GS-1,2,3 & 4 Mains
The Hindu Editorials in Hindi Medium
अक्टूबर 2020
विषय-सूची
GS-1
- हिमालय में नव-विवर्तनिक रूप और भूकम्प
- बूंदी
- येलो डस्ट
- महिला यौनकर्मियों पर एन.एच.आर.सी. की सलाह
- श्रमबल में महिलाओं की सहभागिता पर सयुंक्त राष्ट्र की रिपोर्ट
- भारत में असमान लिंगानुपात
GS-2 Mains
- एकता दिवस
- जम्मू व कश्मीर में भूमि कानूनों में संशोधन
- अंतर्राष्ट्रीय सहायता प्रतिबद्धताओं पर ऑक्सफेम की रिपोर्ट
- सतर्कता एवं भ्रष्टाचार निरोधक राष्ट्रीय सम्मेलन
- भारत-ऑस्ट्रेलिया सर्कुलर इकॉनमी हैकथॉन
- लीबिया युद्ध-विराम समझौता
- जी-20 एंटी-करप्शन वर्किंग ग्रुप की बैठक
- पाकिस्तान तथा एफ.ए.टी.एफ. की ग्रे लिस्ट
- भारत-ताइवान सम्बंध और चीन की आपत्ति
- भारत और नाइजीरिया के मध्य समझौता ज्ञापन
- ग्रीस और तुर्की के मध्य बढ़ता विवाद
- बांग्लादेश की आर्थिक सफलता में भारत के लिये अवसर
- भारत-अमेरिका रक्षा समझौता
- वैश्विक तपेदिक रिपोर्ट 2020
- असम-मिज़ोरम सीमा-विवाद
- पुलिस सुधार
- खाद्य असमानता का समाधान
- थाईलैंड में विरोध प्रदर्शन
- विरोध प्रदर्शन और लोकव्यवस्था
- डिजिटल असमानता
- टारगेट रेटिंग पॉइंट
- बाल तस्करी में तीव्र वृद्धि
- भारत में ऑनलाइन सट्टेबाज़ी की वैधानिक स्थिति एवं भविष्य
- कृषि अधिनियम और संघवाद
- महाराष्ट्र वन-अधिकार अधिनियम में संशोधन
- समुद्र क्षेत्रीय रणनीति और भारत के लिये इसका निहितार्थ
- आर्मीनिया-अज़रबैजान संघर्ष
- जी-4 विदेश मंत्रियों की बैठक
- भारत में ऑनलाइन शिक्षा से जुड़ी समस्याएँ
- कृषि विधेयक और किसान आंदोलन
GS-3 Mains
- बायो-डीकम्पोजर तकनीक
- जूट सामग्री से होने वाली पैकिंग की अनिवार्यता सम्बंधी नियमों में विस्तार
- 5G तकनीक और भारत की कूटनीतिक बाधाएँ
- एन.टी.पी.सी.की नई हरित पहल
- विद्युत तक पहुँच एवं उपयोगिता मानक रिपोर्ट
- पश्चिमी अमेरिका में जंगल की आग की समस्या
- आकस्मिक बाढ़ से जुड़ी मार्गदर्शन सेवाएँ
- नगरपालिका ठोस अपशिष्ट का सतत् प्रसंस्करण
- पोत यातायात निगरानी व्यवस्था (वी.टी.एम.एस.)
- वैश्विक वायु स्थिति रिपोर्ट
- प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का अंतर्प्रवाह
- भारत के लिये दोहा समझौते के सुरक्षा निहितार्थ
- राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण
- बीमा लोकपाल
- वायु प्रदुषण एवं ‘बी.एस. VI’
- भारत और बांग्लादेश : प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की तुलना
- विनिर्माण नीति से जुड़े मुद्दे
- द ह्यूमन कॉस्ट ऑफ़ डिज़ास्टर्स रिपोर्ट, 2000-2019
- ई-कचरा से सम्बंधित समस्याएँ
- कृषि में ई-प्रौद्योगिकी का भविष्य
- क्रिस्पर तकनीक
- ऋण बाज़ार : अवसंरचनात्मक सुधार
- रशिकोंडा बीच -‘ब्लू फ्लैग’
- विकिरण- रोधी मिसाइल ‘रुद्रम’
- संधारणीय कृषि
- चीन की जलवायु प्रतिबद्धता
- दिवालियापन समाधान प्रक्रिया
- साइबर सुरक्षा
- हरित हाइड्रोज़न
- हरित आवागमन
- रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया 2020
- कार्बन टैक्स : आवश्यकता एवं महत्त्व
- श्रम संहिताओं का नया संस्करण
- डिजिटल मीडिया का विनियमन
- आकस्मिक बाढ़
GS-1 Mains
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 : भूकम्प, आदि जैसी महत्त्वपूर्ण भू–भौतिकीय घटनाएँ, भौगोलिक विशेषताएँ)
विषय–हिमालय में नव–विवर्तनिक रूप से सक्रिय क्षेत्र की पहचान और भूकम्प के अध्ययन में बदलाव
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, हिमालय में विवर्तनिक रूप से सक्रिय नए क्षेत्र की पहचान हुई है, जिससे भूकम्प के अध्ययन और अनुमानों में बदलाव आने की उम्मीद है।
प्रमुख बिंदु
- वैज्ञानिकों ने हिमालय के शचर जोन या लद्दाख में स्थित ‘इंडस शचर जोन’ (ISZ) के विस्तृत रूप से भौगोलिक अध्ययन में यह पाया है कि वास्तव में यह जोन बंद क्षेत्र (Locked Zone) न होकर विवर्तनिक रूप से सक्रिय क्षेत्र (Tectonically Active Zone) है।
- ‘इंडस शचर जोन’ (ISZ) वह क्षेत्र है, जहाँ पर भारतीय और एशियाई प्लेट परस्पर मिलती हैं।
- भू-वैज्ञानिकों ने पाया कि जहाँ नदियाँ ऊँचे उठे इलाके से जुड़ी हुई हैं, वहाँ पर गाद के इलाके या तलछटी में झुकाव है और उनकी सतह टूटी हुई है।
- इसके अलावा चट्टानों का आधार काफी कमज़ोर है और वे भंगुर विरूपण प्रदर्शित करती हैं, जिसकी वजह से उसमें टूट-फूट भी होती रहती है। परिणामस्वरुप वहाँ काफी उथली घाटियाँ निर्मित हो गई हैं।
अध्ययन विधि
- इन चट्टानों का अध्ययन देहरादून स्थित प्रयोगशाला में ‘ऑप्टिकली स्टिमुलेटेड ल्यूमिनेससेंस’ (Optically Stimulated Luminescence : OSL) के द्वारा किया गया।
- यहाँ पर भूकम्प की आवृत्ति और पहाड़ों की ऊँचाई घटने की दर का अध्ययन किया गया। इन भौगोलिक गादों का अध्ययन ल्यूमिनेससेंस डेटिंग विधि से किया जाता है।
- प्रयोगशाला के आंकड़ों और भौगोलिक क्षेत्र के अध्ययनानुसार ‘इंडस शचर जोन’ (ISZ) का क्षेत्र पिछले 78000 से 58000 वर्ष से नव-विवर्तनिक रूप से सक्रिय है। साथ ही, वर्ष 2010 में उपशी गांव में आए कम तीव्रता वाले (रिक्टर स्केल पर 4) भूकम्प का कारण भी चट्टान का टूटना था।
अध्ययन का प्रकाशन
- विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार के अंतर्गत आने वाले देहरादून स्थित स्वायत्त संस्थान वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने यह नई खोज की है।
- वैज्ञानिकों ने यह अध्ययन हिमालय के सबसे सुदूर स्थित लद्दाख क्षेत्र में किया है, जिसे ‘टेक्नोफिज़िक्स’ जर्नल में प्रकाशित किया गया है।
हिमालयन थ्रस्ट
- हिमालय को मुख्य रूप से मेन सेंट्रल थ्रस्ट (MCT), मेन बाउंड्री थ्रस्ट (MBT) और मेन फ्रंटल थ्रस्ट (MFT) से निर्मित माना जाता है। ये सभी उत्तर की ओर झुकने वाली थ्रस्ट हैं।
- अभी तक की मान्यता के अनुसार एम.एफ.टी. थ्रस्ट को छोड़कर अन्य सभी थ्रस्ट बंद (लॉक्ड) थी। इस कारण से हिमालय में होने वाले सभी बदलावों के लिये एम.एफ.टी. को उत्तरदायी माना जाता था।
अध्ययन का महत्त्व
- सम्भावना है कि इस खोज से भूकम्प के अध्ययन में महत्त्वपूर्ण बदलाव आएंगे। विशेषकर भूकम्प के अनुमान, पहाड़ों के विकास और इसकी भूगर्भीय संरचना को बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलेगी।
आगे की राह
- नई खोज के अनुसार शचर जोन की पुरानी परतें नव-विवर्तनिक रूप से सक्रिय हैं। ऐसे में हिमालय के विकास के मौजूदा मॉडल पर नये तकनीकी और बृहत भौगोलिक आंकड़े का प्रयोग करते हुए नये सिरे से तथा गम्भीर रूप से पुनः अध्ययन करने की आवश्यकता है।
- हिमालय के शचर जोन या लद्दाख में स्थित ‘इंडस शचर जोन’ (ISZ) को विवर्तनिक रूप से सक्रिय क्षेत्र (Tectonically Active Zone) पाया गया है। ‘इंडस शचर जोन’ (ISZ) वह क्षेत्र है, जहाँ पर भारतीय और एशियाई प्लेट परस्पर मिलती हैं।
- भौगोलिक गादों का अध्ययन ल्यूमिनेससेंस डेटिंग विधि द्वारा किया जाता है।
- वाडिया हिमालय भू–विज्ञान संस्थान देहरादून में स्थित एक स्वायत्त संस्थान है।
- हिमालय को मुख्य रूप से मेन सेंट्रल थ्रस्ट (MCT), मेन बाउंड्री थ्रस्ट (MBT) और मेन फ्रंटल थ्रस्ट (MFT) से निर्मित माना जाता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र –1 : भारतीय इतिहास, विरासत और संस्कृति)
विषय–बूंदी : एक विस्मृत राजपूत राजधानी का स्थापत्य विरासत
चर्चा में क्यों?
- पर्यटन मंत्रालय की पहल ‘देखो अपना देश’ के अंतर्गत ‘बूंदी : आर्किटेक्चरल हेरिटेज ऑफ ए फॉरगोटेन राजपूत कैपिटल’ शीर्षक से वेबिनार शृंखला का आयोजन किया गया, जो बूंदी (राजस्थान) पर केंद्रित है।
बूंदी : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- मध्यकाल में बूंदी नामक क्षेत्र हाडा राजपूत शासकों की राजधानी थी। विदित है कि दक्षिण-पूर्वी राजस्थान को हाड़ौती क्षेत्र के नाम से जाना जाता है, बूंदी यहीं स्थित है।
- प्राचीन समय में बूंदी के आसपास का क्षेत्र प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न स्थानीय जनजातियों का आवास था, जिनमें परिहार व मीणा प्रमुख थे।
- सन् 1242 में जैता मीणा से इसको प्राप्त करने के बाद इस क्षेत्र पर राव देव ने शासन किया और इसके आसपास के क्षेत्र का नाम बदलकर हरवती या हरोटी रख दिया।
- इसके बाद अगली दो शताब्दियों तक बूंदी के हाडा, मेवाड़ के सिसोदिया के जागीरदार बनकर रहे और वर्ष 1569 तक राव की उपाधि से शासित हुए। तत्पश्चात् रणथम्भौर किले के आत्मसमर्पण और अधीनता के बाद सम्राट अकबर ने राव सुरजन सिंह को राव राजा की उपाधि प्रदान की।
- सन् 1632 में, राव राजा छत्रसाल शासक बने, जो सन् 1658 में सामूगढ़ के युद्ध में मारे गए। ये बूंदी के सबसे बहादुर, राजसी और न्यायप्रिय शासक थे, जो अपने दादा राव रतन सिंह के बाद बूंदी के राजा बने थे। उन्होंने केशोरायपट्टन में केशवाराव का मंदिर और बूंदी में छत्र महल का निर्माण करवाया था।
मुगल काल के बाद की स्थिति
- सन् 1804 में राव राजा बिशन सिंह द्वारा होलकर के खिलाफ पराजय में कर्नल मोनसन (Colonel Monson) को दी गई सहायता का बदला लेने के लिये मराठा और पिंडारी लगातार इस राज्य को तहस नहस करते रहे।
- परिणामस्वरुप बिशन सिंह ने 10 फरवरी, 1818 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ एक सहायक संधि की और उसके संरक्षण में आ गए। इन्होंने ही बूंदी के बाहरी इलाके में सुख निवास के सुख/आनंद महल का निर्माण कराया था।
- हाडा राजवंश के सम्मानित शासक महाराव राजा राम सिंह ने आर्थिक व प्रशासनिक सुधारों की शुरुआत की और संस्कृत-शिक्षण के लिये स्कूल स्थापित किये। उन्हें राजपूत भद्र पुरुष के एक भव्य उदाहरण और ‘रूढ़िवादी राजपूताना में सबसे रूढ़िवादी राजकुमार’ के रूप में वर्णित किया गया।
- बूंदी के अंतिम शासक ने 7 अप्रैल, 1949 को भारतीय संघ में प्रवेश किया।
महत्त्वपूर्ण व अनोखे पहलू
- हाडा राजपूत में शाही रानी, दीवान और दाई माँ की भूमिका बूंदी के शाही प्रशासनिक और राजनीतिक मामलों में बहुत महत्त्वपूर्ण हुआ करती थी क्योंकि काफी कम आयु के शासक भी बूंदी के सिंहासन पर विराजमान होते रहते थे।
- बूंदी शहर का विस्तार तारागढ़ पहाड़ी से बाहर की ओर हुआ और बाद में तारागढ़ महल बूंदी का एक महत्त्वपूर्ण स्थल बन गया।
- घरों के बाहरी हिस्से पर रंग के उपयोग ने बूंदी को एक अद्वितीय चमक और जीवंतता से भर दिया। जोधपुर को छोड़कर भारत में शायद ही ऐसा कहीं और दिखाई दे। बूंदी की एक अन्य विशेषता यह है कि यहाँ के अधिकांश भवनों में झरोखे होते हैं।
- बूंदी को ‘सीढ़ीदार बावड़ी के शहर’ (City of Stepwells), ‘ब्लू सिटी’ और ‘छोटी काशी’ (अधिक मंदिरों की उपस्थिति के कारण) के रूप में भी जाना जाता है।
वास्तुकला
- बूंदी में दरवाज़ों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है :
- a) तारागढ़ का प्रवेश द्वार (सबसे पुराना दरवाज़ा)
- b) प्राचीर शहर (Walled City) के चार दरवाज़े
- c) शहर की बाहरी प्राचीर का दरवाज़ा
- d) प्राचीर शहर की मुख्य सड़क का दरवाज़ा
- e) छोटे दरवाज़ों का गठन
जल स्थापत्यकला
- यहाँ की जलीय वास्तुकला मध्ययुगीन भारतीय शहरों में अवस्थापना के स्तर पर जल संचयन विधियों के सबसे अच्छे उदाहरण के साथ ही जल वास्तुकला के भी बेहतरीन उदाहरण हैं।
- प्राचीर शहर के बाहर बावड़ियों और कुंडों का स्थान भी सामाजिक सोच-विचारों से ही प्रभावित था।
बूंदी की वास्तुकला विरासत
- बूंदी की वास्तुकला विरासत को छह भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
- गढ़ (किला), जैसे- तारागढ़।
- गढ़ महल (रॉयल पैलेस/ शाही महल), जैसे- भज महल, छत्र महल, उम्मेद महल।
- बावड़ी (Step Well : सीढ़ीदार बावड़ी), जैसे- खोज दरवाजा की बावड़ी, भावलदी (Bhawaldi) बावड़ी।
- कुंड (Stepped Tank : सीढ़ीदार तालाब), जैसे- धाभाई जी का कुंड, नागर कुंड और सागर कुंड, रानी कुंड।
- सागर महल (Lake Palace), जैसे- मोती महल, सुख महल, शिकार बुर्ज।
- छतरी (Cenotaph), जैसे- चौरासी।
- तारागढ़ किले का निर्माण सन् 1354 में राव राजा बैर सिंह ने एक पहाड़ी पर करवाया था। किले के केंद्र में भीम बुर्ज़ स्थित है, जिस पर कभी गर्भ गुंजम नामक विशेष तोप लगाई जाती थी।
- मंडपों की घुमावदार छतों, मंदिर के स्तंभों व हाथियों की अधिकता और कमल की आकृति के साथ यह महल राजपूत शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
- सुख महल- एक छोटा और दो मंजिला महल, जो अतीत के शासकों के लिये ग्रीष्मकालीन शरण स्थल था। जैतसागर झील के तट पर स्थित इस महल का निर्माण राव राजा विष्णु सिंह ने सन् 1773 में करवाया था।
- रानी की बावड़ी- बूंदी में 50 से अधिक सीढ़ीदार बावड़ियाँ हैं और इसीलिये इसको बावड़ियों के शहर के रूप में जाना जाता है। रानीजी की बावड़ी सन् 1699 में रानी नाथावती जी द्वारा निर्मित है, जो राव राजा अनिरुद्ध सिंह की छोटी रानी थी। इसे ‘क्वीन्स स्टेपवेल’ के रूप में भी जाना जाता है। यह बहु-मंजिली बावड़ी गजराज की उत्कृष्ट नक्काशी का एक नमूना है।
- 84 स्तम्भों वाली छतरी- बूंदी के महाराजा राव अनिरुद्ध द्वारा इसका निर्माण उनकी धाईमाँ देवा की याद में करवाया गया था। इसमें हिरण, हाथी और अप्सराओं के चित्रों से नक्काशी की गई है।
देखो अपना देश वेबिनार
- ‘देखो अपना देश’ वेबिनार शृंखला ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के तहत भारत की समृद्ध विविधता को प्रदर्शित करने का एक प्रयास है।
- इस शृंखला को राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस विभाग, इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के साथ तकनीकी साझेदारी में प्रस्तुत किया गया है। उल्लेखनीय है कि अक्तूबर के अंत में होने वाले वेबिनार का शीर्षक ‘क्रूज़ इन गंगा’ है।
- पर्यटन मंत्रालय की पहल ‘देखो अपना देश’ के अंतर्गत ‘बूंदी : आर्किटेक्चरल हेरिटेज़ ऑफ ए फॉरगोटेन राजपूत कैपिटल’ शीर्षक से वेबिनार शृंखला का आयोजन किया गया, जो ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के तहत भारत की समृद्ध विविधता को प्रदर्शित करने का एक प्रयास है।
- मध्यकाल में बूंदी नामक क्षेत्र हाडा राजपूत शासकों की राजधानी थी। बाद में रणथम्भौर किले के आत्मसमर्पण और अधीनता के बाद सम्राट अकबर ने राव सुरजन सिंह को राव राजा की उपाधि प्रदान की।
- सन् 1632 में, राव राजा छत्रसाल शासक बने, जो सन् 1658 में सामूगढ़ के युद्ध में मारे गए। उन्होंने केशोरायपटन में केशवाराव का मंदिर और बूंदी में छत्र महल का निर्माण कराया।
- बिशन सिंह ने 10 फरवरी, 1818 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ सहायक संधि की थी। इन्होंने सुख निवास के सुख/आनंद महल का निर्माण कराया था।
- हाडा राजवंश के सम्मानित शासक महाराव राजा राम सिंह ने आर्थिक व प्रशासनिक सुधारों की शुरुआत की। उन्हें राजपूत भद्र पुरुष के एक भव्य उदाहरण और ‘रूढ़िवादी राजपूताना में सबसे रूढ़िवादी राजकुमार’ के रूप में वर्णित किया गया।
- बूंदी को ‘सीढ़ीदार बावड़ी के शहर’ (City of Stepwalls), ‘ब्लू सिटी’ और ‘छोटी काशी’ (अधिक मंदिरों की उपस्थिति के कारण) के रूप में भी जाना जाता है।
- तारागढ़ किले का निर्माण 1354 में राव राजा बैर सिंह ने एक पहाड़ी पर करवाया था। किले के केंद्र में भीम बुर्ज़ स्थित है।
- सुख महल- जैतसागर झील के तट पर स्थित इस दो मंजिला महल का निर्माण राव राजा विष्णु सिंह ने सन् 1773 में करवाया था।
- रानी की बावड़ी- रानीजी की बावड़ी सन् 1699 में रानी नाथावती जी द्वारा निर्मित है, जो राव राजा अनिरुद्ध सिंह की छोटी रानी थी।
- 84 स्तम्भों वाली छतरी- बूंदी के महाराजा राव अनिरुद्ध द्वारा इसका निर्माण उनकी धाईमाँ देवा की याद में करवाया गया था।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 व 2 : महत्त्वपूर्ण भू–भौतिकीय घटनाएँ, स्वास्थ्य)
विषय–येलो डस्ट
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, उत्तर कोरिया ने चीन से आने वाली ‘येलो डस्ट’ से बचाव के लिये अपने नागरिकों को सलाह जारी करते हुए कहा है कि इससे कोविड-19 का प्रसार हो सकता है।
भूमिका
- उत्तर कोरिया का दावा है कि वहाँ कोरोना वायरस का एक भी मामला नहीं है। उसने जनवरी की शुरुआत में ही सीमा पर आवाजाही को रोकने के लिये सख्ती से प्रतिबंध लगाए थे। उत्तर कोरिया में इस सलाह का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित किया गया है।
येलो डस्ट (Yellow Dust)
- येलो डस्ट वास्तव में चीन और मंगोलिया के रेगिस्तान से उत्पन्न होने वाली रेत युक्त हवाएँ है। प्रति वर्ष एक विशिष्ट अवधि के दौरान उच्च गति वाली ये रेत युक्त धूल भरी सतही हवाएँ उत्तर और दक्षिण कोरिया में प्रवेश करती हैं।
- रेत के इन कणों में औद्योगिक प्रदूषकों जैसे विषाक्त पदार्थों के मिश्रण के परिणामस्वरूप येलो डस्ट श्वसन सम्बंधी बीमारियों का कारण बनती है।
- आमतौर पर जब ये धूल वातावरण में अस्वास्थ्यकर या हानिकारक स्तर तक पहुंच जाती है, तो लोगों से घर के अंदर रहने और शारीरिक गतिविधियों को सीमित करने का आग्रह किया जाता हैं।
- कभी-कभी जब वातावरण में येलो डस्ट के धूल की सांद्रता 800 माइक्रोग्राम/घन मीटर के आसपास हो जाती है, तो स्कूलों के साथ-साथ बाहरी गतिविधियों को भी बंद कर दिया जाता है।
येलो डस्ट से विषाणु का प्रसार और उत्तर कोरिया
- उत्तर कोरिया में येलो डस्ट के चलते बाहरी निर्माण कार्य पर राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध के साथ-साथ सभी नागरिकों को घर के अंदर रहने का आदेश दिया गया था।
- दूतावासों को भी कथित तौर पर आने वाले धूल के तूफान के बारे में चेतावनी जारी की गई थी।
- साथ ही, यह भी कहा गया कि कोविड-19 हवा के माध्यम से फ़ैल सकता है, अत: धूल भरे पीले बादलों को गम्भीरता से लिया जाना चाहिये।
धूल भरे बादलों से कोविड–19 के प्रसार की सम्भावना
- संयुक्त राज्य अमेरिका रोग नियंत्रण केंद्र (सी.डी.सी.) के अनुसार यद्यपि यह विषाणु घंटों तक हवा में रह सकता है परंतु संक्रमण के इस तरह से प्रसार की सम्भावना नहीं है, विशेष रूप से बाह्य और खुली हुई परिस्थितियों में।
- किसी संक्रमित व्यक्ति के पास अधिक निकटता से खड़े व्यक्ति में खाँसने, छींकने या बातचीत के दौरान बूंदों के माध्यम से वायरस फैलने की सर्वाधिक सम्भावना रहती है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र– 1 : विषय– महिलाओं की भूमिका और महिला संगठन; सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 : विषय– अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय)
विषय–महिला यौनकर्मियों पर एन.एच.आर.सी. की सलाह
चर्चा में क्यों?
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने ‘कोविड–19के संदर्भ में महिलाओं के मानवाधिकार’ पर हाल ही में, जारी की गई अपनी सलाह (Advisory) में यौनकर्मियों (Sex Workers) को अनौपचारिक श्रमिकों के रूप में मान्यता देने की बात कही है।
मुख्य बिंदु
- एन.एच.आर.सी. ने सामजिक रूप से उपेक्षित, बहिष्कृत और समाज में हाशिये पर स्थित महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित करने के प्रयास में ‘कार्यशील महिलाओं‘ पर दी गई अपनी सलाह में यौनकर्मियों को अनौपचारिक श्रमिकों के रूप में शामिल करने की बात की।
- सलाह में अधिकारियों से कहा गया कि वे यौनकर्मियों को अनौपचारिक श्रमिकों के रूप में मान्यता दें और उन्हें पंजीकृत भी करें ताकि वे भी अन्य श्रमिकों को प्राप्त होने वाली सुविधाओं का लाभ उठा सकें।
- मंत्रालयों को अस्थाई दस्तावेज़ जारी करने के लिये भी कहा गया है ताकि अन्य अनौपचारिक श्रमिकों की तरह यौनकर्मी के लिये भी कल्याणकारी सुविधाओं और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित की जा सके।
क्यों ज़रूरी है यह सलाह? - एन.एच.आर.सी. की इस सलाह के द्वारा यौनकर्मियों को औपचारिक सामाजिक समूह में शामिल किया गया क्योंकि भारतीय समाज में उन्हें कमज़ोर और उपेक्षित वर्ग का हिस्सा माना जाता है अतः भविष्य में उन्हें भी नागरिक के रूप में मान्यता मिले और उनके मानवाधिकारों को संरक्षित भी किया जा सके।
- ऐसा करने के लिये, एन.एच.आर.सी. ने इस मुद्दे पर विशेषज्ञों से सलाह मांगी थी और सरकार व संवैधानिक निकाय, दोनों से ही जुड़े विशेषज्ञों ने यौनकर्मियों के मानवाधिकारों और सम्मान की रक्षा की बात पर अपना समर्थन दिया।
- यह एक स्वागत योग्य कदम है और यौनकर्मियों के लिये संवैधानिक अधिकारों को संरक्षित करने की दिशा में यह एक मील का पत्थर साबित होगा।
मान्यता से जुड़े कानूनी पक्ष
- अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 के अनुसार वेश्यावृत्ति अवैध है।
- सेक्स या तो दो वयस्कों के बीच सहमति से किया जा सकता है अन्यथा यह बलात्कार कहलाएगा।
- यदि किसी संस्थागत प्रक्रिया के माध्यम से व्यावसायिक यौन सम्बंध बनाए जा रहे हैं तो ये अवैध हैं और इन पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। इसलिये भारत सरकार ने कभी भी यौनकार्यों (व्यावसायिक) को मान्यता प्रदान नहीं की है।
सलाह की आलोचना
- जो महिलाएँ यौन दासता को समाप्त करना चाहती हैं, उन्होंने एन.एच.आर.सी. के इस कदम की आलोचना की है।
- उनका कहना है कि ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है, जहाँ कोई महिला स्वेच्छा से वेश्यावृत्ति में गई हो, अतः यौनकार्यों में सलंग्न महिलाओं को अन्य उत्पादक कार्यों में संलग्न महिलाओं के समान व्यवहार्य विकल्प प्रदान करना समाज और कानून दोनों की बड़ी विफलता है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission – NHRC)
देश में मानवाधिकारों के संरक्षण एवं संवर्धन के उद्देश्य से मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम,1993 के द्वारा 12 अक्टूबर 1993 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया था। संसद द्वारा पारित अधिनियम के अनुसार गठित होने के कारण यह एक स्वतंत्र सांविधिक निकाय है।
मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम ,2019
हाल में किये गए संशोधन के तहत भारत के मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त किसी ऐसे व्यक्ति को भी आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया जा सकता है, जो उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो।
राज्य मानवाधिकार आयोग के सदस्यों की संख्या को बढ़ाकर 2 से 3 किया जाएगा, जिसमें एक महिला सदस्य भी शामिल होगी।
मानवाधिकार आयोग में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष और दिव्यांगजनों सम्बंधी मुख्य आयुक्त को भी पदेन सदस्यों के रूप में शामिल किया जा सकेगा।
संशोधन के अनुसार राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोगों के अध्यक्षों और सदस्यों के कार्यावधि को 5 वर्ष से 3 वर्ष किया जाएगा और वे पद पर पुनर्नियुक्ति के भी पात्र होंगे।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 1, सबटॉपिक : महिलाओं की भूमिका)
विषय–श्रमबल में महिलाओं की सहभागिता पर सयुंक्त राष्ट्र की रिपोर्ट
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, सयुंक्त राष्ट्र द्वारा विश्व में लैंगिक समानता की स्थिति रिपोर्ट, 2020 संस्करण जारी किया गया है।
रिपोर्ट के मुख्य बिंदु
- इस रिपोर्ट को ‘वर्ल्डस वुमन 2020 : ट्रेंड्स एंड स्टेटिस्टिक’ शीर्षक के तहत यूनाइटेड नेशसं डिपार्टमेंट ऑफ़ इकोनॉमिक्स एंड सोशल वेलफेयर (UN-DESA) द्वारा जारी किया गया है।
- रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर अभी भी श्रमबल में लैंगिक समानता एक दूरगामी लक्ष्य बना हुआ है तथा कोई भी देश अभी तक इस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाया है।
- इस रिपोर्ट के तहत पिछले 25 वर्षों की अवधि में महिलाओं की वैश्विक स्थिति का मूल्यांकन किया गया है। रिपोर्ट में 6 महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में लैंगिक समानता की वैश्विक स्थिति प्रस्तुत की गई है –
- जनसंख्या एवं परिवार
2. स्वास्थ्य
3. शिक्षा
4. आर्थिक सशक्तिकरण और परिसम्पत्ति स्वामित्त्व
5. शक्ति और निर्णय लेने की क्षमता
6. महिलाओं और बालिकाओं के विरूद्ध हिंसा तथा इन परकोविड–19का प्रभाव
- रिपोर्ट के अनुसार, श्रम बाज़ार में वर्ष 1995 से लैंगिक अंतर (Gender Gap) में कोई परिवर्तन नहीं आया है, जबकि शिक्षा, समय पूर्व विवाह तथा प्रसव और मातृ-मृत्युदर में महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है।
- रिपोर्ट में बताया गया है कि श्रम बाज़ार में 74% पुरुषों की तुलना में केवल 47% कार्यशील महिलाओं की ही सहभागिता है।
- श्रमबल की सहभागिता में सबसे बड़ा लैंगिक अंतर मुख्य कार्यशील आयु समूह (Prime Working Age : 25-54 Years) में देखा गया है। वर्ष 1995 में यह अंतर 31 प्रतिशत पॉइंट था और वर्ष 2020 में यह अंतर 32 प्रतिशत पॉइंट है।
- भारत में श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी 29% (पुरुषों की तुलना में) थी, जबकि लक्ष्य 50% निर्धारित किया गया था।
अवैतनिक कार्य
- इस रिपोर्ट के इंटरैक्टिव डाटा से पता चलता है कि किस प्रकार से महिलाएँ अवैतनिक घरेलू तथा देखभाल सम्बंधी कार्यों में व्यस्त रहती हैं।
- घरेलू तथा देखभाल सम्बंधी कार्यों में महिलाओं ने एक औसत दिन में पुरुषों की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक समय खर्च किया है।
- अवैतनिक घरेलू कार्यों (Unpaid Domestic Work) में घर के रख-रखाव से सम्बंधित गतिविधियाँ, जैसे- भोजन तैयार करना, घर, बच्चों तथा बुजुर्गों की देखभाल शामिल है।
कम सहभागिता दर के कारण
- श्रमबल में महिलाओं की कम सहभागिता दर के मुख्य कारणों मे पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ तथा अवैतनिक घरेलू कार्य हैं।
- रिपोर्ट में अवलोकन किया गया है कि अकेले रहने वाली महिलाओं की श्रमबल में भागीदारी अधिक है, जो उनकी कुल संख्या के लगभग 80% से अधिक हैं।
अन्य आंकड़े
- रिपोर्ट के क्षेत्रीय विश्लेषण से पता चलता है कि श्रमबल भागीदारी में लैंगिक असमानता दक्षिण एशिया में सर्वाधिक है, तत्पश्चात उत्तरी अफ्रीका तथा पश्चिम एशिया हैं।
- रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों की तुलना में विकसित देशों में महिलाएँ अवैतनिक कार्यों में कम समय तक (लगभग आधा) व्यस्त रहती हैं।
- रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि कोविड-19 महामारी लैंगिक असमानता में वृद्धि कर सकती है।
- सहभागिता दर – सहभागिता दर अर्थव्यवस्था की श्रम शक्ति के सक्रिय हिस्से को दर्शाती है। श्रम शक्ति सहभागिता दर किसी भी देश के समावेशी आर्थिक विकास का सूचक होती है।
- वर्ष 1995 में चौथा विश्व महिला सम्मलेन (WCD) बीजिंग (चीन) में आयोजित किया गया था, जिसमें लैंगिक समानता तथा महिला सशक्तिकरण हेतु बीजिंग घोषणा (Beijing Declaration) की गई थी।
- इस घोषणापत्र में महिलाओं की प्रगति, स्वास्थ्य, शासन तथा निर्णयों में भागीदारी, बच्चियों तथा महिलाओं से सम्बंधित 12 चिंता के क्षेत्र निर्धारित किये गए थे।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 1: विषय – महिलाओं की भूमिका और महिला संगठन, जनसंख्या एवं संबद्ध मुद्दे, गरीबी और विकासात्मक विषय, शहरीकरण, उनकी समस्याएँ और उनके रक्षोपाय; सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 : विषय – स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से सम्बंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से सम्बंधित विषय)
विषय–भारत में असमान लिंगानुपात
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, सी. रंगराजन (पूर्व अध्यक्ष, प्रधान मंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद) ने प्रजन स्वास्थ्य शिक्षा और उससे जुड़ी सेवाओं तथा लैंगिक समानता से जुड़े मुद्दों को युवा वर्ग के बीच सशक्तता के साथ चर्चा किये जाने की महत्ता पर ज़ोर दिया।
- उन्होंने यह बात नमूना पंजीकरण प्रणाली (Sample Registration System – SRS) की सांख्यिकीय रिपोर्ट (2018) और संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) की स्टेट ऑफ़ वर्ल्ड पापुलेशन रिपोर्ट, 2020 के आधार पर कही।
प्रमुख बिंदु
जन्म के समय लिंगानुपात :
- SRS रिपोर्ट 2018 से पता चलता है कि भारत में जन्म के समय लिंगानुपात, 2011 में 906 से घटकर 2018 में 899 हो गया।
- लिंगानुपात को प्रति 1,000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या के रूप में मापा जाता है।
- यू.एन.एफ.पी.ए. की विश्व जनसंख्या 2020 की रिपोर्ट के अनुसार भारत का सम्भावित लैंगिक अनुपात 910 है, जो कि अन्य कई देशों की तुलना में बहुत ही कम है।
- यह चिंता का कारण है क्योंकि इस प्रतिकूल अनुपात के परिणामस्वरूप न सिर्फ पुरुषों और महिलाओं की संख्या में व्यापक असंतुलन उत्पन्न हो जाता है बल्कि विवाह प्रणालियों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और सामाजिक स्तर पर भी महिलाओं को कई प्रकार के कुप्रभावों का सामना करना पड़ता है।
कुल प्रजनन दर (TFR) :
- SRS रिपोर्ट 2018 के अनुसार, पिछले कुछ समय से भारत में कुल प्रजनन दर घटी है। वर्ष 2011 और 2018 की अवधि के दौरान यह दर 2.4% से घटकर 2.2% पर आ गई है।
- वर्ष 2011 में लगभग 10 राज्यों में प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर से कम थी। वर्ष 2020 में यह स्थिति बढ़कर 14 राज्यों में हो गई।
- प्रजनन क्षमता में गिरावट जारी रहने की सम्भावना है और यह अनुमान है कि समग्र रूप से भारत में प्रजनन दर जल्द ही 2.1 पर पहुँच जाएगी।
- टी.एफ.आर. उन बच्चों की संख्या को इंगित करता है, जो एक महिला द्वारा अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में पैदा किये जाते हैं।
- प्रतिस्थापन दर एक ऐसी अवस्था होती है, जब सामान्यतः इसी देश में जितने लोग मरते हैं उनका स्थान भरने के लिये उस देश में उतने ही नए बच्चे पैदा हो जाते हैं। कभी-कभी कुछ जगहों/देशों में ऋणात्मक संवृद्धि दर भी पाई जाती है अर्थात् उनकी प्रजनन शक्ति स्तर प्रतिस्थापन दर से कम रहती है।
- विश्व में अनेक देशों में ऐसी स्थिति है, जैसे- जापान, रूस, इटली एवं पूर्वी यूरोप। दूसरी ओर, कुछ जगहों/देशों में जनसंख्या संवृद्धि दर बहुत ऊँची होती है विशेष रूप से जब वे जनसांख्यिकीय संक्रमण से गुज़र रहे होते हैं।
- अधिकतर देशों में यह दर प्रति महिला लगभग 2.1 बच्चे है, हालाँकि यह मृत्यु दर के साथ भिन्न हो सकती है। उदाहरण के लिये यदि किसी दशक में प्रतिस्थापन दर 2.11 है तो वहाँ प्रति 100 वृद्ध लोगों के मरने पर 211 बच्चे पैदा होंगें, यदि यह दर शून्य (0) है इसका अर्थ जितने लोगों की मृत्यु हुई है उतने ही बच्चों का जन्म हुआ है। यदि यह ऋणात्मक है तो इसका अर्थ होगा जितने लोगों की मृत्यु हुई है उससे कम लोगों का जन्म हुआ है।
- लोगों का मानना है कि एक बार ‘प्रतिस्थापन प्रजनन दर’ पर पहुंचने पर कुछ वर्षों में जनसंख्या स्थिर हो जाएगी या कम होने लगेगी।
- हालांकि, जनसंख्या आवेग के प्रभाव (Population Momentum Effect) के कारण ऐसा निकट भविष्य में सम्भव नहीं है, क्योंकि भारत में 15-49 वर्ष के प्रजनन आयु समूह में प्रवेश करने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक थी, अतः अभी एक दम से प्रजनन दर का प्रतिस्थापन दर से कम होने की सम्भावना नहीं दिख रही है।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 1990 के आसपास केरल, प्रतिस्थापित प्रजनन के स्तर पर पहुँच गया था, लेकिन इसकी वार्षिक जनसंख्या वृद्धि दर वर्ष 2018 में (लगभग 30 वर्ष बाद) भी 0.7% थी।
चुनौतियाँ:
- संकीर्ण मानसिकता : भारत में अभी भी (सम्भवतः केरल और छत्तीसगढ़ को छोड़कर) लगभग सभी राज्यों में बेटों को बेटियों पर वरीयता दी जाती है। यह एक प्रकार की संकीर्ण मानसिकता है, जहाँ लोग इस प्रकार वरीयता देने को लड़कियों के दहेज़ से जोड़कर भी देखते हैं।
- प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग : अल्ट्रासाउंड जैसी सस्ती तकनीकें लिंग चयन में लोगों की मदद करती हैं, जबकि इसके खिलाफ बहुत से अधिनियम बनाए गए हैं।
- कानूनों के क्रियान्वयन में विफलता : पूर्व गर्भाधान एवं प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध ) अधिनियम, 1994 [The Pre-conception and Pre-natal Diagnostic Techniques (Prohibition of Sex Selection) Act], जिसमें विभिन्न कड़े और दंडात्मक प्रावधान किये गए हैं, अभी तक अधिक सफल साबित नहीं हुआ है।
- पी.सी.-पी.एन.डी.टी. को लागू करने वाले कर्मियों के प्रशिक्षण की रिपोर्ट में बहुत सी खामियां पाई गई हैं, यह भी पाया गया कि जिन लोगों के खिलाफ मामले बनते थे उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करने में भी वे असफल ही रहे हैं।
- निरक्षरता : यह भी देखा गया है कि 15-49 वर्ष की प्रजनन आयु समूह में साक्षर महिलाओं की तुलना में निरक्षर महिलाओं की प्रजनन क्षमता अधिक है।
सरकार की पहल– बेटी बचाओ बेटी पढाओ योजना (BBBP Scheme):
- जनगणना 2011 के आँकड़ों के अनुसार लिंगानुपात में तेज़ गिरावट की वजह से इस क्षेत्र में तत्काल कार्रवाई की माँग बढ़ गई थी।
- सरकार द्वारा बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना को वर्ष 2015 में पानीपत, हरियाणा में शुरू किया गया था ताकि बाल लिंग–अनुपात में गिरावट दर्ज की जा सके और महिलाओं व बेटियों के सशक्तिकरण की राह आसान की जा सके।
- यह महिला और बाल विकास, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) का एक संयुक्त प्रयास था।
सुझाव :
- महिलाओं की शिक्षा और आर्थिक समृद्धि बढ़ने से लिंगानुपात में सुधार आने की उम्मीद है।
- महिलाओं और बच्चों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने के लिये चरणबद्ध अभियान, अधिक संख्या में महिला सुरक्षा सेल का निर्माण सुनिश्चित करना, सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना, साइबर अपराध सेल को अधिक मज़बूत करना आदि।
- पक्षपातपूर्ण लिंग चयन के परिणामस्वरूप पुत्री के ऊपर पुत्र को वरीयता देने जैसी बातों के आलोक में समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिये सरकारी कार्यों को विधिक व सामाजिक तरीके से लागू किये जाने की आवश्यकता है।
आगे की राह
- कई नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के बावजूद, भारत में महिलाओं और बालिकाओं की स्वास्थ्य स्थिति अभी भी संतोषजनक नहीं है।
- मौजूदा समय में महिलाओं और बच्चों से सम्बंधित नीतियों का प्रभावी क्रियान्वयन बहुत ज़रूरी है, विशेषकर सम्पत्ति उत्तराधिकार में महिलाओं को स्वामित्त्व, कार्यक्षेत्र में महिलाओं की सुरक्षा। इसके अलावा अन्य सामाजिक क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को काम करने के लिये न सिर्फ सामाजिक बल्कि सरकारी प्रयास भी बहुत ज़रूरी हैं।
एस.आर.एस. रिपोर्ट
SRS देश का सबसे बड़ा जनसांख्यिकीय नमूना सर्वेक्षण है, जिसके द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधियोँ के नमूने के माध्यम से लिंग अनुपात, प्रजनन दर आदि का प्रत्यक्ष अनुमान लगाया जाता है। इसका क्रियान्वयन रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय द्वारा किया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष
UNFPA का उद्देश्य दुनिया भर में प्रजनन और मातृ स्वास्थ्य में सुधार करना है। इसका मुख्यालय न्यूयॉर्क में है।
GS-2 Mains
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : योजनाएँ व प्रशासन)
विषय–एकता दिवस
पृष्ठभूमि
- 31 अक्तूबर को ‘लौह पुरुष’ सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती को एकता दिवस के रूप में मनाया जाता है। 31 अक्तूबर 2020 को सरदार पटेल की 145वीं जयंती के अवसर पर गुजरात के केवड़िया में आयोजित एकता समारोह में प्रधानमंत्री ने भाग लिया। उल्लेखनीय है कि स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी नर्मदा नदी के किनारे केवड़िया में ही स्थित है।
विभिन्न विकास परियोजनाओं की शुरुआत
- केवड़िया के समेकित विकास कार्यक्रम के तहत प्रधानमंत्री ने 30-31 अक्तूबर 2020 को विभिन्न परियोजनाओं का भी उद्घाटन किया।
- इन परियोजनाओं के तहत स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी के लिये एकता क्रूज़ सेवा, एकता मॉल और ‘बच्चों के लिए पोषक पार्क’ का भी उद्घाटन किया गया। साथ ही, प्रधानमंत्री ने एकता दिवस की शपथ दिलाई और एकता दिवस परेड में भी हिस्सा लिया।
- इसके अलावा यूनिटी ग्लो गार्डन में स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी की वेबसाइट को भी लॉन्च किया गया है जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सभी आधिकारिक भाषाओं में उपलब्ध होगी।
- साथ ही, केवड़िया ऐप को भी लॉन्च किया गया और केवड़िया स्थित स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी से अहमदाबाद स्थित साबरमती रिवरफ्रंट के लिये सी-प्लेन सेवा की भी शुरुआत की गई।
- प्रधानमंत्री ने केवड़िया में ‘सरदार पटेल प्राणी उद्यान’ और ‘जियोडेसिक एवरी डोम’ का भी उद्घाटन किया।
जियोडेसिक एवरी डोम
- जियोडेसिक एवरी डोम विश्व का सबसे बड़ा पक्षी उद्यान है।
- इस प्राणी उद्यान में दो अलग-अलग पक्षी अभयारण्य हैं, जिसमें एक घरेलू पक्षियों के लिये और दूसरा विदेश से आने वाले पक्षियों के लिये है।
एकता क्रूज़ सेवा
- एकता क्रूज़ सेवा के माध्यम से पर्यटक फेरी बोट सर्विस (Ferry Boat Service) के जरिये श्रेष्ठ भारत भवन से लेकर स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी तक छह किलोमीटर की दूरी तय कर सकेंगे।
- नाव सेवा को शुरू करने का उद्देश्य स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी आने वाले पर्यटकों को बोटिंग सेवाओं का अनुभव देना है।
एकता मॉल
- एकता मॉल में भारत की मौजूद हस्तकलाओं और पारम्परिक उत्पादों का प्रदर्शन किया जाएगा, जहाँ पूरे देश के उत्पादों को प्रदर्शित किया जाएगा। इसका उद्देश्य एकता का संदेश देना है।
- इस मॉल में स्थित प्रत्येक एम्पोरियम (बिक्री-भंडार) किसी-न-किसी राज्य का प्रतिनिधत्व करते हैं।
बच्चों के लिये पोषक पार्क
- यह विश्व का पहला प्रौद्योगिकी आधारित बच्चों के लिये पोषक पार्क है जो कि 35 हज़ार वर्गफुट में फैला हुआ है।
- इस पार्क में एक ‘न्यूट्री ट्रेन’ भी चलाई जाएगी, जिसके स्टेशन के नाम- ‘फलशाखा गृहम’, ‘पायोनागरी’, ‘अन्नपूर्णा’, ‘पोषण पुराण’, और ‘स्वस्थ भारत’ हैं।
- इस पार्क का उद्देश्य विभिन्न गतिविधियों के द्वारा पोषण युक्त भोजन के प्रति जागरूकता फैलाना है, जिसके लिये पार्क में मिरर मेज, 5डी वर्चुअल रियल्टी थियटर और अगुमेंटेंड रियल्टी गेम की भी व्यवस्था की गई है।
आरम्भ 2020
- ‘आरम्भ’ एक ऐसी पहल है जिसके द्वारा सभी अखिल भारतीय सेवा, ग्रुप-ए केंद्रीय सेवाएँ, विदेश सेवाओं के प्रशिक्षुओं को एक कॉमन फाउंडेशन पाठ्यक्रम के जरिये एक साथ लाया जाता है।
- इसका उद्देश्य परम्परागत रूप से विभागीय और सेवाओं के स्तर पर विभाजित सोच को समाप्त करना है, जिससे सिविल अधिकारियों के अंदर विभिन्न विभागों और क्षेत्रों के साथ मिलकर बिना किसी रुकावट के कार्य करने की क्षमता विकसित हो सके।
- आरम्भ 2020 में तीन उपविषय हैं :
- एक भारत – श्रेष्ठ भारत : भारत में सांस्कृतिक विविधता व तालमेल को प्रभावी रूप से तथा आर्थिक विविधता व एकता को शक्ति के रूप में स्थापित करना।
- आत्मनिर्भर भारत : ऊर्जा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में।
- नवीन भारत : शिक्षा, उद्योग और प्रशासन में शोध व नवाचार को बढ़ाना।
- इस वर्ष यह ‘आरम्भ’ का दूसरा संस्करण है। इसमें 18 सेवाओं और भूटान की तीन शाही सेवाओं के प्रशिक्षुओं ने भाग लिया है। इसका उद्देश्य सांस्कृतिक विविधता और एकता के द्वारा भारत को प्रभावशाली बनाना है।
- आरम्भ की शुरुआत वर्ष 2019 में 94वें फाउंडेशन कोर्स के तहत की गई थी। इसके अंतर्गत प्रधानमंत्री प्रशिक्षु अधिकारियों से सीधे संवाद भी करते हैं।
आरोग्य वन एवं आरोग्य कुटीर
- आरोग्य वन 17 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। यहाँ 380 विभिन्न प्रजातियों के लगभग 5 लाख पौधे हैं।
- आरोग्य कुटीर में एक पारम्परिक उपचार सुविधा संथीगिरी वेलनेस सेंटर हैं। इसमें आयुर्वेद, सिद्ध, योग एवं पंचकर्म पर आधारित स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध होगी।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अधययन प्रश्नपत्र– 2 : भारतीय संविधान– विशेषताएँ, संशोधन, संघीय ढाँचे से सम्बंधित विषय एवं चुनौतियाँ)
विषय–जम्मू व कश्मीर में भूमि कानूनों में संशोधन
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, केंद्र सरकार द्वारा जारी किये गए नए आदेश के अनुसार देश के किसी भी हिस्से में निवास करने वाला नागरिक भी अब जम्मू व कश्मीर में सम्पत्ति की खरीद कर सकता है।
प्रमुख प्रावधान
- भूमि स्वामित्व अधिनियम से सम्बंधित कानूनों में संशोधन करते हुए इससे सम्बंधित 12 कानूनों को निरस्त कर दिया गया है। साथ ही, सम्बंधित केंद्रीय कानूनों को लागू करने के लिये जम्मू व कश्मीर पुनर्गठन आदेश (तृतीय), 2020 जारी किया गया है।
- इन संशोधनों के अनुसार जम्मू व कश्मीर में भूमि के स्वामित्व सम्बंधी अधिकार, भूमि के विकास, वन भूमि, कृषि भूमि सुधार तथा भूमि आवंटन से सम्बंधित सभी कानूनों में जम्मू व कश्मीर का स्थाई नागरिक शब्द हटा दिया गया है।
- साथ ही, जम्मू व कश्मीर वन अधिनियम के स्थान पर भारतीय वन अधिनियम लागू कर दिया गया है।
- जम्मू व कश्मीर सम्पत्ति हस्तानांतरण कानून की एक धारा को समाप्त कर दिया गया है, जिस कारण अब कोई भी निवासी अपनी भूमि व भवन को किसी को भी हस्तानांतरित कर सकता है।
- ज़िला अधिकारी की अनुमति के अलावा किसी भी कृषि उद्देश्यों के लिये उपयोग की जाने वाली भूमि का गैर-कृषि प्रयोजनों हेतु उपयोग नहीं किया जा सकेगा।
- हालाँकि, कृषि भूमि को केवल कृषक ही खरीद सकते हैं।
नए बदलाव
- पूर्व में केवल स्थाई निवासी ही जम्मू व कश्मीर में भूमि की खरीदारी कर सकते थे, जबकि अन्य भागों के निवासी किराए या पट्टे पर ही भूमि ले सकते थे। इस कारण यह राज्य निवेश के मामलें में पीछे रह जाता था।
- सेना के आग्रह पर संचालन और प्रशिक्षण आवश्यकताओं के लिये जम्मू व कश्मीर प्रशासन किसी क्षेत्र को रणनीतिक महत्त्व का घोषित कर सकता है।
महत्त्व
- निवेशकों सहित जम्मू व कश्मीर से बाहर के लोग भी अब इस केंद्र शासित प्रदेश में भूमि खरीद सकते हैं। इससे जम्मू-कश्मीर संघ राज्य क्षेत्र में बाहरी निवेशकों के लिये मार्ग प्रशस्त होगा। साथ ही, इसके लिये औद्योगिक विकास निगम की भी स्थापना का प्रस्ताव है।
- यह अधिनियम जम्मू कश्मीर में स्वास्थ्य के साथ-साथ उच्च माध्यमिक या उच्चतर या विशिष्ट शिक्षा के संवर्धन के उद्देश्य से किसी व्यक्ति या संस्था के पक्ष में भूमि के हस्तांतरण को सक्षम बनाता है।
- इससे भूमि पर स्थानीय निवासियों को प्राप्त विशेष अधिकार समाप्त हो जाएंगे और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलेगा।
- इस केंद्र शासित प्रदेश में कई वर्षों से कृषि करने के बावजूद भी भूमि का स्वामित्व नहीं प्राप्त हो पाता था जबकि नए नियम में इस व्यवस्था को परिवर्तित कर दिया गया है।
प्रश्नपत्र – 2 व 3 : गरीबी, अंतर्राष्ट्रीय फोरम, समावेशी विकास
विषय–अंतर्राष्ट्रीय सहायता प्रतिबद्धताओं पर ऑक्सफेम की रिपोर्ट
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, ऑक्सफेम (गैर-सरकारी संगठन) द्वारा एक अध्ययन(Fifty Years of Broken Promises) जारी किया गया। इस अध्ययन में बताया गया है कि कैसे पिछले 50 वर्षों में उच्च आय वाले देशों द्वारा गरीब और निम्न आय वाले देशों को 7 ट्रिलियन डॉलर की सहायता से वंचित कर दिया गया।
रिपोर्ट के मुख्य बिंदु
- 24 अक्टूबर, 2020 को अंतर्राष्ट्रीय सहायता प्रतिबद्धताओं की 50वीं वर्षगांठ पर 50 वर्ष पूर्व निर्धारित प्रतिबद्धताओं की विफलता के विषय पर चर्चा की गई।
- कोविड-19 महामारी के कारण आर्थिक समस्याओं में वृद्धि हुई है तथा अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहायता में और कमी आने से गरीब और विकासशील देशों को राजस्व जुटाने हेतु नए स्रोत तलाशने होंगे।
- अधिकांश धनी देश अपनी सहायता सम्बंधी प्रतिबद्धताओं को पूरा कर पाने में असफल रहे हैं। वर्ष 2019 में धनी राष्ट्रों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सहायता प्रतिबद्धताओं पर अपनी सकल राष्ट्रीय आय (Gross National income – GNI) का केवल 0.3% (0.7% की तुलना में) हिस्सा ही खर्च किया गया।
- केवल पाँच देशों लक्ज़मबर्ग, नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क और यू.के. द्वारा निर्धारित अंतर्राष्ट्रीय सहायता 0.7% (सकल राष्ट्रीय आय का) या इससे अधिक योगदान दिया गया।
हालाँकि इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि किस तरह से अंतर्राष्ट्रीय सहायता ने निम्न आय वाले देशों में सामाजिक और आर्थिक स्तर पर परिवर्तन किया है।
सुधार हेतु किये गए प्रयास
- गरीबी और असमानता के विरूद्ध लड़ाई में अंतर्राष्ट्रीय सहायता एक महत्त्वपूर्ण उपकरण रहा है।
- एड्स, तपेदिक और मलेरिया से लड़ने हेतु ग्लोबल फंड द्वारा समर्थित स्वास्थ्य कार्यक्रमों ने 27 मिलियन से अधिक लोगों की जान बचाई है।
- वैश्विक पोलियो उन्मूलन पहल ने करोड़ों बच्चों के टीकाकरण हेतु वित्तपोषण प्रदान किया है, जिसने 18 मिलियन बच्चों को पक्षाघात तथा अन्य सम्बंधित रोगों से बचाया है।
- वर्ष 2000 में डकार (सेनेगल) में आयोजित ‘वर्ल्ड एजुकेशन फोरम’ में शिक्षा हेतु सहायता पैकेज पर सहमती से बड़ी संख्या में गरीब तथा विकासशील देशों में बच्चों को स्कूल जाने का मौका मिला है।
चिंता के विषय
- रिपोर्ट में बताया गया है कि दाता देशों द्वारा सहायता पैकेज का उपयोग सहायता प्राप्तकर्ता देशों का वाणिज्यिक तथा अंतर्राष्ट्रीय समर्थन हासिल करने हेतु किया जाता है|
- रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति की सम्पत्ति (185 बिलियन डॉलर) सभी अंतर्राष्ट्रीय सहायता बजट से अधिक है। अतः सरकारों को अपने सहायता वादों (aid promises) से अधिक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
धनी देशों को समझने की आवश्यकता है कि अंतर्राष्ट्रीय सहायता दान नहीं है, बल्कि यह हम सभी के लिये न्यायपूर्ण, सुरक्षित तथा समृद्ध भविष्य हेतु एक अनिवार्य निवेश है।
वर्ल्ड एजुकेशन फोरम
- वर्ल्ड एजुकेशन फोरम में दुनिया भर की सरकारें, उनके शैक्षिक विभाग तथा शैक्षिक गतिविधियों में शामिल प्रमुख संगठनों (यूनेस्को, वर्ल्ड बैंक तथा एशियाई विकास बैंक) के प्रतिनिधि शामिल हैं।
- इस फोरम की पहली कांफ्रेंस डकार (सेनेगल) में आयोजित की गई थी, जिसमें डकार फ्रेमवर्क फॉर एक्शन को अपनाया गया।
ऑक्सफेम
- ऑक्सफेम की स्थापना वर्ष 1942 की गई थी। यह 20 स्वतंत्र संगठनों द्वारा समर्थित एक गैर लाभकारी संगठन है। यह वैश्विक गरीबी तथा असामनता को कम करने हेतु कार्य करता है।
- इसका मुख्यालय नैरोबी (केन्या) में स्थित है।
विषय–सतर्कता एवं भ्रष्टाचार निरोधक राष्ट्रीय सम्मेलन
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, भारत के प्रधानमंत्री द्वारा सतर्कता एवं भ्रष्टाचार निरोधक राष्ट्रीय सम्मेलन (तीन दिवसीय) की शुरुआत की गई।
मुख्य बिंदु
- इस राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन केंद्रीय जाँच ब्यूरो द्वारा प्रति वर्ष 27 अक्टूबर से 2 नवम्बर तक सतर्कता जागरूकता सप्ताह के साथ ही किया जाता है।
- वर्ष 2020 की थीम सतर्क भारत, समृद्ध भारत (Vigilant India, Prosperous India) है।
- इस सम्मलेन में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, आर्थिक अपराध शाखा, राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के प्रमुख तथा विभिन्न केंद्रीय एजेंसियों के प्रमुख शामिल होंगे।
सम्मेलन के विषय
- विदेशी न्यायाधिकार क्षेत्र में जाँच सम्बंधी चुनौतियाँ।
- भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक प्रणालीगत जाँच के रूप में निवारक सतर्कता।
- वित्तीय समावेशन तथा बैंक धोखाधड़ी की रोकथाम हेतु प्रणालीगत सुधार।
- भ्रष्टाचार सम्बंधी कानूनों में नवीनतम संशोधन।
- क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण।
- तीव्र और प्रभावी जाँच के मध्य समन्वय।
- साइबर अपराध तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठित अपराधों की रोकथाम हेतु आपराधिक जाँच एजेंसियों के मध्य बेहतर समन्वय।
सम्मेलन का महत्त्व
- यह सम्मेलन नीति निर्माताओं तथा व्यवसायियों को एक साझा मंच प्रदान करेगा।
- यह सम्मेलन सुशासन, उत्तरदायी प्रशासन, प्रणालीगत सुधारों एवं निवारक सतर्कता समाधानों के ज़रिये भ्रष्टाचार से निपटने में सहायता करेगा।
- यह सम्मेलन भारत में कारोबारी सुगमता को गति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
भ्रष्टाचार की रोकथाम हेतु सरकार के प्रयास
- सर्वोच्च न्यायलय के निर्देशानुसार काले धन के विरुद्ध समिति का गठन।
- नकद लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) की शुरुआत।
- बेनामी सम्पत्ति लेन-देन निषेध अधिनियम, 2016.
- भगौड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम।
- व्यापक स्तर पर सरकारी सेवाओं तथा आवेदन प्रक्रिया को ऑनलाइन किया गया है।
- B तथा C समूह की नौकरियों में साक्षात्कार की समाप्ति (केवल परीक्षा से ही सीधी भर्ती)।
- स्थानांतरण एवं पोस्टिंग सम्बंधी रिश्वतखोरी की रोकथाम हेतु विभिन्न नीतिगत उपाय।
निष्कर्ष
इन प्रयासों से सार्वजनिक जीवन में सत्यनिष्ठा और पारदर्शिता जैसे मूल्यों के विकास से आम जनता में जागरूकता बढ़ने के साथ ही नागरिक भागीदारी सुनिश्चित हो पाएगी।
विषय–भारत–ऑस्ट्रेलिया सर्कुलर इकॉनमी हैकथॉन
चर्चा में क्यों?
- अटल इनोवेशन मिशन द्वारा ऑस्ट्रेलिया की सी.एस.आई.आर.ओ. (Commonwealth Scientific and Industrial Research Organisation – CSIRO) की सहायता से भारत-ऑस्ट्रेलिया सर्कुलर इकॉनमी हैकथॉन का आयोजन 7-8 दिसम्बर, 2020 को किया जाएगा।
मुख्य बिंदु
- आई-ए.सी.ई. का विचार सर्वप्रथम भारत-ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों की 4 जून की वर्चुअल मीटिंग में सामने आया था।
- आई-ए.सी.ई. के अंतर्गत भारत तथा ऑस्ट्रेलिया के स्टार्ट-अप, एम.एस.एम.ई. तथा प्रतिभाशाली छात्रों द्वारा नवाचारी तकनीकी समाधानों के विकास तथा उन्हें पहचान प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।
- चयनित छात्रों को स्टार्टअप और एम.एस.एम.ई. से सम्बंधित नवाचारी समाधानों हेतु पुरस्कृत किया जाएगा। प्रस्तावित हैकथॉन निम्नलिखित 4 विषयों पर केंद्रित होगा-
- पैकिंग अपशिष्ट को कम करने हेतु सीमित संसाधनों से पैकिंग क्षेत्र में नवाचार।
2. भोजन की बर्बादी को कम करने हेतु खाद्य आपूर्ति शृंखला में नवाचार।
3. प्लास्टिक अपशिष्ट में कमी हेतु नए अवसरों की खोज।
4. जटिल ऊर्जा धातु और अपशिष्ट पुनर्चक्रण हेतु नवाचार।
लाभ
- इससे अपशिष्ट पदार्थों के निपटान का स्थायी समाधान निकलेगा तथा अपशिष्ट पदार्थों के पुनः उपयोग के नए तरीके भी सामने आएंगे।
- भारत-ऑस्ट्रेलिया सयुंक्त रूप से अनुसंधान तथा विकास सम्बंधी प्रयासों में तीव्रता लाकर महामारी के इस चुनौतीपूर्ण समय में प्रभावी आर्थिक और सामाजिक समाधानों की खोज कर सकते हैं।
- आई-ए.सी.ई. से अर्थव्यवस्था को सीमित संसाधनों में बेहतर पर्यावरण अनुकूल आर्थिक विकास की दिशा में सहायता प्राप्त होगी।
- इस प्रयास से सर्कुलर इकॉनमी की चुनौतियों से निपटने में सहायता प्राप्त होगी।
- सर्कुलर इकॉनमी के मॉडल, व्यापक स्तर पर रोज़गार सृजन तथा उच्च आर्थिक विकास की दर प्राप्त करने में सहायक होगा।
नोट – सर्कुलर इकॉनमी में कचरे या अपशिष्ट की सहायता से नए उत्पाद और वस्तुओं का निर्माण किया जाता है।
निष्कर्ष
सर्कुलर इकॉनमी की दिशा में सतत् और नवाचारी समाधानों को अपनाते हुए आगे बढ़ना समय की मांग है, क्योंकि ये समाधान न केवल पर्यावरण के अनुकूल हैं बल्कि इनसे सतत् विकास को भी बढ़ावा मिलता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : द्विपक्षीय, क्षेत्रीय व वैश्विक समूह तथा भारत से सम्बंधित और भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार, प्रवासी भारतीय)
विषय–लीबिया युद्ध–विराम समझौता
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, लीबिया में प्रतिद्वंदी दलों ने ऐतिहासिक संघर्ष विराम की घोषणा की। यह घोषणा जिनेवा में ‘5+5’ लीबिया संयुक्त सैन्य आयोग (JMC) की पांच दिनों की वार्ता के बाद की गई है।
लीबिया की वर्तमान स्थिति
- मुअम्मर गद्दाफी को सत्ता से बेदखल किये जाने के बाद से उत्तर अफ्रीकी राष्ट्र लीबिया लम्बे समय से कई गुटों के बीच सत्ता के संघर्ष में उलझा हुआ है। मुअम्मर गद्दाफी को नाटो समर्थित बलों द्वारा सत्ता से बेदखल कर दिया गया था।
- गद्दाफी ने वर्ष 1969 में सैन्य तख्तापलट द्वारा राजा इदरीस को सत्ता से बेदखल कर दिया था। अक्टूबर 2011 में गद्दाफी को मार दिया गया।
- गद्दाफी के बाद शासन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिये विभिन्न सरदारों के नेतृत्व में संघर्ष प्रारम्भ हो गया। युद्धरत् गुटों के बीच विवाद के प्रमुख मुद्दों में तेल अवसंरचना, प्रशासन, राष्ट्रीय वित्त और सैन्य नियंत्रण शामिल है।
लीबिया संघर्ष और अन्य देश
- संयुक्त राष्ट्र समर्थित अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सरकार का नेतृत्व फ़याज़ अल-सर्राज़ द्वारा किया जा रहा है। इस सरकार को ‘राष्ट्रीय समझौता सरकार’ (Government of National Accord : GNA) कहा जाता है, जिसे सहयोगी देशों (कतर और तुर्की) का समर्थन प्राप्त है।
- लीबिया के पूर्वी भाग को ‘लीबियन राष्ट्रीय सेना’ (LNA) के अधीन विद्रोही सशस्त्र बलों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जो रूसी सैन्य गुटों द्वारा समर्थित हैं। वर्ष 2014 से 2019 के बीच LNA ने पूर्व में इस्लामिक स्टेट के खिलाफ सैन्य अभियान भी चलाया था।
- इस्लामिक स्टेट के प्रसार ने स्थिति को और जटिल कर दिया है तथा यह अमेरिका द्वारा हस्तक्षेप का एक कारण भी है।
लीबिया में गृह युद्ध का प्रभाव
- विदेशी सम्बंध परिषद् के ‘ग्लोबल कॉन्फ्लिक्ट ट्रैकर’ के अनुसार, लीबिया में गृह युद्ध से 50,000 से अधिक शरणार्थी तथा 268,000 से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं।
- एक कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस (सी.आर.एस.) की रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल 2019 के बाद से सैकड़ों असैनिकों सहित 2,600 से अधिक लीबियाइ मारे गए हैं।
नया युद्ध विराम समझौता
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित इस नए समझौते के अनुसार, सभी विदेशी लड़ाकुओं, सैनिकों और सशस्त्र बलों को अगले 90 दिनों के भीतर लीबिया से निकलना होगा। साथ ही, इस समझौते में शामिल दलों ने यह भी सहमति व्यक्त की है कि संघर्ष विराम के किसी भी उल्लंघन को एक एकीकृत कमान के तहत संयुक्त सैन्य बल द्वारा निपटाया जाएगा।
- हालाँकि, यह युद्धविराम संयुक्त राष्ट्र द्वारा नामित आतंकवादी समूहों पर लागू नहीं होता है।
- समझौते द्वारा एक ‘संयुक्त पुलिस संचालन कक्ष’ भी स्थापित किया गया है, जो सैन्य इकाइयों और सशस्त्र समूहों से मुक्त होने वाले क्षेत्रों को सुरक्षित करने के लिये विशेष व्यवस्था को प्रस्तावित और लागू करेगा।
- इसके अलावा, ‘5+5’ ने विभिन्न क्षेत्रों और लीबिया के शहरों को जोड़ने के लिये भूमि और वायु मार्गों को खोलने पर भी सहमति व्यक्त की है।
- गौरतलब है कि लीबिया अफ्रीका का सबसे बड़ा तेल और गैस भण्डार वाला देश है। तेल उत्पादन के सम्बंध में विभिन्न दलों की सहमति के अनुसार पूर्व और पश्चिम के पेट्रोलियम सुविधाओं के कमांडर, नेशनल ऑयल कॉर्पोरेशन द्वारा नियुक्त एक प्रतिनिधि के साथ सीधे कार्य करेंगे।
- यह एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम है क्योंकि तेल अवसंरचना का नियंत्रण GNA और LNA के बीच प्रतिस्पर्धा का मूल कारण है।
निष्कर्ष
- संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के विशेष कार्यवाहक दूत स्टेफ़नी विलियम्स ने कहा कि इस समझौते के महत्त्व को लीबिया की भावी पीढ़ियों द्वारा पहचाना जाएगा। यह महत्त्वपूर्ण और साहसी कदम लम्बे समय से चले आ रहे लीबिया संकट के व्यापक समाधान का मार्ग प्रशस्त करेगा। तेल अवसंरचना के नियंत्रण सम्बंधी समझौते से इस सम्भावना को बल मिला है कि लम्बे समय से जारी संघर्ष समाप्त हो सकता है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 : विषय – महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ और मंच– उनकी संरचना, अधिदेश)
विषय–जी-20 एंटी–करप्शन वर्किंग ग्रुप की बैठक
- हाल ही में, सऊदी अरब ने जी-20 देशों केएंटी–करप्शन वर्किंग ग्रुप (ACWG) की अपनी तरह की पहली मंत्री–स्तरीय बैठक की मेजबानी की।
- वर्तमान में, सऊदी अरब जी-20 का अध्यक्ष है और जी-20 की अध्यक्षता करने वाला यह पहला अरब राष्ट्र है।
प्रमुख बिंदु
- जी–20 एंटी–करप्शन वर्किंग ग्रुप: G-20 Anti-Corruption Working Group (ACWG):
- इसकी स्थापना जून 2010 में जी –20 के टोरंटो शिखर सम्मेलन में की गई थी। वर्ष 2020 में इसकी 10वीं वर्षगांठ है।
- उद्देश्य: “भ्रष्टाचार से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों में जी-20 देशों द्वारा प्रदत्त व्यावहारिक और मूल्यवान योगदान जारी रखने के लिये और उस पर विचार के लिये व्यापक स्तर पर सिफारिशें देना”।
- ACWG ने G-20 के सदस्यों द्वारा किये गए सामूहिक और राष्ट्रीय कार्यों में समन्वय स्थापित करते हुए समूह के भ्रष्टाचार विरोधी प्रयासों का नेतृत्व प्रदान किया है।
- यह विश्व बैंक समूह, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओ.ई.सी.डी), संयुक्त राष्ट्र मादक पदार्थ एवं अपराध कार्यालय (United Nations Office on Drugs and Crime- UNODC), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.), वित्तीय कार्रवाई कार्यबल (एफ.ए.टी.एफ.) आदि के साथ मिलकर कार्य करता है।
- विश्व बैंक और यू.एन.ओ.डी.सी. स्टोलेन एसेट रिकवरी इनिशिएटिव (स्टार) नामक पहल में सक्रिय भागीदारी और योगदान के माध्यम से ए.सी.डब्ल्यू.जी. के कार्यों में प्रत्यक्ष रूप से भी शामिल हैं। यह सम्पत्ति की वसूली, धन-शोधन रोधी (anti-money laundering)/आतंकवाद-रोधी वित्तपोषण, पारदर्शिता लाभकारी स्वामित्व आदि विषयों पर एक सलाहकार की भूमिका निभाता है।
- भ्रष्टाचार पर जी –20 दृष्टिकोण :
- हाल के वर्षों में जी –20 ने वैश्विक स्तर पर अनेक देशों के भ्रष्टाचार–रोधी प्रयासों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- जी –20 ने भ्रष्टाचार के उन नकारात्मक प्रभावों के खिलाफ अपनी आवाज़ मुखर की है, जिनसे ‘बाज़ारों की अखंडता खतरे में आती है, निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा कम होती है, संसाधनों का आवंटन विकृत होता है तथा सार्वजनिक विश्वास कम होता है या विधि के शासन (rule of law) में रुकावटें उत्पन्न होती हैं।
- जी –20 यह सुनिश्चित करने के लिये प्रतिबद्ध है कि सदस्य देश सकारात्मक तरीके से आगे बढ़ते रहें और मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं में मूल्यवृद्धि करते रहें।
- G-20 ने वर्ष 2018 में ब्यूनस आयर्स में भ्रष्टाचार–रोधी कार्य योजना, 2019-2021 पर अपनी सहमति व्यक्त की थी। ध्यातव्य है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों को बढ़ावा देने के लिये यह कार्य योजना शुरू की गई थी।
भारत में इससे जुड़ी पहलें
केंद्रीय सतर्कता आयोग :
- यद्यपि इसे वर्ष 1964 में स्थापित किया गया था लेकिन वर्ष 2003 में यह एक स्वतंत्र वैधानिक निकाय बना।
- इसका कार्य सावधानीपूर्वक प्रशासन की देख-रेख करना और भ्रष्टाचार से सम्बंधित मामलों में प्रशासन को सलाह देना और उसकी सहायता करना है।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 ( Prevention of Corruption Act)
- इस अधिनियम का उद्देश्य बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार की जाँच करना और कॉर्पोरेट रिश्वतखोरी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करना है। इसमें ईमानदार कर्मचारियों को संरक्षण देने का प्रावधान भी है।
- कई नए प्रावधानों को जोड़ने के लिये इसे वर्ष 2018 में संशोधित किया गया था, जैसे घूस लेने और देने को अपराध घोषित करना आदि।
लोकपाल तथा लोकायुक्त:
- लोकपाल तथा लोकायुक्त अधिनियम, 2013 द्वारा संघ (केंद्र) के लिये लोकपाल और राज्यों के लिये लोकायुक्त की व्यवस्था की गई है। इन संस्थाओं को अभी संवैधानिक दर्जा नहीं प्राप्त है। ये एक प्रशासनिक शिकायत जाँच अधिकारी अथवा लोकपाल (Ombudsman) के रूप में कार्य करते हैं एवं निश्चित श्रेणी के कुछ सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच करते हैं।
- ये संस्थाएँ देश में अधिक पारदर्शिता, अधिक नागरिक–केंद्रिता और शासन में जवाबदेही लाने के लिये कार्य कर रही हैं।
भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 (Fugitive Economic Offenders Act, 2018)
- इस कानून के तहत, अधिकृत विशेष अदालत को किसी व्यक्ति को भगोड़ा आर्थिक अपराधी घोषित करने और उसकी बेनामी व अन्य सम्पत्ति ज़ब्त करने का अधिकार होगा। ज़ब्त करने के आदेश की तारीख से सभी सम्पत्तियों का अधिकार केंद्र सरकार के पास चला जाएगा।
धन–शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (Prevention of Money Laundering Act, 2002 )
- इसके प्रावधानों के तहत निदेशालय द्वारा धन–शोधन के अपराधियों के विरूद्ध, तालाशी, छापेमारी, गिरफ्तारी, जांच आदि से प्रमाण जुटाकर अवैध रूप से अर्जित सम्पत्ति की ज़ब्ती तथा मुकद्दमे कायम करके उन्हें सज़ा दिलवाने की कार्यवाही की जाती है।
- अवैध तरीके से कमाये गये काले धन को, वैध तरीके से कमाये गये धन के रूप दिखाना धन-शोधन या मनी लॉन्ड्रिंग कहलाता है।
- अन्य सम्बंधित कानून :
- सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005
- व्हिसिल ब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम, 2014
- बेनामी लेन–देन (निषेध) अधिनियम, 2016
संयुक्त राष्ट्र मादक पदार्थ एवं अपराध कार्यालय (United Nations Office on Drugs and Crime- UNODC)
- यू.ए.ओ.डी.सी. की स्थापना वर्ष 1997 में संयुक्त राष्ट्र मादक पदार्थ नियंत्रण कार्यक्रम और अंतर्राष्ट्रीय अपराध रोकथाम केंद्र को मिलाकर संयुक्त राष्ट्र सुधारों के तहतकी गई थी। इसका मुख्यालय वियना, ऑस्ट्रिया में है।
- इस कार्यालय का अधिकार क्षेत्र संयुक्त राष्ट्र समझौतों में निहित है, जैसे मादक पदार्थों के बारे में तीन समझौते, यूएन कन्वेंशन अगेंस्ट ट्रांस नेशनल ऑर्गेनाइज़्ड क्राइम और व्यक्तियों की तस्करी के बारे में, थल, जल और वायु के रास्ते प्रवासियों की तस्करी के बारे में तथा आग्नेय अस्त्रों को अवैध रूप से बनाने और तस्करी के बारे में उसके तीन प्रोटोकॉल, भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र समझौता, आतंकवाद के विरुद्ध सार्वभौम समझौते और अपराधों की रोकथाम तथा दंड न्याय सम्बंधी संयुक्त राष्ट्र मानकों एवं नियमों में निहित है।
- इन समझौतों की मदद से यू.एन.ओ.डी.सी, सदस्य देशों को अवैध मादक पदार्थों, अपराध एवं आतंकवाद के मुद्दों का समाधान देने में मदद करता है।
(मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र – 3 : धन शोधन तथा इसे रोकना, संगठित अपराध)
विषय–पाकिस्तान तथा एफ.ए.टी.एफ. की ग्रे लिस्ट
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफ.ए.टी.एफ.) की बैठक में पाकिस्तान को फरवरी 2021 तक ग्रे लिस्ट में रखने का निर्णय लिया गया है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु
- महामारी के कारण एफ.ए.टी.एफ. द्वारा वर्चुअल बैठक की गई। इस बैठक में समीक्षा की गई कि पाकिस्तान चरमपंथ का वित्तपोषण तथा धन शोधन को रोकने में कितने मानदंडों (Mandates) में सफल रहा।
- एफ.ए.टी.एफ. के अनुसार पाकिस्तान के आतंकवाद रोधी कानून की अनुसूची 5 के तहत 7600 आतंकियों की मूल सूची से 4000 से अधिक नाम संदिग्ध रूप से गायब हो गए हैं।
- पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में बनाए रखने का समर्थन करने वाले प्रमुख देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी भी पाकिस्तान द्वारा आतंकी गतिविधियों की रोकथाम सम्बंधी कार्यवाहियों से संतुष्ट नहीं हैं।
पाकिस्तान के ग्रे लिस्ट में बने रहने के कारण
- एफ.ए.टी.एफ. द्वारा जून 2018 में पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में डाला गया था एवं वर्ष 2019 के अंत तक धन शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) तथा आतंकवादी गतिविधियों हेतु वित्तपोषण पर अंकुश लगाने हेतु कार्ययोजना (एक्शन प्लान) लागू करने के लिये कहा गया था। लेकिन कोविड–19 महामारी के कारण इस समय-सीमा में वृद्धि की गई थी।
- 23 अक्टूबर, 2020 को एफ.ए.टी.एफ. द्वारा पाकिस्तान को फरवरी, 2021 तक ग्रे लिस्ट में ही रखने का निर्णय लिया गया है।
- पाकिस्तान आतंकी फंडिंग की जाँच से सम्बंधित 27 में से 6 मानदंडों का पालन करने में असफल रहा है।
- कार्ययोजना की समय-सीमा समाप्त होने के कारण एफ.ए.टी.एफ. ने सख्ती से पाकिस्तान को आतंकी फंडिंग की रोकथाम हेतु बाकी 6 प्रतिबद्धताओं को फरवरी 2021 तक पूरा करने को कहा है।
- पाकिस्तान, सयुंक्त राष्ट्र द्वारा नामित आतंकवादी संगठन तथा उनके सरगनाओं पर जैसे, जैश-ए-मोहम्मद (जे.ए.म.) के प्रमुख तथा लश्कर-ए-तैयबा (एल.ई.टी.) के मुखिया पर कार्यवाही करने में भी नाकम रहा है।
पाकिस्तान पर प्रभाव
- एफ.ए.टी.एफ. द्वारा पाकिस्तान को वर्ष 2012 से 2015 तक ग्रे लिस्ट में रखा गया था। लेकिन संतोषजनक कदम ना उठाए जाने के कारण इसे वर्ष 2018 में दोबारा इस लिस्ट में डाल दिया गया।
- ग्रे लिस्ट में बने रहने से पाकिस्तान के विदेशी निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। साथ ही, आयात-निर्यात तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं (आइएमएफ और एडीबी) से ऋण प्राप्त करने की क्षमता भी प्रभावित हो रही है।
- आतंकी गतिविधियों की रोकथाम हेतु पर्याप्त कदम ना उठाए जाने के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पाकिस्तान का बहिष्कार किया जा रहा है।
- अगर पाकिस्तान ने एफ.ए.टी.एफ. द्वारा निर्धारित मानदंडों पर निश्चित समय-सीमा में पर्याप्त कदम नहीं उठाए तो पाकिस्तान को ब्लैक लिस्ट में डालने की सम्भावना बढ़ जाएगी, जिससे वहाँ आर्थिक तथा राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है।
- पाकिस्तान का सार्वजनिक ऋण 37,500 अरब पाकिस्तानी रुपए या सकल घरेलू उत्पाद का 90% हो गया है। अतः कोई भी देश आर्थिक तथा राजनितिक रूप से अस्थिर देश में निवेश नहीं करना चाहता है।
तुर्की का समर्थन
- एफ.ए.टी.एफ. की हालिया बैठक में तुर्की ने पाकिस्तान का समर्थन करते हुए कहा कि एफ.ए.टी.एफ. द्वारा निर्धारित 27 में से 6 मानदंडों को पूरा करने हेतु पाकिस्तान को और समय दिया जाना चाहिये लेकिन बाकी देशों ने तुर्की के इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए पाकिस्तान के ग्रे लिस्ट में बने रहने का ही समर्थन किया है।
एफ.ए.टी.एफ.
- एफ.ए.टी.एफ. की स्थापना वर्ष 1989 में धन शोधन, वित्तीय अपराध तथा आतंकी फंडिंग की रोकथाम हेतु एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन के रूप में की गई थी, जिसका मुख्यालय पेरिस (फ़्रांस) में स्थित है।
- वर्तमान में एफ.ए.टी.एफ. के 39 सदस्य देश (इसमें दो क्षेत्रीय संगठन यूरोपियन कमीशन तथा खाड़ी सहयोग संगठन शामिल हैं। पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट से बाहर आने के लिये 12 सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता है।
- ध्यातव्य है कि ग्रे लिस्ट से बाहर आने के लिये किसी भी देश को 12 मतों या सदस्य देशों के समर्थन की आवश्यकता होती है।
- वर्तमान में ग्रे लिस्ट में 18 देश तथा ब्लैक लिस्ट में दो देश (ईरान और उत्तर कोरिया) हैं।
एफ.ए.टी.एफ. की दो सूचियाँ है –
ब्लैक लिस्ट तथा ग्रे लिस्ट
- ब्लैक लिस्ट में शामिल देशों के धन-शोधन और आतंकी फंडिंग की रोकथाम सम्बंधी प्रयास असफल रहते हैं तथा ये वैश्विक स्तर पर सहयोगात्मक रवैया भी नहीं अपनाते हैं। ऐसे देशों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दी जाने वाली आर्थिक सहायता पर रोक लगा दी जाती है।
- ग्रे लिस्ट में शामिल देशों के धन शोधन तथा आतंकी फंडिंग पर कार्यवाही करने हेतु नियंत्रण उपायों को अपर्याप्त माना है। हालाँकि ऐसे देश एफ.ए.टी.एफ. के साथ समन्वय बनाए रखते हैं।
- ग्रे लिस्ट में आने वाले देशों को आतंकी फंडिंग तथा धन शोधन के लिये टैक्स चोरी का स्वर्ग (Safe Tax Heavens) माना जाता है। हालाँकि ग्रे लिस्ट में शामिल किया जाना ब्लैक लिस्ट में शामिल करने जितना गम्भीर नहीं है। ग्रे लिस्ट में शामिल देशों के लिये यह धन-शोधन और आतंकी फंडिंग को रोकने हेतु एक चेतावनी है।
निष्कर्ष
पाकिस्तान को अपनी ज़मीन से आतंकवादी गतिविधियों को समाप्त करने हेतु ठोस और व्यावहारिक कदम उठाने चाहिये जिससे न केवल पाकिस्तान में वरन् एशियाई महाद्वीप में भी शांति और समृद्धि की राह सुनिश्चित हो सकेगी
एफ.ए.टी.एफ. से सम्बंधित अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदु
एफ.ए.टी.एफ. द्वारा कहा गया है कि कोरोना वायरस महामारी से जुड़े अपराधों में वृद्धि हुई है, जिसमें व्यापक स्तर पर नकली चिकित्सा आपूर्ति तथा ऑनलाइन घोटाले दुनिया भर की सरकारों के लिये चिंता का विषय बने हुए हैं।
ध्यातव्य है कि पाकिस्तान द्वारा एफ.ए.टी.एफ. की लिस्ट से बाहर आने हेतु अमेरिका की प्रमुख लॉबिस्ट फर्म (किसी भी विषय या मुद्दे पर राजनीतिक सहयोग के माध्यम से समर्थन करने वाली संस्थाएँ) कैपिटल हिल कंसल्टिंग ग्रुप की सेवाएँ ली गईं।
वर्तमान में एफ.ए.टी.एफ. के अध्यक्ष मार्कस प्लेयर हैं।
काले धन को सफेद या वैधानिक बनाए जाने की प्रक्रिया धन-शोधन कहलाती है।
एफ.ए.टी.एफ.से जुड़ी एजेंसी एशिया पैसिफिक ग्रुप (ए.पी.जी.) एशियाई-प्रशांत क्षेत्र में धन-शोधन और आतंकी फंडिंग पर नज़र रखती है। एपीजी की तरह ही यूरोप, दक्षिण अमेरिका और अन्य क्षेत्रों में एफ.ए.टी.एफ. से जुड़ी संस्थाएँ हैं।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : विषय– भारत एवं इसके पड़ोसी सम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
विषय–भारत–ताइवान सम्बंध और चीन की आपत्ति
चर्चा में क्यों
- हाल ही में, चीन नेभारत और ताइवान के मध्य किसी भी प्रकार के आधिकारिक आदान–प्रदान पर अपनी आपत्ति जताई है। पूर्व में भी भारत-ताइवान सम्बंधों पर चीन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आपत्ति जता चुका है।
प्रमुख बिंदु
- चीन की यह प्रतिक्रिया उन रिपोर्टों के जवाब में आई है, जिसमें भारत और ताइवान द्वारा व्यापार समझौते पर बातचीत के साथ सम्बंधों को आगे बढ़ाने की बात की गई थी।
- चीन का मानना है कि ‘वन चाइना प्रिंसिपल’ पर भारत सहित अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की सर्वसम्मति है, अतः भारत सहित विश्व के अन्य देशों को इसका सम्मान करना चाहिये।
- चीन ने भारत में हालिया अभियानों (पोस्टर और सोशल मीडिया) द्वारा ताइवान के “हैप्पी नेशनल डे“ (10 अक्टूबर) पर ताइवान को बधाई देने और ताइवान के लिये देश या राष्ट्र जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर भी आपत्ति जताई थी।
- चीन ने आगामी मालाबार नौसेना अभ्यास में भारत, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ ही ऑस्ट्रेलिया को शामिल किये जाने का भी विरोध किया है।
भारत–ताइवान सम्बंध
- भारत और ताइवान के बीच औपचारिक राजनयिक सम्बंध नहीं हैं। नगण्य राजनीतिक सम्बंधों के कारण भारत और ताइवान के बीच सहयोग के क्षेत्र सीमित ही हैं।
- वर्ष 1995 से वर्ष 2014 के दौरान दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और यह 934 मिलियन डॉलर से बढ़कर 5.91 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया है।
- प्रौद्योगिकी : वर्तमान में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दोनों देशों के बीच 30 से अधिक सरकारी वित्तपोषित संयुक्त अनुसंधान परियोजनाएँ संचालित हो रही हैं।
- अगस्त 2015 में, ताइवान स्थित फॉक्सकॉन, जो दुनिया के सबसे बड़े हार्डवेयर निर्माताओं में से एक है, ने भारत में $ 5 बिलियन के निवेश की घोषणा की थी।
- भारत और ताइवान ने वर्ष 2018 में द्विपक्षीय निवेश समझौते (Bilateral Investment Agreement) पर हस्ताक्षर किये थे। विगत वर्षों में भारत-ताइवान व्यापार सम्बंधों का विस्तार हुआ है और ताइवान की कई कम्पनियाँ भारत में प्रमुख निवेशक भी हैं।
- ताइवान विश्व में लम्बे समय से हाई-टेक हार्डवेयर निर्माण में अग्रणी है और भारत के ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, और स्मार्ट सिटी से जुड़े अभियानों में बहुत योगदान दे सकता है।
- ताइवान की कृषि-प्रौद्योगिकी और खाद्य प्रसंस्करण से जुड़ी प्रौद्योगिकी भारत के कृषि क्षेत्र के लिये भी बहुत फायदेमंद हो सकती है।
- दोनों पक्षों ने वर्ष 2010 में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक पारस्परिक डिग्री मान्यता समझौते के बाद शैक्षिक आदान–प्रदान का भी विस्तार किया है।
चुनौतियाँ:
- वन चाइना पॉलिसी : भारत द्वारा ताइवान के साथ अपने द्विपक्षीय सम्बंधों को पूरी क्षमता के साथ आगे बढ़ाना फिलहाल मुश्किल है। वर्तमान में, दुनिया भर में लगभग 16 देशों ने ताइवान को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता दी हुई है, भारत इन 16 देशों में शामिल नहीं है ।
- व्यापार और निवेश : दोनों देशों के बीच आर्थिक विनिमय अभी भी अपेक्षाकृत महत्त्वहीन ही है। भारत के साथ व्यापार में ताइवान का हिस्सा, ताइवान के वैश्विक व्यापार का मात्र 1% ही है।
आगे की राह
- ताइवान ने चीन से जुड़े भौगोलिक-आर्थिक-राजनीतिक-सामयिक कारकों के अध्ययन पर भारी निवेश किया है, भारत को इस जानकारी का लाभ कूटनीतिक रूप में उठाना चाहिये।
- संसाधन सम्पन्न भारत को ताइवान की तकनीक से लाभ मिल सकता है। उदाहरण के लिये, भारत में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक बांस संसाधन उपलब्ध हैं, जबकि ताइवान विश्व स्तरीय बांस चारकोल तकनीक (Bamboo Charcoal Technology) में अग्रणी है। इस तरह की तकनीक के साथ भारत अपने बांस संसाधनों का उपयोग उच्च मूल्यवर्धित वस्तुओं का उत्पादन करने के लिये कर सकता है।
- हाल ही में, ताइवान में नए दूत के रूप में सेवा करने के लिये एक वरिष्ठ राजनयिक की नियुक्ति के साथ भारत ने ताइवान के साथ राजनयिक सम्बंधों को आगे बढ़ाने के लिये अपनी वन–चाइना पॉलिसी (हालाँकि आधिकारिक तौर पर नहीं) में बदलाव का स्पष्ट संकेत दे दिया है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 व 3 : भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार, अंतरिक्ष)
विषय–भारत और नाइजीरिया के मध्य समझौता ज्ञापन
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, कैबिनेट ने भारत और नाइजीरिया के मध्य शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिये बाह्य अंतरिक्ष की खोज और इसके उपयोग में सहयोग पर हुए समझौता ज्ञापन (एम.ओ.यू.) को मंजूरी प्रदान की है।
पृष्ठभूमि
- भारत और नाइजीरिया लगभग एक दशक से औपचारिक अंतरिक्ष सहयोग हेतु प्रयासरत हैं। राजनयिक माध्यमों से विचार-विमर्श के बाद इस एम.ओ.यू. पर जून 2020 में बेंगलुरु में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और अगस्त 2020 में अबूजा में नाइजीरिया के राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान और विकास एजेंसी (एन.ए.एस.आर.डी.ए.) ने हस्ताक्षर किये हैं।
महत्त्व
- यह समझौता ज्ञापन दोनों देशों को सहयोग के सम्भावित क्षेत्रों, जैसे- पृथ्वी की सुदूर संवेदन (रिमोट सेंसिंग), सैटलाइट आधारित संचार व नेविगेशन, अंतरिक्ष विज्ञान एवं ग्रहों की खोज के साथ-साथ अंतरिक्ष यान, लॉन्च व्हीकल, अंतरिक्ष प्रणालियों और जमीनी प्रणालियों के उपयोग को सक्षम बनाएगा।
- इसके अतिरिक्त दोनों देश भू-स्थानिक उपकरण और तकनीक सहित अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के व्यावहारिक अनुप्रयोग व सहयोग के अन्य क्षेत्रों को भी तय करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।
- इस समझौता ज्ञापन के तहत एक संयुक्त कार्य दल का गठन किया जाएगा, जिसमें अंतरिक्ष विभाग (डी.ओ.एस.)/इसरो और नाइजीरिया के एन.ए.एस.आर.डी.ए. के सदस्य शामिल होंगे। यह संयुक्त कार्य दल समय-सीमा के साथ कार्यान्वयन के साधनों सहित कार्य योजना को अंतिम रूप देगा।
प्रभाव
- हस्ताक्षरित एम.ओ.यू. पृथ्वी की सुदूर संवेदन (रिमोट सेंसिंग), सैटलाइट संचार, सैटलाइट नेविगेशन, अंतरिक्ष विज्ञान और बाह्य अंतरिक्ष की खोज के क्षेत्र में नई अनुसंधान गतिविधियों और अनुप्रयोग सम्भावनाओं का पता लगाने के लिये प्रोत्साहन प्रदान करेगा।
- इस समझौता ज्ञापन के माध्यम से नाइजीरिया सरकार के साथ सहयोग और मानवता के लाभ के लिये अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियों के अनुप्रयोग के क्षेत्र में एक संयुक्त गतिविधि विकसित करने में सहायता मिलेगी। इस प्रकार, देश के सभी वर्गों और क्षेत्रों को लाभ प्राप्त हो सकेगा।
व्यय
- पारस्परिक रूप से तय किये गए कार्यक्रम सहयोग के आधार पर पूरे किए जाएंगे। इस तरह की गतिविधियों के लिये वित्तपोषण की व्यवस्था प्रति कार्य के आधार पर हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा पारस्परिक रूप से तय की जाएगी।
- इस समझौता ज्ञापन के अंतर्गत की जाने वाली संयुक्त गतिविधियों का वित्तपोषण, सम्बंधित हस्ताक्षरकर्ताओं के कानूनों एवं विनियमों के अनुसार किया जाएगा, जो इन उद्देश्यों के लिये आवंटित धन की उपलब्धता के अधीन होगा।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
विषय–ग्रीस और तुर्की के मध्य बढ़ता विवाद
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, ग्रीस ने सम्भावित रूप से प्रवासियों द्वारा बड़े पैमाने पर सीमा पार करने की गतिविधियों को रोकने के लिये तुर्की के साथ लगने वाली अपनी सीमा पर दीवार के विस्तार का निर्णय लिया है।
पृष्ठभूमि
- ग्रीस द्वारा दीवार के विस्तार का यह निर्णय यूरोपीय संघ के सदस्य देश ग्रीस तथा तुर्की के मध्य बिगड़ते सम्बंधो के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। ध्यातव्य है कि तुर्की यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिये प्रयासरत है। हागिया सोफिया विवाद, पूर्वी भू-मध्य सागर विवाद के साथ-साथ तुर्की द्वारा प्रवासियों को यूरोप में प्रवेश करने से रोकने से मना करने के बाद तनाव में और अधिक वृद्धि हो गई है।
ग्रीस–तुर्की प्रवासी विवाद
- वर्ष 2011 में सीरियाई युद्ध के प्रारंभ होने के बाद बड़ी संख्या में विस्थापित सीरियाई निवासियों ने तुर्की में शरण की मांग की थी। आंकड़ो के अनुसार, तुर्की लगभग 37 लाख सीरियाई शरणार्थियों को आश्रय दे रहा है। उनकी उपस्थिति के चलते तुर्की में सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक समस्या महसूस की जा रही है।
- वर्ष 2015 में शरणार्थी संकट अपने चरम पर पहुंच गया और जल मार्गों का उपयोग करके यूरोप पहुँचने के प्रयास में हजारों शरणार्थियों की मृत्यु हो गई। साथ ही, बड़ी संख्या में शरणार्थी ग्रीस और इटली पहुंचे।
- तुर्की वर्ष 2016 में शरणार्थियों को यूरोपीय संघ के देशों में प्रवेश करने से रोकने पर सहमत हुआ, जिसके बदले में यूरोपीय संघ ने तुर्की को उसके देश में शरणार्थियों के प्रबंधन हेतु आर्थिक सहायता का वादा किया।
- हालांकि, इस वर्ष फरवरी में तुर्की ने वर्ष 2016 के समझौते का सम्मान करने से मना करते हुए प्रवासियों के लिये ग्रीस के साथ लगी सीमा को खोल दिया। इसके बाद, मार्च में, हजारों प्रवासियों ने ग्रीस और बुल्गारिया के माध्यम से यूरोप में प्रवेश करने की मांग की।
- यह कदम सीरियाई गृह युद्ध में (इदलिब प्रांत) तुर्की द्वारा समर्थन प्राप्त करने और यूरोपीय संघ को भयादोहन (Blackmail) करने की कोशिश में यूरोप पर दबाव बनाने का एक स्पष्ट प्रयास था। उल्लेखनीय है कि सीरिया, तुर्की के दक्षिण में स्थित है।
- इसी संदर्भ में ग्रीक ने अप्रैल 2021 के अंत तक तुर्की के साथ पहले से मौजूद 10 किमी. लम्बी दीवार को अतिरिक्त 26 कि.मी. तक बढ़ाने का निर्णय लिया है।
ऐतिहासिक सम्बंध
- सदियों से, तुर्की और ग्रीस ने विविध प्रकार से परस्पर इतिहास को साझा किया है। वर्ष 1830 के आस-पास ग्रीस ने आधुनिक तुर्की के पूर्ववर्ती ऑटोमन साम्राज्य से स्वतंत्रता प्राप्त की थी।
- वर्ष 1923 में दोनों देशों ने अपनी मुस्लिम और ईसाई आबादी का आदान-प्रदान किया था। इतिहास में यह, इन दोनों देशों के मध्य भारत विभाजन के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्रवसन माना जाता है।
- साइप्रस संघर्ष के दशकों पुराने मुद्दे पर भी दोनों राष्ट्र एक-दूसरे का विरोध करते रहे हैं। पूर्व में भी ऐसे दो अवसर आ चुके है, जब दोनों देश एजियन सागर में अन्वेषण अधिकारों को लेकर लगभग युद्ध की स्थिति में पहुँच गए थे।
- हालाँकि, दोनों देश 30 सदस्यीय नाटो गठबंधन के सदस्य हैं। साथ ही, तुर्की आधिकारिक तौर पर यूरोपीय संघ की पूर्ण सदस्यता के लिये भी एक उम्मीदवार है। ध्यातव्य है कि ग्रीस यूरोपीय संघ का पहले से ही एक सदस्य है।
पूर्वी भू–मध्य सागर विवाद
- पिछले 40 वर्षों से, तुर्की और ग्रीस पूर्वी भू-मध्य और एजियन सागर के क्षेत्रों पर अधिकार और दावे को लेकर असहमत हैं। ये क्षेत्र तेल और गैस के महत्त्वपूर्ण भंडार हैं।
- तुर्की द्वारा विवादित हिस्से में ड्रिलिंग की कोशिश के बाद तनाव और बढ़ गया। इसके अतिरिक्त तुर्की ने ग्रीस के एक द्वीप में भूकम्पीय सर्वेक्षण भी किया है।
- ग्रीस संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून अभिसमय (UNCLOS) का एक हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र है, जबकि तुर्की इसका हस्ताक्षरकर्ता नहीं है। ग्रीस का मानना है कि पूर्वी भूमध्य सागर में महाद्वीपीय शेल्फ (जलसीमा/जलमग्न सीमा) की गणना उसके द्वीपीय क्षेत्रों पर विचार करते हुए की जानी चाहिये।
हागिया सोफिया विवाद (The Hagia Sophia Row)
- तुर्की द्वारा जुलाई में सदियों पुराने और यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल में शामिल हागिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में तब्दील करने के निर्णय से भी दोनों देशों के मध्य विवाद बढ़ गया है।
- सदियों पुरानी हागिया सोफिया इमारत का निर्माण मूल रूप से एक कैथेड्रल चर्च के रूप में बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य (Byzantine Empire) के शासक जस्टीनियन प्रथम के कार्यकाल में शुरू हुआ था। यह स्थल उस्मान वास्तुशिल्प का विशिष्ट उदाहरण है।
- 1935 ईस्वी में मुस्तफा कमाल अतातुर्क (पाशा) द्वारा धर्मनिरपेक्षता में वृद्धि के रूप में इसे एक संग्रहालय बना दिया गया। इस इमारत को परम्परावादी (Orthodox) ईसाईयत के प्रमुख स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है।
ऊर्जा संसाधन
- हाल के वर्षों में, साइप्रस के जलीय क्षेत्र में गैस का विशाल भंडार पाया गया है। इसने साइप्रस सरकार, ग्रीस, इज़रायल और मिस्र को संसाधनों के अधिकतम दोहन हेतु मिलकर काम करने के लिये प्रेरित किया है। इसके तहत, भू-मध्य सागर में लगभग 2,000 किमी. पाइपलाइन के माध्यम से ऊर्जा की आपूर्ति यूरोप को की जाएगी।
- पूर्वी भू-मध्य सागर में ऊर्जा संसाधन विकसित करने की दौड़ में तुर्की और ग्रीस आमने-सामने हैं।
- तुर्की के नियंत्रण वाले उत्तरी साइप्रस को केवल तुर्की द्वारा ही एक गणतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। पिछले वर्ष, इसी क्षेत्र में तुर्की ने साइप्रस के पश्चिम में ड्रिलिंग के कार्य को आगे बढ़ाया।
- नवम्बर 2019 में, तुर्की और लीबिया के मध्य तुर्की के दक्षिणी तट से लीबिया के उत्तर-पूर्वी तट तक एक विशेष आर्थिक क्षेत्र (ई.ई.ज़ेड.) के लिये समझौता हुआ है। मिस्र ने इसे अवैध कहा है। साथ ही, ग्रीस ने भी क्रीट द्वीप के सम्बंध में इसका विरोध किया है।
कानूनी और जलीय क्षेत्र के मुद्दे
- एजियन और पूर्वी भू-मध्य सागर में ग्रीस के कई द्वीप तुर्की तट के भीतर हैं, इसलिये क्षेत्रीय जल के मुद्दे काफी जटिल हैं और दोनों देश अतीत में युद्ध के कगार पर पहुँच चुके हैं।
- क्षेत्रीय जल के अलावा विशेष आर्थिक क्षेत्र (ई.ई.ज़ेड.) से सम्बंधित मुद्दे भी विवाद का विषय रहे हैं।
- साथ ही, ग्रीस ने यूरोपीय संघ से तुर्की के साथ ‘कस्टम यूनियन समझौते’ को निलम्बित करने पर विचार करने को कहा है। यह समझौता वर्ष 1996 से लागू है।
- इसके अतिरिक्त ग्रीस ने जर्मनी सहित यूरोपीय संघ के तीन सहयोगियों को तुर्की को हथियारों के निर्यात को रोकने के लिये कहा है।
निष्कर्ष
- नाटो संगठन के दो सहयोगी देशों तुर्की और ग्रीस (यूनान) के मध्य तनाव अधिक गहरा होता जा रहा है। वर्तमान में विवाद का प्रमुख कारण हागिया सोफिया इमारत और शरणार्थी समस्या के साथ-साथ पूर्वी भू-मध्य सागरीय क्षेत्र में दोनों देशों द्वारा हाइड्रोकार्बन के अन्वेषण में तेज़ी लाना है।
- वर्ष 1830 के आस-पास ग्रीस आधुनिक तुर्की के पूर्ववर्ती ऑटोमन साम्राज्य से स्वतंत्र हुआ था और वर्ष 1923 में दोनों देशों ने अपनी मुस्लिम और ईसाई आबादी का आदान-प्रदान किया था।
- ग्रीस और तुर्की सहित नाटो गठबंधन में 30 सदस्य देश शामिल हैं।
- ग्रीस संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून अभिसमय (UNCLOS) का एक हस्ताक्षरकर्ता देश है, जबकि तुर्की इसका हस्ताक्षरकर्ता नहीं हैं।
- तुर्की ने जुलाई में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल में शामिल हागिया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में तब्दील करने का निर्णय लिया है।
- हागिया सोफिया इमारत का निर्माण मूल रूप से एक कैथेड्रल चर्च के रूप में बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य (Byzantine Empire) के शासक जस्टीनियन प्रथम के कार्यकाल में शुरू हुआ था। यह स्थल उस्मान वास्तुशिल्प का विशिष्ट उदाहरण है।
- ग्रीस ने यूरोपीय संघ से तुर्की के साथ ‘कस्टम यूनियन समझौते’ को निलम्बित करने पर विचार करने को कहा है। यह समझौता वर्ष 1996 से लागू है।
(मुख्य परीक्षा; सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र: 2, विषय – भारत एवं इसके पड़ोसी– सम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार, भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव; प्रवासी भारतीय)
विषय–बांग्लादेश की आर्थिक सफलता में भारत के लिये अवसर
भूमिका
- प्रति व्यक्ति आय के मामले में बांग्लादेश जल्द ही भारत से आगे हो जाएगा।यह तथ्य पकिस्तान से उलट बांग्लादेश की उपलब्धियों को भी बताता है। वर्तमान समय में बांग्लादेश की इस उपलब्धि के कई निहितार्थ हैं, जिनके बारे में सभी पड़ोसी देशों को ध्यान देना चाहिये।
बांग्लादेश से अन्य देश क्या सीख सकते हैं?
- अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund) की नवीनतम विश्व आर्थिक परिदृश्य (World Economic Outlook) रिपोर्ट द्वारा हाल ही में सम्भावना व्यक्त की गई है कि बांग्लादेश का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद इस वर्ष भारत के प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद से अधिक हो जाएगा।
- यद्यपि दोनों के बीच अनुमानित अंतर कम है (लगभग $ 1,888 से $ 1,877) और ऐसी भी सम्भावना है कि ज़्यादा समय तक यह अंतर नहीं रहेगा।
- अंतर्राष्ट्रीय विकास संस्थानों को विश्वास है कि दुनिया के बाकी उपमहाद्वीप और विकासशील देश बांग्लादेश के अनुभव से बहुत कुछ सीख सकते हैं– जिसे “बांग्लादेश मॉडल” नाम दिया जा रहा है।
क्षेत्र के लिये प्रमुख निहितार्थ
- उपमहाद्वीप में बढ़ती वैश्विक रुचि
- बांग्लादेश में तीव्र एवं सतत् आर्थिक विकास ने उपमहाद्वीप के बारे में दुनिया की धारणा को बदलना शुरू कर दिया है।
- पूर्व में भारत और पाकिस्तान ही इस क्षेत्र में प्रभावी थे और अन्य देशों को छोटा माना जाता था।
- चूँकि बांग्लादेश जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया का आठवाँ सबसे बड़ा देश है, इसलिये सामान्य दशा में इसे छोटा देश मानना उचित नहीं है।
- बांग्लादेश का आर्थिक उदय वैश्विक स्तर पर उसके लिये बहुत से समीकरण बदल रहा है, अब महाद्वीप के प्रमुख देशों के रूप में बांग्लादेश को भी अन्य देशों ने महत्त्व देना शुरू कर दिया है।
2) बांग्लादेश और पाकिस्तान के आर्थिक प्रतिमानों में उभरता अंतर
- इस साल, बांग्लादेश की जी.डी.पी. $ 320 बिलियन तक पहुंचने की उम्मीद है।
- आई.एम.एफ. की रिपोर्ट में पाकिस्तान की वर्ष 2020 की अर्थव्यवस्था के आँकड़े उपलब्ध नहीं थे लेकिन वर्ष 2019 में, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था $ 275 बिलियन थी।
- आई.एम.एफ. ने यह भी सम्भावना व्यक्त की है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था इस वर्ष और संकुचित होगी।
- बांग्लादेश ने अपनी जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित किया है, जबकि पाकिस्तान ने ऐसा करने में असमर्थ रहा है।
- बांग्लादेश की मुद्रास्फीति नियंत्रित है, जबकि पाकिस्तान की मुद्रास्फीति अनियंत्रित दर से बढ़ रही है।
- इसमें कोई दो राय नहीं है कि विश्व में पाकिस्तान का भू-राजनीतिक प्रभाव कम हुआ है जबकि आर्थिक रूप से मज़बूत होते बांग्लादेश का सकारात्मक भू-राजनैतिक कद लगातार बढ़ रहा है तथा भविष्य में और अधिक बढ़ने की सम्भावना है, अतः दोनों देशों के बीच व्याप्त अंतर के बढ़ने की प्रबल सम्भावना है।
3) क्षेत्रीय एकीकरण में तेज़ी लाना
- बांग्लादेश की आर्थिक वृद्धि पूर्वी उपमहाद्वीप में क्षेत्रीय एकीकरण में तेज़ी ला सकती है ।
- सामूहिक आर्थिक उन्नति के लिये इस क्षेत्र में सम्भावनाएँ कम ही नज़र आती हैं।
- पाकिस्तान द्वारा भारत के साथ आर्थिक सहयोग पर नकारात्मक रुख और सीमा-पार आतंक के लिये उसके समर्थन की वजह से उपमहाद्वीप का मुख्य क्षेत्रीय मंच, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (South Asian Association for Regional Cooperation- SAARC) , सुस्त ही चल रहा है।
- केवल सार्क के पुनरुद्धार के बारे में सोचने की बजाय, भारत को बी.बी.आई.एन. पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- बी.बी.आई.एन. बांग्लादेश, भूटान, भारत और नेपाल के बीच उप–क्षेत्रीय फोरम है, जो पिछले दशक के मध्य में सक्रिय हुआ था यद्यपि अभी तक यह पर्याप्त तेज़ी से उन्नत नहीं हुआ है।
- अब समय आ गया है कि भारत और बांग्लादेश नए सिरे से इस मंच के द्वारा होने वाली गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करें।
- इस बीच यह भी देखा गया है कि बांग्लादेश के साथ आर्थिक एकीकरण के लिये भूटान और नेपाल में भी रुचि बढ़ रही है।
4) हिंद–प्रशांत क्षेत्र की भू–राजनीति में बांग्लादेश का बढ़ता महत्व
- बांग्लादेश की आर्थिक सफलता चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर सहित पूर्वी एशिया के कई देशों का ध्यान आकर्षित कर रही है।
- अमेरिका, जिसने अभी तक पारम्परिक रूप से भारत और पाकिस्तान पर ध्यान केंद्रित किया हुआ था अब बांग्लादेश में भी सम्भावनाओं को तलाश रहा है।
- यद्यपि बांग्लादेश ने ऐसा जताया है कि वो चीन और अमेरिका के बीच की राजनीति में नहीं पड़ना चाहता है, लेकिन बांग्लादेश की तरफ प्रमुख शक्तियों की नज़र और उससे जुड़ने की चाह भारत-प्रशांत क्षेत्र में नए भू राजनैतिक समीकरण की शुरुआत कर सकते हैं।
5) भारत के पूर्वी और उत्तर–पूर्वी राज्यों के विकास में तेज़ी आ सकती है
- बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था अब पश्चिम बंगाल की तुलना में डेढ़ गुना बड़ी है; दोनों के बीच बेहतर एकीकरण पूर्वी भारत की अर्थव्यवस्था को बड़े स्तर पर सकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।
- इसके अलावा, भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र और बांग्लादेश के बीच का जुड़ाव, भविष्य में उत्तर-पूर्वी राज्यों के विकास को और बढ़ावा देगा।
- दिल्ली और ढाका अधिक से अधिक सहयोग को बढ़ावा देने के लिये उत्सुक हैं, लेकिन कोलकाता में राजनीतिक उत्साह बहुत कम दिख रहा है।
- असम में, प्रवासियों का मुद्दा भी दोनों देशों के बीच प्रमुख राजनीतिक बाधा के रूप में लगातार सामने आ रहा है।
आगे की राह
- तमाम विरोधों के बावजूद वर्ष 2015 में भारत-बांग्लादेश के बीच सीमा समझौते का संसदीय अनुमोदन, भारत की ओर से सही दिशा में बढाया गया कदम था।
- इसके साथ ही, भारत और बांग्लादेश के बीच समुद्री सीमा विवाद पर वर्ष 2014 के अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता के बाद आए निर्णय को दोनों देशों द्वारा स्वीकार कर लेना भी दोनों देशों के बीच बढ़ते सामंजस्य का प्रमाण था।
- लेकिन दोनों देशों के बीच सकारात्मक होते द्विपक्षीय सम्बंधों की गतिशीलता पर भारत द्वारा लाए गए नागरिकता संशोधन अधिनियम के वजह से हुई बयानबाज़ी का नकारात्मक असर पड़ा है।
- अभी भी भारत के पास बांग्लादेश से अपने रिश्तों को सुधारने के बहुत से विकल्प मौजूद हैं, जो उसे लगातार अपनाते रहना चाहिये।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 & 3 : द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित तथा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार, सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा चुनौतियाँ एवं उनका प्रबंधन)
विषय–भारत–अमेरिका रक्षा समझौता
चर्चा में क्यों?
- अक्तूबर के अंतिम सप्ताह में भारत और अमेरिका के मध्य “2+2 संवाद” का आयोजन नई दिल्ली में किया जाएगा।
पृष्ठभूमि
- “2+2 संवाद” का यह तीसरा संस्करण होगा। इस संवाद में दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों के मध्य बैठक का आयोजन किया जाता है। इस बैठक की प्रमुख कार्यसूचियों (Agenda) में ‘बुनियादी विनिमय और सहयोग समझौता’ (BECA) भी होगा। यह एक गहरा और गम्भीर सैन्य व सामरिक निहितार्थों वाला समझौता है। पिछली बैठकों में ‘LEMOA’ और ‘COMCASA’ समझौतों पर हस्ताक्षर किये जा चुके हैं। BECA, LEMOA और COMCASA समझौतों की तिकड़ी अनिवार्य रूप से गहरे सैन्य सहयोग की नींव रखने वाले हैं।
बुनियादी विनिमय एवं सहयोग समझौता (BECA)
- बुनियादी विनिमय एवं सहयोग समझौता (The Basic Exchange and Cooperation Agreement- BECA) काफी हद तक भू-स्थानिक खुफिया / आसूचना और रक्षा के लिये मानचित्र व उपग्रह चित्रों की जानकारी साझा करने से सम्बंधित है।
- किसी समुद्री एवं पानी के जहाज को चलाने वाले, विमान को उड़ाने वाले, युद्धरत् सैनिक, लक्ष्यों को निर्धारित करने वाले, प्राकृतिक आपदाओं पर प्रतिक्रिया देने और यहाँ तक कि किसी सेलफोन से नेविगेट करने वाले भी भू-स्थानिक आसूचना पर निर्भर होते हैं।
- बी.ई.सी.ए. पर हस्ताक्षर करने से भारत को अमेरिका की उन्नत भू-स्थानिक आसूचना का उपयोग करने और मिसाइलों व सशस्त्र ड्रोन जैसे स्वचालित प्रणालियों एवं हथियारों की सटीकता में वृद्धि करने में सहायता मिलेगी।
- यह स्थलाकृतिक और वैमानिक डाटा व उत्पादों तक पहुँच प्रदान करेगा जो नेविगेशन तथा लक्ष्यीकरण में सहायक होगा।
- बी.ई.सी.ए. भारतीय सैन्य प्रणालियों को नेविगेट करने के लिये एक उच्च-गुणवत्ता युक्त जी.पी.एस. व्यवस्था प्रदान करेगा और सटीक निशाना साधने के लिये मिसाइलों को रियल-टाइम इंटेलिजेंस प्रदान करेगा। यह वायु सेनाओं के सहयोग के लिये महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है।
अन्य दो समझौते
रसद विनिमय समझौते का ज्ञापन (LEMOA)
- LEMOA समझौते का पूरा नाम ‘The Logistics Exchange Memorandum of Agreement’ है। इस ज्ञापन को अगस्त, 2016 में भारत और अमेरिका के मध्य हस्ताक्षरित किया गया था।
- यह प्रत्येक देश की सेनाओं को दूसरे के ठिकानों से ईंधन आदि के पुनःपूर्ति करने, अन्य देशों की भूमि सम्बंधी सुविधाओं, हवाई अड्डों और बंदरगाहों से उस समय प्रतिपूर्ति की जा सकने वाली आपूर्तियों, स्पेयर पार्ट्स (अतिरिक्त कलपुर्जों) और सेवाओं तक पहुँच की अनुमति प्रदान करता है।
- यह नौ-सेनाओं के मध्य सहयोग के लिये बेहद उपयोगी है क्योंकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और भारत निकटता से सहयोग कर रहे हैं।
- हालाँकि, दूसरे देशों के ठिकानों का प्रयोग करने के लिये विश्वास की आवश्यकता होती है। अन्य शब्दों में किसी नौ-सेना के जहाज रणनीतिक सम्पत्ति हैं और दूसरे देश के ठिकानों का उपयोग करने से सैन्य सम्पत्ति दूसरे देशों के सामने उद्घाटित हो जाती है।
- यद्यपि LEMOA पर हस्ताक्षर करने के लिये विश्वास की आवश्यकता है तथापि इसका उपयोग विश्वास को बढ़ाता भी है।
संचार संगतता और सुरक्षा समझौते (COMCASA) समझौता
- COMCASA समझौते का पूरा नाम ‘The Communications Compatibility and Security Agreement’ है। इस समझौते को प्रथम ‘2+2 संवाद’ के बाद सितम्बर 2018 में हस्ताक्षरित किया गया था।
- यह अमेरिका को अपने एन्क्रिप्टेड संचार उपकरणों व प्रणालियों को भारत को प्रदान करने की अनुमति देता है, जिससे भारतीय एवं अमेरिकी सैन्य कमांडर, विमान और जहाज शांति व युद्ध के समय सुरक्षित नेटवर्क के माध्यम से संवाद कर सकें।
तीनो संधियों का तात्पर्य
- यद्यपि LEMOA में एक सहयोगी अपनी मूल्यवान सम्पत्ति को उद्घाटित करने के लिये दूसरे पर भरोसा करता है, जबकि COMCASA का मतलब है कि एक पक्ष इस विश्वास में है कि यह दो सेनाओं को सम्बद्ध करने के लिये एन्क्रिप्टेड सिस्टम पर भरोसा कर सकता है।
- साथ ही बी.ई.सी.ए. से तात्पर्य है कि यह किसी डर से समझौता किये बिना अत्यधिक उच्च श्रेणी की वर्गीकृत जानकारी वास्तविक समय में साझा कर सकता है।
- यह विश्वास के उस स्तर को दर्शाता है, जो दोनों देशों और उनकी सेनाओं के मध्य विकसित हुआ है, जिसका सामना चीन से हो रहा है।
सीमावर्ती गतिरोध के संदर्भ में इसका महत्त्व
- भारत-चीन सीमा पर गतिरोध के बीच भारत और अमेरिका ने एक अभूतपूर्व स्तर पर रडार खुफिया व सैन्य सहयोग को तीव्र कर दिया है।
- इन वार्तालापों ने दोनों देशों की सुरक्षा, सैन्य और खुफिया शाखाओं के बीच सूचना-साझाकरण की सुविधा प्रदान की है, जो लगभग 1960 के दशक के भारत-अमेरिका सहयोग की याद दिलाते हैं, विशेषकर वर्ष 1962 के युद्ध के बाद।
- इस सहयोग से वास्तविक नियंत्रण रेखा से सम्बंधित सैटेलाइट इमेज को साझा करने, हथियारों की तैनाती और सैन्य आवाजाही सम्बंधी गतिविधियों की सूचना में वृद्धि होगी। साथ ही, अमेरिकी उपकरणों के कारण भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान की क्षमता में भी वृद्धि हुई है।
समस्या
- अमेरिका चाहता है कि रूसी उपकरणों और प्लेटफ़ॉर्मों पर भारत अपनी निर्भरता को कम करे। अमेरिका को डर है कि इससे रूस को उसकी तकनीक और जानकारी का खुलासा हो सकता है।
- इस सन्दर्भ में भारत द्वारा रूस से S-400 वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली की खरीद अमेरिकी वार्ताकारों के लिये एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है।
- भारत, अमेरिका के साथ पाकिस्तान के गहरे सम्बंधों तथा अमेरिका की अफगानिस्तान तक पहुँचने के लिये पाकिस्तान पर निर्भरता और उसकी निकास रणनीति से सावधान है।
निष्कर्ष
- इन प्रमुख रक्षा समझौतों के साथ भारत और अमेरिका के मध्य सहयोग केवल प्रासंगिक (Episodic) स्तर पर होने की बजाय अधिक संरचित और कुशल तरीके से हो सकता है। भारत का अमेरिका के साथ रणनीतिक झुकाव चीन के वर्तमान खतरे का एक परिणाम कहा जा सकता है।
- अक्तूबर के अंतिम सप्ताह में भारत और अमेरिका के मध्य “2+2 संवाद” के तीसरे संस्करण का आयोजन नई दिल्ली में किया जाएगा, जिसमें ‘बुनियादी विनिमय और सहयोग समझौता’ (BECA) होने की उम्मीद है।
- बुनियादी विनिमय और सहयोग समझौता काफी हद तक भू-स्थानिक खुफिया/ आसूचना और रक्षा के लिये मानचित्र व उपग्रह चित्रों पर जानकारी साझा करने से सम्बंधित है।
- रसद विनिमय समझौते के ज्ञापन (LEMOA) को अगस्त, 2016 में भारत और अमेरिका के मध्य हस्ताक्षरित किया गया था, जो प्रत्येक देश की सेना को दूसरे के ठिकानों से आवश्यक प्रतिपूर्ति की अनुमति प्रदान करता है।
- संचार संगतता और सुरक्षा समझौते (COMCASA) को प्रथम ‘2+2 संवाद’ के बाद सितम्बर 2018 में हस्ताक्षरित किया गया था, जो अमेरिका को अपने एन्क्रिप्टेड संचार उपकरणों व प्रणालियों को भारत को प्रदान करने की अनुमति देता है।
- S-400 : एक वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली है, जिसे भारत, रूस से खरीदने की प्रक्रिया में है।
- भारतीय सशस्त्र बल LAC पर ‘C-17 ग्लोबमास्टर III’ (सैन्य परिवहन के लिये), बोइंग के चिनूक सी.एच.-47 (हैवी-लिफ्ट हेलीकॉप्टरों के रूप में), बोइंग अपाचे (टैंक-किलर्स के रूप में), पी-8 आई पोसीडॉन (स्थलीय टोही के लिये) और लॉकहीड मार्टिन के ‘सी-130 जे’ (सैनिकों के एयरलिफ्टिंग लिये) जैसे अमेरिकी प्लेटफार्मों का प्रयोग कर रहे हैं।
विषय– चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा में वृद्धि
प्रमुख बिंदु
- हाल ही में, कानून मंत्रालय द्वारा विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिये चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा में 10% की वृद्धि की गई है। यह कदम चुनाव आयोग द्वारा कोविड-19 महामारी के दौरान लगाए गए प्रतिबंधों के मद्देनज़र एक अनुशंसा पर आधारित है।
- हालाँकि, ‘चुनाव नियमों के संचालन, 1961’ में संशोधन करने वाली अधिसूचना में इस बात का उल्लेख नहीं है कि महामारी समाप्त होने के बाद यह वृद्धि वापस ले ली जाएगी या नहीं।
- उल्लेखनीय है कि अंतिम बार चुनावी खर्च की सीमा को वर्ष 2014 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बढ़ाया गया था।
चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा
- चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा राज्यों के अनुसार अलग-अलग होती है। बिहार, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों को पूर्व में 28 लाख रूपए के मुकाबले अब 30.8 लाख रूपए तक खर्च करने की अनुमति है।
- इन राज्यों में लोकसभा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिये चुनावी खर्च की संशोधित सीमा अब 70 लाख की पूर्व राशि की बजाय 77 लाख हो गई है।
- गोवा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और कुछ केंद्र शासित प्रदेशों में निर्वाचन क्षेत्रों एवं जनसंख्या के आकार के आधार पर चुनावी खर्च की सीमा कम है।
- ऐसे राज्यों में लोकसभा उम्मीदवार के लिये अधिकतम सीमा अब 59.4 लाख रूपए है, जबकि किसी विधानसभा उम्मीदवार के लिये अधिकतम सीमा 22 लाख रूपए तक है।
चुनाव आयोग द्वारा महामारी के दौरान प्रचार के लिये विशेष दिशा–निर्देश
- कुछ समय पूर्व ही चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के लिये डोर-टू-डोर प्रचार के लिये तीन लोगों के समूह की सीमा तय की है। साथ ही, रोड शो के दौरान 10 की जगह अब सिर्फ 5 कारों के प्रयोग की अनुमति प्रदान की गई है।
- नए दिशा-निर्देशों के अनुसार, नामांकन पत्र दाखिल करने के लिये केवल दो लोग ही उम्मीदवार के साथ जा सकते हैं, जबकि रैली या सभा में उपस्थित लोगों की संख्या ‘सार्वजनिक समारोहों के लिये राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा निर्धारित सीमा’ से अधिक नहीं हो सकती है।
विषय– वैश्विक तपेदिक रिपोर्ट 2020
- हाल ही में, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैश्विक तपेदिक रिपोर्ट, 2020 जारी की है। जिसमे कोविड-19 के कारण तपेदिक से होने वाली मृत्यु पर प्रकाश डाला गया है। रिपोर्ट के अनुसार कोविड–19 के कारण दुनिया भर में टी.बी. से होने वाली मौतों में 0.2 से 0.4 मिलियन की वृद्धि हो सकती है।
- भारत में अप्रैल 2020 में लॉकडाउन के समय क्षय रोग के मामलों में 85% की गिरावट दर्ज की गई। हालांकि, इसके कारण हुई मृत्यु की संख्या 2 लाख से 4 लाख के बीच रही। वर्ष 2015 से 2019 के बीच टी.बी. के मामलों में 9% की कमी, जबकि टी.बी. से होने वाली मौतों में 14% की वृद्धि दर्ज़ की गयी है।
- विश्व में टी.बी. के वैश्विक मामलों का 44% फिलीपींस, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका में है, जबकि भारत, चीन, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, फिलीपींस, नाइजीरिया, बांग्लादेश और रूस में टी.बी. के दो-तिहाई मामले दर्ज़ किये गए हैं। भारत, चीन और रूस में दवा प्रतिरोधी टी.बी. (Drug-resistant TB) अधिक प्रभावी है।
- तपेदिक या टीबी एक घातक संक्रामक बीमारी है जो माइक्रोबैक्टीरिया या माइक्रोबैक्टीरियम तपेदिक के कारण होती है।
- रिपोर्ट के अनुसार WHO, 40 मिलियन लोगों तक उपचार पहुंचाने के उद्देश्य से वर्ष 2018 से वर्ष 2022 के बीच निर्धारित पांच-वर्षीय लक्ष्य से आगे बढ़ रहा है। लेकिन, वर्तमान में इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में कोविड-19 सबसे बड़ी बाधा है। इस महामारी के कारण लोगों की मज़दूरी में आयी कमी के कारण दवाओं की खरीद तथा स्वास्थ्य केंद्रों तक मरीजों की पहुँच में कमी आयी जिससे उचित उपचार कराना मुश्किल हो गया है। परिवहन में आई कमी भी इसका एक प्रमुख कारण है।
विषय– असम–मिज़ोरम सीमा–विवाद
सन्दर्भ
- पिछले कुछ समय से जारी असम तथा मिज़ोरम के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों के मध्य सीमा-विवाद ने हिंसक रूप ले लिया है। यह उत्तर-पूर्व में लम्बे समय से चली आ रही अंतरराज्यीय सीमा सम्बंधी मुद्दों को रेखांकित करता है।
विवाद का विषय
- असम और मिज़ोरम की सरकारों के मध्य हुए एक समझौते के तहत सीमा क्षेत्र को नो-मैन्स लैंड (No Man’s land) के रूप में मान्यता देने के साथ ही यथास्थिति (Status quo) बनाए रखने पर भी सहमती बनी थी। कथित रूप से लायलपुर गाँव (असम) के लोगों द्वारा यथा स्थिति प्रावधान का उल्लंघन करते हुए कुछ अस्थाई झोपड़ियों का निर्माण किया गया तथा मिज़ोरम के लोगों ने उनमे आग लगा दी, जिससे लगातार विवाद बढ़ता चला गया और हिंसक घटनाएँ शुरू हो गईं।
- असम का पक्ष है कि रिकार्ड्स के अनुसार असम की ज़मीन पर मिज़ोरम के निवासियों द्वारा खेती की जा रही है।
- मिज़ोरम के नागरिक समाज ने असम की तरफ से अवैध झोपड़ियों को नष्ट करने और पथराव की घटनाओं पर बांग्लादेशियों को यथास्थिति के वास्तविक उल्लंघनकर्ता बताया है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- वर्तमान असम और मिज़ोरम राज्य के मध्य की सीमा औपनिवेशिक काल से भी पहले की है। उस समय मिज़ोरम को असम के एक जिले लुशाई हिल्स के रूप में जाना जाता था।
- दोनों राज्यों के मध्य यह विवाद वर्ष 1875 की एक अधिसूचना से शुरू हुआ है, जिसके तहत लुशाई हिल्स को कछार के मैदानों से अलग किया गया था। बाद में वर्ष 1933 के एक चार्टर के तहत भी लुशाई हिल्स और मणिपुर की सीमाओं का सीमांकन किया गया था।
- मिज़ोरम का मानना है कि 1875 की अधिसूचना के आधार पर सीमाओं का निर्धारण किया जाना चाहिये, जिसे बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन एक्ट 1873 से लिया गया था साथ ही, वर्ष 1933 के चार्टर में मिज़ो समाज से परामर्श नहीं किया गया था, जबकि असम सरकार 1933 के चार्टर का अनुसरण करती है।
- पूर्वोत्तर के जटिल सीमा विवादों में असम तथा मिज़ोरम के मध्य विवाद, असम और नागालैंड राज्य की तुलना में कम ही है।
उत्तर–पूर्व में अन्य सीमा विवाद
- ब्रिटिश शासन के दौरान असम में वर्तमान नागालैंड अरुणाचल प्रदेश और मेघालय के अलावा मिज़ोरम भी शामिल था, जो वर्तमान में अलग-अलग राज्य बन गए हैं। लेकिन आज भी असम के साथ अलग हुए लगभग सभी राज्यों का सीमा विवाद बरकरार है।
- इंस्टिट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (IDSA) के वर्ष 2008 के एक शोध पत्र के अनुसार वर्ष 1965 से असम-नागालैंड सीमा पर हिंसक और सशस्त्र संघर्षों में कई लोग मारे गए हैं।
- वर्ष 1975 और 1985 में हुई हिंसक घटनाओं में भी 100 से अधिक लोगों की जान गई थी तथा यह सीमा विवाद अब सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है।
- असम तथा अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर वर्ष 1992 में पहली बार झडपें हुई थीं। तभी से दोनों पक्षों की तरफ से अवैध अतिक्रमण तथा आंतरायिक झड़पें (Intermittent Clashes) जारी हैं। इस सीमा मुद्दे पर भी सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई जारी है।
- वर्तमान में असम तथा मेघालय के बीच 12 विवादित क्षेत्र हैं। फरवरी, 2020 में दोनों राज्यों के मुख्य मंत्रियों के मध्य यथास्थित और शांति बनाए रखने के सम्बंध में चर्चा हुई।
निष्कर्ष
- औपनिवेशिक शासन ने अपनी प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुरूप सीमांकन किया था। लेकिन दुर्भाग्य से स्वंतत्र भारत में भी यह मुद्दा हल नहीं हो सका है। सीमा विवाद से जुड़े सभी राज्यों को यह समझना होगा कि इस मुद्दे को केवल आपसी वार्ताओं, समन्वय और विश्वास निर्माण के माध्यम से ही हल किया जा सकता है क्योंकि यह एक राजनैतिक समस्या है, जिसका समाधान भी राजनैतिक प्रयासों से ही सम्भव है।
- असम, मिज़ोरम के साथ 165 किमी, अरुणाचल प्रदेश के साथ 800 किमी, नागालैंड के साथ 500 किमी. तथा मेघालय के साथ 884 किमी. लम्बी सीमा साझा करता है।
- वर्ष 1972 में मिज़ोरम को असम से अलग कर एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया तथा वर्ष 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया था।
- करीमगंज और कछार ज़िला असम राज्य में तथा कोलासिब और मामित ज़िले मिज़ोरम राज्य में स्थित हैं।
- मिज़ो ज़िरलाई पावल (MZP) मिज़ोरम का एक शक्तिशाली छात्र संगठन है। यह संगठन असम के रास्ते से मिज़ोरम में घुसपैठ करने वाले अवैध बांग्लादेशियों का पुरज़ोर विरोध करता है।
- नो मैन्स लैंड : यह दो राज्यों या देशों की सीमाओं पर अवस्थित भूमि या क्षेत्र होता है, जिसपर दोनों में से किसी का अधिकार नहीं होता है। सामान्यतः इसे असैन्य क्षेत्र या मध्यवर्ती भूमि भी कहा जाता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 : शासन व्यवस्था– पारदर्शिता और जवाबदेही के महत्त्वपूर्ण पक्ष)
विषय– पुलिस सुधार
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, घटी कुछ घटनाओं, जैसे- तमिलनाडु के एक ज़िले में दलित पिता और पुत्र की पुलिस हिरासत में संदिग्ध मौत तथा हाथरस बलात्कार मामले ने पुलिस की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है, जिसने पुलिस सुधारों की माँग को आवश्यक बना दिया है।
पृष्ठभूमि
- भारत के प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश का अपना अलग पुलिस बल है। संविधान के अनुच्छेद- 246 के तहत पुलिस राज्य का विषय है। राज्य सरकारें पुलिस अधिनियमों, नियमों तथा विनियमों का निर्माण करती हैं तथा जिन राज्यों ने अपने पुलिस अधिनियम पारित नहीं किये हैं, वे केंद्रीय पुलिस अधिनियम द्वारा शासित होते हैं।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग (National Police Commission – NPC)
- भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पुलिस आयोग का निर्माण वर्ष 1977 में किया गया था, जिसमें पुलिस संगठन, इसकी भूमिका, कार्य, जवाबदेही, जनता के साथ सम्बंध, पुलिस के कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप तथा शक्तियों के दुरूपयोग सम्बंधी मूल्यांकन के सन्दर्भ में व्यापक टर्म्स ऑफ़ रिफरेन्स (TOR) तैयार किये गए थे।
- आयोग द्वारा वर्ष 1979 और 1981 के मध्य 8 रिपोर्ट तैयार की गईं, जिनमें मौजूदा पुलिस संरचना में व्यापक सुधारों का सुझाव दिया गया।
पुलिस व्यवस्था की वर्तमान चुनौतियाँ
- राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी पुलिस सुधारों में एक महत्त्वपूर्ण बाधा हैं।
- पुलिस संगठन में संवेदनशील कार्यसंस्कृति का अभाव है।
- राजनेताओं-अपराधियों-पुलिस की मज़बूत साठगांठ।
- श्रमशक्ति की कमी।
- आधुनिक तकनीक का अभाव।
- मामले या सूचनाओं से सम्बंधी जानकारी के संग्रहण हेतु एक एकीकृत केंद्रीय व्यवस्था का अभाव।
- पुलिस के पास आधुनिक हथियारों और वाहनों की कमी है।
- बढ़ता भ्रष्टाचार।
- पेशेवर कार्यप्रणाली का अभाव।
महत्त्वपूर्ण सुझाव
- राष्ट्रीय पुलिस आयोग द्वारा पुलिस के खिलाफ शिकायतों की निष्पक्ष और न्यायपूर्ण जाँच हेतु एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण पर बल दिया जाए, जिसमें विभागीय अधिकारियों और एक स्वंतत्र प्राधिकरण द्वारा पूछताछ और विश्लेषण के पश्चात् रिपोर्ट तैयार की जाए।
- निम्नलिखित मामलों की जाँच अनिवार्य रूप से होनी चाहिये –
- पुलिस हिरासत में महिलाओं का कथित बलात्कार।
- पुलिस हिरासत में हुई मौत या गम्भीर चोट (Grievous Hurt)।
- गैर कानूनी सभाओं को हटाने में पुलिस फायरिंग में 2 या 2 से अधिक व्यक्तियों की मौत।
- पुलिस के आपराधिक न्यायिक प्रणाली के सभी विभागों द्वारा समन्वय तथा दक्षता से कार्य करने हेतु राज्य स्तर पर एकीकृत व्यवस्था के निर्माण की आवश्यकता है, जो समय-समय पर व्यापक निगरानी और सुधारात्मक उपाय लागू कर सके।
- पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेपों (पुलिस अधिकारीयों के चयन, उनके स्थानांतरण या निलम्बन सम्बंधी तथा विभिन्न आपराधिक मामलों में) से मुक्त रखते हुए निष्पक्षता से सेवा प्रदान करनी चाहिये तथा सेवा उन्मुख कार्यों/भूमिका (Service Oriented Role) के लिये पुलिस को निरंतर प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
- सुभेद्य वर्गो के मामलों में पुलिस द्वारा संवेदनशील व्यवहार किया जाना चाहिये और थर्ड डिग्री टॉर्चर प्रणाली के उपयोग को कम किया जाना चाहिये।
- महिलाओं तथा बच्चों से सम्बंधित मामलों की जाँच में महिला अधिकारियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिये।
- पुलिस संगठन में सुधार हेतु परामर्श और निगरानी सम्बंधी कार्यों तथा पुलिस प्रशासन हेतु बजटीय प्रबंधन के लिये एक केंद्रीय पुलिस समिति (Central Police Committee) के गठन की आवश्यकता है।
- पुलिस अधिनियम, 1861 को एक नए पुलिस अधिनियम से प्रतिस्थापित किये जाने की आवश्यकता है।
- इन सुधारों को न्यायपालिका द्वारा केंद्र और राज्य स्तर पर अनिवार्य रूप से लागू करना चाहिये।
- पुलिस आयोग की प्रमुख सिफारिशों को अभी तक लागू नहीं किया गया है। नेताओं और नौकरशाहों ने अपने निहित स्वार्थों हेतु पुलिस प्रणाली पर मज़बूत नियंत्रण स्थापित कर रखा है।
निष्कर्ष
- देश में प्रत्येक बड़ी घटना के बाद पुलिस सुधारों के लिये आयोग और समितियाँ गठित की जाती हैं परंतु इन आयोग और समितियों की अनुशंसाएँ अभिलेखागार तक ही सीमित रहती हैं। हालाँकि कुछ स्वंतत्र और निष्पक्ष विचार रखने वाले व्यक्ति या संस्थाओं द्वारा समय-समय पर पुलिस सुधार की माँग विभिन्न मीडिया माध्यमों के ज़रिये उठाई जाती है।
- एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की एक रिपोर्ट (2018) के अनुसार, 1580 सांसद और विधायक अपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं।
- ADR निष्पक्ष गैर सरकारी संगठन है जो चुनाव और राजनीतिक सुधारों के क्षेत्रों में कार्य करता है यह संगठन भारतीय राजनीति में पारदर्शिता, जवाबदेही, धन और बल की शक्ति के प्रभाव को कम करने का प्रयास करता है।
- राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल (CHRI) एक स्वंतत्र और निष्पक्ष गैर लाभकारी तथा अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन है। वर्तमान में इस संस्था के 53 सदस्य राष्ट्र हैं तथा इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : गरीबी एवं भूख से सम्बंधित विषय)
विषय–खाद्य असमानता का समाधान
भूमिका
- वन्य जीव कोष की ‘बेंडिंग द कर्व: द रिस्टोरेटिव पावर ऑफ प्लेनेट-बेस्ड डाइट्स’ रिपोर्ट के अनुसार अस्वस्थ आहार, अल्प-उपभोग और अति-उपभोग के कारण कम तथा मध्यम आय वाले देशों में समय से पूर्व मौतें एक उभरती हुई चिंता का विषय है। इस रिपोर्ट में वर्तमान खपत पैटर्न का भी मूल्यांकन किया गया और पाया गया की विश्व स्तर पर यह काफी असंतुलित है।
आहार पैटर्न का मूल्यांकन
इसके अंतर्गत निम्नलिखित का मूल्यांकन किया गया :
- वर्तमान आहार : वर्तमान में किसी देश के नागरिकों द्वारा उपभोग किया जाने वाला औसत आहार।
- आहार सम्बंधी राष्ट्रीय दिशा–निर्देश : प्रत्येक देश से सम्बंधित सरकारी विभाग द्वारा दिये गए आहार सम्बंधी दिशानिर्देश।
- फ्लेक्सिटेरियन (Flexitarian) : पादप-आधारित आहार के साथ मांस को शामिल करते हुए मध्यम जंतु-आधारित भोजन के खपत की अनुमति।
- पेसकैटारियन (Pescatarian) : मांस की जगह दो-तिहाई मछली और समुद्री खाद्य-पदार्थ तथा एक तिहाई फल व सब्जियाँ।
- शाकाहारी (Vegetarian) : मांस की जगह दो-तिहाई फलियाँ और एक-तिहाई फल और सब्जियाँ।
- शुद्ध शाकाहारी (Vegan) : सभी जंतु-आधारित खाद्य पदार्थों की जगह दो-तिहाई फलियां और एक तिहाई फल व सब्जियाँ।
असंतुलन का कारण
- भोजन की खपत के पैटर्न में व्यापक भिन्नता, जो विषमता की सबसे बड़ी विशेषता हो सकती है।
- सर्वाधिक अमीर और सर्वाधिक गरीब देशों में विभिन्न उपभोग पैटर्न। यूरोपीय देशों (1,800 ग्राम/दिन) में अफ्रीकी देशों की तुलना में लगभग 600 ग्राम प्रति दिन अधिक भोजन का सेवन किया जाता है।
- अन्य देशों की तुलना में सर्वाधिक गरीब देशों में कम वज़न वाले लोगों की दर 10 गुना अधिक है, जबकि सर्वाधिक अमीर देशों में अधिक वजन/मोटापे से ग्रस्त लोगों की दर पांच गुना अधिक है।
- प्रत्येक तीन में से एक व्यक्ति या तो बहुत कम या बहुत अधिक खाता है।
समाधान
- विश्व वन्यजीव कोष (WWF) के अनुसार, देशों को भोजन का उपभोग करने में संतुलन बनाने की आवश्यकता है। साथ ही वनस्पति-आधारित आहार की ओर स्थानांतरण भी समय की मांग है।
- कुछ देशों को वर्तमान आहार के मौलिक स्वरूप को बदलने की आवश्यकता है, जबकि अन्य को पारम्परिक आहार पैटर्न पर काम करने और पश्चिमी आहार की ओर अधिक झुकाव का विरोध करने की आवश्यकता है।
- वनस्पति-आधारित आहार के अधिक उपयोग से पर्यावरणीय नुकसान को कम करने में मदद मिल सकती है। एक स्थाई वातावरण और मानव स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिये जीवनशैली में किये जाने वाले कुछ परिवर्तन :
- सतत् खाद्य का अधिक उपयोग।
- पादप-आधारित खाद्य-पदार्थों का अधिक और पशु-आधारित खाद्य-पदार्थों का कम उपयोग।
- स्वस्थ और स्थानीय रूप से उगाए गए तथा कम से कम संसाधित भोजन का सेवन करना।
- सिर्फ एक तरह के भोजन की बजाय विविधतापूर्ण भोजन का सेवन करना।
प्रभाव
- आहार स्थानांतरण के कारण समय पूर्व मौतों में लगभग 20% की कमी आ सकती है।
- यह स्थानांतरण न केवल किसी भी भोजन की अधिक खपत को रोककर मानव स्वास्थ्य में सुधार करेगा, बल्कि अब तक हुए जैविक क्षति को भी उलट देगा और पर्यावरण में सुधार करेगा।
- कुछ देशों में ग्रीनहाउस गैस (जी.एच.जी.) उत्सर्जन में कमी देखी जा सकती है। वनस्पति-आधारित आहार की ओर अधिक स्थानांतरण से कार्बन उत्सर्जन में 30%, वन्यजीवों को होने वाले क्षति में 46% और कृषि भूमि के उपयोग में 41% की कमी आने का अनुमान है।
नई पहल
- WWF ने एक नया प्लेटफ़ॉर्म भी लॉन्च किया है, जिसे ‘पादप-आधारित आहार प्रभाव और कार्रवाई कैलकुलेटर’ के नाम से जाना जाता है।
- यह विश्व में कहीं भी रहने वाले लोगों को यह पता लगाने में मदद करेगा कि क्या उनका आहार उनके साथ-साथ उनके पर्यावरण के लिये उपयुक्त है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 : भारत तथा इसके पड़ोसी– सम्बंध, भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों का प्रभाव)
विषय–थाईलैंड में विरोध प्रदर्शन
चर्चा में क्यों?
- थाईलैंड में लोकतंत्र की माँग कर रहे प्रदर्शनकारियों द्वारा वहाँ के राजा तथा उनके परिवार का विरोध किये जाने के कारण राजा द्वारा आपातकाल लागू करते हुए मीडिया को भी प्रतिबंधित कर दिया गया है।
पृष्ठभूमि
- वर्ष 1932 कीसियामी क्रांति (Siamese Revolution) के समय राजशाही की निरपेक्ष शक्ति (Absolute Power) समाप्त हो गई थी। लेकिन इसके बाद भी संवैधानिक राजतंत्र के तहत समाज में राजा की स्थिति भगवान जैसी (God Like Status) ही रही और सरकार में उसका प्रभाव असाधारण बना रहा।
- वर्ष 2014 में प्रयुत चान ओचा द्वारा तत्कालीन सरकार का तख्तापलट कर सत्ता में आने के साथ ही जनता के अधिकारों पर अत्यधिक प्रतिबंध लगा दिये गए थे।
- तख्तापलट के दौरान विरोध कर रहे कार्यकर्त्ता या तो देश छोड़कर पड़ोसी देशों में चले गए या लापता हो गए।
- वर्ष 2016 में सेना द्वारा समर्थित संविधान को लागू किया गया। वहाँ के प्रधानमंत्री के चुनाव प्रक्रिया में भी सेना की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वर्ष 2019 में विवादित चुनाव प्रक्रिया के तहत प्रयुत्त (वर्तमान प्रधानमंत्री) की पार्टी को ही जीत मिली थी।
- फरवरी 2020 मेंलोकतंत्र समर्थक फ्यूचर फॉरवर्ड पार्टी (संसदीय चुनाव में तीसरा सबसे बड़ा वोट शेयर हासिल किया) को थाईलैंड की शीर्ष अदालत ने बर्खास्त कर दिया, जिसने विरोध प्रदर्शनों को तीव्र गति प्रदान की। हालाँकि, कोरोना महामारी के कारण ये प्रदर्शन कमज़ोर पड़ गए थे फिर भी वर्तमान में इनमें तेज़ी आई है।
क्या हैं माँगे?
- वहाँ के प्रदर्शनकारियों की 10 माँगे हैं, जिनमे थाईलैंड के प्रधानमंत्री प्रयुत चान ओचा का इस्तीफा, थाईलैंड के लिये नया लिखित संविधान (जिसमें राजतंत्र की शक्तियों तथा सम्पत्तियों को सीमित किया जाना चाहिये), राष्ट्रीय बजट में शाही घराने के खर्च के हिस्से में कटौती, निष्पक्ष चुनाव, असंतुष्ट वर्ग तथा विपक्षी दलों पर होने वाले हमलों पर रोक तथा राजा पर अपने राजनैतिक विचारों की अभिव्यक्ति पर रोक को हटाने (वर्तमान में थाईलैंड के राजा की आलोचना पर 15 वर्ष की सज़ा का प्रावधान है), जैसी प्रमुख माँगे शामिल हैं।
अन्य मुख्य बिंदु
- आपातकाल के बावज़ूद भी प्रदर्शनकारियों ने विरोध प्रदर्शन जारी रखा तथा कुछ सरकारी सम्पत्तियों को भी क्षति पहुंचाई। साथ ही कोविड विरोधी उपायों का भी उल्लंघन किया गया है।
- प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रहे कई नेताओं को सुरक्षात्मक उपायों के तहत गिरफ्तार कर लिया गया है।
थाईलैंड की वर्तमान शासन स्थिति
- थाईलैंड में शासन प्रणाली का रूप संवैधानिक राजतंत्र (वंशवाद पर आधारित) है तथा वर्ष 2016 से वाजिरलांगकोर्न (अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् से) वहाँ के राजा हैं।
थ्री फिंगर सैल्यूट : यह थाईलैंड में लोकतंत्र की माँग हेतु प्रदर्शनकारियों द्वारा अपनाया गया राजतंत्र के विरोध का रोचक तरीका है। इसमें विरोध के प्रतीक के रूप में तीन उँगलियों को ऊपर उठाकर सैल्यूट किया जाता है। विरोध प्रदर्शन का यह तरीका या सैल्यूट हॉलीवुड फिल्म ‘हंगर गेम्स’ (एक किताब पर आधारित) से प्रेरित है। |
- ध्यातव्य है कि क्राउन की सम्पत्ति को राजा द्वारा अपनी निजी सम्पत्ति घोषित किये जाने के साथ ही सेना की दो रेजिमेंट को भी अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में लाया गया है।
वर्तमान प्रदर्शन का प्रभाव
- थाईलैंड में वर्तमान आंदोलन का नेतृत्व बड़े पैमाने पर स्कूल और कॉलेज के छात्र कर रहे हैं। पहले राजशाही (राजा तथा उसका परिवार) के काफिले के सामने गुजरने के दौरान या सामने आने पर आम जनता को जमीन पर घुटने टेकने होते थे। वर्तमान में शाही काफिले को थ्री फिंगर सैल्यूट दिखाया जाना एक बड़ा बदलाव है।
निष्कर्ष
- सैनिक शासकों के संरक्षण में रुढ़िवादी और स्वार्थी ताकतों के विरूद्ध उठी यह आवाज़ वर्तमान तथा भविष्य की पीढ़ियों के मानवाधिकारों के संरक्षण की दिशा में एक उम्मीद की किरण है।
- थाईलैंड का प्राचीन नाम श्यामदेश या स्याम है, यह दक्षिण पूर्व एशिया में स्थित है।
- दंड संहिता की धारा 112 के तहत थाईलैंड में राजतंत्र को संरक्षित किया गया है। इसके अनुसार राजा, रानी, उत्तराधिकारी या रीजेंट की आलोचना करने पर 15 वर्ष के कारावास की सज़ा का प्रावधान है। इस कानून को ‘लेज़ मेजेस्टी कानून’ का नाम दिया गया है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 व 3 : गरीबी एवं भूख से सम्बंधित विषय, कृषि तथा पर्यावरण संरक्षण)
विषय–विरोध प्रदर्शन और लोकव्यवस्था
चर्चा में क्यों?
- 16 अक्टूबर, 2020 को विश्व खाद्य दिवस मनाया गया।
पृष्ठभूमि
- वर्तमान महामारी संकट ने वैश्विक खाद्य सुरक्षा तथा कृषि पर निर्भर आजीविका के लिये खतरा उत्पन्न कर दिया है। विश्व खाद्य दिवस के अवसर पर सयुंक्त राष्ट्र की खाद्य एजेंसियों द्वारा भुखमरी और खाद्य असुरक्षा को समाप्त करने तथासतत् विकास लक्ष्य– 2 (शून्य भुखमरी) को प्राप्त करने हेतु एकजुटता से कार्य करने की प्रतिज्ञा की गई।
भारत के प्रयास
- पिछले कुछ दशकों में भारत की कृषि उत्पादकता में काफी सुधार हुआ है। वर्तमान में भारत खाद्यान्न आयातक की बजाय एक महत्त्वपूर्ण निर्यातक की भूमिका अदा कर रहा है। महामारी के समय में केंद्र और राज्य सरकारें 3 माह (अप्रैल से जून) में भारत के घरेलू खाद्यान्न भंडारों से लगभग 23 मिलियन टन की खाद्य सामग्री वितरित करने में सक्षम रहीं, जिससे देशभर के ज़रूरतमंद परिवारों को संकट की स्थिति में सहायता प्राप्त हुई।
- सरकार ने अप्रैल से नवम्बर तक 820 मिलियन लोगों के लिये सफलतापूर्वक राशन का प्रबंध किया। इसमें 90 मिलियन स्कूली बच्चों को भोजन प्रदान करने के वैकल्पिक उपायों को भी शामिल किया गया है।
- लॉकडाउन के दौरान आवाजाही पर प्रतिबंध के दौरान भी सरकार द्वारा सुरक्षा मानकों के तहत खाद्य आपूर्ति शृंखला की बाधाओं को दूर करने और कृषि गतिविधियों को जारी रखने हेतु सराहनीय प्रयास किये गए।
- इन उपायों के कारण ही इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में कृषि उत्पादन में 3.4% की वृद्धि हुई तथा खरीफ़ की खेती का क्षेत्रफल 110 मिलियन हेक्टेयर से भी अधिक हो गया, जो कि एक बड़ी उपलब्धि है।
- समेकित बाल विकास सेवा पहल के अंतर्गत 6 वर्ष से कम आयु के 100 मिलियन बच्चों, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को पका हुआ भोजन तथा घर-घर राशन की सुविधा प्रदान की जाती है। मध्याह्न भोजन कार्यक्रम पोषण और भुखमरी को समाप्त करने की दिशा में एक आदर्श उदाहरण है।
- भारत में जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु नवाचारी प्रयास किये जा रहे हैं, जैसे सूखा और बाढ़ रोधी बीज की किस्मों का विकास, किसानों को मौसम आधारित कृषि परामर्श तथा जल की कम आवश्यकता वाली फसलों को प्रोत्साहन (बाजरे की खेती आदि) प्रदान करना।
चुनौतियाँ
- दुनिया भर में विभिन्न राहत उपायों के बावज़ूद संकट के दौरान कई बहुआयामी चुनौतियाँ भी सामने आई हैं। वैश्विक स्तर पर 2 अरब से अधिक लोगों के पास अभी भी पर्याप्त पौष्टिक और सुरक्षित भोजन तक पहुँच सुनिश्चित नहीं हो सकी है।
- अनुमानों के अनुसार दुनिया वर्ष 2030 तक जीरो हंगर या वैश्विक पोषण लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर नहीं है।
- जलवायु परिवर्तन कृषि विविधता के लिये एक वास्तविक और प्रबल खतरा बना हुआ है, जो उत्पादकता से लेकर आजीविका और खाद्य प्रणालियों को भी प्रभावित करेगा।
- वर्तमान में कीटों और टिड्डियों के आक्रमण तथा चक्रवात की घटनाएँ किसानों के समक्ष निरंतर चुनौतियाँ उत्पन्न कर रही हैं, जिनका खाद्य प्रणाली पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
- रसायनों के अत्यधिक प्रयोग तथा असंगत कृषि पद्धतियों के कारण भू-क्षरण, भूजल स्तर में तेज़ी से कमी तथा कृषि योग्य भूमि में भी निरंतर कमी आ रही है।
- भारत में 86% से अधिक किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम भूमि है, जो कुल खाद्यान्न उत्पादन का लगभग 60% हिस्सा है।
- भारत में पिछले एक दशक में कुपोषण के स्तर में उल्लेखनीय गिरावट आई है। हालाँकि कॉम्प्रेहेंसिव नेशनल न्यूट्रीशन सर्वे 2016-18 के अनुसार भारत में 40 मिलियन से अधिक बच्चे कुपोषित हैं तथा 15-49 वर्ष की आयु की 50% से अधिक महिलाएँ रक्ताल्पता (एनीमिया) की शिकार हैं।
सुझाव
- वर्तमान में आवश्यकता है कि खाद्य फसलों के उत्पादन प्रणाली में सकारात्मक परिवर्तन करते हुए भोजन की बर्बादी को व्यावहारिक प्रयासों के माध्यम से रोका जाए। दुनिया में उत्पादित भोजन का लगभग एक-तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है।
- सयुंक्त राष्ट्र की तीनों एजेंसियॉ : ‘खाद्य और कृषि संगठन’ (FAO), ‘कृषि विकास हेतु अंतर्राष्ट्रीय कोष’ (IFAD) और ‘विश्व खाद्य कार्यक्रम’ (WFP) को धारणीय खाद्य प्रणाली (Sustainable Food System) के निर्माण के लिये सरकार, नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) और किसानों के साथ कार्य करने हेतु और अधिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
- वर्तमान संकट खाद्य प्रणालियों में वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर नवाचारी समाधानों को लचीला और टिकाऊ (Sustainable) बनाने का महत्त्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। अतः सरकारों, निजी क्षेत्र और सिविल सोसाइटी को एकजुटता के साथ कार्य करना होगा ताकि बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वहनीय और पोषणयुक्त आहार प्राप्त हो सके।
- खाद्य एवं कृषि संगठन () को वर्ष 2020 में भुखमरी से लड़ाई की दिशा में कार्य करते हुए 75 वर्ष हो गए हैं।
- कृषि विकास हेतु अंतर्राष्ट्रीय कोष (IFAD) क्रेडिट रेटिंग प्राप्त करने वाली सयुंक्त राष्ट्र की पहली संस्था है।
- विश्व खाद्य कार्यक्रम को वर्ष 2020 में शांति के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार दिया गया है।
- विश्व खाद्य दिवस 16 अक्टूबर को मनाया जाता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 : भारतीय संविधान, विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का प्रथक्करण, विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान)
विषय–विरोध प्रदर्शन और लोकव्यवस्था
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालयने नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों द्वारा सार्वजनिक मार्ग के अनिश्चितकाल कब्जे को अस्वीकार कर दिया है। हालाँकि यह विरोध प्रदर्शन 24 मार्च, 2020 को ही समाप्त हो चुका है।
पृष्ठभूमि
- नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019को लागू किये जाने से दिल्ली तथा देश के अन्य हिस्सों में इस कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए तथा समाज के इस असंतुष्ट वर्ग द्वारा संविधान के अनुच्छेद – 32 के तहत याचिकाएँ दायर की गईं थीं।
संवैधानिक प्रावधान
- विरोध प्रदर्शित करने का अधिकार अस्त्र-शस्त्र रहित और शांतिपूर्ण सम्मलेन की स्वतंत्रता के अधिकार [अनुच्छेद-19(1)(b)] में निहित है तथा विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता [अनुच्छेद-19(1)(a)] एवं समुदाय और संघ निर्माण की स्वतंत्रता भी इससे सम्बंधित हैं।
- राज्य द्वारा सार्वजनिक सुरक्षा के हित में इन स्वतंत्रताओं को सीमित किया जा सकता है। [(अनुच्छेद 19(2)]
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
- न्यायालय द्वारा यह माना गया कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरुद्ध शाहीन बाग में महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों द्वारा शुरू की गई मुहिम या धरना प्रदर्शन ने सार्वजनिक मार्ग को अवरुद्ध किया, जिससे यात्रियों को असुविधा का सामना करना पड़ा।
- निर्णय में कानून के विरूद्ध शांतिपूर्ण विरोध के अधिकार को कायम रखा है तथा साथ ही, यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सार्वजनिक रास्ते और स्थानों पर अनिश्चितकाल के लिये कब्जा नहीं किया जा सकता है।
- लोकतंत्र और विरोध साथ-साथ चलते हैं। लेकिन असंतोष व्यक्त करने वाले प्रदर्शन निर्दिष्ट स्थानों (Designated Places) पर किये जाने चाहिए, जिससे आम जनता को असुविधाओं का सामना ना करना पड़े।
- मौलिक अधिकार अपने आप में पूर्ण रूप से स्वतंत्र और असीमित नहीं हैं। इनपर औचित्यपूर्ण निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण को रोकना प्रशासन की ज़िम्मेदारी है और इससे उन्हें स्वयं ही निपटना चाहिए तथा भविष्य में इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न नहीं होनी चाहिए ।
- विरोध के अधिकार को आवागमन के अधिकार के साथ संतुलित किया जाना चाहिए ।
निर्णय से उत्पन्न चुनौतियाँ
- सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय मामला समाप्त होने के पश्चात् आया है जो न्यायपालिका की कार्य प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
- न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 50 में वर्णित शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत के विपरीत है तथा इससे न्यायिक अतिसक्रियता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
- न्यायालय ने विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों को निर्दिष्ट स्थानों पर आयोजित करने का आदेश दिया है। हालाँकि निर्दिष्ट स्थान के बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया अर्थात् यह नहीं बताया है कि निर्दिष्ट स्थान कौन से होंगें।
- न्यायालय ने कहा है कि इस प्रकार के मुद्दों से प्रशासन स्वयं ही निपटे, जोकि पुलिस प्रशासन की शक्तियों में वृद्धि करता है तथा प्रदर्शनकारियों और आंदोलनकारियों के अधिकारों को सीमित करता है।
सुझाव
- विरोध प्रदर्शनों का मूल उद्देश्य शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात सरकार तक पहुँचाना तथा वार्ताओं के माध्यम से मुद्दे को हल करना होना चाहिए ना कि हिंसा, आगजनी, आम जनता को असुविधा पहुँचाना तथा सरकारी कार्यों में बाधा उत्पन्न करना।
- प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विरोध प्रदर्शन और आंदोलनों के कार्यान्वित होने से आम जनता को असुविधा ना हो तथा देश की अखंडता और सम्प्रभुता को किसी प्रकार का खतरा उत्पन्न ना हो।
निष्कर्ष
- विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र की खूबसूरती को इंगित करते हैं अतः इनका सम्मान किया जाना चाहिए, किंतु इसके लिये यह आवश्यक है कि विरोध प्रदर्शन और आंदोलन का तरीका शांतिपूर्ण हो जिससे आम नागरिकों को असुविधा का सामना ना करना पड़े। साथ ही, इन प्रदर्शन सम्बंधी गतिविधियों से प्रभावित होने वाले लोगों के अधिकारों की रक्षा भी अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह निर्णय पुलिस आयुक्त और अन्य बनाम अमित साहनी मामले में दिया गया है।
- इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट स्थानों (Designated Places) को स्पष्ट नहीं किया गया है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 : केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसँख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य निष्पादन, सरकारी नीतियों तथा विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)
विषय–डिजिटल असमानता
पृष्ठभूमि
- कोविड–19 महामारीके कारण कार्यप्रणाली में व्यापक स्तर पर परिवर्तन आए हैं। कोविड-19 महामारी ने सभी के जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। फेसमास्क, भौतिक दूरी और कांटेक्टलेस तकनीक तथा घर से कार्य अब ‘न्यू नार्मल’ (New Normal) का हिस्सा हैं। कम्प्यूटर या इंटरनेट जैसी तकनीकें अब एक सुविधा के रूप में ज़रूरी हो गई हैं। इसलिये तकनीक या इंटरनेट तक पहुँच को मूल अधिकार के रूप में मान्यता प्रदान करना समय की माँग है।
डिजिटल असमानता/डिजिटल डिवाइड
- यह अलग-अलग समूहों के मध्य सामाजिक और भौगोलिक आधार पर सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के उपयोग या प्रभाव का असमान वितरण है। आयु, लिंग, शारीरिक विकलांगता, भाषा, शिक्षा प्रणाली, सामग्री तक पहुँच, प्रौद्योगिकी हार्डवेयर तक पहुँच, तकनीकी कौशल की कमी तथा रूढ़िवादी मनोवृत्ति जैसे कारक डिजिटल विषमता में योगदान देते हैं।
डिजिटल समावेशन की आवश्यकता
- आर्थिक समस्याओं तथा डिजिटल साक्षरता की कमी के चलते डिजिटल असमानता व्यापक स्तर पर सामाजिक असमानता का रूप ले रही है।
- वर्तमान महामारी ने बड़े स्तर पर कार्य संस्कृति में परिवर्तन किये हैं। सरकार के लगभग सभी कार्यक्रमों तथा योजनाओं का लाभ ऑनलाइन माध्यम से ही दिया जा रहा है। इसलिये लक्षित वर्ग तक पर्याप्त लाभ या सहायता पहुंचाने हेतु प्रौद्योगिकी तथा इंटरनेट की पहुँच आवश्यक है।
वर्तमान चुनौतियाँ
- प्रौद्योगिकी का उपयोग सभी के लिये रोज़गार, शिक्षा और आय के स्तर पर भिन्न-भिन्न हो सकता है। कुछ लोग इंटरनेट तक पहुँच के लिये सार्वजनिक स्थानों (स्कूलों, पुस्तकालयों, रेलवे या मेट्रो स्टेशनों) का उपयोग करते हैं। लेकिन वर्तमान महामारी के दौरान भौतिक दूरी का पालन करने के कारण लोग सार्वजनिक केंद्रों पर इंटरनेट की सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हैं।
- वर्तमान समय में समाज का एक बड़ा हिस्सा प्रौद्योगिकी तक पहुँच से वंचित है। उन्हें इंटरनेट या प्रौद्योगिकी के उपयोग से सम्बंधित पर्याप्त समझ भी नहीं है।
वर्तमान प्रयास
- भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के अनुसार, वर्ष 2018 में देश में कुल इंटरनेट घनत्व लगभग 49% था।
- डिजिटल उपकरणों तथा इंटरनेट तक पहुँच के लिये बिजली तक पहुँच अनिवार्य है वर्तमान में भारत का लगभग 100% विद्युतीकरण किया जा चुका है।
- भारत सरकार द्वारा ई-कॉमर्स और ई-गवर्नेंस को प्रोत्साहित करने हेतु सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 लागू किया गया है।
- वर्ष 2016 में ग्राम पंचायतों तक इंटरनेट ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी सुनुश्चित करने हेतु नेशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क (NOF-N) परियोजना की शुरुआत की गई है।
- भारत सरकार द्वारा पुणे स्थित सेंटर फॉर एडवांस कम्प्यूटिंग (C-DAC) की सहायता से डिजिटल विषमता की खाई को पाटने हेतु डिजिटल मोबाइल लाइब्रेरी की शुरुआत की गई है।
- शहरी, ग्रामीण तथा दुर्गम क्षेत्रों तक डिजिटल पहुँच सुनिश्चित करने हेतु जन सेवा केंद्रों की स्थापना की गई है।
- ग्रामीण तथा ख़राब आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि वाले बच्चों को कम्प्यूटर शिक्षा उपलब्ध करवाने हेतु हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कारपोरेशन लिमिटेड द्वारा उन्नति परियोजना की शुरुआत की गई है।
डिजिटल समावेशन हेतु सुझाव
- सभी के लिये वहनीय और मज़बूत ब्रॉडबैंड इंटरनेट सेवा तक पहुँच सुनिश्चित की जानी चाहिये।
- इंटरनेट उपयोग करने में सक्षम डिवाइस की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।
- डिजिटल असमानता को केवल प्रौद्योगिकी की भौतिक पहुँच तक ही सीमित नही रखना चाहिए बल्कि डिजिटल साक्षरता प्रशिक्षण को भी इसमें अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिए।
- गुणवत्तापूर्ण तकनीकी सहायता तक पहुँच सुनिश्चित हो।
- आत्मनिर्भरता, सहभागिता और सहयोग को प्रोत्साहित करने वाले एप्लीकेशन तथा ऑनलाइन सामग्री तक सामान पहुँच सुनिश्चित की जानी चाहिए।
निष्कर्ष
- महामारी के दौर में प्रौद्योगिकी ने अभूतपूर्व भूमिका (वर्चुअल बैठक, ऑनलाइन क्लास, न्यायालयों द्वारा वर्चुअल सुनवाई, घर से कार्य) अदा करते हुए संक्रमण के खतरे और प्रभाव को निश्चित रूप से कम किया है लेकिन डिजिटल असमानता की खाई को पाटने हेतु हमेंइंटरनेट तथा डिजिटल प्रौद्योगिकी तक पहुँच को एक अनिवार्य अधिकार के रूप में स्वीकृति प्रदान करनी होगी।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 व 3 : सेवाओं के विकास और प्रबंधन से सम्बंधित विषय, सूचना प्रौद्योगिकी, संचार नेटवर्क के माध्यम से आंतरिक सुरक्षा को चुनौती)
विषय–टारगेट रेटिंग पॉइंट
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में कुछ टेलीविज़न चैनलों पर टी.आर.पी. में हेरफेर का मामला सामने आया है।
टी.आर.पी. (Target/Television Rating Point : TRP)
- ‘टारगेट रेटिंग पॉइंट’ (TRP) को ‘टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट’ भी कहा जाता है। टी.आर.पी. यह दर्शाता है कि किसी निश्चित एवं तय समय अंतराल में कितने दर्शक किसी विशेष टी.वी. शो को देख रहे हैं।
- टी.आर.पी. लोगों की पसंद और किसी चैनल या शो की लोकप्रियता बताता है। इसका प्रयोग विपणन व विज्ञापन एजेंसियों द्वारा दर्शकों की संख्या के मूल्यांकन हेतु किया जाता है।
- टी.आर.पी. को मापने के लिये कुछ जगहों पर ‘पीपल्स मीटर’ (People’s Meter) लगाए जाते हैं। आई.एन.टी.एम. (INTAM) और बार्क (BARC) एजेंसियाँ किसी टीवी शो की टी.आर.पी. को मापती हैं।
- ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (BARC) द्वारा ‘बार-ओ-मीटर्स’ (Bar-O-Meters) का उपयोग करके टी.आर.पी. को रिकॉर्ड किया जाता है। यह मीटर कुछ चयनित घरों में टी.वी. सेट में लगाए जाते हैं।
टेलीविज़न मीडिया
- आज के समय में टेलीविज़न शायद किसी भी व्यवसाय एवं व्यापार के विज्ञापन व प्रचार को घर-घर तक पहुँचाने के लिये सबसे बड़ा और उपयुक्त माध्यम है क्योंकि भारत में प्रति सप्ताह लगभग 760-800 मिलियन लोग टी.वी. देखते हैं।
- ग्रामीण भारत में टी.वी. की पहुँच लगभग 52% है, जबकि शहरी भारत में यह लगभग 87% है। इस उद्योग में विभिन्न प्रकार के 800 से अधिक चैनल होने का दावा किया जाता है। इस उद्योग में ₹66,000 करोड़ के कुल राजस्व में से लगभग 40% विज्ञापन से तथा 60% वितरण व सब्सक्रिप्शन सेवाओं से आता है।
- डेंट्सु (विज्ञापन से सम्बंधित कम्पनी) के अनुसार वर्ष 2020 में भारत का कुल विज्ञापन बाज़ार 10-12 बिलियन डॉलर के मध्य है, जिसमें से डिजिटल विज्ञापन लगभग 2 बिलियन डॉलर का है।
टी.आर.पी. की प्रकृति
- पूर्व में भी कई चैनलों के लिये टी.आर.पी. प्रणाली में धांधली की गई है परंतु अब चैनल इस कार्य में स्वयं संलग्न हैं। वर्तमान में स्वयं चैनलों द्वारा टी.आर.पी. प्रणाली में हेराफेरी की कोशिश की जा रही हैं।
- टी.ए.एम. (टेलीविजन ऑडियंस मेजरमेंट) और आई.एन.टी.ए.एम. (इंडियन नेशनल टेलीविजन ऑडियंस मेजरमेंट) के समय मोटर साइकिल सवारों को डाटा प्राप्त करने/मीटर लगाने और ‘गोपनीय घरों’ की पहचान करने के लिये भेजा जाता था।
- इन घरों को नए टेलीविज़न प्रदान किये जाते थे और उसमें एक विशेष चैनल को चालू कर दिया जाता था, जबकि घर के लोग नियमित टी.वी. सेट पर इच्छानुसार चैनल देखते थे।
- TAM और INTAM विभिन्न ग्राहकों के अनुरूप अलग-अलग रेटिंग रिपोर्ट दिया करते थे। बाद में BARC (ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल) भी इन्हीं त्रुटिपूर्ण मीटरों का प्रयोग करने लगा।
- इसके अतिरिक्त टी.आर.पी. के खेल में मीडिया से समझौता करने वाली एजेंसियों को फीस, कमीशन, आदि के रूप में अन्य उपहार भी प्रदान किये जाते हैं।
- साथ ही ऑनलाइन चैनल जैसे- नेटफ्लिक्स और यूट्यूब न केवल यह जान सकते हैं कि दर्शकों ने क्या और कितनी देर तक देखा, बल्कि यह भी जान सकते है कि दर्शकों को क्या पसंद आ रहा है और वे किसकी अनदेखी कर रहे हैं।
आगे की राह
- आज हाइपर कनेक्टिविटी की दुनिया में इंटरनेट से जुड़े हुए ‘बार-ओ-मीटर’ के निर्माण के लिये आत्मनिर्भर होना होगा, जो न केवल चैनल-वार, बल्कि कार्यक्रम-वार और घंटे-वार डाटा भी देते हों। इस तरह रेटिंग की माप असतत्, आवधिक और छेड़छाड़ से युक्त होने की बजाय निरंतर और पारदर्शी होगी।
- ‘ऑफ़कॉम’ और ‘फेडरल कम्युनिकेशंस कमीशन’, यू.के. और अमेरिका में टी.आर.पी. के दो मुख्य स्वतंत्र नियामक हैं। इनमें आमतौर पर कॉरपोरेट जगत के प्रतिष्ठित सदस्यों के साथ सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी शामिल होते हैं। भारत में भी ऐसा किया जा सकता है।
- यदि किसी विशेष विचारधारा की सरकार एक नियामक नियुक्त करती है, तो यह लगभग पक्षपातपूर्ण माना जाएगा। इस समस्या को भी दूर करने की आवश्यकता है।
- इसके अतिरिक्त, ‘BARC : स्व-नियमन’ या ‘संवैधानिक रूप से निर्वाचित सरकार द्वारा स्थापित एक स्वतंत्र प्राधिकरण’ के मध्य चुनाव भी एक मुद्दा है।
निष्कर्ष
- भारत जैसे देश में किसी संस्थान या व्यक्ति द्वारा विनियमित होने की प्रवृति में कमी पाई जाती हैं। न्यायाधीशों का मानना है कि वे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की तुलना में बेहतर तरीके से स्व-विनियमन कर सकते हैं। इसी प्रकार मीडिया, विशेष रूप से टेलीविजन मीडिया, स्व-विनियमन की ही बात करता है।
- ‘टारगेट रेटिंग पॉइंट’ (TRP) को ‘टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट’ भी कहा जाता है, जो यह दर्शाता है कि किसी निश्चित एवं तय समय अंतराल में कितने दर्शक किसी विशेष टी.वी. शो को देख रहे हैं।
- आई.एन.टी.एम. (INTAM) और ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (BARC) जैसी एजेंसियाँ टी.आर.पी. को मापती हैं। ‘बार-ओ-मीटर्स’ (Bar-O-Meters) का उपयोग करके TRP को रिकॉर्ड किया जाता है।
- ग्रामीण भारत में टी.वी. की पहुँच लगभग 52% है, जबकि शहरी भारत में यह लगभग 87% है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसँख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य निष्पादन; इन अति सम्वेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान तथा निकाय)
विषय–बाल तस्करी में तीव्र वृद्धि
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, राष्ट्रीय चाइल्डलाइन 1098द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकडों के अनुसार कोविड-19 महामारी के कारण लागू लॉकडाउन के दौर में बाल तस्करी (Child Trafficking) में तीव्र वृद्धि दर्ज की गई है।
मुख्य बिंदु
- महामारी के कारण देशव्यापी लॉकडाउन के चलते प्रवासी श्रमिकों के लिये रोज़गार का संकट उत्पन्न हो जाने से अवैध श्रम, जबरन विवाह और बाल तस्करी जैसी प्रवृतियों में वृद्धि हुई है।
- वर्ष 2020 में मार्च और अगस्त माह के मध्य महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा स्थापित हेल्पलाइन की सहायता से इस तरह के 1.92 लाख मामलों में हस्तक्षेप किया गया। पिछले वर्ष समान अवधि में इन मामलों की संख्या 1.70 लाख थी।
- अप्रैल से अगस्त के मध्य चाइल्डलाइन के अधिकारीयों द्वारा बाल विवाह के 10,000 से अधिक मामलों को ट्रैक किया गया।
- कमज़ोर सहायता प्रणाली के कारण अपराधियों द्वारा बच्चों तथा युवाओं की भावनात्मक अस्थिरता (Emotional Instability) का फ़ायदा उठाकर उन्हें बरगलाया जाता है तथा तस्करी के पश्चात् पीड़ित पर कई प्रकार के अनुचित कार्यों जैसे वेश्यावृत्ति, मज़दूरी, भीख मंगवाना और विवाह आदि के लिए जबरन दबाव बनाया जाता है।
- सरकार के दिशानिर्देशों के अनुसार प्रत्येक राज्य में कम से कम 50% जिलों में मानव तस्करी रोधी इकाइयाँ होना अनिवार्य है लेकिन यूपी और महाराष्ट्र सहित कई प्रमुख राज्यों में इनकी संख्या बहुत कम है।
- प्रशासन के समक्ष आए बाल अपराधों के अधिकांश मामले तस्करी, बाल विवाह, भावनात्मक शोषण, यौन शोषण, भीख मंगवाने तथा साइबर अपराध से सम्बंधित हैं।
बच्चों का अवैध व्यापार
- यूनिसेफ के अनुसार, अगर कोई 18 वर्ष से कम आयु के किसी बालक या बालिका को बहला फुसलाकर या फिर उसकी इच्छा के विरूद्ध शोषण के इरादे से अगवा करता है, तो यह गतिविधि बच्चों के अवैध व्यापार के अंतर्गत आएगी। जबरन शादी, वेश्यावृत्ति, भीख मंगवाने, मज़दूरी, अंग व्यापार और कभी-कभी तो आतंकी गतिविधियों के उद्देश्य से बालक- बालिकाओं की तस्करी की जाती है।
कारण
- भारत में बाल तस्करी के मूल कारण गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा तथा बेरोज़गारी हैं। सयुंक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) के अनुसार भारत में बेरोज़गारी की दर बहुत अधिक है और इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है।
- गरीबी से बाहर निकलने या कर्ज़ चुकाने के लिये कुछ माता-पिता अपने बच्चों को तस्करों को बेचने पर मज़बूर हो जाते हैं।
- भारत के पर्यटन क्षेत्र में वेश्यावृत्ति या देह-व्यापार जैसी अनैतिक मांगों में उच्च वृद्धि के कारण मानव तस्करी में अत्यधिक बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
चुनौतियाँ
- बचाव दलों (Rescue Units) द्वारा समय रहते हस्तक्षेप ना किया जाना एक प्रमुख समस्या है।
- पुनर्वास (rehabilitation) की उचित सुविधा का अभाव, जिससे आत्महत्या तथा अवसाद जैसी प्रवृतियों में वृद्धि होती है।
- तस्कर विरोधी कार्यकर्ताओं (anti trafficking activist) के प्रति बढ़ते अपराध।
- अंध विश्वास तथा पुराने रीति रिवाज़ (धार्मिक या समूह आधारित) भी बच्चों के प्रति अपराध में वृद्धि की मुख्य वजह हैं।
- एकीकृत निगरानी प्रणाली का अभाव।
बाल तस्करी रोकथाम हेतु प्रावधान
- संविधान के अनुच्छेद 23(1) के अनुसार मानव या व्यक्तियों का अवैध व्यापार प्रतिबंधित है।
- अनैतिक तस्करी (रोकथाम) अधिनियम, 1956 वाणिज्यिक शोषण हेतु अवैध व्यापार की रोकथाम से सम्बंधित प्रमुख विधान है।
- बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986
- मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम, 1994
- बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006
- बाल संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो अधिनियम, 2012) बच्चों को यौन अपराधों और यौन शोषण से बचाने के लिये एक विशेष कानून है। इसमें साधारण और गहन उत्पीड़न सहित यौन दुर्व्यवहार के विभिन्न रूपों की सटीक और स्पष्ट परिभाषाएँ दी गई हैं।
- आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 के तहत भारतीय दण्ड सहिंता की धारा 370 में संशोधन कर मानव तस्करी के खतरे के प्रतिकार हेतु व्यापक प्रावधान किये गए हैं, जैसे किसी भी रूप में बच्चों के यौन शोषण, गुलामी, दासता या अंगों का व्यापार आदि।
- राज्य सरकारों द्वारा भी इस मुद्दे से निपटने हेतु विशिष्ट कानून बनाए गए हैं, जैसे पंजाब मानव तस्करी रोकथाम अधिनियम, 2012।
बाल तस्करी रोकथाम हेतु वर्तमान प्रयास
- चाइल्डलाइन इंडिया फाउंडेशन (CIF) केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की नोडल एजेंसी है। जो एक मूल संस्थान के रूप में चाइल्डलाइन 1098 के माध्यम से बाल समस्याओं (बाल श्रम, दुर्व्यवहार तथा हिंसा, यौन शोषण तथा बच्चों का अवैध व्यापार, लापता, भागे हुए बच्चे, बाल स्वास्थ्य, बुरी लत, शिक्षा सम्बंधी, बाल विवाह, कानूनी लड़ाई और बेघर) पर हस्तक्षेप करके सहायता और समाधान उपलब्ध करवाती है।
- भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा मानव तस्करी की रोकथाम हेतु सुझाव और दिशा-निर्देश देने हेतु www.stophumantrafficcking-mha.nic.in वेब पोर्टल की शुरुआत की गई है।
- निचली अदालतों द्वारा मानव तस्करी के मुद्दे पर जागरूक करने हेतु न्यायिक संगोष्ठी का आयोजन किया जाता है, जिसका उद्देश्य तस्करी से पीड़ितों के लिये त्वरित अदालती प्रक्रिया सुनिश्चित कराना है।
- भारत ने अंतर्राष्ट्रीय संगठित अपराध पर सयुंक्त राष्ट्र सम्मेलन (यू.एन.सी.टी.ओ.सी.) की पुष्टि की है, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय मानव तस्करी रोकथाम हेतु प्रोटोकाल तथा महिलाओं और बच्चों के अवैध व्यापार की सज़ा शामिल है।
- भारत ने वेश्यावृत्ति की रोकथाम हेतु महिलाओं और बच्चों के अवैध व्यापार को रोकने की बात सार्क सम्मलेनों में भी दोहराई है।
- भारत और बांग्लादेश के मध्य महिलाओं तथा बच्चों में मानव तस्करी की रोकथाम, बचाव करने, पुनः प्राप्ति, प्रत्यावर्तन और अवैध व्यापार के पीड़ितों के पुनः एकीकरण हेतु द्विपक्षीय सहयोग के लिये एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गए हैं।
- गर्ल्स नॉट ब्राइड्स (Girls Not Brides) पहल 1400 सिविल सोसाइटी संगठनों की एक वैश्विक भागीदारी है, जो बाल विवाह को पूर्ण रूप से समाप्त करने हेतु प्रतिबद्ध है। भारत भी इसका भागीदार देश है।
निष्कर्ष
- भारत में बाल अपराध तथा मानव तस्करी को बढ़ावा देने वाली पारम्परिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं को समाप्त कर बच्चों को गुड टच और बैड टच के बारे सजग करने के साथ ही एक मज़बूत निगरानी तंत्र और त्वरित कार्यवाही किये जाने की आवश्यकता है।
- आने वाले महीनों में अर्थव्यवस्था के खुलने से उद्योगों में श्रम की माँग में वृद्धि होगी। श्रम की बढ़ती माँग और बेरोज़गारी की विकट समस्याओं के चलते बाल और श्रमिक शोषण में वृद्धि होने की सम्भावना है, जिसके लिये पूर्व उपाय किये जाने आवश्यक हैं।
- कोई भी बालक/ बालिका या कोई वयस्क किसी अप्रिय स्थिति में चाइल्डलाइन की हेल्पलाइन नम्बर 1098 पर कॉल कर सकता है। यह सेवा 24 घंटे (दिन-रात) उपलब्ध है। कॉल प्राप्त होने पर 60 मिनट में सहायता उपलब्ध करवाई जाती है।
- चाइल्डलाइन इंडिया फाउंडेशन (CIF) केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की नोडल एजेंसी है।
- भारत ने अंतर्राष्ट्रीय संगठित अपराध पर सयुंक्त राष्ट्र सम्मेलन (यू.एन.सी.टी.ओ.सी.) की पुष्टि की है।
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार पिछले दशक में युवा लड़कियों (18 वर्ष से कम आयु) की तस्करी में 14 गुना वृद्धि हुई है।
(मुख्य परीक्षा सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 : सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)
विषय–भारत में ऑनलाइन सट्टेबाज़ी की वैधानिक स्थिति एवं भविष्य
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में,आंध्रप्रदेश सरकार द्वाराफैंटेसी क्रिकेट संचालकों पर एक अध्यादेश के माध्यम से प्रतिबंध (आई.पी.एल. के प्रायोजक ड्रीम 11 सहित) लगाया गया है।
ऑनलाइन सट्टेबाज़ी
- ऑनलाइन सट्टेबाज़ी मेंवर्चुअल पोकर (कार्ड गेम में शर्त या बाज़ी लगाने वाले खिलाड़ी) कैसीनो और खेल सम्बंधी बेटिंग (शर्त) शामिल हैं। दुनिया के कई देशों में ऑनलाइन सट्टेबाज़ी को कानूनी मान्यता प्राप्त है।
भारत में कानूनी स्थिति
- भारत में जुआ या सट्टेबाज़ी राज्य का विषय है तथा इससे सम्बंधित प्रत्येक राज्य का अपना कानून है। भारत में कौशल आधारित खेल जुए के दायरे से मुक्त हैं। नागालैंड राज्य में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि कौशल आधारित खेल क्या और कौन से हैं। अधिकांश राज्यों के कानूनों में इस तरह की स्पष्टता नहीं है। इस सम्बंध में समय-समय पर न्यायालय को ही व्याख्या करनी पड़ती है कि कौन से खेल कौशल के दायरे में आते हैं और कौन से नहीं।
- हालाँकि इस मामले से सम्बंधित यचिका अभी सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है। अगर सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय या व्याख्या में सट्टेबाज़ी पर रोक लगाता है तो यह पूरा उद्योग बंद हो जाएगा और अगर अनुमति देता है तो राज्य सरकारें इन गतिविधियों के लिये लाइसेंस जारी कर सकती हैं साथ ही पूरे भारत में यह निर्णय लागू होगा। हालाँकि भारत में घोड़ों की रेस पर सट्टेबाज़ी की अनुमति है।गोवा तथा सिक्किम में कई प्रकार की सट्टेबाज़ी की अनुमति है।
- भारत में संचालित ऑनलाइन फैंटेसी क्रिकेट प्लेटफार्म जैसेड्रीम 11 और पेटीएम फर्स्ट आर्थिक लेन-देन पर आधारित हैं।भारत में विभिन्न न्यायालयों द्वारा यह माना गया है कि ये इन प्लेटफार्म पर उपलब्ध खेल,संभावनाओं के बजाय कौशल आधारित खेल (games of skill rather than games of chance )हैं।
- कई देशों में जहाँ ऑनलाइन सट्टेबाज़ी को कानूनी स्वीकृति प्राप्त है, वहाँ ऑनलाइन सट्टेबाज़ी की सेवाएँ प्रदान करने या इससे सम्बंधित विज्ञापन जारी करने हेतु सेवा प्रदाताओं को कुछ निर्धारित लाइसेंस लेने की आवश्यकता होती है।
खेल उद्योग में कई प्रकार के कानूनी और ग़ैर कानूनी घटक शामिल होते हैं इसमें मनोरंजन से लेकर अनैतिक और ग़ैर कानूनी गतिविधियाँ भी शामिल होती हैं। सिक्किम और गोवा में कैसिनो उद्योग को विनियमित किया जाता है। कौशल आधारित कुछ खेलों को नागालैंड राज्य में भी विनियमित किया जाता है। के.पी.एम.जी.(वित्तीय फर्म) के अनुसार भारत में खेल उद्योग का आकार लगभग 150 बिलियन डॉलर है।
ऑनलाइन सट्टेबाज़ी की चुनातियाँ
- ऑनलाइन सट्टेबाज़ी के सम्बंध में केंद्र तथा राज्यों के कानून बहुत पुराने और स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं हैं।जैसे सार्वजानिक जुआ अधिनियम, 1867।
- अधिकांश ऑनलाइन सट्टेबाज़ी पर आधारित कम्पनियाँ अपनी आधार स्थिति (Base Location) को टैक्स हैवन क्षेत्रों (ऐसा देश या स्थान, जहाँ विदेशी निवेशकों के लिये कराधान की प्रभावी दरें बहुत कम होती हैं तथा यहाँ उच्च-स्तरीय वित्तीय गोपनीयता प्रदान की जाती है) में पंजीकृत कराती हैं, जिससे मनी लॉन्डरिंग (काले धन को वैध बनाने की प्रक्रिया) की प्रवृति को बढ़ावा मिलता है।
- ऑनलाइन सट्टेबाज़ी में अगर कोई व्यक्ति जाली पहचान से ग़ैर कानूनी गतिविधियाँ संचालित करता है तो उसे खोजना बहुत जटिल कार्य है तथा इसके लिये भारत में अभी तकनीकी कुशलता का भी अभाव है।
- सट्टेबाज़ी को कानूनी मान्यता प्रदान करने से खिलाडियों में खेल भावना (Game Spirit) को लेकर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की सम्भावना है।
लागू करने हेतु सुझाव
- सट्टेबाज़ी के सन्दर्भ में व्यापक और दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाते हुए इस उद्योग को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित करने के बजाय इसका विनियमन किया जाना चाहिये।
- सट्टेबाज़ी की कुछ गतिविधियों को विनियमित करने से सरकार को व्यापक स्तर पर कर के रूप में राजस्व की प्राप्ति होगी, जिसे वर्तमान में काले धन के रूप में छिपाया जा रहा है तथा यही काला धन आगे विभिन्न गैरकानूनी उद्योगों में निवेश किया जाएगा, जिससे आतंकवादी सहित अन्य आपराधिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा।
- सट्टेबाज़ी उद्योग को विनियमित किये जाने से व्यापक स्तर पर रोज़गार सृजन होने के साथ हीलोगों के जीवन स्तर में भी सुधार होगा।
- सट्टेबाज़ी से सम्बंधित वेबसाइटों का विनियमन कर इनकी निरंतर जाँच हेतु एक मज़बूत निगरानी तंत्र का निर्माण किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
- भारत में ऑनलाइन सट्टेबाज़ी के सम्बंध में सिक्किम और गोवा जैसे राज्यों के पास कानूनी ढाँचा तथा लाइसेंस व्यवस्था उपलब्ध है। इसी प्रकार अन्य राज्यों में भी इस तरह के कानूनों का विस्तार किया जा सकता है।
- हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि भारत में आई.पी.एल. के आयोजन को लेकर भी शुरुआत में इसी प्रकार का विरोध हुआ था लेकिन वर्तमान में आई.पी.एल. विश्व की सबसे सफल क्रिकेट श्रृंखला बन चुकी है,जिसने भारत में क्रिकेट की दशा और दिशा ही परिवर्तित कर दी है। इसी प्रकार की सकारात्मक अभिवृत्ति हमें सट्टेबाज़ी के संदर्भ में अपनानी होगी।लेकिन इसके बारे में लोगों को जागरूक करने की तथा नाबालिगों एवं कमज़ोर वर्गों को सट्टेबाज़ी की गतिविधियों से बाहर रखना होगा।
- सार्वजानिक जुआ अधिनियम, 1867 भारत में सामान्य तौर पर सट्टेबाज़ी का विनियमन करता है।
- विधि आयोग द्वारा सट्टेबाज़ी के विनियमन पर सहमति जताई गई है।
- सट्टेबाज़ी से सम्बंधित याचिका अभी सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : संघीय ढाँचे से सम्बंधित विषय एवं चुनौतियाँ)
विषय–कृषि अधिनियम और संघवाद
पृष्ठभूमि
- हाल ही में राष्ट्रपति द्वाराकृषि विधेयकों को मंज़ूरी प्रदान कर दी गई है। छत्तीसगढ़ और पंजाब सहित कुछ राज्यों ने इसका विरोध करते हुए कहा है कि वे नए कानूनों को लागू नहीं कर सकते हैं। साथ ही केरल और पंजाब ने इसको उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने का इरादा जताया है। इससे सम्बंधित प्रमुख और मूल प्रश्न है कि क्या कानूनों का अधिनियमित होना संघीय सिद्धांत का उल्लंघन है?
कानून के पक्ष और विपक्ष में तर्क
- सरकार का दावा है कि ये अधिनियम भारतीय कृषि क्षेत्र में परिवर्तन लाएंगें और निजी निवेश को आकर्षित करेंगे।
- किसानों का (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अनुबंध अधिनियम, 2020 अनुबंध खेती के लिये आधार प्रदान करता है, जिसके अंतर्गत किसान कॉर्पोरेट निवेशकों के साथ अनुबंध के तहत फसलों का उत्पादन कर सकेंगें।
- किसानों को डर है कि प्रभावशाली निवेशक उन्हें बड़े कॉर्पोरेट कानून फर्मों द्वारा तैयार किये गए प्रतिकूल अनुबंधों के लिये बाध्य करेंगे और इसमें देयताओं व दायित्त्वों से सम्बंधित ज़्यादातर मामलें किसानों की समझ से परे होंगें।
- सरकार के अनुसार यह विधेयक किसानों को अपनी उपज को कहीं भी बेचने की स्वतंत्रता देता है।विपक्ष का कहना है कि इससे कृषि का निगमीकरण होगा।
- पंजाब और हरियाणा इस विरोध के केंद्रबिंदु है। यहाँ पर बाज़ार शुल्क, ग्रामीण विकास शुल्क और आढ़तिया कमीशन 2 से 3 प्रतिशत के बीच है। ये इन राज्यों में राजस्व के बड़े स्रोत हैं। राज्यों को नए कानूनों के तहत ए.पी.एम.सी.क्षेत्रों के बाहर बाज़ार शुल्क/उपकर लगाने की अनुमति नहीं है, जिससे अनुमानत: पंजाब और हरियाणा को क्रमश: 3,500 करोड़ रुपये और 1,600 करोड़ रुपये की क्षति हो सकती हैं।
कानूनों की संवैधानिकता सम्बंधी सवाल
- ‘भारत संघ बनाम एच. डी. फिलोन’ (वर्ष 1972) मामले के अनुसार, संसदीय कानूनों की वैधानिकता को केवल दो आधारों पर चुनौती दी जा सकती है।पहला वह विषय राज्य सूची में शामिल हो तथा दूसरा वह कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो।
- आम तौर पर सर्वोच्च न्यायालय संसदीय कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक नहीं लगाता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सी.ए.ए. और यू.ए.पी.ए.पर भी रोक नहीं लगाई गई थी।
- कृषि सम्बंधी दोनों अधिनियमों के उद्देश्यों और कारणों के विवरण में उस संवैधानिक प्रावधान का उल्लेख नहीं किया गया है, जिसके तहत संसद को इन विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है।
संघवाद का मुद्दा
- संघवाद का वास्तविक मतलब यह है कि केंद्र और राज्यको एक-दूसरे के मध्य समन्वय के साथ उनके लिये आवंटित क्षेत्रों में कार्य करने की स्वतंत्रता है।सातवीं अनुसूची मेंकेंद्र और राज्यों के बीच शक्ति का वितरणकरने वाली तीन सूचियाँहैं।
- संघ सूची में 97 विषय हैं, जिन पर संसद को अनुच्छेद 246 के अनुसार कानून बनाने की विशेष शक्ति है। राज्य सूची में 66 विषय हैं। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं, जिन पर केंद्र और राज्य दोनों ही कानून बना सकते हैं परंतु अनुच्छेद 254 के अनुसार किसी मतभेद की स्थिति में संसद द्वारा बनाया गया कानून लागू होता है।
- संसद संविधान में निर्धारित कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।
- ‘पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ’(वर्ष 1962) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भारतीय संविधान संघीय नहीं है। हालाँकि, ‘एस. आर.बोम्मई बनाम भारत संघ’ (वर्ष1994) मामले में नौ–न्यायाधीशों वाली बेंच ने संघवाद को संविधान के बुनियादी ढ़ाँचे का हिस्सा बताया।
- केंद्र व राज्य से सम्बंधित विधाई शक्तियों का उल्लेख अनुच्छेद 245 से 254 में किया गया है। राज्य की स्थिति संविधान संरचना में संघीय है और वह अपने विधायी व कार्यकारी शक्ति के मामलें में स्वतंत्र है।
विधायी शक्तियों की योजना और कृषि
- संघ सूची में कृषि से सम्बंधित आय और परिसम्पत्तियों को छोड़कर अन्य विषयों पर कर और शुल्क लगाने का प्रावधान है।
- राज्य सूची में कृषि शिक्षा, अनुसंधान व बीमारी, भूमि पर अधिकार, पट्टेदारी,कृषि भूमि का हस्तांतरण और कृषि ऋण का उल्लेख है। साथ ही बाज़ार, कृषि ऋणग्रस्तता से मुक्ति,भूमि राजस्व, भूमि रिकॉर्ड,कृषि आय पर कर, कृषि भूमि का उत्तराधिकार और कृषि भूमि के सम्बंध में सम्पत्ति शुल्क का भी उल्लेख है।
- यह स्पष्ट है कि केंद्रीय सूची और समवर्ती सूची कृषि से सम्बंधित मामलों को संसद के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखती हैतथा राज्य विधान सभाओं को विशेष शक्ति प्रदान करती है।
समवर्ती सूची की प्रविष्टि के अधीन राज्य सूची की प्रविष्टि
- समवर्ती सूची में व्यापार और वाणिज्य, उत्पादन, आपूर्ति और घरेलू तथा आयातित उत्पादों के वितरण का उल्लेख है, जिस पर संसद का सार्वजनिक हित के संदर्भ में नियंत्रण है। इसमें तिलहन और तेल सहित खाद्य पदार्थों, पशुओं के चारे,कच्चे कपास और जूटभी शामिल हैं।
- इसलिये केंद्र तर्क दे सकता है कि अनुबंध कृषि और अंत:राज्य व अंतर–राज्य व्यापार पर कानूनों को पारित करना और राज्यों को ए.पी.एम.सी. क्षेत्रों के बाहर शुल्क/उपकर लगाने से रोकना उसकी शक्तियों के अंतर्गत आता है।
- हालाँकि,शिक्षा की तरहखेती भी एक व्यवसाय ही है, न कि व्यापार या वाणिज्य। यदि खाद्य पदार्थों को कृषि का पर्याय माना जाता है,तो कृषि के सम्बंध में राज्यों की सभी शक्तियाँ निरर्थक हो जाएंगी।
- ‘राजस्थान राज्य बनाम जी. चावला’ (वर्ष 1959) जैसे मामलों में अदालतों ने सूचियों की प्रविष्टियों के बीच ओवरलैप होने वाले कानून के चरित्र व स्थिति को निर्धारित करने हेतु ‘तत्त्व व सार’ (Pith and Substance) के
सिद्धांत का उपयोग किया है।
- यदि कोई विषय किसी एक सूची में काफी हद तक कवर होता हैऔर दूसरी सूची में केवल प्रसंगवश शामिल है, तो कानून की संवैधानिकता को पहली सूची के अनुसार बरकरार रखा जाता है। हालाँकि, दो नए कृषि अधिनियम उससे परे हैं और वे राज्य सूची में प्रविष्टियों पर लागू होते हैं।
- सूचियों की व्याख्या करने में‘बिहार बनाम कामेश्वर सिंह’ (वर्ष1952) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘छद्म विधायन’ (ColourableLegislation) के सिद्धांत को लागू किया, जिसका अर्थ है कि आप अप्रत्यक्ष रूप से वह नहीं कर सकते जो प्रत्यक्ष रूप से कर सकते हैं।
- ‘आई.टी.सी. लि.बनाम APMC ’मामले (वर्ष 2002) में उच्चतम न्यायालय ने कृषि उपज विपणन से सम्बंधित कई राज्य कानूनों की वैधता को बरकरार रखा और कहा कि कच्चे माल या गतिविधि, जिसमें निर्माण या उत्पादन शामिल नहीं है, को ‘उद्योग‘ के तहत कवर नहीं किया जा सकता है।
सरकार का पक्ष
- अशोक दलवई और रमेश चंद की अध्यक्षता वाली समितियों ने सिफारिश की कि ‘कृषि बाज़ार‘ को समवर्ती सूची में रखा जाए। सिफारिशों में यह निहित है कि समवर्ती सूची की प्रविष्टि के तहत ‘खाद्य पदार्थ’ कृषि बाज़ारों पर कानून बनाने के लिये संसद को समर्थ नहीं करता है।
- वर्ष 2015 में सरकार ने लोकसभा को बताया कि ‘राष्ट्रीय किसान आयोग’(स्वामीनाथन आयोग) ने ‘कृषि बाज़ार’को समवर्ती सूची में शामिल करने की सिफारिश की थी। हालाँकि, मार्च 2018 में सरकार ने फिर से लोकसभा को बताया कि उसका ‘कृषि बाज़ार’ को समवर्ती सूची में सम्मिलित करने का कोई इरादा नहीं है।
निष्कर्ष
- राज्य सूची में कृषि के सम्बंध में कोई भी प्रविष्टि, संघ या समवर्ती सूची में किसी भी प्रविष्टि के अधीन नहीं है।संविधानवाद और शक्तियों के पृथक्करण की तरह संघवाद का उल्लेख संविधान में नहीं हैलेकिन यह भारत की संवैधानिक योजना का सार है।
- किसानों का (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अनुबंध अधिनियम, 2020 अनुबंध खेती के लिये आधार प्रदान करता है।
- पंजाब और हरियाणा में बाज़ार शुल्क, ग्रामीण विकास शुल्क और आढ़तिया कमीशन 2 से 3 प्रतिशत के बीच है।
- ‘भारत संघ बनाम एच. डी. फिलोन’ (वर्ष 1972) के अनुसार, संसदीय कानूनों की वैधानिकता को केवल दो आधारों पर चुनौती दी जा सकती है। ये आधार हैं- वह विषय राज्य सूची में शामिल हो या वह कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो।
- संघ सूची में 97 विषय हैं, जिन पर संसद को अनुच्छेद 246 के अनुसार कानून बनाने की विशेष शक्ति है। राज्य सूची में 66 विषय हैं। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं, जिन पर केंद्र और राज्य दोनों ही कानून बना सकते हैं परंतु अनुच्छेद 254 के अनुसार किसी टकराव की स्थिति में संसद द्वारा बनाया गया कानून लागू होता है।
- ‘बिहार बनाम कामेश्वर सिंह’ (वर्ष 1952) मामलें में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘छद्म विधायन’ (Colourable Legislation) के सिद्धांत को लागू किया, जिसका अर्थ है कि आप अप्रत्यक्ष रूप से वह नहीं कर सकते जो आपप्रत्यक्ष रूप से कर सकते हैं।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र: 2, विषय–केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य–निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय।)
विषय–महाराष्ट्र वन–अधिकार अधिनियम में संशोधन
- हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act – FRA), 2006 को संशोधित करते हुए एक अधिसूचना जारी की है, जो आदिवासी और अन्य पारम्परिक रूप से वन-आवास वाले परिवारों को आस पड़ोस के वन क्षेत्रों में घर बनाने में सक्षम बनाएगी।
एफ.आर.ए, 2006 :
- अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, [The Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act] भारत में वन कानून का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
- इसे वन अधिकार अधिनियम, जनजातीय अधिकार अधिनियम, जनजातीय विधेयक और जनजातीय भूमि अधिनियम भी कहा जाता है।
- औपनिवेशिक युग में, अंग्रेज़ों ने अपनी आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिये प्रचुर मात्रा में वन सम्पदा का दोहन किया था।यद्यपि भारतीय वन अधिनियम, 1927 जैसे क़ानूनों के तहत वन से जुड़े अधिकारों और उनको फॉलो करने की कोशिश की गई थीलेकिन इनका पालन बमुश्किल ही हो पाया था।
- परिणामस्वरूप, आदिवासी और वन-निवासी समुदाय, जो पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के साथ सामंजस्य बिठाते हुए जंगलों के भीतर रह रहे थे, वे जंगलों में असुरक्षित तरीके से रहते रहे और स्वतंत्रता के बाद भी वे हाशिये पर ही रहे, सरकारों का उनकी तरफ विशेष ध्यान गया नहीं।
- बाद में वन और वन-निवासी समुदायों के बीच सहजीवी सम्बंध को राष्ट्रीय वन नीति, 1988 में मान्यता मिली।
- एफ.आर.ए, 2006 को हमेशा से सामाजिक रूप से हाशियेपर रहे सामाजिक-आर्थिक वर्ग की सुरक्षा के लिये लागू किया गया था और उनके जीवन व आजीविका के अधिकार के साथ पर्यावरण के अधिकार को भी संतुलित किया गया।
राज्यपाल को क्या अधिकार है?
- राजभवन द्वारा जारी एक बयान के अनुसार, राज्यपाल ने संविधान की अनुसूची -5 के अनुच्छेद – 5 के उप-अनुच्छेद (1) के तहत अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए अधिसूचना जारी की है।
- राज्य में PESA के नियमों ने गाँवों के रूप में कई बस्तियों को मान्यता दी है, लेकिन घर बनाने के लिये भूमि देने का कोई प्रावधान नहीं है।
कदम का महत्त्व:
- इस निर्णय से राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारम्परिक वन-निवासी परिवारों को बड़ी राहत मिलने की सम्भावना है।
- शहरी क्षेत्रों में तथा ग्रामीण क्षेत्रों में (राजस्व भूमि पर) निवासियों को घर बनाने के लिये कानूनी ज़मीन मिलती है, लेकिन आदिवासी गाँवों (वन भूमि पर) के पास घरों के निर्माण के लिये कोई कानूनी स्थान उपलब्ध नहीं होता है।
- इस कदम का उद्देश्य उन्हें अपने मूल गाँवों के बाहर वन-निवासी परिवारों के प्रवास को रोकना है और उन्हें अपने पड़ोस में ही गाँव की भूमि को वन भूमि के रूप में विस्तारित करके आवास क्षेत्र प्रदान करना है।
प्रारम्भिक परीक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण तथ्य:
संविधान की पाँचवी अनुसूची:
- यह असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरमके अलावा किसी भी राज्य में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों के साथ-साथ अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और नियंत्रण से सम्बंधित है।
- संविधान के अनुच्छेद 244 (1) में, अनुसूचित क्षेत्रों का मतलब ऐसे क्षेत्रों से है, जिनके बारे में राष्ट्रपति अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने का आदेश देता है।
- भारतीय संविधान की 5वीं अनुसूची के अंतर्गत अनुच्छेद 244 (1) के पैराग्राफ 6(1) के अनुसार, ‘अनुसूचित क्षेत्र’ का अर्थ ऐसे क्षेत्रों से है, जिन्हें भारत के राष्ट्रपति अपने आदेश से अनुसूचित क्षेत्र घोषित कर सकते हैं।
- संविधान की अनुसूची 5 के पैराग्राफ 6/(2) के अनुसार राष्ट्रपति कभी भी किसी राज्य के राज्यपाल से सलाह लेने के बाद उस राज्य में किसी अनुसूचित क्षेत्र में वृद्धि का आदेश दे सकते हैं, किसी राज्य और राज्यों के सम्बंध में इस पैराग्राफ के अंतर्गत जारी आदेश व आदेशों को राज्य के राज्यपाल की सलाह से निरस्त कर सकते हैं एवं अनुसूचित क्षेत्रों को पुनः परिभाषित करने के लिये नया आदेश दे सकते हैं।
- अनुसूचित क्षेत्रों को पहली बार वर्ष 1950 में अधिसूचित किया गया था। बाद में वर्ष 1981 में राजस्थान राज्य के लिये अनुसूचित क्षेत्रों को निर्दिष्ट करते हुए संवैधानिक आदेश जारी किये गए थे।
अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने के लिये मानदंड:
पाँचवीं अनुसूची के तहत किसी भी क्षेत्र को “अनुसूचित क्षेत्र” के रूप में घोषित करने के लिये निम्नलिखित मानदंड होने चाहियें:
- जनजातीय आबादी की प्रधानता।
- क्षेत्र की सघनता और उचित आकार।
- एक व्यवहार्य प्रशासनिक इकाई जैसे-ज़िला, ब्लॉक या तालुका।
- पड़ोसी क्षेत्रों की तुलना में क्षेत्र का आर्थिक पिछड़ापन।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारत एवं इसके पड़ोसीसम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
विषय–समुद्र क्षेत्रीय रणनीति और भारत के लिये इसका निहितार्थ
पृष्ठभूमि
- स्वतंत्रता के बाद भारत नेएक ज़िम्मेदार देश के रूप में परम्परागत रूप से ‘युद्ध और शांति’ के लिये महाद्वीपीय दृष्टिकोण और रणनीति पर अधिक ध्यान दिया है। हालाँकि, वर्तमान में भारत की महाद्वीपीय रणनीति एक अस्तित्त्वगत संकट का सामना कर रही है।
महाद्वीपीय रणनीति की स्थिति
- भारत की महाद्वीपीय रणनीतियों की वर्तमान स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है।चीन न तो मौजूदा सीमा गतिरोध को समाप्त करने का इच्छुक लगता है और न ही भारत के साथ मार्च 2020 जैसी यथास्थिति बहाल करने पर विचार कर रहा है।
- पूर्वोत्तर में भारत–चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति अब अतीत की बात है। इस समय चीन ने अक्साई-चिन पर भारत के दावों कोकमज़ोर करने का प्रयास किया है और अब भारत, चीन के प्रादेशिक क्षेत्रीय दावों तथा उसके धीमे परंतु आक्रामक क्रियान्वयन का प्रतिवाद करने में ही लगा है।
- उत्तर–पश्चिम में पाकिस्तान सीमा पर भी गतिरोध में वृद्धि हो रही है। वर्ष 2019 में भारत द्वारा जम्मू और कश्मीर की स्थिति में बदलाव तथा पाकिस्तान द्वारा सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर को शामिल करते हुए कुछ महीने पूर्व जारी राजनीतिक मानचित्र से कश्मीर पर भारत-पाकिस्तान विवाद उग्र हो गया है।
- पाकिस्तान व चीन के बीच भू-राजनीतिक गठजोड़ भारत को रोकने एवं उस पर दबाव बनाने की रणनीति है, जो दोनों पक्षों के लिये समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि, यह गठजोड़ कोई नई घटना नहीं है परंतु वर्तमान में भारत के खिलाफ चीन-पाकिस्तान की रणनीति की तीव्रता अभूतपूर्व है।
अफगानिस्तान में बदलाव
- अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव में कमीआएगी।
- साथ ही अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी, जिसके साथ भारत का सम्पर्क बहुत सीमित है, भारत के विरुद्ध भू-राजनीति का रूख मोड़ सकता है, जो 1990 के दशक की शुरुआती स्थिति के समान है।
- हालाँकि, 1990 के दशक के विपरीत अफगानिस्तान में स्थितियाँ काफ़ी कुछ बदल गईं है और अब तालिबानबहिष्कृत या अछूत नहीं रहा है, अर्थात वार्ताओं आदि में वह एक महत्त्वपूर्ण पक्षकार बन गया है।
- साथ ही नाटो की वापसी के साथ पाकिस्तान, चीन और रूस के भू-राजनीतिक हित मोटे तौर पर इस क्षेत्र में व्यापक रूप से एकाग्र होंगे। अफगानिस्तान में भू-राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन और ईरान-भारत सम्बंधों में कुछ ठहराव भारत के‘मिशन सेंट्रल एशिया को और अधिक प्रभावित करेगा।
रणनीति में बदलाव की आवश्यकता
- भारत को दुविधा की स्थिति से निकलने के तरीकों की तलाश करनी चाहिये। ऐसा करने के लिये भारत को पहले तुलनात्मक रूप से आसान हिस्से,पाकिस्तान के मोर्चे पर निपटने की आवश्यकता होगी, जिससे पाकिस्तान के मोर्चे से दबाव को कम किया जा सकता है।
- पाकिस्तान के मोर्चे पर निपटने के लिये नियंत्रण रेखा पर सामान्य स्थिति बनाने हेतु सैन्य अभियान महानिदेशक (DGMO) हॉटलाइन जैसे मौजूदा तंत्रों को सक्रिय करनाभी एक तरीका हो सकता है।
- अब यह स्पष्ट हो गया है कि भारत द्वारा स्वतंत्रता के बाद महाद्वीपीय क्षेत्र पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित किया गया परंतु सुरक्षित सीमाओं,पड़ोसियों के साथ मज़बूत सम्बंध या स्थाई निरोध के संदर्भ में अभी तक कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम नहीं प्राप्त हो सका है।
- ऐसी स्थिति में भारत को अपने विस्तृत सामरिक दृष्टिकोण (Grand StrategicApproach) में बदलाव की आवश्यकता है, जिसके लिये भारत को अपने विशिष्ट फोकस को अधिकांशत: महाद्वीपीय क्षेत्र से समुद्री क्षेत्र की ओर स्थानांतरित करना चाहिये।
समुद्री रणनीति
- भारत ने अप्रैल 2019 में हिंद–प्रशांत क्षेत्र से सम्बंधित मुद्दों के लिये विदेश मंत्रालय (MEA) में एक नया प्रभाग स्थापित करने के साथ इस दिशा में स्पष्ट रूप से सोचना शुरू कर दिया है।
- इस दिशा में वैचारिक और व्यवहारिक दोनों ही स्तरों पर उभरती हुई वास्तविकताओं के साथ तालमेल रखने और नए अवसरों का उपयोग करने के लिये तेज़ी से कार्य करने की आवश्यकता है।
- समुद्री क्षेत्रीय रणनीति में भारत के लिये नए गठबंधनों का निर्माण करने, नियमों को स्थापित करनेऔर रणनीतिक अन्वेषण के अन्य रूपों को प्रारम्भ करने के लिये समुद्री क्षेत्र खुला हुआ है।
- भारत,‘हिंद-प्रशांत भू-राजनीतिक’ कल्पना के केंद्र में स्थित है क्योंकि हिंद महासागर का समुद्री क्षेत्र अफ्रीका के तट तकफैला हुआ है।
- पाकिस्तान और चीन के साथ भारत की स्थलीय सीमाओं में यूरो–अमेरिकी रुचि लगभग न के बराबर है और महाद्वीपीय व सीमाई विवाद में कोई देश भारत के लिये ज़्यादा सहायता नहीं कर सकता है।
- समुद्री क्षेत्र में स्थिति इसके ठीक विपरीत है। महान शक्तियाँ समुद्री क्षेत्र में अधिक रुचि रखती हैं और हिंद–प्रशांत अवधारणा के बाद इसमें काफी वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिये फ्रांस की तरह जर्मनी ने भी हाल ही में अपने हिंद–प्रशांत दिशा निर्देश ज़ारी किये हैं।
- दक्षिण चीन सागर में चीन का आक्रामक व्यवहार इस क्षेत्र में यूरो-अमेरिकी शक्तियों और ऑस्ट्रेलिया व जापान सहित क्षेत्र के अन्य देशों में चीनी एक पक्षवाद के विरुद्ध इच्छाशक्ति का एक बड़ा कारण है।
लाभ
- महाद्वीपीय क्षेत्र के विपरीत समुद्री क्षेत्र में बड़ी शक्तियों की बढ़ती रुचि, विशेष रूप से हिंद-प्रशांत में, का लाभ भारत व्यापक रूप से उठा सकता है।
- हिमालय में रणनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य प्रयासों की तुलना में समुद्री क्षेत्र चीन के लिये बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बड़े पैमाने पर चीनी व्यापार समुद्री मार्गों से होता है और समुद्री चोक पॉइंट्स के आसपास की जटिल भू-राजनीति सम्भावित रूप से इस व्यापार को बाधित कर सकती है।
- निश्चित रूप से यह रणनीति भारत को हिमालयी क्षेत्र में चीन के दबाव को कम करने के लिये अधिक विकल्प मुहैया कराएगी।
आगे की राह
- विदेश मंत्रालय द्वारा‘हिंद-प्रशांत विभाग’एक अच्छी शुरुआत है और इसी सम्बंध मेंवर्ष 2019 में भारत, जापान,अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच ‘क्वाड’ बैठकों को मंत्री स्तर तक ले जाने का निर्णय लिया गया है। इसको और मज़बूत करने की आवश्यकता है।
- भारत को वर्तमान और भविष्य की समुद्रिक चुनौतियों पर ध्यान देना, सैन्य तथा गैर-सैन्य उपकरणों को मज़बूत करना,रणनीतिक साझेदारों को शामिल करना और हिंद-प्रशांत पर एक व्यापक दृष्टिकोण दस्तावेज़ प्रकाशित करना चाहिये।
- इसके अलावा, भारत को हिंद–प्रशांत मामलों के लिये एक विशेष दूत नियुक्त करने पर भी विचार करना चाहिये।
निष्कर्ष
- महाद्वीपीय रणनीति शायद भारत के उत्तर-पूर्वी और उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में भू-राजनीतिक बढ़त में रुकावट है।निश्चित रूप सेभारत को इस स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता खोजने की ज़रूरत है।समाधान का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा अपनी महाद्वीपीय दुविधाओं से रचनात्मक रूप से निपटना है।इस गठजोड़ के पीछे की मंशा और विस्तार आने वाले समय में हिमालय में उच्चस्तरीय रणनीतिक व सामरिक दावके भविष्य का निर्धारण करेगी यह भारत को अपने प्रभाव को बढ़ाने और क्षेत्र में चीनी महत्त्वाकांक्षाओं को रोकने की सम्भावना का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है।
मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र : 2 , विषय – द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
विषय–आर्मीनिया–अज़रबैजान संघर्ष
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, नागोर्नो-काराबाख़ (Nagorno-Karabakh) क्षेत्र को लेकर आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच पुनः एक हिंसक संघर्ष शुरू हो गया है।
- ध्यातव्य है कि विगत चार दशकों से भी ज़्यादा समय से मध्य एशिया में आर्मीनिया और अज़रबैजान के बीच क्षेत्रीय विवाद और जातीय संघर्ष चल रहा है, जिससे इस क्षेत्र में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास अत्यधिक प्रभावित हुआ है।
- ईसाई बहुल आर्मीनिया और मुस्लिम बहुल अज़रबैजान ट्रांसकॉकेशिया या दक्षिण कॉकेशिया (जॉर्जिया और आर्मीनिया के पूर्वी यूरोप और पश्चिमी एशिया की सीमा पर दक्षिणी काकेशस पर्वत के आसपास के क्षेत्र में भौगोलिक क्षेत्र) का हिस्सा हैं।
प्रमुख बिंदु:
विवाद के कारण:
- नागोर्नो-काराबाख़ क्षेत्र में लगभग 95% आर्मीनियाई आबादी है और यह क्षेत्र कमोबेश उनके द्वारा ही नियंत्रित किया जाता है लेकिन इसे अंतर्राष्ट्रीय रूप से अज़रबैजान के प्रशासनिक और आधिकारिक क्षेत्र के रूप में मान्यता प्राप्त है।
- दोनों राष्ट्रों के नेताओं ने अपने निहित राजनीतिक हितों के लिये बार-बार इस मुद्दे को हवा दी है।
विवाद का इतिहास:
- वर्ष 1920: तत्कालीन सोवियत संघ द्वाराअज़रबैजान के भीतर आर्मीनियाई बहुल नागोर्नो-काराबाख़ स्वायत्त क्षेत्र की स्थापना की गई, लेकिन सोवियत शासन की वजह से उस समय संघर्ष की नौबत नहीं आई।
- वर्ष 1988:सोवियत शासन के कमज़ोर होने के साथ ही नागोर्नो-काराबाख़ क्षेत्र की विधायिका ने आर्मीनिया में शामिल होने का प्रस्ताव पारित किया।
- वर्ष 1991 में जनमत संग्रह के माध्यम से नागोर्नो-काराबाख़ क्षेत्र की विधायिका ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया।अज़रबैजान ने कभी भी इस फैसले को नहीं माना और तब से अनवरत दोनों देशों के बीच हिंसक झड़प शुरू हो गई और समय के साथ बढ़ती गई।
- वर्ष 1994 में रूस के द्वारा मध्यस्थता के बाद संघर्ष विराम पर सहमति बनने के बावजूद संघर्ष रुका नहीं।
- दोनों देशों के बीच वर्ष 2016 में हिंसक संघर्ष बहुत तेज़ हो गया था जिसे चार दिवसीय युद्ध (Four-Day War) के रूप में भी जाना जाता है।
- अज़रबैजान और आर्मीनियाई सैनिकों के बीच रुक-रुक कर हुए संघर्ष विराम उल्लंघन की वजह से पिछले एक दशक में सैकड़ों मौतें हुई हैं।
प्रभाव:
- अस्थिर क्षेत्र : क्षेत्र में उत्पन्न तनाव व दोनोंदेशों के बीच सैन्य संघर्ष, दक्षिण कॉकेशस क्षेत्र को पुनः अस्थिरकर सकता है तथा अस्थिरता और ज़्यादा हानिकारक हो सकती है,विशेषकर तब जन पहले से ही कोविड–19 महामारी का कहर क्षेत्र में फैला हुआ है।
- हताहत नागरिक: इस विवादित क्षेत्र में, सैकड़ों नागरिक बस्तियाँ हैं, जिनके निवासी सीधे प्रभावित होंगे और सम्भावित रूप से विस्थापित होंगे यदि दोनों देशों के बीच किसी भी प्रकार का युद्ध छिड़ता है।
- आर्थिक प्रभाव: यह तनाव क्षेत्र से होने वाले तेल और गैस के निर्यात को भी बाधित कर सकता है, क्योंकि अज़रबैजान, यूरोप और मध्य एशिया के लिये एक महत्त्वपूर्ण तेल और गैस निर्यातक देश है। इससे वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतें भी बढ़ सकती हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी: रूस के अर्मेनिया के साथ घनिष्ठ सम्बंध हैं, जबकि तुर्की और अमेरिका अज़रबैजान का समर्थन करते हैंऔर ईरान में भी एक बड़ी अज़ेरी अल्पसंख्यक आबादी रहती है, जो संकट को और बढ़ा व उलझा सकती है। किसी भी प्रकार की सैन्य चहलकदमी क्षेत्र में तुर्की व रूस जैसी क्षेत्रीय शक्तियों को संघर्ष में शामिल होने के लिये प्रेरित कर सकती है।
- रूस, इज़राइल और कई अन्य देश संयुक्त राष्ट्र द्वारा क्षेत्र में हथियारों के व्यापार पर रोक लगाए जाने के बावजूद इन दोनों देशों को शस्त्रों की आपूर्ति लगातार करा रहे हैं।
भारत पर प्रभाव:
- भारत– आर्मीनिया: हाल के वर्षों में, भारतीय–अर्मेनियाई द्विपक्षीय सहयोग में तेज़ी देखी गई है।
- भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति ने 2017 में येरेवन (आर्मीनिया) का दौरा किया।
- आर्मीनिया ने मार्च 2020 में भारत से SWATHI सैन्य रडार प्रणाली खरीदी थी।
- कई भारतीय छात्र आर्मीनियाई चिकित्सा विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं और हाल के वर्षों में आर्मीनिया में भारतीय श्रम प्रवासियों का अधिक प्रवाह देखा गया है।
- आर्मीनिया के लियेभारत के साथ घनिष्ठ सम्बंध इसलिये भी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत अज़रबैजान, पाकिस्तान और तुर्की के रणनीतिक अक्षके खिलाफ आर्मीनिया को एक संतुलन प्रदान कराता है।
- भारत–अज़रबैजान: भारत, ईरान, अफगानिस्तान, अजरबैजान, रूस, मध्य एशिया और यूरोप के बीच माल ढुलाई के लिये जहाज़, रेल और सड़क मार्ग के एक बहुविध नेटवर्क इंटरनेशनल नॉर्थ- साउथ ट्रांसपोर्ट रिडोर (INSTC) का हिस्सा है।
- अज़रबैजान,शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का एक संवाद भागीदार है, जिसका एक सदस्य भारत भी है।
- वर्ष 2018 में, तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री ने बाकू (अज़रबैजान) का दौरा किया था, जो कि अज़रबैजान में किसी भारतीय विदेश मंत्री की पहली द्विपक्षीय यात्रा थी।
- भारत का ONGC-Videsh. अज़ेरी-चिराग़-गुनाश्ली(Azeri-Chirag-Gunashli – ACG) तेल क्षेत्रों और बाकू-त्बिलिसी-सेहान (Baku-Tbilisi-Ceyhan) पाइपलाइन में एक निवेशक भी है।
- यद्यपि अज़रबैजान कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की स्थिति का समर्थन काराता है।
क्षेत्र में पाकिस्तान की भूमिका:
- भारत ने आर्मीनिया का समर्थन किया है, जबकि पाकिस्तान ने अज़रबैजान का समर्थन किया है। तुर्की के बाद अज़रबैजान की स्वतंत्रता को मान्यता देने वाला पाकिस्तान दूसरा देश था। इसके अलावा, पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश है जो आर्मीनिया को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं देता है और अज़रबैजान की स्थिति का पूरा समर्थन करता है।
चीन की भूमिका:
- विगत वर्षों में चीन कॉकेशियस क्षेत्र में तेज़ी से सक्रिय हुआ है एवं यहाँ कई कार्यक्रमों का संचालन करा रहा है और आर्मीनिया के साथ आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य समझौतों पर हस्ताक्षर कर रहा है। आर्मीनिया ने भी चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में भाग लेने के लिये अपनी सहमती प्रदान की है।
- हालाँकि, चीन आर्मीनिया के प्रतिद्वंदी अज़रबैजान का सहयोगी भी है और पाकिस्तान द्वारा अज़रबैजान के समर्थन किये जाने से भी आर्मीनिया अवगत है।
आगे की राह:
- दोनों देशों के बीच संघर्ष खतरनाक स्तर पर पहुँच गया है और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थों और आस पास के देशों को तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिये और आगे के किसी गतिरोध को रोकने के लिये वार्ता के राह की बात करनी चाहिये।
- दक्षिण कॉकेशस क्षेत्र में पाकिस्तान-चीन-तुर्की का बढ़ता प्रभाव भारत के लिये चिंता का विषय है। अतः यह महत्त्वपूर्ण है कि भारत दोनों देशों के साथ अपने सम्बंधों को मज़बूत रखने के प्रयास जारी रखते हुए अपने गुटनिरपेक्ष रुख को जारी रखे और क्षेत्र में शांति का आह्वान करे।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2: महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ और मंच–उनकी संरचना, अधिदेश; द्विपक्षीय, क्षेत्रीय व वैश्विक समूह तथा भारत से सम्बंधित अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार; भारत के हितों पर विकसित व विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
विषय–जी-4 विदेश मंत्रियों की बैठक
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में ग्रुप-4 या जी-4(G4) देशों –भारत,ब्राज़ील,जापान और जर्मनी के विदेश मंत्रियों ने एक आभासी बैठक में भाग लिया।
प्रमुख बिंदु :
- जी-4 देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद(United Nations Security Council – UNSC)की स्थाई सदस्यता की माँग कर रहे हैं।
- जी-4 ने एक संयुक्त वक्तव्य के द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा के 75वें सत्र के दौरान ठोस और समयबद्ध परिणामों की तलाश करने की बात की है।
- ध्यातव्य है कि 24 अक्तूबर,2020 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं।
- जी-4 विदेश मंत्रियों ने वर्ष 2005 के विश्व शिखर सम्मेलन में राज्य और सरकार के प्रमुखों द्वारा परिकल्पित सुरक्षा परिषद के प्रारंभिक और व्यापक सुधार की दिशा में निर्णायक कदम उठाने के अपने संकल्प को पुनः दोहराया।
- उल्लेखनीय है कि वर्ष 2005 का विश्व शिखर सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय न्यूयॉर्क में आयोजित किया गया था।
- इस शिखर सम्मलेन में सभी सरकारों ने वर्ष 2015 तक सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (Millennium Development Goals) को प्राप्त करने के लिये अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की थी।
- इस सम्मलेन द्वारा दो नए निकायों की स्थापना की गई थी,(1) युद्ध के माहौल से शांति की ओर बढ़ने में देशों की मदद करने के लिये शांति निर्माण आयोग और (2)एक मज़बूत मानवाधिकार परिषद।
UNSC सुधारों पर ग्रुप–4 के विचार:
- अफ्रीका का अधिक –से– अधिक प्रतिनिधित्त्व सुनिश्चित करना: ग्रुप-4 ने अफ्रीका को स्थाई और अस्थाई दोनों श्रेणियों में प्रतिनिधित्व दिये जाने की सलाह दी, ताकि यह महाद्वीप दोनों श्रेणियों में खुद को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा समुचित प्रतिनिधित्त्व न मिलने के अन्याय से उबरकर एक सशक्त स्थिति में पहुँच सके।
- विकासशील देशों और संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख योगदानकर्ताओं की बढ़ी भूमिका: ग्रुप-4 ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अधिक वैध, प्रभावी और प्रतिनिधित्त्व पूर्ण बनाने के लिये स्थाई (5 से 11) और गैर-स्थाई (10 से 14 तक) सीटों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है।
- स्थाई सीटों के बारे में समूह ने कहा कि इन सीटों को निम्न तरीकों से चुना जाना चाहिये: अफ्रीकी देशों में से दो; एशियाई देशों में से दो; लैटिन अमेरिकी और कैरेबियाई देशों में से एक;पश्चिमी यूरोपीय और अन्य देशों में से एक ।
- जबकि गैर-स्थाई सदस्यों के लिये सुझाई गई विधियाँ हैं :अफ्रीकी देशों में से एक;एशियाई देशों में में से एक; पूर्वी यूरोपीय देशों में से एक; लैटिन अमेरिकी और कैरेबियाई देशों में से एक।
- पहले से प्रस्तावित UNSC सुधारों का विरोध इसके पाँच स्थाई सदस्यों (P5) द्वारा किया गया था, क्योंकि इन सुधारों में नए सदस्यों के लिये भी वीटो की शक्ति (रिज़ाली प्लान – Rizali Plan) की माँग की गई थी। हालाँकि, बाद में नए देशों के लिये वीटो की शक्ति को वापस लेने का फैसला किया गया, जिसे पी-5 देशों (रिज़ाली रिफॉर्म प्लान) द्वारा स्वीकार कर लिया गया था।
- पाठ –आधारित वार्ता: ग्रुप-4 देशों ने सुधार चाहने वाले अन्य देशों और समूहों के साथ मिलकर पाठ– आधारित वार्ता (Text-Based Negotiations-TBN) शुरू करने की बात भी दोहराई।
- भारत संयुक्त राष्ट्र में TBN का एक प्रस्तावक देश है,जबकि सुरक्षा परिषद में किसी सुधार के विरोध में चीन सहित अन्य देश अंतर-सरकारी वार्ताओं (Inter-Governmental Negotiations–IGN) के लिये इस प्रकार की किसी पाठ-आधारित वार्ता करने से यह कहते हुए बच रहे हैं कि यह मामला बहुत संवेदनशील है।
- अंतर–सरकारी वार्ताओं पर चिंता: सुरक्षा परिषद में सुधारों से जुड़ी अंतर-सरकारी वार्ताओं (IGN) के दो सत्र फरवरी और मार्च 2020 में कोविड–19 के कारण स्थगित कर दिये गए थे,जिनका आयोजन किया जा सकता था।
- देशों ने चिंता व्यक्त की कि IGN में आवश्यक खुलेपन और पारदर्शिता का अभाव है और इसका कारण संयुक्त राष्ट्र की त्रुटिपूर्ण कार्य–विधियाँ हैं।
- अंतर-सरकारी वार्ताओं में आम अफ्रीकी स्थिति का एक प्रतिबिम्ब भी दिखना चाहिये, जैसा कि एज़ुल्विनी सहमति(Ezulwini Consensus) और सर्ट घोषणा (Sirte Declaration) में सुनिश्चित किया गया था।
प्रारंभिक परीक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण तथ्य:
- एज़ुल्विनी सहमति (Ezulwini Consensus): अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों और संयुक्त राष्ट्र में सुधार के लिये अफ्रीकी संघ ने एज़ुल्विनी सहमति (2005) पर हामी भरी थी। यह सहमति अधिक प्रतिनिधित्त्व वाली और लोकतांत्रिक सुरक्षा परिषद की बात करती है,जिसमें विश्व के अन्य भागों की तरह अफ्रीका को भी उसके हिस्से का प्रतिनिधित्त्व देने की बात की गई थी।
- सर्ट घोषणा (Sirte Declaration): सर्ट घोषणा (1999) अफ्रीकी संघ की स्थापना के लिये अपनाया गया संकल्प था।
जी–4 देश:
- जी-4 जापान, जर्मनी, भारत और ब्राज़ील देशों का एक समूह है। ये सभी देश सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिये एक-दूसरे का समर्थन करते हैं।
- इस समूह ने बहुपक्षवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता लगातार व्यक्त करते हुए सुरक्षा परिषद की संरचना में सुधार की माँग भी हमेशा उठाई है।
कॉफी क्लब या यू.एफ.सी. (Coffee Club or Uniting for Consensus- UFC)
- यह उन देशों का समूह है जो सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता में विस्तार और G-4 देशों की स्थाई सदस्यता के प्रयासों का विरोध करते हैं।
- इटली, पाकिस्तान, मेक्सिको, मिस्र, स्पेन, अर्जेंटीना और दक्षिण कोरिया जैसे 13 देश सक्रिय रूप से इस समूह में शामिल हैं।
- इस क्लब के देश अस्थाई सदस्यता के विस्तार की बात करते हैं और इन देशों की आशंका मूलतः व्यक्तिगत हितों पर अधिक टिकी हुई है। जैसे- पाकिस्तान भारत की स्थाई सदस्यता का विरोध करता है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (United Nations Security Council- UNSC):
- यह संयुक्त राष्ट्र की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है, जिसका गठन वर्ष 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान किया गया था । अमेरिका, ब्रिटेन, फ्राँस, रूस और चीन इसके पाँच स्थाई सदस्य हैं।
- सुरक्षा परिषद के सभी स्थाई सदस्यों के पास वीटो का अधिकार होता है। इन स्थाई सदस्य देशों के अतिरिक्त 10 अन्य देशों को दो वर्ष के लिये अस्थाई सदस्य के रूप में भी चुना जाता है।
- सुरक्षा परिषद के स्थाई और अस्थाई सदस्यों को एक-एक महीने के लिये बारी-बारी से सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष बनाया जाता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र: 3, विषय– स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से सम्बंधित सामाजिक क्षेत्रों/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से सम्बंधित विषय। गरीबी एवं भूख से सम्बंधित विषय। सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय।)
विषय–भारत में ऑनलाइन शिक्षा से जुड़ी समस्याएँ
- विगत कुछ माह से महामारी की वजह से पूरे देश में छात्र ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाई करने के लिये मजबूर हैं,लेकिन ऑनलाइन पढ़ाई के साथ कुछ समस्याएँ लगातार सामने आ रही हैं,जिनमें 3 प्रमुख निम्नलिखित हैं-
1) बढ़ती असमानताएँ:
- विपत्तियाँ चाहे प्राकृतिक हों या मानव निर्मित,उनका सबसे ज़्यादा असर वंचितों पर ही पड़ता है और कोविड इसका अपवाद नहीं है। कोविड-19 के दौरान हुए लॉकडाउन ने गरीबों के लिये उपलब्ध अवसरों को सबसे ज़्यादा और वृहत स्तर पर प्रभावित किया है।
- साथ ही जिन छात्रों के पास ऑनलाइन/डिजिटल शिक्षा तक पहुँच नहीं थी उनके लिये सरकार अगस्त से पहले तक इससे सम्बंधित किसी भी योजना को लॉन्च नहीं कर पाई।
- भारत में इंटरनेट की स्पीड भी एक बड़ी समस्या है। ऐसे में वीडियो के माध्यम से कक्षाएँ लेते समय इंटरनेट स्पीड का कम या ज़्यादा होना भी समस्या पैदा करता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की स्पीड और भी खराब स्थिति में है,क्योंकि यहाँ इंटरनेट के मूलभूत ढाँचे के साथ-साथ बिजली की भी समस्या बनी रहती है।
- इस प्रकार,डिजिटल इंडिया का यह स्वरूप पहले से भी अधिक असमान और विभाजक साबित हो सकता है।
- राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (National Statistical Organisation- NSO) की हाल की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में विभिन्न राज्यों,शहरों और गाँवों तथा विभिन्न आय समूहों में डिजिटल डिवाइड (Digital Divide) बहुत अधिक बढ़ गया है। इसके अलावा, देश के अधिकांश विद्यार्थियों के पास डिजिटल या ऑनलाइन संसाधन बहुत कम उपलब्ध हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (National Sample Survey) के वर्ष 2017-18 के आँकड़ों के अनुसार, केवल 42% शहरी और 15% ग्रामीण परिवारों के पास ही इंटरनेट की उपलब्धता थी।
- अगस्त,2020 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि कोविड–19 महामारी के आर्थिक परिणामों के प्रभावस्वरूप आगामी वर्ष(2021) लगभग 24 मिलियन बच्चों पर स्कूल वापस ना जा पाने का खतरा उत्पन्न हो गया है। इसके अतिरिक्त, इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि स्कूलों और शिक्षण संस्थानों के बंद होने की वजह से विश्व की तकरीबन 94% छात्र आबादी प्रभावित हुई है और निम्न तथा निम्न-मध्यम आय वाले देशों में यह संख्या लगभग 99% तक हो सकती है। महामारी ने शिक्षा प्रणाली में मौजूद असमानता को और अधिक बढ़ा दिया है।
2) शिक्षा की खराब गुणवत्ता:
- ऑनलाइन शिक्षा की गुणवत्ता पर पूरे देश में बहस छिड़ी हुई है,विशेषकर यह कि कितनी देर तक यह छात्रों को बांधे रह सकती है।
- मोबाइल फोन पर व्याख्यान सुनना और ब्लैक या व्हाइट बोर्ड से शिक्षक के लिखे हुए को कॉपी करना, दोनों में बहुत अंतर है। मानव शरीर भी सुनकर सीखने से ज़्यादा सजीव कक्षाओं के माध्यम से सीखने के लिये अधिक अभ्यस्त है।
- भारत में शिक्षक ऑनलाइन माध्यमों द्वारा बच्चों को शिक्षा देने के लिये पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं हैं।
- डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में‘तकनीकी समझ’भी एक बड़ी और विशेष समस्या है। यदि तकनीकी शिक्षा से जुड़े अध्यापकों और विद्यार्थियों को छोड़ दें तो बाकी लगभग सभी विषयों से जुड़े शिक्षकों और शिक्षार्थिंयों को अक्सर तकनीकी समस्या का सामना करना पड़ता है। प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर यह बहुत बड़ी समस्या है।
- चूँकि ऑनलाइन शिक्षण को रेगुलर कक्षाओं की तरह नहीं चलाया जा सकता है,अतः इससे लर्निंग आउटकम भी प्रभावित होता है।
3) ऑनलाइन शिक्षा पर अनुचित ज़ोर:
- ऐसा अनुमान है कि आई.टी. के माध्यम से प्रदान की जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता देश में स्कूली शिक्षा की पहले से ही अपर्याप्त व्यवस्था को और खराब कर देगी।
- यदि छात्र में आत्मानुशासन या अच्छा संगठनात्मक कौशल नहीं है तो छात्र इस माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने में पिछड़ सकते हैं।
- किसी शिक्षक और सहपाठी के बिना शिक्षा प्राप्त करना उन्हें अकेले होने का एहसास दे सकता है जो भविष्य में अवसाद का कारण बन सकता है।
- डिजिटल कक्षा में प्रैक्टिकल या प्रयोगशाला से जुड़ा कार्य करना मुश्किल होता है।
निष्कर्ष
- देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान स्कूल बंद रहने के बाद भी शिक्षण को सुचारु रख पाना ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव हो पाया है।
- इस उद्देश्य के लिये सरकार ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) और केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) के लिये कई तरह के दिशा-निर्देश जारी किये हैं और उनके द्वारा बहुत-सी योजनाओं के क्रियान्वयन की बात भी की है।
- चूँकि वर्तमान महामारी के दौर में ऑनलाइन शिक्षा ही एक आशा की किरण है, अतः सरकार को चाहिये कि वह ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देते हुए उपरोक्त समस्याओं/मुद्दों पर भी ध्यान दे।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : कृषि उत्पाद का भंडारण, परिवहन तथा विपणन, सम्बंधित विषय और बाधाएँ; किसानों की सहायता के लिये ई–प्रौद्योगिकी, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य से सम्बंधित विषय)
विषय–कृषि विधेयक और किसान आंदोलन
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में संसद द्वारा कृषकों और कृषि गतिविधियों से सम्बंधित तीन विधेयकों को पारित किया गया।
पृष्ठभूमि
- संसद द्वारा पारित‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक’, ‘कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक’ एवं ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक’ को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिल गई है। इन तीनों विधेयकों को 5 जून को अध्यादेशों के रूप में जारी किया गया था। इसके विरोध में प्रदर्शनकारियों की कोई एकीकृत माँग नहीं है, परंतु किसानों की मुख्य चिंता ‘व्यापार क्षेत्र’, ‘व्यापारी’, ‘विवाद समाधान’ और ‘बाज़ार शुल्क’ से सम्बंधित है।
विधेयक के मुख्य बिंदु :
- प्रथम विधेयक के अनुसार, किसी राज्य के ‘कृषि उपज मंडी समिति’ (APMC) अधिनियम या राज्य के किसी अन्य कानून के तहत कोई भी बाज़ार शुल्क, उपकर या लगान किसी भी किसान पर या इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग और लेनदेन पर नहीं लगाया जाएगा।
- दूसरे विधेयक में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात की गई है। यह निर्णय छोटे किसानों को ध्यान में रखते हुए लिया गया है। इसमें किसान किसी भी रोपण या फसली मौसम से पहले खरीदारों के साथ अनुबंध कर सकते हैं।
- ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक’ के अनुसार, असाधारण परिस्थितियों, जैसे- युद्ध और गम्भीर प्राकृतिक आपदाओं को छोड़कर खाद्य पदार्थों के स्टॉकहोल्डिंग या भंडारण की सीमा खत्म कर दी गई है। इस विधेयक के ज़रिये अनाज, दलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को अनिवार्य वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है, अर्थात अब इनका भंडारण किया जा सकेगा।
विधेयक के मुख्य प्रावधान :
1) कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक, 2020
- यह विधेयक किसानों को उनकी उपज के विक्रय की स्वतंत्रता प्रदान करते हुए राज्यों की अधिसूचित मंडियों के अतिरिक्त राज्य के भीतर एवं बाहर देश के किसी भी स्थान पर निर्बाध रूप से बेचने के लिये अवसर एवं व्यवस्थाएँ प्रदान करेगा। इसके तहत किसान एवं व्यापारी कृषि उपज मंडी के बाहर भी अन्य माध्यम से उत्पादों का सरलतापूर्वक क्रय–विक्रय कर सकेंगे।
- किसानों को उनके उत्पाद के लिये कोई उपकर नहीं देना होगा और उन्हें माल ढुलाई का खर्च भी वहन नहीं करना होगा।
- विधेयक किसानों को ई–ट्रेडिंग मंच उपलब्ध कराएगा, जिससे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से निर्बाध व्यापार सुनिश्चित किया जा सके।
- मंडियों के अतिरिक्त व्यापार क्षेत्र में फॉर्मगेट, कोल्ड स्टोरेज, वेयरहाउस, प्रसंस्करण इकाइयों पर भी व्यापार की स्वतंत्रता होगी।
- किसान खरीददार से सीधे जुड़ सकेंगे, जिससे बिचौलियों को मिलने वाले लाभ की बजाय किसानों को उनके उत्पाद का पूरा व उचित मूल्य मिल सके।
सम्बंधित शंकाएँ
- पहली शंका ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (MSP) पर अनाज की खरीद बंद हो जाने की है। हालाँकि, MSP पर पहले की तरह ही खरीद जारी रहेगी। आगामी रबी मौसम के लिये MSP भी घोषित की जा चुकी है।
- दूसरी शंका है कि यदि कृषक उपज को पंजीकृत ‘कृषि उत्पाद बाज़ार समिति’ (APMC) के बाहर बेचेंगे तो मंडियाँ समाप्त हो जाएँगी। हालाँकि, वहाँ पूर्ववत व्यापार होता रहेगा। इस व्यवस्था में किसानों को मंडी के साथ ही अन्य स्थानों पर अपनी उपज बेचने का विकल्प प्राप्त होगा।
- तीसरी शंका है कि कीमतें तय करने की कोई प्रणाली ना होने और निजी क्षेत्र की ज़्यादा हस्तक्षेप से समान कीमत तय करने में दिक्कत होगी। हालाँकि, सरकार का कहना है कि किसान देश में किसी भी बाज़ार या ऑनलाइन ट्रेडिंग से फसल बेच सकता है। कई विकल्पों से बेहतर कीमत मिलेगी। मंडियों में ई-नाम (e-NAM) ट्रेडिंग व्यवस्था भी जारी रहेगी। इलेक्ट्रॉनिक मंचों पर कृषि उत्पादों का व्यापार बढ़ेगा। इससे पारदर्शिता आएगी और समय की बचत होगी।
2) कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक, 2020
- कृषकों को व्यापारियों, कम्पनियों, प्रसंस्करण इकाइयों, निर्यातकों से सीधे जोड़ना और कृषि करार के माध्यम से बुवाई से पूर्व ही किसान को उसकी उपज का मूल्य निर्धारित करना।
- बुवाई से पूर्व किसान को मूल्य का आश्वासन और मूल्य वृद्धि होने पर न्यूनतम मूल्य के साथ अतिरिक्त लाभ।
- इस विधेयक की मदद से बाज़ार की अनिश्चितता का जोखिम किसानों से हटकर प्रायोजकों पर चला जाएगा। मूल्य पूर्व में ही तय हो जाने से बाज़ार में कीमतों में आने वाले उतार-चढ़ाव का प्रतिकूल प्रभाव किसान पर नहीं पड़ेगा।
- इससे किसानों की पहुँच अत्याधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी, कृषि उपकरण एवं उन्नत खाद बीज तक होगी।
- इससे विपणन की लागत कम होगी और किसानों की आय में वृद्धि सुनिश्चित होगी।
- किसी भी विवाद की स्थिति में उसका निपटारा 30 दिन के अंदर स्थानीय स्तर पर करने की व्यवस्था की गई है।
- कृषि क्षेत्र में शोध एवं नई तकनीकी को बढ़ावा देना।
सम्बंधित शंकाएँ
- पहली शंका है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसानों का पक्ष कमज़ोर होगा और वे कीमतों का निर्धारण नहीं कर पाएँगे। हालाँकि, किसान को अनुंबध में पूर्ण स्वतंत्रता रहेगी कि वह अपनी इच्छा के अनुरूप दाम तय कर उपज बेच सकेंगे । उन्हें अधिक–से–अधिक 3 दिन के भीतर भुगतान प्राप्त होगा।
- दूसरी शंका है कि प्रायोजक द्वारा परहेज करने के कारण छोटे किसान अनुबंध कृषि (कांट्रेक्ट फार्मिंग) कर पाने में असमर्थ हो सकते हैं। इसके लिये देश में 10 हज़ार कृषक उत्पादक समूह का गठन किया जा रहा है। यह समूह छोटे किसानों को जोड़कर उनकी फसल को बाज़ार में उचित लाभ दिलाने की दिशा में कार्य करेंगे।
आंदोलन की व्यापकता
- वर्तमान में यह आंदोलन काफी हद तक पंजाब व हरियाणा तक ही सीमित है। महाराष्ट्र में इसका स्वागत करते हुए इसको किसानों के लिये वित्तीय स्वतंत्रता की दिशा में पहला कदम बताया जा रहा है।
- पंजाब और हरियाणा में भी किसान समूहों द्वारा विरोध का कारण मुख्य रूप से पहला विधेयक है, जो राज्य सरकार द्वारा विनियमित कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) के बाहर भी फसलों की बिक्री और खरीद की अनुमति देता है।
- उनके पास सम्भवतः अन्य दो विधेयकों के विरोध का कोई वास्तविक मुद्दा नहीं है। सरकार का मानना है कि किसानों की अच्छी पैदावार होने के बावजूद कोल्ड स्टोरेज (शीत गृह) या निर्यात की सुविधाओं के अभाव में और आवश्यक वस्तु अधिनियम के चलते फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है।
विरोध का कारण
- इन विधेयकों के विरोध के दो मूल कारण हैं। इसमें किसानों का एक वर्ग ऐसा है, जो APMC के एकाधिकार को खत्म या कम करने को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी अनाज खरीद की मौजूदा प्रणाली को समाप्त करने के एक अग्रग्रामी कदम के रूप में देखता है।
- हालाँकि, विधेयक में MSP आधारित सरकारी खरीद को समाप्त करने या चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के संकेत के रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है। किसान नेताओं का मानना है कि नवीनतम सुधारों का असली उद्देश्य भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन पर शांता कुमार की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों को लागू करना है।
- वर्ष 2015 में प्रस्तुत इस रिपोर्ट में पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में भारतीय खाद्य निगम की सभी खरीद संचालन को राज्य सरकार की एजेंसियों को सौंपने को कहा गया था।
- दूसरा विरोध मंडियों में राज्य सरकारों और आढ़तियों (कमीशन एजेंट) का है। उन्हें MSP के ऊपर लगभग 2.5% कमीशन प्राप्त होता है। ये भुगतान पिछले वर्ष पंजाब और हरियाणा में 2,000 करोड़ रुपए से अधिक रहा है।
- इसके अतिरिक्त, राज्य APMC में उपज के मूल्यों के लेनदेन पर विभिन्न प्रकार की लेवी से भी पर्याप्त धन अर्जित करते हैं। पंजाब को मंडी शुल्क और ‘ग्रामीण विकास‘ उपकर से लगभग 3,500-3,600 करोड़ रु. वार्षिक राजस्व प्राप्त होता है।
सरकार का तर्क
- कृषि मंत्री के अनुसार, पहला विधेयक केवल APMC की भौतिक सीमाओं के बाहर ‘व्यापार क्षेत्रों’ पर लागू होता है। यह किसानों के लिये ‘अतिरिक्त विपणन चैनल’ के रूप में काम करेगा, साथ ही APMC अधिनियम भी जारी रहेगा।
- विनियमित मंडियों के बाहर उपज बेचने की स्वतंत्रता से किसानों को उचित कीमत प्राप्त होगी, साथ ही यह APMC के संचालन की दक्षता में सुधार को भी प्रेरित करेगा।
- APMC पहले की तरह मंडी शुल्क और अन्य शुल्क लगा सकती है ,परंतु ये शुल्क केवल उनके प्रमुख मार्केटिंग यार्ड या सब–यार्ड की भौतिक सीमा के भीतर होने वाले लेनदेन के सम्बंध में होंगे।
- कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के सम्बंध में चिंता है कि कॉरपोरेट या व्यापारी अपने अनुसार उर्वरक प्रयोग करने से ज़मीन बंजर भी हो सकती है, हालाँकि, इससे किसान को तय न्यूनतम मूल्य मिलेगा। कॉन्ट्रैक्ट किसान की फसल और अवसंरचना तक ही सीमित रहेगा और किसान की भूमि पर कोई नियंत्रण नहीं होगा। विवाद की स्थिति में ए.डी.एम. 30 दिन में फैसला देगा।
उद्देश्य व लाभ
- इन विधेयकों का मूल उद्देश्य एक देश, एक कृषि बाज़ार की अवधारणा को बढ़ावा देना और APMC बाज़ारों की सीमाओं से बाहर किसानों को कारोबार के साथ ही अवसर मुहैया कराना है, जिससे किसानों को फसल की अच्छी कीमत मिल सके।
- सरकार का कहना है कि ये सुधार किसानों को शोषण के भय के बिना समानता के आधार पर प्रोसेसर्स, एग्रीगेटर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम बनाएँगे।
- इनसे किसानों पर बाज़ार की अनिश्चितता का जोखिम नहीं रहेगा। साथ ही किसानों की आधुनिक तकनीक और बेहतर इनपुट्स तक पहुँच भी सुनिश्चित होगी, जिससे किसानों की आय में सुधार होगा।
- सरकार के अनुसार ये विधेयक किसानों की उपज की वैश्विक बाजारों में आपूर्ति के लिये ज़रूरी आपूर्ति चैन तैयार करने हेतु निजी क्षेत्र से निवेश आकर्षित करने में एक उत्प्रेरक के रूप में काम करेंगे।
- किसानों की उच्च मूल्य वाली कृषि के लिये तकनीक और परामर्श तक पहुँच सुनिश्चित होगी, साथ ही उन्हें ऐसी फसलों के लिये तैयार बाज़ार भी मिलेगा।
- बिचौलियों की भूमिका खत्म होगी और किसानों को अपनी फसल का बेहतर मूल्य मिलेगा। हालाँकि, किसान नेताओं का कहना है कि अनुबंध में समय-सीमा तो बताई गई है, परंतु न्यूनतम समर्थन मूल्य का जिक्र नहीं किया गया है।
- इन प्रावधानों से लेन–देन की लागत कम होगी और किसानों तथा व्यापारियों दोनों को लाभ होगा।
निष्कर्ष
नए कानून से कुछ बड़े किसानों और जमाखोरों को ज़्यादा लाभ होने की उम्मीद है, जबकि सरकार के अनुसार ये प्रावधान किसान, उपभोक्ता और व्यापारी सभी के लिये फायदेमंद होंगे। केंद्र मॉडल APMC अधिनियम, 2002-03 को लागू करने के लिये राज्यों को भी राजी कर रहा था, परंतु राज्यों ने इसे पूरी तरह से नहीं अपनाया, अत: केंद्र को यह रास्ता अपनाना पड़ा। लगभग सभी कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री कृषि क्षेत्र में इन सुधारों के पक्ष में थे।
- संसद द्वारा पारित तीनों विधेयक : कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक’, ‘कृषक (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक’ एवं ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक’ हैं।
- अब किसान किसी भी रोपण या फसली मौसम से पहले खरीदारों के साथ अनुबंध कर सकते हैं। किसी भी विवाद की स्थिति में उसका निपटारा 30 दिन के अंदर स्थानीय स्तर पर करने की व्यवस्था की गई है।
- किसान को अनुंबध में पूर्ण स्वतंत्रता रहेगी और उन्हें अधिक-से-अधिक 3 दिन के भीतर भुगतान प्राप्त होगा।
- छोटे किसान को अनुबंध कृषि (कांट्रेक्ट फार्मिंग) में सहायता के लिये देश में 10 हज़ार कृषक उत्पादक समूह का गठन किया जा रहा है।
- असाधारण परिस्थितियों, जैसे- युद्ध और गम्भीर प्राकृतिक आपदाओं को छोड़कर खाद्य पदार्थों के स्टॉकहोल्डिंग या भंडारण की सीमा खत्म कर दी गई है।
- किसानों को राज्यों की अधिसूचित मंडियों के अतिरिक्त राज्य के भीतर एवं बाहर देश के किसी भी स्थान पर निर्बाध रूप से उपज के विक्रय की स्वतंत्रता।
- किसानों को उनके उत्पाद के लिये कोई उपकर नहीं देना होगा और उन्हें माल ढुलाई का खर्च भी वहन नहीं करना होगा।
- विधेयक किसानों को ई-ट्रेडिंग मंच उपलब्ध कराएगा, जिससे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से निर्बाध व्यापार सुनिश्चित किया जा सके।
- भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन पर वर्ष 2015 में प्रस्तुत शांता कुमार की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों में पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में भारतीय खाद्य निगम की सभी खरीद संचालन को राज्य सरकार की एजेंसियों को सौंपने को कहा गया था।
GS-3 Mains
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : पर्यावरण व कृषि)
विषय–बायो–डीकम्पोजर तकनीक
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, वैज्ञानिकों द्वारा फसल अवशिष्ट और पराली को खाद/कम्पोस्ट में परिवर्तित करने हेतु बायो-डीकम्पोजर तकनीक का विकास किया गया है। इसका नाम ‘पूसा डीकम्पोजर’ रखा गया है।
पूसा डीकम्पोजर (PUSA Decomposer)
- § पूसा डीकम्पोजर कैप्सूल के रूप में होता है, जो कवक स्ट्रेन से बने होते हैं। इन कैप्सूलों को पहले से तैयार इनपुट का प्रयोग करके तरल सामग्री का निर्माण किया जाता है। इस तरल को 8-10 दिनों के किण्वन के बाद फसल के अवशेष पर छिडकाव किया जाता है, जो धान के पुआल आदि के सामान्य से तीव्र गति से जैव अपघटन व सड़ने में सहायक होते हैं।
- इसमें प्रयुक्त कवक जैव-निम्नीकरण की प्रक्रिया के लिये आवश्यक एंजाइमों का उत्पादन करते हैं।
- पूसा डीकम्पोजर के 4 कैप्सूल को गुड़ और काबुली चने (Chickpea) के आटे के साथ मिलाकर 25 लीटर तरल मिश्रण तैयार किया जा सकता हैं। यह मिश्रण 1 हेक्टेयर भूमि के लिये पर्याप्त है।
पराली और कानूनी प्रावधान
- वर्ष 2013 में पंजाब सरकार ने पराली को जलाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। वर्ष 2015 में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में पराली जलाने को प्रतिबंधित कर दिया था। पराली की समस्या से निपटने हेतु हैप्पी सीडर्स और रोटावेटर के माध्यम से किसानों को सहायता करने का भी निर्देश दिया था।
- भारतीय दंड संहिता की धारा 188 और वायु (प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत यह एक अपराध है।
- हाल ही में, केंद्र सरकार द्वारा वायु गुणवत्ता प्रबंधन हेतु एक स्थाई आयोग गठित करने के लिये अध्यादेश भी लाया गया है।
लाभ
- सामान्य परिस्थितियों में धान के पुआल के जैव-निम्नीकरण में लगभग 45 दिन का समय लग जाता है, जबकि पूसा डीकम्पोजर से यह प्रक्रिया लगभग 20 दिन में पूर्ण हो जाती हैं। इससे गेहूं की फसल के लिये खेत की तैयारी हेतु पर्याप्त समय मिल जाता है।
- डीकम्पोजर मृदा की उर्वरता और उत्पादकता में वृद्धि करता है क्योंकि पुआल जैविक खाद के रूप में कार्य करता है। साथ ही, इससे उर्वरक की खपत भी कम हो जाती है।
- पराली को जलाने से पर्यावरण को क्षति पहुँचती है तथा मृदा की उर्वरता में भी कमी आती है और उपयोगी बैक्टीरिया व कवक भी नष्ट हो जाते हैं।
- पराली के जलाने पर अंकुश लगाने के लिये यह एक कुशल, प्रभावी, सस्ती, व्यावहारिक और पर्यावरण के अनुकूल तकनीक है, जिससे वायु प्रदूषण में कमी आएगी।
- अंतर्राष्ट्रीय मक्का और गेहूं उन्नयन केंद्र के एक अध्ययन के अनुसार, हैप्पी सीडर्स और सुपर एस.एम.एस. मशीनों के प्रयोग से कृषि उत्पादकता में 10% से 15% तक वृद्धि हो सकती है। साथ ही, इससे श्रम लागत को कम करने और मृदा को अधिक उपजाऊ बनाने में सहायता मिलती है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : कृषि उत्पाद का भंडारण, परिवहन तथा विपणन, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता)
विषय–जूट सामग्री से होने वाली पैकिंग की अनिवार्यता सम्बंधी नियमों में विस्तार
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समितिने शत-प्रतिशत खाद्यान्नों और 20% चीनी को अनिवार्य रूप से विविध प्रकार के जूट के बोरों में पैक किये जाने को मंजूरी प्रदान की है।
प्रमुख बिंदु
- मंजूरी द्वारा इस बात को भी अनिवार्य कर दिया गया है कि खाद्यान्नों की पैकिंग के लिये प्रारम्भ में 10% जूट के बोरों की खरीद जी.ई.एम. पोर्टल (Government e-Marketplace : Gem Portal) पर ‘रिवर्स ऑक्शन’ द्वारा होगी। इससे धीरे-धीरे इनकी कीमतों में वृद्धि होगी।
- ‘रिवर्स ऑक्शन’ एक ऐसी नीलामी प्रक्रिया है, जिसमें खरीदार (क्रेता) और विक्रेता की पारम्परिक भूमिकाएँ उलट जाती हैं अर्थात् रिवर्स ऑक्शन में विभिन्न विक्रेता उन कीमतों को प्राप्त करने के लिये बोली लगाते हैं, जिन पर वे अपना माल और सेवाएँ बेचना चाहते हैं। इस प्रकार, इस प्रक्रिया में एक खरीदार और कई सम्भावित विक्रेता हो सकते हैं। रिवर्स ऑक्शन को गिरते मूल्य की नीलामी प्रक्रिया भी कहते हैं। सरकारी अनुबंधों के लिये बोली लगाना रिवर्स नीलामी का एक उदाहरण है।
- सरकार ने जूट पैकिंग सामग्री अधिनियम, 1987 के तहत अनिवार्य रूप से पैकिंग किये जाने के इस मानक को विस्तारित कर दिया है।
- जूट पैकिंग सामग्री की आपूर्ति में किसी कमी या व्यवधान होने पर या किसी तरह की कोई प्रतिकूल स्थिति पैदा होने पर कपड़ा मंत्रालय अन्य सम्बद्ध मंत्रालयों के साथ मिलकर उपबंधों में छूट दे सकता है और खाद्यान्नों की अधिकतम 30% पैकिंग किये जाने का निर्णय ले सकता है।
जूट क्षेत्र में अन्य प्रकार की सहायता
- सरकार ने कच्चे जूट की उत्पादकता और गुणवत्ता में सुधार लाने के लिये एक विशेष कार्यक्रम जूट आई.सी.ए.आर.ई. (Jute ICARE) को डिज़ाइन किया है, जिसके अंतर्गत सरकार विभिन्न माध्यमों से लगभग दो लाख जूट किसानों की मदद कर रही है।
- इसमें पंक्तियों में बीजों की बुवाई, व्हील-होइंग (Wheel-Hoeing) व नेल-वीडर्स (Nail-Weeders) का प्रयोग करके खरपतवार प्रबंधन और गुणवत्ता युक्त प्रमाणित बीजों का वितरण करने के साथ-साथ सूक्ष्म जीवों की मदद से कच्चे जूट को सड़ाने की प्रक्रिया शामिल है।
- हाल ही में, भारत जूट निगम ने वाणिज्यिक आधार पर 10,000 क्विंटल प्रमाणित बीजों के वितरण हेतु राष्ट्रीय बीज निगम के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये हैं।
- जूट सेक्टर में विविधीकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से राष्ट्रीय जूट बोर्ड ने राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान के साथ एक समझौता किया है और इसी के अनुरूप गांधीनगर में एक जूट डिज़ाइन प्रकोष्ठ खोला गया है।
- साथ ही, पूर्वोत्तर सहित विभिन्न राज्य सरकारों में जूट जियो टेक्सटाइल्स और एग्रो टेक्सटाइल्स को बढ़ावा दिया गया है।
- जूट सेक्टर में मांग को बढ़ावा देने के लिये बांग्लादेश और नेपाल से जूट की वस्तुओं के आयात पर 5 जनवरी, 2017 से एंटी-डम्पिंग ड्यूटी लगाई गई है।
- इसके अलावा, भारत जूट निगम न्यूनतम समर्थन मूल्य और वाणिज्यिक संचालनों के द्वारा जूट की ऑनलाइन खरीद हेतु जूट किसानों को 100% धनराशि हस्तांतरित कर रहा है।
लाभ
- चीनी को विविध प्रकार के जूट के बोरों में पैक किये जाने के निर्णय से जूट उद्योग को काफी बल मिलेगा। इस प्रयास से देश के पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों जैसे- पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, असम, आंध्र प्रदेश, मेघालय व त्रिपुरा के किसानों व श्रमिकों को लाभ प्राप्त होगा।
- जूट पैकजिंग सामग्री (पैकिंग सामग्री में अनिवार्य उपयोग) अधिनियम, 1987, (वाद में जे.पी.एम. अधिनियम) के तहत कुछ विशेष सामग्रियों की पैकिंग के लिये जूट के अनिवार्य प्रयोग की बात कही गई है और मौजूदा प्रस्ताव से इस क्षेत्र में कार्यरत लोगों के कल्याण को बढ़ावा मिलेगा। इससे देश को आत्मनिर्भर बनाने में मदद मिलेगी।
- जूट उद्योग मुख्यत: सरकारी क्षेत्र पर निर्भर है और प्रतिवर्ष खाद्यान्नों की पैकिंग के लिये सरकार 7500 करोड़ रुपये से अधिक कीमत के जूट के बोरों की खरीद करती है। यह जूट क्षेत्र में मांग को बनाए रखने और इस क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों व किसानों की आजीविका को सहारा देने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- जूट सेक्टर पर लगभग 3.7 लाख श्रमिक और कई लाख किसान परिवारों की आजीविका निर्भर है और इसके लिये संगठित प्रयास के रूप में कच्चे जूट के उत्पादन व मात्रा को बढ़ाना, जूट सेक्टर का विविधीकरण करना तथा जूट उत्पादों की सतत् मांग को बढ़ावा देना आदि शामिल है।
- तकनीकी उन्नयन और प्रमाणित बीजों के वितरण से जूट फसलों की गुणवत्ता व उत्पादकता में बढ़ोतरी होगी, जिससे किसानों की आय में वृद्धि होगी।
- सरकार ने शत-प्रतिशत खाद्यान्नों और 20% चीनी को अनिवार्य रूप से विविध प्रकार के जूट के बोरों में पैक किये जाने को मंजूरी दी है। जूट उद्योग मुख्यत: सरकारी क्षेत्र पर निर्भर है।
- रिवर्स ऑक्शन को गिरते मूल्य की नीलामी प्रक्रिया भी कहते है। सरकारी अनुबंधों के लिये बोली लगाना रिवर्स नीलामी का एक उदाहरण है।
- जूट सेक्टर में मांग को बढ़ावा देने के लिये बांग्लादेश और नेपाल से जूट वस्तुओं के आयात पर 5 जनवरी, 2017 से एंटी-डम्पिंग ड्यूटी लगाई गई है और गांधीनगर में एक जूट डिज़ाइन प्रकोष्ठ खोला गया है।
विषय-5G तकनीक और भारत की कूटनीतिक बाधाएँ
संदर्भ
- 5G मोबाइल नेटवर्क की पाँचवी पीढ़ी (Fifth Generation) है जिसमें 4G की तुलना में कई गुना अधिक स्पीड प्राप्त होगी। इस नेटवर्क से कुछ ही सेकंडों में एच.डी. तथा उच्च स्तरीय डाटा डाउनलोड किया जा सकता है। गुरुग्राम (भारत) में वर्ष 2018 में चीनी कम्पनी हुआवेई द्वारा 5G का परीक्षण किया गया था, इस परीक्षण के दौरान कई क्षेत्रों में कार्य करने की ज़रूरत महसूस की गई जैसे- 5G के लिये अधिक बेंडविड्थ की आवश्यकता, भारत में 4G की स्पीड निर्धारित मानकों से कम तथा अन्य प्रौद्योगिकी आधारभूत संरचना का अभाव आदि।
5G तकनीक का महत्त्व
- 5G तकनीक भारत के ई-गवर्नेंस के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है जिससे नागरिक केंद्रित सेवाओं की उपलब्धता सुगम हो जाएगी।
- भारत में अभी भी साइबर, डाटा और सर्वर की सुरक्षा हेतु मज़बूत कानूनी और संस्थागत प्रक्रिया का अभाव है, जिसके लिये तकनीकी अवसंरचनात्मक विकास की आवश्यकता है।
- वर्तमान में भारत की कई टेलिकॉम कम्पनियाँ वैश्विक स्तरीय सुविधाएँ प्रदान कर रही हैं लेकिन 5G तकनीक को लेकर भारत का निर्णय इन कम्पनियों का भविष्य निर्धारित करेगा।
भारत की कूटनीतिक बाधाएँ
- 5G नेटवर्क वायरलेस तकनीक में एक नवाचार है। 5G क्षेत्र में चीन की टेलिकॉम कम्पनी हुआवेई का 5G बाज़ार में आधिपत्य है। वर्तमान में यह 5G की सबसे बड़ी उत्पादक और आपूर्तिकर्ता कम्पनी है। लेकिन कम्पनी के सम्बंध में भारत की निम्नलिखित चिंताएँ हैं –
- चीन की सरकार के साथ कम्पनी के अस्पष्ट मालिकाना सम्बंध।
- कम्पनी के उपकरणों द्वारा जासूसी और निगरानी करना।
- अन्य कानून उल्लंघन सम्बंधी मामले।
- चीन का पक्ष है कि अगर चीनी कम्पनियों पर पाबंदी लगाई जाती है तो वह जवाबी कार्यवाही के रूप में आर्थिक प्रतिबंध का रास्ता अपना सकता है। इसलिये भारत को 5G तकनीक और इससे सम्बंधित उपकरण हासिल करने हेतु अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देनी चाहिये।
- चीन तथा अमेरिका के मध्य बढ़ता व्यापार और प्रौद्योगिकी युद्ध भारत के लिये भी एक सामरिक चिंता का विषय है।
- मामल्लपुरम वार्ता से चीन तथा भारत के सम्बंधों में एक सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिला था लेकिन चीन द्वारा कोविड-19 वायरस को छिपाए जाने से भारत सहित पूरे विश्व का चीन के प्रति अविश्वास उत्पन्न हुआ है।
- गलवान घाटी संघर्ष के कारण भी दोनों देशों के सम्बंध तनावपूर्ण हुए हैं।
आगे की राह
- वर्तमान में भारत 90% से भी अधिक टेलिकॉम उपकरणों का आयात करता है जो कि भारत की आर्थिक तथा राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील है। अतः भारत को टेलिकॉम उपकरणों के विनिर्माण में आत्मनिर्भरता तथा आयात प्रतिस्थापन की नीति पर तीव्रता से कार्य करना चाहिये।
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2013 के एडवर्ड स्नोडेन मामले (इंटरनेट तथा इंटरनेट उपकरणों के ज़रिये व्यापक निगरानी कार्यक्रम) में कई देशों की संस्थाओं तथा नागरिकों की व्यक्तिगत तथा पेशेवर जानकारी को हासिल किया गया था।
- अगर भारत 5G तकनीक की आपूर्ति हेतु चीनी कम्पनी को प्रवेश देता है तो भारत-अमेरिका द्विपक्षीय सम्बंधों पर नकारात्मक असर पड़ेगा दूसरी तरफ भारत चीनी कम्पनी को प्रतिबंधित करता है तो आधुनिक तकनीक तथा विकास प्रक्रिया में पिछड़ने के साथ ही पड़ोसी सम्बंध और तनावपूर्ण हो सकते हैं।
निष्कर्ष
भारत को अपने राष्ट्रीय तथा सामरिक हितों के अनुसार ही अपना पक्ष निर्धारित करना होगा क्योंकि एक विकासशील देश होने के कारण हमारे पास 5G जैसी आधुनिक और महंगी तकनीक अपनाने हेतु सीमित संसाधन हैं।
वैश्विक दूसंचार उद्योग संघ (जी.एस.एम.ए.) के अनुसार भारत में वर्ष 2025 तक लगभग 7 करोड़ 5G कनेक्शन होंगे।
जी.एस.एम.ए.-
यह एक उद्योग संगठन है जो मोबाइल नेटवर्क संचालकों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है। वर्तमान में 750 से अधिक मोबाइल ऑपरेटर जी.एस.एम.ए. के सदस्य हैं। इसका मुख्यालय लंदन (ब्रिटेन) में स्थित है।
सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सी.ओ.ए.आई.) –
यह भारत में मोबाइल सेवा प्रदाताओं, दूरसंचार उपकरणों, इंटरनेट सेवा प्रदाताओं तथा अन्य प्रौद्योगिकी कम्पनियों का एक उद्योग संघ है। इसका गठन वर्ष 1995 में एक गैर-सरकारी सोसाइटी के रूप में किया गया था।
मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र : 3, विषय – संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण)
विषय–एन.टी.पी.सी.की नई हरित पहल
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े उपक्रम एन.टी.पी.सी. लिमिटेड नेजापान बैंक फॉर इंटरनेशनल को–ओपरेशन (JBIC) के ग्लोबल एक्शन फोर रिसाइक्लिंग इकोनॉमिक ग्रोथ एंड एन्वॉयरनमेंट प्रोटेक्शन (GREEN) पहल के तहत जे.बी.आई.सी. के साथ विदेशी मुद्रा ऋण समझौता किया है।
मुख्य बिंदु
- समझौते के तहत भारत की सबसे बड़ी विद्युत उत्पादक कम्पनी एन.टी.पी.सी. को 50 अरब जापानी येन (लगभग 48.2 करोड़ डॉलर या 3,582 करोड़ रुपए) का ऋण प्रदान किया जाएगा।
- समझौते के प्रावधानों के तहत जे.बी.आई.सी. सुविधा राशि का 60% हिस्सा प्रदान करेगा और बाकी हिस्सा जापान के अन्य वाणिज्यिक बैंक (जैसे सुमितोमो मित्सुई बैंकिंग कॉर्पोरेशन, बैंक ऑफ़ योकोहामा लिमिटेड, द सैन-इन गोडो बैंक लिमिटेड, द जोयो बैंक लिमिटेड और द नांटो बैंक लिमिटेड) उपलब्ध कराएंगे।
- ये बैंक यह राशि जे.बी.आई.सी. की गारंटी के तहत प्रदान करेंगे।
- एन.टी.पी.सी. लिमिटेड इस ऋण आय का उपयोग अपने फ़्लू गैस डिसल्फराइज़ेशन (Flue Gas Desulphurization – FGD) और अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं में आने वाले पूँजीगत व्यय के वित्तपोषण के लिये करेगा।
- एन.टी.पी.सी. लिमिटेड विद्युत मंत्रालय के अधीनस्थ एक सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है।
फ़्लू गैस डिसल्फराइज़ेशन
- फ़्लू गैस डिसल्फराइज़ेशन (FGD) जीवाश्म-ईंधन आधारित ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाली फ़्लू गैसों (दहन के फलस्वरूप चिमनी से निकलने वाली गैसों का मिश्रण) से साथ ही अन्य दहन आदि प्रक्रियाओं से उत्सर्जित सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) को पृथक करने की एक विशेष तकनीक है। अतः यह पर्यावरणीय स्थिरता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- इस तकनीक में जीवाश्म-ईंधनों पर आधारित ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाली फ़्लू गैस में उपस्थित SO2 को एक प्रकार की अवशोषण प्रक्रिया (Absorption Process) के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है। FGD प्रणाली में आर्द्र स्क्रबिंग (Wet Scrubbing) या ड्राई स्क्रबिंग (Dry Scrubbing ) प्रक्रियाएँ भी शामिल होती हैं।
- आर्द्र FGD प्रक्रिया में फ़्लू गैसों को एक अवशोषक के सम्पर्क में लाया जाता है, जो एक तरल या ठोस सामग्री का घोल होता है। सामान्य अभिक्रिया स्वरुप SO2 इस अवशोषक में घुल जाती है और अलग कर ली जाती है।
- ड्राई FGD प्रणाली में अवशोषक के रूप में चूना पत्थर या लाइमस्टोन का प्रयोग किया जाता है।
आर्द्र FGD प्रणाली के द्वारा प्रदूषण कम करने के अलावा उत्पाद के रूप में जिप्सम भी प्राप्त होता है, जो लगभग 90% शुद्ध होता है। आर्द्र FGD प्रक्रिया में प्राप्त सल्फ़र डाई ऑक्साइड (SO2) के कैल्शियम से अभिक्रिया के बाद जिप्सम (CaSo4 . 2H2O) का निर्माण होता है।
जापान बैंक फॉर इंटरनेशनल को–ऑपरेशन
जापान बैंक फ़ॉर इंटरनेशनल को-ऑपरेशन, जापान का एक प्रमुख सार्वजनिक वित्तीय संस्थान है, जो मुख्यतः एक निर्यात ऋण एजेंसी के रूप में कार्य करता है। जिसकी स्थापना 1 अक्तूबर 1999 को जापान के एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट बैंक (JEXIM) और ओवरसीज़ इकॉनोमिक को-ऑपरेशन फंड (OECF) के विलय के द्वारा की गई थी। इसका मुख्यालय टोक्यो में है।
निर्यात ऋण एजेंसियाँ
निर्यात ऋण एजेंसियाँ या निवेश बीमा एजेंसियाँ मुख्यतः निजी या अर्ध सरकारी संस्थाएँ होती हैं, जो सरकारों और निर्यातकों के बीच एक मध्यस्थ के रूप में कार्य करती हैं। ये एजेंसियाँ निर्यात बीमा क्षेत्र से जुड़े समाधान जारी करती हैं और वित्तपोषण के लिये गारंटी देती हैं।
(मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र – 3 : समावेशी विकास)
विषय–विद्युत तक पहुँच एवं उपयोगिता मानक रिपोर्ट
चर्चा में क्यों?
- नीति आयोग, विद्युत मंत्रालय, रॉकफेलर फाउंडेशन तथा स्मार्ट पॉवर इंडिया द्वारा ‘विद्युत तक पहुँच एवं उपयोगिता मानक रिपोर्ट’ (Electricity Access in India and Benchmarking Distribution Utilities Report) जारी की गई है।
- इस रिपोर्ट में बेहतर प्रदर्शन करने वाली डिस्कॉम (विद्युत वितरण कम्पनियाँ) द्वारा अपनाई गई उत्कृष्ट विधियों का उल्लेख किया गया है। साथ ही, सतत् विद्युत की पहुँच में वृद्धि हेतु महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिये गए हैं।
रिपोर्ट का आधार
- यह रिपोर्ट 10 राज्यों में किये गए प्राथमिक सर्वेक्षण पर आधारित है। इस सर्वेक्षण में भारत की 65% ग्रामीण आबाद का प्रतिनिधित्व किया गया है जिसमें घर, वाणिज्यिक उद्यम तथा अन्य संस्थानों के 25,000 से भी अधिक नमूनों को शामिल किया गया है।
- रिपोर्ट में 25 वितरण उपयोगिताओं (विद्युत आपूर्ति पक्ष) का आकलन किया गया है।
रिपोर्ट के उद्देश्य
- सम्पूर्ण देश में विद्युत की सार्थक पहुँच की स्थिति का मूल्यांकन करना।
- सतत् विद्युत पहुँच में वृद्धि हेतु सिफारिशें तैयार करना।
रिपोर्ट के निष्कर्ष
- 92% से अधिक लोगों ने अपने घर के आस-पास (50 मीटर के दायरे में) की विद्युत के बुनियादी ढाँचे की स्थिति की सम्पूर्ण जानकारी दी तथा इन लोगों की प्राथमिक समस्या विद्युत के खम्भों का घर से अधिक दूर होना है।
- 86% विद्युत उपभोक्ताओं तक ग्रिड आधारित विद्युत की पहुँच है तथा 14% लोग गैर-ग्रिड स्रोतों अथवा विद्युत का उपयोग ही नहीं कर रहे हैं।
- विद्युत उपभोक्ताओं के सभी वर्गों तक विद्युत आपूर्ति में 17 घंटे प्रतिदिन का सुधार हुआ है।
- लगभग 85% उपभोक्ता मीटर आधारित विद्युत कनेक्शन का उपयोग कर रहे है।
- 83% घरेलू उपभोक्ताओं तक विद्युत की पहुँच है।
- रिपोर्ट के अनुसार सर्वेक्षण में शामिल 66% ग्राहक संतुष्ट हैं जिनमें 74% शहरी तथा 60% ग्रामीण उपभोक्ता शामिल हैं।
- ध्यातव्य है कि विद्युत आपूर्ति सेवाओं से सम्बंधित उपभोक्ताओं के संतुष्टि स्तर के निर्धारण हेतु संतुष्टि सूचकांक (Satisfaction Index) बनाया गया है।
- रिपोर्ट में ‘प्रधानमंत्री सहजविद्युत हर घर योजना’ तथा ‘दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना’ के लाभों को चिन्हित किया गया है।
- सर्वेक्षण में सभी हितधारकों ने सरकार द्वारा किये गए विद्युत क्षेत्र से सम्बंधित सुधारों की सराहना की है।
रिपोर्ट में अनुशंसाएँ
- गैर घरेलू ग्राहकों को नए विद्युत कनेक्शन देने में प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- ग्राहकों के खातों में सब्सिडी या अन्य लाभों का हस्तांतरण सीधे उनके खाते में किया जाना चाहिये।
- उन्नत प्रौद्योगिकी आधारित ग्राहक सेवा को प्रोत्साहन प्रदान किया जाए।
- 100% ग्राहकों को मीटर आधारित विद्युत की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।
- रॉकफेलर फाउंडेशन न्यूयॉर्क (अमेरिका) स्थित एक निजी परोपकारी संस्था है। वर्तमान में इसके अध्यक्ष राजीव राज शाह हैं।
- सभी के लिये सतत् ऊर्जा (Sustainable Energy for All – SEforALL) एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जिसकी स्थापना वर्ष 2011 में हुई थी। यह संगठन सतत् विकास लक्ष्य – 7 (सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा) की प्राप्ति हेतु प्रतिबद्ध है।
- वैश्विक स्तर पर विद्युत उत्पादन तथा उपभोग में भारत 5 वें स्थान पर है।
- वर्तमान में देश में 5 उर्जा ग्रिड (उत्तर, पश्चिम पूर्वी, पूर्वोत्तर तथा दक्षिण भारत ग्रिड ) हैं।
- बिजली की सर्वाधिक माँग और खपत महाराष्ट्र राज्य में है।
- सर्वाधिक पवन उर्जा का उत्पादन करने वाला राज्य तमिलनाडु है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–पश्चिमी अमेरिका में जंगल की आग की समस्या
चर्चा में क्यों?
- दक्षिणी कैलिफ़ोर्निया में जंगल की आग (दावानल) ने गम्भीर रूप ले लिया है और इसको अभी तक रिकॉर्ड की गई सबसे ख़तरनाक वनाग्नि के रूप में संदर्भित किया जा रहा है।
पृष्ठभूमि
- सन् 1932 से कैलिफोर्निया में रिकॉर्ड की गई छह सबसे बड़ी व भयानक जंगल की आग की घटनाओं में से पाँच घटनाएँ वर्ष 2020 में घटित हुईं। इनमें सबसे बड़ी घटना अगस्त में घटी, जिसे ‘अगस्त कॉम्प्लेक्स फायर’ कहा गया। इससे लगभग 1,032,264 एकड़ क्षेत्र को क्षति पहुँची है।
कैलिफ़ोर्निया में जंगल की आग की अवधि
- आमतौर पर पश्चिमी अमेरिका में जंगल की आग के मौसम का विस्तार बसंत के अंत से लेकर शीतकालीन मौसमी वर्षा और हिमपात तक रहता है। इसके अलावा विश्व भर में गर्म और शुष्क मौसम के दौरान जंगल की आग की घटना होती है।
- इस आग से निकले धुएँ और राख ने सैन फ्रांसिस्को के खाड़ी क्षेत्र तथा ओरेगन व वाशिंगटन के कुछ हिस्सों में आसमान को नारंगी करने के साथ ही इन क्षेत्रों में हवा की गुणवत्ता को भी प्रभावित किया।
इस वर्ष कैलिफोर्निया में जंगल की आग के प्रारंभ होने का कारण
- नासा की अर्थ ऑब्ज़र्वेटरी के अनुसार, अगस्त में कैलिफ़ोर्निया में शुष्क मौसम में बिजली गिरने की घटना के कारण जंगल में आग लगी थी। इस वर्ष भी कम से कम दस ‘लाइटनिंग कॉम्प्लेक्स फायर’ दर्ज की गई हैं। आकाशीय विद्युत झंझा में वृद्धि का एक कारण जलवायु परिवर्तन हो सकता है।
- हालाँकि, कैलिफ़ोर्निया में अधिकांश जंगली आग मानवीय कारणों से लगती है। इसका एक उदाहरण पायरोटेक्निक डिवाइस का प्रयोग भी है। अन्य कारणों में विद्युत पारेषण लाइनें या अन्य उपकरण शामिल हैं, जो दूरस्थ क्षेत्रों में आग का कारण बनते हैं।
- वर्ष 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार जंगल की आग के 84% घटनाओं के लिये मानवीय कारण ही उत्तरदायी हैं।
इस वर्ष वनाग्नि के घातक होने का कारण
- यद्यपि जंगल की आग कैलिफ़ोर्निया राज्य की एक स्वाभाविक प्रक्रिया हैं, परंतु इस राज्य और पश्चिमी-अमेरिका में आग के मौसम की अवधि प्रत्येक वर्ष समय से पूर्व प्रारम्भ हो रही है और निश्चित समय के बाद समाप्त हो रही है।
- वहाँ के स्थानीय कार्यालय के अनुसार, जलवायु परिवर्तन इस प्रवृत्ति का एक प्रमुख कारण है। वसंत व ग्रीष्म ऋतु के तापमान में वृद्धि तथा बर्फ़बारी में कमी एवं वसंत पूर्व बर्फ के पिघलने से शुष्क मौसम की अवधि बढ़ रही है।
- इस शुष्क मौसम से वनस्पति में आर्द्रता की कमी ने जंगलों को गम्भीर वनाग्नि के प्रति अतिसंवेदनशील बना दिया है।
- रिकॉर्ड उच्च तापमान, तेज़ हवाओं और विद्युत् झंझा की अधिकता का संयोजन कैलिफ़ोर्निया में मौजूदा जंगल की आग की गम्भीरता का कारण हो सकता है। दक्षिणी कैलिफ़ोर्निया में वर्तमान स्थिति सम्भवतः अत्यधिक हवा और आर्द्रता के कम स्तर के कारण है।
जंगल की आग का कारण
- दहन की प्रक्रिया का प्रारम्भ या तो स्वाभाविक रूप से, जैसे- बिजली गिरने, या आकस्मिक रूप से, जैसे- सिगरेट स्टब्स से, हो सकता है।
- हालाँकि, कभी-कभी दहन का कारण साभिप्राय हो सकता है, जैसे कि भूमि को खाली व साफ करना या जंगल की आग को नियंत्रित करने के लिये वनस्पतियों व पेड़-पौधों को हटाना।
- शहद जैसे अन्य वनोपज उत्पादों को इकट्ठा करने के कारण भी जंगलों में आग की घटनाएँ होती हैं, जबकि पहाड़ी क्षेत्रो में अन्य कारणों सहित चीड़ (पाइनस) के पेड़ भी दावानल के लिये उत्तरदायी माने जाते हैं।
- वनाग्नि की तीव्रता एवं आवृत्ति उस क्षेत्र में पैदा होने वाले पौधों की प्रजातियों पर भी निर्भर करती हैं। साथ ही, भू-आकृति व मौसम, जैसे- गर्मी, बारिश, वायु की दिशा व आर्द्रता भी इस पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
- एक मूल्यांकन रिपोर्ट ने औसत तापमान में वैश्विक वृद्धि, हीटवेव की आवृत्ति, तीव्रता व सीमा में वैश्विक वृद्धि और सूखे की आवृत्ति, अवधि व तीव्रता में क्षेत्रीय वृद्धि जैसे कुछ कारकों की पहचान की है, जो जंगल की आग के व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं।
हानियाँ
- जंगल की आग से जैव विविधता को क्षति होने के साथ-साथ आस-पास के क्षेत्र में प्रदूषण की समस्या में वृद्धि होती है।
- साथ ही, इससे पारिस्थितिक तंत्र में बदलाव आता है, जो कई प्रजातियों के विलुप्त होने का कारण बनता है, इससे नई प्रजातियाँ उस क्षेत्र में प्रभावी हो जाती हैं। इस प्रक्रिया से अग्नि अप्रिय (पायरोफोबिक) पौधों का स्थान अग्नि सह्य (पायरोटालरेन्ट) व अग्नि प्रिय (पायरोफिलिक) पौधे ले लेते हैं। इस कारण से कहीं-कहीं भूमि के अपक्षय के साथ-साथ मरुस्थलीकरण भी देखने को मिलता है।
- वनाग्नि से उत्पन्न ध्रूम पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करने वाले बड़े कारक के रूप में उभरा है, जो कि पर्यावरण पर हरित गृह की ही तरह का प्रभाव डालता है अर्थात् आग से गर्मी व गर्मी से आग में वृद्धि होती है।
- इसके अतिरिक्त मृदा की शुष्कता में वृद्धि के साथ उर्वरता में कमी आती है।
- पर्यटन, रोज़गार व उद्योगों की हानि के साथ ही टिम्बर, दुर्लभ व आयुर्वेदिक गुणों से युक्त वनस्पतियां भी इससे नष्ट हो जाती हैं।
- वनोत्पादों पर निर्भर रहने वाले आदिवासियों के लिये खाद्य संकट उत्पन्न हो जाता है।
- इसके कारण पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य शृंखला का असुंतलन पैदा हो जाता है।
- कैलिफ़ोर्निया में चलने वाली तेज़ व शुष्क हवाओं को ‘सांता एना’ हवा कहा जाता है।
- भारत में वर्ष 1988 में राष्ट्रीय वन नीति और वर्ष 1980 में वन संरक्षण अधिनियम को अपनाया गया।
- रियो पृथ्वी सम्मेलन (1992) में जंगल की आग से उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर भी विस्तृत चर्चा हुई थी।
- कैलिफ़ोर्निया में अगस्त माह में घटने वाली आग की एक बड़ी घटना को ‘अगस्त कॉम्प्लेक्स फायर’ कहा गया।
- पहाड़ी क्षेत्रो में अन्य कारणों सहित चीड़ (पाइनस) के पेड़ भी वनाग्नि के लिये उत्तरदायी माने जाते हैं।
- ‘कंट्रोल फायर लाइन’ कृत्रिम या प्राकृतिक रूप से निर्मित एक ऐसी सीमा रेखा होती है, जिसके पार आग को नियंत्रित करने व बढ़ने से रोकने का प्रयास विभिन्न तरीकों से किया जाता है। इसके लिये अग्निरोधी वनस्पतियों को उगाने के साथ अन्य सहायक तरीकों का प्रयोग किया जाता है।
(मुख्य परीक्षा, प्रश्नपत्र – 3 : आपदा प्रबंधन )
विषय–आकस्मिक बाढ़ से जुड़ी मार्गदर्शन सेवाएँ
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में,विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) द्वारा बेहतर समन्वय, विकास और कार्यान्वयन हेतु दक्षिण एशिया फ़्लैश फ्लड गाईडेंस सर्विसेज़ (आकस्मिक बाढ़ सम्बंधी मार्गदर्शन सेवाएँ) के क्षेत्रीय केंद्र की ज़िम्मेदारी भारत (भारतीय मौसम विज्ञान विभाग) को सौंपी गई है।
आकस्मिक बाढ़ सम्बंधी मार्गदर्शन प्रणाली परियोजना
- विश्व मौसम विज्ञान संगठन की 15वीं कांग्रेस द्वारा आकस्मिक बाढ़ सम्बंधी मार्गदर्शन प्रणाली परियोजना (फ़्लैश फ्लड गाइडेंस सिस्टम प्रोजेक्ट) के कार्यान्वयन हेतु स्वीकृति दी गई थी।
- यह प्रणाली डब्ल्यू.एम.ओ. कमीशन फॉर हाइड्रोलॉजी द्वारा डब्ल्यू.एम.ओ. कमीशन फॉर बेसिक सिस्टम तथा यू.एस. नेशनल वेदर सर्विस, यू.एस. हाइड्रोलॉजिकल रिसर्च सेंटर (एच.आर.सी.) एवं यू.एस.ऐड/ओ.एफ.डी.ए. के सहयोग से विकसित की गई थी।
- भारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा दक्षिण एशियाई क्षेत्र हेतु 23 अक्तूबर, 2020 को इस प्रणाली की शुरुआत की गई। भारत के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMC) तथा केंद्रीय जल आयोग (CWC) भी इस प्रणाली में भागीदार हैं।
प्रणाली की विशेषताएँ
- यह प्रणाली दक्षिण एशियाई देशों भारत, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में जल तथा मौसम सम्बंधी खतरों का पूर्वानुमान लगाने हेतु क्षमता निर्माण (Capacity Building) के क्षेत्र में सहयोगात्मक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करेगी।
- दक्षिण एशियाई क्षेत्र के देशों में जन-धन की हानि को कम करने हेतु आवश्यक राहत उपायों सम्बंधी मार्गदर्शन सेवाएँ क्षेत्रीय केंद्रों की सहायता से राष्ट्रीय एवं राज्य के आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों और अन्य सभी हितधारकों को उपलब्ध कराई जाएँगी।
- इस प्रणाली द्वारा दक्षिण एशियाई देशों के बाढ़ सवेंदनशील क्षेत्रों के लिये वास्तविक समय में चेतावनी प्रणाली (Real Time Warning) उपलब्ध कराई जाएगी।
- प्रणाली द्वारा सम्बंधित क्षेत्र में जल स्तर में अचानक उतार-चढ़ाव (बाढ़ उत्पन्न करने सम्बंधी) के पूर्वानुमानों पर आधारित चेतावनी भी दी जाएगी।
- ध्यातव्य है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आई.एम.डी.) ने पूर्व संचालित प्रणाली (Pre-operational System) के विकास हेतु गत मानसूनी मौसम के दौरान इस मार्गदर्शन प्रणाली का परीक्षण किया तथा सत्यापन हेतु दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिये आकस्मिक बाढ़ हेतु बुलेटिन जारी किये गए थे।
भारत को महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सौंपने का कारण
- भारतीय मौसम विज्ञान विभाग अत्याधुनिक कम्प्यूटिंग तकनीक, मौसम की संख्यात्मक आधारित पूर्वानुमानों तथा अवलोकन सम्बंधी विस्तृत नेटवर्क (धरती, वायु और अन्तरिक्ष आधारित) जैसी क्षमताओं से सुसज्जित है। इसीलिये विश्व मौसम विज्ञान संगठन द्वारा बेहतर समन्वय, विकास और कार्यान्वयन हेतु दक्षिण एशिया फ्लैश फ्लड गाइडेंस सिस्टम के क्षेत्रीय केंद्र का उत्तरदायित्व भारत को सौंपा गया है।
हाल ही में, भारत सरकार के जहाज़रानी मंत्रालय द्वारा समुद्री यातायात सेवा और पोत निगरानी व्यवस्था (वी.टी.एम.एस.) हेतु स्वदेशी सॉफ्टवेयर समाधानों के विकास की शुरुआत की गई थी। समुद्री सुरक्षा से सम्बंधित समाधानों की दिशा में भारत तेज़ी से विकास कर रहा है।
आवश्यकता
- दुनिया भर के देशों में आकस्मिक बाढ़ से सम्बंधित वास्तविक समय आधारित चेतावनी प्रणाली का अभाव है।
- आकस्मिक बाढ़ से व्यापक स्तर पर जानमाल की क्षति होती है। अतः इस प्रकार की मार्गदर्शन सेवाओं से जोखिमों को कम किया जा सकता है।
मार्गदर्शन प्रणाली में सुधार हेतु सुझाव
- जल विज्ञान से सम्बंधित व्यवस्था के प्रदर्शन में सुधार हेतु वर्षा तथा मिटटी के अवलोकन से जुड़े नेटवर्क को उन्नत करने की आवश्यकता है।
- सोशल मीडिया के उपयोग से सभी हित धारकों के लिये सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक स्वचालित माध्यम निर्मित किया जाना चाहिये। ताकि आपदा सम्बंधी सूचनाएँ सम्बंधित अधिकारियों तक समय रहते पहुँच सके।
- दक्षिण एशियाई क्षेत्र में आंकड़ों, विशेषज्ञता के विकास और सेवाओं की निरंतरता बनाए रखने हेतु हाइड्रोलॉजिकल अनुसंधान केंद्र तथा विश्व मौसम विज्ञान संगठन के साथ क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
वर्तमान में बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आवृति में वृद्धि हुई है तथा इसके अधिकांश कारण मानव जनित हैं। अतः विकास सम्बंधी गतिविधियों तथा पर्यावरण संरक्षण के मध्य बेहतर संतुलन स्थापित करते हुए संधारणीय भविष्य की राह तय करने की आवश्यकता है।
- विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization-WMO)की स्थापना वर्ष 1947 की संधि के आधार पर वर्ष 1950 में की गई थी। यह सयुंक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी है जो वायुमंडल विज्ञान, जल विज्ञान, जलवायु विज्ञान तथा भू-भौतिकी से सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने हेतु कार्य करती है। वर्तमान में इसके भारत सहित 193 सदस्य देश हैं।
- भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department – IMD )भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत मौसम सम्बंधी अवलोकन कर पूर्वानुमान तथा भूकम्प गतिविधियों का अध्ययन कर जानकारी प्रदान करने वाली एक एजेंसी है। इसका मुख्यालय दिल्ली में स्थित है तथा यह भारत एवं अंटार्कटिका के सैंकड़ों अवलोकन स्टेशनों (observation stations) का संचालन करता है।
विषय–नगरपालिका ठोस अपशिष्ट का सतत् प्रसंस्करण
भूमिका
- लगातार बढ़ती जनसंख्या और शहरीकरण की तीव्र गति के कारण देश को अपशिष्ट प्रबंधन सम्बंधी एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। उचित वैज्ञानिक उपचार के आभाव में वर्तमान दर पर कचरे के अंधाधुंध डम्पिंग से प्रति वर्ष अत्यधिक मात्रा में लैंडफिल क्षेत्र में वृद्धि होगी। यह आज के संदर्भ में वैज्ञानिक ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के महत्त्व को दर्शाता है।
नगरपालिका ठोस अपशिष्ट की स्थिति
- अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में उत्पन्न होने वाले नगरपालिका ठोस अपशिष्ट में ज्यादातर हिस्सा कार्बनिक कचरे का होता है।
- कचरे की मात्रा वर्ष 2030 तक वर्तमान 62 मिलियन टन से बढ़कर लगभग 150 मिलियन टन होने का अनुमान है।
- जैविक कचरे के अवैज्ञानिक निपटान से ग्रीनहाउस गैस (जी.एच.जी.) के उत्सर्जन के साथ-साथ हवा के अन्य प्रदूषक भी उत्पन्न होते हैं।
- नगरपालिका ठोस अपशिष्ट (Municipal Solid Waste : MSW) का अप्रभावी प्रसंस्करण भी कई बीमारियों का मूल कारण है क्योंकि डम्प किये गए लैंडफिल से रोगाणु का प्रसार होता है।
नई तकनीक का विकास
- सी.एस.आई.आर-सी.एम.ई.आर.आई. (CSIR-CMERI)द्वारा विकसित नगरपालिका ठोस अपशिष्ट (MSW) प्रसंस्करण सुविधा से न केवल ठोस कचरे के विकेंद्रीकृत अपघटन में सहायता मिलती है, बल्कि सूखी पत्तियों व सूखी घास जैसे बहुतायत में उपलब्ध जैविक पदार्थों से मूल्य वर्धित उत्पादों (Value-Added End-Products) को भी बनाने में मदद मिलती है।
- केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा निर्धारित ‘ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016’ के बाद वैज्ञानिक तरीके से ठोस कचरे के निपटान हेतु एम.एस.डब्ल्यू. प्रसंस्करण सुविधा विकसित की गई है।
- इसमें शामिल यंत्रीकृत पृथक्करण प्रणाली (Mechanized Segregation System) ठोस अपशिष्टों को धातु अपशिष्ट (मेटल बॉडी, मेटल कंटेनर आदि), बायो-डिग्रेडेबल अपशिष्ट (खाद्य पदार्थ, सब्जियां, फल, घास इत्यादि), नॉन-बायो-डिग्रेडेबल अपशिष्ट (प्लास्टिक, पैकेजिंग समग्री, पाउच, बोतल आदि) और अक्रिय अपशिष्टों (कांच, पत्थर आदि) में अलग करता है।
- कचरे के जैव-अपघटनीय घटक को अवायवीय वातावरण में विघटित किया जाता है, जिसे सामान्यत: ‘जैव-गैसीकरण’ कहा जाता है। इस प्रक्रिया में जैविक पदार्थों के रूपांतरण से बायोगैस मुक्त होती है।
बायोमास अपशिष्ट निपटान
- बायोमास अपशिष्ट, जैसे- सूखी पत्तियाँ, मृत शाखाएँ, सूखी घास आदि को उपयुक्त आकार में बदलने के बाद बायोगैस डाइजेस्टर घोल के साथ मिश्रण करके इनका निपटान किया जाता है।
- यह मिश्रण ब्रिकेट (Briquette) के लिये फीडस्टॉक है, जिसे खाना पकाने के लिये ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है। ब्रिकेट का उपयोग सिनगैस के उत्पादन के लिये गैसीफायर में भी किया जा रहा है।
पॉलिमर अपशिष्ट निपटान
- पॉलिमर कचरे में प्लास्टिक और सैनिटरी कचरे आदि शामिल होते हैं। इनका निपटान दो मुख्य प्रक्रियाओं- पायरोलिसिस और प्लाज़्मा गैसीकरण के माध्यम से किया जाता है।
पायरोलिसिस प्रक्रिया
- पाइरोलिसिस प्रक्रिया में उपयुक्त उत्प्रेरक की उपस्थिति में पॉलिमर कचरे को अवायवीय वातावरण में 400-600 °C के तापमान पर गर्म किया जाता है।
- हीटिंग के परिणामस्वरूप पॉलिमर अपशिष्ट से वाष्पशील पदार्थ निकलता है, जो संघनित होने पर पायरोलिसिस तेल देता है।
- शुद्धिकरण के बाद गैर-संघनित सिनगैस और ‘क्रूड पायरोलिसिस ऑइल’ का उपयोग हीटिंग उद्देश्यों के लिये पुनः किया जाता है। साथ ही, इस प्रक्रिया में बचे ठोस अवशेषों को ‘चार’ (Char) कहा जाता है। इसको ईंट (Briquette) के उत्पादन के लिये बायोगैस घोल के साथ मिश्रित किया जाता है।
प्लाज़्मा आर्क गैसीकरण प्रक्रिया
- प्लाज़्मा आर्क गैसीकरण प्रक्रिया (Plasma Arc Gasification Process) का उपयोग ठोस अपशिष्टों के उपचार व निपटान का एक पर्यावरण अनुकूल प्रबंधन विकल्प है। इसके द्वारा बड़ी मात्रा में अपशिष्ट में कमी सम्भव है।
- यह प्रक्रिया प्लाज़्मा रिएक्टर के अंदर उच्च तापमान प्लाज़्मा आर्क (3000°C से ऊपर) उत्पन्न करने के लिये विद्युत का उपयोग करती है, जो कचरे को सिनगैस (Syngas) में परिवर्तित कर देती है।
- उत्पादित सिनगैस गैस शोधन प्रणाली की एक लम्बी शृंखला से गुजरती है, जिसमें उत्प्रेरक परिवर्तक, रेडॉक्स रिएक्टर, चक्रवात विभाजक, स्क्रबर और कंडेनसर शामिल है। इसके पश्चात् यह बिजली उत्पादन हेतु गैस इंजन में उपयोग के लिये तैयार होता है।
- हालाँकि, यह तकनीक आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं है क्योंकि अपशिष्ट उपचार के लिये इसमें ऊर्जा की बहुत अधिक आवश्यकता होती है। इसके अलावा, इलेक्ट्रोड खपत की उच्च दर इसको और अधिक खर्चीला बना देती है।
सिनगैस (Syngas) :
- ‘सिनगैस या संश्लेषित गैस’ (Synthesis Gas) एक गैस मिश्रण है, जिसमें मुख्य रूप से हाइड्रोजन, कार्बन मोनोऑक्साइड और कुछ कार्बन डाइऑक्साइड होती हैं। संश्लेषित प्राकृतिक गैस (एस.एन.जी.)बनाने और अमोनिया या मेथनॉल के उत्पादन में मध्यवर्ती के रूप में इसका उपयोग किया जाता है।
सेनेटरी अपशिष्ट निपटान
- सैनिटरी आइटम में मास्क, सैनिटरी नैपकिन, डायपर आदि शामिल होते हैं। इनको उच्च तापमान प्लाज़्मा का उपयोग करते निस्तारित किया जाता हैं।
- यू.वी.- सी. लाइट्स (UV-C Lights) और हॉट-एयर कन्वेंशन विधियों के माध्यम से रोगाणु-शृंखला को तोड़ने में मदद करने के लिये MSW सुविधा विशेष कीटाणुशोधन क्षमताओं से युक्त है।
उपयोग
- बायोगैस का उपयोग खाना पकाने और बिजली उत्पादन के लिये गैस इंजन में ईंधन के रूप में किया जा सकता है।
- साथ ही, अवशिष्ट राख को ईंटों के निर्माण हेतु सीमेंट के साथ मिश्रित किया जा सकता है।
- बायोगैस संयंत्र से शेष बचे अवशिष्ट पंक को एक प्राकृतिक प्रक्रिया के द्वारा खाद के रूप में परिवर्तित किया जाता है, जिसे वर्मी-कम्पोस्टिंग के रूप में जाना जाता है। इस वर्मी-कम्पोस्ट का उपयोग जैविक खेती में किया जाता है।
- विकेंद्रीकृत एम.एस.डब्ल्यू. और इसके सतत् प्रसंस्करण की तकनीक 100 गीगावॉट सौर ऊर्जा पैदा करने के सपने को साकार करने के अवसरों को खोलता है।
- साथ ही पर्यावरणीय रूप से ‘ज़ीरो-वेस्ट’ और ‘ज़ीरो-लैंडफिल इकोलॉजी’ वाले शहरों के विकास के साथ-साथ प्रसंस्करण व विनिर्माण दोनों के माध्यम से ‘नौकरी का सृजन’ किया जा सकता है। यह देश में सामग्री विज्ञान और इंजीनियरिंग (MSE), स्टार्ट-अप और कई छोटे उद्यमियों के लिये लाभदायक हो सकता है।
- भारत में उत्पन्न होने वाले नगरपालिका ठोस अपशिष्ट में ज्यादातर हिस्सा कार्बनिक कचरे का होता है।
- जैविक कचरे के अवैज्ञानिक निपटान से ग्रीनहाउस गैस (जी.एच.जी.) के उत्सर्जन के साथ-साथ हवा के अन्य प्रदूषक भी उत्पन्न होते हैं।
- ‘ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016’ वैज्ञानिक तरीके से ठोस कचरे के निपटान से सम्बंधित है।
- ठोस अपशिष्टों को धातु अपशिष्ट (मेटल बॉडी, मेटल कंटेनर आदि), बायो-डिग्रेडेबल अपशिष्ट (खाद्य पदार्थ, सब्जियां, फल, घास इत्यादि), नॉन-बायो-डिग्रेडेबल अपशिष्ट (प्लास्टिक, पैकेजिंग समग्री, पाउच, बोतल आदि) और अक्रिय अपशिष्टों (कांच, पत्थर आदि) में पृथक किया जाता है।
- कचरे के जैव-अपघटनीय घटक को अवायवीय वातावरण में विघटित किया जाता है, जिसे सामान्यत: ‘जैव-गैसीकरण’ कहा जाता है।
- पॉलिमर कचरे में प्लास्टिक और सैनिटरी कचरे आदि शामिल होते हैं, जिनका निपटान ‘पायरोलिसिस’ और ‘प्लाज़्मा गैसीकरण’ प्रक्रियाओं के माध्यम से किया जाता है।
- एम.एस.डब्लू. के प्रसंस्करण से प्राप्त गैर-संघनित ‘सिनगैस’ और ‘क्रूड पायरोलिसिस ऑइल’ का उपयोग हीटिंग उद्देश्यों के लिये पुनः किया जाता है।
विषय–पोत यातायात निगरानी व्यवस्था (वी.टी.एम.एस.)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, जहाजरानी मंत्रालय द्वारा समुद्री यातायात सेवा एवं पोत यातायात निगरानी व्यवस्था (VTMS) हेतु स्वदेशी सॉफ्टवेयर समाधानों के विकास का अनावरण किया गया है।
मुख्य बिंदु
- जहाजरानी मंत्रालय द्वारा स्वदेशी वी.टी.एम.एस. सॉफ्टवेयर के विकास हेतु आई.आई.टी. चेन्नई को 10 करोड़ रुपए की राशि मंजूर की गई है।
- वी.टी.एम.एस. सॉफ्टवेयर प्रणाली आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना के अनुरूप ‘मेड इन इंडिया’ तथा ‘मेक फॉर द वर्ल्ड’ के विज़न को साकार करेगी।
- ध्यातव्य है कि इस सॉफ्टवेयर को आगामी 10 महीनों में एक प्रायोगिक परियोजना के रूप में विकसित किया जाएगा।
स्वदेशी वी.टी.एम.एस. की आवश्यकता
- वर्तमान में भारतीय तट के साथ 15 वी.टी.एम.एस. प्रणाली कार्यरत हैं लेकिन इन प्रणालियों में एकरूपता का अभाव है।
- भारतीय बंदरगाहों के यातायात प्रबंधन हेतु उच्च लागत वाले विदेश निर्मित सॉफ्टवेयर द्वारा उपलब्ध सुविधाओं पर आश्रित रहने की बजाय देश की आवश्यकताओं के अनुकूल स्वदेशी प्रणाली के विकास पर जोर दिया जाना चाहिये।
स्वदेशी वी.टी.एम.एस. के लाभ
- यह सॉफ्टवेयर पोत की स्थिति का पता लगाने, मौसम सम्बंधी चेतावनी देने, समुद्री वातावरण, आस-पास के किनारों के क्षेत्रों, कार्य स्थलों और समुद्री यातायात के सम्भावित दुष्प्रभावों से सुरक्षा करने में सहायक होगा।
- इस सॉफ्टवेयर की सहायता से समुद्री यातायात से सम्बंधित आपातकालीन स्थितियों से शीघ्रता से निपटा जा सकता है।
- यातायात परिचालान के आँकडों को प्रशासन, बंदरगाह प्राधिकरण, तटरक्षक बल द्वारा खोज और बचाव कार्यों हेतु महत्त्वपूर्ण जानकारी को संग्रहित किया जा सकता है।
- भारतीय वी.टी.एम.एस. सॉफ्टवेयर की उपलब्धता से इस क्षेत्र में कार्यरत भारतीय कम्पनियाँ को वैश्विक स्तर पर निविदाओं और परियोजनाओं को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।
- स्वदेशी वी.टी.एम.एस. सॉफ्टवेयर के विकास से इस क्षेत्र में होने वाले विदेशी मुद्रा खर्च में कमी आएगी। साथ ही, अन्य देशों पर भी निर्भरता कम होगी।
निष्कर्ष
- भारत द्वारा इस सॉफ्टवेयर की सुविधाओं को भारत के व्यापार साझीदार जैसे मालदीव, मॉरीशस, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश और खाड़ी देशों को प्रदान किया जा सकेगा, जिससे इन देशों के साथ भारत के सम्बंध और मज़बूत होंगे। साथ ही, यह सॉफ्ट पॉवर के रूप में भारत के प्रभुत्व में वृद्धि करेगा।
विषय–वैश्विक वायु स्थिति रिपोर्ट
रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु
- हाल ही में आई वैश्विक वायु स्थिति रिपोर्ट (SoGA 2020) के अनुसार वर्ष 2019 में भारत में वायु प्रदूषण के कारण 1 लाख 16 हज़ार से अधिक शिशुओं की मृत्यु हुई है।
- यह नवजात शिशुओं पर वायु प्रदूषण के वैश्विक प्रभाव का पहला व्यापक विश्लेषण है तथा पहली बार वायु प्रदुषण के कारण एक माह से कम उम्र के शिशुओं की मृत्यु का अनुमान लगाया गया है।
- रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रति व्यक्ति प्रदूषण स्तर सर्वाधिक (83.2 μg/घन मीटर) है जिसके बाद क्रमश: नेपाल (83.1 μg/घन मीटर) तथा नाइज़र (80.1 μg/घन मीटर) का स्थान है। भारत में पिछले तीन वर्षों में प्रदूषण का स्तर औसत से कम रहा है, लेकिन इंडो-गंगा के मैदानी इलाकों में विशेष रूप से सर्दियों के दौरान प्रदूषण का स्तर अत्यधिक उच्च (Extremely High Particulate Matter pollution)होता है।
कार्यान्वयन
- इस रिपोर्ट को वाशिंगटन विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHME2) के सहयोग से हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट द्वारा इंटरेक्टिव वेबसाइट के साथ डिज़ाइन और कार्यान्वित किया जाता है।
- यह एक स्वतंत्र, गैर-लाभकारी अनुसंधान संस्थान है। इसे संयुक्त राज्य अमेरिका पर्यावरण संरक्षण एजेंसी और अन्य द्वारा संयुक्त रूप से वित्त पोषित किया जाता है।
- इसके निष्कर्ष हालिया ग्लोबल बर्डन ऑफ डिज़ीज़ (GBD3) के अध्ययन पर आधारित हैं, जिन्हें 15 अक्तूबर, 2020 को अंतर्राष्ट्रीय चिकित्सा पत्रिका, द लैंसेट में प्रकाशित किया गया है।
कारण
- रिपोर्ट के अनुसार बायोमास ईंधन के जलने से होने वाले वायु प्रदूषण को इस आयु वर्ग में होने वाली लगभग दो तिहाई मौतों के लिये ज़िम्मेदार ठहराया गया है। वायु प्रदूषण के प्रतिकूल परिणामों का गर्भावस्था और नवजात स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में आकलन करना मध्यम आय वाले देशों के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- यद्यपि उज्ज्वला योजना के पश्चात् ग्रामीण स्तर पर खराब गुणवत्ता वाले ईंधन पर घरेलू निर्भरता में धीमी और स्थिर कमी आई है, परंतु इस ईंधन से होने वाला वायु प्रदूषण नवजात शिशुओं की मृत्यु का एक प्रमुख कारक बना हुआ है।
- हाल ही में, भारत में ICMR द्वारा किये गये अध्ययन तथा कई अन्य देशों के वैज्ञानिक अध्ययनों से यह भी पता चला है कि जन्म के समय बच्चों का वजन कम होना व उनके समय से पूर्व-जन्म लेने के पीछे भी वायु प्रदूषण एक मुख्य कारक है।
- SoGA, 2020 में किये गए विश्लेषण के अनुसार सभी कारणों से होने वाली नवजात बच्चों की मृत्यु का लगभग 21% बाहरी और घरेलू वायु प्रदूषण के कारण है।
- वर्ष 2019 में स्ट्रोक, दिल का दौरा, मधुमेह, फेफड़ों के कैंसर, फेफड़ों की पुरानी बीमारियों आदि के कारण 1.67 मिलियन से अधिक वार्षिक मृत्यु वायु प्रदुषण के लंबे समय तक बने रहने के कारण हुई है।
- कोविड–19 के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान प्रदूषणके स्तर में कमी आई थी, परंतु अब प्रदूषण का स्तर फिर से बढ़ रहा है और कुछ शहरों में वायु गुणवत्ता ‘बहुत खराब’ श्रेणी में आ गई है।
विषय–प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का अंतर्प्रवाह
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
- ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश’ (एफ.डी.आई.) आर्थिक विकास का एक प्रमुख वाहक है। यह भारत के आर्थिक विकास के गैर-ऋण वित्तीयन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
- एक सक्षम तथा निवेशकों के अनुकूल एफ.डी.आई. नीति लागू करने का मुख्य उद्देश्य एफ.डी.आई. नीति को निवेशकों के लिये और अधिक अनुकूल बनाना तथा देश में निवेश के प्रवाह में बाधा डालने वाली नीतिगत अड़चनों को दूर करना है।
- एफ.डी.आई. के उदारीकरण और सरलीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ते हुए, सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों में एफ.डी.आई. से सम्बंधित सुधार किये हैं।
- एफ.डी.आई. में नीतिगत सुधारों, निवेश सुगमता और व्यापार करने में सुगमता जैसे मोर्चों पर किये गए विभिन्न उपायों के कारण देश में एफ.डी.आई. का प्रवाह बढ़ा है।
पिछले 6 वर्षों की अवधि (2014-15 से 2019-20) में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
- कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में 55% की वृद्धि, अर्थात् 2008-14 में 231.37 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2014-20 में 358.29 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है।
- एफ.डी.आई. इक्विटी प्रवाह भी 2008-14 के दौरान 160.46 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर57% की वृद्धि के साथ 252.42 बिलियन अमेरिकी डॉलर (2014-20) हो गया है।
वित्तीय वर्ष 2020 –21 (अप्रैल से अगस्त, 2020) में
- अप्रैल से अगस्त, 2020 के दौरान कुल 35.73 बिलियन अमेरिकी डॉलर एफ.डी.आई. प्राप्त हुआ है। यह किसी वित्तीय वर्ष के पहले 5 महीनों में सर्वाधिक है और 2019-20 के पहले पांच महीनों (31.60 बिलियन अमेरिकी डॉलर) की तुलना में यह13% अधिक है।
- वित्तीय वर्ष 2020-21 (अप्रैल से अगस्त, 2020) के दौरान प्राप्त एफ.डी.आई. इक्विटी प्रवाह 27.10 बिलियन अमेरिकी डॉलर है। यह भी किसी वित्तीय वर्ष के पहले 5 महीनों के लिये अधिकतम है और 2019-20 के पहले पांच महीनों (23.35 बिलियन अमेरिकी डॉलर) की तुलना में 16% अधिक है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2: विषय – द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार।)
(सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र:3 विषय– आंतरिक सुरक्षा के लिये चुनौती उत्पन्न करने वाले शासन विरोधी तत्वों की भूमिका। सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा चुनौतियाँ एवं उनका प्रबंधन– संगठित अपराध और आतंकवाद के बीच सम्बंध।)
विषय–भारत के लिये दोहा समझौते के सुरक्षा निहितार्थ
सन्दर्भ
- हाल के दिनों में, आतंकवादी हमलों की कुछ दुर्भाग्यपूर्ण खबरें सुर्ख़ियों में रहीं। आतंकवादी संगठनों द्वारा उत्पन्न किये गए खतरे को नज़रंदाज़ करना बहुत बड़ी भूल साबित होगी, विशेषकर जब हम दोहा समझौते और इसकी पृष्ठभूमि की बात करते हैं। ध्यातव्य है कि दोहा समझौता फरवरी, 2020 में अफगानी इस्लामी अमीरात (तालिबान शासन, जिसे अमेरिका ने अभी तक मान्यता नहीं दी थी) तथा अमेरिका के बीच सम्पन्न हुआ था।
आतंकी संगठनों के लिये कम होता समर्थन:
- तालिबान, अल-कायदा, इस्लामिक स्टेट, लश्कर-ए-तैयबा (LeT) और जैश-ए-मोहम्मद (JeM) जैसे आतंकवादी संगठन कोविड–19 महामारी के दौरान निष्क्रिय ही रहे हैं।
- यहाँ आंशिक रूप से इस तथ्य से समझा जा सकता है कि खुले तौर पर आतंकी हमले कम हुए हैं, सम्भवतः क्योंकि:
- आतंकी संगठनों के पास संसाधनों की कमी है।
- गैर-इस्लामी देशों और सहिष्णु मुसलमानों के विरुद्ध कार्य कर रहे संगठनों व देशों द्वारा इन आतंकी संगठनों को प्राप्त होने वाला समर्थन कम हो गया है।
- हालाँकि, भारत व उसके पड़ोस में इन आतंकी संगठनों की छुटपुट गतिविधियाँ अभी भी जारी हैं एवं वे भारत की सुरक्षा पर गम्भीर खतरा बने हुए हैं ।
सम्भावित खतरे
- ये आतंकवादी संगठन भारत में गुमराह युवाओं के लिये आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं और इन युवाओं की वफादारी इनके प्रति बहुत अधिक है।
- यद्यपि ऐसे युवाओं की संख्या बहुत अधिक नहीं है तथापि वे एक लहर प्रभाव (Ripple effect) पैदा कर सकते हैं, जिसे कम करके नहीं आंका जा सकता है, क्योंकि यह धीरे धीरे बड़ी संख्या में युवाओं को संगठन में शामिल होने के लिये प्रेरित कर सकता है।
- सुरक्षा विशेषज्ञों का ऐसा अनुमान है कि आतंकवादी सेल भारत और पड़ोस के अन्य देशों पर भविष्य में घातक हमले करने के लिये संसाधनों को इकट्ठा करने की प्रक्रिया में शांति से लगे हुए हैं।
- ऐसी सम्भावना है कि एक बार महामारी रुकने के बाद, आतंक का पुनरुत्थान देखा जा सकता है।
- कोविड–19 के कारण विकासशील देशों में गरीबी का बढ़ना आतंकी संगठनों में युवाओं की भर्ती के लिये एक प्रमुख कारण हो सकता है।
- वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट महामारी की वजह से आ रही अड़चनों के बावजूद लगातार अपनी सेनाओं में भर्तियाँ कर रहे हैं।
- इन दो संगठनों की प्रभावशाली वैश्विक पहुँच के कारण, इनका भर्ती करना भविष्य में बड़े हमलों का संकेत हो सकता है।
दोहा समझौते के निहितार्थ क्या हैं?
- इस समझौते से तालिबान और अमेरिका के मध्य बेहतर सम्बंध स्थापित होने की राह आसान हुई है।
- अफगानिस्तान में शांति बनाए रखने के तालिबान के वादे के बदले में अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सभी सैनिकों की वापसी को अपनी सहमति प्रदान की है।
- तालिबान और अल-कायदा को कई क्षेत्रों में एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता है।
- दोनों का पाकिस्तान के प्रति रवैया दोस्ताना है और निकट भविष्य में ये दोनों सगठन भारत के लिये एक बड़ी समस्या पैदा कर सकते हैं।
- राष्ट्रीय जाँच एजेंसी द्वारा हाल ही में कई डाले गए छापे, भारत में एक सम्भावित अल-कायदा नेटवर्क की ओर इशारा करते हैं।
- ऐसा माना जा रहा है कि एक बार स्थिति बेहतर हो जाने के बाद अल-कायदा, पाकिस्तान और उसके आसपास अन्य आक्रामक इस्लामी संगठनों के साथ मिलकर भारत पर अपने हमले या आतंकी गतिविधियाँ तेज़ कर सकता है।
- यह एक मुख्य कारक है जो अल-कायदा और अन्य आतंकी संगठनों को भारत की सुरक्षा के लिहाज़ से अभी भी प्रासंगिक बनाता है।
निष्कर्ष
बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य से भारत के लिये उत्पन्न खतरा आने वाले दिनों में और अधिक बढ़ेगा और इसलिये भारत को चुनौती से निपटने के लिये स्वयं को तैयार करना चाहिये।
दोहा समझौता–
- यह समझौता ‘अफगानी इस्लामी अमीरात (Islamic emirate of Afganistaan)’ ( तालिबान शासन, जिसे अमेरिका ने अभी तक मान्यता नहीं दी थी) तथा अमेरिका के बीच हुआ था।
- तालिबान की तरफ से वहां राजनैतिक प्रमुख मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर तथा अमेरिका की ओर से वार्ताकार ज़ाल्मे ख़लीलजाद ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये थे।
- इस समझौते के बाद 18 वर्ष पुराने अफगानिस्तानी युद्ध के समाप्त होने की सम्भावना है। ध्यातव्य है कि वियतनाम के बाद यह अमेरिकी सैन्य इतिहास का दूसरा सबसे लम्बा सशस्त्र संघर्ष था। इस दौरान अमेरिका ने लड़ाई पर न केवल एक ट्रिलियन डॉलर खर्च किए, बल्कि 2500 अमेरिकी सैनिकों और कई हज़ार अफगान सैनिकों व नागरिकों ने अपनी जान भी गंवाई है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण
चर्चा में क्यों?
- 18 अक्तूबर, 2020 को ‘राष्ट्रीय हरित अधिकरण’ की 10वीं वर्षगांठ थी।
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण : एक परिचय
- ‘राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010’ के तहत 18 अक्तूबर, 2010 को राष्ट्रीय हरित अधिकरण की स्थापना की गई थी।
- यह अधिकरण 1908 के नागरिक प्रक्रिया संहिता के द्वारा तय की गई कार्यविधि से प्रतिबंधित नहीं है परंतु यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार निर्देशित होता है।
- यह एक विशिष्ट निकाय है, जो कि पर्यावरण से सम्बंधित विवादों, बहु-अनुशासनिक मामलों सहित विशेषज्ञता से संचालित करने के लिये सभी आवश्यक तंत्रों से सुसज्जित है।
- प्रारम्भ में एन.जी.टी को पाँच स्थानों पर स्थापित किया गया है। अधिकरण की प्रधान पीठ नई-दिल्ली में तथा भोपाल, पुणे, कोलकाता व चेन्नई में अधिकरण की अन्य चार पीठें हैं।
कार्य क्षेत्र
- इसका गठन पर्यावरण सुरक्षा तथा वन संरक्षण और अन्य प्राकृतिक संसाधन सहित पर्यावरण से सम्बंधित किसी भी कानूनी अधिकार के प्रवर्तन और क्षतिग्रस्त सम्पत्ति के लिये अनुतोष व क्षतिपूर्ति प्रदान करना और इससे जुडे़ हुए मामलों का प्रभावशाली एवं तीव्र गति से निपटारा करने के लिये किया गया है।
- अधिकरण पर्यावरण के मामलों में द्रुत गति से पर्यावरणीय न्याय प्रदान करेगा और उच्च न्यायालयों के मुकदमों के भार को कम करने में मदद करेगा।
- अधिकरण आवेदनों और याचिकाओं को 6 माह के अंदर निपटारा करने के हेतु अदेशाधीन है।
स्थापना का कारण : जटिलता की समस्या
- प्रारम्भ में पर्यावरण से सम्बंधित मामलों की बढ़ती संख्या और जटिलता के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने इन मामलों को सम्भालने के लिये एक विशेष खंडपीठ का गठन किया, जिसे बाद में ‘वन पीठ’ (Forest Bench) के नाम से जाना जाने लगा।
- इसके अतिरिक्त, विभिन्न उच्च न्यायालयों में लम्बित अनेक मामलों और दशकों से विचाराधीन मामलों के संदर्भ में भी इसकी स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ।
विकास के चरण
- संसद ने वर्ष 1995 में ‘राष्ट्रीय पर्यावरण न्यायाधिकरण’ और वर्ष 1997 में ‘राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण’ की स्थापना से सम्बंधित कानून पारित किये।
- इस प्राधिकरण का उद्देश्य मुख्य रूप से पर्यावरण मंजूरी से सम्बंधित चुनौतियों के लिये एक मंच के रूप में कार्य करना था, जबकि न्यायाधिकरण जीवन या सम्पत्ति के पर्यावरणीय क्षति के मामलों में सीमित मात्रा में क्षतिपूर्ति का निर्णय दे सकता था।
- हालाँकि, यह स्पष्ट था कि पर्यावरणीय कानूनों के प्रवर्तन, संरक्षण और न्यायिक निर्णय के लिये एक विशेष और समर्पित निकाय की आवश्यकता थी।
- ऐसे निकाय में न्यायाधीशों के साथ-साथ पर्यावरणीय विशेषज्ञों के शामिल होने और विभिन्न राज्यों में इसकी पीठ के स्थापित होने से अधिकतम नागरिकों तक पहुंच बढ़ने की सोच के तहत ‘एन.जी.टी.’ का विचार पैदा हुआ था।
- इससे पूर्व भी ‘एम.सी. मेहता व अन्य बनाम भारत संघ व अन्य’ (1986) के मामले में भी तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने वैज्ञानिक और तकनीकी डाटा मूल्यांकन तथा विश्लेषण के कारण क्षेत्रीय आधार पर पर्यावरण न्यायालय स्थापित करने की बात कही थी।
- ऐसी ही टिप्पणियाँ वर्ष 1999 में उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाम प्रो. एम.वी. नायडू’ के ऐतिहासिक मामले में पुनः दोहराई गईं।
ट्रैक रिकॉर्ड
- स्थापना के बाद से ही एन.जी.टी. ने कानूनी विशेषज्ञों का एक नया वर्ग तैयार करने के साथ-साथ वन भूमि के विशाल संरक्षण और महानगरों तथा छोटे शहरों में प्रदूषणकारी निर्माण गतिविधियों को रोकने में सफलता पाई है।
- साथ ही, इसने कानूनों का लागू न करने वाले अधिकारियों को दंडित किया है और बड़ी कॉर्पोरेट संस्थाओं के उत्तरदायित्व को भी तय किया है।
- इसके अतिरिक्त, इसने आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा की है और ‘प्रदूषण भुगतान’ सिद्धांत के प्रवर्तन को सुनिश्चित किया है।
समस्या
- इसके अधिकार क्षेत्र में वन, वन्य जीवन, पर्यावरण,जलवायु परिवर्तन और तटीय संरक्षण शामिल है। इसके विशाल और सर्वव्यापी दायरे का एक नकारात्मक पहलू यह है कि यह समान रूप से विविध मात्रा में मुकदमेबाजी को जन्म देता है।
आगे की राह
- एन.जी.टी. को शासन के मुद्दों पर कम तथा अधिनिर्णय पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- इस पीठ के विस्तार के साथ-साथ रिक्त पदों को शीघ्र भरे जाने की भी आवश्यकता है।
- एन.जी.टी. को अगले दशक में पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता पर कार्य करते हुए आर्थिक विकास को पारिस्थितिक रूप से अस्थिर बनाने वाली कार्रवाईयों को रोकने की आवश्यकता है।
- ‘राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010’ के तहत 18 अक्तूबर, 2010 को राष्ट्रीय हरित अधिकरण की स्थापना की गई थी। इस वर्ष इसकी स्थापना के दस वर्ष पूरे हो गए हैं।
- अधिकरण की प्रधान पीठ नई-दिल्ली में तथा भोपाल, पुणे, कोलकाता व चेन्नई में अधिकरण की अन्य चार पीठे हैं।
- संसद ने वर्ष 1995 में ‘राष्ट्रीय पर्यावरण न्यायाधिकरण’ और वर्ष 1997 में ‘राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण’ की स्थापना से सम्बंधित कानून पारित किये।
- ‘एम.सी. मेहता व अन्य बनाम भारत संघ व अन्य’ (1986) के मामले में भी तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने वैज्ञानिक और तकनीकी डाटा मूल्यांकन तथा विश्लेषण के कारण क्षेत्रीय आधार पर पर्यावरण न्यायालय स्थापित करने की बात कही थी।
विषय–बीमा लोकपाल
चर्चा में क्यों?
- भारतीय बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण(IRDAI) द्वारा सार्वजनिक शिकायत निपटान नियम, 1998 के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के सामान्य बीमाकर्ताओं हेतु 17 बीमा लोकपाल कार्यालयों के लिये एक नोडल अधिकारी नियुक्त करने की सलाह दी गई है।
भूमिका
- नोडल अधिकारी उप-प्रबंधक के समकक्ष होगा, जिन्हें 20 अक्टूबर 2020 तक नवीनतम बीमा लोकपाल के सभी कार्यालयों के लिये नामित किया जाना है। इसका उद्देश्य शिकायतों का उचित और समय पर निपटान सुनिश्चित करना है।
- उल्लेखनीय है कि बीमा लोकपाल कार्यालय राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के साथ-साथ राज्य राजधानियों, यथा- बंगलुरू, भोपाल, भुवनेश्वर, चेन्नई, कोलकाता, लखनऊ, मुम्बई, पटना, हैदराबाद, जयपुर में स्थापित किये गए हैं। इसके अतिरिक्त चंडीगढ़, गुवाहाटी, कोच्चि, पुणे, नोएडा और अहमदाबाद में भी बीमा लोकपाल कार्यालय स्थित हैं।
बीमा लोकपाल
- लोकपाल की नियुक्ति बीमा परिषद् द्वारा बीमा उद्योग, नागरिक या न्यायिक सेवा कर्मियों में से की जाएगी, तथा इनकी सेवा-अवधि तीन वर्ष होगी।
- बीमा लोकपाल किसी सक्षम अधिकारी की अनुपस्थिति में बीमा कम्पनियों के साथ सम्पर्क करेंगे तथा यह सुनिश्चित करेंगे कि समय-समय पर दर्ज किये गए मामले और मांगे गए दस्तावेज़ व जानकारी बिना किसी देरी के प्रस्तुत की गई हो।
- बीमा लोकपाल की संस्था समय और लागत प्रभावी तरीके से शिकायतों का निस्तारण व समाधान प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, परंतु यह सुनिश्चित करने के लिये बीमा कम्पनियों को बीमा लोकपाल कार्यालय के साथ अधिक से अधिक सम्पर्क स्थापित करने की आवश्यकता है।
- बीमा लोकपाल (Insurance Ombudsman) के पद का सृजन निजी बीमा पॉलिसी धारकों के लिये किया गया था, जिसका उद्देश्य अदालतों से बाहर ही शिकायतों का लागत प्रभावी, कुशल और निष्पक्ष तरीके से निपटान करना था।
शिकायत सम्बंधी मामले
- किसी बीमाकर्ता द्वारा किये गये दावों को आंशिक या पूर्ण रूप से अस्वीकार करने सम्बंधी मामले।
- देय प्रीमियम या पॉलिसी की शर्तों के बारे में कोई विवाद।
- पॉलिसियों की विधिक संरचना के सम्बंध में किये गये दावों को लेकर कोई विवाद।
- शिकायतों के निपटान में विलम्ब।
- प्रीमियम का भुगतान किये जाने के बाद भी किसी दस्तावेज का निर्गमन न किया जाना।
- इस प्रक्रिया में किये गये दावे की राशि अधिकतम 30 लाख रुपये हो सकती है।
निपटान प्रक्रिया
- बीमाकर्ता के विरुद्ध उपरोक्त मामलों में पॉलिसी धारक स्वयं या अपने विधिक उत्तराधिकारी, नामित व्यक्ति या सम्पत्ति-भागीदार के माध्यम से बीमा लोकपाल के समक्ष लिखित रूप से शिकायत दर्ज़ कर सकता है।
- बीमा लोकपाल मध्यस्थ के रूप में विवाद से सम्बंधी तथ्यों के आधार पर उचित अनुशंसा करता है। शिकायतकर्ता द्वारा उसके अधिनिर्णय को पूर्ण और अंतिम निपटान के रूप में स्वीकार करने के पश्चात्, लोकपाल सम्बंधित कम्पनी को सूचित करता है।
- कम्पनी को 15 दिनों के भीतर उसके निर्णय का अनुपालन करना होता है। यदि अनुशंसा के माध्यम से समझौता नहीं हो पाता है तो लोकपाल शिकायतकर्ता से सभी आवश्यकत साक्ष्यों को प्राप्त करने के तीन महीने के भीतर निर्णय देगा। यह निर्णय बीमा कम्पनी के लिये बाध्यकारी होगा।
- बीमा लोकपाल द्वारा निर्णय दिये जाने के 30 दिनों के भीतर बीमाकर्ता निर्णय का अनुपालन करेगा और लोकपाल को इस सम्बंध में सूचित करेगा।
विषय–वायु प्रदुषण एवं ‘बी.एस. VI’
भूमिका
- वायु प्रदूषण में कमी लाने के समग्र दृष्टिकोण के साथ पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ‘राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम’ (एन.सी.ए.पी.) को देश भर के 122 शहरों में लागू किया गया है। साथ ही, बी.एस. VI मानकों को भी लागू किया गया है।
- एन.सी.ए.पी. ने वर्ष 2024 तक पी.एम.10 और पी.एम.2.5 सांद्रता में 20 से 30% की कमी करने का लक्ष्य रखा है।
भारत में प्रदूषण के प्रमुख कारक
- भारत में वायु प्रदूषण का प्राथमिक कारण वाहन उत्सर्जन, औद्योगिक उत्सर्जन, निर्माण कार्य से उत्पन्न धूल एवं विध्वंस स्थल, बायोमास या फसलों के अवशेष आदि को जलाना तथा खराब अपशिष्ट प्रबंधन हैं।
- जब ये कारक भौगोलिक और मौसम सम्बंधी कारकों के साथ मिल जाते हैं, तो शीत ऋतु के दौरान भारत में प्रदूषण बढ़ जाता है।
बी.एस : भारत स्टेज उत्सर्जन मानक
- भारत स्टेज (बी.एस.) उत्सर्जन मानकों को सरकार द्वारा मोटर वाहनों सहित ‘आंतरिक दहन इंजन’ और ‘स्पार्क-इग्निशन इंजन उपकरण’ से होने वाले वायु प्रदूषण को विनियमित करने के लिये निर्धारित किया गया है।
- भारत में पहला उत्सर्जन मानक वर्ष 1991 में पेट्रोल वाहनों के लिये और वर्ष 1992 में डीज़ल वाहनों के लिये प्रस्तावित किया गया था। इनका अनुसरण करते हुए पेट्रोल वाहन के लिये कैटालिटिक कनवर्टर (Catalytic Converter) अनिवार्य हो गया और शीशा-रहित पेट्रोल पेश किया गया।
बी.एस. IV और बी.एस. VI में अंतर
- BS-IV और BS-VI दोनों इकाई उत्सर्जन मानदंड हैं, जो किसी मोटर वाहन या दोपहिया वाहनों जैसे प्रदूषकों के लिये उत्सर्जन निकास का अधिकतम अनुमेय स्तर निर्धारित करता है।
- ईंधन में सल्फर सामग्री चिंता का एक प्रमुख कारण है। ईंधन के जलने से मुक्त होने वाला सल्फर डाइऑक्साइड एक प्रमुख प्रदूषक है, जो स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है।
- BS-VI ईंधन में सल्फर सामग्री की मात्रा BS-IV ईंधन की तुलना में बहुत कम होती है। इसे BS-IV मानक में 50 mg/kg की तुलना में BS-VI मानक में अधिकतम 10 mg/kg तक घटाया जाता है।
बी.एस. VI का प्रारम्भ
- सम्पूर्ण भारत में अप्रैल 2020 से बी.एस. VI अनुपालन वाहन मानक की शुरुआत वाहन प्रदूषण में कमी लाने के लिये एक क्रांतिकारी कदम है, क्योंकि बी.एस. VI ने वाहनों से होने वाले प्रदूषण को कम करने में मदद की है। केंद्र सरकार ने अनिवार्य किया है कि वाहन निर्माता 1 अप्रैल, 2020 से केवल BS-VI (BS6) वाहनों का निर्माण, बिक्री और पंजीकरण करें।
- बी.एस. VI मानक ईंधन डीज़ल कारों में नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन को 70% तक कम करता है, जबकि पेट्रोल कारों में 25% तक और वाहनों में पार्टिकुलेट मैटर (पी.एम.) को 80% तक कम करता है।
वर्तमान स्थिति
- केंद्र सरकार द्वारा वायु प्रदूषण से निपटने हेतु उठाए गए कदमों के कारण स्वच्छ गुणवत्ता वाली वायु के दिनों की संख्या वर्ष 2016 के मुकाबले 100% की वृद्धि के साथ बढ़कर वर्ष 2020 में 218 हो गई है।
- साथ ही, खराब गुणवत्ता वाले वायु दिनों की संख्या वर्ष 2020 में घटकर 56 हो गई।
अन्य प्रयास
- सार्वजनिक परिवहन के उपयोग के साथ-साथ परिवहन के स्वच्छ माध्यमों को बढ़ावा देना तथा अधिक कोचों के साथ मेट्रो का विस्तार भी सहायक सिद्ध होगा।
- औद्योगिक उत्सर्जन को कम करने हेतु थर्मल पावर प्लांट को बंद करना, ईंट भट्टों में उपयोग होने वाली प्रौद्योगिकियों को बदलना, उद्योग में पी.एन.जी. ईंधन को बढ़ावा देना और पेटकोक व फर्नेस ऑयल पर प्रतिबंध लगाना शामिल है।
- केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के ‘समीर’ एप्लिकेशन को भी डाउनलोड करना चाहिये, जो भारत के विभिन्न शहरों में प्रदूषित क्षेत्रों के बारे में पूरी जानकारी देता है।
- पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ‘राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम’ (एन.सी.ए.पी.) को देश भर के 122 शहरों में लागू किया गया है, जिसका लक्ष्य वर्ष 2024 तक पी.एम. 10 और पी.एम. 2.5 सांद्रता में 20 से 30% की कमी करना है।
- भारत में पहला उत्सर्जन मानक वर्ष 1991 में पेट्रोल के लिये और वर्ष 1992 में डीज़ल वाहनों के लिये प्रस्तावित किया गया था।
- BS-VI ईंधन में सल्फर सामग्री की मात्रा BS-IV ईंधन की तुलना में बहुत कम होती है। इसे BS-IV मानक में 50 mg/kg की तुलना में BS-VI मानक में अधिकतम 10 mg/kg तक घटाया जाता है।
- केंद्र सरकार ने अनिवार्य किया है कि वाहन निर्माता 1 अप्रैल, 2020 से केवल BS-VI (BS6) वाहनों का निर्माण, बिक्री और पंजीकरण करें।
- बी.एस. VI मानक ईंधन- डीज़ल कारों में नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन को 70% तक कम करता है, जबकि पेट्रोल कारों में 25% तक और वाहनों में पार्टिकुलेट मैटर (पी.एम.) को 80% तक कम करता है।
- केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का ‘समीर’ एप्लिकेशन भारत के विभिन्न शहरों में प्रदूषित क्षेत्रों के बारे में पूरी जानकारी प्रदान करता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)
विषय–भारत और बांग्लादेश : प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की तुलना
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, आई.एम.एफ. द्वारा जारी ‘वैश्विक आर्थिक दृष्टिकोण’ के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार बांग्लादेशप्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में भारत से आगे निकल गया है।
पृष्ठभूमि
- आई.एम.एफ. के नवीनतम अनुमानों के अनुसार वर्ष 2020 में भारत केसकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में 10% से अधिक का संकुचन हो सकता है, जबकि कुछ समय पूर्व 5% के संकुचन का अनुमान व्यक्त किया गया था। इन सबके बीच वर्ष 2020 में एक औसत बांग्लादेशी नागरिक की प्रति व्यक्ति आय एक औसत भारतीय नागरिक की प्रति व्यक्ति आय से अधिक होने के अनुमान ने भी सबका ध्यान आकर्षित किया है।
कारण
- आमतौर पर, देशों की तुलना जी.डी.पी. वृद्धि दर या निरपेक्ष जी.डी.पी. (Absolute GDP) के आधार पर की जाती है। आजादी के बाद अधिकांश समय इन दोनों गणनाओं के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था बांग्लादेश से बेहतर ही रही है।
- उपरोक्त चार्ट से स्पष्ट है कि अधिकतर समय भारत की अर्थव्यवस्था का आकार बांग्लादेश से 10 गुना अधिक रहा है और लगभग प्रत्येक वर्ष इसमें तेज़ी से वृद्धि हुई है।
- हालाँकि, प्रति व्यक्ति आय में भी समग्र जनसंख्या के रूप में एक अन्य चर भी शामिल होता है। कुल जनसंख्या द्वारा कुल जी.डी.पी. को विभाजित करके इसको प्राप्त किया जाता है। परिणामस्वरूप, इस वर्ष भारत की प्रति व्यक्ति आय के बांग्लादेश से नीचे होने के तीन कारण हैं-
- पहला कारण यह है कि वर्ष 2004 के बाद से बांग्लादेश की जी.डी.पी. वृद्धि दर काफी तेज़ रही है। फिर भी वर्ष 2004 और 2016 के मध्य दोनों अर्थव्यवस्थाओं के सापेक्ष पदों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है, क्योंकि भारत की वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से तीव्र रही है। हालाँकि, वर्ष 2017 के बाद से भारत की विकास दर में से गिरावट आई है, जबकि बांग्लादेश की वृद्धि दर और भी तेज़ हो गई है।
- दूसरा कारण यह है कि 15 वर्ष की इसी अवधि में भारत की जनसंख्या (लगभग 21%) बांग्लादेश की जनसंख्या (18% से भी कम) की तुलना में तेज़ी से बढ़ी है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 में वैश्विक वित्तीय संकट से ठीक पहले बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. भारत की आधी थी।
- सर्वाधिक तात्कालिक कारण वर्ष 2020 में दोनों अर्थव्यवस्थाओं पर कोविड–19 का सापेक्ष प्रभाव था। इस दौरान भारत की जी.डी.पी. में कमी का अनुमान है, जबकि बांग्लादेश की जी.डी.पी. में लगभग 4% वृद्धि की उम्मीद है।
पूर्व उदाहरण
- वर्ष 1991 में, गम्भीर आर्थिक संकट के दौरान जब भारत की वृद्धि दर 1% से कुछ ही अधिक थी तो बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. भारत से अधिक हो गयी थी। हालाँकि, इसके बाद भारत ने फिर से बढ़त प्राप्त कर ली।
- आई.एम.एफ. के अनुमानों से पता चलता है कि भारत में अगले वर्ष तेज़ी से वृद्धि की सम्भावना है, परंतु बांग्लादेश की जनसंख्या में कम वृद्धि दर और तीव्र आर्थिक विकास को देखते हुए निकट भविष्य में भारत और बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय एक-दूसरे के काफी नजदीक रहने की सम्भावना है।
बांग्लादेश की तीव्र आर्थिक वृद्धि का कारण
- आजादी के बाद एक नए देश के रूप में बांग्लादेश के श्रम कानून उतने कड़े नहीं थे और अर्थव्यवस्था में महिलाओं को तेज़ी से शामिल किया गया था, जिससे वहां की श्रम शक्ति में महिलाओं की उच्च भागीदारी देखी जा सकती है।
- विकास का एक प्रमुख संचालक कपड़ा उद्योग था, जहाँ महिला श्रमिकों ने बांग्लादेश को वैश्विक निर्यात बाज़ारों में बढ़त बनाने में सहायता प्रदान की।
- साथ ही, बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था की संरचना ऐसी है कि इसका सकल घरेलू उत्पाद औद्योगिक क्षेत्र द्वारा संचालित होता है। इसके बाद सेवा क्षेत्र का स्थान आता है। ये दोनों क्षेत्र कृषि की तुलना में अधिक पारिश्रमिक और रोज़गार पैदा करने वाले क्षेत्र हैं, जबकि भारत में अभी भी बहुत से लोग कृषि पर निर्भर हैं।
- उत्तरोत्तर तेज़ विकास दर का एक प्रमुख कारण अर्थव्यवस्था के साथ-साथ बांग्लादेश में पिछले दो दशकों में स्वास्थ्य, स्वच्छता, वित्तीय समावेशन और महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्त्व जैसे कई सामाजिक और राजनीतिक पैमानों में सुधार होना भी है।
- 154 देशों के नवीनतम लिंग समानता रैंकिंग में भी बांग्लादेश शीर्ष 50 में है, जबकि भारत 112वें पायदान पर है। यह रैंकिंग राजनीतिक व आर्थिक अवसरों के साथ-साथ पुरुषों और महिलाओं के शैक्षिक प्राप्ति व स्वास्थ्य के अंतर को मापता है।
बांग्लादेश के समक्ष चुनौतियाँ
- पहली चुनौती गरीबी है, जिसका स्तर बांग्लादेश में अभी भी भारत की तुलना में बहुत अधिक है। विश्व बैंक के अनुसार, ‘गैर-कृषि क्षेत्र में दैनिक एवं स्व-नियोजित श्रमिकों तथा विनिर्माण क्षेत्र में वेतनभोगी श्रमिकों पर उच्चतम प्रभाव के साथ, वर्तमान समय में अल्पावधि में गरीबी में काफी वृद्धि होने की उम्मीद है।
- इसके अलावा, बांग्लादेश अभी भी भारत से बुनियादी शिक्षा मापदंडों में पीछे है और यही मानव विकास सूचकांक में इसकी निचली रैंक का कारण है।
- हालाँकि, बांग्लादेश की सबसे बड़ी चिंता आर्थिक मोर्चे पर नहीं बल्कि राजनीतिक मोर्चे पर है। सार्वजनिक भ्रष्टाचार, कट्टरपंथी इस्लाम में भारी वृद्धि और राजनीतिक हिंसा यहाँ की एक बड़ी समस्या है।
- इन समस्याओं से न केवल बांग्लादेश के प्रगतिशील सामाजिक सुधारों में रुकावट आ सकती है, जिन्होंने महिलाओं को सशक्त बनाया है, बल्कि इसका आर्थिक विकास भी प्रभावित हो सकता है।
- आई.एम.एफ. द्वारा जारी ‘वैश्विक आर्थिक दृष्टिकोण’ के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार बांग्लादेश प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. में भारत से आगे निकल गया है।
- आमतौर पर, देशों की तुलना जी.डी.पी. वृद्धि दर या निरपेक्ष जी.डी.पी. (Absolute GDP) के आधार पर की जाती है।
- वर्ष 1991 में, गम्भीर आर्थिक संकट के दौरान बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. भारत से अधिक हो गयी थी।
- बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था की संरचना ऐसी है कि इसका सकल घरेलू उत्पाद औद्योगिक क्षेत्र द्वारा संचालित होता है। इसके बाद सेवा क्षेत्र का स्थान आता है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3: विषय– उदारीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव, निवेश मॉडल, प्रौद्योगिकी मिशन)
विषय–विनिर्माण नीति से जुड़े मुद्दे
पृष्ठभूमि
- चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम (Phased Manufacturing Policy- PMP) द्वारा शुरू में कम मूल्य की वस्तुओं के निर्माण को प्रोत्साहित किया गया तदोपरांत यह कार्यक्रम उच्च मूल्य घटकों/वस्तुओं के निर्माण और उनके निर्माताओं पर केंद्रित हो गया।
- इस योजना के तहत वस्तुओं के आयात पर मूल सीमा शुल्क को बढ़ाकर, अपरोक्ष प्रोत्साहन दिया जा रहा था।
- अन्य अर्थों में देखा जाए तो पी.एम.पी. को देश में मूल्यवर्धन (Value Addition) क्षेत्र में सुधार के उद्देश्य से लागू किया गया था।
- भारत को एक प्रमुख विनिर्माण केंद्र में बदलने के लिये हाल ही में, उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना के तत्वावधान में मोबाइल विनिर्माण क्षेत्र की 16 फर्मों को मंज़ूरी दी गई थी।
- उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना (Performance Linked Incentive Scheme- PLI) को चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम (पी.एम.पी.) के अगले भाग के रूप में सरकार द्वारा अप्रैल, 2020 में लॉन्च किया गया था। ध्यातव्य है कि चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम वर्ष 2016-17 में शुरू हुआ था।
विचारणीय बिंदु :
1) भारत में अधिक आयात और कम मूल्य संवर्धन
- एप्पल, ज़ियोमी, ओप्पो और वन-प्लस जैसी फर्मों ने भारत में निवेश किया है, लेकिन इनमें से ज़्यादातर ने अपने अनुबंध निर्माताओं के माध्यम से ही निवेश किये हैं।
- परिणामस्वरूप, इनका उत्पादन वर्ष 2016-17 में $13.4 बिलियन से बढ़कर 2019-20 में $31.7 बिलियन हो गया।
- एनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्रीज (Annual Survey of Industries – ASI) के फैक्ट्री स्तर के उत्पादन आँकड़ों से पता चलता है कि इन कम्पनियों ने मोबाइल फ़ोन या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के विनिर्माण के लिये 85% से अधिक इनपुट, आयात किये थे।
- भारत, चीन, वियतनाम, कोरिया और सिंगापुर (2017-2019) से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के आँकड़े बताते हैं कि भारत को छोड़कर, सभी देशों ने आयात के सापेक्ष मोबाइल फोन के अधिकाधिक भागों का निर्यात किया था।
- इन देशों द्वारा आयात से अधिक निर्यात का होना यह दर्शाता है कि इन देशों में मूल्यवर्धन के लिये उचित मात्रा में सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
- दूसरी ओर, भारत ने निर्यात की तुलना में आयात अधिक किया है।
- यद्यपि पी.एम.पी. नीति द्वारा घरेलू उत्पादन की लागत में वृद्धि हुई है, किंतु स्थानीय मूल्य संवर्धन में अधिक सुधार नहीं हुआ है।
- इस प्रकार, भारत में घरेलू उत्पादन की बढ़ती लागत पर ही ध्यान दिया जा रहा है न कि स्थानीय मूल्य संवर्धन पर।
- अर्थशास्त्रियों का मानना है कि नई पी.एल.आई. नीति, वृद्धिशील निवेश और निर्मित वस्तुओं की बिक्री को प्रोत्साहित करने में सहायक होगी।
2) चीन से प्रतिस्पर्धा :
- भारत ने वर्ष 2018-19 के लिये लगभग 29 करोड़ यूनिट मोबाइल फोन का उत्पादन किया था; इनमें से लगभग 94% घरेलू बाज़ार में ही बेचे गए।
- इससे यह पता चलता है कि पी.एल.आई. नीति के तहत वृद्धिशील उत्पादन और बिक्री का ज़्यादातर हिस्सा, जो निर्यात बाज़ार के लिये होना चाहिये, वह सम्भव नहीं हो पा रहा है।
- हाल ही में, अर्न्स्ट एंड यंग (Ernst & Young ) के एक अध्ययन से पता चला है कि मोबाइल फोन के उत्पादन की लागत यदि 100 इकाई (बिना सब्सिडी के) है तो चीन में मोबाइल फोन के निर्माण की प्रभावी लागत (सब्सिडी और अन्य लाभों के साथ) 79.55, वियतनाम में 89.05 और भारत में (पी.एल.आई. सहित), 92.51 पड़ेगी।
- अतः मोबाइल विनिर्माण के एक बड़े हिस्से का चीन से भारत में स्थानांतरित होना अभी सम्भव नहीं लग रहा।
3) पी.एल.आई. वर्तमान निर्यात प्रतिस्पर्धा को मज़बूत नहीं करता है :
- भारत का मोबाइल फोन निर्यात वर्ष 2018-19 में 1.6 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2019-20 में $3.8 बिलियन हो गया, लेकिन प्रति यूनिट मूल्य क्रमशः 91.1 डॉलर से घटकर 87 डॉलर हो गया।
- इससे पता चलता है कि हमारी निर्यात प्रतिस्पर्धा, कम बिक्री मूल्य के मोबाइल क्षेत्रों में है।
- पी.एल.आई. नीति के तहत चुनी गई विदेशी फर्मों के लिये, प्रोत्साहन 15,000 रुपए ($ 204.65) या इससे अधिक होगा। जिससे यह स्पष्ट है कि पी.एल.आई. नीति मोबाइल फोन क्षेत्र में हमारी मौजूदा निर्यात प्रतिस्पर्धा को अधिक मज़बूत नहीं कर पा रही है।
4) घरेलू फर्मों की अनुपस्थिति:
- भारतीय बाज़ार से घरेलू फर्मों की भागीदारी लगभग समाप्त हो गई है।
- घरेलू फर्मों के पास अन्य कम आय वाले देशों को सस्ता मोबाइल फोन निर्यात करने का मार्ग ही शेष है।
- हालाँकि इस क्षेत्र में भी विगत वर्षों में इनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है।
5) आपूर्ति शृंखला का महत्त्व:
- जिन छह फर्मों को ‘निर्दिष्ट इलेक्ट्रॉनिक कम्पोनेंट्स सेगमेंट‘ के तहत मंज़ूरी दी गई है, वे मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग इकोसिस्टम को पूरा नहीं करती हैं।
- उदाहरण के लिये, जब सैमसंग ने वियतनाम में अपनी फ़र्म स्थापित की, तो वह अपने कोरियाई आपूर्तिकर्ताओं पर बहुत अधिक निर्भर थी, सैमसंग के 67 आपूर्तिकर्ताओं में 63 विदेशी ही थे। हालाँकि, सैमसंग ने भारत में भी बहुत अधिक निवेश किया है, लेकिन भारत में इसकी कोई भी आपूर्ति शृंखला या उससे जुड़ी कम्पनी स्थित नहीं है।
- इसलिये, पी.एल.आई. नीति के तहत चुनी गई विदेशी फर्मों को देश में अपनी आपूर्ति पारिस्थितिकी प्रणालियों का प्रयोग करने या उनका निर्माण के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
- पी.एम.पी. नीति, 2016-17 के बाद से उद्योग में घरेलू मूल्य संवर्धन को बढ़ाने में अधिक मददगार साबित नहीं हुई है, हालाँकि उत्पादन की लागत में काफी विस्तार हुआ है।
भारत को पूर्वी एशियाई देशों की विनिर्माण नीति से बहुत कुछ सीखने की ज़रुरत है। साथ ही, लुक ईस्ट नीति को और अधिक प्रभावी बनाया जाना चाहिए। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) से स्वयं को बाहर कर लेने के बाद भारत के विनिर्माण क्षेत्र में जो अंतराल आया है वह वापस इसी स्तर की बड़ी परियोजना या नीति के कार्यान्वयन से ही भरा जा सकता है।
चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम (Phased Manufacturing Policy- PMP)
भारत सरकार ने मई 2017 में सेलुलर मोबाइल हैंडसेट के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के लिये PMP की शुरुआत की थी।
यह कार्यक्रम इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MieTY) के तहत शुरू किया गया है।
इसका उद्देश्य मोबाइल फ़ोन के घरेलू विनिर्माण में शामिल चुनिंदा उत्पादों पर कर राहत एवं प्रोत्साहन प्रदान करना है।
इसे चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम कहा जाता है क्योंकि इसके अंतर्गत मोबाइल फ़ोन के विभिन्न घटकों के घरेलू विनिर्माण को वित्तीय सहायता देने का प्रावधान है।
उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना (Production Linked Incentive Scheme)
उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना को अप्रैल 2020 में, भारत सरकार द्वारा विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने और मोबाइल फोन के विनिर्माण तथा एसेम्बली (Assembly), परीक्षण (Testing), मार्किंग (Marking) एवं पैकेजिंग (Packaging) आदि इकाइयों एवं विशिष्ट इलेक्ट्रॉनिक्स कलपुर्जों के क्षेत्र में व्यापक निवेश आकर्षित करने के लिये मंज़ूरी प्रदान की गई थी।
इस योजना के तहत भारत में निर्मित तथा लक्षित खंडों के क्षेत्र में आने वाली वस्तुओं की वृद्धिशील बिक्री (आधार वर्ष) पर योग्य कम्पनियों को आधार वर्ष के बाद, पाँच वर्षों की अवधि के लिये प्रोत्साहन राशि दिये जाने का प्रावधान है।
इसके अंतर्गत मोबाइल विनिर्माण एवं विशिष्ट इलेक्ट्रॉनिक्स कलपुर्जों के क्षेत्र में कार्यरत 6 प्रमुख वैश्विक कम्पनियों एवं कुछ घरेलू कम्पनियों को तथा भारत में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण क्षेत्र को लाभ प्राप्त होगा।
विषय–द ह्यूमन कॉस्ट ऑफ़ डिज़ास्टर्स रिपोर्ट, 2000-2019
चर्चा में क्यों?
- 13 अक्टूबर, 2020 को ‘यूनाइटेड नेशंस ऑफिस फॉर डिज़ास्टर रिस्क रिडक्शन’ (UNDRR) द्वारा ‘द ह्यूमन कॉस्ट ऑफ़ डिज़ास्टर्स रिपोर्ट, 2000-2019’ नामक शीर्षक से जारी की गई है।
मुख्य बिंदु
- वर्ष 2000 से 2019 के मध्य 7,348 प्रमुख आपदा की घटनाएँ घटित हुईं –
- जिनमे 1.23 मिलियन लोगों की जान गई
- 4.2 बिलियन लोग प्रभावित हुए
- वैश्विक अर्थव्यवस्था को 2.97 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।
- रिपोर्ट के अनुसार चीन (577 घटनाएँ) और अमेरिका (467 घटनाएँ) के पश्चात भारत (321 घटनाएँ) में सबसे अधिक आपदा की घटनाएँ घटित हुईं।
- रिपोर्ट में पिछले 20 वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं के दोगुना होने का कारण जलवायु परिवर्तन को माना गया है।
- आपदा की घटनाओं में बाढ़ और तूफ़ान की घटनाओं में तीव्र वृद्धि (दोगुनी की वृद्धि) हुई है।
- भूकम्प और सुनामी जैसी भू-भौतिकीय घटनाओं में वृद्धि भी लोगों की मौत का प्रमुख कारण बनी हैं।
- UNDRR को वर्ष 1999 में ‘आपदा न्यूनीकरण के लिये अंतर्राष्ट्रीय रणनीति’ (International Strategy for Disaster Reduction – ISDR) के कार्यान्वयन हेतु एक समर्पित सचिवालय के रूप में स्थापित किया गया था। इसका मुख्यालय जिनेवा (स्विट्ज़रलैंड) में स्थित है।
- इसका उद्देश्य सयुंक्त राष्ट्र प्रणाली में आपदा न्यूनीकरण गतिविधियों के मध्य समन्वयकारी प्रयासों को प्रोत्साहित करना है। भारत इसका हस्ताक्षरकर्ता (Signatory) राष्ट्र है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय– ई–कचरा से सम्बंधित समस्याएँ
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, तीसराअन्तर्राष्ट्रीय ई–कचरा दिवस मनाया गया।
ई–कचरा : सम्बंधित तथ्य
- मोबाइल फोन, कम्प्युटर, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जैसे- टी.वी, फ्रिज, वाशिंग मशीन व अन्य और ट्युबलाइट, बल्ब व सी.एफ.एल. जैसी अन्य चीजें जिनमें विषैले पदार्थ पाए जाते हैं, जब खराब हो जाते हैं या जब इनका उपयोग समाप्त हो जाता है तो ये ई-कचरा कहलाते हैं।
- पिछले 5 वर्षों में वैश्विक स्तर पर ई-कचरे की मात्रा में 21% की वृद्धि हुई है। इसके दोगुना होने की दर लगभग 16 वर्ष है।
- अन्य प्रकार के कचरों की अपेक्षा ई-कचरे में सबसे तेज़ी से वृद्धि हो रही है। वैश्विक स्तर पर वर्ष 2019 में लगभग 53.6 मिलियन टन ई-कचरा उत्पन्न हुआ था, जो लगभग 7.3 किलोग्राम प्रति व्यक्ति था।
- यूरोप अपने द्वारा उत्पन्न ई-कचरे का लगभग 42.5% और अफ्रीका केवल 0.9% के आस-पास पुनर्चक्रण करता है।
भारत की स्थिति
- भारत ने वर्ष 2019 में लगभग 3.2 मिलियन टन ई-कचरा उत्पन्न किया, जिसमें से लगभग 90% कचरे का विवरण उपलब्ध नहीं है।
- भारत में ई-कचरे के 90% से अधिक हिस्से को अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा सम्भाला जाता है, जो ई-कचरे से संसाधनों को निकालने के लिये गैर-वैज्ञानिक और खतरनाक तरीके अपनाता है और बाद में इसे गैर-ज़िम्मेदार तरीके से डम्प कर दिया जाता है।
ई–कचरा उत्पन्न होने के प्रमुख कारण
- इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों (EEE) के उत्पादन में वृद्धि को औद्योगीकरण और शहरीकरण के लिये ज़िम्मेदार ठहराया गया है, जिसके परिणामस्वरूप अन्य इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की माँग में वृद्धि हुई है।
- ई-कचरे के उत्पन्न होने का प्रमुख कारण उच्च और गैर-ज़िम्मेदारी पूर्वक खपत, इन उत्पादों का छोटा जीवन काल और ई.ई.ई. उत्पादकों द्वारा एक निश्चित समय के बाद इन उपकरणों को अनिवार्य रूप से अप्रचलित कर दिया जाना आदि है।
ई–कचरे से समस्या और हानियाँ
- विश्व स्तर पर उत्पादित ई-कचरे के 80% भाग के स्रोत, निपटान स्थल और इनको अंतिम रूप से फेंकने से पूर्व इसमें उपलब्ध संसाधनों के निष्कर्षण हेतु प्रयोग की जाने वाली विधियों का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।
- विश्व स्तर पर विकसित और बड़े देश के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर उच्च वर्ग अपने द्वारा उत्पादित ई-कचरे को अविकसित एवं छोटे देशों व निम्न वर्ग की ओर हस्तांतरित कर रहे हैं।
- निष्कर्षण की अनुपयुक्त तकनीकों के कारण ई-कचरे से कोबाल्ट की कुल प्राप्ति दर केवल 30% के आस-पास है, जबकि लैपटॉप, स्मार्ट फोन और इलेक्ट्रिक कार बैटरी के लिये इस धातु की माँग काफी अधिक है।
- ई-कचरे से पारिस्थितकी असंतुलन के साथ-साथ जल, वायु, भूमि व मृदा और रेडियोसक्रिय प्रदूषण में भी वृद्धि हो रही है।
ई–कचरे के उपयोग की सम्भावना
- ई-कचरा सभी प्रकार के कचरों में सबसे मूल्यवान साबित हो सकता है। उल्लेखनीय है कि कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में सोना, चाँदी सहित कई मूल्यवान धातुएँ पाई जाती हैं, अत: ई-कचरे से सोना, चाँदी, कोबाल्ट और प्लैटिनम के साथ-साथ अन्य दुर्लभ धातुएँ भी प्राप्त की जा सकती हैं।
- एक अध्ययन के अनुसार सामान मात्रा में चाँदी अयस्क की अपेक्षा ई-कचरे से अधिक मात्रा में चाँदी प्राप्त की जा सकती है। विदित है कि एक टन सोने के अयस्क की तुलना में एक टन स्मार्ट फोन में 100 गुना अधिक सोना होता है।
ई–कचरे का नियमन
- वर्ष 2019 तक की स्थिति के अनुसार ई-कचरे के वैज्ञानिक और सु-प्रबंधन के लिये लगभग 78 देशों ने कोई न कोई नीति, विनियम या कानून बनाया था।
- भारत ने भी अक्तूबर 2016 में एक नीति को अधिसूचित किया, जिसे ई-कचरा प्रबंधन नियम कहा जाता है। हालाँकि, इसका कार्यान्वयन अभी संतोषजनक अवस्था में नहीं है।
समाधान
- इसका एक समाधान इलेक्ट्रॉनिक्स की एक वर्तुलाकार अर्थव्यवस्था बनाना हो सकता है और इसके लिये एक बहु-आयामी रणनीति की आवश्यकता है।
- उत्पादों को इस तरह से डिज़ाइन किये जाने की आवश्यकता है कि उनका पुन: उपयोग किया जा सके और वे टिकाऊ हों तथा पुनर्चक्रण के लिये भी सुरक्षित हों।
- उत्पादकों को पुराने उपकरणों को एकत्र करने के लिये ‘बाय–बैक’ या ‘रिटर्न ऑफर’ जैसी योजनाएँ लानी चाहिए और उपभोक्ताओं को वित्तीय रूप से प्रोत्साहित करने की भी आवश्यकता है।
- किसी भी इलेक्ट्रॉनिक/इलेक्ट्रिक ई-कचरा उत्पादक को शहरों में उपयुक्त स्थानों पर संग्रह केंद्र स्थापित करने चाहिए, जहां ग्राहक अपने अनुपयुक्त उत्पादों को छोड़ सकें। और इस प्रकार एकत्र किये गए ई-कचरा/उत्पादों का पुनर्चक्रण (Recycling) सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण को ‘विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व’ प्रावधान के अंतर्गत ‘शहरी खनन’ प्रणाली के रूप में जाना जाता है।
निष्कर्ष
- यह स्पष्ट है कि वैश्विक समुदाय ई-कचरे का प्रबंधन करने में बुरी तरह विफल रहे हैं। ई-कचरे के प्रबंधन हेतु बेहतर कार्यान्वयन के ऐसे तरीकों और समावेशी नीतियों की आवश्यकता है, जो अनौपचारिक क्षेत्र को ई-कचरे के प्रबंधन हेतु स्थान उपलब्ध कराने के साथ-साथ उसको मान्यता प्रदान करती हों। साथ ही, पर्यावरणीय दृष्टि से पुनर्चक्रण के लक्ष्यों को पूरा करने में भी मदद प्रदान करती हों।
- प्रत्येक वर्ष 14 अक्तूबर को अन्तर्राष्ट्रीय ई-कचरा दिवस मनाया जाता है। वैश्विक स्तर पर ई-कचरे के दोगुने होने की दर लगभग 16 वर्ष है।
- यूरोप अपने द्वारा उत्पन्न कुल ई-कचरे का अधिकतम और अफ्रीका न्यूनतम पुनर्चक्रण करता है।
- लैपटॉप, स्मार्ट फोन और इलेक्ट्रिक कार बैटरी के लिये कोबाल्ट धातु की काफी मांग है।
- ई-कचरे से सोना, चाँदी, कोबाल्ट और प्लैटिनम के साथ-साथ दुर्लभ पृथ्वी धातुएँ प्राप्त की जा सकती हैं।
- भारत ने अक्टूबर 2016 में ‘ई-कचरा प्रबंधन नियम’ को अधिसूचित किया है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र: 3, विषय – कृषि उत्पाद का भण्डारण, परिवहन तथा विपणन तथा सम्बंधित विषय तथा बाधाएँ, किसानों की सहायता के लिये ई–प्रौद्योगिकी)
विषय–कृषि में ई–प्रौद्योगिकी का भविष्य
- देशव्यापी लॉकडाउनतथा उसके बाद की अड़चनों के कारण बाज़ारों में चल रही मंदी के मध्य केंद्र सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक कृषि बाज़ार मंच (e-NAM) में कुछ नईं सुविधाओं को शामिल करने का फैसला किया था। लेकिन इनके प्रभावों को लेकर एक बड़ा सवाल उठ रहा था कि क्या ये विशेषताएँ किसानों की समस्याओं को हल करने में सफल होंगीं?
- विगत् कुछ दिनों से कृषि-विपणन आधारित आपूर्ति शृंखला तथा किसानों से जुड़े तमाम मुद्दे जैसे- खाद्यान्नों का भण्डारण, सब्ज़ियों की आपूर्ति तथाई–नाम (e-NAM) के बेहतर प्रबंधन से सम्बंधित मुद्दे चर्चा में रहे। इससे यह बात स्पष्ट है कि भारत को अपनी विपणन प्रणाली में सुधार करने की आवश्यकता है। वर्तमान महामारी के समय में सरकार के पास बेहतर मौका है कि वह कृषि बाज़ार को और बेहतर तरीके से विनियमित करे और कुछ ठोस बदलाव करने का प्रयास करे।
कृषि-बाज़ार (Agri-market)प्रणाली को पुनर्जीवित करने के लिये निम्न उपाय सुझाए गए थे-
- कृषि उत्पाद विपणन समिति (Agricultural Produce Marketing Committee -APMC) अधिनियम को समाप्त करना या पुनर्विनियमित करना :
- ए.पी.एम.सी. अधिनियम को समाप्त करने या पुनर्विनियमित करने के साथ-साथ किसानों या किसान उत्पादक संगठनों (एफ.पी.ओ.) से कृषि-उपज की प्रत्यक्ष खरीद को प्रोत्साहित करने की तत्काल आवश्यकता है।
- यदि कम्पनियाँ, संगठित खुदरा विक्रेता,निर्यातक एवं उपभोक्ता समूह सीधे एफ.पी.ओ. से खरीदारी करते हैं तो इसके लिये किसी भी प्रकार के बाज़ार शुल्क का भुगतान करने की आवश्यकता को समाप्त किया जाए क्योंकि वे ए.पी.एम.सी. की सुविधाओं का लाभ नहीं उठाते हैं।
- ध्यातव्य है कि ए.पी.एम.सी.अधिनियम किसानों को अपनी उपज, बाज़ार के बाहर भेजने से प्रतिबंधित करता है।
- गोदामों को बाज़ार के रूप में नामित करना :
- छोटे शहरों में गोदामों को बाज़ार के रूप में नामित किया जा सकता है ताकि बाज़ार की अनुपस्थिति में किसान गोदामों में ही उपज को खरीद या बेच सकें।
- गोदाम रसीद प्रणाली को सुदृढ़ किया जाना चाहिए।
- निजी क्षेत्र को आधुनिक बुनियादी ढाँचे से युक्त मंडियों को खोलने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- फ्यूचर ट्रेडिंगया वायदा कारोबार को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। फ्यूचर ट्रेडिंग भविष्य में एक निर्दिष्ट समय पर तथा पूर्व निर्धारित मूल्य पर कुछ खरीदने या बेचने के लिये एक प्रकार का मानकीकृत कानूनी समझौता है। इससे किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिलने का आश्वासन मिलता है। इससे किसानों को मूल्यों के उतार चढ़ाव के आधार पर अगली फसल बोने के लिये निर्णय लेने में भी मदद मिलती है।
- ई–नाम(e-NAM)को और अधिक बढ़ावा देने, उपज की बेहतर ग्रेडिंग करने और एक सशक्त विवाद निपटान तंत्र स्थापित करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए। साथ ही, माल के वितरण के लिये समस्त निकायों और समूहों के बीच सामंजस्य स्थापित करना भी प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए।
- पी.एम. किसान योजनाके तहत दी जाने वाली राशि को 6,000 रुपए से बढ़ाकर कम से कम 10,000 रुपए प्रति कृषक परिवार कर दिया जाना चाहिए, जिससे आंशिक रूप से उनके नुकसान की भरपाई की जा सके।
ई–नाम (e-NAM) प्लेटफॉर्म :
- e-NAM प्लेटफॉर्म भारत में कृषि उत्पादों एवं कृषि से सम्बंधित वस्तुओं के लिये एक ऑनलाइन ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म है।
- 14 अप्रैल 2016 को इसे सभी राज्यों में कृषि उपज बाज़ार समितियों (ए.पी.एम.सी.) को जोड़ने वाले पैन–इंडिया इलेक्ट्रॉनिक ट्रेड पोर्टल के रूप में लॉन्च किया गया था।
- यह किसानों, व्यापारियों और खरीदारों को उत्पादों के ऑनलाइन व्यापार की सुविधा प्रदान करता है।
- यह किसानों एवं व्यापारियों को उनके उत्पाद के लिये बेहतर मूल्य दिलाने में मदद करता है और उनकी उपज के सुचारू रूप से विपणन के लिये आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करता है।
- वर्तमान समय में खाद्यान्नों, सब्जियों और फलों सहित 90 से अधिक वस्तुओं तथा कृषि उत्पादों को व्यापार के लिये उपलब्ध वस्तुओं की सूची में e-NAM पर सूचीबद्ध किया गया है।
- किसान को अपनी उपज का विवरण और फसल की एक तस्वीर को प्लेटफॉर्म पर अपलोड करना होता है। यह व्यवस्था वास्तव में उपज के मूल्यांकन हेतु शामिल की गई है।
ई–नाम (e-NAM) प्लेटफॉर्म के समक्ष चुनौतियाँ :
- अभी भी भारत में दूरस्थ गाँवों या सामान्य जगहों पर इंटरनेट की पहुँच एक बड़ा मुद्दा है जिससे किसानों के लिये इस पोर्टल के द्वारा व्यापार कर पाना सुगम नहीं हो पाता।
- किसान ऑनलाइन व्यापार की बजाय भौतिक व्यापार के साथ अधिक सहज महसूस करते हैं। स्वयं अपनी उपज को ले जाकर बेचने में किसानों को अधिक आसानी होती है।
- केवल 8.42% मंडियाँ ही ई–नाम प्लेटफॉर्म के माध्यम से जुड़ी हुई हैं। इस वजह से इनकी देशव्यापी पहुँच नहीं है।
आगे की राह :
- वर्तमान स्थिति को देखते हुए सरकार द्वारा प्रेस वार्ताओं के माध्यम से किसानों को उनके हितों के लिये किये जा रहे उपायों और कृषिगत सुधारों से अवगत कराया जाना चाहिए। साथ ही, किसानों में फैलते देशव्यापी रोष पर सरकार द्वारा अपनी जवाबदेही प्रस्तुत की जानी चाहिए।
- कृषि क्षेत्र हेतु सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 8-10% तक का राहत पैकेज घोषित किया जाना चाहिए।
- विपणन प्रणाली को दुरुस्त करने के लिये महाराष्ट्र के वैकल्पिक बाज़ार चैनल जैसे उदाहरणों को और अधिक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में हो रहे कृषिगत नुकसान के लिये वैश्विक स्तर पर भविष्य में ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करने की भी ज़रुरत है। भारत को डब्ल्यू.एच.ओ, डब्ल्यू.टी.ओ. सहित संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्य प्रणाली में मूलभूत सुधारों की बात उठानी चाहिए, जिससे इसे अधिक पारदर्शी, सक्षम और जवाबदेह बनाया जा सके। अतः उपरोक्त प्रयासों को लागू किये जाने की आवश्यकता है, जिससे भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि ढाँचा न सिर्फ सुदृढ़ हो सके बल्कि उचित मुनाफा भी मिल सके और किसानों को वैश्विक स्तर पर उचित प्रतिनिधित्व मिल सके।
विषय–क्रिस्पर तकनीक
चर्चा में क्यों?
- वर्ष 2020 में रसायन विज्ञान के क्षेत्र में जीन-एडिटिंग तकनीक के लिये फ्रांस की इमैनुएल चार्पेंटियर और अमेरिका की जेनिफर डौडना को नोबेल पुरूस्कार प्रदान किया गया है। यह पहली बार है जब किसी वर्ग में दो महिलाओं को व्यक्तिगत रूप से नोबेल पुरस्कार दिया गया है। जीन-एडिटिंग तकनीक को क्रिस्पर कैस-9 डी.एन.ए. “कैंची” टूल के रूप में भी जाना जाता है
क्रिस्पर तकनीक क्या है?
- क्रिस्पर कैस-9 तकनीक (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats’ and ‘CRISPR-associated protein 9’) जीन एडिटिंग की वह तकनीक है, जिसका उपयोग किसी जीव के जीनों में परिवर्तन करने या उसके अनुवांशिक गठन में फेर-बदल करने में किया जा सकता है। इसकी खोज वर्ष 2012 में की गई थी। जीनोम एडिटिंग या जीन एडिटिंग तकनीक जीनोम में लक्षित स्थानों पर अनुवांशिक सामग्री को जोड़ने, हटाने या बदलने की अनुमति देती है।
- क्रिस्पर तकनीक में कैस-9 जीन या अनुवांशिक कैंची के द्वारा विशेष तरीके से तैयार किये गए अणु ख़राब डी.एन.ए. स्ट्रैंड को खोज लेते हैं तथा एंजाइम की सहायता से लक्षित डी.एन.ए. स्ट्रैंड को काट दिया जाता है। अतः आनुवंशिक रूप से मिलने वाले बीमारी से ग्रसित जीन को काटकर अलग करके रोग मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
- डी.एन.ए. सिरा के जिस विशिष्ट भाग को काटा या हटाया जाता है उसमें प्राकृतिक रूप से पुनर्निर्माण, मरम्मत, या बनने की प्रवृत्ति होती है। क्रिस्पर कैस-9 प्रणाली अन्य मौजूदा जीनोम सम्पादन विधियों की तुलना में तेज़, सस्ता, अधिक सटीक और कुशल है।
- विदित है कि स्ट्रेप्टोकॉक्कस प्योजेंस (Streptococcus Pyogenes) ( एक प्रकार का बैक्टीरिया, जो मनुष्यों के लिये सबसे अधिक नुकसान का कारण बनता है) का अध्ययन करते हुए, एमैनुएल चार्पेंटियर ने एक अज्ञात अणु ट्रांस-एक्टिवेटिंग क्रिस्पर आर.एन.ए. (TracrRNA) की खोज की थी, जिसे वर्ष 2011 में प्रकाशित किया गया था। ये ‘TracrRNA’ बैक्टीरिया की प्राचीन प्रतिरक्षा प्रणाली क्रिस्पर- कैस 9 का हिस्सा था, जो अपने डी.एन.ए. को विघटित करके वायरस को निष्क्रिय कर देता था।
क्रिस्पर तकनीक से होने वाले लाभ
- कैंसर ग्रस्त जीन को काटकर उसके स्थान पर स्वस्थ जीन को प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिससे यह प्रौद्योगिकी कैंसर उपचार के लिये भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। (चीन में पहली बार फेंफडों के कैंसर का इलाज करने के लिये जीन एडिटिंग तकनीक का प्रयोग किया गया।)
- क्रिस्पर कैस- 9 को एच.आई.वी, कैंसर, सिकल सेल एनीमिया आदि रोगों के निदान हेतु कारगर उपाय के रूप में देखा जा रहा है। मलेरिया को दूर करने के लिये भी जीन एडिटिंग का उपयोग किया गया है। यह तकनीक प्रतिरक्षा प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण भाग है।
- क्रिस्पर कैस-9 का उपयोग कर जानवरों, पौधों और सूक्ष्मजीवों के डी.एन.ए. को बेहद सटीक रूप से परिवर्तित किया जा सकता है। इस तकनीक ने पहले से ही फसल उत्पादन को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, जिससे सूखे की स्थिति से निपटने हेतु तथा कीटों का सामना करने के लिये फसलों के आनुवंशिक कोड को बदला गया है।
- हाल ही में, चीन ने जीन एडिटिंग का प्रयोग एच.आई.वी. संक्रमित जीन तथा भ्रूण में जीन को संशोधित करने में किया, जिसने अंतर्राष्ट्रीय विवाद को जन्म दिया है। वैज्ञानिक एवं नैतिक दृष्टि से इसे उचित नहीं माना जा सकता क्योंकि इस तकनीक का प्रयोग केवल गम्भीर बीमारियों के निदान के लिये किया जा सकता है।
- हालाँकि एच.आई.वी. एक गम्भीर बीमारी है लेकिन इसके वायरस को औषधियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जीन एडिटिंग द्वारा एच.आई.वी. संक्रमण को पूरे तरीके से खत्म किया जा सकता है परन्तु इस प्रकार की जीन एडिटिंग के निश्चित तौर पर कुछ हानिकारक परिणाम भी होंगे, जिनसे निपटने के लिये अभी हमारे पास कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)
विषय–ऋण बाज़ार : अवसंरचनात्मक सुधार
पृष्ठभूमि
- वित्तीय बाज़ार (Financial Market) आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ (Backbone Of Modern Economies) है। बॉन्ड, इक्विटी बाज़ार एवं बैंक, बचतकर्ताओं (Savers) और उधारकर्ताओं (Borrowers) के मध्य सेतु का कार्य करते हैं।
- इन बाज़ारों द्वारा किये गए कार्य अर्थव्यवस्था में तरलता (Liquidity/लिक्विडिटी) की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। वित्तीय बाज़ार संस्थाओं द्वारा जोखिम को कम करते हुए बचतकर्ताओं को उच्चतम प्रतिलाभ (Highest Return) देना होता है, अत: वे निवेश के नए साधन, उपकरण या माध्यम खोजते रहते हैं।
- यह जोखिम के साथ-साथ एक चुनौतीपूर्ण कार्य भी है। भारत में वित्तीय बाज़ार सुधार विशेषकर पूँजी बाज़ार (Capital Market) से सम्बंधित सुधार, अभी शुरुआती अवस्था (Initial Stage) में हैं।
चुनौतियाँ
- बैंकों, कम्पनियों और वित्तीय संस्थाओं की विनियामकों द्वारा निरंतर निरीक्षण तथा निगरानी नहीं की जाती है।
- भारत की वित्तीय प्रणाली में लम्बे समय से सरकार का राजकोषीय प्रभुत्त्व (Fiscal Dominance) बना हुआ है (विशेषकर सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं में जैसे, आर.बी.आई. और एल.आई.सी.) तथा वर्तमान वित्तीय और मौद्रिक अवसंरचना भी सरकार के राजकोषीय हितों के अधीन ही दिखाई पड़ती है।
- पिछले कुछ महीनों से मौद्रिक नीति समिति (Monetary Policy Committee/MPC) द्वारा नीतिगत दरों (Policy Rates) में निरंतर कटौती करने या उन्हें स्थिर रखने के बावज़ूद लम्बी अवधि की ऋण दरें उच्च स्तर पर बनी हुई हैं।
- वित्तीय विनियामक संस्थाओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक हस्तक्षेप या दबाव बना रहता है, जिससे वे स्वंतत्र रूप से कार्य नहीं कर पातीं हैं।
- गैर निष्पादित परिसम्पत्तियों (NPA) को बैंकों के वित्तीय लेखे-जोखे (Financial Statements) से हटाने पर सरकार द्वारा इनकी क्षतिपूर्ति पुनः पूँजीकरण (Recapitalization) के माध्यम से की जाती है, जिससे सरकार के ऊपर अतिरिक्त ऋणभार पड़ता है और अंततः इसका दायित्व करदाताओं (Tax payers) पर ही पड़ता है।
सुधार हेतु सुझाव
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) की प्राथमिक समस्या यह है कि इन्हें समिष्टि आर्थिक प्रबंधन (राजकोषीय घाटे की पूर्ति हेतु संसाधन जुटाने में) के एक उपकरण के रूप में प्रयोग किया गया है। इन बैंकों के प्राथमिक कार्यों को सार्वजनिक हित के आधार पर स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये। साथ ही, इनकी कार्य संस्कृति (Work Culture) को जन केंद्रित (people Centric) किया जाना चाहिये।
- ऋण वितरण से सम्बंधित नीतियों में जोखिम कारकों (Risk Factors) का मूल्यांकन निर्धारित मानदंडों के अनुरूप किया जाना चाहिये।
- सभी वित्तीय संस्थाओं तथा बैंकों से ऋण लेने वाले व्यक्ति और इकाइयों द्वारा एक निर्धारित समय-सीमा के अंतर्गत अपनी व्यक्तिगत तथा कम्पनी की आर्थिक स्थिति के बारे में प्रकटीकरण (Disclosure) अनिवार्य रूप से प्रस्तुत किये जाने चाहिये। (इस व्यवस्था हेतु स्टॉक एक्सचेंज के नियमों का अनुसरण किया जा सकता है)
- सटीक आर्थिक स्थिति के प्रकटीकरण से व्यक्तियों (सिबिल/CIBIL द्वारा निर्धारित) तथा कम्पनियों (क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों/CRA द्वारा निर्धारित) की रेटिंग का वास्तविक समय में मूल्यांकन हो सकेगा, जिससे बड़े स्तर पर जोखिमों के कम होने की सम्भावना है।
- सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण हेतु ठोस और व्यावहारिक प्रयास किये जाने चाहिये। क्योंकि अधिकांश संकटग्रस्त ऋण (Stressed Loans) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ही हैं।
- आर.बी.आई. को सार्वजनिक ऋण प्रबंधन (Public Debt Management) की भूमिका से मुक्त होकर स्वंतत्र रूप से कार्य करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिये।
- विनियामक संस्थाओं में प्रमुखों की नियुक्ति अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड तथा निष्पक्षता के आधार पर होनी चाहिये।
निष्कर्ष
- वास्तविक रूप में फर्मों, कम्पनियों और उद्योगों की उत्पादकता तथा वृद्धि ही अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर (जी.डी.पी.) का मुख्य आधार है। इसलिये इन इकाइयों को उचित दर और शर्तों पर ऋण उपलब्ध करवाने हेतु वित्तीय बाज़ार में बुनियादी सुधार करना अत्यंत आवश्यक है।
विषय–रशिकोंडा बीच -‘ब्लू फ्लैग’
चर्चा में क्यों ?
- हाल ही में, विशाखापत्तनम स्थित ‘रशिकोंडा समुद्री तट’(Rushikonda Beach) के साथ-साथ भारत के सात अन्य समुद्र तटों को प्रतिष्ठित ईको–लेबल “ब्लू फ्लैग” दर्ज़ा प्रदान किया गया है। भारत ने तटीय क्षेत्रों में प्रदूषण को नियंत्रित करने तथा सौन्दर्यीकरण हेतु तीसरा सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार भी प्राप्त किया है।
क्या है ब्लू फ्लैग प्रमाणन?
- ब्लू फ्लैग प्रमाणन का दर्ज़ा डेनमार्क स्थित “पर्यावरणीय शिक्षा फाउंडेशन (Foundation for Environmental Education: FEE)” द्वारा प्रदान किया जाता है।
- यह दर्ज़ा निर्धारित मानकों पर खरा उतरने के लिये प्रदान किया जाता है। इन मानकों के अंतर्गत तटों को पर्यावरण अनुकूल बनाने के लिये सम्बद्ध तट को प्लास्टिक व कचरा मुक्त करना और ठोस अपशिस्ट प्रबंधन से सुसज्जित करना शामिल हैं।
- साथ ही पर्यटकों के लिये अच्छी गुणवत्ता वाले जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने, अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप पर्यटन सुविधाएँ विकसित करने के अतिरिक्त समुद्र तट के उपयोगकर्ताओं के पर्यावरणीय ज्ञान का भी आकलन मानकों के तहत किया जाता है।
- ध्यातव्य है की ऍफ़.ई.ई. ने 4664 समुद्र तटों को ब्लू फ्लैग का दर्ज़ा प्रदान किया है। सर्वाधिक ब्लू फ्लैग प्रमाणन दर्ज़ा प्राप्त समुद्री तट स्पेन में स्थित हैं।
ब्लू फ्लैग प्रमाणन के लाभ
- ब्लू फ्लैग प्रमाणन प्राप्त करने वाले समुद्र तट वैश्विक मानचित्र पर स्थापित हो जाते हैं। भारत अब विश्व के 50 ब्लू फ्लैग प्रमाणन वाले देशों में शामिल हो गया है। इस प्रमाणन के द्वारा भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यटन के क्षेत्र में बढावा मिलेगा।
- इस निर्णय के बाद समुद्र तटों के सौंदर्यीकरण और बुनियादी ढाँचे के विकास को भी बढ़ावा मिलेगा। अभी तक तटीय विनियमन क्षेत्र अधिनियम अर्थात सी.आर.जेड. नियमों के तहत ऐसे क्षेत्रों में इस तरह की गतिविधियों की अनुमति नहीं थी।
वर्तमान स्थिति
- वर्ष 2018 में पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इस प्रमाणपत्र के लिये 13 समुद्र तटों की पहचान की थी, जिनमें से 8 का चुनाव किया गया है।
- भारत के ब्लू फ्लैग प्रमाणन प्राप्त करने वाले अन्य सात समुद्र तटों में– शिवराजपुर (गुजरात), घोघला (दीव), कासरकोड (कर्नाटक), पदुबिदरी (कर्नाटक), कप्पड़ (केरल), गोल्डेन (ओडिशा) और राधानगर (अंडमान) शामिल हैं।
रशिकोंडा : एक नज़र में
- रशिकोंडा बीच आंध्र प्रदेश का एकमात्र ऐसा समुद्र तट है, जिसे केंद्र सरकार ने ‘बीच पर्यावरण और सौंदर्य प्रबंधन सेवा’ (Beach Environment and Aesthetics Management Services: BEAMS) परियोजना के तहत अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप विकास के लिये चुना गया है।
- आउटडोर फिटनेस उपकरण, समुद्र तटों की निरंतर सफाई के लिये तंत्र, सी.सी.टी.वी. कैमरे और जीवनरक्षक जैसे सुरक्षा उपकरण भी इस परियोजना के अंतर्गत प्रदान किये गए थे।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ; देशज रूप से तथा नई प्रौद्योगिकी का विकास)
विषय–विकिरण– रोधी मिसाइल ‘रुद्रम’
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में भारत ने विकिरण-रोधी मिसाइल ‘रुद्रम’ का सफल परीक्षण किया है।
पृष्ठभूमि
- ‘रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन’ (DRDO)ने स्वदेशी रूप से विकसित हथियार प्रणाली ‘न्यू जनरेशन एंटी रेडिएशन मिसाइल’ (NGARM) का एक और सफल परीक्षण किया है। इस प्रणाली को ‘रुद्रम-1’ भी कहा जाता है। इसका परीक्षण भारत के पूर्वी तट पर स्थित बालासोर के ‘एकीकृत परीक्षण रेंज’ (ITR) से किया गया। भारतीय वायु सेना के लिये विकसित भारत की पहली स्वदेशी ‘एंटी–रेडिएशन मिसाइल : रुद्रम’ का ‘सुखोई– 30 एम.के.आई.’ जेट से सफलता पूर्वक उड़ान परीक्षण किया गया। ‘शौर्य मिसाइल’ या ‘हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर व्हीकल’ (HSTDV) के हालिया परीक्षणों के अतिरिक्त यह स्वदेशी रूप से विकसित हथियार प्रणालियों का एक अन्य परीक्षण है।
विकिरण–रोधी प्रक्षेपास्त्र (Anti-Radiation Missile)
- एंटी–रेडिएशन मिसाइलों को विरोधियों या शत्रुओं के रडार, संचार साधनों और अन्य रेडियो आवृत्ति स्रोतों का पता लगाने तथा उनको ट्रैक व प्रभावहीन करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
- उल्लेखनीय है कि रडार, संचार साधन और रेडियो आवृत्ति स्रोत को सामान्यतया वायु रक्षा प्रणालियों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा माना जाता हैं।
- इस तरह के मिसाइल नेविगेशन तंत्र में एक ‘जड़त्वीय पथ–प्रदर्शन प्रणाली’ (Inertial Navigation System) शामिल होती है, जो उपग्रह आधारित जी.पी.एस. के साथ युग्मित रहती है। ‘जड़त्वीय पथ–प्रदर्शन प्रणाली’ एक कम्प्यूटरीकृत तंत्र है, जो लक्ष्य या पिंड की स्थिति में परिवर्तन का उपयोग करता है।
- मार्गदर्शन या पथप्रदर्शन के लिये यह ‘पैसिव होमिंग हेड’ (Passive Homing Head : PHH) प्रणाली से सुसज्जित होती है। यह एक ऐसी प्रणाली है, जो निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार आवृत्तियों के एक विस्तृत बैंड पर (इस मामले में रेडियो आवृत्ति स्रोत) लक्ष्यों का पता लगाने, वर्गीकृत और इंगेज करने का कार्य कर सकती है।
- एक बार लक्ष्य निर्धारित या लॉक हो जाने के बाद विकिरण के स्रोत को बीच में बंद कर देने पर भी ‘रुद्रम मिसाइल’ सटीकता से प्रहार करने में सक्षम है।
- लड़ाकू जेट से प्रक्षेपण मापदंडों के आधार पर मिसाइल की परिचालन सीमा 100 किमी. से अधिक है।
रुद्रम : विकास–क्रम
- ‘रुद्रम’ हवा से सतह पर मार करने वाली एक मिसाइल है, जिसका डिजाइन और विकास डी.आर.डी.ओ. (DRDO) द्वारा किया गया है।
- डी.आर.डी.ओ. ने लगभग आठ वर्ष पूर्व विकिरण रोधी मिसाइलों का विकास आरंभ किया था। लड़ाकू जेट विमानों के साथ इसका एकीकरण वायुसेना और हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड की विभिन्न डी.आर.डी.ओ. सुविधाओं व संरचना इकाइयों का एक सहयोगी प्रयास है।
- अभी इस प्रणाली का परीक्षण सुखोई- 30 एम.के.आई. से किया गया है। बाद में इसे अन्य लड़ाकू जेट विमानों से भी लॉन्च के लिये अनुकूलित किया जा सकता है।
- चूँकि इन मिसाइलों को अत्यंत जटिल और संवेदनशील लड़ाकू जेट्स से ले जाना और प्रक्षेपित किया जाना है, अत: लड़ाकू जेट के साथ इसके एकीकरण के अलावा ‘विकिरण साधक प्रौद्योगिकियों’ और ‘मार्गदर्शन प्रणालियों’ जैसे विकास काफ़ी चुनौतीपूर्ण थे।
- ‘एंटी-रेडिएशन मिसाइल’ का संक्षिप्त रूप “ARM” होने के कारण इसका नाम ‘रुद्रम’ रखा गया है। संस्कृत में इस शब्द का अर्थ ‘दुखों का निवारण करने वाला’ है।
ऐसी मिसाइलों का हवाई युद्ध में महत्त्व
- रुद्रम को भारतीय वायु सेना की ‘शत्रु वायु रक्षा शमन’ (Suppression of Enemy Air Defence : SEAD) क्षमता को बढ़ाने के लिये विकसित किया गया है।
- एस.ई.ए.डी. में युद्ध-रणनीति के कई पहलू शामिल हैं। हवाई संघर्ष के प्रारंभिक चरण में विकिरण-रोधी मिसाइलों का उपयोग मुख्य रूप से दुश्मन के हवाई रक्षा परिसम्पत्तियों पर हमले के लिये किया जाता है।
- विरोधियों के प्रारंभिक चेतावनी रडार, कमान (Command) और नियंत्रण प्रणाली, निगरानी प्रणाली के संचालन को निष्क्रिय करना या बाधित करना बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकता है। ये प्रणाली रेडियो आवृत्ति का उपयोग करती हैं और विमान भेदी हथियार के लिये इनपुट प्रदान करती हैं।
- आधुनिक युद्ध प्रणाली और रणनीति अधिक से अधिक नेटवर्क केंद्रित है, जिसका अर्थ है कि इसमें विस्तृत स्तर पर पहचान, निगरानी व संचार प्रणाली शामिल होती है, जो हथियार प्रणालियों के साथ एकीकृत है।
अगला चरण
- ‘अत्याधुनिक विकिरण ट्रैकिंग और मार्गदर्शन प्रणाली’ से लैस इस मिसाइल प्रणाली का भारतीय वायु सेना के एक ‘ऑपरेशनल फाइटर स्क्वाड्रन’ की मदद से अतीत में प्रारंभिक परीक्षण किया जा चुका है।
- डी.आर.डी.ओ. के अनुसार इस परीक्षण में भी रुद्रम ने ‘विकिरण लक्ष्य’ पर पिनपॉइंट सटीकता के साथ प्रहार किया है। यह परीक्षण एक उल्लेखनीय उपलब्धि है।
- इस मिसाइल को वर्तमान में भारतीय वायु सेना में विभिन्न लड़ाकू विमानों से लॉन्च करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
- इस प्रणाली को प्रवर्तन हेतु तैयार करने के लिये अभी कुछ अतिरिक्त उड़ान परीक्षणों की आवश्यकता होगी।
- ‘रुद्रम’ स्वदेशी रूप से विकसित ‘विकिरण-रोधी मिसाइल’ हथियार प्रणाली है। डी.आर.डी.ओ. द्वारा विकसित इस ‘न्यू जनरेशन एंटी रेडिएशन मिसाइल’ (NGARM) का सफल परीक्षण ‘सुखोई- 30 एम.के.आई.’ जेट द्वारा बालासोर से किया गया।
- ‘रुद्रम’ हवा से सतह पर मार करने वाली एक मिसाइल है। लड़ाकू जेट से प्रक्षेपण मापदंडों के आधार पर मिसाइल की परिचालन सीमा 100 किमी. से अधिक है।
- रुद्रम को भारतीय वायु सेना की ‘शत्रु वायु रक्षा शमन’ (Suppression of Enemy Air Defence : SEAD) क्षमता को बढ़ाने के लिये विकसित किया गया है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र –3 : कृषि, पर्यावरण संरक्षण)
विषय–संधारणीय कृषि
सन्दर्भ
- कोविड–19 महामारीने विभिन्न देशों में खाद्य सुरक्षा के दावों का वास्तविक रूप उजागर कर दिया है तथा खाद्य फसलों की प्रचलित प्रणालियों पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है, जिससे धारणीय कृषि का महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया है।
पृष्ठभूमि
- कृषि क्षेत्र विश्व का सबसे बड़ा रोज़गार प्रदाता क्षेत्र है एवं भोजन प्राप्ति तथा आय का मुख्य स्रोत है विशेषकर गरीब वर्ग के लिये। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों में आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपनी आजीविका के लिये कृषि तथा इससे सम्बद्ध गतिविधियों पर ही निर्भर हैं। विभिन्न महत्त्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियाँ कच्चे माल की आपूर्ति हेतु इसी क्षेत्र पर ही निर्भर है तथा सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति के लिये कृषि क्षेत्र का बेहतर प्रदर्शन का विशेष महत्त्व रखता है।
- वर्ष 2015 में 193 देशों द्वारा 17 सतत विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals – SDGs) की प्राप्ति हेतु कृषि और इसके सम्बद्ध क्षेत्रों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है।
वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र की चुनौतियाँ
- दुनिया के अधिकांश हिस्सों में कृषि का वर्तमान प्रचलित रूप कई चुनौतियों का सामना कर रहा है।जैसे,निरंतर सीमित होते संसाधन,भूमि तथा जल संसाधनों का अत्यधिक दोहन और जलवायु परिवर्तन आदि।
- इस आधुनिक दौर में भी प्रचलित कृषि और खाद्य प्रणालियाँ सभी के लिये खाद्य सुरक्षा (Food Security For All) प्रदान करने में विफल रही हैं।यह मानव जाति के समक्ष एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है।
- कृषि क्षेत्र के सामने कई समकालीन चुनौतियाँ भी हैं, जैसे कीटनाशकों और रसायनों पर आधारित कृषि तथा प्रचलित खाद्य उत्पादन के कारण भूमि क्षरण, वाणिज्यिक आवश्यकताओं हेतु वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण जीव-जंतुओं के प्राकृतिक निवास स्थान (Natural Habitat) और समृद्ध जैव विविधता की हानि, प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन तथा वायु, मृदा और जलकी गुणवत्ता पर प्रदूषण का प्रभाव आदि।
- सामान्यतः प्रगति सामाजिक और पर्यावरणीय लागतों के साथ आती है, जिनमें भूमि का क्षरण, जलस्तर में गिरावट, जैव विविधता का ह्रास और ग्रीन हाउस गैसों का उच्च स्तरीय उत्सर्जन शामिल हैं। विकास प्रक्रिया में पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों की उत्पादन क्षमता के साथ समझौता किया गया है, जो भविष्य में इस गृह की उर्वरता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।
- वर्तमान में प्रचलित आहार पैटर्न के कारण वैश्विक स्तर पर फसल उत्पादन संरचना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं, जोकि हरित गैसों के उत्सर्जन हेतु निर्णायक रूप से उत्तरदायी हैं।
- कृषि में सिंथेटिक उर्वरकों और कीट नाशकों के उपयोग से पारिस्थितिकी तंत्र में रासायनिक प्रदूषण होता है। इस तरह के अनुचित और अस्वास्थ्यकर कृषि अभ्यास भविष्य में भूमि, जल और उर्जा की प्रतिस्पर्धा को और अधिक जटिल बना देंगे।
- दक्षिण एशिया तथा दुनिया के अन्य हिस्सों में कृषि योग्य भूमि में गिरावट के साथ तीव्र गति से बढ़ती आबादी के कारण भूमि, जल और ऊर्जा संसाधनों पर अत्यधिक दबाव बढ़ा है।
- वर्तमान में किसान बाढ़, सूखा, तापमान में वृद्धि, अप्रत्याशित वर्षा, नए फसल रोगों और टिड्डों के आक्रमण जसी समस्याओं का भी सामना कर रहे हैं।
- जलवायु परिवर्तन के परिणाम स्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ़ गया है, जिससे निचले इलाकों के तटीय क्षेत्रों में खारे पानी के प्रवाह से मृदा में लवणता की मात्रा बढ़ी है।
- खाद्य फसलों में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि के परिणाम स्वरूप उनमें उपस्थित जस्ता, लोहा व प्रोटीन के स्तर में कमी आई है। CO2 की इस वृद्धि से भावी पीढ़ियों के पोषण स्तर में व्यापक स्तर पर कमी होने की सम्भावना है।
संधारणीय कृषि हेतु सुझाव
- वर्तमान में खाद्य उत्पादन के पर्याप्त संसाधनों की खोज तथा पृथ्वी के संसाधनों का अत्यधिक दोहन किये बिना स्वस्थ आहार तक सबकी पहुँच सुनिश्चित करना आवश्यक है।
- खाद्य फसलों को पर्यावरण हितैषी बनाकर गरीबी उन्मूलन की दिशा में अग्रसर किया जाना चाहिये।
- खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के अनुसार कृषि क्षेत्र में सही तरीकों को अपनाया जाए तो सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
- उदहारण स्वरुप एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (MSSRF) के नेतृत्व में भारत के कोरोमंडल तट पर इंटीग्रेटेड मैंग्रोव रिस्टोरेशन प्रोग्राम (1999 – 2002) के तहत डीग्रेडेड मैंग्रोव वेटलैंड की 1,500 हेक्टेयर से अधिक भूमि की बहाली की गई बाद में जॉइंट मैंग्रोव मैनेजमेंट (JMM) प्रोग्राम की सहायता से सयुंक्त रूप से व्यापक स्तर परमैंग्रोव की बहाली सम्भव हुई।इन मैंग्रोव नेवर्ष 2004 में आई बाढ़ के विरूद्ध एक मज़बूत बफ़र के रूप में कार्य किया।
- फसल उत्पादन की कुशल एवं धारणीय प्रक्रियाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।फसल या पशु अपशिष्ट खेतों में खाद के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिये, जिससे बिना दुष्प्रभावों के मृदा की उर्वरता बढ़ती है।
- ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतोंतथा वर्षा जल संग्रह संसाधनों के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये तथा हाइड्रोपोनिक (पोषक तत्वों से भरपूर जल के घोलों में पौधे उगाना), एक्वापोनिक (जल और मछली के अपशिष्ट के उपयोग से पौधे उगाना) तथा एरोपोनिक (पोषक तत्वों से भरपूर पानी के छिड़काव करके पौधे उगाना) जैसी नवाचारी तकनीकों के माध्यम से बिना मिटटी के फसल उत्पादन पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
- उत्तर-पश्चिम भारत 1960 और 1970 के दशक में हरित क्रांति का केंद्र था।यहाँ गेहूं तथा चावल की फसल प्रणाली के चलते भूजल स्तर में अत्यधिक गिरावट आई और यह गिरावट अभी भी जारी है। इस क्षेत्र में कम जल और कम उर्जा वाली फसलों पर ध्यान केंद्रित करके नवाचारी प्रौद्योगिकी को अपनाया जाना चाहिये।
- किसानों को विद्युत सब्सिडी देने के बजायफसल के खरीद मूल्य में वृद्धि की जानी चाहिये, जिससे जल का कुशलता से उपयोग हो सकेगा तथा किसानों को फसल का उचित मूल्य भी मिल पाएगा।
- चावल की अपेक्षा दाल, बाजरा और मक्का जैसी कम सिंचाई की आवश्यकता तथा अधिक पोषक तत्वों वाली फसलों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
- यह स्पष्ट है कि वर्तमान में अपनाए जा रहे उदासीन प्रकृति के प्रयासों से सतत विकास लक्ष्यों (विशेष रूप से खाद्य और कृषि से सम्बंधित) को प्राप्त नहीं किया जा सकता। कृषि की प्रचलित प्रणालियों में सुधार करते हुएभारत के कृषि सुधारों से सम्बंधित प्रयासों का अनुसरण किया जा सकता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नप्रत्र–3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–चीन की जलवायु प्रतिबद्धता
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में चीन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में बोलते हुएजलवायु परिवर्तन के सम्बंध में दो घोषणाएँ की, जिसका जलवायु कार्य कर्ताओं ने स्वागत किया है।
पृष्ठभूमि
- संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन प्रत्येक वर्ष सामान्यत: अंतिम तिमाही में आयोजित की जाती है। उल्लेखनीय है कि COP-26 मूलत: 9 से 19 नवम्बर 2020 तक ग्लासगो, यूनाइटेड किंगडम में सम्पन्न होने वाली था परंतु कोविड-19 के कारण इसे वर्ष 2021 तक स्थगित कर दिया गया।
चीन की घोषणा
- प्रथम घोषणा के अनुसार वर्ष 2060 तक चीन ने ‘नेट कार्बन उत्सर्जन शून्य’ या ‘कार्बन तटस्थता’ (कार्बन नेट-ज़ीरो) की स्थिति हासिल करने का लक्ष्य रखा है।‘नेट-ज़ीरो’ एक ऐसी स्थिति है जिसमें किसी देश के उत्सर्जन की क्षतिपूर्ति वायुमंडल से ग्रीनहाउस गैसों के अवशोषण और उसके निष्कासन द्वारा की जाती है।
- ग्रीनहाउस गैसों के अवशोषण को अधिक कार्बन सिंक (जैसे- वन) के सृजन से बढ़ाया जा सकता है, जबकि निष्कासन में कार्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसी तकनीकों का अनुप्रयोग शामिल है।
- दूसरी घोषणा के अनुसार चीन का लक्ष्य वर्ष 2030 से पहले ही CO2 उत्सर्जन के स्तर में कमी करना है। चीन पहले से ही वर्ष2030 तक अपने उत्सर्जन स्तर में कमी करने को लेकर प्रतिबद्ध था।
- इसका मतलब है कि चीन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को अपने उच्चतम बिंदु / अधिकतम स्तर से आगे नहीं बढ़ने देगा। हालाँकि, चीन ने ‘वर्ष 2030 से पहले’ की अवधि का उल्लेख नहीं किया है परंतु इसे विश्व के सबसे बड़े उत्सर्जक के द्वारा एक अत्यंत सकारात्मक कदम के रूप में देखा जा रहा है।
नेट ज़ीरो का लक्ष्य : महत्त्व
- विगत कुछ वर्षों से, वर्ष 2050 तक ‘जलवायु तटस्थता’ की स्थिति प्राप्त करने के लिये बड़े उत्सर्जकों व अन्य देशों की प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करने के लिये एक ठोस अभियान चलाया जा रहा है।
- इसे कभी-कभी ‘शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की स्थिति’ के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिसमें देशों को अपने उत्सर्जन को कम करने की आवश्यकता होती है, जबकि भूमि या वन के रूप में सिंक बढ़ाने की आवश्यकता होती है, जो उत्सर्जन को अवशोषित करते हैं।
- यदि सिंक पर्याप्त नहीं हैं, तो देश उन प्रौद्योगिकियों को अपना सकते हैं, जो वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड व अन्य ग्रीनहाउस गैसों को भौतिक रूप से निष्कासित करते हैं।हालाँकि, इस तरह की अधिकांश तकनीकें अभी भी अप्रमाणित और बेहद महँगी हैं।
- वैज्ञानिकों और जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ताओं का कहना है कि ‘पूर्व-औद्योगिक’काल की तुलना में वैश्विक तापमान को 2°C से आगे बढ़ने से रोकने के पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय वर्ष 2050 तक वैश्विक कार्बन तटस्थता की स्थिति को प्राप्त करना है।
- उत्सर्जन की वर्तमान दर के अनुसार विश्व, वर्ष 2100 तक तापमान में 3° से 4°C की वृद्धि की ओर अग्रसर है।
चीन की प्रतिबद्धता का महत्त्व
- चीन, विश्व में ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। वैश्विक उत्सर्जन में इसकी हिस्सेदारी लगभग 30% है, जोअगले तीन सबसे बड़े उत्सर्जनकर्ता-अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत के संयुक्त उत्सर्जन से अधिक है।
- चीन द्वारा नेट-ज़ीरो लक्ष्य के लिये स्वयं को प्रतिबद्ध करना एक बड़ी सफलता है, भले ही यह 10 वर्ष बाद हो। विशेषकर ऐसी स्थिति में जब कई देश इस तरह की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं के प्रति वचनबद्ध नहीं हैं, यह घोषणा और महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
- अभी तक यूरोपीय संघ ही एकमात्र बड़ा उत्सर्जक था जिसने वर्ष 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की स्थिति के लिये स्वयं को प्रतिबद्ध किया है।
- इसके अतिरिक्त 70 से अधिक अन्य देशों ने भी इसी तरह की प्रतिबद्धताएँ व्यक्त की हैं। हालाँकि, उनमें से अधिकांश देश अपेक्षाकृत कम उत्सर्जन करते हैं, जिस कारण उनकी नेट-ज़ीरो उत्सर्जन स्थिति भी पृथ्वी के लिये बड़े पैमाने पर मददगार नहीं होगी।
- पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये चार बड़े उत्सर्जकों, यथा-चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत की जलवायु क्रियाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जो एक साथ मिलकर आधे से अधिक वैश्विक उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार हैं। इसके बाद रूस, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश आते हैं।
- कुछ समय पूर्व ही दक्षिण अफ्रीका ने भी वर्ष 2050 तक कार्बन-तटस्थ देश बनने की इच्छा जताई है, परंतु अन्य कई देश इस कदम से पीछे हट गए हैं। पेरिस समझौते से अमेरिका भी बाहर हो गया है और यहाँ तक की अब वह इन लक्ष्यों पर विश्वास भी नहीं करता है।
भारत की प्रतिबद्धता
- भारत ने विकसित देशों द्वारा अपने पिछले वादों को निभाने में पूरी तरह से विफल रहने और उनके द्वारा पहले की गई प्रतिबद्धताओं पर कभी अमल नहीं करने का हवाला देते हुए उत्सर्जन को लेकर दीर्घकालिक प्रतिबद्धता के लिये बनाए जा रहे दबाव का विरोध किया है।
- भारत यह भी तर्क दे रहा है कि उसके द्वारा की जा रही जलवायु परिवर्तन की कार्रवाइयाँ विकसित देशों की तुलना में सापेक्षिकरूप से कहीं अधिक मज़बूत हैं।
- चीन अब तक कमोबेश भारत के समान इसी तरह के तर्क देता रहा है। दोनों देशों ने जलवायु परिवर्तन वार्ता में ऐतिहासिक रूप से एक साथ मिलकर मुद्दे उठाए हैं, भले ही पिछले कुछ दशकों में उनके उत्सर्जन और विकास की स्थिति में भारी अंतर आया हो।
भारत के लिये चीन की प्रतिबद्धता के निहितार्थ
- चीनी घोषणा के द्वारा स्वाभाविक रूप से भारत पर नियमों का पालन करने के लिये दबाव बढेगा और कुछ दीर्घकालिक प्रतिबद्धताएँ भी अपेक्षित होंगीं।
- वास्तव में, यदि पेरिस समझौते में किये गए वादों को देखा जाए, तो भारत एकमात्र G20 देश है, जिसका कार्य 2° लक्ष्य को पूरा करने के लिये बढ़िया तरीके से आगे बढ़ रहा है।
- अन्य विकसित देश वास्तव में 1.5° की दिशा में प्रयासरत हैं परंतु वे 2° के लक्ष्य को पूरा करने में भी विफल साबित हो रहे हैं।इसलिये दबाव बढ़ाना होगा।
- जलवायु एक्शन ट्रैकर भी भारत के कार्यों को ‘2 °C के अनुरूप’ मानता है, जबकि अमेरिका, चीन और यहाँ तक कि यूरोपीय संघ के वर्तमान प्रयासों को ‘अपर्याप्त’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
- इस वर्ष की शुरुआत में, भारत अपने लिये एक लम्बी अवधि की जलवायु नीति तैयार करने की प्रक्रिया में था, लेकिन ऐसा लगता है कि यह प्रयास अब समाप्त हो चुका है।
- चीन के फैसले का एक और दुष्परिणाम यह है कि भारत और चीन के बीच जलवायु वार्ता में मतभेद बढ़ सकते हैं। एक विकासशील देश के रूप में भारत के साथ गठबंधन करने के लिये चीन के पास अब बहुत कम आधार शेष हैं।
निष्कर्ष
- पेरिस समझौते की सफलता के लिये चीन का निर्णय एक बड़ा कदम है। इससे यह सुनिश्चित हो गया है कि इस महामारी के दौरान जलवायु परिवर्तन के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है।
- क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के अनुसार, यदि चीनी लक्ष्य को साकार रूप मिल जाए, तो वर्ष 2100 के ग्लोबल वार्मिंग के अनुमानों को 0.2° से 0.3°C किया जा सकता है, जो किसी भी देश द्वारा अब तक का सबसे प्रभावशाली एकल कार्य माना जाएगा।
(मुख्य परीक्षा सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2एवं3 : सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारन उत्पन्न विषय, उदारीकरण का अर्तव्यवस्था पर प्रभाव तथा औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव)
विषय–दिवालियापन समाधान प्रक्रिया
चर्चा में क्यों?
- दिवालियापन और शोधन अक्षमता सहिंता(Insolvency and Bankruptcy Code -IBC)में दिवालियापन की प्रक्रिया से सम्बंधित कई नए सुधार किये गए हैं, जिनकी प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना समय की माँग है।
सहिंता से आए परिवर्तन
- दिवालिया और शोधन अक्षमता सहिंता ने पूर्व के अशक्त दिवालियापन कानून को प्रतिस्थापित किया है, जिसने भारत में दिवालियापन प्रक्रिया में उल्लेखनीय सुधार किया है। इस सहिंता ने फर्मों या कम्पनियों के परिसमापन के बजाय निर्धारित समय सीमा के अंतर्गत कम्पनियों की समाधान प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित किया है।
- इस सहिंता ने निवेशकों के विश्वास में वृद्धि की है तथा घरेलू एवं विदेशी मुद्रा प्रवाह को गतिशीलता प्रदान की है।
- इस सहिंता के प्रावधान लचीले और गतिशील दोनों हैं। इसलिये यह सहिंता अधिक प्रभावशील हो पाई है|
- भारत के दिवालिया और शोधन अक्षमता बोर्ड (Insolvency and Bankruptcy Board of India – IBBI) ने बाज़ार की वास्तविक समस्याओं का मूल्यांकन करते हुए विनियमन और दिवालियापन से सम्बंधित नीति निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- रिज़ॉल्विंग इन्सॉल्वेंसी इंडेक्स के अनुसार वर्ष 2019 में वर्ष2018 की तुलना में रैंकिंग में 56 अंकों का सुधार आया है।
- इस सहिंता के लागू होने से रिकवरी दर में लगभग तीन गुना वृद्धि हुई है तथा रिकवरी में लिये गए समय में भी अत्यधिक कमी आई है।
वर्तमान प्रयास
- सरकार के बहु आयामी प्रयासों के कारण व्यवसायिक मामले बड़ी मात्रा में वाणिज्यिक अदालतों से बाहर सहिंता की समाधान प्रक्रिया के तहत सुलझाए जा रहे हैं।
- मामूली अपराधों के लिये कारावास सहित अन्य आर्थिक दण्डों मेंनिवेशकों के लिये एक रियायत प्रदान की गई है। हालाँकि भारत सरकार छोटे अपराधों के लिये सज़ा के प्रावधानों को कम करने की दिशा में कार्य कर रही है। यह गैर इरादतन तथा भूल-चूक से हुए अपराधों के सम्बंध में अर्थदंड या कारावास के जोखिम को कम करेगा, जिससे इंस्पेक्टरराज की प्रवृति में भी कमी आएगी।
- दिवालियापन समाधान प्रक्रिया को संस्थागत रूप प्रदान किया जाना चाहिये। यह औपचारिक अदालती प्रक्रिया के इतर मामलों को निपटाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी तथा वैकल्पिक विवाद निपटान प्रणाली की दिशा में एक सराहनीय पहल साबित होगी।
- यह सामाधान प्रक्रिया स्थायी, कुशल और मूल्यवान तरीकों से दिवालायापन प्रक्रियाओं को और अधिक सुव्यवस्थित करेगा।
- IBC ने व्यापार सुगमता को अत्यधिक प्रोत्साहन प्रदान किया है तथा निवेशकों के विश्वास में वृद्धि की है एवं MSME क्षेत्र को सहायता प्रदान करते हुए उद्यमिता हेतु सकारात्मक व्यावसायिक पारिस्थितिकी तंत्र उपलब्ध करवाया है। इस कानून की गतिशीलता और सशक्तता घरेलू तथा विदेशी निवेशकों के लिये भारत को आकर्षक निवेश स्थान के रूप में संदर्भित करेगी।
चुनातियाँ तथा सुझाव
- दुर्भाग्य से भारत की अदालतों में अब भी बड़ी संख्या में मामले लम्बित हैं। वैकल्पिक विवाद समाधान प्रणाली में भी मामलों की समाधान और समझौतों के निपटान की गति बहुत धीमी है, जिसमें कुशलता तथा तीव्रता के साथ मामलों का निपटान किया जाना चाहिये।
- विदित है कि सहिंता से दिवालियापन की प्रक्रिया में आ रही बाधाओं में कमी आई है साथ ही अब कर्ज़ वसूली के दौरान कम्पनी का लाइसेंस, परमिट, रियायत, मंज़ूरी को समाप्त या निलम्बित नहीं किया जाता है और ना ही इनका नवीनीकरण रोका जा रहा है।
- छिपे हुए कानूनी या वित्तीय दायित्त्वों को नए प्रबंधन के समक्ष नहीं लाए जाने सेभी संस्थागत समस्याओं में कमी आई है, जिससे लालफीताशाही एवं कॉर्पोरेट घरानों पर अनुचित देयताओं का दबाव कम हुआ है।
- इस सहिंता में समय के साथ तथा विभिन्न पक्षों के सुझावों के आधार पर लगातार परिवर्तन किये जा रहे हैं, जिससे कानून निर्माण की प्रक्रिया में विभिन्न पक्षों के हितों का संरक्षण किया जा सके।
- पुराने औरछिपे हुए दायित्वों को कम या समाप्त करने से विभिन्न पक्षों (कॉर्पोरेट तथा देनदारों आदि) की तो समस्याएँ कम हो जाएँगी लेकिन इसका अप्रत्यक्ष रूप से अंतिम भारतो आम जनता पर ही पड़ेगा, जिनका इस प्रकार के मामलों से कोई सम्बंध नहीं है।
निष्कर्ष
- वर्तमान में सरकार को आवश्यकता है कि पुराने प्रबंधन, कम्पनी तथा नए प्रबंधन के मध्य एक स्पष्ट अंतर स्थापित किया जाए। पहले से चल रहे मुकदमे (धन शोधन, कर सम्बंधी या अन्य वित्तीय तथा आपराधिक मामले) नए प्रबंधन के कार्यों में किसी प्रकार की अड़चन पैदा ना करें।
- इन्सोल्वेंट वह व्यक्ति या संस्था होती है, जो अपने दायित्वों को चुकाने में असमर्थ हो।
- दिवालिया वह व्यक्ति या संस्था होती है, जिसे ऋण या वित्तीय दायित्वों को ना चुकाने की स्थिति में कोर्ट द्वारा दिवालिया घोषित किया जाता है।
- IBC को वर्ष 2016 में अधिनियमित किया गया था, जिसके तहत विफल हो चुके या घटे में चल रहे व्यवसायों के लिये एक तीव्र और उचित समाधान प्रक्रिया का प्रावधान किया था।
(मुख्य परीक्षा सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र –2 व3 : शासन व्यवस्था, आंतरिक सुरक्षा के लिये चुनौती उत्पन्न करने वाले शासन विरोधी तत्वों की भूमिका, संचार नेटवर्क के माध्यम से आंतरिक सुरक्षा को चुनौती)
विषय–साइबर सुरक्षा
पृष्ठभूमि
- बंदूक, नकाबपोश और विस्फोटों के साथ डकैती या घुसपैठ करना अब अतीत की बात हो चुकी है। वर्तमान में लूट, घुसपैठ और अपराध की प्रकृति में व्यापक परिवर्तन आ चुका है।
- छद्म पहचान तथा आधुनिक प्रौद्यौगिकी पर आधारित कंप्यूटर सॉफ्टवेयरों का प्रयोग करके साइबर अपराधी व्यक्तिगत और सार्वजानिक सुरक्षा संरचना को तोड़कर करोड़ों डॉलर की चोरी करते हैं या महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील जानकारी को हासिल कर लक्षित व्यक्ति अथवा संस्था को ब्लैकमेल करते हैं। NCRB के अनुसार वर्ष 2019 में साइबर अपराध के मामलों में 63% की वृद्धि हुई है।
साइबर सुरक्षा की आवश्यकता
- दुनिया में सबसे अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता भारत में हैं तथा साइबर हमलों का सबसे अधिक सामना करने वाला देश भी भारत ही है। वर्तमान में साइबर सुरक्षा के मुद्दे हैकिंग तथा वित्तीय धोखाधड़ी तक ही सीमित नहीं हैंबल्कि ये राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।
- विमुद्रीकरण और कोविड–19 जैसी घटनाओं ने दैनिक जीवन में डिजिटलीकरण को अपनाने हेतु प्रेरित किया है। अब अधिकांश गतिविधियाँ इंटरनेट और सार्वजानिक नेटवर्क पर संचालित की जा रही हैं तथा घर से कार्य (वर्क फ्रॉम होम) के चलन की शुरुआत भी व्यापक पैमाने पर शुरू हुई है।इसलिये भारत की साइबर स्पेस पर निर्भरता कई गुना बढ़ गई है।
सरकार के वर्तमान प्रयास
- नेशनल साइबर सिक्योरिटी रेगुलेटर (NCSC) तथा इंडियन कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (CERT-In) ने साइबर सुरक्षा के मुद्दों को सम्भालने में बेहतर प्रयास किये हैं।
- केंद्र सरकार द्वारा cybercrime.gov.in पोर्टल शुरू किया गया है। इसपर कोई भी व्यक्ति अपने नाम से या नाम छिपाकर शिकायत दर्ज कर सकता है।
- सरकार द्वारा Cyberdost के नाम से ट्विटर हैंडल शुरू किया गया है, जिसपर साइबर अपराधों को रोकने हेतु सुझावों के माध्यम से लोगों को जागरूक किया जाता है।
- वर्तमान में अधिकांश वित्तीय क्षेत्र की विनियामक संस्थाओं आर.बी.आई, सेबी, ट्राई, इरडा आदि का अलग-अलग साइबर ढांचा है, जिनमें अंतर-नियामक और एकीकृत दृष्टिकोणका अभाव है।
भारत में साइबर क्षेत्र की चुनौतियाँ
- डिजिटल संरक्षण एवं गोपनीयता सम्बंधी सुरक्षा हेतु मज़बूत कानूनों का अभाव है।
- वर्तमान में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर कई एजेंसियाँतो मौजूद हैं। लेकिन बड़े साइबर सुरक्षा मुद्दों से निपटने हेतु समन्वित केंद्रीयकृत व्यवस्था का अभाव है।
- सूचना प्रौद्यौगिकी अधिनियम के कुछ प्रावधानों में संशोधन करने की आवश्यकता है क्योंकि उभरते साइबर खतरों से निपटने में इसके कुछ वर्तमान चुनौतियों को देखते हुए प्रावधान निरर्थक हो गए हैं।
- महिलाओं के प्रति बढ़तेसाइबर अपराध भी चिंताजनक हैं,जिसमें साइबर अपराधी महिलाओं की व्यक्तिगत तथा संवेदनशील जानकारी को प्राप्त कर शारीरिक या आर्थिक शोषण के लिये ब्लैकमेल करते है, जिससे हत्या, आत्महत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की प्रवृति में वृद्धि होती है।
- भारत में साइबर अपराधों को लेकर जागरूकता का अभाव है। इंटरनेट या प्रौद्यौगिकी की पहुँच के अभाव के चलते सरकार के जागरूकता सम्बंधी प्रयास आम नागरिकों तक नहीं पहुँच पाते हैं।
- भारत में कुशल साइबर सुरक्षा कर्मचारियों की भारी कमी है।
साइबर सुरक्षा हेतु सुझाव
- साइबर हमलों पर तीव्र प्रतिक्रिया देने हेतु राज्य और क्षेत्रीय स्तर पर CERT का निर्माण अधिक प्रभावी रूप से कार्य करेगा।
- सीमापार साइबर आतंकवाद (Cross Border Terrorism) से निपटने हेतु साइबर सुरक्षा कार्यक्रम के एक भाग के रूप में साइबर कमांडो बल का गठन करने के साथ ही सभी राज्यों के पुलिस विभागों में विशेष साइबर पुलिस कैडर का निर्माण किया जाना चाहिये।
- साइबर सुरक्षा में सुधार के लिये कृत्रिम बुद्धिमता तथा रोबोटिक्स का लाभ उठाने हेतु नवाचारी व्यावसायिक पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण की आवश्यकता है।
- साइबर अपराध को रोकने में कृत्रिम बुद्धिमता(Artificial Intelligence)महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
- साइबर सुरक्षा क्षेत्र के लिये पर्याप्त मानव संसाधन की आपूर्ति हेतु प्रशिक्षण और कौशल कार्यक्रम शुरू किये जाने की आवश्यकता है।
- भारत में साइबर सुरक्षा क्षेत्र हेतु प्रथक रूप से बजट आवंटित करके अनुसंधान एवं विकास कार्यक्रमों को प्रोत्साहित किया जा सकता है, जिससे नवीनतम साइबर हमलों या अपराधों से निपटने में सहायता प्राप्त होगी।
निष्कर्ष
- व्यक्तियों या संस्थाओं को अपनी डाटा सुरक्षा हेतु केवल सरकार पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिये बल्कि खुद भी जागरूक रहना चाहिये। अपने मीडिया उपकरणों की सुरक्षा सेटिंग को अपडेट रखने के साथ ही अच्छे एंटीवायरस का उपयोग और जाली संदेशो, लिंक, फ़ोनकॉल से सतर्क रहना चाहिये।
- सरकार की साइबर सुरक्षा इमरजेंसी रिस्पॉन्स टीम (CERT-In) द्वारा वर्ष 2017 में साइबर स्वच्छता केंद्र लॉन्च किया गया था, जिसका उद्देश्य साइबर क्षेत्र हेतु सुरक्षा समाधान (Security solutions) उपलब्ध कराना है।
- CERT-In की शुरुआत भारत में वर्ष 2004 में हुई थी। यह कंप्यूटर सुरक्षा सम्बंधी घटनाओं पर प्रतिक्रिया हेतु राष्ट्रीय स्तर पर नोडल एजेंसी है।
- gov.in साइबर अपराध की शिकायतों की ऑनलाइन रिपोर्टिंग हेतु भारत सरकार की एक पहल है। यह पोर्टल केवल साइबर अपराधों की शिकायत विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध साइबर अपराधों के लिये है। इस पोर्टल पर त्वरित कार्यवाही हेतु शिकायत दर्ज करते समय सही और सटीक विवरण देना अनिवार्य है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : बुनियादी ढाँचाः ऊर्जा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–हरित हाइड्रोज़न
पृष्ठभूमि
- टिकाऊ और सस्ती ऊर्जा के भविष्य के लिये हाइड्रोज़न धीरे-धीरे स्वच्छ ऊर्जा मिश्रण का हिस्सा बनता जा रहा है। इसको तेज़ी से बढ़ते हुए एक भावी घटक के रूप में देखा जा रहा है, जो ऊर्जा संक्रमण, जैसे- ऊर्जा क्षेत्र का डी-कार्बनाइज़ेशन और जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा में स्थानांतरण की गति को तीव्र करेगा।
हरित हाइड्रोज़न
- हाइड्रोज़न का उत्पादन कई विधियों से किया जा सकता है। सबसे स्थापित और प्रमाणित तरीकों में से एक है– नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके किसी इलेक्ट्रोलाइज़र के माध्यम से जल को हाइड्रोज़न और ऑक्सीजन में विभाजित करना।
- इस प्रकार उत्पादित हाइड्रोज़न को हरित हाइड्रोज़न कहते हैं, जबकि अन्य विधियों में कार्बन का उत्सर्जन होता हैं।
- नवीकरणीय ऊर्जा की लागतों में गिरावट के साथ ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने की आवश्यकता के कारण राजनीतिक और व्यापारिक परिप्रेक्ष्य में हाइड्रोज़नका महत्त्व बढ़ता जा रहा है।
जीवाश्म ईंधन से हाइड्रोज़न आधारितनवीकरणीय ऊर्जा में स्थानांतरण की स्थिति:
- यद्यपि ऊर्जा संक्रमण अभी नवजात अवस्था में है परंतु हाइड्रोज़न आधारित बाज़ारों व परियोजनाओं के विकास ने इसको गति देने के साथ-साथ ऊर्जा बाज़ारों का भी ध्यान आकर्षित किया है।
- हाइड्रोज़न का सम्भावित उपयोग उद्योग, परिवहन, बिजली और वितरित ऊर्जा सहित विभिन्न एंड–यूज़ क्षेत्रों (End-Use Sectors) में किया जा सकता है।
- इंड–यूज़ ऊर्जाउपयोगकर्ता द्वारा सीधे उपभोग की जाने वाली ऊर्जा है। यह प्राथमिक ऊर्जा के विपरीत है, जो कि प्राकृतिक संसाधनों से सीधे प्राप्त की गई ऊर्जा है।
भविष्य में हाइड्रोज़न का महत्त्व
- उद्योग निकाय हाइड्रोज़न परिषद् के अनुमानों के अनुसार, हाइड्रोज़न तकनीक भविष्य में विश्व की कुल ऊर्जा आवश्यकता के लगभग 18% की आपूर्ति करने के साथ ही वर्ष 2050 तक दुनिया भर में लगभग 425 मिलियन वाहनों को शक्ति/पॉवर देने में सक्षम होगी।
- वर्ष 2050 के लिये यूरोपीय आयोग के ऊर्जा रोडमैप द्वारा प्रस्तावित किया गया है कि 85% ऊर्जा का उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों से किया जाएगा,जिसका 65% हिस्सा सौर और पवन ऊर्जा से आएगा।
- इस माँग को पूरा करने के लिये, आयोग ने जल के अणुओं को हाइड्रोज़न व ऑक्सीजन में विभाजित करने तथा बाद में उपयोग के लियेहाइड्रोज़न का भंडार करने के लिये अतिरिक्त बिजली के उपयोग का प्रस्ताव दिया है।
- कई अन्य देश/क्षेत्र पूरी तरह से न्यूनतम कार्बन आधारित बिजली (Low-Carbon Electricity) की ओर स्थानांतरित होकर उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य बना रहे हैं। दक्षिण ऑस्ट्रेलिया राज्य का लक्ष्य वर्ष 2025 तक निम्न-कार्बन स्रोतों से 100% बिजलीपैदा करने का है। वर्ष 2040 तक स्वीडन,वर्ष 2045 तक कैलिफोर्नियाऔर वर्ष 2050 तक डेनमार्क इसी लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रहे हैं।
निम्न कार्बन आधारित बिजली (Low-Carbon Electricity) और हरित हाइड्रोज़न
- सौर और पवन तकनीक की घटती लागत से भविष्य के ऊर्जा मिश्रण में इनकी हिस्सेदारी बढ़ने की उम्मीद है। इसके अलावा,नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग न केवल निम्न कार्बन बिजली प्रदान करने के लिये किया जा सकता है, बल्कि ग्रीन हाइड्रोज़न भी बनाया जा सकता है, जो एंड-यूज़ क्षेत्रों (End-Use Sectors) जैसे- परिवहन, उद्योगों और भवन में जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को विस्थापित कर सकता है।
- यह कई प्रक्रियाओं में फीडस्टॉक्स के रूप में भी जीवाश्म ईंधन की जगह ले सकता है। यह हाइड्रोज़न को एक बहुमुखी प्रौद्योगिकी बनाता है, जो अर्थव्यवस्थाओं को डी-कार्बोनाइज़ करने में मदद कर सकती है।
हरित हाइड्रोज़न : लागत
- विद्युत अपघटित(इलेक्ट्रोलाइटिक)हाइड्रोज़न उत्पादन में बिजली की लागत सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। ज़्यादातर मामलों में कार्बन कैप्चर यूज़ एंड स्टोरेज (CCUS) या नवीकरणीय विद्युत के साथ उत्पादित कम कार्बन उत्सर्जन वाले हाइड्रोज़न (Low-Carbon Hydrogen) जीवाश्म ईंधन से उत्पन्न हाइड्रोज़न की तुलना में महंगे हैं।
- प्राकृतिक गैस से उत्पादित हाइड्रोज़न की लागत आम तौर पर $1.53/kgH2 के आसपास होती है, जबकि नवीकरणीय विद्युत (सौर पी.वी. या तटवर्ती पवन) से उत्पन्न हाइड्रोज़न के लिये यह लागत लगभग $2.56/kgH2 है।
- अत्यधिक कम लागत वाले सौर और विद्युत अपघटन के संयोजन और बुनियादी ढाँचे के विकास के कारण वर्ष 2025 तक हरित हाइड्रोज़न की लागत घटकर $1.5प्रति किलोग्राम हो जानी चाहिये। फिर यह लागत वर्ष 2030 तक $1 तक हो जानी चाहिये, जो सम्भवत: यूरोप में प्राकृतिक गैस की लागत के बराबर होगी।
- उच्च क्षमता, प्लांट ऑटोमेशन, प्लांट लोड मैक्सिमाइज़ेशन से वर्ष 2025 तक इलेक्ट्रोलिसिस प्लांट की लागत को $300/किलोवाट और वर्ष 2030 में $200/किलोवाट तक कम करने में मदद मिल सकती है।
भारत और हाइड्रोज़न
- टेरी (TERI) के अनुसार, भारत में हाइड्रोज़न के उपयोग का सम्भावित अनुमान बहुत अधिक है, जो वर्ष 2050 तक तीन से दस गुना बढ़ सकता है।
- यह कार्बन-तटस्थ अर्थव्यवस्था की ओर संक्रमण में सहायक सिद्ध होगा।
बाधाएँ
- ऊर्जा संक्रमण में हाइड्रोज़न के पूर्ण लाभों का दोहन करने के लिये कई बाधाओं को दूर करने की आवश्यकता है।
- इन बाधाओं में इसके महत्त्व की अपर्याप्त मान्यता, प्राथमिक स्तर पर बड़े पैमाने पर निवेश के दीर्घकालिक जोखिमों को कम और साझा करने के लिये तंत्र की कमी के साथ-साथ हितधारकों के बीच समन्वित कार्रवाई की कमी, विकासशील तकनीकों के साथ निष्पक्ष आर्थिक व्यवहार और अर्थव्यवस्थाओं को चलाने के लिये सीमित प्रौद्योगिकी मानकशामिल हैं।
आगे की राह
- लम्बे समय तक हाइड्रोज़न के फायदेप्रेरणादायक हैं और ऊर्जा संक्रमण के लिये एक उत्साहजनक तस्वीर पेश करते हैं। पिछले तीन वर्षों में उत्पादों के व्यवसायीकरण ने इस क्षेत्र की वृद्धि को गतिप्रदान की है।
- सम्पूर्ण मूल्य श्रृंखला के साथ हाइड्रोज़न से सम्बंधित प्रौद्योगिकियों की लागत और प्रदर्शन में सुधार से हरित हाइड्रोज़न क्रांति में मदद मिलेगी।
- हाइड्रोज़न उत्पादन की सबसे स्थापित और प्रमाणित विधियों में से एक ‘नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके किसी इलेक्ट्रोलाइज़र के माध्यम से जल को हाइड्रोज़न और ऑक्सीजन में विभाजित करना’ है।इस प्रकार उत्पादित हाइड्रोज़न को हरित हाइड्रोज़न कहतेहैं।
- इंड-यूज़ ऊर्जा उपयोगकर्ता द्वारा सीधे उपभोग की जाने वाली ऊर्जा है।इंड-यूज़ क्षेत्रों (End-Use Sectors) में उद्योग, परिवहन, बिजली और वितरित ऊर्जा सहित विभिन्न क्षेत्रों को शामिल किया जा सकता है।
- वर्ष 2050 के लिये यूरोपीय आयोग के ऊर्जा रोडमैप ने प्रस्तावित किया है कि 85% ऊर्जा का उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों से किया जाएगा।
(सामान्य अध्ययन, मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र–3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी– विकास एवं अनुप्रयोग और रोजमर्रा के जीवन पर इनका प्रभाव, पर्यावरण संरक्षण)
विषय–हरित आवागमन
चर्चा में क्यों?
- कोविड–19 महामारीऔर वाहनों के उत्सर्जन के बारे में लोगों की बढ़ती समझ ने भारत में इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग में विकास की अपार सम्भावनाएँ पैदा कर दी हैं।
भूमिका
- हाल के वर्षों में भारत के इलेक्ट्रिक वाहन क्षेत्र में वृद्धि हुई है, हालाँकि यह गति वैश्विक औसत से कम है। भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की तुलना में आंतरिक दहन इंजन (Internal Combustion Engine -ICE) वाहनों की बिक्री अधिक होती है।
- वर्तमान में भारत के इलेक्ट्रिक वाहन क्षेत्र में अधिकांश हिस्सा ई-रिक्शे का है, जो एक स्वच्छ और किफायती आवागमन प्रदान करता है। इसीलिये भारत में अमेज़न जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी माल के आवागमन हेतु पूर्ण रूप से इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रयोग पर विचार कर रही हैं।
इलेक्ट्रिक वाहन क्षेत्र में भारत के प्रयास
- नेशनल इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन प्लान(National Electric Mobility Mission Plan-NEMMP) को वर्ष 2013 में शुरू किया गया था। इस योजना के तहत वर्ष 2020 तक 6 से 7 मिलियन हाइब्रिड वाहनों की बिक्री के लक्ष्य को प्राप्त करना है।इसके अंतर्गत वर्ष 2015 में इलेक्ट्रिक तथा हाइब्रिड वाहनों के निर्माण की तकनीक के प्रोत्साहन हेतु फेम इंडिया (Faster Adoption and Manufacturing of (Hybrid &) Electric Vehicles in India (FAME India) योजना शुरू की गई। प्रारंभ में इस योजना को 2 वर्षों के लिये शुरू किया था लेकिन बाद में इसके पहले चरण (फेम-I) को 4 वर्षों के लिये बढ़ा दिया गया था।इस योजना में इलेक्ट्रिक वाहनों केखरीद मूल्य को उचित बनाकर माँग प्रोत्साहन, प्रौद्योगिकी मंच, पायलट परियोजनाओं और चार्जिंग पॉइंट के लिये बुनयादी ढाँचे जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
Table 1: EV Sales in India (2014–15 to 2019–20)
Segment | FY15 | FY16 | FY17 | FY18 | FY19 | FY20 |
e-2-wheelers | 20,000 | 23,000 | 54,800 | 126,000 | 152,000 | |
e-4-wheelers | 2,000 | 2,000 | 1,200 | 3,600 | 3,400 | |
Buses | 600 | |||||
Total | 16,000 | 22,000 | 25,000 | 56,000 | 129,600 | 156,000 |
‘फेम योजना’ के दूसरे चरण (फेम-II) की शुरुआत वर्ष 2019 में तीन वर्षों के लिये की गई है। इसके लिये बड़े बजट का प्रावधान सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शता है, साथ ही इस क्षेत्र में कार्यशील कम्पनियों, शोधकर्ताओं और खरीददारों के लिये विशेष छूट के प्रावधान किये गए हैं।
भारतीय इलेक्ट्रिक वाहन क्षेत्र की चुनौतियाँ
- वर्तमान में इलेक्ट्रिक वाहनों की कीमत अधिक है तथा यह एक आम भारतीय के बजट में समाहित नहीं हो पा रही है।
- भारत में इस क्षेत्र में तकनीकी नवाचार (Technological Innovation) की कमी है तथा यह क्षेत्र अधिकांश रूप से आयात पर निर्भर है।
- कम्पनियों तथा खरीदारों को छूट तथा सब्सिडी प्राप्त करने के लिये विभिन्न शर्तों तथा प्रशासनिक जटिलताओं (Administrative Hurdles) का सामना करना पड़ता है।
- भारत में इलेक्ट्रिक चौपहिया वाहनों का बाज़ार सीमित है। इसका मुख्य कारण फेम-II योजना में इन वाहनों को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं दिया जाना है।
- लेड एसिड बैटरी (Lead-acid Battery) की तुलना में लिथियम आयन बैटरी (Lithium-ion Battery) दोगुनी महँगी होती है, जिसे फेम-II योजना के दायरे से बाहर रखा गया है। इसका इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
- वर्तमान में भारतीय इलेक्ट्रिक वाहन क्षेत्र में एक मज़बूत मूल्य श्रृंखला (इसमें किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन से लेकर वितरण तक सभी गतिविधियाँ शामिल होती हैं) के अभाव के चलते इस क्षेत्र से जुड़े निर्माताओं को कई प्रकार की असुविधाओं का सामना करना पड़ता है, जिससे इस क्षेत्र की वृद्धि बाधित हो रही है।
आगे की राह
- भारत सरकार को इलेक्ट्रिक वाहन क्षेत्र के लिये अपने नीतिगत दृष्टिकोण में परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
- भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहित किये जाने से प्रदूषण के स्तर में गिरावट आएगी, जिससे भारत की तेल आयात पर निर्भरता कम होगी,साथ ही राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्वच्छ ऊर्जा सम्बंधी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में भी सहायता मिलेगी ।
- सरकार को इलेक्ट्रिक वाहन सम्बंधी नीति में निर्माताओं, निवेशकों उपभोक्ताओं के लाभ हेतु सनसेट क्लॉज़ (इस प्रावधान के तहत नियम या कानून या इनका कोई खंड एक निश्चित अवधि के पश्चात निष्प्रभावी हो जाता है) का प्रावधान करना चाहिये, ताकि समय के साथ नए नीतिगत परिवर्तन किये जा सकें।
निष्कर्ष
- यह क्षेत्र भारत में अभी नवजात अवस्था में है, इसलिये इस क्षेत्र को मेक इन इंडिया तथा आत्मनिर्भर भारत अभियान जैसे कार्यक्रमों के अंतर्गत प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।भारत सरकार द्वारा ऊर्जा सुरक्षा तथा आयात बिल को कम करने हेतु इस क्षेत्र की तरफ विशेष रूप से ध्यानदेने की आवश्यकता है।
- National Electric Mobility Mission Plan (NEMMP) की शुरुआत वर्ष 2013 में भारी उद्योग विभाग (Department of Heavy Industry-DHI) द्वारा देश में इलेक्ट्रिक वाहनों के निर्माण और विकास हेतु की गई थी।
- फेम इंडिया (Faster Adoption and Manufacturing of (Hybrid &) Electric Vehicles in India-FAME India) की शुरुआत वर्ष 2015 में 2 वर्षों के लिये की गई थी, बादमें इसके पहले चरण (फेम-I) को 4 वर्षों के लिये बढ़ा दिया गया था।
- फेम-II की शुरुआत अप्रैल 2019 में 3 वर्ष के लिये की गई है।
(मुख्य परीक्षा सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3 : आंतरिक सुरक्षा)
विषय–रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया 2020
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, रक्षा मंत्रालय द्वारा नई रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया (Defence Acquisition Procedure-DAP), 2020 जारी की गई है। पूर्व में इसे रक्षा खरीद प्रक्रिया (Defence Procurement Procedure-DPP) के नाम से जाना जाता था।
रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया, 2020 के मुख्य बिंदु
- नई रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया 1 अक्टूबर 2020 से, रक्षा खरीद प्रक्रिया 2016 को प्रतिस्थापित करेगी।
- नई नीति में स्वदेशी फर्मों के लिये रक्षा खरीद से सम्बंधित कई वर्गों को आरक्षित किया गया है। इसमें भारतीय वेंडर को एक ऐसी कम्पनी के रूप में परिभाषित किया गया है, जो एक भारतीय नागरिक के स्वामित्त्व तथा नियंत्रण में हो तथा जिसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 49% से अधिक ना हो।
- नई नीति में विदेशी रक्षा खरीद के समग्र अनुबंध के मूल्य का 50% भारत में निवेश किया जाएगा, जिससे स्वदेशीकरण की प्रवृति को बढ़ावा मिलेगा। इस प्रावधान से भारत में रक्षा उपकरणों के निर्माण को प्रोत्साहन मिलेगा तथा रक्षा आयात में कमी होगी।
- सरकार द्वारा जारी की गई 101 वस्तुओं की आयात प्रतिबंध सूची को विशेष रूप से नई रक्षा नीति में शामिल किया गया है। ध्यातव्य है कि अगस्त में सरकार द्वारा घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहित करने हेतु कुछ देशों से विशिष्ट वस्तुओं के आयात को प्रतिबंधित किया गया है।
- नई अधिग्रहण प्रक्रिया में रक्षा खरीद के सम्बंध में ऑफसेट क्लॉज़ (offset clause) के प्रावधान के तहत विदेशी आपूर्तिकर्ताओं द्वारा अनुबंध के मूल्य के निर्धारित हिस्से का उपयोग (निर्माण या निवेश से सम्बंधित) भारत में ही किया जाएगा। ध्यातव्य है कि यह प्रावधान अंतर-सरकारी अनुबंधों में लागू नहीं होगा।
रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया, 2020 के फ़ायदे
- नई नीति के लागू होने से रक्षा खरीद की प्रक्रिया निर्धारित समय-सीमा के तहत पूरी हो सकेगी, जिससे रक्षा क्षेत्र को गति मिलेगी।
- नई प्रक्रिया से परियोजनाओं के प्रबंधन में कुशलता एवं दक्षता हासिल करने के उद्देश्य से परियोजना प्रबंधन इकाई (Project Management Units) की स्थापना से कारोबारी सुगमता की अवधारणा को बल मिलेगा।
- ऑफसेट क्लॉज़ का प्रावधान तकनीकी हस्तांतरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। क्योंकि इसके माध्यम से निजी क्षेत्र भारत में विदेशी आपूर्तिकर्ता की निवेश प्रतिबद्धता के विकल्प के रूप में तकनीकी हस्तांतरण प्राप्त कर सकता है।
- रक्षा अधिग्रहण की इस नई नीति से रक्षा उद्योग में निजी क्षेत्र की सहभागिता में वृद्धि होगी।
आगे की राह
- रक्षा विनिर्माण में आत्मनिर्भरता राष्ट्रीय सुरक्षा का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। इसलिये राष्ट्र की सम्प्रभुता तथा सैन्य श्रेष्ठता बनाए रखने हेतु घरेलू रक्षा उत्पादन पर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
- भारत के सामने दोनों मोर्चों पर पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद बना हुआ है। इस भू-रणनीतिक खतरे से निपटने हेतु रक्षा सुधारों को तीव्रता से लागू किया जाना चाहिये।
- वर्ष 2018-19 में भारत का कुल रक्षा उत्पादन 80,558 करोड़ रुपए और निर्यात 8,320 करोड़ रुपए था। सरकार द्वारा वर्ष 2025 तक घरेलू रक्षा उत्पादन को दोगुना तथा निर्यात को चार गुना करने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु समय-समय पर नीतिगत सुधारों की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
- स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट (सिपरी) की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार भारत सैन्य क्षेत्र में खर्च करने वाला दुनिया का तीसरा (अमेरिका और चीन के बाद) सबसे बड़ा देश है। जब तक रक्षा सौदों में विदेशी कम्पनियों का प्रभुत्त्व रहेगा तब तक आत्म निर्भरता का नारा सफल नहीं हो सकता। इसलिये एल. एंड टी., महिंद्रा और भारत फोर्ज़ जैसी प्राइवेट कम्पनियों को रक्षा क्षेत्र में विशेष छूट प्रावधानों के साथ अवसर दिया जाना चाहिये।
- पहली रक्षा खरीद प्रक्रिया वर्ष 2002 में शुरू की गई थी।
- रक्षा खरीद प्रक्रिया 2016 को वर्ष 2013 की रक्षा खरीद प्रक्रिया से प्रतिस्थापित किया गया था।
- रक्षा सौदों में ऑफसेट क्लॉज़ की शुरुआत वर्ष 2005 में की गई थी, जिसके तहत 300 करोड़ रुपए से अधिक की रक्षा पूँजी आयात पर सम्बंधित विदेशी आपूर्तिकर्ताओं द्वारा अनुबंध के मूल्य का कम से कम 30% भारत में ही निवेश करना आवश्यक था।
- रक्षा मंत्रालय द्वारा सशत्र बलों के सदस्यों के नवाचारी विचारों को जानने और उन्हें लागू करने हेतु IDEX4Fauji पहल तथा रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के उद्देश्य से डिफेंस इंडिया स्टार्टअप चैलेंज या DISC के चौथे संस्करण की शुरुआत की गई है।
रक्षा अधिग्रहण परिषद् (Defence Acquisition Council-DAC)
- रक्षा खरीद प्रक्रिया में भ्रष्टाचार से निपटने तथा सैन्य खरीद में तेज़ी लाने के उद्देश्य से वर्ष 2001 में भारत सरकार द्वारा रक्षा अधिग्रहण परिषद् की स्थापना की गई।
- परिषद् के कार्यों में सशत्र बलों की अनुमोदित आवश्यकताओं की शीघ्र खरीद सुनिश्चित करना, आवंटित बजटीय संसाधनों का बेहतर उपयोग करना, अधिग्रहण सम्बंधी नीतिगत दिशा-निर्देश सुनिश्चित करना तथा सभी रक्षा अधिग्रहण से सम्बंधित सौदों को मंज़ूरी प्रदान करना शामिल है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–कार्बन टैक्स : आवश्यकता एवं महत्त्व
चर्चा में क्यों?
- चीनने घोषणा की है कि वह वर्ष 2060 से पहले कार्बन डाऑक्साइड को ऑफसेट करने के उपायों के साथ अपने कार्बन उत्सर्जन को संतुलित करेगा।
पृष्ठभूमि
- चीन विश्व का सबसे बड़ा CO2उत्सर्जक देश है। चीन द्वारा इस घोषणा के साथ दूसरे और तीसरे सबसे बड़े CO2 उत्सर्जक देशों- अमेरिका और भारत पर विश्व की निगाह टिकी हुई है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा भी आयात पर कार्बन लेवी लगाने की यूरोपीय संघ की योजना का समर्थन किया जा रहा है। हरित गृह गैसों, जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड प्रमुख है, के उत्सर्जन का आर्थिक और जलवायुवीय प्रभाव काफी व्यापक है।
आर्थिक और जलवायुवीय प्रभाव
- दिल्ली में रिकॉर्ड हीटवेव, दक्षिण-पश्चिम चीन में बाढ़, ऑस्ट्रेलिया में जंगल की आग और इस वर्ष कैलिफोर्निया में जंगल की भयावह आग वैश्विक तापन से होने वाले खतरे के सूचक हैं।
- संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1998 से 2017 के बीच आपदा प्रभावित देशों में प्रत्यक्ष आर्थिक नुकसान $2.9 ट्रिलियन रहा, जिसमें से लगभग 77% की क्षति जलवायु परिवर्तन के कारण हुई।
- अमेरिका के बाद सबसे अधिक नुकसान का सामना चीन, जापान और भारत को करना पड़ा। भारत वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक 2020 में पाँचवें स्थान पर है।
- लॉकडाउन के कारण भारत सहित दुनिया भर में वायु प्रदूषण के स्तर में गिरावट देखी गई है, परंतु प्रदूषणकारी गतिविधियों के फिर से शुरू होने से इसके स्तर में वृद्धि होने की सम्भावना है।
- वैश्विक तापन के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार CO2 की स्थिति पिछले संचयों के कारण अगस्त 2020 में 414 पार्ट्स पर मिलियन (PPM) थी। इसमें से आधी हिस्सेदारी शीर्ष तीन कार्बन उत्सर्जक देशों की है, अत: इन देशों को अकार्बनीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना चाहिये।
बड़े निर्णय और कठोर कार्रवाई की आवश्यकता
- भारत वर्ष 2030 तक बिजली की क्षमता का 40% गैर–जीवाश्म ईंधनों से प्राप्त करने के प्रति कटिबद्ध है। साथ ही इसी समय–सीमा के अंतर्गत जी.डी.पी. से उत्सर्जन के अनुपात को वर्ष 2005 के स्तर से एक–तिहाई कम करने को लेकर भी प्रतिबद्ध है।
- वर्ष 2030 से पहले इस क्षेत्र में कड़ी कार्रवाई देश हित में है, ताकि वर्ष 2050 तक शून्य निवल कार्बन वृद्धि की ओर बढ़ा जा सकता है।
- इसके लिये कुछ बड़ी कम्पनियों द्वारा कार्बन मूल्य निर्धारण (Carbon Pricing) योजना, इलेक्ट्रिक वाहनों के लिये सरकारी प्रोत्साहन और 2020-21 के बजट में पर्यावरण कर जैसे दृष्टिकोण शामिल किये जा सकते हैं।
- कार्बन मूल्य निर्धारण का एक तरीका इमीशन ट्रेडिंग (Emission Trading) है। चीन में कार्बन ट्रेडिंग से सम्बंधित पायलट परियोजनाएँ सफल रहीं हैं।
- इस सम्बंध में यूरोपीय संघ और कुछ अमेरिकी राज्यों के अनुभव महत्त्वपूर्ण रहे हैं। उत्तर-पूर्व अमेरिका में ‘क्षेत्रीय ग्रीनहाउस गैस पहल’ इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- दूसरा तरीका आर्थिक गतिविधियों पर कार्बन टैक्स लगाना है। उदाहरण के लिये, कोयले जैसे जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर कार्बन टैक्स, जैसा कि कनाडा और स्वीडन में लगाया जाता है।
कार्बन टैरिफ को आरोपित करना
- यूरोपीय संघ द्वारा परिकल्पित कार्बन टैरिफ लगाने के लिये भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को अपने वैश्विक क्रेता एकाधिकार (Monopsony) या अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में एक बड़े खरीदार शक्ति का उपयोग करना चाहिये।
- व्यापार पर ध्यान केंद्रित करना एक महत्त्वपूर्ण कदम है। यदि आयात कार्बन उत्सर्जन कारकों पर आधारित रहता है तो केवल घरेलू स्तर पर कार्बन उत्पादन सामग्री को कम करना पर्याप्त कदम नहीं होगा।
- अत: इसके लिये क्रेता एकाधिकार, कूटनीति और वित्तीय क्षमताओं का उपयोग करना चाहिये।
इन पहलों से लाभ
- कनाडा में CO2 उत्सर्जन पर कार्बन टैक्स को $20 प्रति टन से $50 प्रति टन तक बढ़ा दिया गया, जिससे वर्ष 2022 तक 80 से 90 मिलियन टन के बीच ग्रीनहाउस गैस प्रदूषण के कम होने का अनुमान है।
- कार्बन मूल्य निर्धारण से बड़ा राजकोषीय लाभ हो सकता है। भारत में CO2 उत्सर्जन पर यदि $35 प्रति टन की दर से कार्बन टैक्स लगाया जाता है, तो वर्ष 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2% हिस्सा इससे प्राप्त हो सकता है।
- राजस्व अर्जित करते हुए प्रदूषक अपशिष्टों को कम करने का एक तरीका घरेलू उत्पादन और आयातित वस्तुओं की कार्बन प्राइसिंग है।
- कार्बन मूल्य निर्धारण (Carbon Pricing) कार्बन उत्सर्जन को कम करने का एक दृष्टिकोण है, जो उत्सर्जन लागत को उत्सर्जकों पर डालने के लिये बाज़ार तंत्र का उपयोग करता है।
- इससे कार्बन डाइऑक्साइड-उत्सर्जक जीवाश्म ईंधन का उपयोग हतोत्साहित होता है, जलवायु परिवर्तन के कारणों का निदान होता है। साथ ही यह राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय जलवायु समझौतों को भी पूरा करता है।
आगे की राह
- भारत उन देशों में शामिल है जो जलवायु प्रभावों से सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं। जलवायु कार्रवाई के लिये सार्वजनिक समर्थन तो मिल रहा है लेकिन साथ ही ऐसे समाधानों की आवश्यकता है, जो भारत के हित में हों।
- इस संदर्भ में भारत जलवायु परिवर्तन के मुख्य स्रोतों, जैसे- अत्यधिक कार्बन-युक्त ईंधन (कोयला आदि) पर कर लगाने और अन्य उपायों को अपनाकर विकासशील विश्व के अग्रणी देशों में शुमार हो सकता है।
- घरेलू रूप से कार्बन कर और व्यापार के लिये एक बाज़ार-उन्मुख दृष्टिकोण तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व कूटनीति के माध्यम से अन्य देशों द्वारा इसी तरह की कार्रवाई को प्रेरित करना आगे के लिये एक रास्ता प्रदान कर सकता है।
- चीन ने वर्ष 2060 से पहले अपने कार्बन उत्सर्जन को संतुलित करने की घोषणा की है। चीन सबसे बड़ा CO2 उत्सर्जक देश है।
- जलवायु परिवर्तन जनित नुकसान का सबसे अधिक सामना अमेरिका, चीन, जापान और भारत को करना पड़ा। भारत वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक 2020 में पाँचवें स्थान पर है।
- भारत वर्ष 2030 तक बिजली की क्षमता का 40% गैर-जीवाश्म ईंधनों से प्राप्त करने के साथ-साथ इसी समय-सीमा के अंतर्गत जी.डी.पी. से उत्सर्जन के अनुपात को वर्ष 2005 के स्तर से एक-तिहाई कम करने को लेकर भी प्रतिबद्ध है।
- कोयले जैसे जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर कनाडा और स्वीडन में कार्बन टैक्स लगाया जाता है।
(मुख्य परीक्षा; सामान्य अध्ययन प्रश्पत्र –3 : उदारीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव)
विषय–श्रम संहिताओं का नया संस्करण
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, सरकार द्वारा पेश की गईं तीन श्रम संहिताओं, औद्योगिक सम्बंध संहिता विधेयक, 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता विधेयक, 2020 और उपजीविकाजन्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संहिता, विधेयक, 2020 को लोकसभा द्वारा स्वीकृति दे दी गई है।
पृष्ठभूमि
- सरकार द्वारा 44 पुराने श्रम कानूनों को मिलाकर चार श्रम संहिता बनाने का निर्णय लिया गया था, जिनमें से मज़दूरी सम्बंधी संहिता को संसद द्वारा पहले ही पारित किया जा चुका है और यह लागू भी हो चुकी है।
नए प्रावधान
- औद्योगिक सम्बंध संहिता विधेयक, 2020
- इस संहिता का उद्देश्य निश्चित अवधि वाले कर्मचारियों की सेवा-शर्तों, वेतन, छुट्टी और सामाजिक सुरक्षा को नियमित कर्मचारियों के समान करना है।
- इस संहिता में औद्योगिक विवाद निपटान प्रणाली को सुगम बनाया गया है।
- इस संहिता में हड़ताल पर जाने से पूर्व 14 दिन की नोटिस अवधि की सीमा सभी संस्थानों में लागू होगी।
- श्रमिकों के लिये आचार संहिता को लागू करने के लिये औद्योगिक प्रतिष्ठानों में श्रमिकों की संख्या को 100 से बढ़ाकर 300 कर दिया गया है।
- छंटनी (Retrenchment) किये गए श्रमिकों के पुनः कौशल हेतु नियोक्ता द्वारा श्रमिक के पिछले 15 दिनों के बराबर की राशि के योगदान से रि-स्किलिंग फंड स्थापित किया जाएगा।
सामाजिक सुरक्षा संहिता विधेयक, 2020
- असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों तथा स्वरोज़गार श्रमिकों के लिये ‘सामाजिक सुरक्षा कोष’ के निर्माण का प्रावधान किया गया है।
- कर्मचारी राज्य बीमा निगम की सुविधाओं का विस्तार अब असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिकों, गिग श्रमिकों (ऐसे श्रमिक, जिन्हें केवल ज़रूरत के समय ही रखा जाता है) और प्रवासी श्रमिकों तक किया जाएगा।
- जोखिम से जुड़े क्षेत्रों में कार्य करने वाले सभी प्रतिष्ठान कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) के दायरे में आएँगे तथा किसी संगठन में 20 से अधिक कर्मचारी कार्य करते हैं तो वहाँ कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) के प्रावधान लागू होंगे।
- विभिन्न वर्गों के असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों और अनुबंधित श्रमिकों के लिये उपयुक्त योजना के निर्माण हेतु केंद्र सरकार को सिफारिश करने के लिये ‘राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड’ की स्थापना की जाएगी।
- विधेयक में करियर सेंटर, एग्रीगेटर, गिग वर्कर और वेज सीलिंग जैसे कई शब्दों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
उपजीविकाजन्य सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशा संहिता, 2020 विधेयक
- इस संहिता में कर्मचारियों के लिये नियोक्ता के कर्तव्यों का जिक्र किया गया है, जैसे- सुरक्षित कार्यस्थल, कर्मचारियों की मुफ्त सालाना स्वास्थ्य जाँच व्यवस्था और असुरक्षित कार्य स्थितियों के बारे में सम्बंधित श्रमिकों को सूचित करना आदि।
- अवकाश के नए नियमों के तहत अब कोई श्रमिक 240 दिन के स्थान पर 180 दिन कार्य करने के पश्चात ही छुट्टी प्राप्त करने का हकदार बन जाता है।
- कार्यस्थल पर किसी कर्मचारी को चोट लगने पर उसे 50% का हर्ज़ाना मिलेगा।
- सभी प्रतिष्ठानों में सभी प्रकार के कार्यों हेतु महिलाओं को रोज़गार प्रदान करना होगा। नए प्रावधानों के अंतर्गत वे अपनी सहमति और शर्तों के साथ रात में भी कार्य कर सकती हैं।
नए प्रावधानों से लाभ
- नए प्रावधानों से श्रमिकों, उद्योग जगत और अन्य सम्बंधित पक्षों के मध्य सामंजस्य स्थापित होगा।
- सामाजिक सुरक्षा कोष की सहायता से असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिकों को मृत्यु बीमा, दुर्घटना बीमा, मातृत्व लाभ और पेंशन का लाभ प्राप्त होगा।
- प्रवासी श्रमिक की परिभाषा में विस्तार से उन्हें कई सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकेगा। साथ ही प्रवासी मज़दूरों के लिये मालिक को वर्ष में एक बार यात्रा भत्ता देना होगा।
- नए परिवर्तनों से मज़दूरों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार होने के साथ ही कारोबारी सुगमता के कारण विदेशी निवेशक भारत में निवेश के लिये आकर्षित होंगे।
चुनौतियाँ
- नए प्रावधान नियोक्ताओं के हितों के अनुकूल दिखाई पड़ते हैं। ये नियोक्ताओं को सरकार की अनुमति के बिना श्रमिकों को कार्य पर रखने और निकालने सम्बंधी प्रावधानों में अधिक लचीलापन प्रदान करते हैं।
- विभिन्न सुरक्षा उपायों के बावजूद महिलाओं को रात के समय कार्य करने की अनुमति देने से उनके प्रति यौन शोषण की प्रवृत्ति में वृद्धि हो सकती है।
- संशोधित प्रावधान हड़तालों और प्रदर्शनों पर प्रतिबंध से औद्योगिक कर्मियों की स्वंत्रता को सीमित करते हैं।
- नए प्रावधानों के तहत श्रमिकों को निर्माण कार्यस्थल के समीप अस्थाई आवास की व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया गया है, जिससे इन श्रमिकों के आवास तथा परिवहन की समस्या उत्पन्न होगी।
निष्कर्ष
- काफी समय से लम्बित और बहुप्रतीक्षित श्रम सुधार संसद द्वारा पारित किये गये हैं। ये सुधार श्रमिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के साथ ही आर्थिक विकास को भी बढ़ावा देंगे। वास्तव में ये श्रम सुधार न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन के उम्दा उदाहरण हैं।
- कोविड–19 महामारी के बाद बदले हुए आर्थिक परिदृश्य में श्रमिकों के अधिकारों और आर्थिक सुधारों में संतुलन आवश्यक है। किसी एक पक्ष का समर्थन करने से दीर्घकाल में देश के समावेशी विकास के लक्ष्य पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
(मुख्य परीक्षा सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3 : संचार नेटवर्क के माध्यम से आंतरिक सुरक्षा को चुनौती, आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों में मीडिया और सामाजिक नेटवर्किंग साइटों की भूमिका)
विषय– डिजिटल मीडिया का विनियमन
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में सरकार द्वारा सुदर्शन टीवी मामले में हेट स्पीच को लेकर एकहलफनामा दाखिल किया गया है, जिसमें कहा गया है कि वेब आधारित डिजिटल मीडिया का विनियमन समय की आवश्यकता है।
क्या है सुदर्शन टीवी मामला?
- सुदर्शन टीवी के एक प्रोग्राम ने विदेशों में आतंकी गतिविधियों से जुड़े संगठनों की फंडिंग की सहायता से सिविल सेवाओं में घुसपैठ का आरोप लगाया है। इस सम्बंध में सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएँ दायर कर कहा गया है कि यह प्रोग्राम इरादतन एक विशेष समुदाय को अपमानित करने के उद्देश्य से हेट स्पीच और सामग्री प्रसारित कर रहा है।
- न्यायालय द्वारा इस मामले का अवलोकन करते हुए पाँच नागरिकों की समिति के गठन का निर्णय दिया गया था, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से सम्बंधित मानकों पर अपने सुझाव प्रस्तुत करेंगे। तीन न्यायाधीशों वाली खंडपीठ ने सरकार से भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के स्व-नियमन तंत्र (Self-Regulation Mechanism) में सुधार हेतु सुझाव मांगे हैं।
डिजिटल मीडिया
- डिजिटल मीडिया डिजिटल सामग्री है, जिसे इंटरनेट या कम्प्यूटर नेटवर्क पर प्रसारित किया जा सकता है। इसमें टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो और ग्राफिक्स शामिल हो सकते हैं। किसी टी.वी. नेटवर्क, समाचार-पत्र, पत्रिका आदि से किसी वेबसाइट या ब्लॉग पर पोस्ट की जाने वाली सामग्रियाँ इस श्रेणी के अंतर्गत आती हैं। अधिकांश डिजिटल मीडिया एनालॉग डेटा को डिजिटल डेटा में अनुवाद करने पर आधारित हैं।
सरकार का पक्ष
- सरकार का पक्ष है कि प्रिंट और टेलीविज़न मीडिया पहले से ही विनियमित है,लेकिन वर्तमान में डिजिटल मीडिया को विनियमित करने की आवश्यकता है, क्योंकि इसकी पहुँच अधिक व्यक्तियों तक है तथा यहाँ सामग्री के वायरल होने की अधिक सम्भावना होती है।
- फेक न्यूज़ और भ्रामक सूचनाओं के प्रसार को रोकने के लिये भी डिजिटल मीडिया के विनियमन की आवश्यकता है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का स्व–नियमन
- सरकार ने डिजिटल मीडिया के स्व-नियमन तंत्र ( Self-Regulation Mechanism) पर बल देते हुए कहा है कि यह तंत्र निष्पक्षता सुनिश्चित करता है। हाल ही में कुछ ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म्स (नेटफ्लिक्स और अमेज़न प्राइम आदि) द्वारा स्व-नियमन तंत्र को अपनाया गया है।
डिजिटल मीडिया के विनियमन की चुनौतियाँ
- डिजिटल मीडिया के विनियमन के सम्बंध में न्यायालय के समक्ष अभिव्यक्ति की स्वंत्रता तथा सामुदायिक गरिमा और हेट स्पीच के मध्य संतुलन स्थापित करने की मुख्य चुनौती है।
- डिजिटल मीडिया में विदेशी फंडिंग भी एक प्रमुख चुनौती है। वर्तमान में इसके सम्बंध में पारदर्शिता का अभाव है।
- कुछ प्रिंट मीडिया और टीवी मीडिया में संलग्न संस्थाएँ डिजिटल मीडिया में भी कार्य कर रही हैं, लेकिन वे डिजिटल मीडिया के नियमों के दायरे से बची हुई हैं।
- हिंसा भड़काने वाली सामग्री पर पहले से ही नियम-कानून मौजूद हैं, लेकिन राजनैतिक प्रतिबद्धता के अभाव के चलते ये लागू नहीं हो पाते हैं।
- सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अनुचित या भड़काऊ सामग्री की जाँच के सम्बंध में कोई सख्त कदम नहीं उठाते हैं, साथ ही इन प्लेटफॉर्म्स के लिये उत्तरदायित्व का भी अभाव है।
डिजिटल मीडिया को विनियमित करने हेतु सुझाव
- डिजिटल मीडिया पर अनुचित सामग्री को हटाने सम्बंधी दिशा-निर्देशों का पालन नहीं करने पर सम्बंधित व्यक्ति, संस्था और प्लेटफॉर्म्स पर भारी जुर्माना तथा कठोर सज़ा का प्रावधान किया जाना चाहिये।
- सामाजिक और राजनैतिक रूप से संवेदनशील संदेशों की निगरानी हेतु साइबर विभाग को आधुनिक तकनीक और उपकरण प्रदान किये जाने चाहिये।
- फैक्ट चेक वेबसाइटों और यूनिटों की पहुँच के दायरे में विस्तार की आवश्यकता है, जिससे भ्रामक या गलत सूचना पर समय रहते लगाम लगाई जा सके।
निष्कर्ष
- वर्तमान समय में डिजिटल मीडिया का विनियमन आवश्यक है। यह माध्यम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता और सूचना के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों का सम्मान करता है तथा उन्हें सुरक्षित भी करता है। लेकिन इस माध्यम द्वारा सार्वजनिक नैतिकता के उल्लंघन और घृणित तथा अपमानजनक सामग्री के प्रसार के सम्बंध में उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के साथ ही कड़ी कार्यवाही का प्रावधान किया जाना चाहिये।
(मुख्य परीक्षा, प्रश्नपत्र – 3 : आपदा प्रबंधन )
विषय–आकस्मिक बाढ़
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में,विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) द्वारा बेहतर समन्वय, विकास और कार्यान्वयन हेतु दक्षिण एशिया फ़्लैश फ्लड गाईडेंस सर्विसेज़ (आकस्मिक बाढ़ सम्बंधी मार्गदर्शन सेवाएँ) के क्षेत्रीय केंद्र की ज़िम्मेदारी भारत (भारतीय मौसम विज्ञान विभाग) को सौंपी गई है।
आकस्मिक बाढ़ सम्बंधी मार्गदर्शन प्रणाली परियोजना
- विश्व मौसम विज्ञान संगठन की 15वीं कांग्रेस द्वारा आकस्मिक बाढ़ सम्बंधी मार्गदर्शन प्रणाली परियोजना (फ़्लैश फ्लड गाइडेंस सिस्टम प्रोजेक्ट) के कार्यान्वयन हेतु स्वीकृति दी गई थी।
- यह प्रणाली डब्ल्यू.एम.ओ. कमीशन फॉर हाइड्रोलॉजी द्वारा डब्ल्यू.एम.ओ. कमीशन फॉर बेसिक सिस्टम तथा यू.एस. नेशनल वेदर सर्विस, यू.एस. हाइड्रोलॉजिकल रिसर्च सेंटर (एच.आर.सी.) एवं यू.एस.ऐड/ओ.एफ.डी.ए. के सहयोग से विकसित की गई थी।
- भारतीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा दक्षिण एशियाई क्षेत्र हेतु 23 अक्तूबर, 2020 को इस प्रणाली की शुरुआत की गई। भारत के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMC) तथा केंद्रीय जल आयोग (CWC) भी इस प्रणाली में भागीदार हैं।
प्रणाली की विशेषताएँ
- यह प्रणाली दक्षिण एशियाई देशों भारत, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में जल तथा मौसम सम्बंधी खतरों का पूर्वानुमान लगाने हेतु क्षमता निर्माण (Capacity Building) के क्षेत्र में सहयोगात्मक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करेगी।
- दक्षिण एशियाई क्षेत्र के देशों में जन-धन की हानि को कम करने हेतु आवश्यक राहत उपायों सम्बंधी मार्गदर्शन सेवाएँ क्षेत्रीय केंद्रों की सहायता से राष्ट्रीय एवं राज्य के आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों और अन्य सभी हितधारकों को उपलब्ध कराई जाएँगी।
- इस प्रणाली द्वारा दक्षिण एशियाई देशों के बाढ़ सवेंदनशील क्षेत्रों के लिये वास्तविक समय में चेतावनी प्रणाली (Real Time Warning) उपलब्ध कराई जाएगी।
- प्रणाली द्वारा सम्बंधित क्षेत्र में जल स्तर में अचानक उतार-चढ़ाव (बाढ़ उत्पन्न करने सम्बंधी) के पूर्वानुमानों पर आधारित चेतावनी भी दी जाएगी।
- ध्यातव्य है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आई.एम.डी.) ने पूर्व संचालित प्रणाली (Pre-operational System) के विकास हेतु गत मानसूनी मौसम के दौरान इस मार्गदर्शन प्रणाली का परीक्षण किया तथा सत्यापन हेतु दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिये आकस्मिक बाढ़ हेतु बुलेटिन जारी किये गए थे।
भारत को महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सौंपने का कारण
- भारतीय मौसम विज्ञान विभाग अत्याधुनिक कम्प्यूटिंग तकनीक, मौसम की संख्यात्मक आधारित पूर्वानुमानों तथा अवलोकन सम्बंधी विस्तृत नेटवर्क (धरती, वायु और अन्तरिक्ष आधारित) जैसी क्षमताओं से सुसज्जित है। इसीलिये विश्व मौसम विज्ञान संगठन द्वारा बेहतर समन्वय, विकास और कार्यान्वयन हेतु दक्षिण एशिया फ्लैश फ्लड गाइडेंस सिस्टम के क्षेत्रीय केंद्र का उत्तरदायित्व भारत को सौंपा गया है।
हाल ही में, भारत सरकार के जहाज़रानी मंत्रालय द्वारा समुद्री यातायात सेवा और पोत निगरानी व्यवस्था (वी.टी.एम.एस.) हेतु स्वदेशी सॉफ्टवेयर समाधानों के विकास की शुरुआत की गई थी। समुद्री सुरक्षा से सम्बंधित समाधानों की दिशा में भारत तेज़ी से विकास कर रहा है।
आवश्यकता
- दुनिया भर के देशों में आकस्मिक बाढ़ से सम्बंधित वास्तविक समय आधारित चेतावनी प्रणाली का अभाव है।
- आकस्मिक बाढ़ से व्यापक स्तर पर जानमाल की क्षति होती है। अतः इस प्रकार की मार्गदर्शन सेवाओं से जोखिमों को कम किया जा सकता है।
मार्गदर्शन प्रणाली में सुधार हेतु सुझाव
- जल विज्ञान से सम्बंधित व्यवस्था के प्रदर्शन में सुधार हेतु वर्षा तथा मिटटी के अवलोकन से जुड़े नेटवर्क को उन्नत करने की आवश्यकता है।
- सोशल मीडिया के उपयोग से सभी हित धारकों के लिये सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक स्वचालित माध्यम निर्मित किया जाना चाहिये। ताकि आपदा सम्बंधी सूचनाएँ सम्बंधित अधिकारियों तक समय रहते पहुँच सके।
- दक्षिण एशियाई क्षेत्र में आंकड़ों, विशेषज्ञता के विकास और सेवाओं की निरंतरता बनाए रखने हेतु हाइड्रोलॉजिकल अनुसंधान केंद्र तथा विश्व मौसम विज्ञान संगठन के साथ क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
वर्तमान में बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आवृति में वृद्धि हुई है तथा इसके अधिकांश कारण मानव जनित हैं। अतः विकास सम्बंधी गतिविधियों तथा पर्यावरण संरक्षण के मध्य बेहतर संतुलन स्थापित करते हुए संधारणीय भविष्य की राह तय करने की आवश्यकता है।
- विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization-WMO)की स्थापना वर्ष 1947 की संधि के आधार पर वर्ष 1950 में की गई थी। यह सयुंक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी है जो वायुमंडल विज्ञान, जल विज्ञान, जलवायु विज्ञान तथा भू-भौतिकी से सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने हेतु कार्य करती है। वर्तमान में इसके भारत सहित 193 सदस्य देश हैं।
- भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department – IMD )भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत मौसम सम्बंधी अवलोकन कर पूर्वानुमान तथा भूकम्प गतिविधियों का अध्ययन कर जानकारी प्रदान करने वाली एक एजेंसी है। इसका मुख्यालय दिल्ली में स्थित है तथा यह भारत एवं अंटार्कटिका के सैंकड़ों अवलोकन स्टेशनों (observation stations) का संचालन करता है।