीय संस्थानों और बैंकों द्वारा ऋण के तौर पर एक लाख करोड़ रुपए प्रदान किये जाएंगे।
- इस सुविधा के तहत सभी ऋणों पर 2 करोड़ रुपये की सीमा तक 3% प्रति वर्ष तक ब्याज छूट प्राप्त होगी। यह ऋण छूट अधिकतम 7 वर्ष की अवधि के लिये उपलब्ध होगी।
- पात्र आवेदकों को उनके ऋण पर क्रेडिट गारंटी भी उपलब्ध होगी। यह सूक्ष्म और लघु उद्योगों के लिये बने क्रेडिट गारंटी फण्ड ट्रस्ट (C.G.T.M.S.E.) के अंतर्गत ही प्रदान की जाएगी, जो कि 2 करोड़ रुपए तक के ऋण पर उपलब्ध होगी।
- सरकार की एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड योजना की अवधि कुल 10 वर्ष अर्थात् वित्त वर्ष 2020 से वित्त वर्ष 2029 तक होगी।
फंड का प्रबंधन और निगरानी :
- इसकी प्रबंधन और निगरानी ऑनलाइन प्रबंधन सूचना प्रणाली (MIS) प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से की जाएगी।
- यह सभी योग्य संगठनों या संस्थाओं को एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड के तहत ऋण प्राप्त करने के लिये आवेदन करने में सक्षम बनाएगा।
- वास्तविक समय में निगरानी और प्रभावी प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला स्तरीय समितियों की स्थापना भी की जाएगी।