सामान्य अध्ययन
GS-1 से GS-4
मैन्स कंटेंट
जनवरी 2021
क्रम-सूची
GS-1 Mains
1. दक्षिण कोरिया में नकारात्मक प्रतिस्थापन दर
2. प्राकृतिक पूंजी लेखांकन एवं पारिस्थितिकी सेवाओं का मूल्यांकन
3. प्राचीनतम गुहा चित्रकारी की ख़ोज का महत्त्व
4. ब्रह्मपुत्र पर चीन द्वारा बाँध निर्माण और भारत की चिंता
5. खनिज संसाधनों का दोहन और अंतर-पीढ़ीगत समता
6. घरेलू कार्य में महिलाओं का योगदान : मूल्यांकन का आभाव
7. मैनुअल स्कैवेंजर्स प्रथा से संबंधित समस्याएँ
8. सुभाषचंद्र बोस: एक क्रांतिकारी देशभक्त
9. बढ़ती असमानता : चिंताजनक स्थिति
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अर्जेंटीना का गर्भपात संबंधी नियम
GS-2 Mains
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एनीमिया
2. गंभीर मामलों में जाँच की अवधि कम करना
3. धर्मांतरण के विरुद्ध अध्यादेश : एक समीक्षा
4. भारत और ब्रिटेन : संबंधों का बदलता स्वरूप
5. सऊदी अरब और क़तर संबंधों में नए आयाम
6. वर्ष 2021 में भारत और विश्व
7. समुद्री अधिकार क्षेत्र जागरूकता में भारत के बढ़ते प्रयास
8. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण : प्रमुख निष्कर्ष
9. उपक्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग : भारत का उभरता दृष्टिकोण
10. संयुक्त राष्ट्र में भारत
11. सार्क को नई संजीवनी प्रदान करना
12. अमेरिका की धारा 230
13. क्यूबा पर अमेरिकी नीति में परिवर्तन
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भारत और वैश्विक परिदृश्य
15. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के हित
16. बाल यौन शोषण के संदर्भ में न्यायिक निर्णय: संबंधित चिंताएँ
GS-3 Mains
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जियो-इंजीनियरिंग
2. कृषि में महिलाओं का योगदान
3. शहरी रोज़गार से संबंधित पहलू
4. 2 डी-इलेक्ट्रॉन गैस (2DEG)
5. समुद्री शैवाल : संरक्षण की आवश्यकता
6. हिमाचल प्रदेश में दावानल की बढ़ती घटनाएँ
7. MICE पर्यटन की संभावनाएँ
8. प्रौद्योगिकियों में दुर्लभ पार्थिव धातुएँ : एक विश्लेषण
9. एन.पी.ए. की समस्या और बैड बैंक
10. विद्युत उपभोक्ताओं के अधिकारों का संरक्षण
11. प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बैंक (D-SIBS)
12. शैडो उद्यमिता का विकास
13. कृषि-ऋण और छोटे किसान
14. विज्ञान के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता
15. पर्यावरण और जीवन का अधिकार
16. देश के समक्ष चुनौतियाँ और बजट से अपेक्षा
17. संकट काल में बजट का स्वरुप
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भारत में आकाशीय बिजली की समस्या
GS-1 Mains
दक्षिण कोरिया में नकारात्मक प्रतिस्थापन दर
संदर्भ
हाल ही में प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार दक्षिण कोरिया में वर्ष 2020 में जितने बच्चों का जन्म हुआ, उससे अधिक लोगों की मृत्यु हो गई अर्थात प्रतिस्थापन दर नकारात्मक हो गई। दक्षिण कोरिया में ऐसा पहली बार हुआ है। हालाँकि, पहले भी दक्षिण कोरिया की जन्मदर विश्व में सबसे कम थी।
प्रमुख बिंदु
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जन्मदर में गिरावट और घटती आबादी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है। इसी वजह से नए आँकड़ों ने दक्षिण कोरिया की चिंता बढ़ा दी है।
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जन्मदर घटने से देश में काम करने वाले युवाओं की संख्या भी घट जाती है।दक्षिण कोरिया में वर्ष 2020 में 2,75,800 बच्चों का जन्म हुआ। वर्ष 2019 के मुकाबले यह 10% कम है। वहीं, वर्ष 2020 में 3,07,764 लोगों की मृत्यु हो गई।
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इन आँकड़ों के सामने आने के बाद कोरिया के गृह मंत्रालय ने सरकारी नीतियों में व्यापक बदलाव की बात कही है।
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दक्षिण कोरिया में जन्मदर में गिरावट के पीछे महिलाओं के दफ्तर और घर की ज़िन्दगी में तालमेल की कमी को भी प्रमुख वजह माना जा सकता है। कई परिवार आर्थिक वजहों से भी बच्चे पैदा करना टाल देते हैं, चूँकि वहाँ यह नियम था कि यदि पति-पत्नी बच्चा पैदा करना चाहते हैं तो उनके पास घर होना ज़रूरी है।
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दक्षिण कोरिया में जन्म दर की गिरावट दूर करने के लिये पिछले महीने परिवारों के लिये नकदी योजना (कैश स्कीम) की घोषणा की गई थी। वर्ष 2022 से लागू होने वाली इस योजना के तहत हर जन्म लेने वाले बच्चे के पालन पोषण के लिये एकमुश्त एक लाख 35 हज़ार रुपए दिये जाएंगे। साथ ही, बच्चे के एक साल के होने तक हर महीने 20,227 रुपए भी दिये जाएंगे।
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ध्यातव्य है कि कोरिया सरकार ने कोरोना महामारी को नियंत्रित करने के लिये समय रहते व्यापक कदम उठाए थे, जिस वजह से दक्षिण कोरिया में कोरोना से सिर्फ 981 लोगों की मौत हुई और वहाँ कुल संक्रमण की संख्या भी मात्र 64,264 ही है।
दक्षिण कोरिया की जनसंख्या विरोधाभास (South Korea’s population paradox)
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जब देश आर्थिक परिवर्तन से गुज़रते हैं, तो उनमें होने वाले संक्रमण के प्रभाव केवल वित्तीय नहीं होते हैं – जनांकिकीय प्रभाव भी होते हैं।
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दक्षिण कोरिया में भी यह बात लागू होती है, जहाँ पिछली तीन पीढ़ियों में देश ने तेज़ औद्योगिकीकरण के कारण विकास के नए आयामों को तेज़ी से छुआ है।वर्तमान में, दक्षिण कोरिया 6 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के साथ चीन, जापान और भारत के बाद एशिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
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तेज़ विकास के समानांतर कोरिया जनसांख्यिकी संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है, अर्थात् यहाँ जनसँख्या सिकुड़ती जा रही है, आमतौर पर यह स्थिति समृद्ध देशों में देखी जाती है। तेज़ी से उम्रदराज़ होती जनसंख्या और कम विवाह व जन्म दर इस संक्रमण के लिये उत्तरदाई माने जा रहे हैं।
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दक्षिण कोरिया की प्रजनन दर दुनिया में सबसे कम है एवं औसतन प्रति महिला पर 1.1 बच्चे हैं जो किसी भी अन्य देश की तुलना में कम है।वैश्विक औसत लगभग 5 बच्चे/महिला है।
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कोरिया में यह दर लगातार घट रही है। 1950 के दशक और आज के बीच, दक्षिण कोरिया में प्रजनन दर 6 से 1.1 बच्चे प्रति महिला पर आ गई है।
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वैश्विक जनसंख्या प्रतिस्थापन दर 2.1 है इस लिहाज़ से भी कोरिया बहुत पीछे है।
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दक्षिण कोरिया की वर्तमान पीढ़ी ‘सैंपो जेनरेशन’ बनने के ओर अग्रसर है। सैंपो जेनरेशन एक उभरती हुई परिघटना है, जिसमें युवा पीढ़ी सामाजिक दबाव और बढ़ती आर्थिक समस्या के कारण ‘प्रेम संबंध, विवाह तथा बच्चा पैदा करने’ से बचते हैं।
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आँकड़ों के अनुसार जहाँ वर्ष 1970 में 25-29 वर्ष की 90% महिलाएँ विवाहित थीं वहीं 2015 में यह आँकड़ा गिरकर 23% पर आ गया है।
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स्वास्थ्य देखभाल में सुधार के कारण दक्षिण कोरिया में 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में जीवन प्रत्याशा तेज़ी से बढ़ी है।
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1950 के दशक की पहली छमाही में, जीवन प्रत्याशा औसतन 42 साल से कम थी (पुरुषों के लिये 37, महिलाओं के लिये 47)।जबकि वर्तमान में दक्षिण कोरिया वैश्विक रूप से उच्चतम जीवन प्रत्याशा वाले देशों में से एक है, यह आइसलैंड के साथ संयुक्त रूप से 12वें स्थान पर है। वर्तमान में दक्षिण कोरिया की जीवन प्रत्याशा 82 वर्ष (पुरुषों के लिये 79, और महिलाओं के लिये 85) है।
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वैश्विक स्तर पर जीवन प्रत्याशा 72 वर्ष है (पुरुषों के लिये लगभग 70, महिलाओं के लिये 74)। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दक्षिण कोरिया में जीवन प्रत्याशा में और सुधार होने की संभावना है और इस सदी के अंत तक, दक्षिण कोरिया में जीवन प्रत्याशा 92 वर्ष (पुरुषों के लिये 89, और महिलाओं के लिये 95) होने का अनुमान है।
प्राकृतिक पूंजी लेखांकन एवं पारिस्थितिकी सेवाओं का मूल्यांकन
संदर्भ
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प्राकृतिक पूंजी लेखांकन एवं पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का मूल्यांकन (NCAVIS) इंडिया फोरम- 2021 का वर्चुअल आयोजन 14, 21 और 28 जनवरी को किया जा रहा है।
प्राकृतिक पूंजी लेखांकन एवं पारिस्थितिकी सेवाओं का मूल्यांकन इंडिया फोरम- 2021
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इसका आयोजन पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय तथा राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र के सहयोग से सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MOSPI) द्वारा किया जाएगा।
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इसके अंतर्गत एम.ओ.एस.पी.आई. ने संबंधित हितधारकों, जैसे- पर्यावरणीय खातों का उपयोग करने वाले निर्माताओं और नीति निर्धारकों, के मध्य परामर्श प्रक्रिया हेतु समन्वय स्थापित करने के लिये एक तंत्र स्थापित किया है।
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यूरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) एवं जैवविविधता अभिसमय (CBD) द्वारा समर्थित प्राकृतिक पूंजी लेखांकन तथा पारिस्थितिकी सेवाएँ मूल्यांकन परियोजना में भारत एक भागीदार राष्ट्र है।
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इस परियोजना में भारत के अतिरिक्त अन्य देश; ब्राज़ील, चीन, दक्षिण अफ्रीका और मैक्सिको हैं।
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इस परियोजना के तहत ‘भारत–ई.वी.एल. उपकरण’ का विकास भी एक प्रमुख उपलब्धि है, जो विभिन्न अध्ययनों के आधार पर देश के विभिन्न राज्यों की पारिस्थितिकीय सेवाओं की एक स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करने में सक्षम है। साथ ही, यह उपकरण उपलब्ध साहित्य और जैव भौगोलिक क्षेत्रों के अनुसार पूरे देश में अनुमानों की व्यावहारिकता के संदर्भ में आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
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इस परियोजना में भागीदारी के कारण एम.ओ.एस.पी.आई. को यू.एन.–एस.ई.ई.ए. फ्रेमवर्क के अनुरूप पर्यावरणीय खातों के संकलन को शुरू करने और वर्ष 2018 से वार्षिक आधार पर अपने प्रकाशन ‘एनवायरनमेंट स्टेट्स इंडिया’ में पर्यावरणीय खातों को जारी करने में विशेष मदद मिली है।
प्राकृतिक पूंजी लेखांकन एवं पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का मूल्याकंन
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प्राकृतिक पूंजी को प्राकृतिक संपत्ति भंडार के रूप में जाना जाता है, जिसमें भू-तत्त्व, मृदा, वायु, जल तथा अन्य सभी जैविक तत्त्व शामिल होते हैं। मनुष्य को प्राकृतिक सेवाएँ एक विस्तृत शृंखला के रूप में प्राप्त होती हैं, जिन्हें पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ कहा जाता है।
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मनुष्य प्राकृतिक पूंजी का अत्यधिक मात्रा में दोहन करता है जिनका पुनर्भुगतान किया जाना आवश्यक है। इसके लिये वस्तुओं का पुनर्नवीनीकरण तथा कचरे का पुनर्चक्रण किया जाना चाहिये।
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प्राकृतिक पूंजी लेखांकन (NCA) एक ऐसी पद्धति है जिसका प्रयोग प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग से संबंधित आय और लागत को समायोजित करने के लिये किया जाता है। यह पद्धति वर्ष 2012 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुमोदित की गई एक रूपरेखा पर आधारित है, जिसे ‘पर्यावरणीय आर्थिक लेखांकन प्रणाली’ (SEEA) कहा जाता है।
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एन.सी.ए. यह आकलन करने में सहायता करता है कि उपलब्ध प्राकृतिक पूंजी का प्रबंधन और उपयोग संधारणीय रूप से किया गया है अथवा नहीं। एन. सी.ए. को पारंपरिक आर्थिक खातों के साथ संबद्ध किया जाता है, जिससे यह पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के मध्य संबंधों को समझने में सहायता करता है।
उद्देश्य
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प्राकृतिक पूंजी लेखांकन का मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये विभिन्न पारिस्थितिकी प्रणालियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के योगदान के संबंध में जानकारी एकत्र करना है। यह हरित जी.डी.पी. के मापन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
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यह बेहतर परिणामो के लिये राष्ट्रीय खातों में प्राकृतिक पूंजी एवं संसाधनों को शामिल करता है और यह अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रबंधन के लिये जल, ऊर्जा आदि के क्षेत्रक आगत खाते से संबंधित विस्तृत आँकड़े प्रदान करता है।
आवश्यक दिशा-निर्देश
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राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के आधार पर, भौतिक एवं मौद्रिक खातों में पारिस्थितिकी तंत्र से संबंधित विभिन्न खातों का चयन तथा एक राष्ट्रीय योजना का विकास करना।
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ऐसे दिशानिर्देशों और कार्यप्रणालियों का विकास जो परियोजना के राष्ट्रीय स्तर पर कार्यान्वयन तथा पर्यावरण आर्थिक लेखांकन प्रणाली – प्रायोगिक पारिस्थितिकी तंत्र लेखांकन (SEEA – EEA) के संदर्भ में वैश्विक अनुसंधान लक्ष्यों में योगदान देती हैं।
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सतत् विकास लक्ष्य 2030, आइची लक्ष्यों (Aichi target) और अन्य अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के संदर्भ में संकेतकों के एक समुच्चय को विकास करना।
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सी.ई.ई.ए. और कॉर्पोरेट सततता रिपोर्टिंग के मध्य संरेखण में योगदान देना।
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प्राकृतिक पूंजी लेखांकन पेशेवर समुदाय के परिवर्द्धन के लिये संवर्द्धित क्षमता निर्माण और ज्ञान को साझा करना।
भारत में प्राकृतिक पूंजी लेखांकन की पृष्ठभूमि
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वर्ष 1999-2000 में प्राकृतिक संसाधनों के लेखांकन पर भारत का पहला पायलट अध्ययन गोवा में कराया गया था। प्रथम अध्ययन की सफलता के बाद इसी तरह की लेखांकन प्रक्रियाएँ 8 राज्यों में दोहराई गईं।
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इन लेखांकन पद्धतियों के क्रियान्वयन के परिणाम डॉ. किरीट पारिख की अध्यक्षता में वर्ष 2010 में गठित तकनीकी सलाहकार समिति द्वारा प्रस्तुत किये गए थे। इस समिति ने एक ‘राष्ट्रीय लेखांकन पद्धति’ विकसित करने की भी सिफारिश की थी।
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वर्ष 2011 में सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने प्रोफेसर पार्थ दासगुप्ता की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया जिसे भारत में ‘हरित राष्ट्रीय लेखांकन’ के लिये एक रूपरेखा तैयार करने का कार्य दिया गया।
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भारत में संशोधित कार्यात्मक लेखांकन प्रणाली को वर्ष 2015 तक अमल में लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था, लेकिन यह प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हो पाई है।
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प्राकृतिक संसाधन लेखांकन (NRA) डेटाबेस तैयार करने के लिये राज्यों से आवश्यक जानकारियां प्राप्त करने संबंधी कार्य लगातार किये जा रहे हैं। इसके लिये गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और मेघालय सहित कई राज्यों में पायलट अध्ययन कराए गए हैं।
निष्कर्ष
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प्राकृतिक पूंजी लेखांकन आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के मध्य संतुलन स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। साथ ही, यह भारत को एक प्रबंधन रणनीति तैयार करने में भी सहायता करेगा, जो अन्य पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं जैसे बाढ़, भूजल पुनर्भरण आदि मुद्दों के मध्य संतुलन स्थापित करते हुए आर्थिक विकास में योगदान देती हैं। अतः प्राकृतिक पूंजी लेखांकन के उपयोग से ‘व्यापक आर्थिक विकास व्यवस्था’ की बजाय ‘प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग एवं संरक्षण करने वाली आर्थिक विकास प्रणाली’ को अपनाया जाना चाहिये, जो हरित लेखांकन और समावेशी विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक होगा।
प्राचीनतम गुहा चित्रकारी की ख़ोज का महत्त्व
संदर्भ
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हाल ही में, पुरातत्वविदों ने 45,000 वर्षों से अधिक पुरानी चित्रकारी का पता लगाया है, जो विश्व की सबसे पुरानी ज्ञात गुहा चित्रकारी हो सकती है। इस चित्रकारी को इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप पर खोजा गया है, जिसमें सुलावेसी द्वीप की एक स्थानिक जंगली सूअर की प्रजाति को दर्शाया गया है।
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सुलावेसी एक मध्य इंडोनेशियाई द्वीप है, जो एशिया और ऑस्ट्रेलिया के बीच स्थित है और इस पर मानव बस्तियों का एक लंबा इतिहास है। इससे संबंधित शोध साइंस एडवांसेस में प्रकाशित हुआ है।
क्या है इस गुहा चित्र का महत्त्व?
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पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार, सुलावेसी सूअर की यह चित्रकारी किसी जानवर की विश्व की सबसे पुरानी अवशिष्ट छवि प्रतीत होती है। इसको लीनग टेडॉन्गे (Leang Tedongnge) के चूना पत्थर की गुफा में खोजा गया है।
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इस चित्रकारी को लाल गेरूए रंग से बनाया गया है, जिसमें एक सूअर को सीधे बालों वाली एक छोटी सी शिखा और आँखों के सामने सींग जैसी दिखने वाली आकृति के साथ दिखाया गया है, जो संभवत: किसी सामाजिक संघर्ष या अन्य सूअरों के बीच लड़ाई की संभावना को व्यक्त करता है।
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इन सूअरों का शिकार मनुष्यों द्वारा हज़ारों वर्षों से किया जा रहा है और यह इस द्वीप के हिम युगीन शैल कलाओं में सबसे अधिक चित्रित किया गया जानवर हैं, जो दर्शाता है कि लंबे समय से इनका उपयोग भोजन के रूप में होता रहा है। साथ ही, ये उस समय के लोगों के लिये ‘रचनात्मक सोच और कलात्मक अभिव्यक्ति’ के केंद्र में रहे होंगे।
अन्य प्राचीनतम गुहा चित्रकारी
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विदित है कि सुलावेसी द्वीप पर विश्व की सबसे पुरानी प्रत्यक्ष रूप से दिनांकित शैल कला होने के साथ-साथ हिम युगीन एशियाई महाद्वीप के दक्षिण-पूर्वी सीमाओं से परे होमिनिन (Hominin) की मौजूदगी के कुछ सबसे पुराने साक्ष्य भी उपस्थित हैं।
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होमिनिंस में आधुनिक मानव, विलुप्त मानव प्रजातियाँ और हमारे आसन्न पूर्वज शामिल हैं। होमो सेपियन्स पहले आधुनिक मानव हैं जो दो से तीन लाख वर्ष पूर्व अपने होमिनिड पूर्ववर्तियों से विकसित हुए थे। अनुमानत: इन आधुनिक मनुष्यों ने लगभग एक लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका के बाहर पलायन करना शुरू किया था।
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विदित है कि सुलावेसी में ही वर्ष 2019 में एक सूअर और भैंस के शिकार की गुहा चित्रकारी विश्व की सबसे पुरानी दर्ज की गई चित्रकारी बनी थी। इससे पूर्व यूरोप में पाए जाने वाले शैल चित्र को सबसे पुराना माना जाता था।
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इससे संबंधित निष्कर्षों को जर्नल नेचर में प्रकाशित किया गया था, जिसे वर्ष 2020 के शीर्ष 10 वैज्ञानिक सफलताओं के रूप में स्थान दिया गया था।
तिथि-निर्धारण में प्रयुक्त तकनीक
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इस चित्रकारी के तिथि-निर्धारण के लिये पुरातत्वविदों ने यू-सीरीज आइसोटोप (U-series Isotope) विश्लेषण नामक एक विधि का प्रयोग किया।
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इस विधि में तिथि-निर्धारण के लिये कैल्शियम कार्बोनेट निक्षेप (केव पॉपकॉर्न भी कहते हैं) का उपयोग किया जाता है, जो गुफा की दीवार की सतह पर प्राकृतिक रूप से निर्मित हो जाती है।
ब्रह्मपुत्र पर चीन द्वारा बाँध निर्माण और भारत की चिंता
संदर्भ
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ब्रह्मपुत्र/यारलुंग सांगपो नदी को लेकर चीन और भारत के बीच हमेशा से ही जल विवाद रहा है और चीन की नकारात्मक छवि हमेशा उभर के सामने आई है।
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चीन के ग्रैविटी बाँध प्रोजेक्ट को लेकर विगत कुछ दिनों से वापस से चर्चाएँ शुरू हो गई हैं।
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यह ग्रैविटी बाँध प्रोजेक्ट वास्तव में चीन के तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र (TAR) के ग्याका में बन रहे ज़ैंगमू बाँध से ही जुड़ा है तथा तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र के ही मीडॉग गाँव में बनने वाला है, जो अरुणाचल प्रदेश के बेहद नज़दीक है।
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भारतीय सीमा में बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी में आ रहे विभिन्न बदलावों की वजह, तिब्बत में बन रहे इस बाँध को बताया जाता रहा है। उदाहरण के तौर पर ब्रह्मपुत्र के पानी में बढ़ती गंदगी और अरुणाचल प्रदेश में इसका पानी काला पड़ने (अरुणाचल में यारलुंग सांगपो को सियांग कहा जाता है) जैसी घटनाएँ प्रमुख हैं।
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ध्यातव्य है कि डोकलाम विवाद के दौरान, भारत और चीन ने तेज़ बहाव के समय में ब्रह्मपुत्र नदी के पानी से जुड़े आँकड़े साझा करने के लिये सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये थे। यद्यपि चीन ने इस तरह के आँकड़े साझा नहीं किये थे।
प्रमुख बिंदु
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विगत वर्ष नवंबर से ही भारतीय और वैश्विक मीडिया में ये ख़बरें काफ़ी चर्चित रही थीं कि चीन, तिब्बत में वास्तविक नियंत्रण रेखा के बेहद क़रीब यारलुंग सांगपो पर एक विशाल बाँध बनाने की योजना पर कार्य कर रहा है।
खबरों में यह भी कहा गया कि चीन के इस क़दम से, ‘भारत की जल सुरक्षा पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।’
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अरुणाचल प्रदेश के बेहद नज़दीक प्रस्तावित बाँध के द्वारा यदि नदी के बहाव में बाधा डाली जाती है, तो इसके भारत के लिये गंभीर परिणाम होंगे, ब्रह्मपुत्र नदी में पानी के मौजूदा बहाव और बारिश के दौरान इसमें आने वाले संभावित बदलाव की दृष्टि से इन परिणामों को समझने की ज़रूरत है।
स्थिति की गंभीरता
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सबसे पहले तो ये समझना होगा कि ब्रह्मपुत्र नदी में पानी का प्रवाह और इसके क्षेत्र में होने वाली बारिश एक दूसरे से सम्बंधित हैं। भले ही ब्रह्मपुत्र नदी के बहाव में बारिश के साथ साथ बर्फ़ पिघलने और ग्लेशियर के पानी का भी बड़ा योगदान क्यों न हो।
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यद्यपि ब्रह्मपुत्र नदी में पानी के बहाव के स्तर पर बर्फ़ और ग्लेशियर पिघलने का योगदान बेहद कम होता है। हालाँकि, ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपरी इलाक़े, जहाँ बारिश कम होती है, वहाँ इसके बहाव का मुख्य स्रोत बर्फ़ और पिघले ग्लेशियर ही हैं।
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ब्रह्मपुत्र नदी की कुल लंबाई 2880 किलोमीटर है। इसमें से 1625 किलोमीटर का क्षेत्र तिब्बत के पठार से होकर गुज़रता है, जहाँ नदी को यारलुंग सांगपो के नाम से जाना जाता है।
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भारत में ब्रह्मपुत्र नदी की लंबाई 918 किलोमीटर है। यहां इसे सियांग, दिहांग और ब्रह्मपुत्र के नाम से जाना जाता है।
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नदी का बाक़ी का 337 किलोमीटर का हिस्सा बांग्लादेश से होकर गुज़रता है, जहाँ इसे जमुना कहकर बुलाया जाता है। बांग्लादेश के गोलांदो में ब्रह्मपुत्र नदी गंगा में मिल जाती है।
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यदि तीनों देशों में समग्र रूप से देखा जाय तो ब्रह्मपुत्र नदी, तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र (TAR) में सबसे ज़्यादा बहती है। लेकिन, ये महज़ एक मिथक है। ब्रह्मपुत्र नदी जैसे जैसे आगे बढ़ती है, वैसे वैसे ये ताक़तवर और चौड़ी नदी में बदल जाती है।
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यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि नदी को ब्रह्मपुत्र नाम, भारत के असम राज्य के सादिया से मिलता है, जहाँ तीन सहायक नदियां लोहित, दिबांग और दिहांग मिलकर एक नदी बनती हैं।
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तिब्बत वाले अधिकतर क्षेत्र में नदी को बारिश के पानी का योगदान अपने दक्षिणी हिस्से की तुलना में बहुत कम मिलता है। इसीलिये, हिमालय के पार अर्थात उत्तरी इलाक़े में बारिश का वार्षिक औसत जहाँ लगभग 300 मिलीमीटर है, वहीं दक्षिणी हिस्से में बारिश का वार्षिक औसत लगभग 3000 मिलीमीटर है।
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पर्वत के तराई वाले इलाक़ो में अक्सर इतनी बारिश होती है कि इससे भयंकर बाढ़ आ जाती है। असम की ब्रह्मपुत्र घाटी के उत्तरी पूर्वी इलाक़े में बारिश का वार्षिक औसत काफ़ी अधिक है और जैसे जैसे ये पश्चिम की ओर बढ़ती है, तो बारिश का औसत कम होता जाता है। सबसे अधिक प्रवाह वाले समय में, ब्रह्मपुत्र नदी का मॉनसून की बारिश से ताक़त मिलती है।
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तिब्बत के पठार में नदी का प्रवाह मापने के नुक्शिया और सेला ज़ोंग स्टेशनों में सबसे अधिक जल प्रवाह लगभग पांच हज़ार और दस हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड (cumecs) है। वहीं असम के गुवाहाटी में पानी के प्रवाह का उच्चतम स्तर 55 हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड है।
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नुक्शिया में कम प्रवाह के दिनों का औसत 300 से 500 क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड होता है, तो भारत के पासीघाट में ये दो हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड होता है।
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वहीं, गुवाहाटी में कम पानी के प्रवाह वाले दिनों में ब्रह्मपुत्र में पानी का बहाव चार हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड से अधिक तो बहादुराबाद में ये पांच हज़ार क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड के आस-पास होता है। अर्थात यह कहा जा सकता है कि नुक्शिया में ब्रह्मपुत्र नदी में पानी के वार्षिक बहाव की तुलना, पांडु/गुवाहाटी या बांग्लादेश के वार्षिक प्रवाह से नहीं की जा सकती है।
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इसके आलावा नदी के पानी में तलछट की मात्रा में भी इसी तरह का अंतर देखा जाता है। तिब्बत के पठारी इलाक़ों में यारलुंग सांगपो नदी के पानी में तलछट की बहुत अधिक मात्रा नहीं होती है। इसकी तुलना में भारतीय सीमा में बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी के पानी में इतना पानी होता है कि वो तलछट को भी अपने साथ बहा सकती है।
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भारत की सीमा में ब्रह्मपुत्र नदी में पानी और तलछट की अधिक मात्रा होने में इसकी बहुत सी बड़ी सहायक नदियों दिबांग, दिहांग (सियांग), लोहित, सुबांसिरी, मनास, संकोश और तीस्ता वग़ैरह का भी योगदान होता है। जहाँ नुक्शिया में तलछट का वार्षिक औसत लगभग 3 करोड़ टन होता है वहीं बांग्लादेश के बहादुराबाद में औसत वार्षिक तलछट की मात्रा 73.5 करोड़ टन मापी गई है।
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ध्यातव्य है कि भारत के जल संसाधन मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, ब्रह्मपुत्र में कुल इस्तेमाल के लायक़ पानी की संभावित मात्रा (PUWR) केवल 25 % होती है। इसीलिये बारिश के पानी के बहाव और तलछट की मात्रा को देखते हुए अगर हिमालय के उस पार यारलुंग सांगपो नदी पर कोई बाँध बनाया भी जाता है, तो उससे भारत और बांग्लादेश पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, भले ही चीन का इरादा कुछ भी हो। जैंगमू प्रोजेक्ट जिस जगह स्थित है, उसके लिहाज़ से तो ये बात और तार्किक मालूम होती है।
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लेकिन, हम यही बात तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र के मीडॉग गाँव में बनने वाले प्रोजेक्ट को लेकर नहीं कह सकते। इसकी वजह ये है कि तिब्बत का मीडॉग गाँव, हिमालय के दक्षिणी हिस्से में पड़ता है, जहाँ पर यारलुंग नदी की मुख्य धारा में पारलुंग सांगपो नदी का पानी मिलने से ये और ताक़तवर हो जाती है।
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मीडॉग में वार्षिक औसत बारिश के आँकड़ों के अनुसार वहाँ बरसात का वार्षिक औसत लगभग तीन हज़ार मिलीमीटर है। जो नुक्शिया के वार्षिक औसत 500 मिलीमीटर से काफ़ी अधिक है। इसके अलावा यारलुंग नदी जिस क्षेत्र से चीन की सीमा से बाहर निकलती है, वहाँ उसमें कितना पानी होता है, इसे लेकर भी विवाद है।
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चीन के अनुसार उस समय यारलुंग नदी में 135.9 अरब घन मीटर (BCM) पानी होता है। वहीं, भारत के अनुसार भारतीय सीमा में प्रवेश करते वक़्त यारलुंग सांगपो में 78.1 अरब घन मीटर (BCM) पानी होता है।
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दोनों ही देशों के आंकड़ों में अंतर बहुत अधिक है। हालाँकि भारत के कुछ पुराने अनुमानों के मुताबिक़, अरुणाचल प्रदेश के टुटिंग में यारलुंग सांगपो नदी में पानी 179 अरब घन मीटर होता है। अतः यदि प्रतिशत के हिसाब से देखें, तो चीन की सीमा से भारत में प्रवेश करते वक़्त, नदी में जो पानी होता है, उसकी मात्रा इतनी भी कम नहीं होती कि उसकी अनदेखी कर दी जाए। भले ही पानी की यह मात्रा असम में ब्रह्मपुत्र के बाढ़ वाले मैदानी इलाक़ों या बांग्लादेश में जमुना नदी के प्रवाह वाले इलाक़ों के लिहाज़ से महत्त्वपूर्ण न हो।
गंभीर परिणाम
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चीन के बाँध को लेकर दो तरह की चिंताएँ हैं। आदर्श स्थिति में चीन को ऐसा बाँध बनाना चाहिये, जिससे निचले इलाक़ों की ओर नदी के प्रवाह पर कोई फ़र्क़ न पड़े। मगर, इससे तिब्बत में नदी की पारिस्थितिकी या इकोसिस्टम पर विपरीत असर पड़ सकता है, और इसका कुछ प्रभाव हम अरुणाचल प्रदेश में भी देख सकते हैं।
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हालाँकि, इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता कि जब नदी में पानी कम होता है, तो उस दौरान रन ऑफ़ द रिवर प्रोजेक्ट से भारत में आने वाले पानी पर कोई बुरा असर नहीं पड़ेगा। अतः, अगर चीन अपने बाँध के ज़रिए यारलुंग सांगपो नदी का कुछ पानी जलाशय में जमा करता है, तो इसका कुछ असर अरुणाचल प्रदेश में नदी में पानी की उपलब्धता पर पड़ सकता है।
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चीन के यारलुंग सांगपो पर बाँध बनाने से जो दूसरा प्रभाव पड़ने आशंका है, वो अधिक चिंता वाली बात है। ऐसा इसलिये है, क्योंकि अध्ययनों के अनुसार तिब्बत से जहाँ यारलुंग नदी तीखा मोड़ लेते हुए, भारत में दाख़िल होती है, उस ग्रेट बेंड वाले इलाक़े में यिगॉन्ग सांगपो, पारलुंग सांगपो और लोअर यारलुंग में भारी बारिश होती है।
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यहाँ पर भूस्खलन और हिमस्खलन से अचानक बाढ़ आने की घटनाएं होने का डर रहता है। इस क्षेत्र में हर वर्ष कम से कम ऐसी दस या इससे भी अधिक प्राकृतिक आपदाएँ आने की आशंका रहती है।
इसके अलावा मीडॉग में भी हर वर्ष ऐसी औसतन 12 से 15 आपदाएँ आती हैं।
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यदि भूकंप आता है, तो इससे बाँध टूटने या दूसरी ऐसी दुर्घटनाएं होने की आशंका है, जिसका असर विशेष तौर से अरुणाचल प्रदेश में देखने को मिल सकता है, और वहाँ पर अचानक बाढ़ आ सकती है।
खनिज संसाधनों का दोहन और अंतर-पीढ़ीगत समता
संदर्भ
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वर्तमान में खनिज संसाधनों का दोहन केवल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ही नहीं किया जा रहा है, बल्कि अब इनका दोहन लाभ कमाने तथा राजस्व की प्राप्ति के लिये भी किया जा रहा है। जिस दर से खनिज संसाधनों का दोहन किया जा रहा है वह भावी पीढ़ियों की आवश्कताओं से एक प्रकार का समझौता है। अतः खनिजों के दोहन के संदर्भ में पुनर्विचार किये जाने की आवश्कता है।
अंतर-पीढ़ीगत समता का सिद्धांत
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इस सिद्धांत के अनुसार वर्तमान पीढ़ी का यह उत्तरदायित्व है कि वह संसाधनों के उचित उपयोग तथा पारिस्थितकी संतुलन को बनाए रखते हुए वह भावी पीढ़ी को एक स्वस्थ्य, संसधानपूर्ण एवं सुरक्षित पर्यावरण का हस्तांतरण करे।
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वर्तमान पीढ़ी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये भावी पीढ़ियों की क्षमताओं से समझौता नहीं कर सकती और यह सतत् अर्थव्यवस्था के लक्ष्य से परिलक्षित होता है।
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अंतर-पीढ़ीगत समानता का सिद्धांत वर्तमान पीढ़ी को यह सुनिश्चित करने के लिये जरूरी है कि वह भावी पीढ़ियों को कम से कम उतने संसाधन तो अवश्य प्रदान करें जितने उसे प्राप्त हुए हैं।
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यदि वर्तमान पीढ़ी अंतर-पीढ़ीगत समानता का पालन करने में सफल होती है, तो भावी पीढ़ी वर्तमान पीढ़ी के अनुसार आवश्यक संसाधनों को प्राप्त कर सकेगी।
खनिज नीति से संबंधित मुद्दे
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भारत की राष्ट्रीय खनिज नीति, 2019 में कहा गया है: “प्राकृतिक संसाधन, जिसमें खनिज भी शामिल हैं, एक साझा विरासत है, जहाँ राष्ट्र नागरिकों की ओर से ट्रस्टी की भूमिका निभाता है ताकि आने वाली पीढ़ियों को भी इस विरासत का लाभ मिल सके।”
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ऐसे में तेल, गैस और खनिजों का अधिक निष्कर्षण प्रभावी रूप से इस विरासत को बेचने जैसा है।
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दुर्भाग्य से, सरकार खनिज बिक्री की प्राप्तियों को राजस्व या आय के रूप में मानती है जो कि मूल रूप से विरासत में मिली संपत्ति की ही बिक्री है।
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साथ ही, इसका परिणाम यह हुआ है कि सरकारें खनिजों को उनकी वास्तविक कीमतों से कम पर उन कीमतों पर बेचती हैं जो लॉबिंग, राजनीतिक चंदे तथा भ्रष्टाचार से प्रेरित होती हैं।
गलत मूल्यांकन
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सरकार द्वारा खनिज बिक्री से प्राप्त आगमों को ‘राजस्व’ माना जाता है और इसके अनुसार ही इसे व्यय भी किया जाता है।
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विश्व भर में खनिज संसाधनों के खनन से हो रही क्षति के अनुभवजन्य साक्ष्य बढ़ रहे हैं।
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अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी इस बात के प्रमाण मिले हैं कि संसाधन संपन्न देशों की सरकारें सार्वजनिक क्षेत्र के निवल मूल्य में गिरावट का सामना करती हैं, अर्थात, ये सरकारें निर्धन होती जा रही हैं।
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उच्च मुनाफे के कारण, निष्कर्षक (Extractors) अधिक से अधिक खनिज संसाधनों का निष्कर्षण करके आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं।
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खनिज संसाधनों का अधिक खनन पहले से खराब स्थिति को और भी बदतर बना सकता है।
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सरकारी लेखा मानक सलाहकार बोर्ड द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के लेखांकन और खनिज संपदा हेतु रिपोर्टिंग के लिये मानकों की इस त्रुटि को सही किये जाने की आवश्यकता है।
आगे की राह
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यदि खनिज संसाधनों का निष्कर्षण किया जाता है और उन्हें बेचा जाता है, तो मूल्य में शून्य हानि प्राप्त करना स्पष्ट उद्देश्य होना चाहिये और ट्रस्टी के रूप में सरकार द्वारा पूर्ण आर्थिक मूल्य को प्राप्त किया जाना चाहिये।
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संसाधनों की किसी भी प्रकार की हानि वर्तमान पीढ़ी और भावी पीढ़ियों के लिये नुकसानदेह है। यह विचार कि संसाधनों की कुछ हानियाँ लाभप्रद होती हैं, अनुचित है।
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भारत की राष्ट्रीय खनिज नीति 2019 में कहा गया है कि राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगी कि निष्कर्षित खनिज संसाधनों का पूरा मूल्य राज्य को प्राप्त हो।
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इस सदर्भ में, नॉर्वे की तरह, एक ‘फ्यूचर जनरेशन फंड’ के माध्यम से संपूर्ण खनिज बिक्री से प्राप्त होने वाली आय बचाई जानी चाहिये ।
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‘फ्यूचर जनरेशन फंड’ का राष्ट्रीय पेंशन योजना फ्रेमवर्क के माध्यम से निष्क्रिय निवेश किया जा सकता है।
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इस प्रकार के फंड की वास्तविक आय केवल नागरिकों के लाभांश के रूप में सभी में समान रूप से वितरित की जा सकती है।
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भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये यह अधिक उपयुक्त है क्योंकि इससे पूंजी-निर्माण होगा, बचत दर में वृद्धि होगी जिससे घरेलू पूंजी अधिक उपलब्ध हो सकेगी और यह संभावित वापसी में सुधार करते हुए जोखिम में भी विविधता लाता है।
निष्कर्ष
सभी खनिज संसाधन वर्तमान पीढ़ी और भावी पीढ़ियों के लिये समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। चूँकि इन संसाधनों को एक बार उपभोग करने के पश्चात पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता अतः इन संसाधनों का संयमपूर्ण निष्कर्षण होना चाहिये, जिससे भावी पीढ़ी भी इन संसाधनों का उपयोग कर सके।
घरेलू कार्य में महिलाओं का योगदान : मूल्यांकन का आभाव
संदर्भ
हाल ही में, अभिनेता कमल हसन की पार्टी ने गृहिणियों को वेतन देने का वादा किया, जिसने घरेलू कार्य को आर्थिक मान्यता देने की बहस को पुनर्जीवित कर दिया है। देवी के रूप में महिमामंडित किये जाने के बाबजूद महिलाओं को समान अधिकारों से वंचित रखा गया है।
घरेलू कार्य और आँकड़े
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वर्ष 2011 की जनगणना में लगभग 85 मिलियन महिलाओं ने घरेलू कार्य को अपने मुख्य व्यवसाय के रूप में चुना है, जबकि केवल 5.79 मिलियन पुरुषों ने ही इसे अपने मुख्य व्यवसाय के रूप में संदर्भित किया है।
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हाल ही में, न्यायमूर्ति एन.वी. रमन्ना ने ‘कीर्ति और अन्य बनाम ओरिएण्टल इनश्योरेंस कंपनी’ निर्णय में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ‘भारत में समय का उपयोग-2019 रिपोर्ट’ (Time Use in India-2019 Report) का उल्लेख किया, जिसके अनुसार भारतीय महिलाएँ अवैतनिक ‘घरेलू सेवाओं और कार्यों’ पर एक दिन में औसतन 299 मिनट खर्च करती हैं, जबकि पुरुष सिर्फ 97 मिनट खर्च करते हैं।
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साथ ही, महिलाएँ घर के सदस्यों के लिये अवैतनिक ‘देखभाल सेवाओं’ के रूप में एक दिन में 134 मिनट खर्च करती हैं।
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वर्ष 2009 में आर्थिक प्रदर्शन और सामाजिक प्रगति के मापन पर फ्रांसीसी सरकार के एक आयोग द्वारा जर्मनी, इटली, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, फिनलैंड और अमेरिका में किये गए अध्ययन में इसी तरह के निष्कर्ष सामने आये हैं।
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‘अवैतनिक कार्य के माध्यम से महिलाओं का आर्थिक योगदान : भारत की केस स्टडी’ (2009) नामक एक रिपोर्ट में महिलाओं द्वारा सेवाओं के आर्थिक मूल्य का अनुमान 8 बिलियन डॉलर वार्षिक व्यक्त किया गया था।
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विदित है कि ब्रिटिश अर्थशास्त्री आर्थर सेसिल पिगौ ने कहा था कि राष्ट्रीय आय की गणना करते समय पत्नियों द्वारा किये गए घरेलू कार्य पर विचार नहीं किया जाता है।
महिलाओं द्वारा घरेलू कार्य से संबंधित न्यायिक टिप्पणियाँ
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‘अरुण कुमार अग्रवाल बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी’ (2010) में उच्चतम न्यायालय ने न केवल गृहिणियों के अमूल्य योगदान को स्वीकार किया बल्कि यह भी विचार व्यक्त किया कि संपत्ति के द्वारा इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है क्योंकि प्रेम और स्नेह (भावनात्मक रूप से) के साथ प्रदान की गई उनकी सेवाओं की बराबरी पेशेवर तरीके से प्रदान की गई सेवाओं के साथ नहीं की जा सकती है।
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न्यायमूर्ति ए.के. गांगुली ने वर्ष 2010 में एक निर्णय में 2001 की जनगणना का उल्लेख किया था, जिसमें घरेलू कर्तव्यों का निर्वहन करने वालों को श्रेणीबद्ध किया गया था। इसके अनुसार, भारत में लगभग 36 करोड़ महिलाओं को गैर-श्रमिक के रूप में श्रेणीबद्ध करते हुए उन्हें भिखारियों, वेश्याओं और कैदियों के साथ रखा गया था।
समाजिक संरचना और घरेलू कार्य
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सदियों से विवाह की निरंतरता के दौरान होने वाली कमाई में महिलाओं का अधिकार नगण्य था। आधुनिक युग में गृहणियों के द्वारा घरेलू कार्यों को कार्य के रूप में मान्यता देने की बात तो दूर, घर के बाहर कार्य के संबंध में भी उनको कोई अधिकार नहीं था। वास्तव में वर्ष 1851 तक किसी भी देश ने किसी भी प्रकार की कमाई में पत्नी के अधिकार को मान्यता नहीं दी थी।
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19वीं शताब्दी के मध्य तक कुछ अमेरिकी राज्यों ने अधिनियमों के माध्यम से वैवाहिक स्थिति के सामान्य कानून में सुधार करना शुरू किया। धीरे-धीरे पत्नियों को उनके ‘व्यक्तिगत’ श्रम से कमाई में संपत्ति के अधिकार प्रदान किये गए। हालाँकि, अमेरिकी गृहयुद्ध के बाद की जनगणना में घरेलू कार्यों को ‘अनुत्पादक’ कहा गया।
पृथक सामाजिक वर्ग
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सदियों से घर और बाज़ार को दो अलग-अलग क्षेत्रों के रूप में माना जाता था। बाज़ार को पुरुषों का क्षेत्र माना जाता था जबकि घर को महिलाओं का क्षेत्र माना जाता था, जो बाज़ार की समस्या और संघर्ष से राहत प्रदान करता था।
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इस संबंध में अमेरिकी नारीवादी अर्थशास्त्री नैन्सी फोल्ब्रे की टिप्पणी उल्लेखनीय है कि घर के रूप में महिलाओं को राहत देने जैसे नैतिक तर्क का उत्थान उनके द्वारा किये गए कार्यों के आर्थिक अवमूल्यन के साथ हुआ। इस प्रकार यह तर्क परिवार की संपत्ति पर पति के नियंत्रण को सही ठहराना और उनके कानूनी अधिकार को सुदृढ़ करना था।
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वॉर्सेस्टर अभिसमय के बाद अंततः सफलता प्राप्त हुई जब वैवाहिक संपत्ति में पत्नियों के समान अधिकारों को मान्यता दी गई थी। वर्ष 1972 में इंग्लैंड में संपन्न तीसरी राष्ट्रीय महिला मुक्ति सम्मेलन में पहली बार घरेलू कार्य के लिये मज़दूरी के भुगतान की स्पष्ट रूप से माँग की गई।
भारत की स्थिति
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भारत में विवाहित महिलाओं के संयुक्त संपत्ति अधिकारों पर बहस नई नहीं है, हालाँकि, भारत में अभी भी संयुक्त वैवाहिक संपत्ति कानून नहीं है।
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वीना वर्मा ने वर्ष 1994 में विवाहित महिला (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक,1994 के नाम से निजी सदस्य के रूप में एक बिल पेश किया था। इसमें यह प्रावधान किया गया था कि विवाहित महिला अपने विवाह की तिथि से अपने पति की संपत्ति में बराबर की हकदार होगी।
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परंतु वर्ष 2010 में ‘नेशनल हाउसवाइव्स एसोसिएशन’ को एक ट्रेड यूनियन के रूप में पंजीकरण से भी इनकार कर दिया गया क्योंकि घरेलू कार्य को न तो व्यापार और न ही उद्योग के रूप में मान्यता प्राप्त थी।
सुझाव
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वर्ष 2012 में सरकार ने पति द्वारा अनिवार्य रूप से अपनी पत्नियों को मासिक ‘वेतन’ देने का प्रस्ताव दिया था। हालाँकि, मासिक भुगतान के रूप में ‘वेतन’ शब्द का प्रयोग वास्तव में समस्याग्रस्त है क्योंकि यह नियोक्ता-कर्मचारी संबंध को इंगित करता है।
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नियोक्ता अपने अधीनस्थ कर्मचारी पर अनुशासनात्मक नियंत्रण रखता है, जिससे पति और पत्नी के बीच स्वामी और सेवक का संबंध पनपने लगता है।
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वर्ष 1991 में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र की समिति ने महिलाओं की अवैतनिक घरेलू गतिविधियों और जी.डी.पी. में उसकी गणना की माप और मात्रा का निर्धारण करने की सिफारिश की थी ताकि महिलाओं के वास्तविक आर्थिक योगदान पर प्रकाश डाला जा सके।
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वैवाहिक संपत्ति कानून महिलाओं को संपति का अधिकार देते हैं लेकिन केवल तभी जब वैवाहिक बंधन समाप्त हो जाते हैं। अब समय आ गया है कि विवाह की निरंतरता के दौरान महिलाएँ परिवार के लिये जो कार्य करती हैं, उन्हें पुरुषों के कार्य की तरह समान रूप से महत्त्व दिया जाना चाहिये।
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विवाह पूर्व समझौते में पति की कमाई और संपत्ति में पत्नियों के अधिकार संबंधी धारा को शामिल करके इस समस्या को हल किया जा सकता है।
मैनुअल स्कैवेंजर्स प्रथा से संबंधित समस्याएँ
संदर्भ
भारत में हाथ से मैला ढोने तथा शौचालयों की सफाई की प्रथा को खत्म करने के प्रयासों ने पिछले तीन दशकों में विशेष रूप से गति पकड़ी है। वर्ष 1994 में ‘सफाई कर्मचारी आंदोलन’ (SKA) के गठन के बाद से इसमें विशेष तेज़ी आई है।
भारत में मैनुअल स्कैवेंजर्स की संख्या
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आधिकारिक तौर पर मैनुअल स्कैवेंजर्स की संख्या वर्ष 2008 में 770,338 से घटकर वर्ष 2018 में 42,303 हो गई। हालाँकि, इस दौरान होने वाली गिरावट को मूल्यांकन में कमी को परिणाम माना जा सकता है।
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यद्यपि भारत सरकार संख्या में कमी का कारण ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013’ के सख्त प्रवर्तन तथा स्वच्छ भारत अभियान का प्रभाव मानती है।
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हालाँकि, इस समस्या के सूक्ष्म निरीक्षण से उक्त अधिनियम और स्वच्छ भारत अभियान के कार्यान्वयन के साथ-साथ आधिकारिक आँकड़ों के लिये अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं में कई कमियों का पता चलता है।
सर्वेक्षण और इसकी कमियाँ
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वर्ष 2018 में मैनुअल स्कैवेंजर्स का सर्वेक्षण ‘राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त और विकास निगम’ (NSKFDC) द्वारा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के आदेश पर किया गया था। यह सर्वेक्षण केवल 14 भारतीय राज्यों के वैधानिक शहरों में आयोजित किया गया था।
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सर्वेक्षण में पहचाने गए कुल मैनुअल स्कैवेंजर्स में लगभग आधे को (42,303) ही मंत्रालय द्वारा मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में मान्यता दी गई। इसमें से केवल 27,268 को ही संबंधित योजनाओं का लाभ प्राप्त हो सका।
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वर्ष 2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना में 1,82,505 ऐसे घरों की पहचान की गई जिनका प्राथमिक व्यवसाय मैनुअल स्केवेंजिंग है। इस तथ्य को देखते हुए इस सर्वेक्षण में स्पष्ट रूप से कमियाँ नज़र आती हैं।
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वर्ष 2011 की जनगणना अनुमानों के अनुसार, देश में शुष्क शौचालयों की संख्या लगभग 26 लाख थी। इस तथ्य को देखते हुए सफाई कर्मचारी आंदोलन द्वारा मैनुअल स्कैवेंजर्स की संख्या लगभग 12 लाख अनुमानित करना अधिक उचित प्रतीत होता है। अत: सरकार के दावों के बावजूद इस प्रथा में 2011 से 2018 के बीच 89% की कमी का अनुमान आतार्किक लगता है।
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यह सर्वेक्षण भारत के वैधानिक शहरों तक ही सीमित था, जो मैनुअल स्केवेंजिंग को केवल शहरी समस्या के रूप में ही प्रतिबिंबित करता है। यह सरकार की दुर्बल इच्छा शक्ति को दर्शाता है।
अधिनियम और उसका कार्यान्वयन
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‘मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013’ का उद्देश्य अस्वच्छ शौचालयों (जो गड्ढों / सेप्टिक टैंकों / सीवेज लाइनों से नहीं जुड़े हैं) को ख़त्म करने के साथ-साथ मैनुअल स्कैवेंजर्स को अन्य व्यवसायों में पुनर्वास पर नज़र रखना और आवधिक सर्वेक्षण आयोजित करना है।
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इस अधिनियम में किसी भी व्यक्ति, स्थानीय प्राधिकारी या एजेंसी पर सीवर या सेप्टिक टैंकों की जोखिमयुक्त सफाई में किसी भी व्यक्ति के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संलग्न होने की अवस्था में कठोर दंड का प्रावधान किया गया है।
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यदि सुरक्षा उपायों और अन्य सावधानियों का अनुपालन करते हुए भी इस कार्य को करते समय किसी कर्मचारी की मृत्यु हो जाती है, तो नियोक्ता द्वारा परिवार को 10 लाख रुपए का मुआवजा देना अपेक्षित है।
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57वीं सामाजिक न्याय और अधिकारिता स्थाई समिति, 2017-18 के अनुसार वर्ष 2014 में इससे संबंधित कोई भी प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है, जो इससे संबंधित कार्रवाई की वास्तविकता को दर्शाता है।
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राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (NCSK) के अनुसार, सेप्टिक टैंकों की सफाई करते समय वर्ष 2013 से 2017 के बीच 608 मैनुअल स्कैवेंजर्स की मृत्यु हो गई है।
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मैनुअल स्कैवेंजर्स में लगे लोगों की कम संख्या और उनकी मौत से संबंधित आधिकारिक आँकड़ों में कमी के चलते उनके कल्याण से संबंधित नीतियों का कार्यान्वयन, पहुँच और कवरेज कम हो गया है।
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2017-18 में संसदीय स्थाई समिति के अनुसार ‘स्कैवेंजर्स की मुक्ति और पुनर्वास के लिये स्व-रोज़गार योजना’ के अनुसार केवल 27,268 मैनुअल स्कैवेंजर्स को ही एक बारगी नकदी सहायता प्रदान की गई है।
स्वच्छ भारत अभियान और मैनुअल स्केवेंजिंग
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स्वच्छ भारत अभियान के तहत भारत ने वर्ष 2014 के बाद से लगभग 1,000 लाख शौचालयों का निर्माण करने का दावा किया है। इस प्रकार लगभग 95% घरों तक शौचालय की पहुँच हैं।
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दो गड्ढे वाले (13%) शौचालयों में मल के प्रबंधन के लिये ह्यूमन हैंडलिंग की आवश्यकता नहीं होती है, जबकि सोख्ता गड्ढे वाले सेप्टिक टैंक (38%) तथा एकल गड्ढे (20%) या सीवरेज लाइन से जुड़े शौचालयों में कुछ समय के बाद मैनुअल या यांत्रिक निष्कर्षण की आवश्यकता होती है।
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ग्रामीण स्तर पर सोख्ता गड्ढे वाले सेप्टिक टैंक तथा एकल गड्ढे वाले शौचालयों की अधिक संख्या और सक्सन पंपों (चूषण पंपों) की कम उपलब्धता को देखते हुए स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्रों में इनमें से अधिकांश शौचालयों को मैनुअल या यांत्रिक निष्कर्षण के जरिये साफ किये जाने की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में ग्रामीण स्वच्छता पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
न्यायिक हस्तक्षेप और आगे की राह
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कार्यान्वयन में कमी और अंतराल को देखते हुए इस समस्या के जल्द समाप्त होने की संभावना नहीं है। भारत में मैनुअल स्कैवेंजरों की संख्या का अनुमान लगाने के लिये वर्ष 2018 में किया गया सर्वेक्षण ‘सफाई कर्मचारी आंदोलन और अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य’ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय के अनुसार किया गया था।
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बॉम्बे हाईकोर्ट ने वर्ष 2019 में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में सरकार पर संदेह व्यक्त करते हुए महाराष्ट्र सरकार से मैनुअल स्कैवेंजर्स के रोज़गार से जुड़े मामलों में दोषियों की संख्या के साथ-साथ उनकी मृत्यु पर मुआवजे के संबंध में प्रतिक्रिया मांगी है।
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हालाँकि, स्वच्छ भारत अभियान ने शौचालयों के उपयोग के संबंध में अभूतपूर्व, सकारात्मक और ढाँचागत बदलाव किये हैं परंतु मैनुअल स्कैवेंजिंग को कम करने के लिये अधिक प्रयास और समय की आवश्यकता है। नीतिगत स्तर पर स्वच्छ भारत अभियान ने शौचालयों तक पहुँच में वृद्धि की है, परंतु इसमें सफाई करने वालों की अनदेखी की गई हैं।
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साथ ही, इसके लिये बनाए गए कानून से संबंधित सर्वाधिक प्राथमिकी कर्नाटक में दर्ज की गई है। हालाँकि, इसके ट्रायल की संख्या का बहुत कम होना स्पष्ट रूप से राज्य, नौकरशाही और यहाँ तक कि समाजिक सहानुभूति की कमी को दर्शाता है।
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राज्य और समाज को इस समस्या में सक्रिय रूप से रुचि लेने और इसके सही ढंग से आकलन करने तथा समाप्त करने के लिये सभी संभावित विकल्पों पर विचार करने की आवश्यकता है।
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साथ ही, मशीनीकरण की शुरूआत और उसके अधिक से अधिक प्रयोग में हितधारकों की भागीदारी को भी सुनिश्चित करना चाहिये।
1) सफाई मित्र सुरक्षा चैलेंज अभियान
2) स्कैवेंजर्स की मुक्ति और पुनर्वास के लिये स्व-रोज़गार योजना (SRMS)
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सुभाषचंद्र बोस: एक क्रांतिकारी देशभक्त
संदर्भ
23 जनवरी को नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती ‘पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाई जा रही है। बोस को अदम्य साहस और प्रतिबद्धता का प्रतीक माना जाता है। स्वतंत्रता संग्राम में इन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनकी जयंती के अवसर उनसे जुड़े अनेक पहलूओं पर विचार-विमर्श किया गया है।
स्वतंत्रता संग्राम में सुभाषचंद्र बोस का योगदान
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स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बोस एक उपनिवेश नेता के रूप में उभरे। बोस वर्ष 1921 में कांग्रेस के साथ जुड़े और महात्मा गांधी द्वारा शुरू किये गए असहयोग आंदोलन में शामिल हुए।
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इन्होंने वर्ष 1921 में आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की थी, लेकिन मातृभूमि की सेवा के लिये इस्तीफा दे दिया।
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उसके बाद बंगाल कांग्रेस में स्वयंसेवकों के युवा शिक्षक और कमांडेंट बन गए। उन्होंने ‘स्वराज’ अखबार की शुरुआत की। वर्ष 1927 में जेल से रिहा होने के बाद, बोस कांग्रेस पार्टी के महासचिव बने और जवाहरलाल नेहरू के साथ भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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वर्ष 1938 में इन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और इन्होंने एक राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया, जिसमें व्यापक औद्योगीकरण की नीति तैयार की गई। वर्ष 1939 में वे पुनः अध्यक्ष चुने गए, परंतु गांधीवादी समर्थक पट्टाभि सीतारमैया को हराने और गांधीजी का समर्थन न मिलने के कारण उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया।
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वर्ष 1939 में सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक एक वामपंथी राष्ट्रवादी राजनीतिक दल का गठन किया गया, जो कांग्रेस के भीतर एक गुट के रूप में उभरा। इसका मुख्य उद्देश्य कांग्रेस पार्टी के सभी कट्टरपंथी तत्त्वों को एकसाथ लाना था, ताकि वह समानता एवं सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए भारत को पूर्ण स्वतंत्र करा सकें।
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वर्ष 1941 में बोस भारत से भागकर जर्मनी चले गए और भारत की स्वतंत्रता के लिये कार्य करने लगे। वर्ष 1943 में वह भारतीय स्वतंत्रता लीग का नेतृत्व करने के लिये सिंगापुर आए।
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21 अक्टूबर, 1943 को इन्होंने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अनंतिम सरकार के गठन की घोषणा की।
आज़ाद हिंद फौज (INA)
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दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीयों के बीच देशभक्ति की भावना को जाग्रत करने के लिये बोस ने भारतीय राष्ट्रीय सेना या आज़ाद हिंद फौज (INA) का पुनर्निर्माण किया।
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यह भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में एक प्रभावी साधन बनीं । आज़ाद हिंद फौज भारत के लोगों के लिये एकता और वीरता का प्रतीक बन गई थी।
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वर्ष 1944 की शुरुआत में आज़ाद हिंद फौज की तीन इकाईयों ने अंग्रेज़ों को देश से बाहर खदेड़ने के लिये भारत के उत्तर-पूर्वी हिस्से पर आक्रमण किया।
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आज़ाद हिंद फौज में लगभग 60,000 सैनिक शामिल थे, जिसमें युद्ध-बंदियों के साथ-साथ दक्षिण-पूर्वी एशिया के विभिन्न देशों में बसे भारतीय भी शामिल थे। स्वतंत्रता संग्राम में इनमें से लगभग 26,000 सैनिकों के मारे जाने की अधिकारिक पुष्टि की गई थी।
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भारत से अंग्रेज़ों की वापसी पर अंतिम निर्णय करने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली पद छोड़ने के बाद वर्ष 1956 में भारत आए थे, तब पश्चिम बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती द्वारा यह पूछे जाने पर कि भारत छोड़ो आंदोलन के नरम पड़ जाने पर भी अंग्रेज़ों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत भारत क्यों छोड़ा? इसके जवाब में एटली ने कहा कि, इसका कारण बोस और उनकी आज़ाद हिंद फौज थी। इसके कारण ब्रिटिश भारतीय सशस्त्र बल विद्रोह करने लगे थे, अतः अंग्रेजों का लंबे समय तक भारत में बने रहना मुमकिन नहीं था।
सुभाषचंद्र बोस बनाम गांधी: मतभेदों पर राष्ट्रहित को वरीयता
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बोस गांधी को पहली बार बॉम्बे के मणि भवन में आयोजित एक बैठक मिले थे। शुरुआती स्तर पर ही गांधी और बोस के दृष्टिकोण में पर्याप्त अंतर था। इस बैठक में गांधी ने भारत के लिये एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्ति का लक्ष्य रखा और इसके लिये उन्होंने 20 लाख चरखों के माध्यम से कार्य करने की बात कही। युवा और उत्साही बोस चरखे के माध्यम से स्वराज प्राप्ति के विचार को लेकर आश्वस्त नहीं थे।
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बोस शुरू से ही पूर्ण और शीघ्र स्वराज प्राप्ति के लक्ष्य को लेकर चल रहे थे और वे देश में किसी भी अन्य सत्ता का हस्तक्षेप नहीं चाहते थे। इसी समय बोस देशबंधु चित्तरंजन दास से मिले, जो बाद में इनके राजनीतिक गुरु बने।
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बोस ने लाहौर अधिवेशन में पारित होने वाले नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा प्रस्ताव पर अपनी असहमति व्यक्त की, बोस के अनुसार इनके स्थान पर सामानांतर सरकार की स्थापना के लिये प्रस्ताव पारित होना चाहिये।
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यद्यपि बोस ने नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा के प्रस्ताव पर अपनी असहमति व्यक्त की थी परंतु जब नमक सत्याग्रह शुरू हुआ तो उन्होंने इसकी तारीफ की और कहा कि ‘हमें अपनी पूरी शक्ति इसमें लगा देनी चाहिये’। यह गांधीजी और पार्टी के अनुशासन के प्रति इनके सम्मान को दर्शाता है।
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कुछ वर्षों के बाद, बोस और विट्ठलभाई पटेल ने ज़िनेवा से एक संयुक्त बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा कि, “हमारे देश ने अहिंसा का अनुसरण करके बहुत प्रगति की है, परंतु अब यह कारगर नहीं है, अतः नेतृत्व में बदलाव की आवश्यकता है”। यह बयान गांधीजी के तरीकों से असहमति को दर्शाता है।
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गांधीजी के सुझाव पर बोस को विट्ठलनगर अधिवेशन (हरिपुरा) में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इसमें उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये कांग्रेस द्वारा अपनाए जाने वाले तरीकों को बदलने की कोशिश की जिसे कांग्रेस कार्यसमिति ने ख़ारिज कर दिया।
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अगले वर्ष, बोस ने पट्टाभि सीतारमैय्या को हराकर पुनः चुनाव जीता, पट्टाभि की हार को गांधी ने अपनी हार बताया। अतः बोस ने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया।
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मौलाना आज़ाद ने अपनी पुस्तक ‘ इंडिया विंस फ़्रीडम’ में यह उल्लेख किया है कि गांधी बोस के संगठनात्मक क्षमता और जेल से बचकर निकलने की कला से बहुत प्रभावित थे। साथ ही, गांधी बोस के साहस और विनम्रता की भी प्रशंसा करते थे।
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बोस और गांधी एक दूसरे से अलग होते हुए भी एक दूसरे के विरुद्ध कभी नहीं गए। जहाँ बोस ने गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहकर संबोधित किया तो वहीं गांधी बोस को ‘सबसे बड़ा देशभक्त’ मानते थे।
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बोस और गांधी में अनेक वैचारिक मतभेद थे परंतु दोनों राजनीतिक स्तर पर परिपक्व थे, दोनों के देशहित में एकसमान लक्ष्य थे और दोनों एक दूसरे के विचारों का सम्मान करते थे, जिस कारण दोनों के बीच कभी भी कटुता नहीं पनप सकी।
सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज (INA) : एक सांस्कृतिक विरासत के रूप में
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125वीं जंयती के अवसर पर स्वतंत्रता प्राप्ति में सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज के योगदान को दर्शाने के लिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोलकाता में सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज के सेनानियों को समर्पित एक राष्ट्रीय संग्रहालय का उद्घाटन करने जा रहे हैं।
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नेताजी सुभाष बोस-आईएनए ट्रस्ट, जो कि भावी पीढ़ियों के बीच सुभाषचंद्र बोस के संदेश, उनकी प्रतिबद्धता और साहस का प्रसार करने हेतु समर्पित एक राष्ट्रीय संगठन है, सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जंयती धूमधाम से मना रहा है।
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इसके साथ ही, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज को समर्पित स्मारक निर्माण की मांग उठ रही है।
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विदित है कि दिल्ली में सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज को समर्पित एक भी स्मारक नहीं है, जहाँ भारत और अन्य देशों के आगंतुक इनके प्रति अपने सम्मान को व्यक्त कर सकें।
बढ़ती असमानता : चिंताजनक स्थिति
संदर्भ
महामारी के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में धीरे-धीरे सुधार (Recovery) देखा जा रहा है परंतु यह सुधार केवल आंशिक हल प्रस्तुत करता है। इन सबके बीच सत्य यह है कि सभी देशों में आर्थिक असमानता में तेज़ी से वृद्धि हो रही है।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट
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तीव्र रिकवरी– ऑक्सफैम की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के 1,000 सबसे धनी लोगों ने विश्व के सबसे गरीब लोगों के मुकाबले नौ महीने के भीतर महामारी से होने वाले नुकसान की भरपाई कर ली है, जबकि गरीबों को इसमें एक दशक का समय लग सकता है।
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असमानता में वृद्धि– यद्यपि महामारी से पहले भी विश्व में असमानता बहुत अधिक थी जो सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को अस्थिर कर रही थी परंतु अर्थशास्त्रियों को इस बात का डर है कि इसमें और वृद्धि होना निश्चित है। सुधार की गति देशों के मध्य और देशों के अंदर असमान है।
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भारत में असमानता– रिपोर्ट के अनुसार, भारत में असमानता का स्तर उपनिवेश के समय भारत में असमानता के स्तर पर पहुँच गया है। मार्च से भारत के 100 अरबपतियों द्वारा अर्जित अतिरिक्त आय 138 मिलियन गरीबों में से प्रत्येक को ₹94,045 देने के लिये पर्याप्त है।
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पिछले वर्ष भारत में सबसे धनी व्यक्ति द्वारा एक सेकंड में जितनी आय अर्जित की गई है उतनी आय किसी अकुशल श्रमिक द्वारा अर्जित करने में तीन वर्ष लग जाएंगे।
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असमानता का असमान प्रभाव- आय और अवसरों में बढ़ती असमानता कुछ वर्गों को लिंग, जाति और अन्य कारकों के आधार पर भेदभाव के कारण असमान रूप से प्रभावित करती है।
दृष्टिकोण की समस्या
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आर्थिक विकास का प्रतिफल- दशकों से केवल विकास और संवृद्धि पर ध्यान केंद्रित करने से नीति-निर्माताओं ने बढ़ती असमानता को अपरिहार्य रूप से स्वीकार कर लिया है। असमानता को आर्थिक विकास के एक ऐसे अनचाहे परिणाम के रूप में देखा जाता है, जिसके परिणामस्वरूप निरपेक्ष गरीबी में कमी आई है।
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लोकतंत्र से अधिक जुड़ाव– समाजवाद के उभार से भी असमानता के बारे में चिंताओं को आसानी से खारिज किया जा सकता है। विकास की बहस में पूँजीवाद की आलोचना को तब तक संदेह के साथ देखा जाता है, जब तक कि पूँजीवाद के कारण पैदा हुए किसी संकट को नजरअंदाज न किया जा सके। पूँजीवाद पर अधिक साहित्य लिखे जाने के साथ-साथ लोकतंत्र के साथ भी इसका जुड़ाव अब तेजी से बढ़ रहा है।
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हालाँकि, विश्व भर के लोकतांत्रिक समाजों में क्रांति के रूप में इसके सामाजिक और राजनीतिक परिणाम देखे जा सकते हैं। उच्चतम संवृद्धि पर टिके किसी विकास मॉडल की पर्यावरणीय लागत भी स्पष्ट है।
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आसान स्वीकारोक्ति– अर्थशास्त्रियों के बीच आसानी से अब इस बात को स्वीकार किया जाने लगा है कि पूँजी और श्रम के बीच नई आय का वितरण इतना एकतरफा हो गया है कि श्रमिकों को लगातार निर्धनता की ओर धकेला जा रहा है, जबकि धनी और अमीर होते जा रहे हैं।
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‘द ग्रेट रिसेट’ पहल- ‘द ग्रेट रिसेट’ विश्व आर्थिक मंच की एक पहल है, जिसका लक्ष्य संयुक्त रूप से और तत्काल प्रभाव से अधिक निष्पक्ष, टिकाऊ और लचीले भविष्य के लिये आर्थिक और सामाजिक प्रणाली का आधार बनाने की प्रतिबद्धता है, जबकि दूसरी ओर श्रम की लागत पर पूँजीवादी गतिविधियों के लिये उपाय किये जा रहें हैं, जैसे- महामारी के दौरान कई राज्यों में श्रम कानूनों में बदलाव किये गए हैं।
अर्जेंटीना का गर्भपात संबंधी नियम
संदर्भ
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हाल ही में, अर्जेंटीना ने गर्भपात संबंधी नियमों में संशोधन करते हुए अब गर्भपात को वैध घोषित कर दिया है। अभी तक अर्जेंटीना में गर्भपात से संबंधित कानून अत्यंत कड़े थे। ऐसे में यह एक परिवर्तनकारी निर्णय है।
पृष्ठभूमि
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इस विधेयक के पारित होने से पहले, अर्जेंटीना में केवल दो स्थितियों में ही गर्भपात की अनुमति थी, पहला बलात्कार के मामले में तथा दूसरा, जब किसी गर्भवती महिला के स्वास्थ्य को गंभीर खतरा हो।
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वर्ष 1921 से अस्तित्व में रहे इस कानून में संशोधन की माँग कर रहे कार्यकर्ता वर्षों से गर्भपात की वैधता के लिये अभियान चला रहे थे।
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कैथोलिक चर्च और इंजील समुदाय का अर्जेंटीना में अधिक प्रभाव था, इनकी मान्यताओं के अनुसार गर्भपात करवाना गलत है, यहाँ तक कि इन मान्यताओं के कारण गर्भ निरोधकों की बिक्री भी देश में प्रतिबंधित थी। यही कारण था कि इस बिल का कैथोलिक चर्च और इंजील समुदाय द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा था।
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दो वर्ष पूर्व, अर्जेंटीना की सरकार ने गर्भपात के संदर्भ में एक बिल पारित करने का प्रयास किया था, परंतु वह बिल बहुत कम वोटों के अंतर से पारित होने से रह गया था।
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वर्तमान बिल के अनुसार गर्भाधारण के 14 वें सप्ताह तक गर्भपात को वैध घोषित किया गया है।
यह बिल ऐतिहासिक क्यों है?
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इस बिल से पूर्व, अर्जेंटीना में गर्भपात करवाना अवैध था जिस कारण महिलाओं एवं लड़कियों को असुरक्षित तथा अवैध तरीके से गर्भपात करवाना पड़ता था। इससे कई बार महिलाओं एवं लड़कियों की मृत्यु भी हो जाती थी।
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सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि की लड़कियों और महिलाओं के लिये, गर्भपात हेतु सुरक्षित चिकित्सा प्रक्रियाओं तक पहुँच का दायरा और भी संकीर्ण था।
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ह्यूमन राइट्स वॉच के अनुसार असुरक्षित गर्भपात के कारण देश में मातृ मृत्यु दर तुलनात्मक रूप से अधिक थी।
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यह बिल अब महिलाओं को उनके शरीर पर अधिक स्वायत्तता प्रदान करता है और गर्भवती महिलाओं तथा युवा माताओं के लिये बेहतर स्वास्थ्य सेवा भी प्रावधान करता है।
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इस कानून के पारित होने से लैटिन अमेरिका के अन्य देश भी गर्भपात को वैध घोषित करने की दिशा में विचार करेंगे। वर्तमान में, निकारागुआ, अल सल्वाडोर और डोमिनिकन गणराज्य में गर्भपात अवैध है।
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उरुग्वे, क्यूबा, गुयाना और मैक्सिको के कुछ हिस्सों में, महिलाएं गर्भपात के लिये अनुरोध कर सकती हैं, लेकिन केवल विशेष मामलों में ही। साथ ही, इन सभी देशों में गर्भाधारण के हफ्तों के आधार पर गर्भपात से संबंधित अलग-अलग कानून हैं।
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राष्ट्रपति के अनुसार, यह बिल एक बेहतर समाज में महिलाओं के अधिकारों को व्यापक बनाता है और उन्हें स्वास्थ्य की गारंटी देता है।
विधि-निर्माताओं का पक्ष
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यह बिल एक मैराथन सत्र में पारित हुआ जहाँ 38 सीनेटरों ने बिल के पक्ष में मतदान किया, जबकि 29 ने इसके विरुद्ध मतदान किया।
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यह बिल राष्ट्रपति अल्बर्टो फर्नांडीज़ के चुनावी वादों में से एक था। उन्होंने वर्ष 2018 में बिल के अस्वीकृत होने के बाद इसे फिर से शुरू करने की बात कही थी। उन्होंने कहा था “मैं कैथोलिक हूं लेकिन मुझे सभी के लिये कानून बनाना होगा।”
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इस बिल के विरुद्ध मतदान करने वाले सांसदों ने इसे एक त्रासदी तथा ‘एक अपरिपक्व जीवन का अंत करने वाला’ बताया।
आगे की राह
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अर्जेंटीना में नए कानून के बावजूद, महिला अधिकारों के क्षेत्र में अभी अनेक सुधार होने बाकि हैं।
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यहाँ के गर्भपात विरोधी समूहों और उनके धार्मिक एवं राजनीतिक समर्थकों ने इस कानून को पारित होने से रोकने के भरसक प्रयास किये, जो कि उनकी संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है।
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हाल ही में, ब्राजील के रूढ़िवादी राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो ने देश में किसी भी गर्भपात समर्थक बिल को वीटो करने की कसम खाई थी।
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महिलाओं के अधिकारों के प्रति इस प्रकार का नजरिया निश्चित ही चिंता उत्पन्न करने वाला है। वर्तमान के आधुनिक युग में यह आवश्यक हो गया है कि विश्व भर में ऐसी मान्यताओं को नकारा जाए जो महिलाओं के स्वास्थ्य और उनकी गरिमा के विरुद्ध हैं।
भारत में गर्भपात के लिये कानूनी प्रावधान
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GS-2 Mains
एनीमिया
संदर्भ
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हाल ही में जारी किये गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-20 के अनुसार भारत में महिलाएँ और बच्चे अत्यधिक संख्या में एनीमिया से पीड़ित हैं और हिमालय के ठंडे रेगिस्तानी क्षेत्र में इसका प्रसार सबसे अधिक है।
क्या है एनीमिया?
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लाल रक्त कोशिकाओं (RBCs) की संख्या सामान्य स्तर से कम होने या हीमोग्लोबिन का स्तर कम होने की स्थिति को एनीमिया कहते हैं।
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इससे रक्त की ऑक्सीजन परिवहन की क्षमता कम हो जाती है और शारीरिक व मानसिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। साथ ही, इससे थकान, ठंड, चक्कर आना, चिड़चिड़ापन और सांस की कमी महसूस हो सकती है।
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इसके अतिरिक्त, इससे मातृ मृत्युदर में वृद्धि, अन्य गंभीर बीमारियों की शुरुआत के साथ-साथ किशोरियों की शारीरिक व प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होती है, जिससे जनसंख्या की कम उत्पादकता से राष्ट्र को आर्थिक नुकसान पहुँचता है।
कारण
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आहार में लौह तत्त्व, फोलिक एसिड या विटामिन बी12 की कमी एनीमिया का सामान्य कारण है। साथ ही, कम उम्र की माताओं को एनीमिया होने की संभावना अधिक होती है। भारत में प्रजनन आयुवर्ग (15-49 वर्ष) की आधी से अधिक महिलाएँ एनीमिक हैं।
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कुछ अन्य स्थितियाँ भी एनीमिया के लिये उत्तरदायी हो सकती हैं, जिनमें गर्भावस्था, अत्यधिक मात्रा में मासिक स्राव, रक्त विकार (सिकल सेल एनीमिया और थैलेसीमिया) या कैंसर, आनुवंशिक विकार और संक्रामक रोग शामिल हैं।
एनीमिया के सामान्य लक्षण
जल्दी थकावट महसूस होना, तेज धड़कन, सांस लेने में कठिनाई और सिरदर्द के साथ-साथ एकाग्रता का भंग होना, त्वचा का पीलापन तथा चक्कर आना व अनिद्रा इसके सामान्य लक्षण हैं।
देश में एनीमिया की व्यापकता का स्तर
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राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NHFS) 2015-16 के अनुसार, 6-59 महीने की आयुवर्ग के लगभग 58% बच्चे और 15-49 आयु की महिलाओं पर किये गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 53% महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित थीं।
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एन.एच.एफ.एस. के पहले चरण में 22 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिये फैक्ट शीट जारी की गई है। इस सर्वेक्षण के दौरान 6 से 59 महीने के बच्चों और 15 से 49 वर्ष की आयु की महिलाओं और पुरुषों के बीच एनीमिया का परीक्षण किया गया।
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इनमें अधिकतर राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में आधे से अधिक बच्चों और महिलाओं को एनीमिक पाया गया।
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इन 22 में से 15 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में आधे से अधिक बच्चे एनीमिक हैं। इसी तरह 14 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 50% से अधिक महिलाएँ एनीमिक हैं।
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एनीमिक बच्चों व महिलाओं का अनुपात लक्षद्वीप, केरल, मेघालय, मणिपुर, मिज़ोरम तथा नागालैंड में तुलनात्मक रूप से कम है और लद्दाख, गुजरात, जम्मू-कश्मीर व पश्चिम बंगाल में अधिक है।
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इनमें से अधिकांश राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में पुरुषों में एनीमिया का स्तर 30% से कम था।
सर्वेक्षण में प्रयुक्त कार्यप्रणाली
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एन.एफ.एच.एस. ने एनीमिया के आकलन के लिये केशिका रक्त (Capillary Blood) का उपयोग किया। बच्चों में 11 ग्राम/डेसीलीटर (g/dl) से कम हीमोग्लोबिन का स्तर एनीमिया का परिचायक है।
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सामान्य (गैर-गर्भवती) और गर्भवती महिलाओं के लिये यह स्तर क्रमशः 12 ग्राम/डेसीलीटर और 11 ग्राम/डेसीलीटर से कम था, जबकि पुरुषों के लिये यह 13 ग्राम/डेसीलीटर से कम था।
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बच्चों में इसके प्रसार को ऊँचाई के लिये और वयस्कों में इसे ऊँचाई तथा धूम्रपान की स्थिति के लिये समायोजित किया गया था।
देश में एनीमिया के उच्च स्तर का कारण
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लौह और विटामिन बी12 की कमी वाले एनीमिया भारत में दो सबसे सामान्य प्रकार के एनीमिया हैं।
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महिलाओं में मासिक धर्म के दौरान आयरन की कमी और गर्भावस्था के दौरान भ्रूण के विकास के लिये आयरन की उच्च माँग के कारण महिलाओं में आयरन की कमी का प्रसार पुरुषों की अपेक्षा अधिक है।
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चावल व गेहूँ पर अधिक निर्भरता के कारण आहार में मोटे आनाजों की कमी, हरी एवं पत्तेदार सब्जियों की कम खपत और निम्न पोषण स्तर वाले डिब्बाबंद व प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की अधिकता भारत में एनीमिया के उच्च प्रसार के कारण हो सकते हैं।
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आहार एवं भोजन की आदतों में बदलाव और अनाज तथा प्राकृतिक खाद्य पदार्थों में विविधता की कमी भी इसका एक कारण है।
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हालाँकि, भारत में एनीमिया का स्तर स्वतंत्रता के बाद भी लगातार उच्च बना हुआ है और यहाँ तक कि हरित क्रांति के बाद आहार पैटर्न में हुए बदलाव के बाद भी इसमें कमी नहीं आई है। अत: इस संबंध में एक गहन शोध की आवश्यकता है क्योंकि इसके लिये आनुवंशिक या पर्यावरणीय कारक उत्तरदायी हो सकते हैं
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इसके अलावा, हीमोग्लोबिन का वर्तमान मानदंड पश्चिमी जनसंख्या पर आधारित है और भारत में इसके सामान्य मानक भिन्न हो सकते हैं। ऐसी महिलाएँ भी हैं, जिनका हीमोग्लोबिन कभी-कभी छह या आठ तक गिर जाता है परंतु वे स्वस्थ रहती हैं।
पश्चिमी हिमालय का ठंडा रेगिस्तानी क्षेत्र और एनीमिया
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सर्वेक्षण के अनुसार, लद्दाख संघ शासित क्षेत्र में 5% बच्चे, 92.8% महिलाएँ और करीब 76% पुरुष एनेमिक हैं। इससे सटे हुए हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति जिले में 91% बच्चे और 82% महिलाएँ एनीमिक हैं। ये दोनों क्षेत्र हिमालय के ठंडे रेगिस्तान का हिस्सा हैं।
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जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के बाकी हिस्सों में एनीमिया की व्यापकता अपेक्षाकृत कम है। ठंडे रेगिस्तानी क्षेत्र में एनीमिया के उच्च प्रसार का कारण प्रत्येक वर्ष लंबी सर्दियों के दौरान ताजी सब्जियों व फलों की कम आपूर्ति हो सकती है।
एनीमिया उन्मूलन के लिये सरकारी पहलें
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भारत सरकार द्वारा संचालित ‘एनीमिया मुक्त भारत’ कार्यक्रम का उद्देश्य वर्ष 2018 से 2022 तक प्रतिवर्ष बच्चों, वयस्कों और प्रजनन आयु वर्ग वाली महिलाओं में एनीमिया के मामलों में 3% की कमी लाना है। इसके तहत आयरन-फोलिक एसिड की गोलियों का वितरण और डी-वार्मिंग (De-Worming- आंतों के परजीवी संक्रमण के कारण एनीमिया के प्रसार को रोकना) जैसे उपाय किये जा रहे हैं।
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किशोर और किशोरियों के बीच एनीमिया के उच्च प्रसार को कम करने के लिये साप्ताहिक आयरन और फोलिक एसिड अनुपूरक (WIFS) कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है।
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एनीमिया से प्रभावित गर्भवती महिलाओं के मामलों की रिपोर्टिंग और ट्रैकिंग के लिये स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली के साथ-साथ मदर-चाइल्ड ट्रैकिंग सिस्टम को लागू किया गया है।
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ग्राम स्वास्थ्य और पोषण दिवस में उप-केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के नेटवर्क का उपयोग करते हुए एनीमिया की रोक-थाम के लिये गर्भवती महिलाओं की सार्वभौमिक जाँच, प्रसव-पूर्व देखभाल, आयरन और फोलिक एसिड की गोलियों का वितरण किया जा रहा है।
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सुरक्षा मातृ अभियान के तहत प्रत्येक माह की 9 तारीख को एनीमिया की विशेष जांच की जाती है।
रोकथाम के लिये सुझाव
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स्वस्थ्य आहार की आदतों का विकास, विविधतापूर्ण खाद्य-पदार्थों का प्रयोग और मौसमी फलों व सब्जियों (विशेषकर हरी पत्तेदार) का प्रयोग किया जाना चाहिये।
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जीन चिकित्सा के द्वारा आनुवंशिक एनीमिया का सफल उपचार किया जा सकता है। साथ ही, खाद्य और आहार विविधता पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
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एनीमिया (रक्ताल्पता) के प्रसार को रोकने के लिये खाद्य का फ़ूड फोर्टिफिकेशन किया जा सकता है। लौह, फोलिक एसिड और विटामिन बी12 जैसे पोषक तत्त्वों से चावल का फोर्टिफिकेशन इसका अच्छा विकल्प है।
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एक अन्य उपाय माताओं द्वारा शिशुओं को उचित स्तनपान कराना है। यह शुरुआती 1,000 दिनों में पोषण की कमी पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है।
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साथ ही, खाद्य पदार्थों के उत्पादन में पोषण युक्त कृषि प्रणाली को विकसित करने की आवश्यकता है। घरेलू खाद्य सुरक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच और न्यायसंगत लैंगिक समानता भी एनीमिया में सहायक हो सकते हैं।
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विदित है कि सामुदायिक कॉर्ड ब्लड बैंकिंग की सहायता से महाराष्ट्र में गंभीर रक्त विकार (अप्लास्टिक एनीमिया) से एक पीड़ित की जान बचाई गई है।
गंभीर मामलों में जाँच की अवधि कम करना
संदर्भ
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हाल ही में, वर्ष 2019 के आंध्र प्रदेश के ‘दिशा विधेयक’ में कुछ अपराधों की जाँच की समयावधि को कम करके सात दिन तक किये जाने के प्रयास किये जा रहे हैं।
राज्य सरकारों द्वारा जाँच की अवधि कम करना
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वर्ष 2020 के प्रस्तावित महाराष्ट्र शक्ति अधिनियम में 15 दिनों के भीतर जाँच पूरी करने का प्रावधान है।
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महाराष्ट्र का शक्ति अधिनियम आंध्र प्रदेश के दिशा विधेयक से प्रेरित है।
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दिशा बिल के तहत महिलाओं, बच्चों के यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसे अपराधों के जिन मामलों में‘पर्याप्त निर्णायक सबूत’ उपलब्ध हैं, सात कार्यदिवसों के भीतर जाँच पूरी करना अनिवार्य है।
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हालाँकि पुलिस द्वारा‘पर्याप्त निर्णायक सबूत’ को स्पष्ट करना अभी भी एक दुविधा बनी हुई है।
सी.आर.पी.सी. के प्रावधान
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दंड प्रक्रिया संहिता (सीआर.पी.सी.)के अनुसार जिन अपराधों में कम से कम 10 वर्ष के कारावास का प्रावधान है, उनकी जाँच 60 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिये।
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उच्च सज़ा वाले अपराधों (बलात्कार सहित) में आरोपी को हिरासत में लेने की समयसीमा 90 दिनों की है, अन्यथा उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा।
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प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिये, वर्ष 2018 में सी.आर.पी.सी. में संशोधन किया गया और बलात्कार के सभी मामलों के लिये जाँच की अवधि को 90 से घटाकर 60 दिन कर दिया गया।
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की जाँच
यौन उत्पीड़न निवारण अधिनियम, 2013 के अनुसार पीड़ित महिला की लिखित शिकायत पर नियोक्ता (Employer) को आंतरिक शिकायत समिति/स्थानीय शिकायत समिति निम्नलिखित निर्देश दे सकती है-
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पीड़ित महिला या यौन उत्पीड़न के आरोपी व्यक्ति का स्थानान्तरण।
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किसी अन्य प्रकार की सहायता निर्धारित करना।
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जांच पूर्ण होने के 10 दिन के अंदर समिति नियोक्ता एवं संबंधित व्यक्ति को रिपोर्ट देगी।
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स्थानीय शिकायत समिति जाँच में आरोपी को दोषी पाती है, तो कार्रवाई संबंधी अपनी रिपोर्ट नियोक्ता एवं ज़िला अधिकारी को सौंपेगी।
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आंतरिक शिकायत समिति या स्थानीय शिकायत समिति पीड़ित महिला या अन्य की शिकायत गलत पाती है, तो पीड़ित महिला या अन्य व्यक्ति के विरुद्ध सेवा नियमावली के अनुसार कार्रवाई की जाएगी।
जाँच के समय को प्रभावित करने वाले कारक
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आम तौर पर, जाँच का समय कई कारकों पर निर्भर करता है, जैसे अपराध की गंभीरता, आरोपी व्यक्तियों और एजेंसियों की संख्या आदि।
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उपर्युक्त कारकों के अलावा बलात्कार के कई मामलों में, पीड़ित/पीड़िता गहरे आघात/चोट के कारण आपबीती बताने की अवस्था में नहीं रहते।
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जाँच की गति और गुणवत्ता इस बात पर भी निर्भर करती है कि क्या किसी पुलिस स्टेशन में जाँच और कानून-व्यवस्था की अलग-अलग इकाइयाँ हैं? यह एक लंबित पुलिस सुधार है, जिस पर अभी भी अमल किया जाना बाकी है।
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जाँच का समय, उपलब्ध जाँच अधिकारियों और महिला पुलिस अधिकारियों की संख्या और फोरेंसिक प्रयोगशालाओं व उनकी डी.एन.ए. इकाइयों के आकार और उनकी कार्यकुशलता पर भी निर्भर करता है।
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम
किसी भी कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न नहीं हो इसके लिये आवश्यक है:
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उन्हें कार्यस्थल पर अनुकूल वातावरण प्रदान करना।
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कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न के विरुद्ध उचित कार्रवाई का प्रावधान।
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उनकी नियुक्ति से जुड़ी वर्तमान एवं भविष्य की शर्तें स्पष्ट करना।
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उनके कार्य में अकारण हस्तक्षेप तथा उन्हें डराने, धमकाने जैसे- व्यवहार नहीं करना।
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माहिलाओं की सुरक्षा को प्रभावित करने वाले व्यवहार का विरोध करना।
निष्कर्ष
जाँच के लिये आवशयक समय सीमा को कम करने से प्रक्रियात्मक खामियों की संभावना बढ़ जाती है। इसलिये, अवास्तविक समय सीमा तय करने की बजाय, पुलिस को अतिरिक्त संसाधन दिये जाने चाहिये ताकि वे कुशलतापूर्वक जाँच कर सकें।
धर्मांतरण के विरुद्ध अध्यादेश : एक समीक्षा
संदर्भ
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उत्तर प्रदेश में नवंबर माह में प्रख्यापित ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020’ अंतर-धार्मिक विवाहों की पुष्टि करता है। हालाँकि, इस अध्यादेश में कुछ ऐसे प्रावधान हैं, जो कुछ हद तक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। इसके अतिरिक्त, इस अध्यादेश को तत्काल प्रख्यापित करने की परिस्थितियों की समीक्षा भी आवश्यक है।
उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020 का औचित्य
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इस अध्यादेश को सामान्यता एंटी-लव जिहाद अध्यादेश भी कहा जाता है। इस अध्यादेश के लिये तात्कालिक परिस्थितियों पर अगर विचार किया जाए तो ऐसी विशेष परिस्थितियाँ दृष्टिगत नहीं होती।
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अगर यह अध्यादेश छलपूर्वक, बलप्रयोग, अनुचित प्रभाव, दबाव, प्रलोभन एवं धोखाधड़ी के माध्यम से होने वाले विवाह का प्रतिषेध करता है तो इसके लिये वर्तमान अध्यादेश की आवश्कता नहीं थी, क्योंकि इस संबंध में तो पहले से ही पुलिस को यह शक्ति प्राप्त है कि वह ऐसे विवाहों को रोके।
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साथ ही, राज्य सरकार के पास भी ऐसा निगरानी तंत्र विद्यमान है जिससे उसे बलपूर्वक या धोखाधड़ी से होने वाले सामूहिक धर्मांतरण की जानकारी पहले से ही होती है, अतः इसे भी आवश्यक कार्यवाई से रोका जा सकता है।
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इस बात की संभावना अत्यंत क्षीण है कि बड़े पैमाने पर धर्मांतरण गुप्त और एक साथ होंगे, हालाँकि अगर ऐसा होता है तो भी मौजूदा कानूनी प्रावधानों को लागू करके सतर्क पुलिस बल द्वारा इन्हें रोका भी जा सकता है।
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अगर तत्काल परिस्थितियों को देखें तो हाल के कुछ समय में ऐसी कोई भी घटना प्रकाश में नहीं आई जिसमें दर्जनों या सैंकड़ो अंतर-धार्मिक विवाह एक साथ हुए हों। ऐसे में यह अध्यादेश तत्काल कार्यवाही की आवश्कता को न्यायोचित नहीं ठहराता है।
प्रावधान और उनका प्रभाव
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इस कानून की धारा 3 के द्वारा गैर-कानूनी तरीकों एवं धोखाधड़ी या विवाह के माध्यम से धर्मांतरण को संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध बनाने के साथ-साथ कारावास का प्रावधान किया गया है। जबरदस्ती या धोखाधड़ी से धर्मांतरण का समर्थन नहीं किया जाना चाहिये और इसे रोकने के लिये कानूनी प्रावधान होने भी चाहिये, परंतु विवाह के माध्यम से होने वाले धर्मांतरण को अपराध मनना उचित प्रतीत नहीं होता।
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दो व्यस्क अगर आपसी सहमती से अंतर-धार्मिक विवाह करते हैं और विवाह से पूर्व या विवाह उपरांत दोनों में से कोई एक धर्मांतरण करता है अर्थात् यदि पत्नी, पति का धर्म अपनाती है या पति, पत्नी का धर्म अपनाता है तो इससे राज्य को या किसी अन्य व्यक्ति को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये।
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इस अध्यादेश में उल्लेखित ‘धर्मांतरण का प्रयास’, अधिकारों से संबंधित एक गंभीर मुद्दा है। धारा 7 के अनुसार, अगर धर्मांतरण से संबंधित कोई सूचना (वह सूचना गलत भी हो सकती है) प्राप्त होती है तो एक पुलिस अधिकारी आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत मजिस्ट्रेट के आदेश तथा वारंट के बिना ही इस तर्क के आधार पर धर्मांतरण का प्रयास करने वाले को गिरफ्तार कर सकता है कि बिना इस व्यक्ति को गिरफ्तार किये धर्मांतरण को रोकना असंभव है।
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सूचना की प्रकृति में किसी प्रलोभन, लालच या उपहार को भी शामिल किया गया है, अर्थात् अगर सूचना में यह बताया गया है कि किसी व्यक्ति ने किसी दुसरे को व्यक्ति को धर्मांतरण के लिये किसी प्रकार का उपहार दिया है तो उसे गिरफ्तार किया जा सकता है। साथ ही, उस व्यक्ति के परिवार के सदस्यों या मित्रों को भी उसका साथ देने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है।
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कोई व्यक्ति धर्मांतरण करना चाहता है परंतु विवाह नहीं करना चाहता तो उस व्यक्ति को एक घोषणा के माध्यम से योजना के दो महीने पहले ज़िला मजिस्ट्रेट (DM) को सूचित करना होगा तथा धारा 8 के तहत डी.एम. पुलिस को धर्मांतरण के वास्तविक उद्देश्य की जाँच करने का आदेश देगा। ऐसे में यह प्रश्न खड़ा होता है कि अगर पुलिस धर्मांतरण के वास्तविक उद्देश्यों की पहचान नहीं कर पाती तो क्या व्यक्ति धर्मांतरण नहीं कर सकेगा?
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धारा 9 तहत धर्मांतरण के वास्तविक उद्देश्य की जाँच पूरी होने के बाद व्यक्ति को धर्मांतरण की सूचना डी.एम. को देनी होगी और डी.एम. इस सूचना को पुष्टि होने तक कार्यालय के नोटिस बोर्ड पर प्रदर्शित करेगा। हालाँकि इस सूचना से अगर किसी व्यक्ति को कोई आपत्ति होगी तो इसके लिये क्या प्रावधान किये गए हैं, इसका उल्लेख अध्यादेश में नहीं किया गया है।
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धारा 12 में यह प्रावधान किया गया है कि धर्मांतरण किसी प्रलोभन एवं धोखाधड़ी के कारण नहीं बल्कि स्वेछा से किया गया है, इस बात को सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी धर्मांतरण करवाने वाले पर होगी न कि धर्मांतरण करने वाले पर, तो ऐसे में यह प्रश्न विचारणीय है कि धर्मांतरण करवाने वाला व्यक्ति भला किस प्रकार दुसरे व्यक्ति के मनोभावों को बता सकता है।
अध्यादेश के नकरात्मक प्रभाव
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अध्यादेश के कुछ नकरात्मक प्रभाव भी हैं, जैसे- झूठे मुकदमें करने के लिये डराना-धमकाना, मनमानी गिरफ्तारी और धर्मांतरण करने व करवाने वाले का शोषण आदि।
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यह अध्यादेश कई मायनों में असंगत तथा अस्पष्ट है। साथ ही, यह सभी अंतर-धार्मिक विवाहों की पुष्टि करता है और वयस्कों द्वारा अपनी पसंद के विवाह करने की स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगाता है।
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यह एक प्रकार से निजता के अधिकार का हनन करता है और जीवन, स्वतंत्रता एवं गरिमा के अधिकार का भी उल्लंघन करता है।
क्या वर्तमान प्रख्यापित अध्यादेश आवश्यक शर्तों को पूरा करते हैं?
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हाल ही में, ‘वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिये आयोग अध्यादेश’ में तत्काल कार्यवाही की आवश्यकता के लिये चार पृष्ठ का औचित्य दिया गया था, जबकि ‘कृषि उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अध्यादेश, 2020 में केवल प्रस्तावना में कहा गया था कि अध्यादेश क्या प्रदान करता है, लेकिन तत्काल कार्यवाही के लिये परिस्थितियों का उल्लेख नहीं किया था।
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‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020’ में केवल यह बताया गया कि यह अध्यादेश क्या प्रदान करता है, अर्थात् इसमें केवल यह बताया गया कि एक धर्म से दुसरे धर्म में विवाह करने के लिये छलपूर्वक, बलप्रयोग, अनुचित प्रभाव, दबाव, प्रलोभन एवं धोखाधड़ी के माध्यम से धर्म परिवर्तन प्रतिषेध होगा। इसमें
अध्यादेश प्रख्यापित करने संबंधी संवैंधानिक प्रावधान :अध्यादेश प्रख्यापित करने संबंधी राष्ट्रपति की शक्ति
अध्यादेश प्रख्यापित करने संबंधी राज्यपाल की शक्ति
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भी अध्यादेश के लिये आवश्यक परिस्थतियों का उल्लेख नहीं किया गया।
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एक लोकतांत्रिक देश में यह आवश्यक है कि किसी भी अध्यादेश को, विधानमंडल में सत्र न होने पर, इसे प्रख्यापित करने की परिस्थिति बताई जानी चाहिये। इससे कानून में पारदर्शिता बढ़ेगी और परिस्थिति की गंभीरता का भी अनुमान लगाया जा सकेगा।
भारत और ब्रिटेन : संबंधों का बदलता स्वरूप
संदर्भ
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भारत के गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया गया है, जो की एक अप्रत्याशित कदम है। गणतंत्र दिवस पर ब्रिटेन को यह 6वाँ आमंत्रण था जो किसी अन्य राष्ट्र की अपेक्षा सबसे अधिक है। हालाँकि, कोविड-19 के नए स्ट्रेन के प्रसार के कारण उन्होंने गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने में असमर्थता व्यक्त की है।
मुख्य अतिथियों का चयन
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गणतंत्र दिवस परेड के लिये मुख्य अतिथि का चयन प्रधानमंत्री का विशेष निर्णय होता है और इसके लिये आमतौर पर वे मंत्रिमंडल से भी परामर्श नहीं करते हैं।
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प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मुख्य अतिथि के चयन से उनकी रणनीति का पता चलता है। विदित है कि वर्ष 2015 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, वर्ष 2016 में फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद, वर्ष 2017 में संयुक्त अरब अमीरात के क्राउन प्रिंस, वर्ष 2018 में आसियान के नेताओं के साथ-साथ वर्ष 2019 में दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रपति सिरिल रामफौसा और वर्ष 2020 में श्री बोल्सोनारो मुख्य अतिथि थे।
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संयुक्त राष्ट्र के 193 देशों में प्रधानमंत्री की पसंद अधिकांशत: पश्चिमी शक्तियों के प्रमुख नेता रहे हैं।
भारत और ब्रिटेन : अतीत एवं वर्तमान
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भारत का ब्रिटेन के साथ साझा अतीत रहा है। अब जबकि ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ (ई.यू.) को छोड़ दिया है तो दोनों के बीच एक साझा भविष्य गढ़े जाने की भी आवश्यकता है।
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वर्तमान में भारत और ब्रिटेन सुरक्षा परिषद् में सहयोग कर सकते हैं, जहाँ ब्रिटेन स्थाई और भारत इस वर्ष तथा अगले वर्ष के लिये अस्थाई सदस्य है। साथ ही, इस वर्ष जॉनसन जी-7 और संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भारत को आमंत्रित करेंगे।
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पिछले कुछ वर्षों में भारत ने जिन देशों के अतिथियों को आमंत्रित किया है उनकी वर्तमान स्थिति लगभग एक जैसी है। ब्रिटेन, अमेरिका और ब्राज़ील कोविड-19 से बुरी तरह प्रभावित हैं। साथ ही, इन सभी देशों में राष्ट्रवाद का उभार देखा जा रहा है। इनकी लोकतांत्रिक राजनीति भी आत्म-केंद्रित हैं। कुल मिलाकर इन सभी की प्रवृतियाँ लगभग एक जैसी हैं।
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ब्रेक्जिट के बाद भी ब्रिटेन का यूरोपीय संघ और घरेलू स्तर से संघर्ष की सम्भावना है। ब्रिटेन, स्कॉटलैंड और उत्तरी आयरलैंड के बीच अभी भी तनाव की स्थिति है। यह स्थिति भारत की तरह ही है।
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ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन नए व्यापारिक और रणनीतिक साझेदारों की तलाश में है। भारत इसका एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार हो सकता है।
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पी.एम. मोदी ने वर्ष 2015 में जब ब्रिटेन का दौरा किया तब 6 बड़े समझौते संपन्न हुए। इसकी संभावना बहुत कम है कि इन समझौतों के कार्यान्वयन के लिये कोई आकलन किया गया है। समकालीन कूटनीति में पुराने समझौतों पर नए समझौतों को अधिक प्राथमिकता दी जा रही है।
ब्रिटेन के लिये इस आमंत्रण का महत्त्व
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ब्रिटेन के लिये यह इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन को उच्च विकास दर वाले एशियाई देशों से वाणिज्यिक व व्यापारिक संबंध मज़बूत करना आवश्यक हो गया है।
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भारत वर्ष 2007 से यूरोपीय संघ के साथ व्यापार समझौते की कोशिश कर रहा है, जिसमें मुख्य बाधा ब्रिटेन द्वारा ही पैदा की गई थी। यूरोपीय संघ ऑटो, शराब एवं स्पिरिट पर शुल्क में कटौती के साथ-साथ यह चाहता था कि भारत बैंकिंग एवं बीमा, डाक, कानूनी व लेखा सेवा के अतिरिक्त समुद्र, सुरक्षा तथा खुदरा जैसे वित्तीय क्षेत्रों को खोले, जबकि भारत ने हमेशा की तरह सेवा पेशेवरों के लिये मुफ्त आवागमन की माँग की है।
संबंधों में घनिष्ठता
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भारत और यू.के. के मध्य पर्याप्त जुड़ाव है। ब्रिटेन में भारतीय मूल के पंद्रह लाख लोग रहते हैं। इनमें से 15 संसद सदस्य, तीन कैबिनेट में और दो वित्त व गृह मंत्री के रूप में उच्च पदों पर भी आसीन हैं।
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कोविड-19 से पूर्व प्रतिवर्ष भारत से ब्रिटेन जाने वाले पर्यटकों की संख्या पाँच लाख थी और ब्रिटेन से भारत आने वाले पर्यटकों की संख्या इसकी दोगुनी थी।
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साथ ही, परास्नातक के बाद रोज़गार के प्रतिबंधात्मक अवसरों के बावजूद ब्रिटेन में लगभग 30,000 भारतीय छात्र अध्ययन करते हैं। ब्रिटेन, भारत में शीर्ष निवेशकों में से एक है और भारत, ब्रिटेन में दूसरा सबसे बड़ा निवेशक व एक प्रमुख रोज़गार प्रदाता है।
व्यापार में बाधा
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ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन के साथ व्यापार में बाधा उत्पन्न होगी क्योंकि दोनों देशों का निर्यात प्रोफ़ाइल मुख्य रूप से सेवा-उन्मुख है।
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पेशेवरों के लिये मुक्त आवाजाही के जवाब में ब्रिटेन अप्रवासियों के लिये अपनी नई प्वाइंट-बेस्ड सिस्टम का उपयोग करेगा, जबकि क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी से हटने के बाद भारत किसी भी नए व्यापार समझौते पर बातचीत करने को लेकर सतर्क है और निर्यात के स्रोत तथा मूल्यवर्धन के प्रतिशत से संबंधित पहलुओं पर अधिक से अधिक जोर देगा।
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इसलिये ब्रिटेन के साथ समझौते में संभवतः फार्मास्यूटिकल्स, वित्तीय प्रौद्योगिकी, रसायन, रक्षा उत्पादन, पेट्रोलियम और खाद्य उत्पादों जैसे कुछ क्षेत्रों पर समझौता किया जा सकता है।
निष्कर्ष
पी.एम. मोदी के द्वारा उनके समकक्ष जॉनसन का चुनाव काफी दूरदर्शी कदम है। यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के बीच व्यापार समझौते के बाद इस बात की उम्मीद है कि वर्ष 2024 के चुनाव में वे अपने दल के साथ-साथ देश का भी नेतृत्व कर सकते हैं, जो दोनों देशों के मध्य लम्बे संबंधों के लिये लाभकारी कदम होगा।
सऊदी अरब और क़तर संबंधों में नए आयाम
संदर्भ
हाल ही में, सऊदी अरब के नेतृत्व वाले चार मध्य पूर्वी देशों के गठबंधन ने लगभग तीन वर्षों के बाद क़तर के साथ पूर्ण रूप से संबंधों को बहाल करने का निर्णय लिया है। विदित है कि सऊदी अरब और इसके सहयोगियों ने तीन वर्ष पूर्व क़तर से संबंध समाप्त कर लिये थे।
सऊदी अरब और क़तर
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कट्टरपंथी इस्लामी समूहों के साथ संबंधों के चलते जून 2017 में क़तर के तीन पड़ोसी देशों– सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात व बहरीनके साथ-साथ मिस्र (Egypt) ने क़तर के लिये सभी शिपिंग और हवाई मार्ग को बंद करते हुए इससे सभी कूटनीतिक और आर्थिक सम्बंधों को तोड़ लिया था। ये तीनों देश सऊदी अरब के बड़े सहयोगी माने जाते हैं।
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अरब क्षेत्र में सऊदी अरब के चिर प्रतिद्वंद्वी ईरान के साथ राजनयिक और आर्थिक संबंधों को कम करने के लिये कतर पर दबाव बनाने के उद्देश्य से यह कदम उठाया गया था।
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गठबंधित देशों ने संबंधों को पुन: बहाल करने के लिये 13 माँगें रखीं थी, जिसमें अल जज़ीरा जैसे समाचार आउटलेट को बंद करना, क़तर स्थित तुर्की सैन्य अड्डे को बंद करने के साथ-साथ शिया-बहुलईरान के साथ संबंधों में कमी करना शामिल है।
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इस बीच क़तर ने इन प्रतिबंधों को अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन बताते हुए ईरान और तुर्की के साथ अपने संबंधों को और मज़बूत किया। गल्फ को-ऑपरेशन काउंसिल के सदस्य कुवैत और ओमान ने भी सऊदी समूह के साथ अपने संबंधों में कमी कर दी थी।
क़तर और सऊदी के सम्बंधो में तनाव का कारण
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कतर ने लम्बे समय से अपनी विदेश नीति कोअन्य अरब पड़ोसियों से स्वतंत्र रखने का प्रयास किया है जो उसके क्षेत्रीय अरब पड़ोसियों की प्राथमिकताओं के साथ मेल नहीं खाती है।
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इस नीति में शिया बहुल ईरान के साथ घनिष्ठ आर्थिक और कूटनीतिक संबंध शामिल हैं। ईरान को सुन्नी बहुल सऊदी का एक बड़ा क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी माना जाता है।
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इसके अलावा, क़तर और तुर्की भी एक-दूसरे के सहयोगीरहे हैं। रूस व तुर्की के संबंधों में घनिष्ठता तथा तुर्की व अमेरिका के बीच बढ़ती दूरी का असर सऊदी और तुर्की के सम्बंधों पर भी पड़ा है।
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गौरतलब है कि 6 सदस्यीय ‘खाड़ी सहयोग संगठन’ के अधिकतर कूटनीतिक, रणनीतिक और आर्थिक मामलों की अगुवाई सऊदी अरबकरता है।
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इसी संदर्भ में 5 जून, 2017 को सऊदी अरब, यू.ए.ई. और बहरीन ने क़तर के साथ संबंधों में कटौती करने के साथ-साथ कतर के नागरिकों को 14 दिनों के भीतर देश छोड़ने का निर्देश दिया था। मिस्र ने भी क़तर के साथ कूटनीतिक संपर्क को तोड़ दिया था।
मध्य–पूर्व में क़तर
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पिछले चार दशकों में कतर सबसे गरीब खाड़ी देशों की श्रेणी से निकलकर सबसे धनी देशों की श्रेणी में आ गया है। बड़ी मात्रा में गैस भंडार की उपस्थिति ने क़तर के आर्थिक उभार के साथ-साथ इस क्षेत्र की राजनीति में भी प्रभावी भूमिका निभाने में मदद की। साथ ही, कतर ने वैश्विक मंच पर अपने धन और प्रभाव का व्यापक उपयोग किया है।
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ईरान के साथ कतर एक विशाल गैस क्षेत्र साझा करता है, जो ईरानी शासन के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने का एक कारण है। यह कदम सुन्नी बहुल सऊदी अरब को उत्तेजित करने वाला है, जो मध्य-पूर्व की भू-राजनीति को नियंत्रित करना चाहता है।
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कतर का गाजा के फिलिस्तीनी संगठन हमास, मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड और सीरिया के इस्लामी समूह के लिये समर्थन भी विवाद के प्रमुख कारण हैं। हालाँकि, क़तर ने अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट का समर्थन करने से इनकार किया है।
इस संकट में निर्णायक कदम
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अमेरिका ने सऊदी के नेतृत्व वाले प्रतिबंध का समर्थन करते हुए कतर को ‘आतंक का वित्त पोषक’ कहा था। अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ कतर के करीबी संबंधों और अल-उदीद एयर बेस पर बड़े पैमाने पर अमेरिकी सैन्य सुविधा को देखते हुए यह एक आश्चर्यजनक कदम था। हालाँकि, बाद में अमेरिका के रूख में परिवर्तन देखा गया था।
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इसके अतिरिक्त, लगभग 60 वर्षों की सदस्यता के बादक़तर ने जनवरी 2019 में ‘ओपेक’ की सदस्यता त्याग दी थी। हालाँकि, क़तर ने इस कदम को पूर्ण रूप से व्यापारिक निर्णय बताया था। फिर भी, माना जाता है कि यह निर्णय सऊदी नेतृत्व वाले ओपेक को कमज़ोर करने का एक राजनीतिक प्रयास था।
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कुवैत द्वारा मध्यस्थता के निरंतर प्रयासों और खाड़ी देशों के गठबंधन पर बढ़ते अमेरिकी दबाव के कारण वर्ष 2020 के अंत में इस समस्या के समाधान में सफलता मिली और सऊदी अरब तथा कतर के बीच हवाई क्षेत्र, स्थलीय और समुद्री सीमाएँ खोलने पर सहमति व्यक्त की गई।
वर्ष 2021 में भारत और विश्व
संदर्भ
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पिछले एक वर्ष से भारत समेत पूरा विश्व कोविड -19 महामारी का सामना कर रहा है, जो पूरे विश्व के समक्ष एक चुनौतीपूर्ण मुद्दा रहा। परंतु भारत को महामारी के साथ-साथ पड़ोसी देश, चीन की अक्रामकता का सामना भी करना पड़ा। भारत ने अमेरिका, यूरोपीय संघ, पश्चिमी देशों तथा अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को मज़बूत करने और नए निर्माण की चुनौतियों के साथ वर्ष 2021 में प्रवेश किया है।
इतिहास से सीखने की आवश्यकता
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अप्रैल 1963 में, चीन के साथ 1962 के युद्ध के लगभग 6 माह उपरांत तात्कालिक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने ‘चेंजिंग इंडिया’ नाम से एक लेख लिखा, इसमें उन्होंने स्वीकार किया कि बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए भारत को अपने मित्र देशों के साथ संबंधों को समायोजित करने की आवश्यकता है।
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चीन के संदर्भ में उन्होंने कहा कि चीन विश्वास करने योग्य राष्ट्र नहीं है, जैसा कि वह साबित कर चुका है, तो ऐसे में यह आवश्यक है कि भारत चीन पर अधिक ध्यान दे और अपने सशस्त्र बलों को मज़बूत करे। सशस्त्र बलों को मज़बूत करने के लिये उन्होंने ‘पर्याप्त बाह्य समर्थन’ की आवश्यकता बताई।
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पिछले वर्ष भारत को राजनयिक और सैन्य, दोनों मोर्चों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ा और नया वर्ष भी भारत के समक्ष नई चुनौतियाँ लेकर आया है। वर्तमान में इन चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक करने के लिये नेहरू के कथन से सीख ली जा सकती है।
चुनौतीपूर्ण रहा वर्ष 2020
चीन से मिलने वाली चुनौती
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वर्ष 2013 से राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा लगातार चीन के वैश्विक प्रभाव को मज़बूत किया जा रहा है, अतः चीन ने महामारी को भी एक अवसर के रूप में देखा।
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हालाँकि प्रारंभिक रूप से चीन को कोरोना वायरस के लिये ज़िम्मेदार माना गया, परंतु चीन ने इसे मानने से इनकार कर दिया।
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चीन ने अपनी हरकतों से लगातार इंडो- पैसिफिक क्षेत्र में तनाव बनाए रखा और अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास किया। इसकी हरकतों में वियतनाम की मछुआरों की नाव को रोकना, फिलीपींस के नौसैनिक जहाज़ और एक मलेशियाई तेल ड्रिलिंग ऑपरेशन को प्रभावित करना शामिल हैं।
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साथ ही, इसने व्यापार प्रतिबंधों के माध्यम से ऑस्ट्रेलिया को भी प्रभावित करने की कोशिश की।
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मई 2020 के बाद चीनी सैनिकों ने भारत की सीमा (गलवान घाटी) में अवैध तरीके से प्रवेश किया और वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) की यथास्थिति बदलने का प्रयास किया। साथ ही, इस घटना में 20 भारतीय सैनिक भी शहीद हो गए।
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इसके अतिरिक्त, चीन ने भारत के साथ हुए सभी शांति समझौतों का खुलकर उल्लंघन किया।
ट्रम्प के शासन में अमेरिका
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पिछले 4 वर्षों में अमेरिका डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन के अंतर्गत वैश्विक स्तर पर अनेक नेतृत्वकारी समझौतों से बाहर हुआ।
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अमेरिका ईरान समझौते से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित लगभग एक दर्जन बहुपक्षीय निकायों तथा समझौतों से बाहर हुआ या उन्हें कमज़ोर किया।
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चीन द्वारा अंतरिक्ष पर दावा करने पर, ट्रम्प प्रशासन ने वैश्विक व्यवस्था को बाधित करने के लिये चीन और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना को निशाना बनाया।
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जो बाइडन के राष्ट्रपति के रूप में पदभार संभालने से यह उम्मीद की जा सकती है कि अमेरिका पुनः ट्रम्प द्वारा रिक्त किये गए स्थानों को भरेगा।
तालिबान की स्वीकार्यता
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19 वर्ष पूर्व तालिबान को बाहर करने के लिये अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया था, चूँकि अब तालिबान धीरे –धीरे बाहर हो रहा है तो इसे देखते हुए आखिरकार फरवरी 2020 में अमेरिका ने उनके साथ शांति समझौता कर लिया।
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भारत के लिये, इसका आशय तालिबान के साथ जुड़ने की प्रक्रिया की शुरुआत थी।
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तालिबान या अन्य राजनीतिक ताकतों के अंतर्गत अफगानिस्तान के भविष्य के लिये दीर्घकालिक प्रतिबद्धता को दर्शाते हुए भारत ने इसे 80 मिलियन डॉलर की सहायता प्रदान की है। इसके साथ ही, भारत पिछले दो दशकों में अफगानिस्तान में 3 बिलियन डॉलर की अपनी सहायता प्रतिबद्धताओं को भी पूरा कर चुका है।
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इसका आशय यह है कि भारत भी तालिबान को ही राजनीतिक शक्ति के रूप में देख रहा है। हालाँकि तालिबान मुख्यतः पाकिस्तानी सेना द्वारा नियंत्रित होता है।
पश्चिमी एशिया के समीकरण
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अमेरिका की मध्यस्थता से इज़रायल और चार अरब देशों; यू.ए.ई, बहरीन, मोरक्को तथा सूडान के मध्य पुनः संबंध सामान्य होने से इस पूरे क्षेत्र के परिदृश्य में बदलाव आया है।
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इस्लामी जगत के नेतृत्व को लेकर सऊदी अरब, ईरान तथा तुर्की के बीच प्रतिस्पर्धा जारी है, ऐसे में इज़रायल के साथ संबंधों को सुधारने की मांग बढ़ी है।
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भारत इज़रायल के साथ-साथ सऊदी-यू.ए.ई. और ईरान के साथ संबंधों को मज़बूत करने के लिये दक्ष कूटनीति के साथ आगे बढ़ रहा है।
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हालाँकि भारत को यह भी ध्यान रखना होगा कि देश में ध्रुवीकरण की राजनीति, जैसे- सी.ए.ए. तथा एन.आर.सी. या धार्मिक नीतियों के माध्यम से अपने हितों को प्रभावित न होने दे।
रूस–चीन तालमेल
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पिछले तीन दशकों से रूस -चीन संबंधो में पर्याप्त सुधार देखा गया। वर्ष 2020 में दोनों देशों के संबंध और प्रगाढ़ हुए हैं।
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इस संदर्भ में भारत का यह मानना है कि पश्चिमी देशों के दृष्टिकोण के कारण ही वर्ष 2014 में क्रीमिया के विलय के बाद रूस चीन के अधिक करीब आया।
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अमेरिका की चीन विरोधी बयानबाजी, तेल की गिरती कीमतों तथा चीन के उपभोग पर रूस की बढ़ती निर्भरता के कारण भी दोनों देशों के संबंध मज़बूत हुए हैं।
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भारत के रूस के साथ मज़बूत संबंध हैं, और सीमा गतिरोध पर भारत-चीन के सभी आधिकारिक तथा मंत्रिस्तरीय बैठकों का स्थान मॉस्को ही था।
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हालाँकि, भारत ने क्वाड और इंडो-पैसिफिक पर रूस की स्थिति पर ध्यान दिया है, जो चीन के रवैया के अधिक निकट है।
मुखर पड़ोसी
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भारत की वर्ष 2020 की शुरुआत बांग्लादेश के द्वारा सी.ए.ए तथा एन.आर.सी. का विरोध करने और फिर नेपाल द्वारा कालापानी के क्षेत्र पर दावा करने तथा एक नया नक्शा जारी करने के साथ हुई।
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इसने इस विश्वास को झुठला दिया कि भारत के ये पड़ोसी देश बहुत सरल हैं और किसी भी मुद्दे पर इसका विरोध नहीं करेंगे।
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वर्ष के अंत तक, चीन से सावधान होकर भारत ने दोनों देशों के साथ संबंध सुधारने का प्रयास किया। भारत ने सी.ए.ए. नियमों को अधिसूचित नहीं किया, जिससे बांग्लादेश का रवैया थोड़ा नरम हुआ।
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भारत ने अमेरिका तथा चीन के साथ क्रमशः मालदीव एवं श्रीलंका की संलग्नता को करीब से देखा है। ऐसे में भारत अमेरिका की भागीदारी से मालदीव, श्रीलंका, जापान और मालदीव में शांति बनाए रखने के लिये प्रयासरत है।
आकांक्षी भारत
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वर्ष 2020 में ‘आत्मनिर्भर भारत पहल’ और आर.सी.ई.पी. समझौते से बाहर होने के कारण भारत को व्यापक रूप से ‘अलगाववादी’ और ‘अंतर्मुखी’ माना जा रहा है।
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यद्यपि भारत ने 150 से अधिक देशों में दवाओं और सुरक्षात्मक किटों की आपूर्ति के प्रयास किये, लेकिन यह दुनिया के लिये वैश्विक नेता के रूप में नहीं उभर सका।
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संसाधनों की कमी, संकुचित होती अर्थव्यवस्था और लोक-लुभावन राजनीति ने भारत को एक आकांक्षी राष्ट्र बना दिया है।
2021: चुनौतियाँ और अवसर
चीन का सामने करने के लिये भारत की रणनीति
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भारत की सीमा गतिरोध पर प्रतिक्रिया इस सोच पर आधारित है कि किसी के द्वारा चुनौती प्रस्तुत किये जाने पर भारत द्वारा भी जवाब दिया जाएगा, परंतु इसके लिये आवश्यक है कि भारत अपनी सेना को स्थल, वायु और समुद्र, तीनों क्षेत्रों में तैनात करे।
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इस गतिरोध ने नेहरु के उस विश्वास को भी मज़बूत किया जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘भारत को बाह्य समर्थन की आवश्यकता है’। अतः वर्तमान में भारत को अपना पक्ष मज़बूत करने के लिये फ्रांस, जर्मनी और यू.के. जैसे यूरोपीय देशों के अतिरिक्त अमेरिका, जापान तथा ऑस्ट्रेलिया से निरंतर समर्थन की आवश्यकता होगी।
संयुक्त राष्ट्र में भारत की महत्वाकांक्षाएँ
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इस वर्ष भारत आठवीं बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में गैर-स्थाई सदस्य के रूप में निर्वाचित हुआ है, ऐसे में भारत के समक्ष चीन और शेष विश्व के सामने नेतृत्व प्रदान करने संबंधी अनेक चुनौतियाँ भी विद्यमान हैं।
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भारत को अब उन मुद्दों पर ध्यान देना होगा जिन्हें वह काफी लम्बे समय से टालता आया है, जैसे- तिब्बत-ताइवान मुद्दा, ईरान-सऊदी प्रतिद्वंद्विता तथा बांग्लादेश एवं म्यांमार के बीच शरणार्थी संकट।
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सीमा पार आतंकवाद भारत की प्रमुख चिंता है, इसके लिये आवश्यक है कि भारत पाकिस्तान को विश्व समुदाय से अलग-थलग करने का प्रयास करे।
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पश्चिमी देशों के प्रति भारत का लचीला रुख़ इसके वैश्विक नेता बनने की आकांक्षाओं से प्रभावित कर सकता है।
अमेरिका के साथ संबंध
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भारत-अमेरिका संबंधों की प्रकृति काफी हद तक जो बाइडन प्रशासन से निर्धारित होगी। साथ ही, दोनों देशों के संबंध इस बात पर भी निर्भर करेंगे कि अमेरिका चीन के प्रति कैसा दृष्टिकोण अपनाता है, एक सीमा तक इसका निर्धारण संभावित अमेरिका-चीन व्यापार समझौते से हो जाएगा।
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इसके अतिरिक्त, अमेरिका की क्वाड तथा इंडो-पैसिफिक पर आगामी रणनीति भी भारत-अमेरिका संबंधों को प्रभावित करेगी।
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भारत अमेरिका के साथ रणनीतिक और सामरिक संबंधों को और मज़बूत करने का प्रयास करेगा और साथ ही, वीज़ा तथा व्यापार संबंधी मुद्दों को भी हल करने का प्रयास करेगा।
यूरोप के साथ संबंधों को मज़बूत करना
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गौरतलब है कि यू.के. तथा यूरोपीय संघ के मध्य हाल ही में ट्रेड एंड को-ऑपरेशन एग्रीमेंट (ब्रेक्ज़िट के पश्चात आगे की रणनीति तय करने संबंधी) हुआ है। अतः भारत यू.के. के साथ नए समझौतों के संदर्भ में बातचीत को आगे बढ़ाएगा और यूरोपीय संघ के साथ लंबे समय से लंबित समझौते पर आगे की रणनीति तय करेगा।
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ब्रिटिश पी.एम. बोरिस जॉनसन गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे, किंतु महामारी के कारण उनका आना टल गया है। इससे भारत- यू.के. समझौते के लिये अभी और इंतजार करना होगा।
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इसके अतिरिक्त, मई में भारत-यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन होने की भी संभावना है।
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फ्रांस तथा जर्मनी पहले से ही भारत-प्रशांत रणनीति में भारत के साथ हैं और इनके द्वारा भविष्य में भारत के साथ एक सशक्त यूरोपीय रणनीति निर्माण की संभावना है, लेकिन ‘यूरोपीय संघ-चीन व्यापार समझौता’ भारतीय रणनीति को प्रभावित कर सकता है।
पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को मज़बूत करना
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भारत के पड़ोस में चीन का बढ़ता आर्थिक प्रभाव चिंता का मुख्य विषय है, हालाँकि चीन का प्रभाव नेपाल पर अभी सीमित ही है। भारत को शेष उपमहाद्वीप में चीन के प्रभाव को सीमित करने की दिशा में प्रयास करने होंगे।
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ईरान में भी चीन की नीतियों को बारीकी से देखा गया था और इस वर्ष ईरान में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं, ऐसे में भारत के समक्ष पर्याप्त अवसर है कि वह ईरान के साथ संबंधों को मज़बूत करने पर बल दे।
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नेपाल की राजनीतिक स्थिति में लगातार उतार-चढ़ाव बना हुआ है, जो कि चिंता का विषय है।
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पिछले कुछ वर्षों में लगभग हर दक्षिण एशियाई देश में चुनाव हुए हैं। इसका मतलब है कि इन देशों में सरकारें स्थिर हैं, जिससे भारत के सामने इन देशों के साथ बातचीत के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं।
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वर्ष 2021 में महामारी से उभरने में भारत पड़ोसी देशों में मुफ्त या कम कीमतों पर वैक्सीन की आपूर्ति करके ‘वैक्सीन कूटनीति’ से बहुत कुछ हासिल कर सकता है।
निष्कर्ष
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भारत ने लंबे समय से एक वैश्विक शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा के साथ एक उभरती हुई शक्ति के रूप में अपनी भूमिका निभाई है।
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नए वर्ष में भारत के पास अवसर है कि वह एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभरे न कि एक आकांक्षी देश की तरह व्यव्हार करे।
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वर्ष 2021 में, भारत ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा और वर्ष 2023 में G-20 शिखर सम्मेलन के लिये अपनी तैयारी शुरू करेगा।
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भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मेलन, जो 2020 में आयोजित नहीं हो सका था, इसके भी वर्ष 2021 या बाद में आयोजित होने कि संभावना है। ऐसे में भारत के पास विभिन्न मुद्दों पर मुखर होकर, अपने हितों को आगे बढ़ाने के पर्याप्त अवसर हैं।
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इस प्रकार, नए वर्ष में भारत उपरोक्त अवसरों के अनुसार बेहतर रणनीति बनाकर आगे बढ़ सकता है।
समुद्री अधिकार क्षेत्र जागरूकता में भारत के बढ़ते प्रयास
संदर्भ
वर्तमान में किसी देश के लिये स्थल के साथ-साथ समुद्री क्षेत्र भी विशेष सामरिक महत्त्व रखते हैं। भारत लगातार समुद्री अधिकार-क्षेत्र को बढ़ाने के लिये निगरानी तंत्र को मज़बूत करने का प्रयास कर रहा है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती गतिविधियों के कारण यह और भी आवश्यक हो गया है कि भारत समुद्री क्षेत्र में अपने सुरक्षा-प्रबंधन को मज़बूत करे।
समुद्री क्षेत्र की चुनौतियाँ
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आधुनिक समय में समुद्री क्षेत्र के खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। इन खतरों में आतंकवादियों का समुद्री मार्ग से किसी देश की सीमा में घुसना, अपराधियों द्वारा भागने के लिये समुद्री मार्गों का उपयोग करना और समुद्री डाकुओं तथा लुटेरों के हमले शामिल हैं।
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अनेक बार इन आतंकवादियों, अपराधियों तथा लुटेरों की पहचान संभव नहीं हो पाती, क्योंकि ये लोग मछुआरों तथा बंदरगाह- श्रमिकों की आड़ में स्वयं को छिपा लेते हैं।
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इन चुनौतियों से निपटने के लिये कानून प्रवर्तन एजेंसियों को वास्तविक समय पर आधारित जानकारी को साझा करने तथा संदिग्ध गतिविधियों को ट्रैक करने के लिये प्रयुक्त होने वाले उच्च-श्रेणी के सेंसर और संचार नेटवर्क का उपयोग करते समय विशेष सतर्कता बरतने की आवश्यकता है।
भारत के प्रयास
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भारतीय नौसेना थोड़ा विलम्ब से ही सही पर अब हिंद महासागर में अधिकार-क्षेत्र के संदर्भ में जागरूकता बढ़ाने के प्रयास कर रही है।
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§भारतीय नौसेना मालदीव, म्यांमार और बांग्लादेश में रडार स्टेशन स्थापित करके समुद्री क्षेत्र में निगरानी तंत्र में विस्तार करने की दिशा में कार्य रही है। मॉरीशस, सेशेल्स तथा श्रीलंका में पहले से ही व्यापक तटीय रडार शृंखला नेटवर्क स्थापित किये जा चुके हैं।
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भारतीय नौसेना पूर्वी हिंद महासागर, विशेषकर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के आस-पास के क्षेत्रों में चीन की गतिविधियों पर विशेष नजर रख रही है।
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जून 2020 में, उत्तरी लद्दाख के गलवान में भारतीय सेना और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की आपसी भिड़ंत के बाद पूर्वी समुद्री क्षेत्र में चीन की उपस्थिति को ध्यान में रखते हुए भारतीय रणनीतिकार विशेष सावधानी अपना रहे हैं।
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हाल के महीनों में, भारत ने ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी’ (PLAN) की पनडुब्बियों की निगरानी के लिये के P-8I विमान को तैनात किया है और भारतीय नौसैनिक जहाजों ने चीन द्वारा किसी भी सामुद्रिक गतिविधि को रोकने के लिये अंडमान सागर तथा पूर्वी चोकपाइंट्स पर गश्त की है।
पड़ोसी देशों के साथ भारत का तालमेल
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समुद्री डोमेन जागरूकता को बढ़ाने के लिये पड़ोसी देशों के साथ सहयोगपूर्ण तालमेल होना आवश्यक है। एक जानकारी के अनुसार हिंद महासागरीय देश; बांग्लादेश, म्यांमार, इंडोनेशिया, श्रीलंका, मालदीव, मॉरीशस और सेशेल्स जल्द ही गुरुग्राम में स्थित ‘हिंद महासागर क्षेत्र के लिये सूचना संलयन केंद्र’ (IFC-IOR) में संपर्क अधिकारी नियुक्त करेंगे।
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फ्रांस पहले से ही आई.एफ.सी. के साथ सूचनाओं को साझा करता है और चार अन्य हिंद-प्रशांत देश; ऑस्ट्रेलिया, जापान, यूके तथा अमेरिका भी इस केंद्र के साथ सूचनाएँ साझा करने पर सहमत हुए हैं। इस प्रकार, आई.एफ.सी. पूर्वी हिंद महासागर में प्रमुख सूचना केंद्र के रूप में उभर रहा है।
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भारत पश्चिमी हिंद महासागर के मेडागास्कर में क्षेत्रीय समुद्री सूचना संलयन केंद्र (RMIFC) में भी स्थिति को मज़बूत कर रहा है। हिंद महासागर आयोग के तत्त्वावधान में स्थापित आर.एम.आई.एफ.सी. (RMIFC) में भारत, हाल ही में एक ‘पर्यवेक्षक’ के रूप में शामिल हुआ।
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भारत ने फारस की खाड़ी और होर्मुज की जलसंधि में समुद्री गतिविधियों की निगरानी में सहायता के लिये ‘यूरोपियन मेरीटाइम अवेयरनेस इन द स्ट्रेट ऑफ होर्मुज’ (EMASOH), अबूधाबी में एक अधिकारी भी तैनात किया है।
फ्रांस के साथ सामंजस्य
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पश्चिमी एवं दक्षिण पश्चिमी क्षेत्रों में भारत की पहुँच को आसान बनाने में फ्रांस ने सहयोग किया। फ्रांस हिंद महासागर की प्रमुख शक्ति और इस क्षेत्र में भारत का महत्त्वपूर्ण भागीदार है।
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वर्ष 2019 में भारत के साथ लॉजिस्टिक्स समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद फ्रांस समुद्री कॉमन्स में एक मज़बूत साझेदारी बनने के लिये उत्सुक है।
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फ्रांस ने हिंद महासागर आयोग में ‘पर्यवेक्षक’ का दर्जा हासिल करने में भारत का सहयोग किया है और वह पश्चिमी हिंद महासागर में सुरक्षा पहल में भारतीय भागीदारी को बढ़ावा देने पर भी बल दे रहा है।
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हालाँकि, परिचालन के दृष्टिकोण से, भारतीय नौसेना की प्राथमिकता दक्षिण एशिया बनी हुई है, जहाँ नौसेना का नेतृत्व पूर्वी हिंद महासागर में पानी के नीचे डोमेन जागरूकता पर केंद्रित है।
चीन की बढ़ती उपस्थिति से उत्पन्न चिंताएँ
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चीन की समुद्री क्षेत्र में बढ़ती उपस्थिति भारत के लिये चिंताजनक है। भारत की विशेष चिंता यह भी है कि चीन की पी.एल.ए.एन. क्वाइटर (आवाज़ उत्पन्न न करने वाली) पनडुब्बियों की एक पीढ़ी विकसित कर रही है जिनका पता लगाना कठिन होता है।
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परिणामस्वरूप, भारत पूर्वी चोकपॉइंट्स में अपनी जल के अंदर की क्षमताओं का विस्तार कर रहा है।
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साथ ही, संवेदनशील समुद्री स्थानों पर निगरानी बढ़ाने के लिये, भारतीय नौसेना ने अमेरिका से लीज़ पर दो समुद्री गार्डियन ड्रोन भी शामिल किये हैं।
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इसके अतिरिक्त, भारत चीन की पनडुब्बियों का पता लगाने के लिये जापान के सहयोग से अंडमान द्वीप समूह के निकट जल के अंदर सेंसर तकनीक स्थापित करने पर विचार कर रहा है
आगे की रणनीति
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समुद्री अधिकार क्षेत्र में भारत की पहल रणनीतिक विचारों से अधिक से प्रेरित है। हालाँकि भारत ने समुद्री क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय अपराधों से निपटने के लिये अपने भागीदारों को पहचाना है।
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हिंद महासागर क्षेत्र में 21 देशों के साथ नौवहन समझौतों ने मेरीटाइम ट्रैफिक की एक व्यापक तस्वीर प्रस्तुत की है।
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भारत का सैन्य उपग्रह (GSAT-7A) शीघ्र ही साझेदार राष्ट्रों के साथ समुद्री जानकारी साझा करने की सुविधा प्रदान कर सकता है।
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भारत के ये सभी प्रयास सागर (Security and Growth for All in the Region) की अभिव्यक्ति को प्रदर्शित करते हैं, जो भारत के विचार को सुरक्षा प्रदाता और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में पसंदीदा भागीदार के रूप में स्थापित करता है।
निष्कर्ष
हालाँकि, भारतीय पहलें क्षेत्रीय तटवर्ती राष्ट्रों के उद्देश्यों और रणनीतियों के संरेखण के बारे में बताती हैं। चूँकि सहकारी जानकारी के साझाकरण से गंभीर चुनौतियाँ उत्पन्न होने का खतरा भी बना रहता है, परिणामस्वरूप अनेक राष्ट्र महत्त्वपूर्ण जानकारी को समय पर साझा नहीं करते हैं। अतः समुद्री अधिकार क्षेत्र में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिये यह आवश्यक है कि भारत निर्बाध सूचना प्रवाह को सुनिश्चित करे। इसके लिये भारत को भागीदार राष्ट्रों के साथ परिचालन संबंधी तालमेल स्थापित करना होगा और साझा हितों के लिये सयुंक्त प्रयासों का विस्तार करना होगा।
हिंद महासागर क्षेत्र के लिये सूचना संलयन केंद्र (IFC-IOR)
सागर (Security and Growth for All in the Region)
हिंद महासागर आयोग
क्षेत्रीय समुद्री सूचना संलयन केंद्र (RMIFC)
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राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण : प्रमुख निष्कर्ष
संदर्भ
हाल ही में जारी पाँचवें दौर के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) में कोविड से पहले के सूक्ष्म विकास प्रदर्शन के कुछ आयामों की जानकारी दी गई है। प्रथम चरण में केवल 17 राज्यों और 5 केंद्रशासित प्रदेशों के आँकड़े शामिल हैं। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और तमिलनाडु आदि बड़े प्रदेशों के आँकड़े इनमें शामिल नहीं हैं।
प्रमुख बिंदु
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सर्वेक्षण में जनसंख्या, स्वास्थ्य, परिवार नियोजन और पोषण से जुड़े विभिन्न संकेतकों पर जानकारी एकत्र करने के लिये घरेलू स्तर पर साक्षात्कार लिये गए हैं।
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वर्ष 205-16 में जारी किये गए चौथे दौर के आँकड़ों की तुलना में इस बार वैक्सीन की आपूर्ति में काफी वृद्धि देखी गयी है।
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पहले चरण में 17 राज्यों और 5 केंद्रशासित प्रदेशों (असम, बिहार, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा, आंध्र प्रदेश, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, मिजोरम, केरल, लक्षद्वीप, दादर एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव) के परिणामों को जारी किया गया है।
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शेष 12 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों से जुड़े आँकड़ों को दूसरे चरण में जारी किया जाएगा। कोविड-19 महामारी के कारण इन राज्यों में सर्वेक्षण रोक दिया गया था। सर्वेक्षण पुनः शुरू किया गया है और इसके मई 2021 तक पूरा होने की उम्मीद है।
आँकड़ों का समायोजन
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एन.एफ.एच.एस. में बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण से संबंधित 42 संकेतक को शामिल किया गया है।
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ये संकेतक नौ श्रेणियों में विभाजित हैं और इन्हें प्रयासों एवं परिणामों (inputs एंड outcomes) के आधार पर विभाजित किया गया है। जैसे नवजात, शिशु तथा 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर और विभिन्न पोषण संकेतकों (न्यूट्रीशन इंडिकेटर्स) को परिणामों के रूप में विभाजित किया गया है तथा स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा प्रसवोत्तर देखभाल के संकेतकों (Post-natal care indicators) और बच्चों के भरण पोषण आदि को प्रयासों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
सर्वेक्षण के प्रमुख निष्कर्ष
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रिपोर्ट के अनुसार पहले चरण वाले राज्यों में प्रजनन दर में गिरावट आई है एवं गर्भनिरोधकों के प्रयोग में बढ़ोतरी हुई है।
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सर्वेक्षण में सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में 12 से 23 महीने के बच्चों के टीकाकरण कवरेज में सुधार देखा गया है। शिशु तथा 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर (IMR) में कमी देखी गई है तथा एन.एफ.एच.एस.-4 (2015-16) की तुलना में इस चरण में 15 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में नवजात मृत्यु दर (NMR) में भी कमी देखी गई है।
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राज्यों की व्यक्तिगत कार्यान्वयन क्षमता ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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सेक्टर-विशिष्ट कारकों जैसे बदलते आहार आदि की भी भूमिका महत्त्वपूर्ण रही।
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बच्चों के स्वास्थ्य से संबंधित कई परिणाम राज्य-स्तरीय कार्यान्वयन द्वारा निर्धारित किये जाते हैं, इसलिये अकेले राज्य या केंद्र को सफलता या असफलता के लिये ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता
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यह समस्या पोषण से सम्बंधित कुछ पहलुओं को ही हल करने के दृष्टिकोण का परिणाम है। पूरक पोषण (अच्छी गुणवत्ता के अंडे, फल, आदि), संवृद्धि व विकास की उचित निगरानी जैसे प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के साथ-साथ समेकित बाल विकास योजना एवं स्कूलों में दिये जाने वाले भोजन के माध्यम से खाद्य व्यवहार में परिवर्तन करने और इन्हें अधिक संसाधन प्रदान किये जाने की आवश्यकता है।
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सार्वभौमिक मातृत्व लाभ (Universal Maternity Entitlements) और बाल देखभाल जैसी सेवाओं के माध्यम से विशेष स्तनपान, शिशु एवं छोटे बच्चों को उचित आहार प्रदान करने के साथ-साथ महिलाओं के अवैतनिक कार्य को मान्यता देने के मुद्दे पर भी प्रगति किये जाने की आवश्यकता है।
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खाद्य पदार्थों के उत्पादन में पोषण युक्त कृषि प्रणाली को विकसित करने की आवश्यकता है।
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कुल मिलाकर मुख्य मुद्दा यह है कि कुपोषण के मूल निर्धारकों को लम्बे समय तक नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है। इन निर्धारकों में घरेलू खाद्य सुरक्षा, बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच और न्यायसंगत लैंगिक समानता शामिल हैं।
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साथ ही, एक रोज़गार केंद्रित विकास रणनीति भी अनिवार्य है जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य और सामाजिक सुरक्षा के लिये बुनियादी सेवाओं का सार्वभौमिक प्रावधान शामिल हो।
आगे की राह
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जैसा कि 2015-16 के आर्थिक सर्वेक्षण के अध्याय 5 में चर्चा की गई है, सरकार को बड़ी कल्याण पहल के रूप में नवजात बच्चों (और उनकी माताओं) के गर्भ से लेकर पाँच वर्ष की आयु होने तक देखभाल पर ध्यान देना होगा।
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बाल कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिये न केवल प्रत्यक्ष कार्यक्रम बल्कि देश में प्रारम्भ किये गए आर्थिक विकास के समग्र मॉडल पर भी गम्भीर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। साथ ही, कुपोषण की चिंताजनक स्थिति इसे दूर करने की दिशा में प्रतिबद्धता और प्राथमिकता के साथ-साथ तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता को इंगित करती है।
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उपक्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग : भारत का उभरता दृष्टिकोण
संदर्भ
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हाल ही में, भारत, श्रीलंका और मालदीव के बीच त्रिपक्षीय वार्ता संपन्न हुई जिसमें तीनों देशों के बीच समुद्री क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने को लेकर एक वृहत उपक्षेत्रीय परियोजना पर भी गहन विमर्श हुआ। ध्यातव्य है कि श्रीलंका और मालदीव दो ऐसे देश हैं, जिनसे भारत की समुद्री सीमा जुड़ी हुई है अतः तीनों देशों की सुरक्षा चिंताएँ भी आपस में जुड़ी हुई हैं।
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यह देखा जा रहा है कि सुरक्षा से जुड़े मामलों में उपक्षेत्रीय दृष्टिकोण से भारत को अपने पड़ोसियों के साथ बेहतर सुरक्षा सहयोग को लेकर नए प्रयोग करने का अवसर मिल रहा है।
प्रमुख बिंदु
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समुद्री सुरक्षा सहयोग को लेकर भारत-श्रीलंका-मालदीव के बीच राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) स्तर की बातचीत को समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में बड़ा कदम माना जा रहा है। ये बातचीत हाल ही में कोलंबो में हुई।
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वार्ता के बाद प्रेस को जारी साझा बयान में इस बात को रेखांकित किया गया है कि तीनों देश ‘साझा हितों’ और आतंकवाद, उग्रवाद, नशीले पदार्थों, हथियार और मानव तस्करी जैसे ‘साझा सुरक्षा खतरों’ से निपटने के लिये अपने सहयोग का ‘दायरा और बढ़ाने’ पर सहमत हुए हैं।
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बयान में यह भी स्पष्ट किया गया है कि त्रिपक्षीय वार्ताओं से तीनों देशों के बीच क्षेत्र में सामुद्रिक सुरक्षा के विषय पर ‘करीबी सहयोग’ बढ़ाने में मदद मिली है।
पृष्ठभूमि
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एन.एस.ए-स्तर की पहली त्रिपक्षीय वार्ता माले (मालदीव) में वर्ष 2011 में हुई थी।
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वर्ष 2012 में भारत और मालदीव के कोस्ट गार्ड्स के साझा अभ्यास, जिसे ‘दोस्ती’ का नाम दिया गया, का दायरा बढ़ाकर उसमें श्रीलंका को भी शामिल किया गया।
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एन.एस.ए-स्तर की दूसरी त्रिपक्षीय वार्ता वर्ष 2013 में कोलंबो में हुईं। इसमें समुद्री सुरक्षा के विषय पर सहयोग के एक रोडमैप को स्वीकृति दी गई।
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एन.एस.ए. स्तर की तीसरी बातचीत वर्ष 2014 में दिल्ली में हुई। इस वार्ता में मॉरिशस और सेशेल्स को ‘अतिथि देश’ के रूप में शामिल किया गया।
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कोलंबो में हुई चौथी त्रिपक्षीय बैठक में मॉरिशस और सेशेल्स ने भी में वर्चुअल माध्यमों के ज़रिए हिस्सा लिया।
उपक्षेत्रीय नीति पर कारकों का असर
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अपने आस-पड़ोस में सुरक्षा सहयोग को लेकर भारत की उपक्षेत्रीय नीति पर कई कारकों का प्रभाव पड़ता है।
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पहला, इस उपक्षेत्र की सुरक्षा गतिविधियाँ पड़ोसी देशों के साथ आपस में जुड़ी हुई हैं अतः द्विपक्षीय मामलों के पार जाकर इसे समग्र रूप से देखे जाने की ज़रूरत है। क्षेत्रीय सुरक्षा हित, देशों को आपस में जोड़े हुए हैं और क्षेत्र के देशों के लिये यही चुनौती है कि वो किस तरह खुद को सुरक्षित रखते हुए आपसी सुरक्षा खतरों से निपट सकें।
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दूसरा, अपने आस-पड़ोस की सुरक्षा सुनिश्चित करने के मामले में खुद को एक बड़ी भूमिका में देखने की इच्छा। इस हसरत के पीछे एक भूसामरिक गुणा-भाग भी है। भारत का नज़रिया ये है कि अगर वह अपने आस-पड़ोस की सुरक्षा के मामले में अपनी अहम भूमिका नहीं निभाएगा तो इससे दूसरी प्रतिस्पर्धी ताकतों के लिये भारत के पड़ोस में दखल देने के मौके खुल जाएंगे। उपक्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग के विचार को प्रभावी बनाने के मकसद से भारत को कुछ अन्य बातों पर भी ध्यान देना होगा।
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भारत का नज़रिया है कि अगर वह अपने आस-पड़ोस की सुरक्षा के मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाएगा तो इससे दूसरी प्रतिस्पर्धी ताकतों के लिये भारत के पड़ोस में दखल देने के मौके खुल जाएंगे, चीन का उदाहरण द्रष्टव्य है।
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उपक्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग के रास्ते में भारत के छोटे पड़ोसी देशों का विदेश नीति को लेकर आश्चर्यजनक व्यवहार भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। उदाहरण के तौर पर, जिस समय राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के नेतृत्व वाली मालदीव की सरकार के साथ भारत के रिश्तों में खटास आ गई थी उस वक्त एन.एस.ए-स्तर की त्रिपक्षीय वार्ता भी प्रभावित हुई थी।
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उपक्षेत्रीय सहयोग को द्विपक्षीय राजनीतिक संबंधों से पूरी तरह से अलग नहीं किया जा सकता। ऐसे में पड़ोसी देशों से बेहतर द्विपक्षीय रिश्ते बरकरार रखना बेहद ज़रूरी हो जाता है। साथ ही, भारत को अपने छोटे पड़ोसी देशों की आकांक्षाओं के प्रति भी सजग रहना होगा।
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सुरक्षा सहयोग के पारंपरिक और गैर-पारंपरिक तरीकों के प्रति इन देशों के रुख में थोडा अंतर देखने को मिलता है। ज़्यादातर छोटे पड़ोसी देशों को उपक्षेत्रीय स्तर पर भारत के साथ ठोस सैन्य सहयोग का रास्ता चुनने की बजाए सुरक्षा के गैर-परंपरागत सहयोग वाले रास्ते पर चलना ज़्यादा सुविधाजनक लगता है।
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इन देशों की चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाकर और उन्हें उनका उचित स्थान देकर भारत आपसी विश्वास के माहौल में और गर्मजोशी भरने में कामयाब होगा। बड़े और छोटे पड़ोसी देशों के बीच के संबंधों में इस प्रकार की समझदारी दिखाना आवश्यक हो जाता है।
संयुक्त राष्ट्र में भारत
संदर्भ
हाल ही में, भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यू.एन.एस.सी.) में अस्थायी सदस्य के रूप में प्रवेश किया है। भारत अगले दो वर्ष तक इसका सदस्य रहेगा। ऐसे समय में जब अमेरिकी नेतृत्व एक अराजक परिवर्तन से गुजर रहा है और चीन वैश्विक शक्ति बनने के लिये प्रयासरत है तथा पाकिस्तान, कश्मीर व भारत में मानवाधिकार के मुद्दे को उठाने के लिये प्रयत्नशील है, भारत का अस्थायी सदस्य बनना कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है।
यू.एन.एस.सी. में भारत
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भारत अब तक सात बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य रह चुका है। वर्ष 1950-51 में भारत ने यू.एन.एस.सी. के अध्यक्ष के रूप में कोरियाई युद्ध को समाप्त करने और कोरिया गणराज्य की सहायता के लिये प्रस्तावों को अपनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
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वर्ष 1967-68 में भारत ने साइप्रस में संयुक्त राष्ट्र मिशन के शासनाधिकारों में वृद्धि के लिये संकल्प 238 को संयुक्त रूप से प्रस्तावित किया था।
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वर्ष 1972-73 में भारत ने बांग्लादेश को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश दिलाने के लिये मज़बूत प्रयास किया था। हालाँकि, एक स्थायी सदस्य द्वारा वीटो के कारण इस संकल्प को नहीं अपनाया गया था।
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वर्ष 1977-78 में भारत ने यू.एन.एस.सी. में अफ्रीका के प्रवेश व प्रतिनिधित्त्व के साथ-साथ रंगभेद (Apartheid) के खिलाफ तीखी आवाज उठाई थी। तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी ने वर्ष 1978 में नामीबिया की स्वतंत्रता की बात यू.एन.एस.सी. में कही थी।
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वर्ष 1984-85 में भारत ने मध्य पूर्व में, विशेषकर फिलिस्तीन और लेबनान में, संघर्षों के शांतिपूर्ण समाधान के लिये यू.एन.एस.सी. में अग्रणी आवाज थी।
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वर्ष 1991-92 में प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव ने पहली बार यू.एन.एस.सी. की शिखर-स्तरीय बैठक में भाग लिया तथा शांति व सुरक्षा बनाए रखने में भारत की भूमिका पर बात की थी।
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वर्ष 2011-2012 में भारत ने शांति की स्थापना एवं आतंकवाद रोकने के प्रयासों के साथ-साथ विकासशील देशों और अफ्रीका के लिये अपना स्वर मुखर किया था। यू.एन.एस.सी. में भारत की अध्यक्षता में ही सीरिया पर पहला बयान दिया गया था।
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वर्ष 2011-12 के कार्यकाल के दौरान भारत ने आतंकवाद के रोकथाम से संबंधित ‘यू.एन.एस.सी. 1373 समिति’, आतंकवादी गतिविधियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा के लिये खतरे से संबंधित ‘1566 कार्य दल’ और सोमालिया व इरिट्रिया से संबंधित ‘सुरक्षा परिषद 751/1907 समिति’ की अध्यक्षता की।
अन्य गतिविधियों में भारत की भूमिका
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भारत ने अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा से जुड़े सभी मुद्दों पर सक्रिय भूमिका निभाई है। इनमें कई नई चुनौतियों सहित यू.एन.एस.सी. द्वारा अफ़गानिस्तान, आइवरी कोस्ट, इराक, लीबिया, दक्षिण सूडान, सीरिया और यमन के लिये किये गए प्रयास शामिल हैं।
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साथ ही, भारत ने सोमालियाई तट पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व सुरक्षा के लिये समुद्री डाकुओं के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा दिया है। भारत की पहल पर सुरक्षा परिषद ने समुद्री लुटेरों द्वारा बंधक बनाए गए लोगों को रिहा करने और इन कृत्यों को करने वालों के साथ-साथ इसका समर्थन करने वालों पर मुकदमा चलाने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को अनिवार्य कर दिया है।
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भारत ने आतंकवाद के रोकथाम में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने, नॉन-स्टेट एक्टर्स तक सामूहिक विनाश के हथियारों के प्रसार को रोकने और संयुक्त राष्ट्र के शांति स्थापना व शांति निर्माण के प्रयासों को मजबूत करने के लिये भी काम किया है।
यू.एन.एस.सी. के भीतर की राजनीति
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पिछले सात कार्यकालों से भारतीय राजनयिकों को यह अनुभव हो गया है कि बहुपक्षीय स्थिति में कूटनीति का संचालन कैसे किया जाता है।
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वर्ष 1991-1992 में यू.एन.एस.सी. के कार्यकाल के दौरान भारत के स्थाई प्रतिनिधि रहे चिन्मय आर. के अनुसार, स्थायी सदस्य यह चाहते है कि अस्थायी सदस्य उनके सहयोगी की भूमिका में रहे और प्रमुख प्रस्तावों के मामले में उनका अपना कोई मत न हो।
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अधिकांश अस्थायी सदस्य P-5 सदस्यों से प्रभावित होते हैं और उनके निर्णयों के विरुद्ध नहीं जाना चाहते हैं तथा उनके सहयोगी बने रहना चाहते हैं। इस प्रकार, अस्थायी सदस्यों के व्यवहार को नियंत्रित किया जाता हैं।
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इससे संबंधित मामलों में भारत ने अपने कार्य को अधिक गंभीरता से लिया है, जिसके फलस्वरूप भारत को अपनी लड़ाई अकेले लड़नी पड़ी है। उस समय खाड़ी युद्ध भड़क गया था और भारत ने अप्रैल 1991 में अमेरिका द्वारा प्रायोजित प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था।
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भारत के इस मत का निर्धारण व्यावहारिक विचारों द्वारा किया गया था। अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया था कि इस प्रस्ताव का समर्थन न करने से अमेरिका के लिये विश्व बैंक और आई.एम.एफ. में भारत की मदद करना बहुत मुश्किल होगा।
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विदित है कि भारत उस समय भुगतान संतुलन के गंभीर संकट का सामना कर रहा था और भारत को इन संगठनों से धन की आवश्यकता थी। साथ ही, भारत को कश्मीर मुद्दे पर भी अमेरिका की जरूरत थी।
भारत के समक्ष प्रमुख मुद्दे
संयुक्त राष्ट्र में सुधार (U.N. REFORMS) :
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भारत ने कहा है कि स्थायी और अस्थायी दोनों श्रेणियों में सुरक्षा परिषद का विस्तार आवश्यक है। साथ ही, भारत सभी प्रकार के मानदंडों के अनुसार भी यू.एन.एस.सी. की स्थायी सदस्यता के लिये उपयुक्त है।
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इन मानदंडों में जनसंख्या, प्रादेशिक आकार, जी.डी.पी, आर्थिक क्षमता, सभ्यता की विरासत, सांस्कृतिक विविधता, राजनीतिक प्रणाली के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों में अतीत एवं वर्तमान योगदान (विशेषकर संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों के लिये) शामिल हैं।
आतंकवाद :
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आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय प्रयास संयुक्त राष्ट्र में भारत की एक प्रमुख प्राथमिकता है। आतंकवाद से निपटने के लिये एक कानूनी ढाँचा प्रदान करने के उद्देश्य से भारत ने वर्ष 1996 में ‘अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर एक व्यापक अभिसमय’ (CCIT) का मसौदा तैयार करने की पहल की थी।
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संयुक्त राष्ट्र महासभा की 6वीं समिति में इस अभिसमय के एक विषय पर बातचीत जारी है।
चीन की चुनौती
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भारत ऐसे समय में यू.एन.एस.सी. में प्रवेश कर रहा है जब चीन वैश्विक स्तर पर पहले से कहीं अधिक आक्रामक है और स्वयं को वैश्विक शक्ति साबित करने में संलग्न है। वर्तमान में चीन कम से कम छह संयुक्त राष्ट्र संगठनों का प्रमुख है और कई बार वैश्विक नियमों को चुनौती भी दे चुका है।
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चीन ने यू.एन.एस.सी. में कश्मीर का भी मुद्दा उठाने की कोशिश की है, जिसके जवाब में भारत के रणनीतिक समुदायों के बीच यू.एन.एस.सी. में ताइवान, हांगकांग और तिब्बत के मुद्दों को उठाने पर कुछ चर्चाएँ हुईं हैं।
निष्कर्ष
हिंद-प्रशांत के साथ-साथ भारत-चीन सीमा पर पूरे वर्ष चीन का आक्रामक व्यवहार देखा गया है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसका मुकाबला करने के लिये भारत को स्वतंत्र तरीके से सोचने की आवश्यकता है। साथ ही, भारत के अंदर ध्रुवीकरण की राजनीति उसके प्रतिद्वंद्वियों को मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर आलोचना का अवसर प्रदान करती है। विदेश और सुरक्षा नीति की वास्तविक दुनिया में निर्णयकर्ताओं को कई ऐसे विकल्पों का सामना करना पड़ता है, जो समस्याग्रस्त होने के साथ-साथ जोखिम से भरे होते हैं।
प्रिलिम्स फैक्ट्स :
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सार्क को नई संजीवनी प्रदान करना
संदर्भ
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अपनी स्थापना के छत्तीस साल बाद, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन, दक्षेस (SAARC) अब निर्जीव सा प्रतीत हो रहा है। वर्ष 2020 लगातार छठा वर्ष था जब सभी दक्षेस देशों के नेताओं ने एकसाथ किसी बैठक में भाग नहीं लिया।
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स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाय जा सकता है कि दक्षेस चार्टर दिवस (8 दिसम्बर) के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री ने पुनः इस बात पर ज़ोर दिया कि भारत का पाकिस्तान के खिलाफ रुख वही रहेगा जो पूर्व में था।
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ध्यातव्य है कि इसी रुख के चलते भारत ने वर्ष 2016 में इस्लामाबाद में हुए शिखर सम्मलेन में भाग लेने से मना कर दिया था।
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इससे यह बात स्पष्ट होती है कि निकट भविष्य में इस तरह की किसी भी बैठक या सम्मेलन के विधिपूर्वक होने की संभावना नगण्य है।
आशंका के बादल
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विगत एक वर्ष में, भारत-पाकिस्तान के मुद्दों ने विभिन्न स्तरों पर दक्षेस की बैठकों को प्रभावित किया है, जिससे न सिर्फ सदस्य देशों बल्कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों को भी सामूहिक रूप से काम करने के बजाय अलग अलग समूहों में कार्य करना पड़ रहा है।
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हालाँकि, वर्ष 2020 की घटनाओं, विशेष रूप से नॉवेल कोरोनोवायरस महामारी और वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर चीन की आक्रामकता ने नए समीकरणों को जन्म दिया है अतः ऐसा हो सकता है कि दक्षेस या स्थनीय सहयोग के लिये भारत, पकिस्तान के मुद्दे पर अपना रुख थोड़ा नम्र करे।
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आतंकवाद, भारतीय क्षेत्रों पर पकिस्तान के दावों और व्यापार से जुड़ी दक्षेस की विभिन्न पहलों को रोकने में पकिस्तान की संलिप्तता और भारत की समस्याएँ सर्वविदित हैं।किंतु फिर भी इन सभी समस्याओं के कारण पकिस्तान को किसी भी दक्षेस बैठक की मेजबानी करने से रोकना परोक्ष रूप से पाकिस्तान को वीटो देने के समान है।
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भारत का यह पूर्वाग्रह हैरान करने वाला है क्योंकि इस दौरान भारत के प्रधानमंत्री एवं अन्य कैबिनेट मंत्री अपने पाकिस्तानी समकक्षों के साथ शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की विभिन्न बैठकों में शामिल होते रहे हैं , जिनमें नवंबर में SCO प्रमुखों की बैठक भी शामिल है, जिसमें भारत ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को भी आमंत्रित किया था। यद्यपि इमरान खान ने किसी दूसरे अधिकारी को अपने जगह प्रतिनियुक्त कर दिया था।
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इसके अलावा यह बात भी उभर के सामने आती है कि हाल ही में गलवान वैली में चीन की घुसपैठ, उसका अतिक्रमण और भारतीय सैनिकों की हत्या जैसे कुकृत्यों को पूरे विश्व ने देखा लेकिन इसके बावजूद भारत ने शंघाई सहयोग संगठन , रूस-भारत-चीन त्रिपक्षीय वार्ता, जी -20 बैठक और अन्य वार्ताओं या सम्मेलनों में चीनी नेतृत्व के साथ बैठकों में भाग लेने से इनकार नहीं किया।
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नेपाल के साथ भारत तुरंत उलझ बैठा जबकि नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने मामले को तुरंत संज्ञान में लेते हुए भारत के क्षेत्रों को नेपाल में शामिल दिखाने वाले मानचित्रों को तत्काल बदल दिया था।
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जब पूरा विश्व और विभिन्न वैश्विक संगठन अपनी हर बैठक ऑनलाइन कर रहे हैं ऐसे में भारत द्वारा आभासी दक्षेस सम्मलेन की अध्यक्षता पकिस्तान द्वारा किये जाने का विरोध करना, ज़्यादा परिपक्व निर्णय नहीं लगता।
महामारी जन्य चुनौतियाँ
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महामारी द्वारा प्रस्तुत की गई नई चुनौतियों का मुकाबला करने के लिये दक्षेस को पुनर्जीवित करना महत्त्वपूर्ण है।
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अध्ययनों से पता चला है कि महामारी का दक्षिण एशिया पर प्रभाव दुनिया के अन्य क्षेत्रों के सापेक्ष ‘अलग और विशेष’ रहा है और भविष्य में महामारियों का मुकाबला करने के लिये इसपर व्यापक तरीके से अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है।
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भविष्य में टीकों के विकास और उनके वितरण के लिये यह भी आवश्यक है कि दक्षिण एशिया को एक विशाल बाज़ार के रूप में स्थापित किया जाय, जिससे भविष्य में न सिर्फ लोगों का नैदानिक परीक्षण सुलभ हो सके बल्कि एक सुविकसित बाज़ार के रूप में दक्षिण एशिया का विकास भी हो।
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दक्षिण एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था पर महामरी का प्रभाव एक और ऐसा क्षेत्र है जहाँ समन्वय की विशेष आवश्यकता है। दक्षिण एशियाई देशों को मंदी के अलावा, वैश्विक स्तर पर रोज़गार में कटौती का सामना भी करना पड़ा है, जिसके फलस्वरूप इन देशों में प्रवासियों और श्रमिकों द्वारा भेजे जाने वाले धन में लगभग 22% की कमी आ सकती है।
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विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार COVID-19 के कारण मात्र पर्यटन क्षेत्र पर पड़े प्रभाव के कारण ही लगभग 10.77 मिलियन रोज़गार और सकल घरेलू उत्पाद में $ 32 बिलियन अमेरिकी डॉलर के नुकसान होने की संभावना है।
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विश्व बैंक ने यह भी कहा है कि दक्षिण एशिया के सभी देशों को साथ आकर ‘श्रम एवं पर्यटन’ के सामूहिक मानकों को निर्धारित करना चाहिये तथा ‘पूर्वी अफ़्रीका संयुक्त एकल वीज़ा’ (East Africa Single Joint Visa) या मेंकोंग व कैरेबियाई क्षेत्रों के जैसे सामूहिक पर्यटन अवसरों की तलाश भी करनी चाहिये।
क्षेत्रीय सहयोग की बात
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दीर्घावधि में, स्वास्थ्य सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और नौकरी की सुरक्षा की प्राथमिकताओं में भी बदलाव होने की संभावना है, जिसका असर दक्षिण एशिया पर भी पड़ने की संभावना है।
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COVID -19 का व्यापक प्रभाव, व्यापार, यात्रा और प्रवासन की बढ़ती अरुचि जैसे वैश्विक रुझानों में परिलक्षित होगा; साथ देशों में राष्ट्रवाद के प्रति बढ़ती रूचि, आत्म निर्भरता और स्थानीय आपूर्ति श्रृंखला आदि को बढ़ावा देने जैसी प्रवृत्तियाँ भी देखी जाएंगीं।
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हालाँकि वैश्विक बाज़ार से खुद को पूरी तरह से अलग कर लेना देशों के लिये असंभव होगा तथा ऐसी दशा में क्षेत्रीय पहलें “गोल्डीलॉक्स विकल्प” (वैश्वीकरण और अति-राष्ट्रवाद के बीच मध्य मार्ग) का कार्य करेंगी ।
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यह नोट करना महत्त्वपूर्ण है कि विश्व विभिन्न क्षेत्रीय व्यापार व्यवस्थाओं जैसे नए संयुक्त राज्य अमेरिका-मैक्सिको-कनाडा समझौते या यू.एस.एम.सी.ए. (उत्तरी अमेरिका), दक्षिणी आम बाज़ार या MERCOSUR (दक्षिण अमेरिका) यूरोपीय संघ (यूरोप), अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र, या AfCFTA (अफ्रीका), खाड़ी सहयोग परिषद, या GCC (खाड़ी) और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी या RCEP (दक्षिण पूर्व एशिया और चीन से आस्ट्रेलिया) में विभाजित है , भारत वर्तमान में एकमात्र क्षेत्रीय व्यापारिक समझौते ‘दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र’ या SAFTA (SAARC देशों के साथ) का भाग है, भारत को इस तरह के स्थानीय क्षेत्रीय व्यापार व्यवस्थाओं की नींव रखनी होगी।
चीन की चुनौती
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चीन की चुनौती से निपटने के लिये, भारत द्वारा पड़ोसी देशों को साथ लेकर एक एकीकृत दक्षिण एशियाई मंच को सशक्त करना भारत की कूटनीतिक पहलों में से एक है।
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यह भी स्पष्ट है कि भारत की पकिस्तान तथा नेपाल के साथ लगी सीमाओं पर तनाव भारत को चीन के खिलाफ सुभेद्य बनाता है विशेषकर तब जब सभी दक्षेस देशों (भूटान को छोड़कर) ने ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल को अपना समर्थन दिया हुआ है।
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गौरतलब है कि वर्ष 2005 से 2014 के दौरान चीन वास्तव में दक्षेस में शामिल होना चाहता था।इस मुद्दे पर दक्षेस अधिकारयों में कई बार विचार विमर्श भी हुआ लेकिन भारत ने हमेशा अपना पक्ष रखा कि तीन दक्षेस देशों से सीमा साझा करने के बावजूद चीन दक्षिण एशियाई देश नहीं है अतः वह दक्षेस का भाग नहीं बन सकता।
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विगत कुछ वर्षों में कई तरह की वैश्विक आलोचना झेलने के बावजूद चीन ने विश्वविद्यालयों में निवेश, व्यापार, पर्यटन आदि के रूप में दक्षिण एशिया में अपनी राह बनाना जारी रखा है।
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विगत वर्ष, चीन की सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना के संयुक्त मोर्चा कार्य विभाग (UFWD) जैसे समूहों ने महामारी के दौर में भी विभिन्न अवसरों को देशहित के लिये प्रयोग में लाने में सफलता हासिल की है।
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अपनी ‘हेल्थ सिल्क रूट’ पहल की हिस्से के रूप में दवाइयों, व्यक्तिगत सुरक्षा के उपकरण किटों और विभिन्न टीकों को सार्क देशों को भेजने के अलावा चीन के उपमंत्री ने अफगानिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका आदि अलग अलग समूह में तीन बैठकें कीं और इन सभी देशों के साथ आर्थिक मुदों पर चर्चा करने के अलावा ‘साइनोवैक वैक्सीन’ की उपलब्धता पर भी चर्चा की।
भारत की पहलें
इसके विपरीत, भारत ने इस क्षेत्र में अपनी स्वास्थ्य और आर्थिक कूटनीति को आगे बढ़ाया, लेकिन मार्च में मोदी द्वारा बुलाई गई ‘दक्षेस बैठक’ के अलावा अन्य सभी बैठकें आमतौर पर द्विपक्षीय ही थीं न कि दक्षिण एशिया के लिये संयुक्त प्रयास।
आगे की राह
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इतिहास और राजनीतिक शिकायतों को अलग-अलग नज़रिए से देखा जा सकता है लेकिन भूगोल वास्तविकता है।
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यदि चीन के नज़रिए से देखा जाय तो अभी भी विभिन्न दक्षेस देशों का भारत के प्रति नज़रिया सकारात्मक ही है और एक दो देशों को छोड़कर अधिकतर देश भारत को नेता के रूप में स्वीकार भी करते हैं।
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विगत कुछ वर्षों की निराशा के बावजूद, दक्षेस का अस्तित्व बरकरार है, और भारत इसे अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के लिये एक मंच के रूप में उपयोग कर सकता है। अतः भारत को दक्षिण एशिया में अपने कदमों को मज़बूत करने के लिये सार्क के पुनरुद्धार में लगना होगा।
अमेरिका की धारा 230
सन्दर्भ
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हाल ही में, संयुक्त राज्य अमेरिका में कैपिटल बिल्डिंग (संसद भवन) पर ट्रंप समर्थकों के हमले के बाद कई बड़ी सोशल मीडिया कंपनियों ने अमेरिकी राष्ट्रपति के निजी अकाउंट्स को या तो स्थाई या अस्थाई रूप से बंद कर दिया है।
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ट्विटर ने तो हिंसा और ग़लत जानकारी फैलाने के लिये ट्रंप के साथ-साथ उनके कुछ करीबियों के ‘ट्विटर हैंडल’ हमेशा के लिये बंद करने का फैसला किया है।
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यद्यपि सोशल मीडिया कम्पनियों के इस कदम ने एक बार फिर से अमेरिका में धारा 230 पर बहस को जन्म दे दिया है।
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‘यू.एस. कम्युनिकेशन डीसेंसी ऐक्ट’ की इस धारा के ज़रिये अमेरिका की बड़ी टेक कंपनियाँ अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर सकती हैं। हालाँकि, इसका प्रयोग सीधे राष्ट्रपति के खिलाफ करना आश्चर्यजनक कदम है।
क्या है धारा 230?
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‘कम्युनिकेशन डीसेंसी ऐक्ट’ की ‘धारा 230’ को पहली बार वर्ष 1996 में अधिनियमित किया गया था।
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इसके तहत इंटरनेट कंपनियों को अपनी वेबसाइट पर साझा किये गए डाटा से कानूनी सुरक्षा मिलती है।
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पहले इस धारा को ऑनलाइन पोर्नोग्राफी को रेगुलेट करने के लिये लाया गया था।
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धारा 230 उस कानून का संशोधन है, जो कि यूज़र्स/उपयोगकर्ताओं को उनके किये गए ऑनलाइन कमेंट्स और पोस्ट्स के लिये ज़िम्मेदार बनाता है।
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इस धारा के तहत कोई भी सोशल मीडिया कंपनी अपनी वेबसाइट पर उपयोगकर्ता द्वारा डाली गई चीज़ों के लिये ज़िम्मेदार नहीं होगी।
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अगर उपयोगकर्ता वेबसाइट पर कोई भी अवैध या ग़लत चीज़ डालता/पोस्ट करता है, तो सोशल मीडिया कंपनी के खिलाफ मामला दाखिल नहीं किया जा सकता।
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इसके आलावा प्राइवेट कंपनियों को यह अधिकार है कि वे अपने दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने वाले लोगों को प्लेटफॉर्म से ही हटा सकते हैं।
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इसलिये धारा 230 के तहत सोशल मीडिया कंपनियाँ ट्रंप के अकाउंट को बंद करने के फैसले पर पूरा अधिकार रखती हैं।
कब तैयार हुई थी धारा 230
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इस कानून को सबसे पहले ओरेगॉन के डेमोक्रेट सांसद रॉन वेडन और साउथ कैरोलाइना से रिपब्लिकन सांसद क्रिस कॉक्स ने दो दशक पहले ड्राफ्ट किया था।
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तब इसका उद्देश्य अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन के तहत बड़ी तकनीकी कंपनियों को बढ़ावा देना और अभिव्यक्ति की आज़ादी को सुरक्षा देना था।
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अंतरराष्ट्रीय डिजिटल अधिकार समूह ‘इलेक्ट्रॉनिक फ्रंटियर फाउंडेशन’ ने धारा 230 को “इंटरनेट पर वक्तव्यों या भाषण की रक्षा करने वाला महत्त्वपूर्ण कानून” कहा था।
धारा 230 की आलोचना
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जहाँ एक तरफ धारा 230 सोशल मीडिया कंपनियों के लिये काफी महत्त्वपूर्ण है, वहीं इसके आलोचकों का कहना है कि यह कानून फेसबुक-ट्विटर के उनके मौजूदा स्वरूप से काफी पहले तैयार हुआ था, अतः इसे अद्यतन किया जाना चाहिये।
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राजनीतिक नेता और इंटरनेट एक्टिविस्ट लगातार इस कानून में संशोधन की मांग करते रहे हैं।
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कई आलोचकों का कहना है कि इस कानून से बड़ी तकनीकी कंपनियाँ राजनीतिपूर्ण एवं दलीय गतिविधियों में भागीदार बन सकती हैं।
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कुछ लोगों का तर्क है कि यह कानून दक्षिणपंथी चरमपंथियों को 4chan या पार्लर जैसी वेबसाइट्स के द्वारा भड़काऊ या उग्र बातें साझा करने पर किसी तरह का रोक नहीं लगाता।
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गौरतलब है कि ट्रंप से लेकर अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन भी इस तरह के कानून को बदलने की बात कह चुके हैं।
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ट्रम्प ने मई 2020 में इस कानून के तहत सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स को मिलनी वाली सुरक्षा पर को लक्षित करते हुए कहा था कि बहुत से प्लेटफार्म सरकार के खिलाफ षड्यंत्र में शामिल हैं।
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हालिया चुनाव में जो बाइडन की जीत के बाद ट्रम्प ने पूरी तरह से इस कानून को रद्द करने की बात कही थी, ट्रम्प ने कहा था कि धारा 230 अमेरिका की संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये खतरा है।
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ट्रम्प ने ‘राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम’ (एन.डी.ए.ए.) को अधिकृत करने वाले एक वार्षिक रक्षा विधेयक को वीटो करने की धमकी भी दी, जब तक कि कांग्रेस धारा 230 को पूरी तरह से रद्द करने के लिए सहमत नहीं हुई।
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यद्यपि यह धारा अंततः रद्द नहीं हुई।
क्यूबा पर अमेरिकी नीति में परिवर्तन
संदर्भ
हाल ही में, अमेरिका ने क्यूबा को आतंकवाद प्रायोजक राज्य की सूची में फिर से डाल दिया है। ट्रम्प प्रशासन द्वारा लिया गया यह निर्णय स्पष्टत: राजनीतिक रूप से उठाया गया कदम प्रतीत होता है, क्योंकि यह किसी भी रणनीतिक या नैतिक तर्क से परे है।
अमेरिका का तर्क
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अमेरिका ने क्यूबा को 10 कोलंबियाई विद्रोहियों और कुछ अमेरिकी भगोड़ो को शरण देने तथा वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो के समर्थन का आरोप लगाते हुए इसे ‘अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का समर्थन’ करने वाले कृत्यों के रूप में पेश किया है।
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कैरेबियन देश क्यूबा अब ईरान, उत्तर कोरिया और सीरिया की श्रेणी में आ गया है। साथ ही, अमेरिका के इस निर्णय से नए प्रतिबंधों के कारण क्यूबा के लिये व्यापार करना और अधिक कठिन हो गया है।
क्यूबा का तर्क
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क्यूबा ने कहा है कि कोलंबिया के विद्रोहियों को वापस लौटाना वहाँ चल रही शांति प्रक्रिया को जटिल करेगा जिसमें क्यूबा एक मध्यस्थ है।
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वेनेजुएला के संबंध में, क्यूबा एक ऐसी विदेश नीति का अनुसरण कर रहा है, जो अमेरिका की परवाह किये बगैर उस देश की सरकार के साथ सीधे बातचीत करके अपने सर्वोत्तम हितों की सुरक्षा कर रहा है।
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हाल ही में क्यूबा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये वहाँ की एकदलीय कम्युनिस्ट सरकार को घरेलू विरोधों का सामना करना पड़ा था। इसके बावजूद सरकार के कटु आलोचकों ने भी सरकार पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप नहीं लगाया।
अमेरिका और क्यूबा संबंधों का संक्षिप्त इतिहास
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क्यूबा के प्रति अमेरिका के कठोर व्यवहार की जड़ें को शीत युद्ध के दौर में खोजा जा सकता हैं। विदित है कि अमेरिका ने क्यूबा को वर्ष 1982 में आतंकवाद प्रायोजक राज्य की सूची में डाला था।
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अमेरिका ने कास्त्रो शासन के खात्मे की उम्मीद के साथ क्यूबा पर दशकों से कठोर प्रतिबंधों को आरोपित किया था। हालाँकि, सोवियत संघ के पतन के बावजूद क्यूबा में कम्युनिस्ट शासन जारी रहा।
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शीत युद्ध की यादें धुंधली होने और नई पीढ़ी के अमेरिकियों द्वारा विदेश नीति को पुनर्स्थापित करने की माँग के कारण ओबामा ने संबंधों को फिर से एक नया आयाम देते हुए क्यूबा में अमेरिकी दूतावास खोला और हवाना की यात्रा की।
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वर्ष 2015 में ओबामा प्रशासन ने क्यूबा को आतंकवाद प्रायोजित राज्य की सूची से बाहर करके अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में क्यूबाई लोगों के प्रति अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया।
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हालाँकि, अमेरिका की इस नीति में विरोधाभास प्रतीत होता है क्योंकि 1970 के दशक की शुरुआत से सबसे बड़ी सैन्य शक्ति अमेरिका ने कम्युनिस्ट चीन के साथ सहयोग किया, जबकि इस छोटे से कम्युनिस्ट पडोशी देश से साथ के कठोर व्यवहार की नीति का अनुसरण करता रहा है।
आगे की राह
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ओबामा के उत्तरवर्तियों के तार्किक दृष्टिकोण में दोनों देशों के बीच विश्वास-निर्माण के अधिक उपाय करना और संबंधों को क्रमिक रूप से सामान्य बनाने की दिशा में काम करना करना होना चाहिये था। हालाँकि, डोनाल्ड ट्रम्प ने ठीक इसके उलट किया।
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नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बिडेन ने ट्रम्प प्रशासन की क्यूबा नीति की आलोचना करते हुए अधिक खुले दृष्टिकोण का वादा किया है और वे वर्तमान निर्णय को उलट करके पुन: विश्वास बहाली के कदम बढ़ा सकते है।
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हालाँकि, इस निर्णय को पलटने में समय लगेगा क्योंकि इस के लिये नियत समीक्षा प्रक्रिया का पालन करना होगा। साथ ही, क्षेत्रीय शांति के लिये बिडेन को ट्रम्प प्रशासन के अंतिम समय में लिये गए नीतिगत निर्णयों से विचलित हुए बिना स्वतंत्र निर्णय लेने चाहिये।
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अमेरिका में सत्ता परिवर्तन की तैयारी के बीच ट्रम्प प्रशासन विदेश नीति से संबंधित ऐसे अहम और महत्त्वपूर्ण फैसले ले रहा है, जिससे जो बिडेन के लिये अपनी विदेश नीति के एजेंडे पर तेज़ी से आगे बढ़ना मुश्किल कर देगा।
भारत और वैश्विक परिदृश्य
संदर्भ
वैश्विक परिदृश्य और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के मामले में वर्ष 2020 में कई नई प्रकार की प्रवृत्तियों का जन्म हुआ है, जिसके वर्ष 2021 में और मज़बूत होने की संभावना है। अमेरिका में नेतृत्व परिवर्तन शायद सबसे प्रतीक्षित परिवर्तनों में से एक है।
यूरोप और चीन
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यू.एस. और यूरोप के बीच संबंधों को मज़बूत करने के बाइडन के वादे के बावजूद यूरोप ने ‘यूरोपीय संघ-चीन व्यापक निवेश समझौता’ पर सैद्धांतिक रूप से वार्ता को अंतिम रूप देकर चीन से जुड़ाव को मज़बूत किया है। यूरोप के इस कदम से वैश्विक परिदृश्य में चीन के अलग-थलग रहने की सभी चर्चाओं पर विराम लग गया है।
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भारत ने अप्रैल 2020 से चीन के साथ संबंधों में काफी कमी की है परंतु भारत स्वयं अकेला हो गया है क्योंकि कई देशों ने चीन के साथ घनिष्ठ आर्थिक संबंधों की संभावना व्यक्त की है।
चीन की मज़बूत उपस्थिति
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वर्ष 2021 की शुरुआत चीन के लिये अच्छी रही है क्योंकि प्रमुख देशों में यही एकमात्र देश है जिसकी वृद्धि दर वर्ष 2020 के अंत में सकारात्मक रही है। साथ ही, चीन की अर्थव्यवस्था के वर्ष 2021 में और भी तेजी से बढ़ने की उम्मीद है।
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सैन्य रूप से चीन ने स्वयं को अधिक मज़बूत कर लिया है और वर्ष 2021 में उसने अपने तीसरे विमान वाहक पोत को लांच करने की घोषणा के साथ यह स्पष्ट कर दिया है कि वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में प्रभावी होना चाहता है। इसके अतिरिक्त वह रूस के साथ अपने सैन्य समन्वय को मजबूत करने की कोशिश कर रहा है।
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हांगकांग और उइगर मुस्लिमों के मामलों में कथित कार्रवाईयों के अतिरिक्त कई अन्य मामलों में उसकी आक्रमकता के बावजूद एशिया में उसकी स्थिति वर्ष 2020 से अधिक मज़बूत है। साथ ही, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में आंतरिक तनावों के बावजूद वर्ष 2021 के दौरान पार्टी के नेता तथा राष्ट्रपति के रूप में शी जिनपिंग की स्थिति की और मज़बूत होने की संभावना है।
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अत: वर्ष 2021 में पूर्वी लद्दाख में चीन द्वारा किसी भी प्रकार की रियायत की उम्मीद नहीं की जा सकती है, जब तक कि भारत अपनी स्थिति में कोई संशोधन नहीं करता है।
यूरोप और अर्थव्यवस्था
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नए वर्ष में चीन में शी जिनपिंग, रूस में व्लादिमीर पुतिन और तुर्की में रेसेप तैयप एर्दोआन जैसे मजबूत सत्तावादी नेताओं का वर्चस्व रहने की उम्मीद है। साथ ही, ब्रिटेन के बिना यूरोप (ब्रेक्जिट के संदर्भ में) तथा जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल का सत्ता से हटना भी वैश्विक मामलों में कुछ प्रासंगिक हो सकते हैं।
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चीन-यूरोपीय संघ निवेश संधि ने यह साबित कर दिया है कि यूरोप, चीन की शर्तें मानने को तैयार है, जो इस बात का संकेत है कि यूरोप अपनी अर्थव्यवस्था को राजनीति से अधिक महत्त्व देता है।
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रूस अपने आस-पास के देशों में अधिक रुचि दिखाने लगा है और चीन व तुर्की के साथ उसके संबंधों में निकटता इस बात का संकेत है कि भारत जैसे देशों में रूस की रुचि कम हो गई है।
पश्चिम एशिया
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पश्चिम एशिया में अब्राहम समझौते ने सऊदी ब्लॉक और ईरान-तुर्की के बीच विभाजन को और स्पष्ट कर दिया है। अब्राहम समझौते के बावजूद ईरान और इजरायल के बीच टकराव का जोखिम कम नहीं हुआ है, जो भारत के लिये समस्या परक है, क्योंकि भारत के दोनों देशों के साथ संबंध हैं।
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साथ ही, चीन इस क्षेत्र में बड़ी भूमिका निभाने को इच्छुक है, जिसमें ईरान के साथ 25 वर्षीय रणनीतिक सहयोग समझौते पर विचार शामिल है।
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बिडेन प्रशासन के पदभार संभालने के साथ सऊदी अरब को वर्ष 2021 में कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। पश्चिम एशिया में सुन्नी अरब राज्यों के बीच समन्वय को ही सऊदी अरब के लिये अच्छा माना जाएगा। हालाँकि, इसके परिणामस्वरूप सुन्नी और शिया कैम्पों के बीच संघर्षों में वृद्धि हो सकती है।
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इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में रणनीतिक गतिशीलता को देखते हुए ईरान को परमाणु क्षमता का उपयोग करने के लिये उकसाया जा सकता है।
भारत और उसके पड़ोसी
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भारत वर्ष 2021 की शुरुआत में वैश्विक परिदृश्य से बाहर सा लगता है। चीन-भारत संबंधों में अभी तक कोई सफलता नहीं प्राप्त हुई है और आगे भी भारत व चीन के सशस्त्र बलों के बीच टकराव जारी रहने की भी उम्मीद है।
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वर्तमान में भारत पश्चिम एशिया में भी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा रहा है। भारत-ईरान संबंधों में गर्मजोशी की कमी है तथा अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया में भारत को हाशिये पर रखा गया है।
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यद्यपि भारत द्वारा पाकिस्तान को आतंक प्रायोजित राज्य के आरोपों का विश्व स्तर पर कुछ प्रभाव पड़ा है परंतु इससे दोनों पड़ोसियों के बीच तनाव और बढ़ा गया है जिसने पाकिस्तान को चीन के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने में मदद की है।
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साथ ही, भारत और नेपाल के बीच संबंधों में अभी भी तनाव बरकरार है। हालाँकि, भारत ने बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका जैसे कुछ पड़ोसियों के साथ संबंधों को सुधारने के लिये कई प्रयास किये हैं, लेकिन अब तक इसके कुछ सार्थक परिणाम स्पष्ट नहीं हुए हैं।
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जैसे-जैसे भारत-चीन संबंध बिगड़ रहे हैं, भारत के पड़ोसी भारत का पक्ष लेने में हिचक रहे हैं, जिससे भारत का अलगाव बढ़ रहा है।
कूटनीति और धारणाएँ
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ऐसा माना जाता है कि भारत के राजनयिक उच्च स्तर की क्षमता के साथ अपनी गतिविधियों का संचालन करते हैं परंतु वे संभवतः अन्य कारकों से बाधित होते हैं। इसमें हाल के दौर में देश द्वारा अपनाई गई नीति और उसमें बदलाव हो सकता है।
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एक बार फिर से यह धारणा बलवती हुई है कि भारत की अमेरिका के साथ निकटता के परिणामस्वरूप रूस और ईरान जैसे पारंपरिक दोस्तों के साथ संबंध कमज़ोर हो गए हैं, जिससे देश की छवि प्रभावित हुई है।
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दूसरी ओर, एशिया और विशेष रूप से दक्षिण एशिया में भारत की विदेश नीति अविश्वास और अस्पष्टता का मिश्रण लगती है। कभी-कभी त्वरित और तीखी प्रतिक्रिया (नेपाल के मामले में), पड़ोसियों की संवेदनशीलता की समझ में कमी (जैसे कि बांग्लादेश एवं पुराने दोस्त- वियतनाम और ईरान) और नीतिगत ज़रूरतों तथा अमेरिका जैसे देशों के दबाव को अत्यधिक महत्व देना इसका उदाहरण है।
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इस क्षेत्र में शक्ति के संतुलन में बदलाव के साथ चीन के उदय और एशिया में दो सबसे बड़ी शक्तियों के बीच बढ़ता संघर्ष कई अन्य देशों को इस संघर्ष में किसी न किसी का पक्ष लेने के लिये मज़बूर करता है।
भारत और अंतर्राष्ट्रीय संगठन
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वर्तमान में दो महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय निकायों में भारत की भूमिका काफी सीमित है, जिसका वह संस्थापक सदस्य हुआ करता था। इसमें गुट निरपेक्ष आंदोलन (NAM) और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) शामिल हैं। साथ ही, बिम्सटेक जैसे नए निकायों के उदय का प्रयास बहुत सफल नहीं रहा है।
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व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) (जिसमें अधिकतर एशियाई देश शामिल हैं) और रिक समूह (RIC- रूस, भारत और चीन) का भी लाभ उठाने में भारत विफल रहा है और रूस व चीन के साथ भारत के संबंधों में गिरावट ही आई है।
आगे की राह
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वर्ष 2021 में प्रवेश करते समय मुख्य धारा की वैश्विक घटनाओं से भारत का कथित हाशिए पर होना इसकी विदेश नीति की क्षमताओं में गिरावट का संकेत है। भारत की विदेश नीति का उद्देश्य अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि करना, राष्ट्रों में अपनी भूमिका को बढ़ाना और तेजी से विघटनकारी वैश्विक प्रणाली में एक उभरती हुई शक्ति के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना है। इसके लिये भारत को अपनी विदेश नीति में विचारात्मक खालीपन को भरना आवश्यक है।
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अगस्त, 2021 में भारत वैश्विक रूप से शक्तिशाली निकाय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता करेगा। यदि भारत को अपनी उपस्थिति को प्रभावकारी बनाना है, तो इसे अपनी नीतियों को आकार देने के लिये पर्याप्त तर्क होने चाहिये, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ इसका प्रभाव पारंपरिक रूप से अधिक रहा है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के हित
संदर्भ
हाल ही में, भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में अस्थाई सदस्य के रूप में निर्वाचित हुआ है। यद्यपि भारत यू.एन.एस.सी. (UNSC) में स्थाई सदस्य बनने का अधिकारी है, किंतु इसमें अभी पर्याप्त समय लगने के आसार हैं। ऐसे में, भारत को यू.एन.एस.सी. में सभी पुराने मामलों और स्थाई सदस्यता प्राप्त करने जैसे असाध्य मुद्दों को उठाने की बजाय क्षेत्रीय तथा वैश्विक आधार पर अपने राष्ट्रीय हितों को पहचानते हुए आगे बढ़ना चाहिये।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद: बदलती प्राथमिकताएँ
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वर्तमान में यू.एन.एस.सी. वह मंच बन गया है जहाँ प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय शक्तियाँ अपने हितों के अनुसार शर्तों को निर्धारित करती हैं और कम शक्तिशाली देशों कोउ नका ‘सही’ स्थानदिखाने का प्रयास करती हैं। यहाँ तक कि ये शक्तियाँ अपने हितों के लिये आपस में टकराती हैं क्योंकि अनेक बार ये यू.एन.एस.सी. से बाहर ही सौदे तय कर लेती हैं।
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यू.एन.एस.सी. अब वह मंच नहीं रहा जहाँ मानव जाति के उन्नत आदर्शों को पूरा करने का प्रयास किया जाता है और न ही अब यहाँ न्यायसंगत एवं नैतिक विचारों को ध्यान में रखा जाता है।
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यू.एन.एस.सी. की प्रासंगिकता अब केवल अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखने तक ही सीमित हो गई है, अब इससे किसी गंभीर मुद्दे को सुलझाने या नए प्रयासों की उम्मीद करना बेईमानी है।
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यू.एन.एस.सी. एक ऐसे समय में प्रवेश कर रहा है जब नई विश्व व्यवस्था का उद्भव हो रहा है, एक ऐसी व्यवस्था जिसमे प्रणालीगत अनिश्चितताएँ हैं , वैश्विक साझा हितों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा, वैश्विक नेतृत्व अनुपस्थित है, विश्व का प्रतिद्वंद्वी समूहों में विभाजन हो रहा है, संकीर्ण राष्ट्रीय हित दृढ़ता से बढ़ रहे हैं और नैतिक मूल्य आधारित विश्व व्यवस्था का विचार अब पीछे रह गया है।
भारत की स्थिति
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भारत आठवीं बार यू.एन.एस.सी. में अस्थाई सदस्य के रूप में भाग ले रहा है और वह परिषद में होने वाले भेदभाव को अच्छे से समझता है। किंतु फिर भी, भारत अक्सर अपनी अतीत की बयानबाजी का शिकार होता रहा है और अपने हितों को भूल जाता है।
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भारत की भूमिका में भी पर्याप्त बदलाव आया है। अब वह भी वैश्विक सद्भाव व् शांति जैसे आदर्शों की बात बार-बार नहीं करता है और न ही अब वह वैश्विक भू-राजनीति में एक मूक-दर्शक है।
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वर्तमान में भारत पहले की अपेक्षा अधिक आत्मविश्वासी एवं मज़बूत नजर आता है। सीमित संसाधनों, संकुचित अर्थव्यवस्था तथा घरेलू सर्वसम्मति के अभाव के बावजूद यह अपनी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास कर रहा है।
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भारत की स्थिति में पर्याप्त बदलाव आया है, अब यह वैश्विक राजनीति में हाशिये पर रहने की बजाय केंद्रीय भूमिका निभाने को तत्पर है। इसका कठिन यथार्थवाद न केवल विदेश नीति की विशेषता है, बल्कि यह इसके घरेलू राजनीतिक गतिशीलता में भी प्रतिबिंबित होता है।
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हालाँकि, भारत को यह भी ध्यान रखना होगा कि इसकी संसाधनों एवं भू-राजनीति से संबंधित कुछ सीमाएँ हैं। अतः इन सीमाओं को ध्यान में रखते हुए यू.एन.एस.सी. में अपने हितों को पूरा करने की कोशिश करनी चाहिये।
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चीन की भूमिका
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चीन अपनी सैन्य प्रतिद्वंद्विता को तेज़ी से आगे बढ़ा रहा है, जिसे न्यूयॉर्क में हुई यू.एन.एस.सी. की बैठक में देखा गया है। भारत द्वारा वर्ष 2022 के लिये तीन समितियों का, विशेषकर आतंकवाद-रोधी समिति (CTC) का अध्यक्ष बनाने संबंधी मुद्दे पर चीन ने भारत का विरोध किया।
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अमेरिका में जो बाइडन ने सत्ता संभाल ली है और उन्होंने विशेष रूप से पेरिस जलवायु समझौते तथा ईरान परमाणु समझौते को पुनः अपनाने की बात कही है। इससे विश्व व्यवस्था में कुछ सुधार होगा और कठोर प्रतिद्वंद्विता में भी कमी आएगी।
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अगर बाइडन प्रशासन डोनाल्ड ट्रम्प की यू.एन.एस.सी. तथा अन्य क्षेत्रों में चीन को वापस धकलने की नीति पर आगे बढ़ता है तो चीन का सामना करने के लिये भारत को अमेरिका के रूप में एक सहयोगी मिल सकता है।
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यू.एन.एस.सी. में भारत को पश्चिमी देशों के साथ अपने गठबंधन को मज़बूत करना होगा, हालाँकि इससे भारत की रूस के साथ दूरी बढ़ने की संभावना है, जिससे रूस की चीन पर निर्भरता बढ़ेगी। लेकिन यदि भारत रूस के संबंधों पर अधिक चिंतित होता है तो इससे भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लाभ की अपेक्षा नुकसान अधिक होंगे।
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यू.एन.एस.सी. में भारत के यह दो वर्ष चीन की आक्रामकता को रोकने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगे। इसके लिये भारत को वास्तविक नियंत्रण रेखा पर पर्याप्त बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना होगा और आगे के क्षेत्रों में पर्याप्त सुरक्षा बल जुटाना होगा।
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डोकलाम, लद्दाख और अब अरुणाचल प्रदेश के संदर्भ में भारत का अनुभव अच्छा नहीं रहा है। चीन की घुसपैठ की कोशिशें लगातार जारी रही हैं और यह भविष्य में भी जारी रहेंगी, तो ऐसे में चीन का सामना करने के लिये भारत को हर संभव कोशिश करनी होगी।
आतंकवाद का मुद्दा
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यू.एन.एस.सी. में भारत के लिये आतंकवाद का मुद्दा केंद्रीय मुद्दा होने की संभावना है। आतंकवाद का मुद्दा देश की राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति में दशकों से एक प्रमुख विषय रहा है।
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भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर चुके हैं। इस मुद्दे पर उन्होंने कहा था कि, “आतंकवादी, आतंकवादी ही होते हैं वो अच्छे या बुरे नहीं होते। इसे अच्छे या बुरे में बाँटने वालों के इसमें स्वार्थ निहित होते हैं, जो कि एक अपराध है”।
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आने वाले समय में भारत तालिबान प्रतिबंध समिति (TSC) की अध्यक्षता करने वाला है जो कि अफगानिस्तान में तेजी से बढ़ते विकास और तालिबान के साथ जुड़ने की इसकी महत्वाकांक्षा को बल देगा।
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भारत को आतंकवाद के प्रति अपनी नीति को और अधिक बुद्धिमता, कूटनीति और विशेष राजनीतिक बारीकियों के साथ तैयार करना चाहिये, ताकि भारत तालिबान के साथ अपनी संबद्धता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके।
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अतः इसके लिये भारत को अंतर्राष्ट्रीय तथा घरेलू स्तर पर आतंकवाद से निपटने के लिये एकसमान व सुस्पष्ट नीति बनानी होगी।
आगे की राह
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भारत को अपने समान विचारधारा वाले देशों के साथ सामंजस्य स्थापित करना होगा और इन देशों के साथ मिलकर जलवायु परिवर्तन से लेकर गैर- प्रसार जैसे प्रत्येक विषय पर अपनी प्राथमिकताओं को निर्धारित करना होगा।
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हालाँकि, ऐसा हो सकता है कि यू.एन.एस.सी. में इन पर विषयों पर अधिक ध्यान न दिया जाए पर फिर भी भारत को अपनी कुटनीतिक शक्तियों का उपयोग करते हुए अलग-अलग मंचो तथा डोमेन के माध्यम से इन विषयों को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये।
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साथ ही, भारत को यू.एन.एस.सी. में रणनीतिक व सामरिक रूप से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय ‘इंडो-पैसिफिक’ पर भी अपनी रणनीति को स्पष्ट करना होगा। ‘इंडो-पैसिफिक’ क्षेत्र वर्तमान में वैश्विक रूप से अत्यंत महत्त्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है और अनेक देश इस पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। अतः इससे संबंधित किसी भी नीति में भारत को केंद्रीय भूमिका निभानी होगी।
निष्कर्ष
यह स्पष्ट है कि यू.एन.एस.सी. में अभी किसी नए स्थाई सदस्य का प्रवेश संभव नहीं है, क्योंकि इसमें अभी पर्याप्त समय लगेगा। भारत के अभी तक के सभी वैश्विक प्रयास यू.एन.एस.सी. में स्थाई सदस्य बनने की दिशा में ही हुए हैं, किंतु अब भारत को इस दिशा में प्रयास नहीं करने चाहिये। अतः अब भारत को इस ओर ध्यान नहीं देना चाहिये कि यू.एन.एस.सी. में क्या होना चाहिये, बल्कि इस पर ध्यान देना होगा कि भारत क्या कर सकता है और इसे अपनी वर्तमान स्थिति तथा क्षमता के आधार पर अपने हितों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिये।
बाल यौन शोषण के संदर्भ में न्यायिक निर्णय: संबंधित चिंताएँ
संदर्भ
सर्वोच्च न्यायालय ने बंबई उच्च न्यायालय के उस निर्णय पर रोक लगा दी है जिसमें उच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी नाबालिग के वक्षस्थल को कपड़ों के ऊपर से छूना या बिना ‘स्किन टू स्किन टच’ के अंग विशेष को छूना पॉक्सो अधिनियम (POCSO Act) के दायरे में नहीं रखा जा सकता।
बंबई उच्च न्यायालय के इस निर्णय पर विवाद उत्पन्न हो गया था और इसके खिलाफ ‘यूथ बार एसोसिएशन’ ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की थी।
क्या है पूरा मामला?
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बंबई उच्च न्यायलय (नागपुर खंडपीठ) की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला की एकल पीठ ने पिछले सप्ताह सत्र न्यायालय के उस आदेश, जिसमें एक 39 वर्षीय व्यक्ति को 12 वर्षीय लड़की के साथ छेड़छाड़ करने और उसके कपड़े उतारने के लिये यौन उत्पीड़न का दोषी ठहराया गया था, को संशोधित करते हुए अपना निर्णय दिया था।
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अपने निर्णय में न्यायमूर्ति ने कहा था कि इस तरह के अपराध को वास्तव में भारतीय दंड संहिता [ IPC की धारा 354 ( महिला की विनम्रता को अपमानित करना)] के तहत ‘छेड़छाड़’ माना जाएगा।
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बंबई उच्च न्यायलय ने आरोपी व्यक्ति को आई.पी.सी. की धारा 343 और धारा 354 के तहत दोषी ठहराया, जबकि उसे पॉक्सो अधिनियम की धारा 8 के तहत बरी कर दिया।
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न्यायमूर्ति ने यौन हमले को परिभाषित करते हुए कहा कि यौन हमले में ‘प्रत्यक्ष या सीधा शारीरिक संपर्क होना चाहिये’, अतः कपड़ों के ऊपर से वक्षस्थल को छूना प्रत्यक्ष शारीरिक संपर्क नहीं माना जा सकता।
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भारत के मुख्य न्ययाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली एकल पीठ ने बंबई उच्च न्यायलय के इस निर्णय पर रोक लगाते हुए आरोपियों के विरुद्ध नोटिस जारी किया है और दो सप्ताह के अंदर प्रतिक्रिया माँगी है।
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (Protection of Children from Sexual Offences Act– POCSO), 2012
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बच्चों के हितों की सुरक्षा करने; उन्हें यौन शोषण, यौन उत्पीड़न तथा पोर्नोग्राफी जैसे अपराधों से संरक्षण प्रदान करने के लिये वर्ष 2012 में यह अधिनियम लागू किया गया। संक्षिप्त रूप से पॉक्सो अधिनियम कहा जाता है।
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इस अधिनियम के तहत 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को बालक या बच्चे रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें प्रत्येक स्तर पर बच्चों के हितों तथा कल्याण को प्राथमिकता देते हुए उनके शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक एवं सामाजिक विकास को सुनिश्चित किया गया है। यह कानून लैंगिक समानता पर आधारित है।
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इसके तहत नाबालिग बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों तथा छेड़छाड़ के मामलों में आवश्यक कार्यवाई की जाती है और अलग-अलग अपराधों के लिये अलग-अलग सज़ा का प्रावधान किया गया है।
अपराधों से बच्चों का संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2019
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यह पॉक्सो अधिनियम, 2012 में संशोधन करता है। इसमें कुछ विशेष अपराधों को परिभाषित किया गया और अधिक कठोर सज़ा का प्रावधान किया गया, जो कि निम्नलिखित हैं-
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पेनेट्रेटिव यौन हमला : इस प्रकार के अपराध के लिये सात वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान किया गया है। अधिनियम में 7 से 10 वर्ष तक की न्यूनतम सज़ा और यदि कोई व्यक्ति 16 वर्ष से कम आयु के बच्चे के साथ ऐसा अपराध करता है तो उसके लिये अधिकतम 20 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है।
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गंभीर पेनेट्रेटिव यौन हमला: किसी पुलिस अधिकारी, सशस्त्र सेनाओं के सदस्य, या लोक सेवक द्वारा उपर्युक्त अपराध करने पर 10 वर्ष से लेकर 20 वर्ष या आजीवन कारावास की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है। इसमें अधिकतम सज़ा मृत्युदंड है।
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गंभीर यौन हमला : इसके अंतर्गत, गंभीर यौन हमले में अन्य स्थितियों (i) प्राकृतिक आपदा के दौरान किया गया हमला (ii) यौन परिपक्वता लाने के लिये बच्चे को हारमोन या रासायनिक पदार्थ देना या दिलवाना को शामिल किया गया है।
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पोर्नोग्राफिक सामग्री का स्टोरेज: इस अपराध के लिये 3 से 5 वर्ष तक की सज़ा या जुर्माने का प्रावधान है।
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अपने उद्देश्य में कितना सफल हुआ पॉक्सो अधिनियम?
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यह अधिनियम यौन हिंसा पर सख्त कानून के माध्यम से यौन अपराधों को रोकने के उद्देश्य से लाया गया था। इस कानून के तहत यौन हिंसा के दर्ज मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है साथ ही ऐसे मामलों में सज़ा की दर भी बहुत कम है।
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सज़ा की दर कम होने के अनेक कारण हैं, जिसमें पुलिस-व्यवस्था और न्याय प्रणाली से संबंधित कारण प्रमुख हैं।
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ऐसे मामलों से निपटने के लिये पुलिस के पास बुनियादी ढाँचा तथा पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं है, पुलिस पीड़ित बच्चे के साथ सहानुभूति से पेश नहीं आती जिससे बच्चा अपने साथ हुए यौन अपराध के बारे में खुलकर बता नहीं पाता।
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नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी द्वारा राज्यों में किये गए एक अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया है कि अनिवार्य न्यूनतम दंड के परिणामों को भी चिन्हित किया जाना चाहिये।
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पॉक्सो अधिनियम के अंतर्गत न्यायधीश विवेकानुसार निर्धारित सज़ा से कम नहीं दे सकते और जब किसी ऐसे मामले में वे पाते हैं कि अपराध की गंभीरता न्यूनतम निर्धारित सज़ा के अनुरूप नहीं है तो वे आरोपी को दोषी मानने के लिये तैयार नहीं होते और उसे बरी कर देते हैं।
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एक लंबे समय से यह मांग की जा रही है कि 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के साथ यौन अपराधों के मामलों में कठोर सज़ा, जैसे- मृत्युदंड का प्रावधान होना चाहिये। हालाँकि कठोर सज़ा का प्रावधान राजनीतिक बहस के लिये तो सही है किंतु यह न्याय की मूल भावना के विपरीत है।
निष्कर्ष
बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराध चाहे किसी भी प्रकृति के हों, किसी भी दशा में सहन करने योग्य नहीं हैं, बंबई उच्च न्यायलय द्वारा दिया गया निर्णय उस धारणा को विकसित कर सकता था, जिसमें अपराधी बच्चों के कपड़ों की स्थिति के आधार पर अपराध करके भी बच सकते थे। उच्च न्यायलय के निर्णय पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाना सराहनीय है। इसके अतिरिक्त, बच्चों के प्रति होने वाले यौन अपराधों को रोकने के लिये विशेष तथा प्रभावकारी कदम उठाए जाने चाहिये और इसके लिये कठोर सज़ा की बजाय उन सांस्कृतिक और सामाजिक धारणाओं को सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये, जो ऐसे अपराधों को सक्षम बनाती हैं।
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य
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GS-3 MAINS
जियो–इंजीनियरिंग (GEO-ENGINEERING)
संदर्भ
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विगत कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के उद्देश्य से नई शमन तकनीक के रूप में जियो-इंजीनियरिंग लगातार चर्चा में रही है। हालाँकि यह भी देखा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग पर अंकुश लगाने की तमाम कोशिशों और जियो-इंजीनियरिंग के विकल्पों के बावजूद दुनिया भर में कार्बन उत्सर्जन कम नहीं हो पाया है।
परिभाषा एवं प्रमुख बिंदु
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ग्लोबल वार्मिंग के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के उद्देश्य से पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में किये जाने वाले सुधारात्मक हस्तक्षेप को जलवायु इंजीनियरिंग या जियो-इंजीनियरिंग या भू-अभियांत्रिकी कहते हैं। यह तकनीक प्रमुख रूप से तीन श्रेणियों; सौर विकिरण प्रबंधन(Solar Radiation Management), कार्बन डाइऑक्साइड निष्कासन (Carbon dioxide Removal) और मौसम संशोधन (Weather Modification) के रूप में कार्य करती है।
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किसी ग्रह के पर्यावरण को बदलने के लिये तथा उसे और अधिक रहने योग्य बनाने का विचार काफी पुराना है, जैसे ग्रहीय इंजीनियरिंग (पृथ्वी जैसी सतह देने के लिये किसी ग्रह की सतह को भौतिक रूप से बदलना)।
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ग्रहों की इंजीनियरिंग के विपरीत, जियो-इंजीनियरिंग विशेष रूप से पृथ्वी पर केंद्रित तकनीक है।
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मानव गतिविधियों के परिणामस्वरूप पृथ्वी कुछ गंभीर समस्याओं का सामना कर रही है। हालाँकि ग्लोबल वार्मिंग इन समस्याओं में सबसे प्रमुख है, लेकिन अन्य मुद्दों पर भी जियो-इंजीनियरिंग द्वारा समाधान खोजे जा रहे हैं।
जियो–इंजीनियरिंग की विशिष्ट तकनीकें
जियो-इंजीनियरिंग की विशिष्ट तकनीकें निम्नलिखित हैं –
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सौर जियो–इंजीनियरिंग (Solar geoengineering) – हवा में सल्फ़ेट का छिड़काव कर सूर्य की किरणों का कृत्रिम परावर्तन कर उनकी तीव्रता को कम करना।
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महासागर उर्वरीकरण (Ocean fertilization) – समद्री वातावरण में लोहे या यूरिया डंपिंग द्वारा अधिक कार्बन अवशोषण के लिये फाइटोप्लांकटन के विकास को सक्षम बनाना।
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क्लाउड ब्राईटनिंग (Cloud brightening) – बादलों को अधिक परावर्तक बनाने के लिये खारे पानी का छिड़काव।
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ध्यातव्य है कि बहुत समय तक ‘शुद्ध शून्य’ उत्सर्जन प्राप्त करने के लिये प्रस्तावित सी.डी.आर. (Carbon dioxide Removal) प्रौद्योगिकियों द्वारा प्राकृतिक कार्बन चक्र में जानबूझकर हस्तक्षेप किया जाता था। प्रमुख सी.डी.आर. प्रौद्योगिकियाँ निम्नलिखित थीं – कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS), डायरेक्ट एयर कैप्चर (DAC) और बायोएनर्जी विथ कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (BECCS) ।
भारत और भू–अभियांत्रिकी
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पूर्व में भारत में जियो-इंजीनियरिंग की पहल के रूप में लोहाफ़ेक्स (LOHAFEX) नामक प्रयोग किया गया था। इस प्रयोग से लोहे द्वारा महासागर का ऊर्वरीकरण किया गया था जिससे यह स्पष्ट हो सके कि क्या लोहा ‘एल्गल ब्लूम’ का कारण बन सकता है? और क्या यह वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण कर सकता है?
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लोहाफ़ेक्स, भारत के ‘वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद्’ (CSIR) और जर्मनी में हेल्महोल्त्ज़ फाउंडेशन (Helmholtz Foundation) द्वारा संयुक्त रूप से किया गया प्रयोग था।
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लोहाफ़ेक्स के दौरान क्लोरोफिल के स्तर में वृद्धि के अलावा एल्गल ब्लूम की वजह से ज़ूप्लैंकटन का विकास भी देखा गया। ध्यातव्य है कि भोजन के लिये ज़ूप्लैंकटन एल्गल ब्लूम पर निर्भर होते हैं। ज़ूप्लैंकटन्स को बाद में बड़े समुद्री जीव खाते हैं।
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इस प्रकार, लोहे द्वारा महासागर के ऊर्वरीकरण से समुद्री बायोमास में कार्बन स्थिरीकरण देखा गया था लेकिन अत्यधिक मत्स्यन की वजह से इसके प्रभाव अब कमज़ोर पड़ रहे हैं।
जियो–इंजीनियरिंग के अनपेक्षित परिणाम
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जियो-इंजीनियरिंग के परीक्षणों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इन प्रयोगों के आशानुरूप परिणामों के लिये बहुत बड़े स्तर पर प्रयास करने होंगे, जिस वजह से अक्सर वैज्ञानिक या प्रयोगकर्ता पीछे हट जाते हैं या उन्हें वित्तपोषण की कमी पड़ जाती है।
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ग्रहीय स्तर पर यदि प्रयोग किये भी जाएँ तो उनके गंभीर हानिकारक परिणाम होने का जोखिम भी रहता है। उदाहरण के लिये, सोलर जियो-इंजीनियरिंग, वर्षा के पैटर्न को बदल देती है, जो कृषि और पानी की आपूर्ति को बाधित कर सकती है। आर्कटिक के ऊपर के समताप मंडल में सल्फेट एरोसोल का छिड़काव एशिया में मानसून को बाधित कर सकता है और सूखे को बढ़ा सकता है।
भू–राजनीतिक चिंताएँ
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जलवायु में हस्तक्षेप को परमाणु हथियारों की तरह ही बड़े स्तर पर विध्वंसक रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है।
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यदि देश हानिकारक तूफानों के रास्तों को बदलने पर नियंत्रण हासिल कर लेते हैं, और तूफानों की दिशा अन्य देशों की ओर मोड़ने का प्रयास करते हैं तो यह कृत्य युद्ध के समान ही माना जाएगा।
निष्कर्ष
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हम सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन पहले की तुलना में अधिक तेज़ी से बढ़ रहा है। इसलिये जियो-इंजीनियरिंग को डीप-डीकार्बोनाइज़ेशन के कार्यक्रम के साथ जोड़ना चाहिये, इसके द्वारा पृथ्वी के “क्लीन अप प्रोसेस” में तेज़ी आएगी।
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जियो-इंजीनियरिंग तकनीक की वजह से अन्य शमन उपायों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता।
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विशिष्ट प्रौद्योगिकियाँ जो नकारात्मक उत्सर्जन को प्राप्त करने में हमारी मदद कर सकती हैं, उन्हें सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित करने की आवश्यकता है और लोकतांत्रिक रूप से यह सुनिश्चित करने की ज़रुरत है कि वे सार्वजनिक हित में हों।
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जियो-इंजीनियरिंग को सभी क्षेत्रों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के पूरक के रूप में ही देखा जाना चाहिये, विकल्प के तौर पर नहीं।
कृषि में महिलाओं का योगदान
संदर्भ
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पिछले कुछ समय से चल रहे किसान विरोध के दौरान कृषि में महिलाओं की भागीदारी पर बहस प्रारंभ हो गई है। प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन ने कहा था कि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महिलाओं ने ही सर्वप्रथम फसली पौधों का प्रयोग प्रारंभ किया और खेती की कला व विज्ञान का विकास हुआ। उस समय पुरुष भोजन की तलाश में शिकार करने चले जाते थे और महिलाएँ देसी पेड़-पौधों से बीज व फल एकत्रित करती थीं। इस प्रकार भोजन, खाद्य, चारा, फाइबर और ईंधन के लिये खेती का विकास हुआ।
कृषि में महिलाएँ : आम धारणा
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भारत में जब भी कृषि संबंधी चर्चा की जाती है, तो किसान के रूप में पुरुषों के बारे में ही सोचा जाता है। महिलाओं का नाम कृषि भूमि के मालिक के रूप में दर्ज न होने के कारण उनको किसानों की परिभाषा से बाहर रखा जाता है।
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कृषक के रूप में मान्यता न मिलने से महिलाएँ नियमानुसार सभी सरकारी योजनाओं का लाभ प्राप्त करने से वंचित रह जाती हैं।
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सरकार भी इस समस्या को लेकर बहुत चिंतित नहीं है और महिलाओं को ‘कृषि कार्य में सहायक’ या ‘खेतिहर मजदूर’(Agricultural Labourers) के रूप में मान्यता देती है न कि कृषक के रूप में।
संबंधित आँकड़े
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कृषि जनगणना के अनुसार, 73.2% ग्रामीण महिलाएँ कृषि गतिविधियों में संलग्न हैं, परंतु केवल 8% महिलाओं के पास ही भूमि का स्वामित्व है।
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‘भारत मानव विकास सर्वेक्षण’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश में 83% कृषि भूमि पुरुष सदस्यों को परिवार से विरासत में मिली है जबकि महिलाओं को केवल 2% भूमि ही उत्तराधिकार में मिली है।
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इसके अतिरिक्त, 81% महिला कृषि मज़दूर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं और इसलिये वे आवधिक (Casual) तथा भूमिहीन मज़दूरी में सबसे अधिक योगदान देती हैं।
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विदित है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, 11.8 करोड़ कृषक और 4 करोड़ कृषि श्रमिक हैं।
कृषि में लैंगिक असमानता
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महिलाओं को वे अधिकार प्राप्त नहीं हैं, जो उन्हें एक कृषक के रूप में प्राप्त होते चाहिये, जैसे कि खेती के लिये कर्ज, कर्जमाफी, फसल बीमा और सब्सिडी के साथ-साथ महिला कृषकों की आत्महत्या के मामले में उनके परिवारों को मुआवजा न मिलना।
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महिलाओं को किसानों के रूप में मान्यता न मिलना उनकी समस्याओं का केवल एक पहलू है। महिला किसान मंच (MAKAAM) के अनुसार उन्हें भूमि, जल और जंगलों पर अधिकार के मामलों में अत्यधिक असमानता का सामना करना पड़ता है।
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इसके अतिरिक्त, कृषि की अन्य समर्थन प्रणालियों, जैसे- भंडारण सुविधाओं, परिवहन लागत और नए निवेश के लिये नकदी या पुराने बकायों का भुगतान करने के साथ-साथ कृषि ऋण से संबंधित अन्य सेवाओं में भी लैंगिक भेदभाव है। साथ ही, निवेश और बाज़ारों तक पहुँच में भी असमानता का सामना करना पड़ता है।
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इस प्रकार, कृषि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान के बावजूद महिला किसान हाशिये पर हैं, जो शोषण के प्रति बहुत सुभेद्य हैं। इस समस्या का कारण सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक है और यह इस धारणा का परिणाम है कि खेती केवल पुरुषों का पेशा है।
नए कृषि कानून और संबंधित चिंताएँ
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महिला कृषक नए कृषि कानूनों से भी चिंतित हैं। चूँकि सरकार की नीतियों का मुख्य उद्देश्य कभी भी असमानता या उनकी परेशानियों को कम करना नहीं रहा है। अत: महिला किसानों को डर है कि नए कृषि कानूनों से लैंगिक असमानता में और वृद्धि हो जाएगी।
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महिला किसान मंच के अनुसार, नए कृषि कानूनों में किसानों को शोषण से बचाने के लिये एम.एस.पी. का उल्लेख न होना प्रथम मुद्दा है। इससे महिला किसानों की सौदेबाजी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
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साथ ही, महिलाएँ ऐसी स्थिति में नहीं हैं, जो एक सशक्त एजेंट के रूप में व्यापारियों और कॉर्पोरेट संस्थाओं के साथ होने वाले समझौतों (लिखित) को समझ सकें या उस पर बातचीत कर सकें। इस प्रकार, किसानों की उपज खरीदने के लिये या अन्य सेवाओं के लिये इन संस्थाओं से समझौता करने में महिलाओं को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।
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यह स्पष्ट है कि किसानों को कॉर्पोरेट संस्थाओं के साथ सौदेबाजी की शक्ति प्राप्त नहीं होगी क्योंकि कॉर्पोरेट्स बिना किसी सुरक्षा जाल या पर्याप्त निवारण तंत्र के उपजों की कीमतें तय करेंगे। इससे महिला कृषक अधिक प्रभावित होंगी।
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परिणामतः लघु, सीमांत और मध्यम किसानों को अपनी भूमि बड़े कृषि-व्यवसायिक घरानों को बेचने और मज़दूरी करने के लिये मज़बूर होना पड़ेगा।
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सरकार को महिला किसानों की परेशानियों को भी समझना होगा क्योंकि वर्तमान में हो रहे विरोध में वे पुरुषों के साथ बराबरी में शामिल हैं।
शहरी रोज़गार से संबंधित पहलू
संदर्भ
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भारतीय अर्थव्यवस्थामें ऋणात्मक संकुचन के बाद धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। आर्थिक विश्लेषक वित्तीय विस्तार की आवश्यकता और ‘वी-शेप रिकवरी’ की व्यवहार्यता पर बहस कर रहे हैं, जिसने रोज़गार से ध्यान हटा दिया है। सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के हालिया आँकड़े जुलाई माह से रोज़गार की रिकवरी में क्रमिक मंदी की ओर संकेत कर रहे हैं। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार राष्ट्रीय बेरोज़गारी दर में वृद्धि हुई है और यह नवंबर में 51% से बढ़कर दिसंबर में 9.06% हो गई है।
शहरी बेरोज़गारी और मनरेगा पर व्यय
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ग्रामीण क्षेत्र की ओर श्रमिकों के लौटने के कारण महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के व्यय में वृद्धि हुई है और मनरेगा के कार्यदिवस में 243% की वृद्धि देखी गई।
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इससे मनरेगा पर निर्भरता बढ़ गई है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने नवंबर महीने तक कुल आवंटन का लगभग 90% खर्च किया है, जबकि अभी भी काम की माँग करने वाले 75 मिलियन परिवारों में से लगभग 13% की माँगे पूरी नहीं हो पाईं हैं।
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हालाँकि, कई भारतीय शहरों में बंद पड़े कारोबार का अर्थ है कि लाखों श्रमिकों ने या तो काम छोड़ दिया है या वे नए प्रकार के कार्यों में संलग्न हो गए हैं। कुछ लोगों के लिये गिग अर्थव्यवस्था उनके रोज़गार का एकमात्र स्रोत है।
मूल्यांकन, विनियमन और समर्थन की आवश्यकता
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उचित वेतन, स्थिति, अनुबंध, प्रबंधन और प्रतिनिधित्व के पाँच मैट्रिक्स के आधार पर शहरी रोज़गार से संबंधित एक मूल्यांकन किया गया। इनमें उबर, ओला, स्विगी और ज़ोमैटो जैसे रोज़गार प्रदाता मंच शामिल हैं।
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मनरेगा के समकक्ष कोई शहरी मंच उपलब्ध न होने के कारण रोज़गार के नए स्वरूपों का मूल्यांकन, विनियमन और समर्थन करने की आवश्यकता है, जो वर्तमान में रोज़गार की तलाश कर रहे लोगों के लिये एक अनौपचारिक सुरक्षा जाल के रूप में कार्य कर सकती है।
मूल्यांकन
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पहला और सबसे महत्वपूर्ण कार्य मूल्यांकन का रहता है। गिग श्रम के कार्य और श्रमिकों के बारे में मौजूदा समझ स्वयं इन मंचों द्वारा प्रदान किये गए सीमित आँकड़ों पर निर्भर है।
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इसके अलावा, इन रोज़गार प्रदाता मंचों के पैमाने और प्रभाव का मूल्यांकन करने वाले स्वतंत्र अध्ययन बहुत कम हैं। इनमें से अधिकांश नियामक इन मंचो से संबंधित श्रम और उसके आसपास के बुनियादी आँकड़ों व सवालों पर अंधेरे में ही रहते हैं।
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अब तक भारत में गिग श्रमिकों की कुल संख्या से संबंधित कोई आधिकारिक अनुमान उपलब्ध नहीं हैं। हालाँकि, इन प्लेटफॉर्मों की केंद्रीकृत प्रकृति और बड़े आकार के कारण श्रम मंत्रालय के लिये डाटा के संग्रहण को अपेक्षाकृत सीधा व आसान बनाया जाना चाहिये।
विनियमन का मुद्दा
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अगला मुद्दा विनियमन का है, जो काफी संवेदनशील है। संवेदनशीलता का कारण प्राथमिक रूप से गिग श्रम की विविधतापूर्ण प्रकृति है। कुछ श्रमिक इन मंचों का उपयोग अनियमित आजीविका या अंशकालिक नौकरी के लिये करते हैं, जबकि कुछ के लिये यह रोज़गार का प्राथमिक स्रोत है।
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यह गत्यात्मकता ‘वन-साइज़-फिट्स-ऑल’ जैसी विनियामक रणनीति के जोखिम से और अधिक जटिल हो जाती है, जो एक जैसे बाज़ारों के साथ-साथ फ्रीलांसरों (अत्यधिक कुशल और अत्यधिक भुगतान पाने वाले) के रूप में उभर रहे नए व अलग प्रकार के बाज़ारों को भी अनजाने मेंनुकसान पहुँचाती है। गौरतलब है कि महामारी के चलते फ्रीलांस मार्केट का तेजी से विकास हुआ है।
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इसके लिये कुछ फ्लैगशिप योजनाओं के माध्यम से सरकार इन प्लेटफॉर्मों के साथ सशर्त भागीदारी कर सकती है। इस संबंध में प्रधानमंत्री स्वनिधि (पीएम स्ट्रीट वेंडर आत्मनिर्भर निधि) योजना के अंतर्गत स्विगी का स्ट्रीट फूड वेंडर प्रोग्राम एक अच्छा उदाहरण साबित हो सकता हैं।
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इसके तहत स्थापित किये जाने वाले स्ट्रीट वेंडर को भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण द्वारा पंजीकरण व प्रमाणन सुनिश्चित किया जा रहा है।
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नौकरियों के सृजन के साथ-साथ स्वैच्छिक रूप से गुणवत्ता मानकों को अपनाना सरकार और रोज़गार प्रदाता के बीच पारस्परिक रूप से लाभप्रद साझेदारी का एक उदाहरण है।
आगे की राह
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इन मंचो को सरकारी समर्थन प्राप्त करने के लिये मानदंडों और श्रमिक क्षतिपूर्ति मानकों का अनुपालन करने की आवश्यकता होती है, जो शहरी रोज़गार प्रदान करने के साथ-साथ सरकार के लिये आँकड़ो को एकत्रित करने में सहायक हो सकती है।
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शहरी रोज़गार गारंटी के मौजूदा प्रस्तावों में सरकारी खजाने से ₹1 लाख करोड़ की लागत से श्रमिकों को लगभग ₹300 दैनिक वेतन दिया जा सकता है।
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श्रमिकों की नियुक्ति के लिये श्रम प्लेटफॉर्मों के साथ सहयोग करने से न केवल लागत में उल्लेखनीय कमी आएगी (सरकार और भागीदारों के लिये) बल्कि इससे एक ऐसे वातावरण का भी निर्माण होगा, जहाँ फर्मों को सरकार के साथ सहयोग करने की संभावना में वृद्धि होगी।
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सीमित वित्तीय साधन और देश के उपभोग आधार को बढ़ाने की आवश्यकता सरकार को नए साझेदारों व भागीदारों के साथ सहजीवी संबंध बनाने के लिये प्रेरित कर सकती है।
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शहरी श्रम प्रदान करने में उद्योग 0 प्लेटफॉर्मों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है अत: मूल्यांकन, सहयोग और विनियमन सरकार का लक्ष्य होना चाहिये।
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महामारी के कारण भविष्य में भारत को अलग प्रकार से कार्य पद्धति और उसके प्रति समझ को परिभाषित करने की आवश्यकता है अतः इसके लिये नौकरियों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ आजीविका की गुणवत्ता पर भी ध्यान देना आवश्यक है।
2 डी-इलेक्ट्रॉन गैस (2DEG)
संदर्भ
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हाल ही में, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST) के स्वायत्त निकाय ‘नैनो विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान’ (INST) ने दो इन्सुलेट ऑक्साइड परतों के इंटरफेस पर अत्यधिक गतिशील2D-इलेक्ट्रॉन गैस (2DEG) का उत्पादन किया है।
2d-इलेक्ट्रॉन गैस से संबंधित मुख्य बिंदु
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यह इलेक्ट्रॉन गैस किसी डिवाइस के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक क्वांटम सूचना और सिग्नल को अत्यधिक गतिशीलता(Ultra High Mobility) के साथ स्थानांतरित करने में सक्षम है। साथ ही, यह डाटा भंडारण और मेमोरी को भी बढ़ा सकती है।
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इलेक्ट्रॉन गैस की उच्च गतिशीलता के कारण इलेक्ट्रॉन के नाभिक लंबी दूरी के माध्यम के भीतर आपस में टकराते नहीं हैं, फलस्वरूप वे लंबे समय तक मेमोरी व सूचना को भंडारित करने तथा लंबी दूरी तक स्थानांतरित करने में सक्षम होते हैं।
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इसके अतिरिक्त, तीव्र प्रवाह के दौरान कम टकराव के कारण उनके मध्य प्रतिरोध बहुत कम होता है, जिससे ऊर्जा की क्षति अपेक्षाकृत कम होती है। इसलिये ऐसे उपकरण जल्दी गर्म नहीं होते हैं तथा उनके संचालन हेतु कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
क्रियाविधि
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इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की कार्यक्षमता में वृद्धि करने के लिये इलेक्ट्रॉन के गुणधर्म में कुछ बदलाव किये जाते हैं। इस प्रक्रिया में इलेक्ट्रॉन के ‘आवेश’ (Charge) की बजाय उसके ‘चक्रण’ (Spin) का उपयोग किया जाता है, यह प्रक्रिया ‘स्पिन डिग्री ऑफ फ्रीडम’ कहलाती है। इलेक्ट्रॉन के आवेश के आधार पर विकसित प्रौद्योगिकी को ‘इलेक्ट्रॉनिक्स’, जबकि इलेक्ट्रॉन के चक्रण पर आधारित प्रौद्योगिकी को ‘स्पिन्ट्रॉनिक्स’ कहा जाता है। जहाँ ‘इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण’ इलेक्ट्रॉन के ‘आवेश संरक्षण के सिद्धांत’ (Charge Conservation Theory) पर कार्य करते हैं, वहीं ‘स्पिन्ट्रॉनिक्स उपकरण’ इलेक्ट्रॉन के ‘स्पिन वितरण के सिद्धांत’ (Spin Distribution Theory) पर कार्य करते हैं।
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इस सिद्धांत के आधार पर विज्ञान की एक नई शाखा का जन्म हुआ, जिसे वैज्ञानिकों ने ‘स्पिन-इलेक्ट्रॉनिक्स’ या ‘स्पिन्ट्रॉनिक्स’ का नाम दिया है। यह व्यवस्था ‘रश्बा प्रभाव’ (Rashba-Effect) की क्रियाविधि पर कार्य करती है, जिसके अंतर्गत एक इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली के भीतर स्पिन-बैंड विभाजित होते हैं। स्पिन्ट्रॉनिक्स उपकरण रश्बा प्रभाव की क्रियाविधि पर कार्य कर सकते हैं।
स्पिन्ट्रॉनिक्स तकनीक के अनुप्रयोग
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‘स्पिन्ट्रॉनिक्स’ के अंतर्गत ठोस अवस्था वाले उपकरणों में इलेक्ट्रॉन के आंतरिक स्पिन और इसके चुंबकीय गुणों का अध्यनन किया जाता है। स्पिन्ट्रॉनिक्स प्रणाली को प्रायः तनु चुंबकीय अर्द्धचालकों (Dilute Magnetic Semiconductors) और हेस्लर मिश्रणों (Heusler Alloys) में अनुभव किया जा सकता है। इस तकनीक का अनुप्रयोग क्वांटम कंप्यूटिंग और न्यूरोमॉर्फिक कंप्यूटिंग के क्षेत्र में किया जा सकता है।
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स्पिन्ट्रॉनिक्स (इलेक्ट्रॉन स्पिन-ऑर्बिट टेक्नोलॉजी) के माध्यम से स्मार्टफोन्स, स्मार्ट टेक्नोलॉजी एवं इंटरनेट ऑफ थिंग्स जैसी तकनीकों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहा है। इसके अतिरिक्त, स्पिन्ट्रॉनिक्स समर्थित उपकरणों में ऊष्मण (Heating) की समस्या भी अपेक्षाकृत कम देखने को मिलती है।
नैनो मिशन के बारे में
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वर्ष 2007 में भारत सरकार ने ‘अंब्रेला कैपेसिटी बिल्डिंग प्रोग्राम’ के रूप में नैनो मिशन की शुरुआत की थी।
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नैनो मिशन के तहत किये गए प्रयासों के परिणामस्वरूप भारत, नैनो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वैज्ञानिक उपलब्धियों के मामले में दुनिया के शीर्ष पाँच देशों में शामिल हो गया है।
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‘विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग’ नैनो मिशन के क्रियान्वयन हेतु नोडल एजेंसी है।
नैनो विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (INST) –
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मोहाली (पंजाब) में स्थित ‘नैनो विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान’ विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST) के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है। इसकी स्थापना ‘नैनो मिशन’ के तहत भारत में नैनो विज्ञान और नैनो प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देने के लिये की गई थी।
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यह संस्थान नैनो विज्ञान में रूचि रखने वाले जीव विज्ञानियों, रसायन विज्ञानियों, भौतिक विज्ञानियों, इंजीनियरों आदि को एकसाथ लाता है।
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इसका उद्देश्य राष्ट्रीय प्राथमिकताओं, विशेष रूप से कृषि, रक्षा, स्वास्थ्य सेवा, ऊर्जा, पर्यावरण, जल इत्यादि क्षेत्रों में प्रौद्योगिकीय विकास को बढ़ावा देना है।
समुद्री शैवाल : संरक्षण की आवश्यकता
समुद्री शैवाल
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समुद्री शैवाल को सीवीड (Seaweed) कहते हैं। यह एक आदिम (Primitive) पुष्प-रहित समुद्री शैवाल है, जिसमें जड़, तना और पत्तियाँ नहीं होती हैं।
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समुद्री शैवाल सौर प्रकाश के प्रकाश संश्लेषण और समुद्री जल में मौजूद पोषक तत्वों के माध्यम से पोषण प्राप्त करते हैं।ये अपने शरीर के प्रत्येक हिस्से से ऑक्सीजन मुक्त करते हैं।
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समुद्र में अधिक घनत्व वाले पानी के नीचे पाए जाने वाले बड़े एवं लंबे समुद्री शैवाल के जंगलों को ‘केल्प वन’ (Kelp Forests) कहा जाता है।
लाभ
आवास के रूप में–
इसकी हजारों प्रजातियाँ उपलब्ध हैं, जो आकार, आकृति और रंग में काफी भिन्न होती हैं। ये समुद्री जीवों के लिये आवास प्रदान करती हैं और उन्हें खतरों से बचाती हैं।
खाद्य के रूप में–
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‘केल्प वन’ मछली, घोंघे और समुद्री अर्चिन (Sea Urchin) के लिये पानी के नीचे एक नर्सरी के रूप में कार्य करते हैं।साथ ही, शाकाहारी समुद्री जीव भी इसके ‘थैलस’ (Thallus) को खाकर जीवन यापन करते हैं। इसके अतिरिक्त समुद्री शैवाल, समुद्री जीवों को जैविक पोषक तत्त्वों की आपूर्ति भी करते हैं।
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वस्तुत: ‘थैलस’ से आशय एक ऐसे पादप से होता है, जिसमें जड़ों, संवहन तंत्र, पत्ती व तने का आभाव होता है किंतु इस प्रकार के पादपों में डंठल जैसी संरचना पाई जाती है।
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पारिस्थितिक तंत्र के लिये–
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ये शैवाल समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। वृहद जल निकायों में पाए जाने वाले कुछ पोषक तत्व समुद्री जीवों के लिये विषैले और मृत्युकारक हो सकते हैं।
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समुद्री शैवाल समुद्र के उथले और गहरे जल में (अधिकांशत: अंतर्ज्वारिय क्षेत्र (Intertidal Region) में) पाए जाने के साथ-साथ ज्वारनदमुख (Estuaries) और पश्चजल/बैकवाटर्स (Backwaters) में पाए जाते है, जो अतिरिक्त पोषक तत्वों को अवशोषित करते हैं तथा पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित करते हैं।
जैव–संकेतक के रूप में–
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समुद्री शैवाल जैव-संकेतक के रूप में भी कार्य करते हैं।जब कृषि, जलीय कृषि (Aquaculture), उद्योगों और घरों से निकलने वाला कचरा समुद्र में प्रवेश करता है, तो यह पोषक तत्वों के असंतुलन का कारण बनता है, जिससे शैवाल प्रस्फुटन (Algal Bloom) होता है।
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‘शैवाल प्रस्फुटन’ समुद्री रासायनिक क्षति का संकेतक है। जलीय निकाय में शैवालों का तेजी सेबढ़ना शैवाल प्रस्फुटन या शैवाल विकसन कहलाता है। इसके कारण जल का रंग बदल जाता है।
समुद्री क्षरण रोकने में सहायक–
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समुद्री शैवाल प्रकाश संश्लेषण के लिये लौह खनिज पर बहुत अधिक निर्भर रहते हैं।जब इस खनिज की मात्रा अनुमन्य या संतुलित स्तर से अधिक हो जाती है, तो यह समुद्री जीवन के लिये खतरनाक हो जाती है। ऐसी स्थिति में समुद्री शैवाल इसका प्रयोग करके समुद्री क्षरण को रोकने में सहायक होते हैं।
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इसी तरह, समुद्री शैवाल समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में पाए जाने वाले अधिकांश भारी धातुएँ को भी हटाने में सहायक होता हैं।
जलवायु परिवर्तन और समुद्री शैवाल–
जलवायु परिवर्तन को कम करने में समुद्री शैवाल की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कुल समुद्री क्षेत्र के केवल 9% हिस्से में समुद्री शैवाल की उपस्थिति (वनीकरण) प्रतिवर्ष लगभग 53 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड का पृथककरण (CO2 Sequestration) करने में सक्षम है। अत: कार्बन पृथककरण के लिये समुद्री शैवाल को उगाने के लिये ‘समुद्री वनीकरण’ के रूप में एक प्रस्ताव भी पेश किया गया है।
कृषि और पशुपालन में–
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कृषि और पशुपालन में समुद्री शैवाल का महत्त्व उल्लेखनीय है।इनका उपयोग उर्वरकों के रूप में और मत्स्य उत्पादन में वृद्धि के लिये किया जा सकता है।
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इसके अलावा, पशुओं को जब समुद्री शैवाल खिलाया जाता है, तो उनसे मीथेन उत्सर्जन काफी हद तक कम हो सकता है।
अन्य लाभ–
इसके अतिरिक्त, समुद्री शैवाल समुद्र तट के कटाव से निपटने में भी सहायक हो सकते हैं। साथ ही, इसका उपयोग टूथपेस्ट, सौंदर्य प्रसाधन और पेंट तैयार करने में एक घटक के रूप में किया जाता है।
भारत में समुद्री शैवाल
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दक्षिण-पूर्वी भारत में बंगाल की खाड़ी, अरब सागर और हिंद महासागर के सम्मिलन बिंदु पर स्थित तमिलनाडु का समुद्री तट 1,076 किमी. लंबा है।
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मन्नार की खाड़ी के दक्षिणी क्षेत्र में चट्टान युक्त अंतर्ज्वारिय और निचले अंतर्ज्वारिय क्षेत्रों में समुद्री शैवाल की कई प्रजातियाँ अत्यधिक मात्रा में पाई जाती है। अध्ययनों से पता चलता है कि यहाँ समुद्री शैवाल की लगभग 302 प्रजातियाँ विद्यमान हैं।
हानि
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हालाँकि, समुद्री शैवाल की कुछ दुर्लभ प्रजातियाँ प्रवाल भित्तियों को तोड़ती हैं और उन्हें गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाती हैं।
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पेप्सिको (एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय) द्वारा इस क्षेत्र में समुद्री शैवाल की एक विदेशी और आक्रामक प्रजाति (कप्पाइकस अल्वारेज़ी- Kappaphycus Alvarezii) की खेती से समुद्री जीवों के लिये एक गंभीर खतरा पैदा हो गया है। इसने धीरे-धीरे प्रवाल भित्तियों को नष्ट करना शुरू कर दिया हैं।
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मछुवारा समूह की ज्यादातर महिलाएँ इन द्वीपों के आसपास रोजाना समुद्री शैवाल को एकत्र करती हैं और ऐसा करते समय वे प्रवाल को नुकसान पहुँचाती हैं।
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मैकेनिकल ड्रेजिंग (Mechanical Dredging) बड़े समुद्री शैवालों द्वारा निर्मित केल्प वनों को नुकसान पहुँचाती है।समुद्री शैवाल का विवेकहीन तरीके से किया गया संग्रहण भी उपयोगी शैवाल को गंभीर नुकसान पहुँचाता है।
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मैकेनिकल ड्रेजिंग वह प्रक्रिया है जिसमें यांत्रिक उपकरणों, जैसे- बाल्टी, ग्रेब आदि का उपयोग करके तलछटों और अवसादों को उठाया जाता है।
आगे की राह
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वर्ष 2005 में एक सरकारी आदेश जारी किया गया था। इसमें केवल पाक खाड़ी के उत्तर और थुथुकुडी तट के दक्षिण के समुद्री जल में ही विदेशी प्रजातियों की खेती को प्रतिबंधित किया गया था। इस क्षेत्र में वृद्धि किये जाने की आवश्यकता है।
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प्रवाल भित्तियों की सुरक्षा के लिये वन विभाग साल 2014 से प्रतिवर्ष समुद्री शैवाल को हटा रहा है। समुद्री शैवाल के पारिस्थितिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों के लिये यह आवश्यक है कि वे समुद्री शैवालों के स्थायी प्रबंधन के लिये त्वरित और वैज्ञानिक कार्रवाई प्रारंभ करें, ताकि इनका संरक्षण किया जा सकें।
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इसके अतिरिक्त, आई.यू.सी.एन. (IUCN) द्वारा समुद्री शैवाल की संरक्षण स्थिति का भी मूल्यांकन किये जाने की आवश्यकता है।
हिमाचल प्रदेश में दावानल की बढ़ती घटनाएँ
सन्दर्भ
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हिमाचल प्रदेश में शुष्क मौसम में अक्सर वनाग्नि/दावानल/ जंगल की की घटनाएँ सामने आती हैं।
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हाल ही में कुल्लू में विकराल रूप से फ़ैल रहे एक दावानल को मुश्किल से काबू में किया जा सका।
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कुल्लू के अलावा शिमला और राज्य के अन्य हिस्सों में भी दावानल की घटनाएँ दर्ज की गई थीं।
हिमाचल प्रदेश का वन आवरण
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यद्यपि हिमाचल प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का दो-तिहाई भाग कानूनी रूप से वन क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है लेकिन इस क्षेत्र का अधिकांश भाग स्थाई रूप से बर्फ, ग्लेशियर, ठंडे रेगिस्तान या अल्पाइन घास के मैदानों से ढका हुआ है।
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यदि इन क्षेत्रों को अलग कर दिया जाय तो भारत के वन सर्वेक्षण के अनुसार हिमाचल प्रदेश का प्रभावी वन क्षेत्र उसके कुल क्षेत्रफल का लगभग 28% (15,434 वर्ग किलोमीटर) है।
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चीड़, देवदार, ओक, कैल और स्प्रूस यहाँ पाए जाने वाले कुछ प्रमुख पेड़ हैं।
इन जंगलों में आग कैसे लगती है?
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सामान्यतः मानसून और सर्दियों में वर्षा की अवधि को छोड़कर वनों में आग का खतरा बना रहता है।
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दावानल राज्य में लगभग हर वर्ष होने वाली घटना है और प्रमुख तौर पर चीड़ और देवदार के जंगलों में इन घटनाओं को दर्ज किया गया है।
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गर्मियों के मौसम में, राज्य की निचली और मध्यम पहाड़ियों में अक्सर आग लगती है, यहाँ भी सामन्यतः चीड़ और देवदार के वन ही पाए जाते हैं।
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मार्च से जून तक शुष्क गर्मी के मौसम में चीड़, देवदार के पेड़ों से अत्यधिक-दहनशील सुई के आकार के पत्ते गिरते हैं।यदि गिरी हुई सुइ के सामान सूखी पत्तियों में एक बार आग लग जाती है, तो बहने वाली हवा के कारण यह पूरे जंगल में तीव्र गति से फैल सकती है।
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हालाँकि, मोटी छाल के कारण, चीड़ और देवदार के पेड़ आग से अपेक्षाकृत अप्रभावित रहते हैं हैं और मानसून के दौरान वापस हरे भरे हो जाते हैं।
आग लगने के कारण
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सामान्यतः प्राकृतिक कारणों जैसे कि बिजली गिरने या बाँस की लकड़ियों के आपस में रगड़ने की वजह से आग लग सकती है, लेकिन वन अधिकारियों का मानना है कि जंगल में लगने वाली अधिकतर आगों (दावानल) के लिये सामान्यतः मानवीय कारक ही ज़िम्मेदार होते हैं ।
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वनों में जब घास सूख जाती है, तब किसी माचिस या बीड़ी/ सिगरेट आदि की एक छोटी सी चिंगारी के कारण भी भीषण आग लग सकती है।
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चीड़ या देवदार की सूखी पत्तियों के बिजली के खम्भे पर गिरने पर भी चिंगारी निकल सकती है और वह आग का रूप ले सकती है।
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ऐसे लोग जो जंगलों से कुछ खाने/लकड़ी आदि का सामना लेने जाते हैं या अपने पशुओं को चराने के लिये जंगल लेकर जाते हैं कभी-कभी खाना बनाने के लिये अस्थाई रूप से चूल्हे बनाते हैं और खाना खा लेने के बाद उसे वैसे ही सुलगता छोड़ कर चले जाते हैं, जो बाद में आग में बदल सकता है।
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इसके अलावा, जब लोग अपने खेतों को साफ़ करने के लिये की ठूंठ या सूखी घांस (या पराली) को जला देते हैं तो इससे भी जंगलों में आग फैल जाती है।
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वन भूमि पर सूखे पत्तों का कूड़ा एक तैयार ईंधन के रूप में काम करता है।पेड़ के गिरे पत्ते, सूखी घास, खरपतवार आदि भी ईंधन का काम करते हैं।
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फैला हुआ कूड़ा, अपघटित होने वाले कार्बनिक यौगिक जैसे मिट्टी, लकड़ी, झाड़ियाँ, जड़ें, पीट आदि भी दहन को और ज़्यादा तीव्र कर देते हैं।
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यदि आग के ऊपर पहुँचने की बात की जाय तो सूखे खड़े पेड़, काई, लाइकेन, शुष्क एपिफाइटिक या परजीवी पौधे आदि आग को जंगलों में ऊपर तक फैला सकते हैं।
दावानल से नुकसान
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दावानल की वजह से वनों की पुनर्जनन क्षमता और उनकी उत्पादकता को बहुत नुकसान पहुँचता है।
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ओक और देवदार जैसे नमी वाले पेड़ विदेशी खरपतवारों के लिये स्रोत का कार्य कर सकते हैं, जिससे खर पतवार बाद में पूरे जंगल में फ़ैल जाते हैं।
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वन सामान्य रूप से जलधाराओं और झरनों को निरंतर प्रवाह बनाए रखने में सहायक होते हैं और स्थानीय समुदायों के लिये जलाने की लकड़ी, चारे और अन्य उत्पादों के स्रोत भी होते हैं अतः आग लगने की दशा में इन सभी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
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दावानल से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों भी नष्ट ही जाते हैं और यह ज़मीन की ऊपरी परत के क्षरण को भी ट्रिगर कर सकती है।
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वन्य जीवों के आश्रयस्थल भी दावानल से विशेष रूप से प्रभावित होते हैं।
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कभी-कभी, जंगल की आग नियंत्रण से बाहर होकर मानव बस्तियों तक फैल जाती है, इस प्रकार मानव जीवन और संपत्ति के लिये भी खतरा उत्पन्न हो सकता है।
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हिमाचल वन विभाग के अनुसार, दावानल से हर वर्ष कई करोड़ रुपयों का नुकसान होता है।
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वर्ष 2016-17 से 2019-20 के बीच दावानल से राज्य को लगभग 7 से 3.5 करोड़ रूपए की हानि हुई।
दावानल को रोकने और नियंत्रित करने के उपाय
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मौसम संबंधी आंकड़ों का उपयोग करते हुए आग लगने वाले दिनों का पूर्वानुमान लगाना, सूखे बायोमास वाले स्थलों को साफ रखना, जंगल में सूखे कूड़ों को हटाना, अग्नि-सह्य पौधों को लगाना आदि कुछ तरीके हैं जिनसे दावानल की घटनाओं को कम किया जा सकता है।
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दावानल की दशा में अग्निशमन का उचित समय पर पहुंचना भी आवश्यक है।
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वर्ष 1999 में राज्य सरकार ने दावानल से जुड़े नियमों को अधिसूचित किया जिनमें वन क्षेत्रों और आस पास के क्षेत्रों में कुछ विशेष गतिविधियों को प्रतिबंधित या विनियमित किया गया था जैसे किसी भी उद्देश्य से आग जलाना, पराली जलाना, ज्वलनशील वन उपज का ढेर एकत्रित करना आदि।
MICE पर्यटन की संभावनाएँ
संदर्भ
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हाल ही में, गुजरात ने पर्यटन नीति की घोषणा की है, जिसमें MICE पर्यटन पर विशेष ज़ोर दिया गया है। इसका उद्देश्य निवेश और आजीविका के अवसरों पर ध्यान देने के साथ राज्य को देश के अग्रणी पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करना है। यह नीति गुजरात को ‘MICE पर्यटन’ का केंद्र बनाना चाहती है। गुजरात की नई पर्यटन नीति1 जनवरी, 2021 से 31 मार्च, 2025 तक के लिये घोषित की गई है।
क्या है MICE पर्यटन?
‘बैठकों, प्रोत्साहनों, सम्मेलनों और प्रदर्शनियों’ का ही संक्षिप्त नाम MICE (Meetings, Incentives, Conferences and Exhibitions) है। वास्तव में यह बिजनेस टूरिज्म का एक रूप है, जो घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों को किसी गंतव्य की ओर आकर्षित करता है। MICE पर्यटन की अवधारणा वैश्वीकरण और आर्थिक सुधारों का परिणाम है।
नीति में MICE पर्यटन को आकर्षित करने का प्रस्ताव
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गुजरात सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों को प्रोत्साहित करने के लिये रात भर रुकने वाले प्रति विदेशी प्रतिभागियों के लिये कार्यक्रम आयोजकों को 5,000 रुपये की सहायता की घोषणा की है, जिसकी ऊपरी सीमा 5 लाख रुपए है।
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घरेलू आयोजनों के लिये इस नीति में 2 लाख रुपए प्रति इवेंट की वित्तीय सहायता का वादा किया गया है। हालाँकि, इस वित्तीय सहायता के लिये प्रति वर्ष प्रति आयोजक तीन आयोजनों की ऊपरी सीमा निर्धारित की गई है।
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गुजरात के लिये बड़े व महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के आयोजन स्थल के रूप में उभरने के लिये विशाल सम्मेलन केंद्रों की आवश्यकता है। इस नीति में बड़े सम्मेलन केंद्रों के निर्माण के लिये विशेष प्रोत्साहन का वादा किया गया है, जिसमें पात्र पूँजी निवेश पर 15% पूँजीगत सब्सिडी शामिल है।
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साथ ही, सरकार ने आवश्यकता पड़ने पर पट्टे (Lease) पर भूमि देने का भी वादा किया है।
वर्तमान में गुजरात में MICE गंतव्य
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गाँधीनगर में महात्मा मंदिर सम्मेलन और प्रदर्शनी केंद्र एक प्रमुख स्थल है, जिसे ‘वाइब्रेंट गुजरात वैश्विक निवेश शिखर सम्मेलन’ के आयोजन स्थल के रूप में निर्मित किया गया था।
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इस परिसर में स्थित नमक के टीले के आकार में निर्मित दांडी कुटीर गाँधीजी को समर्पित एक मल्टीमीडिया संग्रहालय है। यह किसी एक व्यक्ति को समर्पित विश्व का सबसे बड़ा संग्रहालय है। यहाँ पिछले वर्ष फरवरी में प्रवासी वन्यजीव प्रजातियों के संरक्षण के लिये (CMS COP13) 13वीं यू.एन. अभिसमय का आयोजन किया गया था।
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इसके अतिरिक्त केंद्रीय गुजरात के नर्मदा ज़िले में केवडिया के पास टेंट सिटी को एक आदर्श सम्मेलन स्थल के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यहाँ पिछले वर्ष राष्ट्रीय स्तर के अधिकारियों का सम्मलेन आयोजित किया गया था। कच्छ के व्हाइट डेजर्ट में धोर्डो टेंट सिटी भी एक प्रमुख स्थल है।
MICE पर्यटन पर विशेष ध्यान दिये जाने का कारण
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आज के समय में MICE इवेंट प्रमुख पर्यटन जनरेटर हैं और इस क्षेत्र में गुजरात के लिये बहुत संभावनाएँ हैं। इस नीति का लक्ष्य गुजरात को देश के शीर्ष पाँच MICE पर्यटन स्थलों में से एक बनाना है।
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गुजरात में MICE कार्यक्रमों के आयोजन और सम्मेलन केंद्रों के निर्माण को प्रोत्साहित करके MICE पर्यटन क्षमता में अंतराल को भरने की कोशिश की जा रही है।
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व्यवस्थापक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों के लिये आये हुए आगंतुकों को कुछ अतिरिक्त दिनों के लिये रोककर गुजरात के पर्यटन के आकर्षक केंद्रों तक जाने के लिये प्रोत्साहित कर सकते हैं।
गुजरात के प्रमुख पर्यटन स्थल
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गुजरात में प्रमुख पर्यटन स्थलों में विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफयूनिटी’, एशियाई शेरों का एकमात्र आवास ‘गिर’, एशिया का सबसे लंबा ‘गिरनार रोपवे’ तथा भारत का पहला यूनेस्को विश्व विरासत शहर ‘अहमदाबाद’ शामिल हैं।
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इसके अतिरिक्त गुजरात में विश्व का सबसे पहला ज्ञात गोदी (Dock) और भारत का पहला बंदरगाह शहर (Port City) ‘लोथल’, सिंधु घाटी की शहरी सभ्यता का एक प्रदर्शन स्थल ‘धोलावीरा’ के साथ-साथ भारत के ‘ब्लू फ्लैग’ समुद्र तटों में से एक ‘शिवराजपुर’ तथा अहमदाबाद में साबरमती रिवरफ्रंट से केवडिया में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी तक भारत की पहली सीप्लेन सेवा प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं।
MICE का भविष्य
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सिंगापुर के पर्यटन राजस्व का लगभग एक-तिहाई हिस्सा MICE पर्यटन से आता है और हाल के वर्षों में भारत एक बड़े MICE डेस्टिनेशन के रूप में विकसित हुआ है। अभी भारत अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में से केवल 4% की मेजबानी करता है।
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गौरतलब है कि वैश्विक रूप से MICE कार्यक्रमों के लिये प्रत्येक वर्ष लगभग 50 मिलियन यात्राएँ की जाती हैं।
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MICE पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये भारत को जापान की तरह MICE पर्यटन के अनुसंधान और नवाचार में अधिक निवेश करना चाहिये। विदित है कि जापान MICE पर्यटन के मामले में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में प्रथम और भारत पाँचवें स्थान पर है।
प्रौद्योगिकियों में दुर्लभ पार्थिव धातुएँ : एक विश्लेषण
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ई-कचरे के बाल स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव पर संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय (UNU) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा किये गएएक सर्वेक्षण ने रासायनिक जलन, कैंसर और विकास के अवरुद्ध होने आदि के बारे में चिंता जताई है।
दुर्लभ पार्थिव धातुएँ (Rare Earth Metals)
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दुर्लभ पार्थिव धातुओं को दुर्लभ पृथ्वी तत्त्व भी कहा जाता है। इनमें सत्रह रासायनिक तत्त्वों को शामिल किया जाता है, जिनमें 15 लैंथेनाइड्स (Lanthanides) तथा स्कैंडियम व यट्रियम (Yttrium) शामिल हैं।
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15 लैंथेनाइड्स में लैन्थनम (Lanthanum), सीरियम (Cerium), प्रेजोडीमियम (Praseodymium), नियोडाइमियम, प्रोमीथियम, समेरियम (Samarium) और युरोपियम को शामिल किया जाता है।
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इसके अतिरिक्त, इस सूची में गैडोलिनियम, टर्बियम, डिसप्रोसियम (Dysprosium) के साथ-साथ होल्मियम (Holmium), अर्बियम (Erbium), थुलियम, यट्टर्बियम (Ytterbium) और ल्यूटेटियम (Lutetium) भी शामिल हैं।
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नाम के बावजूद दुर्लभ पार्थिव धातुएँ पृथ्वी की भू-पर्पटी में प्रचुरता से पाई जाती हैं। ये तत्त्व एक जगह नहीं बल्कि बिखरे हुए स्वरुप तथा कम सांद्रता में पाए जाते हैं जिनका आर्थिक रूप से दोहन महँगा होता हैं।
दुर्लभ पृथ्वी धातुओं का प्रयोग
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स्वाभाविक रूप से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध पवन, भू-तापीय, सौर, ज्वारीय और विद्युत ऊर्जा को भविष्य की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिये विकसित किया जा रहा है।
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इस स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा को उत्पन्न करने के लिये प्रयुक्त प्रौद्योगिकियों में विभिन्न दुर्लभ पृथ्वी तत्त्वों का उपयोग किया जाता है।इनमें विंड टरबाइन मैग्नेट, सौर सेल, स्मार्टफोन के घटक और इलेक्ट्रिक वाहनों में उपयोग की जाने वाले सेल शामिल हैं।
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वर्ष 1948 तक भारत और ब्राजील विश्व में दुर्लभ पृथ्वी धातुओं के प्राथमिक उत्पादक थे।वर्तमान में सबसे अधिक दुर्लभ पार्थिव धातुओं वाले देशों में चीन (विश्व में सबसे बड़ा भंडार), अमेरिका, ब्राजील, भारत, वियतनाम के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया, रूस, म्यांमार और इंडोनेशिया शामिल हैं।
दुर्लभ पार्थिव धातुओं के दोहन से हानियाँ
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दुर्लभ पार्थिव धातुओं के निष्कर्षण और खनन से किसी भी अन्य खनन प्रक्रियाओं के समान ही भूमि का उपयोग व दोहन, पर्यावरणीय और पारिस्थितिक क्षति होती है। साथ ही, इसके खनन में अत्यंत ऊर्जा-गहन प्रक्रियाओं का भी प्रयोग किया जाता है, जिससे वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन और भूमि में विषाक्त पदार्थों का प्रवेश हो जाता है।
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इन धातुओं में से कई, जिनमें पारा, बेरियम, सीसा, क्रोमियम और कैडमियम भी शामिल हैं, मानव सहित विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों के स्वास्थ्य के लिये बेहद हानिकारक हैं।
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ई-कचरे तथा त्याज्य उत्पादों से इन तत्त्वों का निष्कर्षण या उनको नष्ट करना मुश्किल और महँगा होता है। यही कारण है कि इन तत्त्वों का पुन: उपयोग करने के लिये विकासशील देशों को निर्यात किये गए ई-कचरे में से अधिकांश को डंप कर दिया जाता है।
चुनौती
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दुर्लभ पार्थिव तत्त्वों का पुनर्चक्रण करना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि एक बार उपकरणों में लगाने के बाद इन्हें बाहर निकालना मुश्किल होता है। प्रयोग किये गए फोन या अन्य आई.टी. उपकरणों को फेंकने की बजाय उनसे अधिक लाभ प्राप्त करने का लक्ष्य तय किया जाना चाहिये। उपयुक्त पुनर्चक्रण विधियों का उपयोग दुर्लभ पार्थिव तत्त्वों की लागत को कम रखने और उपयोग को अधिकतम करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
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सबसे उन्नत तकनीकों और अक्षय ऊर्जा क्रांति के लिये महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों में इन धातुओं का उपयोग सावधानी, ईमानदारी और स्वच्छात्मक उपायों के साथ किया जाना चाहिये, जो पर्यावरण के अनुकूल हों।
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तेल और गैस के कार्टेलाइज़ेशन की तरह दुर्लभ पार्थिव धातुओं के भंडारों और आपूर्ति शृंखलाओं में भी कार्टेलाइज़ेशन की संभावनाएँ हैं।ये संभावनाएँ विकास मॉडल में परिवर्तन, नवाचार और संसाधन उपलब्धता की खोज से प्रेरित हैं। यहाँ कार्टेल से तात्पर्य उत्पादन,वितरण और मूल्य को नियंत्रित करने के लिये बनाई गई कंपनियों या राष्ट्रों के समूह हैं।
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चीन द्वारा इस क्षेत्र में आधिपत्य का इरादा और विश्व के ऊर्जा परिदृश्य के विभिन्न क्षेत्रों व पहलुओं को नियंत्रित करने का लक्ष्य पर्यावरण के साथ-साथ भू-राजनीति एवं वैश्विक नवीकरणीय ऊर्जा उपयोग के लिये भी सही नहीं है।
समाधान
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विभिन्न तकनीकों में इन दुर्लभ पार्थिव धातुओं का निरंतर उपयोग करने के लिये इसका पुनर्चक्रण एक अच्छा विकल्प है जिस पर विचार किया जा सकता है। हालाँकि, यह एक लंबी प्रक्रिया है, जिसमें शोध और नवाचार की आवश्यकता है।
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विभिन्न देशों द्वारा नवीकरणीय प्रौद्योगिकियों का अनुसरण करने में सावधानी बरतने की आवश्यकता है।विशेषकर ऐसी स्थिति में जब दुर्लभ पार्थिव धातुओं का सबसे बड़ा भंडार चीन में है और वह सबसे बड़ा उपयोगकर्ता होने के साथ-साथ अधिकांश आपूर्ति शृंखलाओं में शामिल है।
एन.पी.ए. की समस्या और बैड बैंक
संदर्भ
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महामारी के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में संकुचन के कारण वाणिज्यिक बैंकों के एन.पी.ए. या दबावग्रस्त परिसंपत्तियों में वृद्धि देखने को मिली है, इसलिये हाल ही में, रिज़र्व बैंक बैड बैंक के निर्माण संबंधी प्रस्ताव पर विचार करने के लिये सहमत हुआ है। इसे रिज़र्व बैंक द्वारा महामारी के समय लागू किये गए 6 माह के ऋण अधिस्थगन की प्रतिक्रिया के रूप में भी देखा जा रहा है।
बैड बैंक क्या है?
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बैड बैंक एक ऐसी वित्तीय संस्था है जो बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं से उनके एन.पी.ए. अथवा दबावग्रस्त ऋणों को मुख्यतः रियायती बाज़ार मूल्य पर खरीदती है। इसके उपरांत, बैड बैंक इन एन.पी.ए. अथवा दबावग्रस्त ऋणों की व्यावसायिक प्रबंधन, बिक्री अथवा पुनर्संरचना के माध्यम से रिकवरी अथवा वसूली करते हैं। अर्थात् यह एक प्रकार की परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनी (ARC) या एक परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी है।
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यह बैंक ऋण नहीं देते और न ही जमाएँ स्वीकार करते हैं, लेकिन वाणिज्यिक बैंकों को अपनी बैलेंस शीट को अच्छी स्थिति में दर्शाने और दबावग्रस्त ऋण का समाधान करने में मदद करते हैं।
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बैड बैंक को शुरू में सरकार द्वारा वित्त पोषित किया जाता है और ये बैंकों एवं अन्य निवेशकों के साथ नियत समय में सह-निवेश करते हैं।
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बैड बैंक में सरकार की भूमिका को एन.पी.ए. के प्रबंधन में तेजी लाने के लिये एक साधन के रूप में देखा जाता है।
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दबावग्रस्त ऋण का टेकओवर आम तौर पर ऋण की बुक वैल्यू से कम होता है और बैड बैंक बाद में अधिक से अधिक ऋण वसूली की कोशिश करते हैं। विदित है कि आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 में, ‘सार्वजनिक क्षेत्र परिसम्पदा पुनःप्रतिष्ठापन एजेंसी’ (PARA) को बैड बैंक के रूप में गठित करने का सुझाव दिया गया था।
बैड बैंक के वैश्विक उदाहरण
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बैड बैंक की अवधारणा को सर्वप्रथम वर्ष 1988 में वाणिज्यिक अचल सम्पत्ति पोर्टफोलियो सम्बंधी समस्या का समाधान करने के उद्देश्य से पिट्सबर्ग में प्रस्तुत किया गया था।
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इसके बाद यह अवधारणा स्वीडन, फिनलैंड, फ्रांस और जर्मनी सहित अन्य देशों में लागू की गई। हालाँकि, रिज़ॉल्यूशन एजेंसियाँ या ए.आर.सी. बैंक के रूप में स्थापित हुए जो उधार या उधार की गारंटी देते थे परंतु यह जल्द ही लापरवाह उधारदाताओं में बदल गए।
बैड बैंक की आवश्यकता
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एन.पी.ए. की समस्या बैंकिंग क्षेत्र में लगातार बनी हुई है, विशेषकर कमज़ोर बैंकों के साथ, तो ऐसे में एक ऐसे तंत्र की आवश्यकता है जो एन.पी.ए. के प्रबंधन में सहायक हो।
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पूर्व में, कई अन्य देशों ने वित्तीय प्रणाली में दबावग्रस्त परिसंपत्तियों की समस्या से निपटने के लिये अमेरिका के संस्थागत व्यवस्था राहत कार्यक्रम (TARP) जैसे संस्थागत तंत्र स्थापित किये थे।
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बैड बैंक की आवश्यकता तब अधिक महसूस की गई जब आर.बी.आई ने बैंकों की परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा (AQR) शुरू की थी। इसमें आर.बी.आई ने पाया कि कई बैंकों ने बैलेंस शीट को अच्छी स्थिति में दिखाने के लिये दबावग्रस्त ऋणों को छिपाया था।
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कई प्रक्रियात्मक मुद्दों के कारण ए.आर.सी. दबावग्रस्त ऋण का समाधान करने में विशेष सफल नहीं हो सके।
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हालांकि, आम सहमति के अभाव में बैड बैंक का विचार केवल कागज़ों पर ही बना रहा।
रिज़र्व बैंक और सरकार का रुख
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रिज़र्व बैंक ने काफी लम्बे समय से बैड बैंक के निर्माण के संदर्भ में विशेष रुचि नहीं दिखाई थी परंतु अब ऐसे संकेत हैं कि रिज़र्व बैंक इस पर विचार करेगा।
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विशेषज्ञों का तर्क है कि इन परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनियों के उद्देश्य को दबावग्रस्त परिसंपत्तियों के क्रमिक समाधान तक ही सीमित रखा जाना चाहिये।
महामारी और एन.पी.ए.
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दबावग्रस्त ऋण के कारण अर्थव्यवस्था में संकुचन और अन्य कई क्षेत्रों में वित्तीय संकट के बढ़ने की संभावना बनी हुई है।
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आर.बी.आई. ने अपनी हालिया वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि बैंकिंग क्षेत्र का सकल एन.पी.ए. सितंबर 2020 में 7.5% से बढ़कर सितंबर 2021 तक 13.5% होने की संभावना है।
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रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अगर अर्थव्यवस्था में संकट की स्थिति लगातार बनी रहती है, तो यह अनुपात 14.8% तक बढ़ सकता है।
सुझाव
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आर.बी.आई. के पूर्व गवर्नर आचार्य ने दबावग्रस्त परिसंपत्तियों की समस्या को हल करने के लिये दो मॉडल सुझाए। पहला, एक निजी परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी (PAMC) का निर्माण, जो दबावग्रस्त क्षेत्रों के लिये उपयुक्त हो और जहाँ ऋण माफी के मध्यम स्तर के साथ-साथ अल्पावधि में संपत्तियों के आर्थिक मूल्य का निर्धारण भी हो सके।
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दूसरा मॉडल, नेशनल एसेट मैनेजमेंट कंपनी (NAMC) है, जो उन क्षेत्रों के लिये उपयुक्त होगा जहाँ समस्या न केवल अतिरिक्त क्षमता की है, बल्कि जहाँ मध्यम अवधि के लिये आर्थिक रूप से गैर-लाभकारी संपत्ति भी विद्यमान है।
क्या बैड बैंक उचित समाधान है?
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महामारी से संबंधित आर्थिक संकटों का समाधान हो जाने के पश्चात् आने वाले वर्षों में भारत की आर्थिक व्यवस्था गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) का प्रबंधन करने के लिये पर्याप्त है।
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वर्ष 2003-08 तक की अवधि में भारत की आर्थिक एवं साख वृद्धि उच्च थी जिसके कारण गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों में भारी गिरावट दर्ज की गई थी।
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बैंकों में प्रावधान कवरेज अनुपात (PCR) वर्ष 2016 में 42% से सितंबर 2020 में 72.4% हो गया था और मार्च 2020 में सकल एन.पी.ए. घटकर 2.8% हो गया था।
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विदित है कि पी.सी.आर. किसी बैंक द्वारा गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों के प्रबंधन हेतु अलग से फंड्स के प्रावधान को इंगित करता है।, इसके तहत कोई बैंक, दबावग्रस्त ऋण से होने वाले घाटे को पूरा करता है।
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गौरतलब है कि दबावग्रस्त ऋणों में लगातार गिरावट आ रही है परिणामस्वरूप वर्तमान समय में बैड बैंक की स्थापना की विशेष आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।
विद्युत उपभोक्ताओं के अधिकारों का संरक्षण
संदर्भ
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सार्वभौमिक विद्युतीकरण की घोषणा के लगभग दो वर्षों बाद दिसंबर 2020 में ‘विद्युत (उपभोक्ताओं के अधिकार) नियम, 2020’ को लागू किया गया था और इसे लागू करते समय केंद्रीय विद्युत मंत्रालय का दावा था कि इन नियमों को लागू करने से विद्युत उपभोक्ताओं के अधिकारों का संरक्षण होगा तथा वे पहले से अधिक सशक्त होंगे। परंतु इन नियमों को लागू करने के पश्चात भी स्थिति में विशेष परिवर्तन नहीं आया। इस संदर्भ में आड़े आने वाली बाधाओं को पहचान कर इनके निराकरण की आवश्यकता है।
विद्युत (उपभोक्ताओं के अधिकार) नियम, 2020
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ये नियम उपभोक्ताओं के अधिकारों तथा वितरण लाइसेंस धारियों के दायित्वों को सुनिश्चित करते हैं।
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वितरण लाइसेंसधारी सभी उपभोक्ताओं को 24×7 विद्युत की आपूर्ति करेंगे।
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हालाँकि, कृषि जैसे कुछ श्रेणियों के उपभोक्ताओं के लिये आपूर्ति के घंटों/समय में कमी की जा सकती है।
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विद्युत (उपभोक्तओं के अधिकार) नियम में निम्नलिखित प्रमुख क्षेत्रों को कवर किया गया हैं:-
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नए कनेक्शन जारी करना तथा वर्तमान कनेक्शन में संशोधन।
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मीटरिंग प्रबंधन, बिलिंग व भुगतान और डिस्कनेक्शन एवं रि-कनेक्शन।
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प्रोज्यूमर की स्थिति कन्ज्यूमर (Consumer as Prosumer) के रूप में बनी रहेगी और उन्हें सामान्य उपभोक्ता की तरह ही अधिकार प्राप्त होंगे।
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आपूर्ति की विश्वसनीयता प्रदान की जाएगी।
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लाइसेंसधारियों के कार्य प्रदर्शन मानक और क्षतिपूर्ति व्यवस्था।
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उपभोक्ता सेवा और शिकायत समाधान व्यवस्था।
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नए नियमों का औचित्य
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विद्युत उपभोक्ताओं के अधिकारों से संबंधित ये नियम निश्चय ही उपभोक्ताओं को सशक्त करने की दिशा में सराहनीय प्रयास है।
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परंतु इस प्रकार के उपभोक्ता केंद्रित नियमों को लागू करने से सार्वजनिक बहस छिड़ जाती है जो उपभोक्ताओं के अधिकारों को सामने लाती है।
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ये नियम विद्युत वितरण कंपनियों (DISCOM) को निश्चित मानदंडों के आधार पर विद्युत सेवाएँ प्रदान करने के लिये बाध्य करते हैं
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यदि ये कंपनियाँ निश्चित समय और निश्चित मानदंडों के आधार पर सेवाएँ उपलब्ध नहीं करवा पाती तो इन्हें स्वचालित रूप से उपभोक्ताओं को क्षतिपूर्ति करनी होगी।
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हालाँकि, इन नियमों के सामान या इनसे बेहतर नियम पहले से ही विभिन्न राज्य विद्युत नियामक आयोगों (SERC) के प्रदर्शन मानक (SOP) नियमों में विद्यमान हैं और अधिकांश राज्यों में इस तरह के नियम दो दशकों से लागू भी हैं।
प्रमुख बाधाएँ
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उपभोक्ताओं के अधिकारों को सुनिश्चित करने में विद्युत आपूर्ति की गुणवत्ता का मुद्दा सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। कई राज्य गुणवत्तायुक्त विद्युत आपूर्ति प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे विद्युत उपभोक्ताओं को।
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गुणवत्तायुक्त विद्युत की आपूर्ति सुनिश्चित करना मुख्य रूप से राज्यों तथा विद्युत वितरण कंपनियों की ज़िम्मेदारी है।
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गुणवत्तायुक्त विद्युत की आपूर्ति न कर पाना नियमों की कमी के कारण नहीं है बल्कि, यह इन नियमों को लागू करने के प्रति उत्तरदायित्व या जवाबदेहिता की कमी के कारण है।
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यह निराशजनक है कि वर्तमान में लागू किये गए नियमों, पूर्व के प्रयासों (नेशनल टैरिफ नीति), प्रस्तावित विद्युत अधिनियम संशोधन तथा विभिन्न समितियों में उत्तरदायित्व या जवाबदेहिता से संबंधित समस्यायों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
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इन नियमों में 24×7 विद्युत आपूर्ति की गारंटी पर बल दिया गया है, जो कि हो सकता है राज्य द्वारा किये गए प्रावधानों में शामिल न हो।
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इसके अतिरिक्त, 24×7 विद्युत आपूर्ति की गारंटी के लिये स्वचालित क्षतिपूर्ति के प्रभावी भुगतान पर भी संदेह बना हुआ है क्योंकि विद्युत आपूर्ति की उपलब्धता की निगरानी के लिये कोई विशेष व्यवस्था मौजूद नहीं है; यहाँ तक कि 11 के.वी. फीडरों पर भी विद्युत आपूर्ति के समय की जानकारी उपलब्ध नहीं है, तो ऐसे में उपभोक्ताओं को प्राप्त होने वाली विद्युत आपूर्ति के समय की जानकारी प्राप्त करना और भी कठिन है।
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साथ ही, इस प्रकार की क्षतिपूर्ति के लिये गंभीर प्रतिबद्धता की आवश्यकता होगी। उदाहरणस्वरूप; सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में अगस्त 2020 में लगभग 20 घंटे ही आपूर्ति प्राप्त हुई और मौजूदा नियमों के अनुसार, इसमें सैकड़ों करोड़ का मुआवजा दिया जाना चाहिये था, लेकिन भुगतान की गई वास्तविक राशि प्रत्येक राज्य में केवल कुछ ही लाख थी।
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अतः उपरोक्त सभी समस्यायों के निदान के लिये न केवल मौजूदा नियमों के बेहतर क्रियान्वयन की आवश्यकता है बल्कि इसके लिये मज़बूत जवाबदेहिता भी सुनिश्चित की जानी चाहिये।
राज्य के नियमों को कमज़ोर करने वाले प्रावधान
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नए नियमों में कुछ प्रावधान ऐसे हैं जो राज्य के मौजूदा प्रगतिशील नियमों को कमज़ोर करते हैं, जैसे- विद्युत मीटर से संबंधित शिकायत के मुद्दे पर नए नियम में यह प्रावधान है कि शिकायत प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर दोषपूर्ण मीटर की जाँच की जानी चाहिये परंतु वहीं आंध्र प्रदेश, बिहार तथा मध्य प्रदेश में दोषपूर्ण मीटर की जाँच शिकायत प्राप्ति के 7 दिनों के भीतर किये जाने का प्रावधान है।
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इसी प्रकार, ‘उपभोक्ता शिकायत निवारण फोरम’ का गठन भी ऐसा ही प्रावधान है। नए नियमों में कहा गया है कि यह फोरम मौजूदा कानूनों और विनियमों के अनुसार विद्युत वितरण कंपनियों के विरुद्ध होने वाली शिकायतों के उपाय हेतु गठित किया गया है, इसकी अध्यक्षता कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा की जाएगी। यह एक प्रतिगामी प्रावधान है जो उपभोक्ताओं के पक्ष में तय होने वाले मामलों की संख्या को कम करेगा तथा इससे फोरम की विश्वसनीयता भी कम होगी।
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वहीं, अन्य राज्यों में इस प्रकार के फोरम के अध्यक्ष या सदस्यों के लिये अलग-अलग पात्रता मानदंड हैं, जैसे- दिल्ली में यह नियम है कि विद्युत वितरण कंपनी का कोई भी कर्मचारी, फोरम के सदस्य के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता। महाराष्ट्र, तेलंगाना और बिहार में अन्य सदस्यों के अतिरिक्त, एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी या अन्य स्वतंत्र सदस्यों को अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किये जाने का प्रावधान है।
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इसके अतिरिक्त, रूफटॉप सोलर सिस्टम को बढ़ावा देने के लिये सुस्पष्ट नियमों का आभाव है, इसके अंतर्गत रूफटॉप सोलर सिस्टम की क्षमता 10 किलोवाट से कम होने पर तो उपभोक्ताओं को नेट मीटरिंग की गारंटी दी गई है, परंतु 10 किलोवाट से अधिक क्षमता वालों के लिये कोई प्रावधान नहीं है।
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ये नियम स्पष्टता प्रदान करने की बजाय भ्रमित अधिक कर रहे हैं। इसके कारण रूफटॉप सोलर सिस्टम में निवेश में कमी आ सकती है। साथ ही, यह पर्यावरण के अनुकूल तथा लागत प्रभावी विकल्प चुनने के लिये मध्यम एवं बड़े उपभोक्ताओं को हतोत्साहित करेगा।
आगे की राह
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जवाबदेही सुनिश्चित करने तथा उपभोक्ताओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिये एस.ई.आर.सी. को विद्युत वितरण कंपनियों के एस.ओ.पी. नियमों का आकलन करना चाहिये और आवश्यकतानुसार उन नियमों को संशोधित करना चाहिये।
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इसके अलावा, एस.ई.आर.सी. द्वारा सार्वजनिक मंचो के माध्यम से उपभोक्ताओं की समस्यायों को जानने का प्रयास भी किया जाना चाहिये।
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विद्युत वितरण कंपनियों द्वारा कम से कम 11 के.वी. फीडरों पर स्वचालित मीटरिंग की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिये और प्राप्त डेटा को ऑनलाइन उपलब्ध करवाना चाहिये।
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एस.ई.आर.सी. जैसे नियामक फोरमों द्वारा प्रदर्शन मानक (SOP) नियमों को अपडेट किया जाना चाहिये।
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इसके अतिरिक्त, भारत के केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण को विद्युत वितरण कंपनियों से आपूर्ति की गुणवत्ता के आँकड़े एकत्र करने, ऑनलाइन पोर्टल पर सार्वजनिक रूप से इन्हें प्रदर्शित करने और विश्लेषण रिपोर्ट तैयार करने के लिये निर्देशित किया जा सकता है। हालाँकि वर्तमान में राष्ट्रीय विद्युत पोर्टल पर इस प्रकार के आँकड़े प्रदर्शित किये जाते हैं परंतु यह अधिक विश्वसनीय नहीं हैं।
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मौजूदा प्रदर्शन मानक नियमों के क्रियान्वयन की जाँच करने के लिये स्वतंत्र सर्वेक्षण करवाए सकते हैं और इस आधार पर विद्युत वितरण कंपनियों को वित्तीय सहायता प्रदान की जा सकती है।
निष्कर्ष
सरकारी प्रयासों के माध्यम से देशभर में विद्युत कनेक्शन प्रदान किये जा सकते हैं परंतु 24×7 विद्युत आपूर्ति सुनिश्चित करने तथा उपभोक्ताओं को अधिक सशक्त करने के लिये निरंतर प्रयासों की आवश्यकता होगी। इस संदर्भ में पर्याप्त नियम पहले से ही हैं परंतु मज़बूत जवाबदेही प्रावधानों के बिना, उपभोक्ता संरक्षण नियम बेहतर विद्युत आपूर्ति गुणवत्ता की गारंटी नहीं दे सकते।
नए नियमों के लागू होने से इस स्थिति में विशेष बदलाव नहीं आएगा। बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिये सरकारों, विद्युत वितरण कंपनियों और नियामकों को संयुक्त रूप से कार्य करने की आवश्यकता है। इनके द्वारा उपभोक्ताओं को वास्तव में सशक्त बनाने के लिये मज़बूत प्रतिबद्धता और दृढ इच्छाशक्ति से मौजूदा नियमों को लागू करने का प्रयास किया जाना चाहिये।
नेट मीटरिंग
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प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बैंक (D-SIBS)
संदर्भ
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भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारतीय स्टेट बैंक, आई.सी.आई.सी.आई. बैंक तथा एच.डी.एफ.सी. बैंक को ‘प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बैंक’ (D-SIBs) के रूप में बनाए रखने का निर्णय लिया है।
पृष्ठभूमि
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वैश्विक आर्थिक मंदी जैसी स्थितियों एवं वित्तीय प्रणाली संबंधी अन्य जोखिमों से निपटने के लिये वर्ष 2010 में अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘वित्तीय स्थिरता बोर्ड’ (FSB) ने प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण संस्थाओं/बैंकों (SIFIs/Banks) के जोखिमों को कम करने के लिये एक रूपरेखा प्रस्तुत करने पर जोर दिया।
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विकसित एवं विकासशील देशों के सदस्यों द्वारा गठित बैंकिंग पर्यवेक्षण पर ‘बेसल समिति’ ने भी ‘वैश्विक प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंकों (G-SIBs) के लिये नवंबर, 2011 में एक रूपरेखा तैयार की और सदस्य देशों से घरेलू स्तर भी डी.-एस.आई.बी. के लिये विनियामक रूपरेखा अपनाने की अनुशंसा की।
प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बैंक (Bank as Domestic Systemically Important Banks : D-SIBs)
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आर.बी.आई. के अनुसार, कुछ बैंक अपने आकार, क्रॉस-जूरीडिक्शनल गतिविधियों, जटिलता, परस्पर संबंध तथा स्थानापन्नता के अभाव के कारण प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं और जिन बैंकों की संपत्ति कुल जी.डी.पी. के 2% से अधिक है उन्हें डी.-एस.आई.बी. के रूप में चिन्हित किया जाता है।
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प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण बैंकों को ‘टू बिग टू फेल’ (Too BigTo Fail) के रूप में भी संदर्भित किया जाता है।
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इन्हें प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण बैंक इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये बैंक अपने कार्यों तथा अपनी विशेषताओं के कारण इतने महत्त्वपूर्ण होते हैं कि ये आसानी से विफल नहीं हो सकते।
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इनमें से किसी भी बैंक की विफलता का वित्तीय प्रणाली पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा और इससे अर्थव्यवस्था भी व्यापक रूप से बाधित होगी।
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ये बैंक प्रणालीगत तथा नीतिगत जोखिमों से निपटने के लिये अतिरिक्त नीतिगत उपायों के अधीन होते हैं।
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मानदंडो के अनुरूप निरंतर संचालन के लिये सरकार द्वारा इन बैंकों के लिये अलग से पूंजी का प्रावधान किया जाता है।
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ये बैंक फंडिंग मार्केट में कुछ खास फायदों का भी लाभ प्राप्त करते हैं।
आर.बी.आई. द्वारा ‘प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बैंकों’ को चिन्हित करने की प्रक्रिया
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आर.बी.आई. ने 22 जुलाई 2014 को डी.-एस.आई.बी. के लिये बी.सी.बी.एस. (Basel Committee on Banking Supervision) प्रारूप पर आधारित एक फ्रेमवर्क जारी किया था। इस फ्रेमवर्क के तहत आर.बी.आई. के लिये यह अपेक्षित था कि वह अगस्त 2015 से लेकर प्रत्येक वर्ष अगस्त माह में डी.-एस.आई.बी. के रूप में वर्गीकृत बैंकों के नाम घोषित करे।
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इस प्रारूप के आधार पर ही आर.बी.आई. ने 31 अगस्त, 2015 को ‘प्रथम’ ‘प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बैंकों’ की सूची जारी की।
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आर.बी.आई, डी.-एस.आई.बी. की पहचान के लिये बैंक का आकार, अंतर-संबंध, प्रतिस्थापन तथा जटिलता जैसे संकेतकों को अपनाता है।
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इन बैंकों को चिन्हित करने के लिये आर.बी.आई. एक कट-ऑफ स्कोर निर्धारित करता है जिससे ऊपर बैंकों को डी.-एस.आई.बी. माना जाता है।
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प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण स्कोर (Systemic Important Scores – SIC) के आधार पर बैंकों को चार विभिन्न समूहों में रखा जाता है।
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डी.-एस.आई.बी. के तहत बैंकों को अपने-अपने समूहों के आधार पर जोखिम भारित आस्तियों (RWA) के रूप में 20% से 0.80% तक अतिरिक्त कॉमन इक्विटी टियर- I (CET-1) पूंजी बनाए रखने की आवश्यकता होती है।
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डी.-एस.आई.बी. के लिये अतिरिक्त सी.ई.टी.-1 की आवश्यकता 1 अप्रैल, 2016 से चरणबद्ध और 1 अप्रैल, 2019 से पूरी तरह से प्रभावी हो गई।
आर.बी.आई. के प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बैंक
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आर.बी.आई. की ‘प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण घरेलू बैंकों’ की सूची में शुरुआत में (वर्ष 2015 में) भारतीय स्टेट बैंक (SBI) तथा आई.सी.आई.सी.आई. (ICICI) बैंक को शामिल किया गया था। सितंबर 2017 में एच.डी.एफ.सी. बैंक को भी इसमें शामिल किया गया।
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वर्तमान में इस सूची में केवल तीन बैंक; एस.बी.आई.(SBI), आई.सी.आई.सी.आई. (ICICI) तथा एच.डी.एफ.सी. (HDFC) ही शामिल हैं। यह सूची 31 मार्च, 2020 तक बैंकों से एकत्र किये गए आंकड़ों पर आधारित है।
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केंद्रीय बैंक के अनुसार अगर भारत में विदेशी बैंक की शाखा, एक वैश्विक प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण बैंक (G-SIB) है, तो उसे अपने आर.डब्ल्यू.ए. के अनुपात के अनुसार, देश में अतिरिक्त सी.ई.टी.-1 पूंजी अधिभार को बनाए रखना होगा।
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एस.बी.आई. के संदर्भ में आर.डब्ल्यू.ए. के प्रतिशत के रूप में अतिरिक्त सी.ई.टी.-1 की आवश्यकता 0.60% है, जबकि आई.सी.आई.सी.आई. तथा एच.डी.एफ.सी. बैंकों के लिये यह 0.20% है।
शैडो उद्यमिता का विकास
संदर्भ
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शैडो उद्यमशीलता का वैश्विक उदय न केवल शिक्षा क्षेत्र बल्कि वित्त (आसान ऋण के लिये), सट्टेबाजी अर्थव्यवस्था (ऑनलाइन खेल) और स्वास्थ्य सेवा (ई-फार्मेसियों) जैसे अन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है। इसकी क्षमता को देखते हुए शैडो उद्यमिता के विनियमन की आवश्यकता है।
शैडो उद्यमी (Shadow Entrepreneurs)
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‘शैडो उद्यमी’ से तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों से हैं जो वैध वस्तुओं और सेवाओं से संबंधित व्यवसाय का प्रबंधन करते हैं परंतु वे अपने व्यवसायों का पंजीकरण नहीं कराते हैं।
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इस प्रकार वे कर का भुगतान नहीं करते हैं तथा सरकारी अधिकारियों की पहुँच से बाहर शैडो अर्थव्यवस्था में अपनी व्यावसायिक गतिविधियों का संचालन करते हैं।
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इन व्यवसायों में प्रमुख रूप से बिना लाइसेंस वाली टैक्सी सेवा, सड़क के किनारे फ़ूड स्टाल जैसी कई गतिविधियाँ शामिल हैं। वर्ष 2014 में 68 देशों के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में शैडो उद्यमियों की संख्या विश्व में दूसरे स्थान पर है, जबकि सबसे कम संख्या यू.के. में हैं।
शैडो उद्यमिता के उदय का कारण
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माँग और आपूर्ति– कोविड-19 जैसी परिस्थितियों के चलते माँग एवं आपूर्ति में अंतराल के कारण बढ़ती कीमतों और उपलब्धता में कमी जैसे कारकों से निपटने के लिये एक नए व समानांतर बाजार का विकास हो जाता है।
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प्रौद्योगिकी सक्षम सेवा– शैडो उद्यमी प्रौद्योगिकी के माध्यम से ऐसे पूरक व अतिरिक्त सेवाओं की पेशकश करते हैं, जहाँ पारंपरिक सेवा प्रदाताओं को सेवा प्रदान करने में समस्या होती है तथा जिन सेवाओं तक उपभोक्ताओं की पहुँच सीमित होती है। शैडो उद्यमिता में प्रौद्योगिकी-सक्षम नए बाजारों के विकास से नए और तकनीक सुलभ उपभोक्ताओं का प्रवेश होता है।
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कर विधान और कानून– कराधान और कानूनों का प्रवर्तन व क्रियान्वयन भी इसके विकास का एक कारण है। कर की उच्च दर के साथ-साथ कानूनों के प्रवर्तन में ढिलाई कर से बचने और औपचारिक व्यवसायों में निवेश को हतोत्साहित करती है, जो अनौपचारिक क्षेत्र में उद्यमशीलता की गतिविधि को प्रेरित करती है।
लाभ
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रोजगार प्रदाता– भारत में अनौपचारिक क्षेत्र की अधिकांश नौकरियाँ शैडो उद्यमिता के अंतर्गत ही आती हैं और इस प्रकार यह रोजगार प्रदान करने में सहायक है। भारत के परिप्रेक्ष्य में यह इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि शैडो उद्यमिता गैर कृषि रोजगार प्रदान करके कृषि पर दबाव को कम करता है।
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अतिरिक्त विकल्प– आर्थिक विकास में सहायक होने के साथ-साथ यह गरीबी को भी कम करने में भी सहायक हो सकता है। साथ ही, शैडो उद्यमिता के विकास से उपभोक्ताओं को एक से अधिक विकल्प उपलब्ध होता है जो उनकी सौदेबाजी क्षमता में वृद्धि करता है।
हानि
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आर्थिक विकास में बाधक– शोधकर्ताओं के अनुसार, भारत में बड़ी संख्या में शैडो उद्यमी कार्यरत हैं, जो अपने व्यवसाय को आधिकारिक रूप से पंजीकृत नहीं करा रहे हैं, जिससे आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न हो रही हैं।
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राजस्व की क्षति– शैडो अर्थव्यवस्था के परिणामस्वरूप कर राजस्व का नुकसान होता है और पंजीकृत व्यवसायों के लिये अनुचित प्रतिस्पर्धा के विकास तथा घटिया उत्पादकता के कारण आर्थिक विकास में बाधा आती हैं।
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भ्रष्टाचार में वृद्धि– इन व्यवसायों के पंजीकृत नहीं होने के कारण ये कानून की पहुँच से परे होते है, जो भ्रष्टाचार में वृद्धि करता है।
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प्रतिस्पर्धा में कमी– इस बाज़ार के विकास से प्रतिस्पर्धा में कमी आती हैं। इसके अतिरिक्त यह संदिग्ध और अवैधअर्थव्यवस्था के विकास में भी योगदान देता है। हाल ही में एप-आधारित त्वरित लोन सुविधा और उसकी छुपी शर्तों व उच्च ब्याज दर के कारण मौत के कई मामलें सामने आए हैं।
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निवेश में कमी– अनौपचारिक उद्यमी अपने व्यवसायों में औपचारिक लोगों की तुलना में बहुत कम निवेश करते हैं, जिसका अर्थ है कि औपचारिकता का परिसंपत्ति के आकार से सकारात्मक संबंध है।
उपाय
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संस्थानों की गुणवत्ता में वृद्धि– विश्व भर में अपने व्यवसायों को पंजीकृत करने वाले उद्यमियों पर आर्थिक और राजनीतिक संस्थानों की गुणवत्ता का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। शोधकर्ताओं का सुझाव है कि शैडो उद्यमी राजनीतिक और आर्थिक संस्थानों की गुणवत्ता के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। जहाँ आर्थिक और राजनैतिक ढाँचे विकसित हैं, व्यक्तियों के औपचारिक उद्यमी बनने और उनके द्वारा व्यवसाय को पंजीकृत करने की अधिक संभावना होती है, क्योंकि ऐसा करके वे लाभ की स्थिति में आ सकते हैं।
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आर्थिक नीतियाँ– सरकार की नीतियाँ शैडो अर्थव्यवस्था उद्यमियों को औपचारिक अर्थव्यवस्था में संक्रमण में मदद कर सकती हैं। यह इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि शैडो उद्यमियों के लिये नवाचार करने, पूंजी जमा करने और अर्थव्यवस्था में निवेश करने की संभावना कम होती है, जो आर्थिक विकास को बाधित करती है।
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उचित विनियमन– स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा या वित्त क्षेत्र में शैडो उद्यमशीलता को विनियमित करने के लिये अधिकारियों और एजेंसियों के बीच गतिविधियों के बेहतर समन्वय की आवश्यकता है।
कृषि-ऋण और छोटे किसान
संदर्भ
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कृषि सुधारों का मुद्दा न केवल राजनेताओं बल्कि नीति निर्धारकों के लिये भी अहम बन चुका है। फसलों में विविधता लाने के साथ-साथ आय में सुधार करने के लिये छोटे किसानों को उचित ब्याज दर पर ऋण प्रदान करना चाहिये। यद्यपि पिछले कई दशकों में केंद्र, राज्यों और भारतीय रिज़र्व बैंक के प्रयासों से ऋण की मात्रा में सुधार हुआ है परंतु दुर्भाग्यवश इसकी गुणवत्ता एवं कृषि पर इसके प्रभाव में विशेष फर्क नहीं पड़ा है।
रियायती कृषि ऋण की स्थिति
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ऋण सीमा में वृद्धि– प्रत्येक वर्ष केंद्र सरकार सब्सिडी वाले कृषि ऋण के लक्ष्य में वृद्धि की घोषणा करती है और बैंक इन लक्ष्यों से आगे भी निकल जाते हैं। वर्ष 2011-12 में ऋण लक्ष्य ₹75 लाख करोड़ था जबकि ₹21,175 करोड़ की आवंटित सब्सिडी के साथ वर्ष 2020-21 में कृषि-ऋण ₹15 लाख करोड़ के लक्ष्य तक पहुँच गया है।
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आय में स्थिरता– यदि कृषि संवृद्धि बढ़ाने में कृषि-ऋण प्रभावी और सक्षम होता तो 85% से अधिक किसानों की आय वर्षों तक स्थिर नहीं बनी रहती। ऐसी स्थिति में यह सवाल उठता है कि क्या ये ऋण वास्तव में किसानों को लाभ पहुँचा रहे हैं।
समस्याएँ और चुनौतियाँ
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ऋण तक पहुँच न होना– पिछले 10 वर्षों में कृषि ऋण में 500% की वृद्धि हुई है परंतु 56 करोड़ लघु और सीमांत किसानों में से 20% किसान भी इस ऋण का लाभ नहीं ले पा रहे है।
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कृषि उपकरणों पर उच्च ब्याज दर– कृषि-ऋण में वृद्धि के बावजूद आज भी देश में बेचे जाने वाले 95% ट्रैक्टर और अन्य कृषि-औंज़ारों को गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) द्वारा उच्च ब्याज दर (18%) पर वित्त पोषित किया जा रहा है, जबकि इन्हीं उपकरणों को खरीदने के लिये बैंकों द्वारा प्रदान किये जाने वाले दीर्घावधि ऋण की ब्याज दर 11% है।
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बड़ी जोत वालों को अधिक ऋण– आर.बी.आई. ने संस्थागत स्रोतों (जैसे- बैंक, सहकारी समिति) से भी निम्नतम भूमि जोत (दो हेक्टेयर तक) वाले कृषि परिवारों को रियायती कृषि ऋण का केवल लगभग 15% मिलने पर सवाल उठाया है। इसका 79% हिस्सा उच्चतम भूमि जोत (दो हेक्टेयर से अधिक) वाले कृषि परिवारों को प्रदान किया जा रहा है।
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एग्री–बिजनेस कंपनियों को अधिक ऋण– राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के ‘कृषि परिवारों की स्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण’ में संस्थागत ऋणों में उच्चतम भूमि जोत के स्वामियों की अधिक हिस्सेदारी है, जो यह दर्शाता है कि बड़े किसानों और एग्री-बिजनेस कंपनियों द्वारा रियायती कृषि ऋण का एक बड़ा हिस्सा हथिया लिया जाता है।
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एग्री–क्रेडिट की अस्पष्ट परिभाषा– कृषि-ऋण की ढीली और अस्पष्ट परिभाषा ने एग्री-बिजनेस क्षेत्र की बड़ी कंपनियों को रियायती दरों पर ऋण प्रदान किये जाने की प्रवृति में वृद्धि की है।
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ऋण सीमा का उल्लंघन– यद्यपि आर.बी.आई. ने बैंक के कुल समायोजित निवल बैंक ऋण/क्रेडिट (Adjusted Net Bank Credit) के लिये एक सीमा तय की है परंतु बैंक नियमित रूप से इसका उल्लंघन करते हैं। कुल समायोजित निवल बैंक ऋण का 18% कृषि क्षेत्र को प्रदान किया जाना चाहिये। साथ ही, कुल कृषि ऋण का 8% अनिवार्य रूप से लघु और सीमांत किसानों को और 4.5% अप्रत्यक्ष लोन के रूप में दिया जाना चाहिये।
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वर्ष 2017 में नाबार्ड द्वारा महाराष्ट्र को मुहैया कराए गए कुल कृषि-क्रेडिट का 53% मुंबई शहर और उपनगरों को आवंटित किया गया था, जहाँ कोई कृषक नहीं बल्कि केवल कृषि-व्यवसाय ही हैं। इसमें अप्रत्यक्ष लोन खाद, कीटनाशक, बीज और कृषि उपकरणों के डीलरों और विक्रेताओं को प्रदान किया गया।
अनियमितताएँ
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विभिन्न विसंगतियाँ– वर्ष 2019 में आर.बी.आई. के आंतरिक कार्य समूह ने पाया गया कि कुछ राज्यों में कृषि क्षेत्र में किया गया ऋण वितरण उस राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में कृषि के अंश से अधिक था। साथ ही, ‘फसल के लिये ऋण का वितरण’ उसके ‘लागत आवश्यकता’ से बहुत अधिक था।
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गैर–कृषि उद्देश्यों में प्रयोग– इसका उदाहरण केरल (326%), आंध्र प्रदेश (254%), तमिलनाडु (245%), पंजाब (231%) और तेलंगाना (210%) हैं। यह असमानता दर्शाती है कि ऋण का प्रयोग गैर-कृषि उद्देश्यों के लिये किया गया है, जिसका एक कारण कम ब्याज दर पर प्राप्त रियायती ऋण को अन्य छोटे किसानों और खुले बाजार में उच्च ब्याज दर पर पुनर्वितरित किया जाना है।
उपाय
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प्रत्यक्ष सहायता– छोटे और सीमांत किसानों को सशक्त बनाने के लिये उन्हें बेहद रियायती ऋण के बजाय प्रति हेक्टेयर के आधार पर प्रत्यक्ष आय सहायता प्रदान किये जाने पर विचार करना चाहिये।
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प्रौद्योगिकी का प्रयोग– भारत में कृषि परिवारों के बीच मोबाइल फोन की पहुँच 1% से अधिक होने के कारण प्रौद्योगिकी-संचालित समाधानों के माध्यम से अधिक से अधिक कृषि परिवारों के लिये संस्थागत ऋण वितरण किया जा सकता है।
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फसल रिकॉर्ड का प्रयोग– इसके अतिरिक्त विभिन्न एप के माध्यम से डिजिटल भूमि रिकॉर्डवाले राज्यों में सैटेलाइट इमेज का प्रयोग करके फसल उगाने के लिये किसान क्रेडिट कार्ड ऋण को डिजिटल रूप से विस्तारित किया जा सकता है।
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भूमि पट्टेदारी व्यवस्था में सुधार– भूमि पट्टेदारी व्यवस्था के ढांचे में सुधार करने के साथ-साथ कृषि ऋण सुधारों के विषय में राज्यों और केंद्र के बीच आम सहमति बनाने के लिये एक राष्ट्रीय स्तर की एजेंसी बनाए जाने पर भी विचार किया जा सकता है।
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कमोडिटी स्टॉक के विरुद्ध छोटे किसानों के ‘किसान उत्पादक संगठनों’ को उच्चतर फसल ऋण की सुविधा के लिये कृषि-ऋण प्रणाली को सुव्यवस्थित करना भी एक अच्छा उपाय है।
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विज्ञान के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता
संदर्भ
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वर्ष 2020 में कोरोना महामारी के चलते हुए विज्ञान और विकास से जुड़े कार्यों पर नकारात्मक असर पड़ा है अतः वर्ष 2021 में भारत को विज्ञान तथा अनुसंधान के क्षेत्र में विकास व नवोन्मेष की राह पर अपने कदम और मज़बूत करने होंगें।
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इस दिशा में राष्ट्रीय विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार नीति (एस.टी.आई.पी.), 2020 का मसौदा महत्त्वपूर्ण है, यह नीति वर्ष 2013 की नीति का स्थान लेगी।
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ध्यातव्य है कि यह मसौदा अनुसंधान और नवाचार क्षेत्र से संबंधित है, जिसके चलते लघु, मध्यम तथा दीर्घकालिक मिशन मोड परियोजनाओं में भी महत्त्वपूर्ण बदलाव आने की संभावना है।
मुख्य बिंदु
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देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास को प्रेरित करने के लिये शक्तियों और कमज़ोरियों की पहचान करना और उनका पता लगाना और साथ ही भारतीय एस.टी.आई.पी. पारिस्थितिकी तंत्र को वैश्विक स्पर्धा में खड़ा करना आदि मसौदा नीति के उद्देश्यों में शामिल हैं।
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प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ाने, पाठ्यक्रमों में विज्ञान और तकनीक व नवाचार पर ज़ोर देने के साथ ही अकादमिक व पेशेवर संस्थाओं में लैंगिक एवं सामाजिक ऑडिट जैसे कई महत्त्वपूर्ण संदर्भ इस नीति की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत को ‘आत्मनिर्भर’ बनाने में यह मसौदा अत्यंत महत्त्वपूर्ण साबित होगा।
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विगत वर्षो में भारत वैश्विक अनुसंधान एवं विकास केंद्र के रूप में तेज़ी से उभरा है। भारत में बहुराष्ट्रीय अनुसंधान और विकास (Multinationational Research and Development) केंद्रों की संख्या 2010 में 721 थी जो अब 1150 तक पहुँच गई है और वैश्विक नवाचार के मामले में भारत 57वें स्थान पर है।
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विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार की नई नीति के समानता और समावेश से जुड़े प्रमुख बिंदुओं में,
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निर्णयन की प्रक्रिया को बेहतर और लोकतान्त्रिक बनाने के लिये महिलाओं को कम-से-कम 30% प्रतिनिधित्व प्रदान करना।
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लैंगिक समानता को सुदृढ़ करने के लिये लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर (एल.जी.बी.टी.) समुदाय को शामिल किये जाने को भी महत्त्व दिया गया है।
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इस नीति में महिला वैज्ञानिकों की संख्या पढ़ाने पर भी ज़ोर दिया गया है।
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नीति के प्रारूप के अनुसार सरकार दुनिया की बेहतरीन 3-4 हज़ार विज्ञान पत्रिकाओं का एकमुश्त सब्सक्रिप्शन ले कर देशवासियों को मुफ्त उपलब्ध कराए जाने पर भी विचार कर रही है, जो ‘एक नेशन, एक सब्सक्रिप्शन’ के तर्ज़ पर किया जाएगा। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की इस पहल से विज्ञान सबके लिये संभव होगा।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
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4 मार्च, 1958 को, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में, स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार, संसद ने विज्ञान नीति पर एक प्रस्ताव पारित किया था।
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इस नीति में विज्ञान द्वारा जीवन के विभिन्न पक्षों एवं मूल्यों पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए शैक्षिक स्वतंत्रता के वातावरण में ज्ञान के अधिग्रहण और प्रसार तथा नई राहों की खोज को प्रोत्साहित करने पर ज़ोर दिया गया था।
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तत्कालीन सरकार द्वारा विज्ञान की प्रगति के लिये गया यह संकल्प देश के वैज्ञानिक बुनियादी ढाँचे के विकास के लिये एक ‘स्प्रिंगबोर्ड’ साबित हुआ।
आगे की राह
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इसमें कोई दो राय नहीं कि विकास के पथ पर कोई देश तभी आगे बढ़ सकता है, जब उसकी भावी पीढ़ी के लिये सूचना, ज्ञान और शोध आधारित वातावरण बने। साथ ही, उच्च शिक्षा के स्तर में व्यापक सुधार और अनुसंधान के पर्याप्त साधन उपलब्ध हों।
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इसका वर्तमान उदाहरण भारत में कोविड-19 की रोकथाम के लिये दो अलग-अलग टीकों के निर्माण के रूप में देखा जा सकता है।
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बावजूद इसके शोध और नवाचार के क्षेत्र में सतत विकास प्रत्येक स्थान पर एक सामान नहीं हुआ है, जिसे लेकर देश को नये सिरे से नवाचार और विज्ञान के विकास पर ध्यान देना ही होगा। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिये उक्त मसौदा नीति के महत्त्वपूर्ण साबित होगी।
निष्कर्ष
यदि भारतीय शोध क्षेत्र की बात की जाय तो दो प्रमुख प्रश्न सामने आते हैं :
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क्या वैश्विक परिदृश्य में तेज़ी से बदलते घटनाक्रम के बीच भारत में शोध और नवाचार के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं?
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क्या अर्थव्यवस्था, दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में हाईटेक होने का लाभ शोध क्षेत्र को मिल रहा है?
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यदि 40-50 वर्ष पूर्व की बात की जाय तो भारत में लगभग 50% वैज्ञानिक अनुसंधान विश्वविद्यालयों में ही होते थे, लेकिन धीरे-धीरे वित्त की कमी की वजह से शोध भी पिछड़ता चला गया।
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अध्ययन के अनुसार, अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत के सकल व्यय में वित्तीय वर्ष 2007-08 की तुलना में वर्ष 2017-18 तक लगभग 3 गुना वृद्धि हुई। मगर अन्य देशों की तुलना में यह कम ही है।
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ध्यातव्य है कि ब्रिक्स देशों की यदि बात की जाय तो भारत ने अपने जी.डी.पी. का लगभग 7 % ही अनुसंधान और विकास पर खर्च करता है जबकि ब्राज़ील ने 1.3 %, रूस ने 1.1%, चीन ने 2.1% और दक्षिण अफीका ने लगभग 0.8 % तक खर्च किया है। दक्षिण कोरिया व इज़राइल इस मामले में लगभग 4 % से अधिक खर्च कर रहे हैं और अमेरिका लगभग 2.8 % खर्च कर रहा है।
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इन असंतोषजनक आँकड़ों के बावजूद भारत को अगले दशक में विज्ञान क्षेत्र के तीन महशक्तियों में शामिल कराना, नई नीति का लक्ष्य है। साथ ही, यह नीति स्थानीय अनुसंधान और विकास क्षमताओं को बढ़ावा देने तथा चुनिंदा क्षेत्रों जैसे घरेलू उपकरणों, रेलवे, स्वच्छ तकनीक, रक्षा आदि में बड़े स्तर पर होने वाले आयात को कम करके बुनियादी ढाँचा स्थापित करने में भी सहायक होगी।
पर्यावरण और जीवन का अधिकार
संदर्भ
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भारतीय संविधान की प्रतिबद्धता लोगों और राज्यों को उच्च स्तर पर रखना है। गहरे सामाजिक विभाजन और साक्षरता, जीवन प्रत्याशा व पोषण में कमी के बावजूद संविधान सभा ने सभी भारतीयों की गरिमा एवं कल्याण पर ज़ोर दिया।
जलवायु परिवर्तन की समस्या
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संवैधानिक प्रतिबद्धता में बाधक– वर्तमान में विकास प्रक्रिया के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं, जो संवैधानिक वादे को पूरा कर पाने में बाधक बन रही हैं। जलवायु परिवर्तन इनमें से एक है, जो मौजूदा असमानताओं में वृद्धि करेगा, जिससे गरीब, हाशिये पर स्थित और कमज़ोर लोगों को अधिक हानि का सामना करना पड़ेगा। मानवाधिकारों के लिये संवैधानिक प्रतिबद्धता में जलवायु परिवर्तन के लिये की जाने वाली कार्रवाई भी शामिल है।
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आपदा में वृद्धि– वैश्विक-तापन के लिये ज़िम्मेदार ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये यदि तेज़ी से कदम नहीं उठाए जाते हैं तो भारत का एक विशाल क्षेत्र बाढ़, सूखा, हीटवेव और अनिश्चित व अप्रत्याशित मानसूनी वर्षा के कारण प्रभावित हो सकता है, जिससे ‘जीवन के अधिकार’ पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। महामारी ने भी यह दिखा दिया है कि स्वास्थ्य और वित्तीय प्रणालियाँ जलवायु प्रभावों से किस प्रकार प्रभावित हो सकती हैं।
जलवायु परिवर्तन और अधिकार
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सामाजिक लोकतंत्र– डॉ. आंबेडकर के अनुसार, राजनीतिक लोकतंत्र के साथ सामाजिक लोकतंत्र के लिये भी प्रयास करना चाहिये। उनका मानना था कि हमें एक-दूसरे और राज्यों के साथ अपने संबंधों को चलाने के लिये सशक्त, समान और समावेशी सिद्धांतों की आवश्यकता है। जलवायु सामाजिक लोकतंत्र का ही एक पहलू है।
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अधिकारों का हनन– जलवायु परिवर्तन अन्यायपूर्ण है और यह आवागमन की स्वतंत्रता को तेजी से प्रभावित करेगा। साथ ही, यह वनों में निवास करने वाले समुदायों (लाखों वंचित नागरिकों) की स्थिति और अवसर की समानता को भी प्रभावित कर सकता है। ये वंचित समूह इस संकट के लिये कम से कम ज़िम्मेदार हैं परंतु वे इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित हो रहे हैं।
संवैधानिक पहल
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राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा– नवाचार को प्रोत्साहित करने, राज्य की भूमिका में वृद्धि करने और नागरिकों के विधायी अधिकारों को सुरक्षित करने में भारतीय व्यापारी एवं परोपकारी समूह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ‘जलवायु परोपकार’ नए समाधान प्रस्तुत करने के साथ-साथ उनको लागू करने में मदद कर सकता है और एक महत्त्वाकांक्षी राजनीतिक कार्रवाई को प्रेरित कर सकता है।
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सामाजिक और आर्थिक न्याय– हरित अर्थव्यवस्था के विकास प्रक्रिया को और तेज़ करने की आवश्यकता है। हालाँकि, इस क्षेत्र में अभी अवसरों की कमी है, परंतु यह नौकरियों, संवृद्धि और धारणीयता का संचालक बन सकता है। स्वच्छ ऊर्जा द्वारा संचालित जलवायु अनुकूल विकास प्रतिमान लाखों भारतीयों के उत्थान द्वारा सामाजिक और आर्थिक न्याय को बढ़ावा देने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
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उद्देशिका– उद्देशिका में वर्णित बंधुत्व भारत की जलवायु परिवर्तन के प्रति प्रतिक्रिया को आकार देने और व्यक्ति की गरिमा को सुनिश्चित करने की दिशा में निर्देशित कर सकता है।
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पर्यावरण का अधिकार– अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार को पर्यावरण के अधिकार के रूप में तेजी से व्याख्यायित व प्रतिष्ठापित किया गया है। अनुच्छेद 21 को अनुच्छेद 48A और 51A(g) के साथ पढ़ने पर यह पर्यावरण की रक्षा के लिये एक स्पष्ट संवैधानिक जनादेश है जो नागरिकों और कार्यकारियों तथा विधायिका और न्यायपालिका के लिये आने वाले दशकों में और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाएगा।
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स्वस्थ पर्यावरण और आजीविका– अक्षय ऊर्जा चालित सार्वजनिक परिवहन, पैदल यात्रा तक अधिक पहुँच और खुले व हरित स्थल एवं जल निकायों के कायाकल्प के साथ रहने योग्य अधिक उपयुक्त शहरों का विकास किया जाना चाहिये। साथ ही, ग्रामीण आजीविका को स्वच्छ ऊर्जा आधारित उपकरणों द्वारा समर्थन प्रदान करना चाहिये। अत्यधिक जनसँख्या के कारण भारत का कल्याण अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी के बीच सामंजस्य पर ही निर्भर करेगा।
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देश के समक्ष चुनौतियाँ और बजट से अपेक्षा
संदर्भ
वित्त वर्ष 2020-21 भारत के लिये स्वास्थ्य, सुरक्षा और आर्थिक दृष्टिकोण से बहुत शुभ नहीं रहा है। आर्थिक सुधार और संवृद्धि को लेकर इस बजट से बहुत उम्मीदें हैं।
कोविड-19 और भारत
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आर्थिक आँकड़े और वास्तविकता– कोविड-19 के प्रभाव को केवल सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.), स्टॉक मार्केट इंडेक्स, औद्योगिक गतिविधि सूचकांकों या ऐसे अन्य प्रमुख आर्थिक आँकड़ों के माध्यम से नहीं समझा जा सकता है। गौरतलब है कि जब करोड़ों भारतीय नौकरियाँ खोने और मनरेगा के तहत मजदूरी पाने के लिये संघर्षरत थे, तब भी शेयर बाजार रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया था।
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गहरी क्षति– कोविड-19 ने जीवन और आय के अतिरिक्त सामाजिक ताने-बाने को भी क्षति पहुँचाई है। इसने गरीबों और अमीरों के बीच असमानता में वृद्धि कर दी है और यदि इसे अविलंब हल नहीं किया गया तो यह एक स्थाई समस्या बन जाएगी।
योजना का आभाव
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योजनाबद्ध लॉकडाउन– भारत में बड़ी संख्या में प्रवासी कामगारों की उपस्थिति और अनौपचारिक कार्यबल की अद्वितीय स्थितियों के कारण योजनाबद्ध लॉकडाउन श्रम बाजार में गहरे संकट को कम कर सकती थी।
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अपर्याप्त उपाय– उत्तरदायी और उदार राजकोषीय सहायता पैकेज से लाखों परिवारों को लाभ पहुँचा है। साथ ही, पर्याप्त तरलता बनाये रखने के लिये भारतीय रिजर्व बैंक ने प्रशंसनीय कार्य किया। हालाँकि, ये उपाय अपर्याप्त थे और निर्वाह मजदूरी पर मनरेगा कार्य की निरंतर उच्च माँग इसका स्पष्ट संकेत है कि आर्थिक सुधार नहीं हो रहा है।
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मनरेगा और आर्थिक सुधार– लगभग 120 मिलियन लोगों ने इस वित्तीय वर्ष में मनरेगा के तहत कार्य की माँग की है, जो इसके इतिहास में सर्वाधिक है। वर्ष 2020-21 में मनरेगा के तहत कुल काम की माँग पिछले वर्ष की तुलना में 53% अधिक है। लगभग 35 मिलियन लोगों ने दिसंबर और जनवरी में मनरेगा के तहत कार्य की माँग की है, जो पिछले छह महीनों में सर्वाधिक है। यह स्थिति पिछले कुछ महीनों में आर्थिक सुधार के बारे में आशावाद को निरर्थक साबित करता है।
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तरलता– भारत के शेयर बाजार के सूचकांक अब तक के उच्चतम स्तर पर हैं। शीर्ष 50 कंपनियों ने इस दौरान अपनी बाजार संपत्ति में लगभग ₹3,00,000 करोड़ ($40 बिलियन) की वृद्धि की। शेयर बाजारों में तेजी का लाभ अधिकांश भारतीयों तक न पहुँच कर केवल कुछ ही लोगों तक पहुँचा है। ऐसा लगता है कि केंद्रीय बैंक द्वारा अतिरिक्त तरलता का लाभ भारत के शेयर बाजारों सहित परिसंपत्ति बाजारों को अधिक हुआ है।
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उपायों का लाभ– आर्थिक उपायों ने अनजाने में ही अधिकांश देशों को अमीर और गरीबों के बीच आर्थिक असमानता के सबसे खराब दौर में पहुँचा दिया है। ऐसा लगता है कि आपूर्ति पक्ष के अधिकांश उपाय, जैसे कि निगम कर में कटौती, ऋण अधिस्थगन और गारंटीकृत क्रेडिट योजनाओं से कॉरपोरेट्स को लाभ बढ़ाने और ऋण को कम करने में मदद मिली है। इसका उपयोग शायद ही नया निवेश करने या रोजगार व मजदूरी में वृद्धि करने के लिये किया गया हो।
आशंका और कमजोरियाँ
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कठोर मौद्रिक नीति– परिसंपत्तियों की बढ़ती कीमतों और आपूर्ति में आने वाली समस्याओं से भी उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति में वृद्धि हुई है। बढ़ती महँगाई आर.बी.आई. को ब्याज दरों को बढ़ाने के लिये मजबूर करेगा। एक कठोर मौद्रिक नीति नौकरियों और मजदूरी में कमी के परिणामी प्रभाव के साथ निजी निवेश की गति को कम करने का जोखिम पैदा करती है।
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वैश्विक व्यापार– बाह्य क्षेत्र भारत की अर्थव्यवस्था का एक संभावित उद्धारक हो सकता है क्योंकि वैश्विक व्यापार में कोविड-19 के उपरांत निम्नतम स्तर पर पहुँचने के बाद वृद्धि हो रही है। हालाँकि, सरकार ने अपनी व्यापार नीति को अचानक बदलकर आयात प्रतिस्थापन, मात्रात्मक प्रतिबंध, गैर-टैरिफ बाधाओं और व्यापार गठबंधनों से किनारा करके स्वयं पैर में कुल्हाड़ी मार ली है।
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बेरोजगारी– पिछले तीन दशकों में श्रम गहन निर्यात में वृद्धि भारतीयों के लिये नौकरियों और मजदूरी में वृद्धि का प्रमुख चालक रहा है। निर्यात में मंदी और दो-तरफा बाह्य व्यापार के प्रति अरुचि से कई भारतीयों की आजीविका को नुकसान होगा। कोविड-19 से निपटने के लिये एक बुनियादी न्यूनतम आय सुरक्षा जाल की कमी ने लाखों परिवारों को गरीबी में धकेल दिया है। अनौपचारिक क्षेत्र के साथ-साथ औपचारिक क्षेत्र में भी बेरोजगारी बहुत अधिक है।
प्रमुख मुद्दे
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आर्थिक योजना– असमान आर्थिक रिकवरी, व्यापार नीति में अस्पष्टता और खराब वित्तीय स्थिति की वास्तविकता को देखते हुए सरकार को आगामी वित्तीय वर्षों के लिये अपनी आर्थिक योजना का अनावरण करना चाहिये।
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स्वास्थ्य– इस महामारी ने भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे में कई प्रकार की खामियों को उजागर किया हैअत: स्वास्थ्य देखभाल खर्च में वृद्धि करने और स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे को बेहतर बनाना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के बजट को वर्तमान के ₹70,000 करोड़ (2020-21 में कुल व्यय का 2%) से बढ़ाकर कम से कम ₹1,00,000 करोड़ करना चाहिये।
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सीमा सुरक्षा– वर्ष 2020 में भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में नई चुनौतियाँ उत्पन्न हुईं हैं। भारत को तुरंत अपनी रक्षा तैयारियों को बढ़ाने की आवश्यकता है। जी.डी.पी. के प्रतिशत के रूप में भारत का रक्षा खर्च कम हो रहा है। सरकार को अगले वर्ष रक्षा व्यय को सांकेतिक जी.डी.पी. के 6% के मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 3% तक करने की आवश्यकता है।
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सार्वजनिक निवेश– इस बात की अधिक आशा नहीं है कि बैंकर ऋण देने और कर्जदार या ऋणधारक (विशेष रूप से कॉर्पोरेट्स) नए निवेश करने के लिये तैयार हैं। बढ़ती ब्याज दर का माहौल, गैर-निष्पादित ऋण में वृद्धि और उपभोग व माँग में कमी के कारण निजी क्षेत्र में निवेश का भी आश्वासन नहीं दिया जा सकता है। अत: सार्वजनिक निवेश पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। यह आर्थिक गतिविधि को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ रोजगार सृजन और माँग में वृद्धि को प्रोत्साहित कर सकता है, जो आज देश की दो सबसे प्रमुख जरूरतें हैं।
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पूँजीगत व्यय– केंद्र सरकार के पूँजीगत व्यय को वित्त वर्ष 2020-21 में कुल व्यय के 14% से बढाकर कम-से-कम 20 से 25% तक किया जाना चाहिये।
बुनियादी आय सुरक्षा जाल
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मासिक नकद हस्तांतरण– सरकार द्वारा सार्वजनिक निवेश में की गई कोई भी वृद्धि रोजगार सृजन करने और आय में वृद्धि में समय लेगी। इसलिये आगामी कुछ महीनों के लिये भारत के कई परिवारों के लिये बुनियादी आय सुरक्षा जाल की तत्काल आवश्यकता है। आबादी के जरूरतमंद वर्गों को बिना शर्त मासिक नकद हस्तांतरण उनकी समस्याओं को तेजी से दूर करने का सबसे कारगर तरीका साबित हो सकता है।
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दृष्टिकोण में बदलाव– इस बार पेश किये जाने वाले बजट के मूल्यांकन के लिये अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता है। राजकोषीय घाटा और अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग का खतरा वर्तमान स्थिति में भारत की आर्थिक नीति को निर्धारित नहीं कर सकता है।
आगे की राह
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अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति का आकलन करते हुए तात्कालिक भविष्य के लिये आवश्यक कार्रवाई का मूल्यांकन करना चाहिये। हालाँकि, सरकार की वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं है। फिर भी अभूतपूर्व संकट के समय राजस्व में गिरावट के बावजूद सरकार द्वारा खर्च में कटौती न करने का निर्णय सही है। भारत का राजकोषीय घाटा बढ़ने की उम्मीद है, जिसके लिये मुद्रास्फीति और भविष्य की उधारी के प्रति सुनियोजित प्रतिक्रिया आवश्यक है।
संकट काल में बजट का स्वरुप
आगामी बजट की चुनौतियाँ
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राजकोषीय घाटा– अगला बजट 01 फ़रवरी, 2021 को पेश किया जायेगा। महामारी ने विकास और संवृद्धि को बुरी तरह से प्रभावित किया है। राजकोषीय घाटा राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम द्वारा निर्धारित लक्ष्य को पार कर सकता है।
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बेरोजगारी में वृद्धि– इसके अतिरिक्त इस बार के बजट में अधिक खर्च करना थोड़ा मुश्किल कार्य है। भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र के अनुसार, ग्रामीण और शहरी बेरोजगारी में वृद्धि होती जा रही है और स्वास्थ्य व बुनियादी ढाँचा में बजट को बढ़ाया जा रहा है।
पॉल क्रूगमैन का सिद्धांत
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सरकारी खर्च लाभकारी– नोबल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुगमैन ने बजट बनाने के नियमों को निर्धारित किया है। पहला नियम है कि सरकार की मदद करने की शक्ति पर संदेह नहीं करना चाहिये क्योंकि सरकारी खर्च बेहद फायदेमंद हो सकता है।
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उदाहरणस्वरुप ‘किफायती देखभाल अधिनियम’ ने स्वास्थ्य बीमा न लेने वाले अमेरिकियों की संख्या में कमी के साथ लोगों को सुरक्षा का अहसास दिलाया है।
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क़र्ज़ : एक विकल्प– दूसरा नियम कहता है कि क़र्ज़ से परेशान होने या उसमें उलझने की आवश्यकता नहीं है। पारंपरिक ज्ञानके विपरीत अर्थशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि ऋण एक बड़ी समस्या नहीं है क्योंकि अब ब्याज दरें कम हैं और कर्ज उतारने का बोझ अपेक्षाकृत कम है।
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मुद्रास्फीति के साथ संतुलन– तीसरे नियम के अनुसार मुद्रास्फीति के बारे में अत्यधिक चिंता नहीं करनी चाहिये। बेलगाम और अति मुद्रास्फीति के बिना कम बेरोजगारी दर और बड़े बजट घाटे के साथ भी किसी अर्थव्यवस्था को अच्छे से चलाया जा सकता है।
भारतीय संदर्भ और सुझाव
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स्वास्थ्य जी.डी.पी. में वृद्धि– भारत की जी.डी.पी. ₹200 लाख करोड़ अनुमानित है, जिसकी पहली प्राथमिकता स्वास्थ्य और बुनियादी ढाँचा होना चाहिये। भारत में प्रति 10,000 भारतीयों पर केवल पाँच बिस्तर उपलब्ध हैं और मानव विकास रिपोर्ट, 2020 में बिस्तर की उपलब्धता के हिसाब से भारत 155वें स्थान पर है। विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार को स्वास्थ्य देखभाल खर्च को जी.डी.पी. के 5% से बढ़ा कर 2.5% तक करना चाहिये।
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बुनियादी ढाँचे पर खर्च– राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन का लक्ष्य विभिन्न परियोजनाओं में वर्ष 2025 तक ₹111 लाख करोड़ का निवेश करना है। साथ ही, एक विकास वित्त संस्थान स्थापित करने का प्रस्ताव अभी भी हाशिये पर है। बुनियादी ढाँचे पर खर्च का आर्थिक उत्पादन पर एक बड़ा गुणक प्रभाव हो सकता है।
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शहरी रोज़गार पर ध्यान– मनरेगा की तर्ज पर शहरी रोज़गार गारंटी योजना की शुरूआत का भी सुझाव है, जो प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण से कहीं बेहतर होगा।
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कर में कमी और विनिवेश– ईंधन की कीमतों में ऐतिहासिक गिरावट के बावजूद ईंधन की कीमतें रिकॉर्ड स्तर तक पहुँच गई है। वस्तु और सेवा कर राजस्व का एक बड़ा स्रोत रहा है। इसके बावजूद जी.एस.टी. टैरिफ को कम किये जाने की आवश्यकता है। हालाँकि, सुपर-रिच पर उपकर या अधिभार लगाया जा सकता है।
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साथ ही, विनिवेश में तेज़ी लेन के साथ-साथ वर्ष 2024 तक औसत टैरिफ को मौजूदा 14% के स्तर से 10% पर लाया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
कॉरपोरेट कर की दरों को कम करना, कंपनियों और व्यक्तियों दोनों के लिये एक निश्चित मौद्रिक सीमा तक कर की दर को चुनने का विकल्प, राजस्व का बलिदान किये बिना ‘विवाद से विश्वास योजना’ की शुरूआत और मुद्रास्फीति में तेजी के बिना राजकोषीय प्रोत्साहन बजट निर्माण के लिये सही दृष्टिकोण की ओर इशारा करते हैं।
भारत में आकाशीय बिजली की समस्या
संदर्भ
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भारत में आकाशीय बिजली गिरने (Lightning Strikes)से होने वाली मृत्यु एक बड़ी समस्या है। हाल ही में, प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार आकाशीय बिजली से अप्रैल, 2019 से मार्च, 2020 के बीच भारत में लगभग 1,771 मौतें हुई हैं। इससे होने वाली मौतों में उत्तर प्रदेश प्रथम स्थान पर है। साथ ही, कुल होने वाली मौतों में 60% उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, ओडिशा और झारखण्ड में हुई हैं।
आकाशीय बिजली
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आकाशीय बिजली उच्च वोल्टेज और बहुत कम अवधि के लिये बादल और स्थल के बीच या बादल के भीतर प्राकृतिक रूप से विद्युत निस्सरण (Eelectrical Discharge) की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में तीव्र प्रकाश, गरज, चमक और आवाज़ होती है।
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इंटर क्लाउड (अंतर मेघ) या इंट्रा क्लाउड (अंतरा मेघ- IC) आकाशीय बिजली हानिरहित होती हैं, जबकि क्लाउड टू ग्राउंड (CG: बादल से पृथ्वी तक आने वाली) आकाशीय बिजली ‘हाई इलेक्ट्रिक वोल्टेज और इलेक्ट्रिक करंट’ के कारण हानिकारक होती है।
आकाशीय बिजली की प्रक्रिया
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आकाशीय बिजली लगभग 10-12 किमी. की ऊँचाई पर नमीयुक्त बादलों से उत्पन्न होती है। आमतौर पर इन बादलों का आधार पृथ्वी की सतह से 1-2 किमी. की ऊँचाई पर और अधिकतम 12-13 किमी. की ऊँचाई पर होता है। अधिकतम ऊँचाई पर तापमान -35 से -45 °C के मध्य होता है।
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इन बादलों में जलवाष्प जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ती है, वैसे-वैसे तापमान कम होने के कारण यह संघनित हो जाती है। इस प्रक्रिया में उत्पन्न ऊष्मा जल के अणुओं को और ऊपर धकेल देती है।
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जैसे ही ये अणु 00C के पार पहुँचते हैं, जल की बूंदें बर्फ के छोटे-छोटे क्रिस्टलों में बदल जाती हैं। जैसे-जैसे ये क्रिस्टल ऊपर की ओर जाते हैं, उनके द्रव्यमान में वृद्धि होती रहती है और एक समय के बाद अत्यधिक भारी होने के कारण वे नीचे गिरने लगते हैं।
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इस प्रकार, एक ऐसी प्रणाली का निर्माण हो जाता है जहाँ बर्फ के छोटे क्रिस्टल ऊपर की ओर जबकि बड़े क्रिस्टल नीचे की ओर आने लगते हैं। परिणामस्वरूप इनके टक्कर से इलेक्ट्रॉन मुक्त होते हैं जो विद्युत चिंगारी (Electric Sparks) उत्पन्न होने जैसी ही प्रक्रिया है।
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मुक्त हुए इलेक्ट्रॉनों की गति के कारण टक्करों की संख्या में वृद्धि हो जाती है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जिसमें बादल की शीर्ष परत धनात्मक जबकि मध्य परत ऋणात्मक रूप से आवेशित हो जाती है।
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§इससे इन दो परतों के बीच बहुत अधिक विभावंतर (Electrical Potential Difference) उत्पन्न हो जाता है और काफी कम समय में ही, दोनों परतों के बीच विद्युत धारा का अत्यधिक प्रवाह प्रारंभ हो जाता है। इससे ऊष्मा पैदा होती है, जिससे बादल की दोनों परतों के बीच वायु स्तंभ गर्म हो जाता है। इन गर्म वायु स्तंभों के प्रसार से शॉक वेव उत्पन्न होती है, जिसके परिणामस्वरूप मेघगर्जन और बिजली उत्पन्न होती है।
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पृथ्वी बिजली की एक अच्छी संवाहक है परंतु वैद्युत रूप से उदासीन है। हालाँकि, बादल की मध्य परत की तुलना में यह धनात्मक रूप से आवेशित हो जाती है। परिणामस्वरूप, विद्युत धारा का प्रवाह पृथ्वी की ओर होने लगता है।
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विदित है कि वेनेज़ुएला में माराकीबो (Maracaibo) झील के तट पर सबसे अधिक बिजली गिरने की घटनाएँ होती हैं।
आकाशीय बिजली के पूर्वानुमान में प्रयुक्त तकनीक
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आकाशीय बिजली के पूर्वानुमानों के प्रसार के लिये ‘क्लाइमेट रेज़ीलियंट ऑब्ज़र्विंग सिस्टम्स प्रमोशन काउंसिल’ (CROPC) का भारतीय मौसम विभाग (IMD) के साथ एक ‘समझौता ज्ञापन’ है। पूर्वानुमानों के लिये उपग्रह अवलोकन, डॉप्लर और अन्य रडार के नेटवर्क से प्राप्त इनपुट, डिटेक्शन सेंसर का प्रयोग किया जाता है।
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यह पूर्व-मानसून के दौरान एक सप्ताह तक के संभावित लीड समय के साथ आकाशीय बिजली के पूर्वानुमान में सक्षम है।
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भारत में ओडिशा में आकाशीय बिजली गिरने की सर्वाधिक घटनाएँ होती हैं, जबकि मौतें अपेक्षाकृत कम होती हैं। फानी चक्रवात के दौरान बिजली गिरने की एक लाख से अधिक घटनाएँ हुईं, जबकि इससे कोई भी मौत नहीं हुई। इसका प्रमुख कारण फानी के दौरान बनाए गए आश्रय स्थलों पर लाइटनिंग अरेस्टर को स्थापित किया जाना था।
आकाशीय बिजली का आर्थिक प्रभाव
केंद्र ने वर्ष 2015 में प्राकृतिक आपदा के पीड़ितों के लिये मुआवज़े को बढ़ाकर 4 लाख रुपए कर दिया था। पिछले पाँच वर्षों के दौरान 13,994 मौतें हुई, जिससे लगभग 359 करोड़ रूपए का मुआवजा देना पड़ा। साथ ही, बिजली गिरने से जानवरों की भी अभूतपूर्व क्षति हुई है।
समस्या और उपाय
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आकाशीय बिजली से होने वाली मौतों को और कम करने के लिये लाइटनिंग रेज़ीलियंट इंडिया अभियान में अत्यधिक भागीदारी के साथ-साथ आकाशीय बिजली के जोखिम प्रबंधन में अधिक व्यापकता की आवश्यकता है।
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आकाशीय बिजली से संबंधित पूर्वानुमान और चेतावनी मोबाइल पर संदेशों के माध्यम से उपलब्ध कराई जाती है परंतु यह सुविधा सभी क्षेत्रों और सभी भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। साथ ही, जागरूकता में कमी भी इससे होने वाली मौतों का एक कारण है।
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आकाशीय बिजली गिरने की घटनाएँ एक निश्चित अवधि के दौरान और एक समान पैटर्न में लगभग समरूप भौगोलिक स्थानों में होती हैं। कालबैसाखी- नॉरवेस्टर्स (आकाशीय बिजली के साथ तड़ित झंझा) से पूर्वी भारत में मौतें होती हैं जबकि प्री-मानसून में बिजली गिरने से होने वाली मौतें ज्यादातर बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और यू.पी. में होती हैं। अत: किसानों, चरवाहों, बच्चों और खुले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिये पूर्व चेतावनी महत्त्वपूर्ण है।
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साथ ही, स्थानीय आकाशीय बिजली सुरक्षा कार्य योजना, जैसे आकाशीय बिजली संरक्षण उपकरण (Lightning Protection Devices) स्थापित करना भी मौतों को रोकने के लिये आवश्यक है।
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बिजली गिरने की घटनाओं से बड़ी संख्या में जानवरों की मौतें भी होती हैं। हालाँकि, पशुपालन मंत्रालय के पास पशु आपदा प्रबंधन योजना है परंतु बिजली के घातक नुकसान से संबंधित कोई अनुपालन (Compliance) नहीं है।
आगे की राह
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राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) ने राज्यों को लाइटनिंग एक्शन प्लान तैयार करने के लिये आवश्यक दिशा-निर्देश जारी किये हैं परंतु बड़ी संख्या में हो रही मौतों से पता चलता है कि इसके क्रियान्वयन में ‘वैज्ञानिक और सामुदाय केंद्रित दृष्टिकोण’ की आवश्यकता है।
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सी.आर.ओ.पी.सी. की रिपोर्ट के अनुसार, दिलचस्प बात यह है कि भारत सरकार और अधिकांश राज्यों ने आकाशीय बिजली को आपदा के रूप में अधिसूचित नहीं किया है जिससे दिशा-निर्देश, एक्शन प्लान और राहत उपायों के लिये मार्गदर्शन बनाने में समस्या आती है।
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आकाशीय बिजली का मानचित्रण बिजली गिरने की आवृत्ति, तीव्रता, अंतर्निहित ऊर्जा, उच्च तापमान और अन्य प्रतिकूल प्रभावों व जोखिम की पहचान करने में सक्षम है, जो भारत के लिये ‘लाइटनिंग रिस्क मैनेजमेंट प्रोग्राम’ का आधार बनने में सहायक होगा।
क्लाइमेट रेज़िलियंट ऑब्ज़र्विंग सिस्टम्स प्रमोशन काउंसिल (CROPC)
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