GS-1,2,3 & 4 Mains
The Hindu Editorials in Hindi Medium
सितंबर 2020
विषय-सूची
GS-1 Mains
- के.जी. बेसिन : मीथेन ईंधन का एक उत्कृष्ट स्रोत
- दिल्ली मास्टर प्लान 2041
- चरम मौसमी घटनाएँ
- क्षुद्रग्रहों से पृथ्वी को खतरा
GS-2 Mains
- आवश्यक वस्तुओं की सूची में संशोधन
- दक्षिण एशियाई क्षेत्र
- संयुक्त राष्ट्र के 75 वर्ष
- गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र
- संसद में विधेयक एवं प्रवर समिति
- आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम और जासूसी रोधी कानून
- सिंधु जल समझौते के 60 वर्ष
- श्रीलंकाई संविधान में संशोधन और भारत
- आवास का अधिकार
- विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010
- गुटनिरपेक्षता का विकल्प
- मराठा आरक्षण कोटा
- G-20 समूह के विदेश मंत्रियों की बैठक
- अमेरिका का हैच एक्ट
- मिशन कर्मयोगी और सिविल सेवकों की कार्यप्रणाली में सुधार का प्रयास
- विकलांग/दिव्यांग व्यक्तियों के लिये सामाजिक न्याय पर संयुक्त राष्ट्र के दिशानिर्देश
- देश में एकल मतदाता सूची की चर्चा का ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिये निहितार्थ
- जम्मू और कश्मीर में प्रशासन हेतु नए नियम
- एस.सी. व एस.टी. जातियों का उप-वर्गीकरण तथा सम्बंधित मामले
- विशेष विवाह अधिनियम
- पेयजल आपूर्ति के सम्बंध में भारतीय मानक ब्यूरो का मापदंड प्रारूप
- भारत और IMF
- मातृभाषा व अधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी का अस्तित्त्व
GS-3 Mains
- महासागरीय सेवाओं से जुड़ी प्रौद्योगिकी व ओ-स्मार्ट योजना
- भारत की अंतरिक्ष हथियार क्षमता : चुनौतियाँ तथा सुझाव
- ऑनलाइन आंदोलन
- उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल अधिनियम
- सेबी द्वारा मल्टी कैप फंड सम्बंधी दिशा-निर्देश
- हाइपरसोनिक प्रौद्योगिकी प्रदर्शन वाहन
- आर.बी.आई. द्वारा प्राथमिकता क्षेत्र ऋण मानदंडों में बदलाव
- सोशल मीडिया मंच पर सामग्री नियमन से जुड़ी प्रक्रियाएँ और चिंताएँ
- भारत द्वारा एक नई आकाशगंगा की ख़ोज
- स्वयं सहायता समूह और बढ़ता एन.पी.ए.
- व्यापार सुगमता सूचकांक और अपेक्षित सुधार तथा भारत
- सकल घरेलू उत्पाद में अभूतपूर्व संकुचन
- अटलांटिक महासागर में बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण की गम्भीरता
- संयुक्त राष्ट्र द्वारा जलवायु प्रस्ताव और भारत के लिये उसकी व्यावहारिकता
- बायोमास संयंत्र, बायो-सी.एन.जी. और बायो-एथेनॉल में पराली का अधिकतम उपयोग
- फोरेंसिक क्लोनिंग तथा सम्बंधित कानूनी पहलू
GS-1 Mains
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 व 3 : दक्षिण एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप सहित विश्व के मुख्य प्राकृतिक संसाधनों का वितरण, बुनियादी ढाँचाः ऊर्जा, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–के.जी. बेसिन : मीथेन ईंधन का एक उत्कृष्ट स्रोत
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के एक स्वायत्त संस्थान- ‘अगरकर अनुसंधान संस्थान’ (ARI) के शोधकर्ताओं द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, कृष्णा–गोदावरी (KG) बेसिन में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाला ‘मीथेन हाइड्रेट निक्षेप’ मीथेन की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चितकरेगा।
पृष्ठभूमि
- यह अध्ययन डी.एस.टी.-एस.ई.आर.बी. (DST-SERB) युवा वैज्ञानिक परियोजना के एक भाग के रूप में आयोजित किया गया था। इस अध्ययन को ‘मरीन जीनोमिक्स’ पत्रिका में प्रकाशन के लिये स्वीकृत कर लिया गया है।
- मीथेन हाइड्रेट का निर्माण तब होता है जब हाइड्रोजन-संयुग्मित जल (Hydrogen-Bonded Water) और मीथेन गैस महासागरों में उच्च दाब और कम तापमान में एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं।
अध्ययन में प्रयुक्त तकनीक
- यह अध्ययन आणविक और संवर्धन (Culturing) तकनीकों का उपयोग करके किया गया है।
- इस अध्ययन से के.जी. बेसिन में अधिकतम मीथेनोजेनिक विविधता का पता चला है, जो अंडमान और महानदी बेसिन की तुलना में बायोजेनिक मीथेन का प्रचुर स्रोत होने की पुष्टि का एक प्रमुख कारण है।
- मीथेन हाइड्रेट का यह निक्षेप जैविक मूल (Biogenic Origin) का है।
लाभ और महत्त्व
- इस टीम ने मिथेनोजेन्स (Methanogens) की पहचान की है जो कि मिथेन हाइड्रेट के रूप में फंसे बायोजेनिक मीथेन का उत्पादन करते हैं। यह ऊर्जा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हो सकता है।
- इस बेसिन में मीथेन हाइड्रेट भंडार एक समृद्ध स्रोत के रूप में है, जो प्राकृतिक गैस मीथेन की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करेगा।
- मीथेन एक स्वच्छ और किफायती ईंधन है। मीथेन की स्वच्छ दहन प्रक्रिया इसे एक आकर्षक ईंधन बनाती है। जब ऑक्सीजन की उपस्थिति में इसका दहन होता है, तो मिथेन का एक अणु पानी के दो अणु और कार्बन डाइऑक्साइड का एक अणु मुक्त करता है।
- अनुमान है कि एक घन मीटर मीथेन हाइड्रेट में 160-180 घन मीटर मीथेन होता है।
- इन सबके अतिरिक्त, के.जी. बेसिन में मीथेन हाइड्रेट्स के भंडार में उपस्थित मीथेन का न्यूनतम अनुमान भी विश्व भर में उपलब्ध सभी जीवाश्म ईंधन के भंडार का दोगुना है।
के.जी. बेसिन
- कृष्णा-गोदावरी बेसिन को के.जी. बेसिन कहा जाता है। यह आंध्र प्रदेश में 50,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है।
- के.जी. बेसिन हाइड्रोकार्बन का एक समृद्ध स्रोत माना जाता है। इस बेसिन को ऑलिव रिडले समुद्री कछुए का आश्रय स्थल माना जाता है, जो एक संवेदनशील प्रजाति है।
आगे की राह
कृष्णा-गोदावरी (KG) बेसिन और अंडमान तथा महानदी के तट के पास बायोजेनिक मूल के बड़े पैमाने पर मीथेन हाइड्रेट निक्षेप मिलने के कारण सम्बद्ध मेथोजेनिक समुदाय का अध्ययन करना भी आवश्यक है।
PT Analysis
- मिथेनोजेन्स मिथेन हाइड्रेट के रूप में फंसे बायोजेनिक मीथेन के उत्पादन में सहायक होते हैं।
- एक घन मीटर मीथेन हाइड्रेट में लगभग 160-180 घन मीटर मीथेन होता है।
- कृष्णा-गोदावरी बेसिन को के.जी. बेसिन कहते हैं, जो ओलिव रिडले समुद्री कछुए का आश्रय स्थल भी माना जाता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 व 3: शहरीकरण, उनकी समस्याएँ और उनके रक्षोपाय, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–दिल्ली मास्टर प्लान 2041 और ‘ग्रीन–ब्लू’ नीति
चर्चा में क्यों?
- वर्तमान में दिल्ली विकास प्राधिकरण(DDA) ‘दिल्ली 2041’ मास्टर प्लान की तैयारी हेतु सार्वजनिक रूप से परामर्श ले रहा है। दिल्ली मास्टर प्लान 2041- दिल्ली के विकास के लिये एक विज़न डॉक्यूमेंट है।
पृष्ठभूमि
- दिल्ली के लिये मौजूदा मास्टर प्लान अगले वर्ष अप्रचलित हो जाएगा। मसौदा नीति में कई विशेषताएँ हैं, परंतुजल निकायों और इसके आसपास की भूमियों पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित किया गया है, अत: इसे ‘ग्रीन-ब्लू नीति’ के रूप में जाना जा रहा है।
ग्रीन–ब्लू अवसंरचना
- ‘ब्लू अवसंरचना’ नदियों, नहरों, तालाबों और झीलों के साथ-साथ आर्द्र भूमियों, बाढ़ के मैदानों व जल शोधन संयंत्रों/सुविधाओं जैसे जल निकायों को संदर्भित करती है, जबकि ‘ग्रीन अवसंरचना’ का तात्पर्य पेड़ों, लॉन और मेड़ की पंक्तियों के साथ–साथ पार्कों, खेतों और जंगलों से है।
- यह अवधारणा एक ऐसे शहरी नियोजन को संदर्भित करती है, जहाँ जल निकाय और भूमि एक–दूसरे पर आश्रित हैं। पर्यावरण और सामाजिक लाभों को प्रस्तावित करते हुए ये एक-दूसरे की मदद से विकसित होते हैं।
इस योजना पर अमल की प्रक्रिया
- इस योजना के पहले चरण में डी.डी.ए. विभिन्न एजेंसियों की बहुलता से उत्पन्न समस्या से निपटना चाहता है। राज्य की विशेष प्रकृति के कारण दिल्ली कई वर्षों से इस समस्या से जूझ रही है।
- डी.डी.ए. अधिकार क्षेत्र से सम्बंधित मुद्दों, निकास व्यवस्था और उसके आसपास के क्षेत्रों में विभिन्न एजेंसियों द्वारा किये जा रहे कार्य पर विचार करते हुए पहले एक खाका बनाना चाहता है। इसके बाद एक व्यापक नीति तैयार की जाएगी, जो सभी एजेंसियों के लिये एक सामान्य दिशा–निर्देश के रूप में कार्य करेगी।
- दिल्ली में लगभग 50 बड़े नाले (नीले क्षेत्र) हैं, जिनका प्रबंधन विभिन्न एजेंसियों द्वारा किया जाता है और उनकी खराब स्थिति तथा अतिक्रमण के कारण इसके आसपास की भूमि (हरे क्षेत्र) भी प्रभावित हुई है।
- डी.डी.ए. अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर इनका एकीकरण करेगा और अनुपचारित अपशिष्ट जल के बहिर्वाह या मुहाने की जाँच करने के साथ-साथ मौजूदा प्रदूषकों को भी हटाकर, प्रदूषण के सभी स्रोतों को ख़त्म करेगा।
- इसके लिये मशीनीकृत और प्राकृतिक प्रणालियों के समन्वय का तरीका अपनाया जा सकता है और इनमें से किसी भी स्थान पर ठोस कचरे की डम्पिंग को स्थानीय निकायों द्वारा सख्ती से प्रतिबंधित किया जाएगा।
पुनर्विकास के बाद क्षेत्र की स्थिति
- इन निकास व्यवस्थाओं के आसपास की भूमि विशेष बफ़र परियोजनाओं के रूप में घोषित की जाएँगी।
- हरे–भरे सम्बद्ध स्थानों का एक जाल पैदल यात्रा और साइकिल चालन मार्गों के ‘ग्रीन मोबिलिटी सर्किट’ के रूप में विकसित किया जाएगा। इसे निकास अपवाह तंत्र के समानांतर कार्यात्मक और यात्रा व सैर करने के लिये विकसित किया जाएगा।
- योग, सक्रिय खेलों (जिनमें शारीरिक क्रिया हो), ओपेन एयर प्रदर्शनियों, संग्रहालयों और सूचना केंद्रों, ओपेन एयर थिएटरों, साइकिल चलाने व टहलने की सुविधाओं के लिये भी खाली जगह के विकास की योजना है। साथ ही वनस्पतिशाला, हरितगृह, सामुदायिक वनस्पति उद्यान, नौका विहार की सुविधा, रेस्तरां और अन्य कम प्रभाव वाले सार्वजनिक उपयोग स्थल को विशेष परियोजनाओं के हिस्से के रूप में प्रोत्साहित किया जा सकता हैं।
- उपयोग की प्रकृति, सार्वजनिक पहुँच की सीमा/विस्तार, वनस्पति के प्रकार, जल निकायों के विकास के लिये उपयुक्तता, आदि को वैज्ञानिक आकलन के माध्यम से मामले-दर-मामले के आधार पर निर्धारित किया जाएगा।
- इसके बाद इन एकीकृत गलियारों के अगल–बगल अचल सम्पत्ति (Real Estate) का भी विकास किया जाएगा।
चुनौतियाँ
- यहाँ सबसे बड़ी चुनौती विकास कार्यों और उनके संचालन में एजेंसियों की बहुतायतता है। इसके लिये डी.डी.ए. इस परियोजना में विभिन्न हितधारकों के रूप में दिल्ली जल बोर्ड, बाढ़ व सिंचाई विभाग और नगर निगम जैसी विभिन्न एजेंसियों को एक साथ लाना चाहता है।
- दिल्ली जैसे शहरों में जहाँ जलभराव की समस्या भी विभिन्न एजेंसियों के बीच दोषारोपण का कारण बन जाती है वहाँ विभिन्न एजेंसियों को एक साथ लाना विशेष रूप से एक कठिन कार्य होगा क्योंकि डी.डी.ए. के पास इन निकायों के निरीक्षण की कोई शक्ति नहीं है।
- दूसरी बात दिल्ली में वर्षों से जल निकायों और नालों की सफाई अब एजेंसियों के लिये एक चुनौती बन गईं हैं। आई.आई.टी. – दिल्ली के शोधकर्ताओं की एक रिपोर्ट में 20 प्रमुख सीवर निकासों और यमुना नदी पर पाँच प्रमुख स्थलों पर कोलीफॉर्म और अन्य प्रदूषकों की अत्यधिक उपस्थिति पाई गई है।
- ऐसा माना जाता है कि इन निकासों से केवल बारिश का पानी बहता है। हालाँकि, अध्ययन में इन निकासों में से कुछ में मल अपशिष्ट और यहाँ तक कि औद्योगिक कचरा भी पाया गया।
- डी.डी.ए. द्वारा पहले भी इसी तरह का एक प्रयास किया गया था, जहाँ यमुना में कचरे की डम्पिंग की जाँच के लिये एक विशेष टास्क फोर्स बनाई गई थी परंतु यह योजना सफल नहीं रही है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 व 3: वनस्पति एवं प्राणिजगत में परिवर्तन और इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रभाव, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–चरम मौसमी घटनाएँ और नीलगिरि पारिस्थितिकी तंत्र के लिये संकट : ख़तरे में पहाड़ियाँ
पृष्ठभूमि
- हाल ही में, दक्षिणी भारत में नीलगिरि के पश्चिमी हिस्सों के आसपास हज़ारों पेड़ नष्ट हो गए हैं।
- संरक्षणवादी और पर्यावरणीय कार्यकर्ता विकासवादी परियोजनाओं के कारण वनों की कटाई व खनन के विरुद्ध लड़ रहे हैं, जिससे जंगलों के साथ-साथ पर्यावरणीय पारिस्थितिकी और जैव-विविधता को बचाया जा सके।
- इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन और चरम मौसमी घटनाओं के कारण एक अलग स्तर के विनाश की प्रक्रिया घटित हो रही है।
- उल्लेखनीय है किनीलगिरी पश्चिमी घाट का हिस्सा और टोडा जनजाति का निवास स्थान है।
वैश्विक तापन और चरम मौसमी घटनाएँ
- पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर मई 2020 में 417 पार्ट्स प्रति मिलियन (पी.पी.एम.) दर्ज किया गया, जिसे अभी तक के रिकॉर्ड में सबसे अधिक मना जा रहा है।
- ग्रीनहाउस गैस की सांद्रता में वृद्धि के कारण वैश्विक तापन में वृद्धि हो रही है, जिससे चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति में बढ़ोत्तरी हुई है। साथ ही ध्रुवीय बर्फ व ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं और समुद्र स्तर में वृद्धि हो रही है।
- दक्षिणी भारत के तटीय मैदान और पश्चिमी घाट में चरम मौसमी घटनाओं का प्रभाव अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
- पिछले चार वर्षों में यह क्षेत्र आठ उष्णकटिबंधीय चक्रवातों से प्रभावित हुआ है। साथ ही पिछले दो वर्षों में दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान लगातार यह क्षेत्र एक छोटी अवधि में तीव्र वर्षा की घटनाओं का सामना कर रहा है।
- तूफ़ानों के साथ-साथ गम्भीर सूखे की बढती अवधि, हीटवेव्स और कमज़ोर मानसून तथा मानसून प्रणाली में बाधा से भी यह क्षेत्र बीच-बीच में प्रभावित होता रहा है।
- इस क्षेत्र की कुंधा नदी क्षेत्र के आसपास चार दिनों के दौरान वार्षिक वर्षा की मात्रा का लगभग चार गुना वर्षा हुई। ध्यातव्य है कि कुंधा, भवानी नदी की एक प्राथमिक सहायक नदी है, जो कावेरी में जाकर मिल जाती है।
अत्यधिक वर्षा का प्रभाव
- ‘एवलांश झील घाटी क्षेत्र’ (Avalanche Valley Region) में भूस्खलन के कारण सैकड़ों देशज पेड़ उखड़ कर बह गए। देशज पेड़ व पौधे किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र के प्रचीन और मूल उद्भव होते हैं। इनका नष्ट होना पर्यावरण के लिये अत्यधिक हानिकारक माना जाता है। ध्यातव्य है कि एवलांश झील तमिलनाडु के नीलगिरी जिले में स्थित है।
- तीव्र वर्षा के कारण ह्यूमस से युक्त उपजाऊ काली मृदा की ऊपरी परत को क्षति पहुँची है। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में काई/हरिता (Moss) और जंगली गुलमेंहदी से चट्टानें ढकी रहती थीं, जो नदी के प्रवाह को नियंत्रित करने में सहायक होती है। तीव्र और चरम मौसमी घटनाओं के कारण इनको भी नुकसान पहुँचा है।
- साथ ही अत्यधिक संख्या में शोला वनों, बाँस की बौनी प्रजातियों और जंगली कुरुंजी (पहाड़ियों को ढँकने वाली नीले फूलों की झाड़ियाँ) को भी क्षति पहुँची है। ये नदी की धाराओं के साथ–साथ पौधों, फ़र्न और आर्किड को संरक्षित करने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
शोला–घास के मैदान को क्षति
- जल की अधिक मात्रा के कारण मृदा की मूल्यवान परत के अपरदन और भूस्खलन के कारण शोला पारिस्थितिकी (शोला-घास के मैदान) को काफी क्षति पहुँची है। शोला–घास का मैदान उच्च वर्षा मात्रा को अवशोषित करने और पूरे वर्ष धीरे–धीरे जल छोड़ने के कारण बारहमासी धाराओं को जन्म देते हैं। इसके नष्ट होने से गर्मियों में नदियों और पारिस्थितिकी तंत्र में पानी की कमी हो जाएगी।
- शोला-घास के मैदानों की पारिस्थिकी संरचना भी बहुत अधिक मात्रा में वर्षा का सामना कर पाने में सक्षम नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र का स्तर गिरता जा रहा है।
- यहाँ की शोला वन प्रजातियों को ‘बादल वन पारिस्थितिकी’ (Cloud Forest Ecology) के रूप में जाना जाता है। ये इन पहाड़ों की तहों (वलन) और घाटियों में वृद्धि करते हैं। ये एक प्रकार के वृद्ध–वन हैं, जो वनस्पतियों तथा जीवों की कई स्थानिक व दुर्लभ प्रजातियों के पोषण में सहायक होते हैं।
- बादल वन को ‘मॉन्टेन रेनफॉरेस्ट’ भी कहा जाता है। ये उष्णकटिबंधीय पर्वतीय क्षेत्रों की ऐसी वनस्पति होती है, जहाँ लगातार संघनन और अक्सर भारी वर्षा होती रहती है।
- वृद्ध–वन को प्राथमिक वन या वन प्रचलन भी कहते हैं। ये एक ऐसे जंगल होते है, जो लम्बे समय से बिना किसी बड़ी बाधा के जीवित रहे हों और इनसे अद्वितीय पारिस्थितिक विशेषताएँ प्रदर्शित होती हैं, अत: इनको चरम समुदाय के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
- प्राकृतिक रूप से सीमित ये जंगल निवास स्थान की हानि और विनाश के कारण पहले से ही अधिक लुप्तप्राय प्रकार के वन हैं। हाल ही में हुई अत्यधिक वर्षा और भूस्खलन ने इन शेष बचे वनों पर एक बुरा प्रभाव डाला है।
- इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित ‘मॉन्टेन घास या पर्वतीय घास के मैदान’ में भी बड़े भूस्खलन की घटनाएँ हुई हैं। मॉन्टेन घास के मैदान पहाड़ों के बड़े हिस्सों में पाए जाते हैं, जो उन सभी क्षेत्रों को कवर करते हैं जहाँ पर शोल वृद्धि नहीं कर पाते।
- देशी टस्सॉक घास (Tussock Grasses) अत्यधिक ढलान पर भी मिट्टी को मज़बूती से रोके रखती है। तीव्र वर्षा के कारण इनके नष्ट होने से अपरदन और भूस्खलन में वृद्धि हो सकती है।
कारण
- जलवायु परिवर्तन की भयावहता चरम मौसमी घटनाओं की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि कर रही है। इसका प्राथमिक कारण सड़कों व भवनों का अधिक निर्माण और पहाड़ी क्षेत्रों में कंक्रीट की सतह का प्रसार है।
- हालाँकि, ऐसी जगहों पर भी बड़ी संख्या में भूस्खलन हुए हैं, जहाँ पर सड़कें और रास्तों का विकास कम हुआ है। अत्यधिक स्थाई शोला–चारागाह में अधिक संख्या में भूस्खलन का होना यह दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन एक ऐसे स्तर पर पहुँच गया है जो पारिस्थितिकी तंत्र और भूमि के लचीलेपन की क्षमता से परे है।
- वैश्विक रूप से शहरी–औद्योगिक–कृषि परिसर के विकास के कारण लम्बे समय से पौधों की पारिस्थितिक आवरण में कमी हो रही है।
- यदि जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापन तथा तीव्र मौसमी घटनाओं के मुख्य कारण को अनदेखा करके केवल विनाश के प्रत्यक्ष रूपों से जंगलों की रक्षा का प्रयास किया जाता है, तो वे जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित पतन के लिये अधिक प्रभावी नहीं होंगे।
- पिछले दो वर्षों के दौरान यह देखा गया है कि मानसून की अवधि में अधिकतर वार्षिक वर्षा कुछ ही दिनों में हो जाती है।
उपाय
- नीलगिरि अभयारण्य में छोटी अवधि में लगातार वर्षा होने के बावजूद, पारिस्थितिक सुरक्षा से सम्बंधित मुद्दों के समाधान के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
- भवन निर्माण और सड़क विस्तार के नियमों की समीक्षा के साथ-साथ उसको अपडेट करने और कड़ाई से पालन किये जाने की ज़रुरत है।
- कुंधा हाइड्रो–इलेक्ट्रिक पावर योजना तमिलनाडु में 10 बाँधों के साथ सबसे बड़े जल विद्युत उत्पादन प्रतिष्ठानों में से एक है। चरम वर्षा की घटनाओं के कारण इनमें और अधिक बड़े बाँधों व सुरंगों को जोड़ना विनाशकारी है। इन पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाई जानी चाहिये।
- साथ ही इन क्षेत्रों में बाढ़ की तीव्रता इतनी तेज़ हो गई है कि बाँध परिसर के भी टूटने का खतरा बढ़ गया है। इससे दोहरा संकट उत्पन्न हो गया है।
- प्रत्यक्ष विनाश के खतरों से पारिस्थितिकी और जैव विविधता के शेष क्षेत्रों की सुरक्षा महत्त्वपूर्ण है। साथ ही विश्व भर के शहरी-औद्योगिक-कृषि परिसर, जहाँ से जलवायु संकट उपजा है, में भी भारी बदलाव की जरूरत है।
निष्कर्ष
- चाहे दक्षिणी भारत में उच्च ऊँचाई वाले पठारों के घास के मैदानों में भूस्खलन की घटना हो या उत्तर भारत में हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने की घटना हो या मूँगा के नष्ट होने व समुद्र का स्तर बढ़ने जैसे ख़तरे, इन गम्भीर प्रभावों के परस्पर सम्बंध को समझना होगा और प्रकृति से सीखना होगा।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–1 व 3 : भौतिक भूगोल की मुख्य विशेषताएँ, अंतरिक्ष)
विषय–क्षुद्रग्रहों से पृथ्वी को खतरा : चिंता और वास्तविकता
चर्चा में क्यों?
- सितम्बर के प्रथम सप्ताह में क्षुद्रग्रह ‘465824 2010 FR’ के पृथ्वी की कक्षा सेपार होकर गुज़रने की उम्मीद के चलते क्षुद्रग्रहों से पृथ्वी को हो सकने वाले नुकसान पर चर्चा शुरू हो गई है।
पृष्ठभूमि
- इस क्षुद्रग्रह काआकार गीज़ा के पिरामिड का दोगुना है और सम्भावित खतरों के कारण इसको एक खतरनाक क्षुद्रग्रह के रूप में वर्णित किया जा रहा है।
- 2010FR प्रत्येक 440 दिन में सूर्य की परिक्रमा करता है। कैटालिना स्काई सर्वे द्वारा इस क्षुद्रग्रह की खोज मार्च 2010 में की गई थी।
- नासा के अनुसार इस क्षुद्रग्रह से होने वाला जोखिम काफी कम है क्योंकि यह पृथ्वी से 6 मिलियन मील से अधिक दूरी से गुज़र रहा है, जो कि पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी से 19 गुना अधिक है।
क्षुद्रग्रह
- क्षुद्रग्रह, सूर्य की परिक्रमा करने वाले चट्टानी पिंड हैं, जो ग्रहों की तुलना में बहुत छोटे होते हैं।इन्हें ‘लघु ग्रह’ भी कहा जाता है। इसका नामकरण ‘अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ’ (IAU) द्वारा किया जाता है।
- ग्रहों और सूर्य के निर्माण एवं इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये इनका अध्ययन किया जाता है। साथ ही इन्हें ट्रैक करने का एक अन्य कारण उन क्षुद्रग्रहों की तलाश करना है, जो सम्भावित रूप से खतरनाक हो सकते हैं।
- नासा के अनुसार ज्ञात क्षुद्रग्रहों की संख्या 994,383 है,जो 4.6 अरब वर्ष पूर्व सौरमंडल के गठन से प्राप्त हुए अवशेष हैं।
- क्षुद्रग्रहों को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता हैं। पहले वर्ग में उन क्षुद्रग्रहों को रखा जाता है, जो मंगल और बृहस्पति के मध्य मुख्य क्षुद्रग्रह पेटी में पाए जाते हैं।इस पेटी में क्षुद्रग्रहों की अनुमानित संख्या 1.1 से लेकर 1.9 मिलियन के बीच हो सकती है।
- दूसरा समूह ट्रोज़न का है। ये ऐसे क्षुद्रग्रह हैं, जो किसी बड़े ग्रह की कक्षा साझा करते हैं। नासा ने जूपिटर, नेपच्यून और मार्स ट्रोज़न की उपस्थिति के बारे में बताया है। वर्ष 2011 में नासा ने अर्थ ट्रोज़न की उपस्थिति के बारे में जानकारी दी।
- क्षुद्र ग्रहों के तीसरे वर्गीकरण में पृथ्वी के निकट के क्षुद्रग्रह अर्थात नियर–अर्थएस्टेरॉइड’(NEA) आते हैं, जो परिक्रमा के दौरान पृथ्वी के करीब से गुज़रते हैं। ऐसे क्षुद्रग्रह, जो पृथ्वी की कक्षा को पार करते हैं उन्हें ‘पृथ्वी-पारीय’ (Earth-Crossers) कहा जाता है। ऐसे क्षुद्रग्रहों की ज्ञात संख्या 10,000 से अधिक है। इनमें से 1,400 से अधिक क्षुद्रग्रहों को ‘सम्भावित खतरनाक क्षुद्रग्रहों’ (PHAs) के रूप में वर्गीकृत किया गया हैं।
क्षुद्रग्रहों से पृथ्वी को होने वाले खतरे का स्तर
- द प्लैनेटरी सोसाइटी के एक अनुमान के अनुसार लगभग 1 बिलियन क्षुद्रग्रह ऐसे है, जिनका व्यास 1 मीटर से अधिक है। 30 मीटर से बड़े आकार के क्षुद्रग्रह पृथ्वी को प्रभावित करते हुए महत्त्वपूर्ण नुकसान का कारण बन सकते हैं।
- नासा के ‘नियर-अर्थ ऑब्जेक्ट ऑब्जर्वेशन प्रोग्राम’ के अनुसार 140 मीटर या उससे बड़े आकार के क्षुद्रग्रह(एक मध्यम आकार के फुटबॉल स्टेडियम के बराबर) सबसे बड़ी चिंता का विषय हैं क्योकिं तबाही के स्तर के कारण वे अधिक प्रभाव पैदा करने में सक्षम है।
- हालाँकि, यह ध्यान देने योग्य है कि 140 मीटर से बड़े किसी भी क्षुद्रग्रह के अगले 100 वर्षों तक पृथ्वी से टकराने की कोई बड़ी सम्भावना नहीं है।
- एक किमी. या उससे अधिक व्यास के क्षुद्रग्रह विनाशकारी विश्वव्यापी प्रभाव पैदा करने में सक्षम हैं। हालाँकि, ये एक लाख वर्षों में एक बार पृथ्वी को प्रभावित करते हैं और अत्यंत दुर्लभ होते हैं।
- चिक्ज़ुलुब (Chicxulub)की घटना ने मैक्सिको की खाड़ी को काफी प्रभावित किया था। यह पृथ्वी से 66 मिलियन वर्ष पूर्व टकराने वाला 10 किमी. व्यास का एक अंतरिक्ष पिंड था। यह अधिकत रडायनासोर प्रजातियों के अचानक विलुप्त होने का कारण बना था।
क्या सभी अंतरिक्ष पिंड खतरनाक हैं?
- सभी अंतरिक्ष पिंड पृथ्वी के लिये ख़तरनाक नहीं है क्योंकि नासा के अनुसार पृथ्वी पर प्रत्येक दिन अंतरिक्ष से 100 टन से अधिक धूल और रेत के आकार के कण आते रहते हैं।
- प्रत्येक वर्ष एक कार के आकार का क्षुद्रग्रह पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करता है और पृथ्वी की सतह पर पहुँचने से पहले जल कर नष्ट हो जाता है।
क्षुद्रग्रहों को विक्षेपित करने का तरीका
- वैज्ञानिकों ने क्षुद्रग्रहों से उत्पन्न होने वाले गम्भीर खतरों को दूर करने के लिये अलग-अलग तरीके सुझाए हैं।इन उपायों में पृथ्वी पर पहुँचने से पहले क्षुद्रग्रह में विस्फोट करनाया किसी अंतरिक्ष यान से टक्कर मारकर उसके पथ में विचलन पैदा करना है।
- अब तक का सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय ‘क्षुद्रग्रह प्रभाव और विक्षेपण आकलन’ (AIDA)है, जिसमें नासा का ‘दोहरा क्षुद्रग्रह पुनर्निर्देशन परीक्षण’ (DART)मिशन और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का हेरा (HERA) शामिल हैं।
- इस मिशन का लक्ष्य ‘डिडिमॉस’ (Didymos) नामक एक दोहरा‘नियर–अर्थएस्टेरॉइड’ है। पिंडों के इस निकाय में से एक का आकार पृथ्वी के लिये महत्त्वपूर्ण खतरा पैदा कर सकता है।
- वर्ष 2018 में नासा ने DART का निर्माण प्रारम्भ होने की घोषणा की, जिसको वर्ष 2021में लॉन्च किया जाना है। इसका लक्ष्य वर्ष 2022 में लगभग 6 किमी. प्रति सेकंड की गति से डिडिमॉस सिस्टम के छोटे क्षुद्रग्रह में शक्तिशाली प्रहार करना है।
- ‘हेरा’ को वर्ष 2024 में लॉन्च किया जाना है, जो वर्ष 2027 में डिडिमॉस सिस्टम में पहुँचेगा। इसका उद्देश्य DART के टक्कर के प्रभाव से निर्मित क्रेटर को मापना और क्षुद्रग्रह के कक्षीय प्रक्षेपवक्र में परिवर्तन का अध्ययन करना है।
निष्कर्ष
- नासा के अनुसार वास्तव में किसी अंतरिक्ष पिंड से किसी सभ्यता के नष्ट होने का जोखिम अत्यंत कम है और ऐसी घटनाएँ कुछ मिलियन वर्षों में एक बार ही होती हैं। साथ ही धूमकेतुओं (Comet) से पृथ्वी को क्षति पहुँचने की सम्भावना भी काफ़ी कम है। ऐसी सम्भावना पाँच लाख वर्षों में लगभग एक बार उत्पन्न होती है।
GS-2 Mains
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 व 3 : संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान, सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय, कृषि उत्पाद का भंडारण, परिवहन तथा विपणन, बफर स्टॉक तथा खाद्य सुरक्षा सम्बंधी विषय)
विषय–आवश्यक वस्तुओं की सूची में संशोधन : आवश्यकता और प्रभाव
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में संसद ने आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन) विधेयक, 2020 पारित किया है, जिसका उद्देश्य कुछ वस्तुओं के भंडारण को नियंत्रण मुक्त करना है।
प्रमुख बिंदु
- संशोधन के बाद अनाज, दालें, तिलहन, खाद्य तेल, आलू व प्याज जैसे कुछ खाद्य पदार्थों की आपूर्ति व भंडारण आदि को केवल असाधारण परिस्थितियों में ही विनियमित या नियंत्रित किया जा सकता है। इन परिस्थितियों में असाधारण मूल्य वृद्धि, युद्ध, अकाल और गम्भीर प्रकृति की कोई प्राकृतिक आपदा शामिल हैं।
- वास्तव में, यह संशोधन इन वस्तुओं को उक्त अधिनियम की धारा 3 (1) के दायरे से बाहर कर देता है। यह धारा केंद्र सरकार को ‘आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन, आपूर्ति, वितरण आदि’ को नियंत्रित करने की शक्तियाँ प्रदान करती है।
आवश्यक वस्तुएँ
- आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में आवश्यक वस्तुओं की कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं दी गई है। धारा 2 (A) में कहा गया है कि ‘आवश्यक वस्तु’ का तात्पर्य आवश्यक वस्तु अधिनियम की अनुसूची में निर्दिष्ट किसी वस्तु या वस्तुओं से है।
- यह अधिनियम केंद्र सरकार को इस अनुसूची में किसी वस्तु को जोड़ने या हटाने की शक्तियाँ प्रदान करता है। यदि केंद्र इस बात से संतुष्ट है कि सार्वजनिक हित में ऐसा करना आवश्यक है, तो यह अधिनियम राज्य सरकारों के परामर्श से किसी वस्तु को आवश्यक वस्तु के रूप में अधिसूचित कर सकता है।
- उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय इस अधिनियम को कार्यान्वित करता है। मंत्रालय के अनुसार, वर्तमान में इस अनुसूची में शामिल वस्तुएँ हैं- औषधि, उर्वरक (अकार्बनिक, जैविक या मिश्रित), खाद्य तेलों सहित खाद्य-सामग्री, पूरी तरह से कॉटन से निर्मित सूत के लच्छे, पेट्रोलियम व पेट्रोलियम उत्पाद, अपरिष्कृत जूट व जूट से बने वस्त्रों के साथ-साथ खाद्य-फसलों, फलों, सब्ज़ियों, पशुओं के चारे व कपास के बीज। इसके अतिरिक्त, कोविड-19 के मद्देनज़र मार्च, 2020 में इस सूची में फेस मास्क और सैनिटाइज़र को भी शामिल किया गया है।
- किसी वस्तु को आवश्यक वस्तु घोषित करके सरकार उस वस्तु के उत्पादन, आपूर्ति और वितरण को नियंत्रित कर सकती है ,साथ ही स्टॉक (भंडारण) सीमा को भी लागू कर सकती है।
सरकार द्वारा स्टॉक सीमा निर्धारण की परिस्थितियाँ
- वर्ष 1955 के अधिनियम में स्टॉक सीमा के लिये कोई स्पष्ट रूप-रेखा नहीं दी गई थी। संशोधित अधिनियम स्टॉक के लिये प्राइस ट्रिगर (मूल्य सीमा) का प्रावधान करता है। विनाशकारी (जल्दी खराब होने वाले) और गैर-विनाशकारी (जल्दी न खराब होने वाले) कृषि खाद्य पदार्थों के लिये अलग-अलग प्राइस ट्रिगर का निर्धारण किया गया है।
- कृषि खाद्य पदार्थों को केवल असाधारण परिस्थितियों, जैसे- युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि और प्राकृतिक आपदा के तहत ही नियंत्रित व विनियमित किया जा सकता है।
- हालाँकि, किसी भी कृषि उपज के प्रसंस्करण तथा मूल्य श्रृंखला प्रतिभागियों के साथ–साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये स्टॉक–होल्डिंग सीमा में छूट प्रदान की जाएगी।
- स्टॉक सीमा को लागू करने से जुड़ी पिछली अनिश्चितताओं को भी मूल्य ट्रिगर कम करेगा। स्टॉक सीमाओं को लागू करने के मानदंड को परिभाषित करके और इसे अधिक पारदर्शी व जवाबदेह बनाने से इस अनिश्चितता को दूर किया जा सकता है।
- पिछले 10-15 वर्षों में आवश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत किसी वस्तु पर स्टॉक सीमा के लागू रहने की प्रवृत्ति काफी लम्बे समय तक देखी गई है। उदाहरणस्वररूप वर्ष 2006 से 2017 तक दालों पर, वर्ष 2008 से 2014 तक चावल पर और 2008 से 2018 तक खाद्य तिलहन पर स्टॉक सीमा लागू रही थी।
आवश्यकता
- इस अधिनियम को वर्ष 1955 में ऐसे समय लाया गया था, जब देश खाद्य सामग्री की कमी का सामना कर रहा था। खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और कालाबाज़ारी को रोकने के लिये इस अधिनियम को लाया गया था।
- वर्तमान स्थिति उससे अलग है। उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 1955-56 से 2018-19 के दौरान गेहूँ का उत्पादन 10 गुना बढ़ा है। साथ ही इस अवधि के दौरान चावल के उत्पादन में चार गुना और दालों के उत्पादन में 2.5 गुना वृद्धि हुई है। वास्तव में, भारत अब कई कृषि उत्पादों का निर्यातक बन गया है।
प्रभाव
- वर्ष 1955 में इस अधिनियम को लागू करने का मूल उद्देश्य अवैध व्यापारिक गतिविधियों, जैसे- जमाखोरी आदि से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करना था, परंतु अब यह सामान्यतया कृषि क्षेत्र, विशेष रूप से कटाई के बाद की गतिविधियों, में निवेश के लिये एक बाधा बन गया है।
- संशोधन द्वारा आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाई गई वस्तुओं की मूल्य श्रृंखला में निजी निवेश के आकर्षित होने की उम्मीद है।
- निजी क्षेत्र अभी तक विनाशकरी वस्तुओं के लिये कोल्ड चेन और भंडारण सुविधाओं में निवेश के बारे में संकोच करता था, क्योंकि इनमें से अधिकांश वस्तुएँ इस अधिनियम के दायरे में आती थीं और इन पर अचानक से स्टॉक सीमा को आरोपित किया जा सकता था।
विरोध के कारण
- तर्क दिया जा रहा है कि दाल, प्याज और खाद्य तेल जैसी खाद्य सामग्री दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ हैं । संशोधन से किसानों व उपभोक्ताओं को नुकसान होगा और इससे जमाखोरी बढ़ने की सम्भावना है।
- साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि प्राइस ट्रिगर अवास्तविक है और इसकी सीमा इतनी उच्च है कि शायद ही इन्हें कभी लागू किया जा सके।
- विशेषज्ञों के अनुसार, आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन एक सही कदम है, क्योंकि यह किसानों की आय में वृद्धि में सहायक होगा, परंतु इससे ग्रामीण स्तर पर गरीबी में वृद्धि हो सकती है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 ; भारत तथा इसके पड़ोसी सम्बंध, महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ और मंच – उनकी संरचना, अधिदेश)
विषय–दक्षिण एशियाई क्षेत्र : एकता और समन्वय की आवश्यकता
चर्चा में क्यों?
- कोविड–19 महामारीके संकट से निपटने हेतु दक्षिण एशियाई क्षेत्र में एकता और समन्वय की आवश्यकता है तथा वर्तमान में, भारत द्वारा इस क्षेत्र पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
भूमिका
- महामारी के समय में स्वास्थ्य और आर्थिक संकट से निपटने हेतु दक्षिण एशिया में भिन्न-भिन्न देशों द्वारा अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ थीं । भारत द्वारा इस संकट से निपटने के लिये लॉकडाउन के साथ ही आर्थिक गतिविधियों को भी सीमित रूप से शुरू किया गया है।
दक्षिण एशियाई देशों द्वारा किये गए प्रयास
- बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका द्वारा भी लॉकडाउन में विस्तार करते हुए धीरे-धीरे आर्थिक गतिविधियों को शुरू किया गया। भूटान और मालदीव उच्च परीक्षण दर के कारणसामुदायिक प्रसार को रोकने तथा लम्बे समय तक लॉकडाउन के प्रभाव से भी बचे रहे। यह तथ्य सर्वविदित है कि जिन देशों ने अधिक परीक्षण किये हैं वे देश महामारी को रोकने में अधिक सफल रहे तथा अन्य क्षेत्रों की तुलना में दक्षिण एशियाई देशों में उच्च संक्रमण दर होने के बावजूद मृत्यु दर कम रही है। हालाँकि, महामारी विज्ञान अध्ययन और विश्व स्वास्थ्य संगठन की समीक्षाओं के अनुसार आँकड़ों की विश्वसनीयता को लेकर संदेह है।
- भारत, पकिस्तान बांग्लादेश और मालदीव द्वारा प्रोत्साहन पैकेज दिया गया है। कुछ देशों द्वारा, जो अभी भी आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, अपनी निम्न और मध्यम वर्गीय आबादी हेतु ठोस कदमों की घोषणा करना अभी बाकी है।
मार्च के अंत में भारत ने गरीबी में रहने वाले लोगों कीखाद्य सुरक्षा एवं आजीविका बचाने हेतु नकद हस्तांतरण के माध्यम से एक बड़े आर्थिक पैकेज की घोषणा की थी। भारत के केंद्रीय बैंक द्वारा तरलता बनाए रखने के लिये नीतिगत दरों में परिवर्तन किया गया। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर दक्षिण एशियाई देशों के सहयोग से सार्क कोविड–19 फंड बनाया गया।
दक्षिण एशिया में भारत की चुनौतियाँ
- दक्षिण एशियाई क्षेत्र में चीन का बढ़ता आर्थिक और राजनैतिक प्रभाव तथा चीन-पाकिस्तान की बढ़ती निकटता एवं चीन के साथ अनसुलझा सीमा विवाद भारत के लिये बड़ी चुनौतियाँ हैं। ये सभी कारक भारत के समग्र सुरक्षा वातावरण को प्रभावित करते हैं।
- दक्षिण एशिया में बढ़ते धार्मिक कट्टरवाद और संवैधानिक हस्तक्षेप तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं के पतन के कारण इस क्षेत्र में राजनैतिक अस्थिरता का वातावरण बना रहता है।
- दक्षिण एशिया सामाजिक रूप से अधिक जटिल है। यहाँ जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद के अतिरिक्त भाषाई और वर्ग मतभेद जैसे कारक मौजूद हैं, जो इस क्षेत्र की आर्थिक प्रगति में बाधा उत्पन्न करते हैं।
- दक्षिण एशिया में क्षेत्रीयता की धीमी गति के संरचनात्मक कारण हैं। सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से सशक्त भारत भी इस क्षेत्र में असुरक्षित महसूस करता है, जिसका मुख्य कारण भारत पाकिस्तान को बाहरी शत्रुओं के प्रवेश बिंदु के रूप में मानता है।
आगे की राह
- इस क्षेत्र को संकीर्ण भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से परे एक समन्वित प्रतिक्रिया तंत्र निर्मित करने की दिशा में पहल करने की आवश्यकता है।
- सार्क फंड के उपयोग को लेकर सदस्य देश अभी तक कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाए हैं। इस फंड का उपयोग उचित रूप में तथा आवश्यकतानुसार किया जाना चाहिये।
- इस क्षेत्र के संकट से प्रभावी रूप से निपटने हेतु इन देशों को सार्क के संस्थागत ढाँचे के अंतर्गत साथ आने की आवश्यकता है।
- सार्क खाद्य बैंक (SAARC Food Bank) का प्रयोग इस क्षेत्र के खाद्य संकट से निपटने हेतु किया जा सकता है। साथ ही इस क्षेत्र की आर्थिक समस्याओं से निपटने के लिये नीति निर्माण में सार्क वित्त फोरम (SAARC Finance Forum) की सहायता ली जा सकती है।
- भारत जनसंख्या और अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने की योग्यता और क्षमता रखता है। इसलिये भारत को कूटनीतिक लचीलेपन तथा समन्वयकारी नेतृत्व के माध्यम से दक्षिण एशियाई क्षेत्र की दशा और दिशा की रूपरेखा तैयार करनी चाहिये।
- भारत को दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार समझौते को मज़बूत करने , अंतर–क्षेत्रीय खाद्य व्यापार की बाधाओं को कम करने और क्षेत्रीय आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
- भारत को अपने आत्मनिर्भर भारत अभियान को राष्ट्रीय स्तर से लेकर पड़ोसी प्रथम की नीति के तहत दक्षिण एशिया में विस्तारित करना चाहिये। भारत व्यापार में इस क्षेत्र को विशेष छूट प्रदान करके अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सम्बंध मज़बूत कर सकता है।
निष्कर्ष
- वर्तमान स्वास्थ्य और आर्थिक संकट से निपटने हेतु दक्षिण एशियाई क्षेत्र के नेताओं को साथ आने और सामूहिक रूप से इस चुनौती के समाधान हेतु एक महत्त्वपूर्ण अवसर के रूप में देखना चाहिये, जिससे भविष्य में यह क्षेत्र एकजुटता और समन्वय के कारण अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करेगा।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ और मंच– उनकी संरचना, अधिदेश)
विषय–संयुक्त राष्ट्र के 75 वर्ष : उपलब्धियाँ और असफलताएँ
पृष्ठभूमि
- वर्ष 2020 संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की 75वीं वर्षगांठ है। इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के विशेष कार्यक्रम की मुख्य थीम ‘बहुपक्षवाद के लिये हमारी सामूहिक प्रतिबद्धता की पुष्टि करना’ है।
- संयुक्त राष्ट्र का उद्भव द्वितीय विश्व युद्ध की भयावहता के चलते हुआ था। स्थापना के समय इसका मुख्य लक्ष्य विश्व शांति बनाए रखना और भावी पीढ़ियों को युद्ध के दंश व बुराइयों से बचाना था। इस मंच का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाने में सहयोग करना, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास और सामाजिक प्रगति, मानव अधिकार व विश्व शांति को बनाए रखना है।
- 193 सदस्य देशों वाले इस संगठन में 11 जुलाई, 2011 को सबसे नवीनतम सदस्य देश के रूप में दक्षिणी सूडान को शामिल किया गया। इस संगठन में सभी ऐसे देश शामिल हैं, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। संयुक्त राष्ट्र की संरचना में, आम सभा के अलावा सुरक्षा परिषद, आर्थिक व सामाजिक परिषद, सचिवालय और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय शामिल हैं।
आगामी दशक के लक्ष्य
- संयुक्त राष्ट्र ने अगले 10 वर्षों को सतत विकास के लिये कार्रवाई और प्रतिपादन का दशक के रूप में नामित किया गया है, जो आगामी पीढ़ी के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साबित होगा।
- अगले दस वर्षों के लिये सूचीबद्ध लक्ष्यों में पृथ्वी और पर्यावरण की सुरक्षा, शांति, लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण, डिजिटल सहयोग और स्थायी वित्तपोषण को बढ़ावा देना शामिल है।
संयुक्त राष्ट्र का उद्भव : विकासक्रम
- विश्व को युद्ध के दंश से बचाने के लिये प्रथम विश्व युद्ध के बाद जून 1919 में वर्साय की संधि के एक हिस्से के द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन ‘राष्ट्र संघ’ (The League of Nations) की नींव रखी गई।
- हालाँकि, जब वर्ष 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ, तो लीग लगभग अस्तित्वहीन सी हो गई और ज़िनेवा स्थित इसका मुख्यालय पूरी तरह से अर्थहीन रहा।
- फलस्वरूप अगस्त 1941 में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट और ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के मध्य हुई गुप्त मुलाकात के बाद ‘अटलांटिक चार्टर’ के नाम से एक वक्तव्य जारी किया गया।
- दिसम्बर 1941 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल हुआ और पहली बार ’संयुक्त राष्ट्र’ शब्द राष्ट्रपति रूज़वेल्ट द्वारा उन देशों के लिये प्रयोग किया गया, जो धुरी शक्तियों के खिलाफ एकजुट थे।
- 1 जनवरी, 1942 को 26 मित्र देशों के प्रतिनिधियों ने वाशिंगटन डी.सी. में संयुक्त राष्ट्र की घोषणा पर हस्ताक्षर किये, जिसमें मूलत: मित्र देशों के युद्ध उद्देश्यों के बारे में बताया गया था।
- अंततः 51 (पोलैंड ने उसी वर्ष परंतु बाद में हस्ताक्षर किया था, अत: 50+1 देश) देशों द्वारा अनुसमर्थित होने के बाद 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र अस्तित्व में आया, जिसमें पांच स्थायी सदस्य (फ्रांस, चीन गणराज्य, सोवियत संघ, ब्रिटेन और अमेरिका) और 46 अन्य हस्ताक्षरकर्ता शामिल थे। महासभा की पहली बैठक 10 जनवरी, 1946 को सम्पन्न हुई।
- संयुक्त राष्ट्र के चार मुख्य लक्ष्यों में अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखना, राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बंध विकसित करना, वैश्विक समस्याओं को हल करने में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना और इन सामान्य हितों की प्राप्ति हेतु राष्ट्रों के कार्यों में सामंजस्य के लिये एक केंद्र के रूप में कार्य करना था।
संयुक्त राष्ट्र : तथ्य
- भारत उन देशों में शामिल था, जिन्होंने यू.एन. चार्टर पर हस्ताक्षर किये थे। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र शांति मिशनों में भारत सबसे अधिक सहयोग करता है।
- संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय अमेरिका के न्यूयॉर्क में है। इस मुख्यालय के अलावा और अहम संस्थाएँ जिनेवा और कोपनहेगन आदि में भी स्थित हैं।
- संयुक्त राष्ट्र की स्वीकृत भाषाओं में कुल छह भाषाएँ हैं, जिनमें अरबी, चीनी, अंग्रेज़ी, फ्रांसीसी, रूसी और स्पेनिश शामिल हैं, परंतु इनमें से केवल अंग्रेज़ी और फ्रांसीसी को ही संचालन की भाषा माना गया है। अरबी और स्पेनिश भाषा को इसमें वर्ष 1973 में शामिल किया गया था।
संयुक्त राष्ट्र के 75 वर्ष : उपलब्धियाँ
- स्वतंत्रता आंदोलनों और बाद के वर्षों में वि-उपनिवेशीकरण ने इसकी सदस्यता का विस्तार किया और वर्तमान में 193 देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं।
- इन 75 वर्षों में संयुक्त राष्ट्र ने बड़ी संख्या में वैश्विक मुद्दों जैसे कि स्वास्थ्य, पर्यावरण और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों के समाधान के लिये अपने दायरे का विस्तार किया है।
- गठन के तुरंत बाद इसने वर्ष 1946 में परमाणु हथियारों के उन्मूलन की प्रतिबद्धता का प्रस्ताव पारित किया।
- वर्ष 1948 में चेचक, मलेरिया, एच.आई.वी. जैसे संचारी रोगों से निपटने के लिये इसने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का गठन किया। वर्तमान में WHO कोरोनोवायरस महामारी से निपटने वाला शीर्ष संगठन है।
- वर्ष 1950 में संयुक्त राष्ट्र ने द्वितीय विश्व युद्ध के कारण विस्थापित हुए लाखों लोगों की देखभाल के लिये शरणार्थियों के लिये उच्चायुक्त (Commissioner for Refugees) कार्यालय बनाया। यह दुनिया भर में शरणार्थियों द्वारा सामना किये जा रहे संकटों के लिये प्रमुख समाधान प्रस्तुत करता है।
- वर्ष 1972 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का निर्माण किया गया था। वर्ष 2002 में युद्ध अपराध, नरसंहार और अन्य अत्याचारों के आलोक में यू.एन. ने संयुक्त राष्ट्र आपराधिक न्यायालय की स्थापना की।
विफलताएँ
- कई मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र और उसकी अनुषंगी इकाईयों की आलोचन भी की गई है। उदाहरण के लिये वर्ष 1994 में संगठन रवांडा नरसंहार को रोकने में विफल रहा था।
- वर्ष 2005 में संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में कांगो गणराज्य में यौन दुराचार के आरोप सामने आए थे और इसी तरह के आरोप के मामले कम्बोडिया और हैती से भी सामने आए हैं।
- वर्ष 2011 में दक्षिण सूडान में संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन वर्ष 2013 में छिड़े गृहयुद्ध में हुए रक्तपात को रोकने में असफल रहा था।
- इसके अतिरिक्त परमाणु हथियारों के अप्रसार पर अंकुश न लगा पाने के साथ-साथ शरणार्थियों की बढती संख्या और समस्या के कारण भी इसकी आलोचना हुई है।
- आतंकवाद की परिभाषा सहित उसको रोकने के प्रभावी उपायों के आभाव और बढ़ते नस्लवाद को न रोक पाने में भी इसकी कार्यप्रणाली बहुत प्रभावी नहीं रही है। साथ ही सुरक्षा परिषद् के विस्तार और उसकी कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हैं।
- वर्तमान महामारी के प्रसार को रोक पाने और उचित समय पर उचित जानकारी के आभाव के चलते विश्व स्वास्थ्य संगठन की तीखी आलोचना की गई है तथा इस मंच के राजनीतिकरण का आरोप लगा है।
भारत और सुरक्षा परिषद्
- संयुक्त राष्ट्र में सुधार की माँग करने में भारत सबसे अग्रणी रहा है। भारत विशेषकर इसके प्रमुख अंग सुरक्षा परिषद में सुधार को लेकर सक्रिय और प्रयत्नशील है।
- दशकों से विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और सबसे अधिक आबादी वाले देशों में शामिल होने के कारण इसका दावा काफी मज़बूत है।
- एक नियम–आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बढ़ावा देने में भारत का ट्रैक रिकॉर्ड भी अच्छा रहा है और वह संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन में अग्रणी भूमिका में रहा है।
- संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के समय मित्र राष्ट्रों (बाद में चीन) द्वारा UNSC की स्थायी सदस्यता व वीटो का अधिकार आज शायद ही दुनिया के नेतृत्व के पर्याप्त प्रतिनिधित्त्व का दावा कर सकता है।
- यू.एन.एस.सी. में अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अमेरिका महाद्वीपों से एक भी स्थायी सदस्य शामिल नहीं हैं और बहुपक्षीय व्यवस्था के स्तम्भ, जैसे– ब्राज़ील, भारत, जर्मनी और जापान के G-4 समूह को लम्बे समय से नज़रअंदाज किया गया है।
- सदस्यों के बीच ध्रुवीकरण और UNSC के पाँच स्थाई सदस्यों के भीतर लगातार विभाजन प्रमुख निर्णयों और समाधान में बाधा उत्पन्न करते हैं।
आगे की राह
- वर्तमान में व्यापक सुधारों के अभाव में संयुक्त राष्ट्र ‘विश्वसनीयता के संकट’ का सामना कर रहा है। पुराने ढाँचे या व्यवस्था के साथ आज की चुनौतियों का सामना किया जाना कठिन है, अत: इसमें ढाँचागत और प्रणालीगत सुधार की व्यापक आवश्यकता है।
- विश्व को एक सुधारवादी बहुपक्षीय मंच की आवश्यकता है, जो कि आज की वास्तविकता को दर्शाने के साथ-साथ सभी हितधारकों को आवाज उठाने का मौका दे। यह समकालीन चुनौतियों का समाधान करने वाला और मानव कल्याण पर ध्यान देने वाला होना चाहिये।
- आज बहुपक्षीय चुनौतियाँ कहीं अधिक है लेकिन समाधानों का अभाव है, अत: एक बेहतर विश्व शासन की आवश्यकता है। खासतौर पर लैंगिक समानता के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। बीजिंग कार्रवाई मंच के 25 साल बाद भी लैंगिक समानता की समस्या दुनिया भर में सबसे चुनौतीपूर्ण बनी हुई है।
- इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के भीतर ध्रुवीकरण है, इसलिये निर्णय या तो नहीं लिये जाते हैं या उन पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
निष्कर्ष
- संयुक्त राष्ट्र के कारण आज दुनिया बेहतर जगह बन पाई है और इसने शांति व विकास के कार्यों को बेहतर किया है।
- हालाँकि, इससे विश्व ने काफी कुछ हासिल किया है लेकिन मूल मिशन अब भी अधूरा है।
- आज जिस दूरगामी घोषणा पत्र को अपनाया जा रहा हैं उससे पता चलता है कि इनक्षेत्रों में अभी भी काफी काम करने की ज़रूरत है, जैसे- संघर्ष को रोकने, विकास सुनिश्चित करने, जलवायु परिवर्तन को रोकने, असमानताओं को कम करने और डिजिटल प्रौद्योगिकियों का लाभ उठाने में सहयोग की आवश्यकता है। इस घोषणा पत्र में संयुक्त राष्ट्र में सुधार की आवश्यकता को भी स्वीकार किया गया है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 व 2: स्वतंत्रता के पश्चात् देश के अंदर एकीकरण, भू–भौतिकीय विशेषताएँ, भारत एवं इसके पड़ोसी सम्बंध, भारत से सम्बंधित और भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
विषय–गिलगित–बाल्टिस्तान क्षेत्र पर पकिस्तान की राजनीति
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में पाकिस्तान ने गिलगित–बाल्टिस्तान क्षेत्र को एक पूर्ण प्रांत बनाने का फैसला किया है।
- यद्यपि भारत पहले से ही स्पष्ट शब्दों में कह चुका है कि केंद्रशासित जम्मू-कश्मीर,लद्दाख तथा गिलगित-बाल्टिस्तान आदि क्षेत्र भारत के वैधानिक और अभिन्न अंग हैं। विदित है कि भारत संयुक्त राष्ट्र संघ में भी इस बाबत अपनी बात कई बार रख चुका है और भारत के मानचित्र पर इस क्षेत्र को हमेशा भारत का आधिकारिक अंग ही दिखाया गया है।
विवाद की वजह:
- वर्ष 2009 से गिलगित–बाल्टिस्तान क्षेत्र को एक ‘प्रांतीय स्वायत्त क्षेत्र’ (Provincial Autonomous Region) के रूप में प्रशासित किया जा रहा है और वर्तमान में इस क्षेत्र को पाकिस्तान नियंत्रित कर रहा है।
- हाल ही में पाकिस्तान के उच्चतम न्यायालय ने एक विवादित आदेश देते हुए इस क्षेत्र में आम चुनाव कराने हेतु गिलगित–बाल्टिस्तान सरकार, आदेश 2018 में संशोधन करने की बात की है।
गिलगित–बाल्टिस्तान की अवस्थिति:
- गिलगित–बाल्टिस्तान उत्तर में चीन,पश्चिम में अफगानिस्तान और दक्षिण पूर्व में कश्मीर के साथ सीमा साझा करता है।
- पाक अधिकृत कश्मीर के साथ भौगोलिक सीमा साझा करने वाले इस क्षेत्र को भारत अविभाजित जम्मू और कश्मीर का हिस्सा मानता है, जबकि पाकिस्तान इस क्षेत्र विशेष को पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) से अलग मानता है।
- ध्यातव्य है कि गिलगित–बाल्टिस्तान की एक क्षेत्रीय विधान सभा और एक निर्वाचित मुख्यमंत्री भी होता है।
- ध्यातव्य है कि चीन–पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (China-Pakistan Economic Corridor-CPEC) गिलगित–बाल्टिस्तान क्षेत्र से होकर गुज़रता है।
- ‘आठ हज़ार’ मीटर से अधिक ऊँचाई के पाँच पर्वत–शिखरों वाले इस क्षेत्र में पचास से अधिक पर्वत–शिखरों की ऊँचाई 7,000 मीटर (23,000 फीट) से अधिक है।
- ध्रुवीय क्षेत्रों के अलावा दुनिया के तीन सबसे बड़े ग्लेशियर/हिमनद गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में ही अवस्थित हैं।
गिलगित–बाल्टिस्तान का इतिहास:
- पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के पश्चिमी सिरे पर गिलगित और इसके दक्षिण में बाल्टिस्तान स्थित है। यह इलाका 4 नवम्बर, 1947 के बाद से ही पाकिस्तान के प्रशासन में है।
- भारत की आज़ादी से पहले गिलगित–बाल्टिस्तान जम्मू–कश्मीर रियासत का ही हिस्सा था। लेकिन गिलगित-बाल्टिस्तान के इलाके को अंग्रेज़ों ने वहाँ के महाराजा से साल 1846 से लीज़ पर ले रखा था।
- यह इलाका ऊँचाई पर स्थित है, ऐसे में यहाँ से निगरानी रखना आसान था। यहाँ गिलगित स्काउट्स नाम की सेना की टुकड़ी तैनात थी।
- जब अंग्रेज़ भारत छोड़कर जाने लगे तो इसे जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को वापस कर दिया गया।
- हरि सिंह ने ब्रिगेडियर घंसार सिंह को यहाँ का गवर्नर बनाया। गिलगित स्काउट्स वहीं तैनात रही। उस समय इस फौज के अधिकांश अधिकारी अंग्रेज़ ही हुआ करते थे।
- वर्ष 1947 में जब कश्मीर पर पाकिस्तानी फौज ने हमला कर दिया तो 31 अक्टूबर को महाराजा हरिसिंह ने भारत के साथ विलय के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये।
- इस तरह गिलगित-बाल्टिस्तान भी भारत का हिस्सा बन गया। लेकिन गिलगित-बाल्टिस्तान में मौजूद अंग्रेज़ फौजी अधिकारियों ने इस समझौते को नहीं माना और गवर्नर घंसार सिंह को जेल में डाल दिया।
- इन अधिकारियों ने गिलगित–बाल्टिस्तान को पाकिस्तान के साथ मिलाने का समझौता कर लिया।
- 2 नवम्बर, 1947 को गिलगित में पाकिस्तान का झंडा फहरा दिया गया। पाकिस्तान की सरकार ने सदर मोहम्मद आलम को यहाँ का नया प्रशासक नियुक्त कर दिया। यह हिस्सा अनौपचारिक रूप से पाकिस्तान के प्रशासन में चला गया।
- वर्ष 1949 में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर और पाकिस्तानी सरकार के बीच हुए कराची समझौते के तहत गिलगित–बाल्टिस्तान को पाकिस्तान को सौंप दिया गया।
- 1970 में इसे अलग प्रशासनिक इकाई का दर्जा दे दिया गया और इसका नाम नॉर्दर्न एरिया रखा गया। वर्ष 2007 में वापस इसका नाम बदलकर गिलगित–बाल्टिस्तान कर दिया गया।
- पाकिस्तान में चार राज्य हैं। इनके अलावा पाक प्रशासित कश्मीर और गिलगित- बाल्टिस्तान को स्वायत्त इलाके का दर्जा दिया गया है।
- वर्ष 2009 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी ने गिलगित–बाल्टिस्तान एम्पॉवरमेंट एंड सेल्फ गवर्नेंस ऑर्डर 2009 जारी किया।
- इस कानून के तहत गिलगित-बाल्टिस्तान में एक विधानसभा बनाने और गिलगित–बाल्टिस्तान काउंसिल बनाने के आदेश दिये गए।
- गिलगित–बाल्टिस्तान में मुख्यमंत्री और गवर्नर दोनों होते हैं। किसी भी मामले का अंतिम फैसला लेने का अधिकार गवर्नर के पास सुरक्षित है। हालाँकि, सारे ज़रूरी फैसले लेने का अधिकार गिलगित-बाल्टिस्तान काउंसिल के पास है।
- इसके अध्यक्ष पाकिस्तान के प्रधानमंत्री होते हैं। वर्ष 2009 के बाद गिलगित-बाल्टिस्तान में तीन मुख्यमंत्री रहे हैं।
- वर्ष 2009 के सरकारी आदेश को वर्ष 2018 में बदला गया और गिलगित-बाल्टिस्तान की विधानसभा को कई महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये गए।
- गिलगित-बाल्टिस्तान की मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल 30 जून, पाकिस्तान के साथ 2020 को खत्म हो गया है। इसके 60 दिनों के अंदर यहाँ चुनाव करवाने की बात की गई थी।
नया विवाद:
- पाकिस्तान में चुनाव होने से पहले एक कार्यकारी सरकार का गठन होता है। यही कार्यकारी सरकार अपनी देखरेख में चुनाव करवाती है।
- वर्ष 2009 से गिलगित–बाल्टिस्तान में चुनाव शुरू हुए लेकिन यहाँ चुनाव से पहले कभी कार्यकारी सरकार का गठन नहीं होता था।
- 30 अप्रैल, 2020 को पाकिस्तानी उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली सात न्यायाधीशों की एक बेंच ने अपने आदेश में यहाँ वर्ष 2017 के चुनाव कानून के तहत सम्बंधित कानून बदलकर कार्यकारी सरकार बनाने और चुनाव करवाने के आदेश दिये हैं।
- इस फैसले में वर्ष 2018 में गिलगित-बाल्टिस्तान को दी गई कई छूटों में भी कटौती की गई है।
- उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2019 में गिलगित–बाल्टिस्तान में लोगों को अधिकार देने से सम्बंधित गवर्नेंस सुधार कानून संसद में पास कराने को कहा था,जिस पर अभी तक कार्रवाई नहीं हुई है। इसमें वहाँ चुनाव से पहले कार्यकारी सरकार बनाने का प्रावधान होता।
आगे की राह:
- भारत हमेशा से इस बात पर ज़ोर देता आया है कि गिलगित-बाल्टिस्तान जम्मू-कश्मीर का अभिन्न हिस्सा है और इस तरह के कदम से कश्मीर सम्बंधी मामले में गम्भीर नुकसान हो सकता है।
- 13 अगस्त,1948 और 5 जनवरी,1949 में पारित संयुक्त राष्ट्र संघ के दो प्रस्तावों द्वारा गिलगित–बाल्टिस्तान(GB)और कश्मीर मुद्दे के मध्य एक कड़ी को स्पष्ट रूप से स्थापित किया गया है।
- इस प्रकार, इस क्षेत्र को पाँचवाँ प्रांत बनाने से कराची समझौते और संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्तावों का उल्लंघन होगा जो भविष्य में किसी भी बातचीत के लिये बहुत ही नकारात्मक माहौल उत्पन्न कर सकता है।
मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–2: विषय– भारतीय संविधान– ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना। विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का पृथक्करण, विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान। संसद और राज्य विधायिका– संरचना, कार्य, कार्य–संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय।)
विषय–संसद में विधेयक एवं प्रवर समिति
- हाल ही में सरकार ने राज्यसभा में दो महत्त्वपूर्ण कृषि विधेयकों को पारित किया जिसके बाद से राज्य सभा में इसका विपक्ष द्वारा बहुत विरोध हुआ तथा विपक्ष ने इन विधेयकों को प्रवर समिति के पास भेजने की माँग की।
संसदीय समितियाँ:
- जैसा कि विदित है कि संसद के कार्यों में न सिर्फ विविधता रहती है बल्कि काम की अधिकता भी रहती है। चूँकि संसद के पास इन कार्यों के लिये समय बहुत सीमित होता है, इसलिये उसके समक्ष प्रस्तुत सभी विधायी या अन्य मामलों पर गहन विचार नहीं हो सकता है। अत: इसका बहुत-सा कार्य समितियों द्वारा किया जाता है।
- संसद के दोनों सदनों की समितियों की संरचना कुछ अपवादों को छोड़कर एक जैसी होती है। इन समितियों में नियुक्ति,कार्यकाल,कार्य एवं कार्य संचालन की प्रक्रिया कुल मिलाकर करीब एक जैसी ही है और यह संविधान के अनुच्छेद 118 (1) के अंतर्गत दोनों सदनों द्वारा निर्मित नियमों के तहत अधिनियमित होती है।
- सामान्यतः ये समितियाँ दो प्रकार की होती हैं – स्थाई समितियाँ और तदर्थ समितियाँ। स्थाई समितियाँ प्रतिवर्ष या समय–समय पर निर्वाचित या नियुक्त की जाती हैं और इनका कार्य कमोबेश निरंतर चलता रहा है। तदर्थ समितियों की नियुक्ति ज़रूरत पड़ने पर की जाती है तथा अपना काम पूरा कर लेने और अपनी रिपोर्ट पेश कर देने के बाद वे समाप्त हो जाती हैं।
स्थाई समितियाँ:
- वे समितियाँ जो बिल, बजट और मंत्रालयों की नीतियों की जाँच करती हैं, उन्हें विभागीय रूप से सम्बंधित स्थाई समितियाँ कहा जाता है। ऐसी 24 समितियाँ हैं।
- प्रत्येक समिति में 31 सांसद होते हैं, 21 लोक सभा से और 10 राज्य सभा से।
- इन समितियों का उद्देश्य अधिक-से-अधिक और विस्तृत चर्चा द्वारा सरकार की संसद के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करना है।
- इनका उद्देश्य प्रशासन को कमज़ोर करना या प्रशासन की आलोचना करना नहीं है बल्कि अधिक सार्थक संसदीय समर्थन के साथ विधेयक से जुड़े कारकों को मज़बूत करना है।
- लोक सभा की स्थाई समितियों में तीन वित्तीय समितियों यानीप्राकक्लन समिति, लोक लेखा समिति तथा सरकारी उपक्रमों सम्बंधी समिति का विशिष्ट स्थान है और ये सरकारी खर्च और निष्पादन पर लगातार नज़र रखती हैं। प्राक्कलन समिति के सभी सदस्य लोक सभा से होते हैं,लेकिन लोक लेखा समिति तथा सरकारी उपक्रमों सम्बंधी समिति में लोक सभा के साथ राज्य सभा के भी सदस्य होते हैं
1. | प्राक्कलन समिति | 30 सदस्य (लोक सभा ) | 1 वर्ष | लोक सभा द्वारा निर्वाचित |
2. | लोक लेखा समिति | 22 सदस्य (15 लोक सभा + 7 राज्य सभा) | 1 वर्ष | दोनों सदनों द्वारा निर्वाचित |
3. | सरकारी उपक्रमों सम्बंधी समिति | 22 सदस्य (15 लोक सभा + 7 राज्य सभा) | 1 वर्ष | दोनों सदनों द्वारा निर्वाचित |
- प्राक्कलन समिति यह बताती है कि प्राक्कलनों में निहित नीति के अनुरूप क्या मितव्ययिता बरती जा सकती है तथा संगठन, कार्य-कुशलता और प्रशासन में क्या-क्या सुधार किये जा सकते हैं। यह इस बात की भी जाँच करती है कि धन प्राक्कलनों में निहित नीति के अनुरूप ही व्यय किया जा सकता है या नहीं। समिति इस बारे में भी सुझाव देती है कि प्राक्कलन को संसद में किस रूप में पेश किया जाए।
- लोक लेखा समिति भारत सरकार के विनियोग तथा वित्त लेखा और लेखा नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की जाँच करती है। यह सुनिश्चित करती है कि सरकारी धन संसद के निर्णयों के अनुरूप ही खर्च हो। यह अपव्यय, हानि और निरर्थक व्यय के मामलों की ओर ध्यान दिलाती है।
- सरकारी उपक्रमों सम्बंधी समिति नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की यदि कोई रिपोर्ट हो, तो उसकी जाँच करती है। वह इस बात की भी जाँच करती है कि ये सरकारी उपक्रम कुशलतापूर्वक चलाए जा रहे हैं या नहीं, इनका प्रबंध ठोस व्यापारिक सिद्धांतों और विवेकपूर्ण वाणिज्यिक प्रक्रियाओं के अनुसार किया जा रहा है या नहीं।
- इन तीन वित्तीय समितियों के अलावा, लोक सभा के नियमों के बारे में समिति ने विभागों से सम्बंधित 17 स्थाई समितियाँ गठित करने की सिफारिश की थी। इसके अनुसार, 8 अप्रैल,1993 को इन 17 समितियों का गठन किया गया। जुलाई 2004 में नियमों में संशोधन किया गया, ताकि ऐसी ही 7 और समितियाँ गठित की जा सकें। इस प्रकार से इन समितियों की संख्या 24 हो गई है।
समितियों के कार्य:
- भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों के अनुदानों की मांग पर विचार करना और उसके बारे में सदन को सूचित करना;
- लोक सभा के अध्यक्ष या राज्य सभा के सभापति द्वारा समिति के पास भेजे गए ऐसे विधेयकों की जाँच-पड़ताल करना और जैसा भी मामला हो, उसके बारे में रिपोर्ट तैयार करना;
- मंत्रालयों और विभागों की वार्षिक रिपोर्टों पर विचार करना तथा उसकी रिपोर्ट तैयार करना; और
- सदन में प्रस्तुत नीति सम्बंधी दस्तावेज़ यदि लोक सभा के अध्यक्ष अथवा राज्य सभा के सभापति द्वारा समिति के पास भेजे गए हैं,तो उन पर विचार करना और उनके बारे में रिपोर्ट तैयार करना।
संसदीय समिति की आवश्यकता क्यों है?
- संसद दो तरीकों से विधायी प्रस्तावों (विधेयकों) की जाँच करती है। पहला,दोनों सदनों के पटल पर इस पर चर्चा करके।
- यह एक विधायी आवश्यकता है;सभी विधेयकों पर बहस की जानी चाहिये।
- बिलों पर बहस करने में लगने वाला समय अलग-अलग हो सकता है। उन्हें कुछ ही मिनटों में पारित किया जा सकता है या बहस और उन पर मतदान देर रात तक चल सकता है।
- चूँकि संसद सत्र मात्र 70 से 80 दिनों के ही होते हैं, इसलिये सदन के पटल पर प्रत्येक विधेयक पर विस्तार से चर्चा करने के लिये पर्याप्त समय नहीं होता है।
- दूसरा तरीका है कि विधेयक को प्रवर समिति या किसी अन्य स्थाई समिति को जाँच या परीक्षण के लिये सौंप दिया जाए।
प्रवर समिति क्या होती है?
- भारत की संसद में कई प्रकार की समितियाँ हैं। प्रवर समिति तदर्थ समिति की सलाहकार समिति के अंतर्गत आती है ।
- इसका गठन किसी विधेयक पर विचार करके उसकी रिपोर्ट देने के लिये किया जाता है।
- यह समिति विधेयक पर उसी प्रकार विचार करती है जैसे दोनों सदन किसी विधेयक पर विचार करते हैं ।
- समिति के सदस्य अगर चाहें तो विभिन्न प्रावधानों पर संशोधन के लिये प्रस्ताव रख सकते हैं।
समिति विधेयकों की जाँच कब करती है?
- विधेयकों को स्वतः समितियों के पास परीक्षण के लिये नहीं भेजा जाता है।इसके तीन व्यापक रास्ते हैं जिनके द्वारा एक विधेयक किसी समिति तक पहुँच सकता है।
- पहला यह है कि जब बिल को लाने वाला मंत्री सदन को सलाह देता है कि उसके विधेयक की जाँच सदन की प्रवर समिति या दोनों सदनों की संयुक्त समिति द्वारा की जाए।
- पिछले साल इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्री ने लोक सभा में एक प्रस्ताव रखा जिसमें व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक को एक संयुक्त समिति को सौंप दिया गया।
- यदि मंत्री इस तरह का कोई प्रस्ताव नहीं देता है,तो यह सदन के पीठासीन अधिकारी पर निर्भर करता है कि वह विधेयक को विभागीय रूप से सम्बंधित स्थाई समिति को भेजे या नहीं।
जब कोई बिल किसी समिति के पास जाता है तो क्या होता है?
- किसी भी समिति के पास विधेयक आने पर दो बातें होती हैं।
- सबसे पहले,समिति विधेयक का एक विस्तृत परीक्षण करती है। यह विशेषज्ञों, हितधारकों और नागरिकों से टिप्पणियों और सुझावों को आमंत्रित करती है।
- सरकार भी अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिये समिति के सामने आती है।
- इस सबके बाद एक रिपोर्ट बनाई जाती है, जिसके द्वारा विधेयक को मज़बूत बनाने के लिये आवश्यक सुझाव दिये जाते हैं। जब तक समिति के पास विधेयक जाँच के लिये रहता है,इसका विधिक या प्रशासनिक पालन भी रुका रहता है।
- समिति द्वारा रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत किये जाने के बाद ही यह विधेयक अपनी विधायी प्रक्रिया में आगे बढ़ता है। आमतौर पर, संसदीय समितियों को तीन महीनों में अपनी रिपोर्ट देनी होती है, लेकिन कभी-कभी इसमें अधिक समय लग सकता है।
रिपोर्ट के बाद क्या होता है?
- समिति की रिपोर्ट की प्रकृति अनुशंसात्मक होती है। सरकार इसकी सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है।
- बहुत बार सरकार समितियों द्वारा दिये गए सुझावों को शामिल करती है, जिसमें प्रवर समितियाँ और जे.पी.सी.थोड़े लाभ में रहती हैं।
- अपनी रिपोर्ट में वे विधेयक के अपने संस्करण को भी शामिल कर सकते हैं। यदि वे ऐसा करते हैं,तो उस विशेष विधेयक के प्रभारी मंत्री विधेयक की समिति के संस्करण के लिये चर्चा कर सकते हैं और सदन में पारित भी करवा सकते हैं।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 व 3 : संघीय ढाँचे से सम्बंधित विषय एवं चुनौतियाँ, आंतरिक सुरक्षा के लिये चुनौती उत्पन्न करने वाले शासन विरोधी तत्त्वों की भूमिका, सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा चुनौतियाँ एवं उनका प्रबंधन)
विषय–आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम और जासूसी रोधी कानून
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में पुलिस ने रणनीतिक मामलों के विश्लेषक एक भारतीय पत्रकार सहित दो लोगों को‘आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम’ (Official Secrets Act- ओ.एस.ए.) के तहत गिरफ्तार किया।
आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम
- ‘आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम’ मूलतः ब्रिटिश औपनिवेशिक युग का है। इसका मूल संस्करण ‘भारतीय आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम(अधिनियम XIV),1889’ था।
- यह अधिनियम ब्रिटिश राज की नीतियों का विरोध कर रहे कई भाषाओं के समाचार–पत्रों की आवाज़ को दबाने के उद्देश्य से लाया गया था। साथ ही राजनीतिक चेतना का निर्माण करने वाले और पुलिस की कार्रवाई व जेल का विरोध करने वालों के लिये भी इस कानून को लाया गया था।
- वाइसराय लार्ड कर्ज़न के समय इसमें संशोधन करके आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम, 1904 के रूप में इसको और अधिक कठोर बना दिया गया।
- वर्ष 1923 में इसका एक नया संस्करण अधिसूचित किया गया और इसके द्वारा भारतीय आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम (1923 का अधिनियम सं. XIX) को देश के शासन में गोपनीयता और विश्वसनीयता के सभी मामलों तक विस्तारित कर दिया गया।
- मोटे तौर पर यह अधिनियम दो पक्षों से सम्बंधित है। जासूसी या गुप्तचर व्यवस्था को धारा 3 के अंतर्गत और सरकार की अन्य गुप्त जानकारी के प्रकटीकरण को धारा 5 के अंतर्गत रखा गया है।
- गुप्त जानकारी कोई भी आधिकारिक कोड, पासवर्ड, स्केच, योजना, मॉडल, लेख, नोट, दस्तावेज़ या सूचना हो सकती है।
- धारा 5 के तहत इस प्रकार की गुप्त सूचना का संचार करने वाले व्यक्ति और उस सूचना को प्राप्त करने वाले व्यक्ति दोनों को दंडित किया जा सकता है।
- किसी दस्तावेज़ को वर्गीकृत करने के लिये कोई भी सरकारी मंत्रालय या विभाग, विभागीय सुरक्षा निर्देश,1994 के मैनुअल का पालन करता है, न की आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम का।
- इसके अलावा, ओ.एस.ए. स्वयं यह नहीं बताता कि कौन-सी दस्तावेज़ ‘गुप्त’ श्रेणी में आती हैं और कौन नहीं। ओ.एस.ए. कानून के तहत ‘गुप्त’ दस्तावेज़ के दायरे में क्या आता है, यह तय करना सरकार का विवेकाधिकार है।
- अक्सर तर्क दिया जाता है कि यह कानून ‘सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005’ के साथ सीधे तौर पर टकराता है।
आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम बनाम सूचना का अधिकार अधिनियम
- आर.टी.आई. अधिनियम की धारा 22 ओ.एस.ए. सहित अन्य कानूनों के समकक्ष प्रावधानों के मामलों में अपने (आर.टी.आई.) प्रावधानों को प्रधानता प्रदान करती है।
- यह आर.टी.आई. अधिनियम को एक अधिभावी प्रभाव (Overriding Effect) प्रदान करता है, इसलिये यदि किसी सूचना को प्रस्तुत करने के सम्बंध में ओ.एस.ए. में कोई असंगति है, तो आर.टी.आई. अधिनियम को इस पर प्रभावी माना जाता है। हालाँकि, आर.टी.आई. अधिनियम की धारा 8 और 9 के तहत सरकार जानकारी देने से इनकार कर सकती है।
- प्रभावी रूप से यदि सरकार ओ.एस.ए. के तहत किसी दस्तावेज़ को ‘गुप्त’ के रूप में वर्गीकृत करती है, तो उस दस्तावेज़ को आर.टी.आई. अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जा सकता है और सरकार धारा 8 या 9 को लागू कर सकती है। कानूनी विशेषज्ञ इसे खामियों के रूप में देखते हैं।
ओ.एस.ए. के प्रावधानों को बदलने का प्रयास
- ओ.एस.ए. के सम्बंध में अवलोकन करने वाला पहला सरकारी निकाय विधि आयोग पहली बार वर्ष 1971 में बना। विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ अपराध’ नाम से प्रस्तुत की।
- इस रिपोर्ट में कहा गया कि यदि किसी परिपत्र को ‘गुप्त’ या ‘गोपनीय’ के रूप में चिन्हित और वर्गीकृत किया गया है, तो केवल इसी आधार पर उसे इस अधिनियम के प्रावधानों के दायरे में नहीं लाना चाहिये। यदि उसका प्रकाशन जनता तथा राज्य के हित में है तो उसका प्रकाशन किया जा सकता है। हालाँकि, विधि आयोग ने अधिनियम में किसी भी बदलाव की सिफारिश नहीं की।
- वर्ष 2006 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने सिफारिश की कि ओ.एस.ए. को निरस्त किया जाए और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में एक अध्याय के रूप में इसके प्रावधानों को शामिल किया जाए।
- ओ.एस.ए. को ‘एक लोकतांत्रिक समाज में पारदर्शिता के शासन के साथ असंगत’ होने के कारण प्रशासनिक सुधार आयोग ने वर्ष 1971 के विधि आयोग की रिपोर्ट का उल्लेख किया था, जिसने राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बंधित सभी कानूनों को एक साथ लाने के लिये एक ‘अम्ब्रेला अधिनियम’ पारित किये जाने की बात कही थी।
- वर्ष 2015 में सरकार ने आर.टी.आई. अधिनियम के प्रकाश में ओ.एस.ए. के प्रावधानों का निरीक्षण करने के लिये एक समिति का गठन किया था, जिसने ओ.एस.ए. को अधिक पारदर्शी और आर.टी.आई. अधिनियम के अनुरूप बनाने की अनुसंशा की थी।
ओ.एस.ए. से सम्बंधित कुछ प्रमुख उदाहरण
- ओ.एस.ए. से जुड़े सबसे पुराने और सबसे लम्बे आपराधिक परीक्षणों में से एक वर्ष 1985 का कोमार नारायण जासूसी मामला है।
- इसरो जासूसी एक अन्य उच्चस्तरीय मामला था, जिसमें वैज्ञानिक एस. नंबी नारायण पर पाकिस्तान को अवैध तरीके से रॉकेट और क्रायोजेनिक तकनीक से जुड़ी जानकारी लीक करने का आरोप था। हालाँकि, बाद में उन्हें बरी कर दिया गया था।
- ओ.एस.ए. के तहत सबसे नवीनतम मामले में दिल्ली की एक अदालत द्वारा इस्लामाबाद में भारतीय उच्चायोग में सेवारत एक पूर्व राजनयिक माधुरी गुप्ता को आई.एस.आई. को संवेदनशील जानकारी देने का दोषी पाया गया था।
PT Analysis
- जासूसी से सम्बंधित मूल अधिनियम ‘आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम,1889’ था, जिसे वाइसराय लार्ड कर्ज़न के समय संशोधन द्वारा आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम, 1904 के रूप में और अधिक कठोर बना दिया गया।
- गुप्त जानकारी कोई भी आधिकारिक कोड, पासवर्ड, स्केच, योजना, मॉडल, लेख, नोट, दस्तावेज़ या सूचना हो सकती है।
- इसके अंतर्गत गुप्त सूचना का संचार करने वाले व्यक्ति और उस सूचना को प्राप्त करने वाले व्यक्ति दोनों को दंडित किया जा सकता है।
- ओ.एस.ए. कानून के तहत ‘गुप्त’ दस्तावेज़ के दायरे में क्या आता है, यह तय करना सरकार का विवेकाधिकार है।
- यदि किसी सूचना को प्रस्तुत करने के सम्बंध में आर.टी.आई. और ओ.एस.ए. में कोई असंगति है, तो आर.टी.आई. अधिनियम को इस पर प्रभावी माना जाता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 व 3 : जल–स्रोत और हिमावरण सहित स्थान– अति महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताएँ, भारत एवं इसके पड़ोसी सम्बंध, सिंचाई के विभिन्न प्रकार एवं सिंचाई प्रणाली)
विषय–सिंधु जल समझौते के 60 वर्ष : एक नए स्वरूप की आवश्यकता
चर्चा में क्यों?
- 19 सितम्बर को भारत और पाकिस्तान के बीचसिंधु जल संधि (Indus Water Treaty- IWT) की 60 वीं वर्षगांठ है।
पृष्ठभूमि
- सिंधु जल संधि को अक्सर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की बेहतर सम्भावनाओं के उदाहरण के रूप में देखा जाता है, जो दोनों देशों के बीच आपसी सम्बंधों के कठिन दौर के बावजूद भी मौजूद है।
- विश्व बैंक ने तीसरे पक्ष के रूप में IWT में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और उसी की मध्यस्थता में वर्ष 1960 में कराची में इस संधि पर हस्ताक्षर किये गए थे। यह विश्व बैंक के लिये विशेष रूप से गर्व की बात है, क्योंकि यह संधि अभी भी सुचारु रूप से जारी है।
- संधि के प्रावधानों के अनुपालन में इस नदी प्रणाली के ऊपरी प्रवाह वाले देश के रूप में भारत की भूमिका उल्लेखनीय रही है। वर्तमान में पाकिस्तान के साथ भारत के समग्र राजनैतिक सम्बंध असहज हैं, अत: भारत पर दबाव है कि वह इसके प्रावधानों पर किस हद तक प्रतिबद्धता दर्शाए।
सिंधु जल संधि : न्यायसंगत जल बँटवारा
- वर्ष 1947 में भारत विभाजन के बाद सिंधु नदी प्रणाली का बँटवारा अपरिहार्य था। विभाजन के बाद सिंधु नदी प्रणाली की तीन ‘पश्चिमी नदियों’ (सिंधु, झेलम और चिनाब) का जल पाकिस्तान के हिस्से में और तीन ‘पूर्वी नदियों’ (सतलज, रावी और ब्यास) का जल भारत के हिस्से में आया।
- प्रथम दृष्टया यह विभाजन न्यायसंगत लग सकता है, परंतु वास्तविकता यह है कि भारत ने समझौते के अंतर्गत सिंधु नदी प्रणाली के कुल जल प्रवाह का 80.52% हिस्सा पाकिस्तान को दिया है।
- साथ ही समझौते के तहत पश्चिमी नदियों से नहरों के निर्माण हेतु पाकिस्तान को पाउंड स्टर्लिंग के रूप में 83 करोड़ रुपए भी सहायतार्थ प्रदान किये गए।
- भारत ने पूर्वी नदियों पर पूर्ण अधिकार के लिये पश्चिमी नदियों पर अपनी ऊपरी स्थिति को ही स्वीकार किया। भारत की विकास योजनाओं के लिये पानी की ज़रूरत थी। अतः प्रस्तावित राजस्थान नहर और भाखड़ा बाँध के लिये ‘पूर्वी नदियों’ का पानी प्राप्त करना अनिवार्य हो गया, नहीं तो पंजाब और राजस्थान दोनों के कृषि क्षेत्र गम्भीर रूप से सूखा प्रभावित हो जाते।
- नेहरू ने वर्ष 1963 में भाखड़ा नहरों का उद्घाटन करते हुए इसे ‘एक विशाल उपलब्धि और राष्ट्र की ऊर्जा तथा उद्यम का प्रतीक’ बताया।
- हालाँकि, पाकिस्तान में इसको लेकर तीव्र आक्रोश था कि भारत को पूर्वी नदियों पर कुल 33 मिलियन एकड़ फीट (MAF) का प्रवाह प्राप्त हो गया, जबकि भारत हमेशा इस बात को लेकर सचेत था कि भाखड़ा नहरों का अस्तित्व पाकिस्तान को कम जलापूर्ति की कीमत पर नहीं होना चाहिये।
दोनों देशों के मध्य रिश्तों में बढ़ती असहजता और IWT
- कई सकारात्मक प्रयासों के बावजूद पाकिस्तानी नेतृत्व भारत के साथ पानी के बँटवारे को एक अनसुलझा मुद्दा मानता है। वास्तव में, पाकिस्तान की चिंता पश्चिमी नदियों, विशेष रूप से झेलम और चिनाब पर भारतीय परियोजनाओं की तकनीकी शर्तों की अनुरूपता को लेकर है।
- भारत के प्रति आशंकाओं तथा सिंधु नदी प्रणाली में निम्न प्रवाह वाला राज्य होने के नाते पाकिस्तान द्वारा इस मुद्दे के राजनीतिकरण को बढ़ावा दिया गया है।
- पाकिस्तान अपनी पूर्वी सीमा पर भारत द्वारा पश्चिमी नदियों को अपने नियंत्रण में लेने की के डर से इसके आसपास उच्च सैन्य स्तर और सतर्कता बनाए रखता है।
- सिंधु नदी बेसिन अपनी रणनीतिक स्थिति और महत्त्व के कारण अंतर्राष्ट्रीय ध्यानाकर्षण का विषय रहा है और वर्ष 1951 में एक अमेरिकी विशेषज्ञ ने इस मुद्दे के कारण ‘एक अन्य कोरिया’ के निर्माण की चिंता व्यक्त की थी, जिसने विश्व बैंक को मध्यस्थता के लिये प्रेरित किया।
संधि को निरस्त करने का विकल्प
- सीमा पार आतंकवाद और पाकिस्तानी घुसपैठ के प्रतिक्रियास्वरूप कई बार भारत में IWT को निरस्त करने की माँग की गई है। ऐसे किसी भी प्रयास के लिये कई राजनैतिक–राजनयिक और हाइड्रोलॉजिकल कारकों के निर्धारण की आवश्यकता के साथ–साथ राजनीतिक सहमति की भी आवश्यकता होती है।
- यह संधि ‘निर्बाध’ बनी हुई है, क्योंकि भारत अपनी कूटनीति और आर्थिक समृद्धि दोनों के संदर्भ में सीमा-पार नदियों से सम्बंधित मूल्यों और एक हस्ताक्षरकर्ता के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी निभाता है।
- पाक समर्थित आतंकी घटनाएँ भारत को वियना अभिसमय के अंतर्गत ‘संधि के नियमों’ के तहत IWT से हटने के लिये प्रेरित कर सकती थीं, परंतु भारत ने ऐसा नहीं किया।
संधि के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता
- हो सकता है कि इस संधि पर हस्ताक्षर किये जाने के समय यह किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति करता रही हो, परंतु जलविद्युत की वर्तमान वास्तविकताओं के साथ, बाँध निर्माण और डी–सिल्टेशन में उन्नत इंजीनियरिंग प्रणालियों के परिणामस्वरूप इसको नए सिरे से देखने की तत्काल आवश्यकता है।
- IWT के अनुच्छेद XII के अनुसार, दोनों सरकारों द्वारा आपसी सहमती बनने पर कुछ शर्तों के साथ इसको ‘समय–समय पर संशोधित’ किया जा सकता है।
- भारत के पास इस समझौते को निरस्त करने का विकल्प मौजूद है। हालाँकि, भारत इस कदम से संकोच करता है, अत: मौजूदा समय में IWT में संशोधन को लेकर बहस बढ़ रही है।
आगे की राह
- पश्चिमी नदियों पर IWT द्वारा दी गई ‘अनुमेय भंडारण क्षमता’ के 3.6 मिलियन एकड़ फीट (MAF) का उपयोग करने में भारत को तेज़ी दिखानी चाहिये।
- जल विकास परियोजनाओं के कुप्रबंधन और अवसंरचना की कमी के कारण 2 से 3 एम.ए.एफ. पानी आसानी से पाकिस्तान में प्रवाहित हो जाता है, जिसका तत्काल उपयोग करने की आवश्यकता है।
- इसके अलावा, कश्मीर में तीन पश्चिमी नदियों से 11406 मेगावाट बिजली की कुल अनुमानित क्षमता का दोहन किया जा सकता है, जिसमें से अब तक केवल 3034 मेगावाट (एक-चौथाई से कुछ अधिक) का ही उपयोग किया गया है। इसके अधिकतम प्रयोग की सम्भावनाओं पर विचार किया जाना चाहिये।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2: विषय –भारत एवं इसके पड़ोसी– सम्बंध।भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
विषय–श्रीलंकाई संविधान में संशोधन और भारत
- नवम्बर 2019 के राष्ट्रपति चुनाव और अगस्त 2020 के आम चुनावों में महिंदा राजपक्षे की जीत के बाद श्रीलंका के संविधान के दो प्रमुख विधान सुर्खियों में आ गए हैं।हाल ही में, श्रीलंका सरकार ने देश में 20वें संविधान संशोधन का प्रस्ताव रखा है, जिस वजह से सत्तारूढ़ दल को दल के अंदर व बाहर दोनों तरफ विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
- ध्यातव्य है कि श्रीलंका सरकार संविधान में 20वें संशोधन के माध्यम से वर्ष 2015 में किये गए 19वें संविधान संशोधन में बदलाव लाने की इच्छुक है।
- अगर यह संविधान संशोधन होता है तो श्रीलंका की राजनीतिक परिस्थितियाँ बदल जाएंगी और वर्ष 1987 का 13वाँ संविधान संशोधन खतरे में पड़ सकता है और यह भारत के लिये चिंता की बात भी है।
श्रीलंकाई संविधान में20 वाँ संशोधन:
- विदित है कि 2 सितम्बर, 2020 को श्रीलंका सरकार ने अपने देश के संविधान में संशोधन का एक मसौदा प्रस्तावित किया था, जिसके माध्यम से 19वें संविधान संशोधन के उन प्रावधानों को बदलने के लिये विधायी प्रक्रिया शुरू की गई है, जो देश में राष्ट्रपति की शक्तियों पर अंकुश लगाते हैं या राष्ट्रपति की निरंकुशता पर रोक लगाने की बात करते हैं।
- गौरतलब है कि लगभग 42 वर्ष पूर्व श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री जे.आर. जयवर्धने द्वारा लागू किये गए संविधान में यह 20वाँ संशोधन होगा। राजपक्षे सरकार ने पहले ही 20वें संशोधन का मसौदा तैयार कर लिया है।
- श्रीलंका सरकर द्वारा प्रस्तावित इस संविधान संशोधन में संवैधानिक परिषद के स्थान पर संसदीय परिषद लाने का प्रावधान किया गया है। यह इसलिये किया गया है क्योंकि वर्तमान प्रावधानों के अनुसार चूँकि संवैधानिक परिषद द्वारा लिये गए निर्णय राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी हैं, प्रस्तावित संसदीय परिषद के निर्णय राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी नहीं रहेंगे।
- इसके अलावा अब संविधान संशोधन के माध्यम से, प्रधानमंत्री के मुख्य मंत्रिमंडल और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर करेगी जबकि पूर्व में इसके लिये राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह लेना आवश्यक था।
- प्रस्तावित संशोधन में यह भी उपबंध किये गए हैं कि संसद की एक वर्ष की अवधि समाप्त होने के बाद राष्ट्रपति उसे किसी भी समय भंग कर सकता है।
- इसके अलावा प्रस्तावित संशोधन में एक और बदलाव किया गया है जिसके द्वारा संसद के समक्ष किसी भी विधेयक को प्रस्तुत करने से पूर्व आम जनता के लिये उस विधेयक को प्रकाशित करने की अवधि जो पूर्व में 14 दिन थी, उसे घटाकर 7 दिन कर दिया गया है।
20वें संविधान संशोधन की आलोचना:
- श्रीलंका के संविधान व कानून विशेषज्ञों द्वारा सरकार पर आरोप लगाया गया है कि इस संविधान संशोधन के माध्यम से सरकार देश की उन संवैधानिक संस्थाओं के राजनीतिकरण का प्रयास कर रही है, जिनका गठन आम नागरिकों के कल्याण के लिये किया गया था जिसमें किसी भी प्रकार की राजनीति अपेक्षित नहीं थी।
- विशेषज्ञों का कहना है कि इस संशोधन के द्वारा न सिर्फ देश के लोकतांत्रिक मूल्यों पर असर पड़ेगा बल्कि सरकार की जवाबदेही भी कम हो जाएगी।
- गौरतलब है कि श्रीलंका के विपक्षी दलों ने इस संविधान संशोधन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की बात की है।
- ध्यातव्य है कि संविधान संशोधन के लिये प्रस्तवित विधेयक को उच्चतम न्यायालय के अवलोकन के पश्चात् एक-तिहाई बहुमत के द्वारा संसद में पारित किया जा सकता है और वर्तमान सरकार के पास इस संशोधन के पारित करने के लिये पर्याप्त बहुमत है।
श्रीलंका का 19वाँ संविधान संशोधन:
- संविधान संशोधन को वर्ष 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के कार्यकाल (2015-19) के दौरान संसद में पारित किया गया था। ऐसा माना जाता है कि इस संविधान संशोधन के माध्यम से वर्ष 2010 में लाए गए 18वें संशोधन को निरस्त करने का प्रयास किया गया था।
- गौरतलब है कि जहाँ 18वें संविधान संशोधन द्वारा लगभग सभी शक्तियाँ राष्ट्रपति के पास केंद्रित थीं वहीँ 19वें संविधान संशोधन के माध्यम से राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित कर दिया गया था।
- इसके अलावा एक महत्त्वपूर्ण कदम के तहत 19वें संविधान संशोधन के द्वारा चुनाव आयोग, राष्ट्रीय पुलिस आयोग, मानवाधिकार आयोग, वित्त आयोग और श्रीलंका के लोक सेवा आयोग समेत 9 आयोगों में होने वाली नियुक्ति की समस्त प्रक्रियाओं को विकेंद्रीकृत भी कर दिया गया था।
13वाँ संशोधन क्या है?
- 1987 में पारित 13वाँ संविधान संशोधन,श्रीलंका के नौ प्रांतों को संचालित करने के लिये स्थापित प्रांतीय परिषदों को शक्ति हस्तांतरण की बात करता है।
- यह जुलाई 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते का एक परिणाम है, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धने ने जातीय संघर्ष और गृहयुद्ध को सुलझाने व श्रीलंकाई तमिलों की सुरक्षा और संरक्षण को और सुदृढ़ करने के प्रयास में हस्ताक्षर किये थे।इस समझौते का प्रमुख उद्देश्य श्रीलंका के तत्कालीन पूर्वोत्तर प्रांत (तमिल बहुल क्षेत्र) में राजनीतिक शक्तियों का हस्तांतरण था।
- 13वें संशोधन (जिसके कारण प्रांतीय परिषदों का निर्माण हुआ) के द्वारा सिंहल बहुसंख्यक क्षेत्रों सहित देश के सभी नौ प्रांतों को स्वशासन के लिये सक्षम करने के लिये एक शक्ति-साझाकरण व्यवस्था का आश्वासन दिया गया।इसके बाद वहाँ प्रांतीय परिषद का गठन हुआ था।
- शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, आवास, भूमि और पुलिस जैसे विषय प्रांतीय प्रशासन के लिये रखे गए थे।
- लेकिन वित्तीय शक्तियों पर प्रतिबंध और राष्ट्रपति द्वारा पारित नियमों को कभी भी बदल देने की शक्ति के कारण, प्रांतीय प्रशासन बहुत अधिक प्रगति नहीं कर पाए हैं।
- विशेष रूप से, पुलिस और भूमि से सम्बंधित प्रावधानों को कभी लागू नहीं किया जा सका है।
13वाँ संविधान संशोधन और विवाद?
- 13वाँ संशोधन देश के गृह युद्ध के वर्षों से ही काफी चर्चा में रहा है। इसका सिंहली राष्ट्रवादी दलों और लिट्टे दोनों ने मुखर विरोध किया था।
- चूँकि यह संशोधन भारत के हस्तक्षेप के द्वारा नए कानून के रूप में सामने आया, इसलिये अधिकांश सिंहली राष्ट्रवादी 13वें संविधान संशोधन का विरोध करते हैं क्योंकि वो इसे भारत द्वारा अधिरोपित मानते हैं। इसके अलावा सिंहली राष्ट्रवादी 13वें संविधान संशोधन के समस्त प्रावधानों को तमिल अलगाववाद को प्रोत्साहित करने वाला मानते हैं।
- इसके अलावा तमिल राजनीति से जुड़े लोग,विशेष रूप से इसके प्रमुख राष्ट्रवादी तत्त्व 13वें संशोधन को कानून के रूप में पर्याप्त नहीं मानते हैं। यद्यपि उनमें से कुछ इसे एक महत्त्वपूर्ण शुरुआती बिंदु के रूप में देखते हैं, जिसे आगे एक नए कानून के रूप में नई दिशा दी जा सकती है।
13वाँ संशोधन महत्वपूर्ण क्यों है?
- यह संशोधन दीर्घ काल से लम्बित तमिलों से जुड़े सवाल के उत्तर के रूप में एकमात्र संवैधानिक प्रावधान के रूप में जाना जाता है।
- हस्तांतरण की प्रक्रिया के आश्वासन के अलावा यह 1980 के दशक के बाद से बढ़ते सिंहल-बौद्ध अधिनायकवाद के सामने एक महत्त्वपूर्ण राजनैतिक लाभांश की प्राप्ति माना जाता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–2 : विषय – भारतीय संविधान– ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना। सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय। न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्य– सरकार के मंत्रालय एवं विभाग, प्रभावक समूह और औपचारिक/अनौपचारिक संघ तथा शासन प्रणाली में उनकी भूमिका। स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से सम्बंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से सम्बंधित विषय। गरीबी एवं भूख से सम्बंधित विषय।)
विषय–आवास का अधिकार
- हाल ही में, भारत के उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली में रेलवे पटरियों के किनारे स्थित लगभग 48,000 झुग्गी-झोपड़ियों को हटाने का आदेश दिया।
उच्चतम न्यायालय के इस आदेश पर कई तरह के कानूनी सवाल उठ रहे हैं :
1) प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन
- उच्चतम न्यायालय का यह आदेश प्राकृतिक न्याय और उचित प्रक्रिया के सिद्धांतों (Principles of Natural Justice and due Process) का उल्लंघन करता है, क्योंकि यह प्रभावित पक्ष अर्थात झुग्गी निवासियों की बात सुने बिना दिया गया था।
- यह आदेश लम्बे समय से चल रहे रेलवे पटरियों के किनारे कचरे के ढेर से जुड़े मामले में दिया गया है।
- हालाँकि, इस मामले और रिपोर्ट में अनौपचारिक बस्तियों की वैधता से जुड़ी कोई बात नहीं की गई।
- जानकारों का कहना है कि इस मामले में न्यायालय ने कचरे के ढेर और झुग्गियों के बीच एक असम्बद्ध सम्बंध बताते हुए झुग्गियों को इस कचरे के लिये ज़िम्मेदार घोषित किया।
2) आजीविका के अधिकार की अनदेखी करना:
- इस आदेश में, न्यायालय ने आजीविका के अधिकार पर अपने लम्बे समय से चले आ रहे न्यायशास्त्र की स्वतः अनदेखी की।
- फुटपाथ पर रहने वाले लोगों से जुड़े एक ऐतिहासिक मामले ओल्गा टेलिस एवं अन्य बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन एवं अन्य (1985) (Olga Tellis & Ors vs. Bombay Municipal Corporation & Ors.) में अपना निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि जीवन जीने के अधिकार में “आजीविका का अधिकार“ भी शामिल है।
- इसके अलावा, चमेली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1995) (Chameli Singh vs. the State Of U.P.) वाद में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार और अनुच्छेद 19(1)(e) के तहत कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता के घटक के रूप में “आश्रय के अधिकार“ को मान्यता दी थी।
- सरकार का संवैधानिक दायित्व है कि वह गरीबों को आवास मुहैया कराए। न्यायालय ने कहा कि आवास का अधिकार केवल जीवन का संरक्षण ही नहीं है, बल्कि यह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं धार्मिक विकास के लिये ज़रूरी है।
- आवास सभी मूलभूत सुविधाओं के साथ होना चाहिये। न्यायालय ने कहा, दलित और आदिवासियों को देश की मुख्यधारा में शामिल करने के लिये आवश्यक है कि राज्य उन्हें आवासीय सुविधाएँ उपलब्ध कराए।
3) नीतियों और केस कानूनों पर विचार करने में विफलता
- दिल्ली के उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा था कि इस प्रकार के किसी भी निष्कासन से पहले एक सर्वेक्षण किया जाना ज़रूरी है।
- इस निर्णय में निर्धारित प्रक्रिया ने दिल्ली स्लम और जेजे पुनर्वास और पुनर्वास नीति, 2015 (Delhi Slum and JJ Rehabilitation and Relocation Policy, 2015) को आधार बनाया।
- अजय माकन व अन्य बनाम भारत संघ व अन्य (2019) (Ajay Maken & Ors. vs Union Of India & Ors) वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने झुग्गी निवासियों के आवास अधिकारों को बनाए रखने के लिये “शहर के अधिकार“ के विचार को लागू करने की बात की थी।
- इस मामले ने 2015 की नीति के लिये एक मसौदा प्रोटोकॉल तैयार करने की नींव रखी थी, जिसमें यह बात की गई थी कि क्षेत्र के निवासियों के साथ किस प्रकार सार्थक रूप से जुड़ना चाहिये।
निष्कर्ष
- संयुक्त राष्ट्र संघ एवं उसके विभिन्न निकायों ने आवास के अधिकार को बुनियादी मानवाधिकार के रूप में स्वीकृति प्रदान की है। संयुक्त राष्ट्र समिति ने यह भी बात स्पष्ट की थी कि इस अधिकार की विस्तृत व्याख्या करते समय या इससे जुड़े किसी वाद पर निर्णय देते समय न्यायाधीश/सरकार/प्रशासक के मन में संकीर्णता का भाव नहीं होना चाहिये अर्थात् इसे मात्र चार दीवारों और एक छत के अधिकार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये।
- भारत ने पर्याप्त आवास के अधिकार से जुड़े विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं, लेकिन इसके बावजूद देश में सभी नागरिकों को एक आवास मात्र (पर्याप्त आवास नहीं) भी उपलब्ध करा पाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन गया है।
- पर्याप्त आवास के अधिकार की उपेक्षा सबसे ज़्यादा ग्रामीण क्षेत्रों में देखी जा सकती है, जहाँ भौतिक ढाँचागत सुविधाओं के साथ सामाजिक ढाँचागत सुविधाएँ, जैसे- स्वास्थ्य एवं शिक्षा आदि उपलब्ध कराना भी एक बड़ी चुनौती है।
- न्यायालयों को झुग्गी बस्ती के लोगों और अतिक्रमण से प्रभावित लोगों के बीच संतुलन बनाने की ज़रूरत है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2: विषय– विकास प्रक्रिया तथा विकास उद्योग– गैर–सरकारी संगठनों, स्वयं सहायता समूहों, विभिन्न समूहों और संघों, दानकर्ताओं, लोकोपकारी संस्थाओं, संस्थागत एवं अन्य पक्षों की भूमिका। शासन व्यवस्था, पारदर्शिता और जवाबदेही के महत्त्वपूर्ण पक्ष, ई–गवर्नेंस– अनुप्रयोग, मॉडल, सफलताएँ, सीमाएँ और सम्भावनाएँ; नागरिक चार्टर, पारदर्शिता एवं जवाबदेही और संस्थागत तथा अन्य उपाय।)
विषय–विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010
- भारत सरकार द्वारा इस वर्ष 13 गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के लाइसेंस कोविदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (Foreign Contribution (Regulation) Act-FCRA), 2010 के तहत निलम्बित कर दिया गया है।
एफ.सी.आर.ए.क्या है?
- एफ.सी.आर.ए. विदेशी दान को नियंत्रित करता है और यह सुनिश्चित करता है कि ऐसे योगदान आंतरिक सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव न डालें।
- इसे पहली बार वर्ष 1976 में अधिनियमित किया गया तथा वर्ष 2010 में इसे संशोधित किया गया,जब विदेशी दान को विनियमित करने के लिये नए सुधारात्मक उपायों को अपनाया गया था।
- एफ.सी.आर.ए.उन सभी संघों,समूहों और गैर– सरकारी संगठनों पर लागू होता है, जिन्हें विदेशों से दान मिलता है। ऐसे सभी गैर-सरकारी संगठनों के लिये एफ.सी.आर.ए. के तहत खुद को पंजीकृत करना अनिवार्य है।
- पंजीकरण शुरू में पाँच साल के लिये वैध है और इसे बाद में नवीनीकृत किया जा सकता है यदि वे सभी मानदंडों का पालन करते हैं।
एक बार पंजीकृत होने पर क्या होता है?
- पंजीकृत संघ/संगठन सामाजिक, शैक्षिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिये विदेशी योगदान/दान प्राप्त कर सकते हैं।
- पंजीकृत होने के बाद आयकर के तर्ज़ पर इन सगठनों को वार्षिक रिटर्न दाखिल करना अनिवार्य है।
- वर्ष 2015 में, गृह मंत्रालय ने नए नियमों को अधिसूचित किया, जिसमें गैर-सरकारी संगठनों को विदेशी निधियाँ प्राप्त करने के लिये एक उद्घोषणा पत्र देने की आवश्यकता की बात की गई थी।
- इन नियमों में यह कहा गया कि यह दान या इस दान का प्रयोग भारत की सम्प्रभुता और अखंडता को प्रभावित करने या किसी विदेशी राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बंधों को प्रभावित करने या किसी प्रकार के साम्प्रदायिक सद्भाव को बाधित करने के लिये नहीं होना चाहिये।
- नियमों में यह भी कहा गया है कि ऐसे सभी गैर-सरकारी संगठनों को उन राष्ट्रीयकृत या निजी बैंकों में खातों को खोलना होगा, जिनके पास इस प्रकार की कोर बैंकिंग सुविधाएँ हों, जिनके द्वारा सुरक्षा एजेंसियाँ ज़रूरत पड़ने पर वास्तविक समय पर इन खातों तक पहुँच सकें या इनकी जाँच कर सकें।
विदेशी दान कौन नहीं प्राप्त कर सकता है?
- विधायिका और राजनीतिक दलों के सदस्य, सरकारी अधिकारी, न्यायाधीश और मीडियाकर्मी आदि को किसी भी प्रकार के विदेशी योगदान/दान/निधियों को प्राप्त करने से प्रतिबंधित किया गया है।
- हालाँकि, वर्ष 2017 में गृह मंत्रालय ने वर्ष 1976 के एफ.सी.आर.ए. कानून में संशोधन किया, जिससे राजनीतिक दलों के लिये किसी विदेशी कम्पनी (जिसमें किसी भारतीय के पास 50% या अधिक शेयर हों) या किसी विदेशी कम्पनी की भारतीय सहायक कम्पनी से धन प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
विदेशी धन कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
- ध्यातव्य है कि विदेशी योगदान प्राप्त करने का दूसरा तरीका यह है कि इसकी पूर्व अनुमति के लिये आवेदन किया जाए।
- यह विशिष्ट गतिविधियों या परियोजनाओं को पूरा करने के लिये एक विशिष्ट दाता द्वारा विशिष्ट राशि के रूप में दिया जाता है।
- लेकिन ऐसे संघों /संगठनों को सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860, भारतीय ट्रस्ट अधिनियम, 1882 या कम्पनी अधिनियम, 1956 की धारा 25 जैसे क़ानून के तहत पंजीकृत होना चाहिये।
- विदेशी दाता से दानराशि और यह राशि देने के उद्देश्य को निर्दिष्ट करने के लिये एक प्रतिबद्धता पत्र भी आवश्यक है।
पंजीकरण कब निलम्बित या रद्द किया जाता है?
- खातों के निरीक्षण के दौरान या संगठन के कामकाज के खिलाफ किसी भी प्रकार की प्रतिकूल जानकारी प्राप्त होने पर गृह मंत्रालय एफ.सी.आर.ए. पंजीकरण को शुरू में 180 दिनों के लिये निलम्बित कर सकता है।
- तत्पश्चात जब तक कोई निर्णय नहीं लिया जाता तब तक संगठन को किसी भी प्रकार का नया दान नहीं मिल सकता है और वह गृह मंत्रालय की अनुमति के बिना नामित बैंक खाते में उपलब्ध राशि के 25% से अधिक का उपयोग भी नहीं कर सकता है।
संशोधन के संदर्भ में विभिन्न हितधारकों के वक्तव्य
विपक्षी दल :-
- विपक्षी दलों ने प्रस्तावित संशोधन पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि यह संशोधन “सरकार के खिलाफ बोलने वालों को निशाना बनाने” के लिए एक साधन हैं जो राजनैतिक दुश्मनी से प्रेरित है
- विधेयक में एक खंड में कहा गया है कि यह केंद्र सरकार किसी व्यक्ति को जांच लंबित होने की स्थिति में भी विदेशी योगदान पर रोक लगा सकती है “इस खंड पर विपक्षी दलों ने कहा है कि यह सरकार को इस सन्दर्भ में असीमित शक्ति दे देगी।
नागरिक समाज
- कई नागरिक समाज के नेताओं और गैर सरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं यथा नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के कार्यकारी निदेशक ने प्रस्तावित एफसीआरए संशोधनों को “सिविल समाज घातक ” बताया है
- यह आशंका व्यक्त की गई कि जो संगठन सरकारी नीतियों का विरोध कर रहे हैं उन्हें सरकार का कोपभाजन बनना होगा। संशोधन विभिन्न गैर सरकारी संगठनों द्वारा किया जा रहा “सामुदायिक कार्य पर विनाशकारी प्रभाव” डालेगा ।
- मानवाधिकार संगठन पीपुल्स वॉच के संस्थापक और कार्यकारी निदेशक कहा कि इस खंड ने सरकार के “दोहरे मानकों” को उजागर किया है।
- एकतरफ “यदि राजनीतिक दलों को विदेशी दान की अनुमति है, अगर पीएम-केयर्स फण्ड विदेशी दान प्राप्त कर सकते हैं, तो सरकार कैसे कह सकती है कि एक सार्वजनिक सेवक विदेशी योगदान का उपयोग नहीं कर सकता है? यह सरकार के खिलाफ बोलने वाले लोगों को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है
सरकार का तर्क
- सरकार ने कहा है कि कई सस्थान विदेशी योगदान के माध्यम से काले धन की राउंड ट्रिपिंग कर मनी लॉन्ड्रिंग में सहायक होते थे। यह संशोधन उन गतिविधियों पर अंकुश लगाएगा।
- यह विदेश द्वारा निर्देशित होकर राष्ट्र की नीतियों में हस्तछेप करने की प्रवृत्ति में अंकुश लगाएगा।
- इससे विदेशी धन नियंत्रित होगा जिससे इन भ्रष्टाचार की गतिविधियां रुक सकें तथा जिन उदेश्यों को दिखाकर धन लिया जा रहा उन उदेश्यों की पूर्ती संभव हो सके।
निष्कर्ष :
- यह सत्य है कि कई संस्थान विदेशी धन प्राप्त कर सरकार पर दबाव समूह का कार्य कर रहे थे जिन्हे नियंत्रित करना आवश्यक है। किन्तु राजनैतिक दुश्मनी इसका आधार नहीं हो सकती। जनादेश प्राप्त सरकार की मंशा पर सभी को विश्वास रखना होगा। परन्तु सरकार को भी आवश्यक है कि वह बिभिन्न हितधारकों के पास विधयेक के प्रावधानों को भेजकर उचित संशोधन की मांग करे तथा इसे पब्लिक फोरम पर रखा जाए। जिससे लोकतंत्र के तत्वार्थ की प्राप्ति हो सके।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2: विषय – द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार, भारत एवं इसके पड़ोसी– सम्बंध, भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव; प्रवासी भारतीय, महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ और मंच–उनकी संरचना, अधिदेश)
विषय–गुटनिरपेक्षता का विकल्प
- हाल के दिनों में तमाम रणनीतिक समीकरणों और वैश्विक स्तर पर विभिन्न नए समूहों के बन जाने की वजह से गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता कम हो गई है। इसके साथ ही भारत की विदेश नीति में भी गुटनिरपेक्षता का महत्त्व अब कम होने लगा है।
पृष्ठभूमि:
- गुटनिरपेक्षता शीत युद्ध के दौरान एक नीति थी, जो विश्व के अनेक देशों द्वारा दो राजनैतिक–सैन्य पाखंडों (साम्यवादी सोवियत संघ और पूंजीवादी अमेरिका) के बीच एक छद्म मौन युद्ध के दौरान खुद की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिये अपनाई गई थी।
- गुट निरपेक्ष आंदोलन (NAM) ने इस स्वायत्तता की रक्षा के लिये नव–स्वतंत्र विकासशील देशों को एक मंच प्रदान किया।
- गुट निरपेक्ष आंदोलन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासर एवं युगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसेफ ब्रौज़ टीटो के साथ इंडोनेशिया के डॉ सुकर्णो एवं घाना के क्वामे एन्क्रूमाह द्वारा शुरू किया गया था। इसकी स्थापना अप्रैल 1961 में हुई थी। बेलग्रेड में 1961 ई. में ही इसका पहला सम्मेलन आयोजित हुआ था।
- इस समूह में 120 देश शामिल हैं। यह संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ के कुल सदस्यों की संख्या के लगभग 2/3 एवं विश्व की कुल जनसंख्या के 55% भाग का प्रतिनिधित्त्व करता है। खासकर इसमें तृतीय विश्व यानी विकासशील देश सदस्य हैं।
- हवाना घोषणा–1979 के अनुसार, इस संगठन का उद्देश्य गुट–निरपेक्ष राष्ट्रों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता, सार्वभौमिकता, क्षेत्रीय एकता एवं सुरक्षा को साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, जातिवाद, रंगभेद एवं विदेशी आक्रमण, सैन्य अधिकरण, हस्तक्षेप जैसे मुद्दों पर सहायता करते हुए इन मुद्दों के विरुद्ध अभियान चलाना है। इसके साथ ही किसी पावर ब्लॉक के पक्ष या विरोध में न होकर निष्पक्ष रहना है।
- शीत युद्ध की समाप्ति के बाद NAM देश पूर्व-पश्चिम विभाजन के दौर में अपने रिश्तों को और मज़बूत करने में सक्षम थे और विविधता ला सकते थे, लेकिन उसके बाद से धीरे-धीरे इस समूह का अस्तित्व अब खतरे में पड़ता नज़र आ रहा है।
वर्तमान में गुट निरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता:
- शीत युद्ध के दौरान नवीन स्वतंत्र देशों के हितों की रक्षा करने के लिये प्रकाश में आए इस आंदोलन की प्रासंगिकता पर सोवियत संघ के विघटन के पश्चात प्रश्नचिन्ह लगने लगा और वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों का इस समूह के प्रति आकर्षण समय के साथ कम होने लगा।
- सैद्धांतिक या कुछ विषयों या मुद्दों के हिसाब से देखा जाए तो यह आंदोलन अप्रासंगिक प्रतीत होता है लेकिन कुछ मुद्दों के साथ इसकी प्रासंगिकता अभी भी बनी हुई है-
- जलवायु परिवर्तन को लेकर देशों के मध्य विभिन्न विवाद को लेकर।
- गुटबाज़ी की वजह से कई क्षेत्रों में उत्पन्न संघ, जैसे- मध्य पूर्व, खाड़ी देश, अफगानिस्तान आदि।
- शरणार्थी समस्याओं को लेकर (रोहिंग्या, फिलिस्तीन, सीरिया आदि)।
- एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अक्सर शक्ति संतुलन की वजह से होने वाले किसी सम्भव टकराव की स्थिति।
- आतंकवाद के विषय को लेकर।
- नव साम्राज्यवाद को केंद्र में रखकर की जाने वाली राजनीतिक कूटनीति को लेकर।
- ऋण जाल (Debt Trap) की राजनीति को लेकर।
- साइबर हमलों, जैव रासायनिक हमलों, परमाणु ऊर्जा से जुड़े विषयों को लेकर और अंतरिक्ष से जुड़ी अंधाधुंध प्रतिस्पर्द्धा को लेकर।
वर्तमान संदर्भ में गुटनिरपेक्षता और भारत की विदेश नीति:
- विगत कुछ वर्षों से भारत के नीति निर्धारकों द्वारा भारत की विदेश नीति के सिद्धांत के रूप में गुटनिरपेक्षता को महत्त्व नहीं दिया जा रहा है।
- वैश्विक स्तर पर भारत को अभी तक गुटनिरपेक्षता का कोई सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत विकल्प नहीं मिला है।
- एक विकल्प के रूप में भारत द्वारा “रणनीतिक स्वायत्तता“ की धारणा ने वैश्विक रूप से ज़्यादा महत्त्व हासिल कर लिया है।
- किसी भी प्रकार के वैश्विक गुटवाद को सार्वभौमिक स्वीकार्यता अब नहीं मिल रही है, क्योंकि यह अवसरवाद की धारणा को व्यक्त कर सकता है।
- किसी विशेष विषय पर आधारित साझेदारी या गठबंधन अक्सर बहुत देर नहीं टिकता और समूह अक्सर बीच में हीं कहीं अपने उद्देश्य से भटक जाता है।
- “समृद्धि और प्रभाव को आगे बढ़ाना ” उन मुख्य आकांक्षाओं में से एक है जो भारत के लिये अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी के लिये मुख्य बिंदु हो सकती हैं।
भूगोल और राजनीति की भूमिका:
- भारत के भूगोल से जुड़े दो प्रमुख राजनैतिक बिंदु हैं- 1) भारत-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक और सुरक्षा हित। 2) महाद्वीपीय भू-भाग के उत्तर और पश्चिम में सामरिक महत्त्व।
- भारत-प्रशांत अवधारणा ने दक्षिण-पूर्व एशिया, पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में पूर्व की ओर केंद्रित द्विपक्षीय और बहुपक्षीय नीतियों को प्रेरित किया है।
- समुद्री क्षेत्र में चीन से चुनौती, वर्ष 2000 से ही भारत-अमेरिका की द्विपक्षीय साझेदारी का एक रणनीतिक आधार है, जिससे निपटने के लिये ये दोनों ही देश विभिन्न मुद्दों पर रणनीतिक रूप से एक-दूसरे के साथ रहे हैं।
अमेरिका–भारत साझेदारी से जुड़ी समस्याएँ:
- तात्कालिक अवधि में,यदि भारत के महाद्वीपीय पड़ोस में देखा जाए तो भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों का अभिसरण बहुत मुश्किल रहा है।
- अफगानिस्तान और मध्य एशिया के साथ सम्बंध और सहयोग, ईरान और रूस के साथ सहयोग तथा क्षेत्र में रूस–चीन के बीच जुड़ाव की वजह से भारत–अमेरिका रिश्ता बहुत मज़बूत नहीं बन पा रहा है।
- रूस-चीन की करीबी साझेदारी की वजह से भारत को अपने पड़ोस में रूस से रिश्तों के प्रति ज़्यादा सचेत रहना चाहिये और महाद्वीपीय स्तर पर रूस के साथ अपने सम्बंधों पर ध्यान देना चाहिये।
- यदि भारत रूस के सम्बंध मज़बूत होते हैं तो निश्चित रूप से रूस और चीन के बीच घनिष्टता कम होगी जो कि रणनीतिक रूप से भारत के लिये अच्छी बात होगी।
- अमेरिका और चीन के मध्य बढ़ते संघर्ष के बीच में रूस के साथ रणनीतिक रूप से भागीदार होना न सिर्फ महाद्वीपीय रूप से बल्कि वैश्विक स्तर पर भी भारत के लिये शक्ति संतुलन का काम करेगा।
- अमेरिका को भारत के साथ अपने सम्बंधों को एक संयुक्त उद्यम के रूप में देखना चाहिये, दृष्टिकोणों के अंतर की वजह से सम्बंध खराब करना अमेरिका के लिये घाटे का सौदा होगा।
निष्कर्ष
- भारत को गुटनिरपेक्षता का विकल्प ढूँढना चाहिये जो अमेरिका के साथ भारत के सम्बंधों को प्रभावित ना करे और भारत को “रणनीतिक स्वायत्तता” की अनुमति दे।
(प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय राज्यतंत्र और शासन संविधान, राजनीतिक प्रणाली, लोकनीति, अधिकारों से सम्बंधित मुद्दे; मुख्य परीक्षा: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–2: विषय– भारतीय संविधान– ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना, संसद और राज्य विधायिका– संरचना, कार्य, कार्य–संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय)
विषय–मराठा आरक्षण कोटा – आंदोलन व राजनीति
- उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में एक संविधान पीठ से पूछा है कि क्या राज्य,इंद्रा साहनी बनाम संघ (1992) के मामले में नौ-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा निर्धारित 50% कोटा की सीमा से अधिक आरक्षण दे सकते हैं या नहीं।
मराठा और उनका ‘पिछड़ापन‘:
- मराठा,महाराष्ट्र में राजनीतिक रूप से एक प्रमुख वर्ग है, जो महाराष्ट्र की आबादी का लगभग 32% हैं।
- उन्हें ऐतिहासिक रूप से एक बड़ी ‘योद्धा’ जाति के रूप में जाना जाता है। राज्य के 19 मुख्यमंत्रियों में से अब तक ग्यारह मराठा ही रहे हैं।
- जहाँ वर्षों से भूमि और कृषि सम्बंधी समस्याओं के विभाजन से मध्य और निम्न मध्यम वर्ग के मराठाओं की समृद्धि में गिरावट आई है, वहीं यह समुदाय अभी भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- जब तक कोटा की घोषणा नहीं हुई थी, तब तक इस समुदाय में वृहत असंतोष, विरोध और अशांति फैली थी।
- विरोध के दूसरे चरण में प्रदेश में आत्महत्याओं का दौर देखा गया। पिछड़े मराठवाड़ा क्षेत्र विरोध प्रदर्शनों से सबसे ज़्यादा प्रभावित थे।
मामला :
- हाल ही में, उच्चतम न्यायालय की एक खंडपीठ ने महाराष्ट्र में शिक्षा और नौकरियों में मराठों के लिये आरक्षण को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुना।
- याचिकाओं ने 2019 के बॉम्बे उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की, जिसमें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग (SEBC) अधिनियम, 2018 के तहत मराठा कोटा की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया।
- खंडपीठ ने राज्य में कोटा के तहत स्नातकोत्तर चिकित्सा और दंत चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश को चुनौती देने वाली याचिका पर भी सुनवाई की।
मुम्बई उच्च न्यायालय का पूर्व फैसला:
- मुम्बई उच्च न्यायालय ने पिछले साल फैसला सुनाया था कि राज्य द्वारा प्रदान किया गया 16% कोटा “न्यायसंगत” नहीं था और इसे घटाकर शिक्षा में 12% और सरकारी नौकरियों में 13% कर दिया, जैसा कि महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (MSBCC) द्वारा अनुशंसित है।
- बेंच ने फैसला सुनाया कि आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये।
- हालाँकि, असाधारण परिस्थितियों में प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता और प्रशासन में दक्षता को प्रभावित किये बिना इस सीमा को बढ़ाया जा सकता है, यदि पिछड़ेपन को दर्शाने वाले मात्रात्मक और समकालीन आँकड़े उपलब्ध हैं।
- उल्लेखनीय है कि न्यायालय ने नवम्बर 2018 में 11 सदस्यीय MSBCC द्वारा प्रस्तुत निष्कर्षों पर अपना विश्वास दिखाया, जिसमें यह बताया गया था कि मराठा समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पीछे है।
मौजूदा आरक्षण:
- वर्ष 2001 के राज्य आरक्षण अधिनियम के बाद, महाराष्ट्र में कुल आरक्षण 52% था: एस.सी. (13%), एस.टी. (7%), ओ.बी.सी. (19%), विशेष पिछड़ा वर्ग (2%), विमुक्त जाति (3%), घुमंतू जनजाति B (2.5%), घुमंतू जनजाति C (3.5%) और खानाबदोश जनजाति D (2%)।
- खानाबदोश जनजातियों और विशेष पिछड़े वर्गों के लिये कोटा कुल ओ.बी.सी. कोटा से बाहर रखा गया है।
- 12-13% मराठा कोटा के साथ राज्य में कुल आरक्षण 64-65% हो गया।
- पिछले साल केंद्र द्वारा घोषित आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (Economically Weaker Sections-EWS) के लिये 10% कोटा भी राज्य में प्रभावी है।
संवैधानिक प्रावधान:
- भारतीय संविधान काअनुच्छेद 15 सभी नागरिकों के लिये समानता के अधिकार की बात करता है। अनुच्छेद 15(1) के अनुसार, राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। अनुच्छेद 15(4) और 15(5) में सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये विशेष उपबंध की व्यवस्था की गई है।
- संविधान केअनुच्छेद 16 में सरकारी नौकरियों और सेवाओं में समान अवसर प्रदान करने की बात की गई है। लेकिन अनुच्छेद 16(4), 16(4)(क), 16(4)(ख) तथा अनुच्छेद 16(5) में राज्य को विशेष अधिकार दिया गया है कि वह पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों को सरकारी नौकरियों में आवश्यकतानुसार आरक्षण दे सकता है।
- वर्ष 1992 के इंद्रा साहनी मामले में,उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि कुल दिये गए आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये।
- वर्ष 2019 में, 103वें संविधान संशोधन अधिनियमद्वारा आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (EWS)के लिये सरकारी नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया।
रिट अधिकार क्षेत्र (Writ Jurisdiction):
- संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय मूल अधिकारों की रक्षा करने तथा इनके प्रवर्तन हेतु, बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण लेख (Certiorari), अधिकार पृच्छा (Quo Warranto) जैसी रिट जारी कर सकते हैं।
- अनुच्छेद 32 के तहत संसद इन रिट्स (Writs) को जारी करने के लिये किसी अन्य न्यायालय को भी प्राधिकृत कर सकती है। यद्यपि अभी तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
- ध्यातव्य है कि उच्चतम न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये ही रिट जारी कर सकता है, जबकि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों तथा साधारण कानूनी अधिकार दोनों के लिये रिट जारी कर सकता है।
इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत संघ, 1992:
- उपरोक्त वाद में निर्णय सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने पिछड़े वर्गों के लिये 27% का कोटा बरकरार रखा था। इसके अलावा, उच्च जातियों के बीच आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण की सरकारी अधिसूचना को रद्द कर दिया था।
- इसी वाद में उच्चतम न्यायालय ने इस सिद्धांत को भी सही ठहराया कि संयुक्त आरक्षण के बाद लाभार्थियों की संख्या कुल संख्या के 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये।
- ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा भी इस निर्णय के माध्यम से लोगों के समक्ष आई तथा न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण केवल प्रारंभिक नियुक्तियों तक ही सीमित होना चाहिये और पदोन्नति में इसका लाभ नहीं मिलना चाहिये।
- ध्यातव्य है कि संसद द्वारा वर्ष 2019 में 103वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा अनारक्षित वर्ग में “आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के” व्यक्तियों के लिये सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10% आरक्षण की व्यवस्था की गई थी।
- अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन किये गए तथा आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण प्रदान करने के लिये सरकार द्वारा आवश्यक खंड जोड़े गए।
- ध्यातव्य है कि यह 10% आर्थिक आरक्षण 50% की आरक्षण सीमा के ऊपर है।
स्थानीय लोगों के लिये कोटा प्रणाली पर उच्चतम न्यायालय का फैसला:
- उच्चतम न्यायालय, पूर्व में जन्म स्थान या निवास स्थान के आधार पर आरक्षण के खिलाफ फैसला सुना चुका है।
- वर्ष 1984 में, डॉ. प्रदीप जैन बनाम भारत संघ में, “सन ऑफ़ द सॉयल (Sons of the Soil)” से जुड़े मुद्दे पर चर्चा की गई थी।
- अदालत ने इस मुद्दे पर अपनी राय व्यक्त की थी कि इस तरह की नीतियाँ असंवैधानिक होंगी, लेकिन इस पर स्पष्ट रूप से कोई निर्णय नहीं दिया था, क्योंकि यह मुद्दा समानता के अधिकार के विभिन्न पहलुओं से जुड़ा हुआ था।
- वर्ष 1955 के डी.पी. जोशी बनाम मध्य भारत मामले में उच्चतम न्यायालय ने अधिवास या निवास स्थान तथा जन्म स्थान के बीच अंतर बताते हुए स्पष्ट किया था कि व्यक्ति का निवास स्थान बदलता रहता है लेकिन उसका जन्म स्थान निश्चित होता है। अधिवास का दर्जा जन्म स्थान के आधार पर दिया जाता है।
- सुनंदा रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश (1995) में बाद के एक फैसले में उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1984 में राज्य सरकार की एक नीति, जिसमें उम्मीदवारों को 5% अतिरिक्त भारांक दिया गया था, को रद्द करने के लिये निर्णय दिया था।
- वर्ष 2002 में, उच्चतम न्यायालय ने राजस्थान में सरकारी शिक्षकों की नियुक्ति को अमान्य करार दिया था, जिसमें राज्य चयन बोर्ड द्वारा “सम्बंधित ज़िले या ज़िले के ग्रामीण क्षेत्रों के आवेदकों” को वरीयता दी गई थी।
- वर्ष 2019 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा एक भर्ती अधिसूचना पर भी टिप्पणी करते हुए उसे अमान्य बताया, जिसमें उत्तर प्रदेश की मूल निवासी महिलाओं के लिये प्राथमिकता निर्धारित की गई थी।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2: विषय– द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार, भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव; प्रवासी भारतीय, महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ और मंच– उनकी संरचना, अधिदेश)
विषय–G-20 समूह के विदेश मंत्रियों की बैठक
- हाल ही में, सऊदी अरब ने कोविड–19 महामारी के दौरान सीमापार आर्थिक गति विधियों की तरफ ध्यान आकर्षित करने एवं अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के लियेG-20 समूह के विदेश मंत्रियों की बैठक की मेज़बानी की।
- वर्तमान में सऊदी अरब G-20 समूह की अध्यक्षता कर रहा है। यह G-20 की अध्यक्षता करने वाला पहला अरब राष्ट्र है।
प्रमुख बिंदु:
- बैठक:
- सभी विदेश मंत्रियों ने सीमाएँ खोलने के महत्त्व को स्वीकार किया और कोविड–19 महामारी के लिये सुरक्षात्मक उपायों के साथ ही अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने के लिये सम्भावित उपायों पर बात की।
- ध्यातव्य है कि, विभिन्न देशों द्वारा कोविड-19 के प्रसार से उत्पन्न जोखिम को कम करने के लिये स्वास्थ्य व सुरक्षा से जुड़े कई प्रोटोकॉल एहतियातन अपनाए गए थे, जैसे आयात-निर्यात व शिक्षा आदि के लिये सीमाओं को बंद करना आदि।
- हालाँकि, इनमें से कई प्रोटोकॉल अब विश्व में व्यापार और व्यवसायों को सुगमतापूर्वक चलाने में बहुत बड़ी बाधा बन कर उभर रहे हैं, जिसके परिणा मस्वरूप अनेक देशों में लोगों के लिये विभिन्न स्तरों परजीवन और आजीविका का संकट पैदा हो गया है।
- भारत ने वंदे भारत मिशन सहित भारत द्वारा उठाए गए विभिन्न कदमों के बारे में G-20 देशों केविदेश मंत्रियों को अवगत कराया और भारत में फँसे विदेशी नागरिकों के देखभाल और संरक्षण के लिये किये गए विशेष उपायों के साथ-साथ विदेशों में फँसे अपने स्वयं के नागरिकों के लिये उठाए गए सुरक्षात्मक क़दमों के बारे में भी बताया।
- जी –20 द्वारा हाल ही में की गई पहल:
- इससे पहले, जुलाई,2020 में G-20 समूह के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों (FMCBG) की तीसरी बैठक में महामारी से निपटने के लिये विशेष कार्य योजना पर विस्तार से चर्चा भी की गई थी।
- इस कार्य योजना में स्वास्थ्य क्षेत्र, आर्थिक क्षेत्र, सतत विकास और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय समन्वय से जुड़े विभिन्न स्तंभों और उनसे जुड़ी सभी देशों की प्रतिबद्धता और अन्य सभी अनुलग्नक विषयों को शामिल किया गया था।
- G-20 द्वारा कोविड-19 से निपटने के लिये सभी सदस्य देशों द्वारा की गई डिजिटल कोशिशों पर बात करने के लिये वित्त मंत्रियों की एक डिजिटल आभासी बैठक का आयोजन भी किया गया था।
- भारत का प्रस्ताव: बैठक में भारत ने स्वैच्छिक‘G-20 सिद्धांत‘ के विकास से जुड़े तीन बिंदुओंवाले ‘क्रॉस–बॉर्डर मूवमेंट ऑफ़ पीपुल‘ को प्रस्तावित किया:
- परीक्षण प्रक्रियाओं का मानकीकरण (Standardisation of testing procedures) और परीक्षण परिणामों की सार्वभौमिक स्वीकार्यता।
- संगरोध प्रक्रियाओं (Quarantine procedures) का मानकीकरण।
- ‘गतिविधि और पारगमन’ प्रोटोकॉल (movement and transit’ protocols) का मानकीकरण।
- दुनिया भर की सरकारों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि विदेशी छात्रों के हितों की रक्षा की जाए और महामारी की वजह से फँसे हुए नाविकों को उनके देश वापस भेजा जाए।
- महामारी के कारण दुनिया भर के शिक्षण संस्थान महीनों से बंद हैं। सीमाओं के पुनः बंद हो जाने की वजह से विदेशी छात्र जो अपने देश में वापस आ गए थे, उनको सम्बंधित संस्थानों से पुनः जोड़ना मुश्किल हो रहा है।
G-20 समूह:
- G20 19 देशों और यूरोपीय संघ का एक अनौपचारिक समूह है, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के प्रतिनिधि भी शामिल हैं।
- G-20, दुनिया की सबसे बड़ी, उन्नत और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का मिश्रण है , जो दुनिया की आबादी का लगभग दो–तिहाई, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 85%, वैश्विक निवेश का 80% और वैश्विक व्यापार का 75% से अधिक का प्रतिनिधित्त्व करते हैं।
- 19 सदस्य देश अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मैक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका हैं।
- यूरोपीय संघ का प्रतिनिधित्व, यूरोपीय आयोग और यूरोपीय केंद्रीय बैंक द्वारा किया जाता है।
- इसका गठन वर्ष1999 में हुआ था । यह विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से शीर्ष 20 देशों की सरकारों और उनके केन्द्रीय बैंकों के गवर्नरों के लिये एक सामूहिक मंच के तौर पर काम करता है।
- जी 20 देशों की सरकारों के प्रमुख समय-समय पर दुनिया पर असर डालने वाली वैश्विक समस्याओं या ज्वलंत मुद्दों पर बात करने एवं उनसे निपटने के लिये शिखर सम्मेलन में भाग लेते हैं।
- इसके अलावा, G-20 समूह वित्त मंत्रियों और विदेश मंत्रियों की अलग-अलग बैठकों की मेज़बानी भी करता है।
- उल्लेखनीय है कि इस समूह का कोई स्थाई सचिवालय या मुख्यालय नहीं है।
अभिप्राय और उद्देश्य
- G-20 समूह का गठन अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्थिरता को बढ़ावा देने और इससे सम्बंधित नीतिगत मुद्दों की उच्च स्तरीय चर्चा के साथ इसके अध्ययन, समीक्षा और प्रचार के लिये किया गया था।
- मंच का उद्देश्य मौद्रिक, राजकोषीय और वित्तीय नीतियों के बेहतर समन्वय द्वारा वित्तीय बाज़ारों की भुगतान समस्याओं संतुलित करना है।
G20 शेरपा:
- शेरपा, राष्ट्र या सरकार के प्रमुखों के व्यक्तिगत प्रतिनिधि होते हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलनों, विशेष रूप से वार्षिक G-7 और G-20 की तैयारियों को सम्पन्न कराते हैं।
- शिखर सम्मेलनों के बीच, कई शेरपा सम्मेलन होते हैं जहाँ सम्भावित समझौतों को अंतिम स्वरुप प्रदान किया जाता है।
- इन शेरपा सम्मेलनों की वजह से शिखर सम्मेलनों में अंतिम दौर की वार्ताओं में राष्ट्र के प्रमुखों के बीच होने वाले प्रस्तावित समझौतों के दौरान अनावश्यक समय बर्बाद नहीं होता।
- यद्यपि शेरपाओं के पास किसी भी समझौते के बारे में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता है।
- यह नाम नेपाली जातीय समूह के शेरपा लोगों से लिया गया, जो हिमालय में गाइड और पॉर्टर के रूप में काम करते हैं। शेरपा नाम देने का संदर्भ यह है कि ये प्रमुख शिखर सम्मेलनों में राज्य प्रमुखों के लिए रास्ता सुगम बनाते हैं।
आगे की राह:
- वैश्विक स्तर परCOVID-19 महामारी से संक्रमित लोगों के आँकड़े करोड़ों में पहुँच गए हैं जो कि अत्यधिक चिंता कि बात है जिस पर विश्व स्तर के नेताओं कि निगाह लगातार बनी हुई है।
- G-20 वैश्विक स्तर पर अत्यधिक प्रभावशाली संगठन है, जिसके सभी नेताओं को मिलकरकोविड–19 महामारी की वजह से विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं को हुए बड़े आर्थिक नुकसान और जी.डी.पी. में हुई गिरावट पर विशेष ध्यान देना चाहिये।
- ध्यातव्य है कि हाल ही में भारतीय जी.डी.पी. के तिमाही आँकड़ों में अब तक का सबसे बड़ा संकुचन देखा गया था, जो न सिर्फ भारत बल्कि सभी विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के तिमाही/वार्षिक आँकड़ों में भी देखा गया था और यह सभी देशों के लिये विशेष रूप से ध्यान देने वाली बात है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारतीय संवैधानिक योजना की अन्य देशों के साथ तुलना)
विषय–अमेरिका का हैच एक्ट
पृष्ठभूमि
- हाल ही में अगले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के लियेरिपब्लिकन पार्टी का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें डोनाल्ड ट्रम्प की दावेदारी पुनः सुनिश्चित हो गई।
- हालाँकि, ट्रम्प द्वाराआधिकारिक आवास व्हाइट हाउस में कैबिनेट के सहयोगियों की उपस्थिति में नामांकन को स्वीकार करने के कारण विवाद पैदा हो गया।
- इसको राजनीतिक गतिविधियों में सरकारी हस्तक्षेप को रोकने के लियेनैतिक मानदंडों की अवहेलना माना जा रहा है। विशेषज्ञ इसको हैच एक्ट का उल्लंघन मान रहे हैं, जो दलगत गतिविधियों में सरकारी हस्तक्षेप को सीमित करता है।
हैच एक्ट
- संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना के समय से ही थॉमस जेफरसन जैसे नेताओं ने सरकारी कर्मचारियों द्वारा आधिकारिक कार्यों के दौरान राजनीतिक गतिविधियों पर चिंता व्यक्त की थी।
- इस मुद्दे के समाधान हेतु अंततः वर्ष 1939 में महामंदी के दौरान एक संघीय कानून अधिनियमित किया गया। इस कानून का नाम न्यू मैक्सिको राज्य के सीनेटर कार्ल हैच के नाम पर रखा गया।
- इस कानून को ‘विशेष परामर्श कार्यालय’ (ओ.एस.सी.) द्वारा लागू किया जाता है, जो एक स्वतंत्र संघीय एजेंसी है। यह एजेंसी संघीय कर्मचारियों पर लागू होने वाले अन्य विभिन्न कानूनों की भी निगरानी करती है और कथित उल्लंघन की स्थिति में यहाँ शिकायतें दर्ज की जा सकती हैं।
हैच एक्ट का उद्देश्य
- इस अधिनियम का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संघीय कार्यों को एक निष्पक्ष तरीके से प्रशासित किया जाए। साथ ही कार्यस्थल पर संघीय कर्मचारियों को राजनीतिक दबाव से बचाना और उनकी प्रोन्नति को राजनीतिक हस्तक्षेप की बजाय योग्यता के आधार पर सुनिश्चित करना भी इस कानून का लक्ष्य है।
- इसके अतिरिक्त यह अधिनियम आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट के द्वारा राजनीतिक बयान, पोस्ट, नारों या प्रचार जैसी गतिविधियों पर भी रोक लगाता है।
दण्ड का प्रावधान
- हैच अधिनियम को कार्यस्थल के लिये एक दिशा–निर्देश के रूप में माना जाता है। हालाँकि, इसके प्रावधानों का उल्लंघन अपराध की श्रेणी में नहीं आता है परंतु उल्लंघन की दशा में गम्भीर दंड दिया जा सकता है। इन दण्डों में सरकारी कर्मचारियों को सेवा से मुक्त करना, जुर्माना लगाना या पदावनति करने का आदेश दिया जा सकता है। साथ ही राजनीतिक नियुक्तियों में आमतौर पर कम गम्भीर सज़ाओं का प्रावधान है।
- अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने हैच अधिनियम को संवैधानिक रूप से वैध माना है और यह सरकारी कर्मचारियों के बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाता है।
उल्लंघन का आरोप
- यह अधिनियम अमेरिका के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पर लागू नहीं होता है परंतु संघीय सरकार की कार्यकारी शाखा के अन्य सभी नागरिक कर्मचारियों पर लागू होता है।
- आलोचकों ने ट्रम्प पर हैच अधिनियम के उद्देश्यों की अवहेलना का आरोप लगाते हुए कथित उल्लंघनकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई की माँग की है।
निर्णय
- पिछले वर्ष ट्रम्प ने अपने शीर्ष सहयोगियों में से एक को दंडित करने से खुले तौर पर इनकार कर दिया था, जबकि ओ.एस.सी. ने उनको हैच अधिनियम के बार-बार उल्लंघन का दोषी पाया था।
- कैरियर कर्मचारियों से जुड़े मामलों का निर्णय मेरिट सिस्टम प्रोटेक्शन बोर्ड नामक एक संघीय एजेंसी द्वारा किया जाता है, जबकि राजनीतिक नियुक्तियों को समाप्त करने का निर्णय राष्ट्रपति द्वारा लिया जाता है।
भारत में ऐसे नियमन की आवश्यकता
- भारत में भी आधिकारिक और राजनीतिक गतिविधियों को पृथक करने के लिये एक कानून की आवश्यकता है। राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिये सरकारी मशीनरी के प्रयोग पर रोक लगाई जानी चाहिये।
- व्यक्तिगत राजनीतिक कार्यों और सरकारी कार्यों को अलग करते हुए व्यक्तिगत प्रबंधन के लिये सरकारी खर्च का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये। भारत में ऐसे अधिनियम की कानूनी बाध्यता होने के साथ–साथ एक स्वतंत्र न्यायालय या आयोग द्वारा दण्ड और उसका क्रियान्वयन किया जाना चाहिये।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 व 4 : संस्थागत एवं अन्य पक्षों की भूमिका, मानव संसाधनों से सम्बंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से सम्बंधित विषय, शासन व्यवस्था, लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका, सिविल सेवा के लिये अभिरुचि तथा बुनियादी मूल्य, सार्वजनिक सेवा के प्रति समर्पण भाव)
विषय–मिशन कर्मयोगी और सिविल सेवकों की कार्यप्रणाली में सुधार का प्रयास
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में नौकरशाही में एक सुधार के रूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सिविल सेवा अधिकारियों के कौशल और प्रशिक्षण के तरीकों में बड़े बदलावों के लिये ‘मिशन कर्मयोगी’ अभियान को शुरु करने का निर्णय लिया है।
मुख्य बिंदु
- ‘सिविल सेवा क्षमता निर्माण के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम’ (NPCSCB) को मिशन कर्मयोगी के रूप में जाना जाएगा। यह सिविल सेवा क्षमता विकास के लिये एक नई राष्ट्रीय अवसंरचना है।
- इस कार्यक्रम को ‘एकीकृत सरकारी ऑनलाइन प्रशिक्षण (iGOT)- आईगॉट कर्मयोगी प्लेटफ़ॉर्म के द्वारा कार्यान्वित किया जाएगा।
- इसके अंतर्गत संस्थागत ढाँचे के रूप में चार नए निकायों का गठन किया जाएगा। ये नई संस्थाएँ/निकाय इस प्रकार हैं :
- सार्वजनिक मानव संसाधन परिषद–प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में चुने हुए केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रख्यात मानव संसाधन पेशेवर, विचारक, वैश्विक विचारक और लोक सेवा प्रतिनिधि इसमें शामिल होंगे। यह परिषद एक शीर्ष निकाय के तौर पर कार्य करेगी जो सिविल सेवा–सुधार कार्य और क्षमता विकास को कार्यनीतिक दिशा प्रदान करेगी।
- क्षमता विकास आयोग– प्रशिक्षण मानकों में सामंजस्य बनाना, साझा संकाय और संसाधन बनाना तथा सभी केंद्रीय प्रशिक्षण संस्थानों के लियेपर्यवेक्षी की भूमिका निभाना।
- विशेष प्रयोजन कम्पनी (SPV)- डिजिटल परिसम्पत्तियों के स्वामित्त्व तथा प्रचालन और ऑनलाइन प्रशिक्षण के लिये एक प्रौद्योगिकीय प्लेटफ़ॉर्म हेतु विशेष प्रयोजन कम्पनी (एस.पी.वी.) की स्थापना की जाएगी।
- कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 8 के अधीन एस.पी.वी. एक ‘गैर–लाभ अर्जक’कम्पनी होगी,जिसके पास आईगॉट- कर्मयोगी प्लेटफॉर्म का स्वामित्त्व व प्रबंधन का जिम्मा होगा।
- एस.पी.वी. विषय-वस्तु का निर्माण और संचालन करेगी और यह विषय-वस्तु वैधीकरण, स्वतंत्र निरीक्षण आकलन एवं टेलीमिट्री डेटा उपलब्धता से सम्बंधितआईगॉट–कर्मयोगीप्लेटफॉर्म की प्रमुख व्यावसायिक सेवाओं का प्रबंधन करेगी।
- एस.पी.वी. ही भारत सरकार की ओर से सभी बौद्धिक सम्पदा अधिकारों का स्वामित्त्व रखेगी।
- मंत्रिमंडलीय सचिव की अध्यक्षता में एक ‘समन्वय इकाई’
- इस मिशन के तहत प्रशिक्षण कार्यक्रम सभी प्रकार की सेवाओं में सहायक अनुभाग अधिकारी से लेकर सचिव स्तर तक के सिविल सेवकों के लिये उपलब्ध होगा।
- सरकार और प्रशासन में मानव संसाधन प्रबंधन प्रथाओं में मौलिक सुधार और सिविल सेवकों की क्षमता सम्वर्धन के लिये स्टेट ऑफ़ आर्ट (अत्याधुनिक) अवसंरचना का उपयोग किया जाएगा। यह समग्र योजना व्यक्तिगत और संस्थागत क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित करेगा।
मुख्य विशेषताएँ
- एन.पी.सी.एस.सी.बी. को सिविल सेवकों के लिये क्षमता विकास कीआधारशिला रखने हेतु बनाया गया है ताकि वे विश्व की श्रेष्ठ पद्धतियों से सीखते हुए भारतीय संस्कृति व संवेदनाओं से जुड़े रहें।
- इस कार्यक्रम केमुख्य मार्गदर्शक सिद्धांत निम्नासनुसार होंगे:
- ‘नियम आधारित’(Rule-Based) मानव संसाधन प्रबंधन से‘भूमिका आधारित’ (Role-Based) प्रबंधन के परिवर्तन हेतु सहयोग प्रदान करना। सिविल सेवकों को उनके पद की आवश्यकताओं के अनुसार आवंटित कार्य को उनकी क्षमताओं के साथ जोड़ना।
2. ‘ऑफ-साइट सीखने की पद्धति’ को बेहतर बनाते हुए ‘ऑन-साइट सीखने की पद्धति’ पर ज़ोर देना।
3. शिक्षण सामग्री, संस्थानों तथा कार्मिकों सहित साझा प्रशिक्षण अवसंरचना परितंत्र का निर्माण करना।
4. सिविल सेवा से सम्बंधित सभी पदों को भूमिकाओं, गतिविधियों तथा दक्षता के ढाँचे सम्बंधी दृष्टिकोण (FRACs) के साथ अद्यतन करना।
5. सभी सिविल सेवकों को अपनी व्यवहारात्मक, कार्यात्मक और कार्यक्षेत्र से सम्बंधित दक्षताओं को निरंतर विकसित एवं सुदृढ़ करने का अवसर उपलब्ध कराना।
6. सार्वजनिक प्रशिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों, स्टार्ट-अप और एकल विशेषज्ञों सहित सीखने की प्रक्रिया सम्बंधी सर्वोत्तम विषय-वस्तु् के निर्माताओं को प्रोत्साहित करना और उनके साथ साझेदारी करना।
7. क्षमता विकास, विषय-वस्तु निर्माण, उपयोगकर्ता फीडबैक और दक्षताओं की मैपिंग एवं नीतिगत सुधारों के लिये क्षेत्रों की पहचान के सम्बंध में आईगॉट-कर्मयोगी द्वारा प्रदान किये गए आँकड़ों का विश्लेषण करना।
क्षमता विकास आयोग का उद्देश्य
- इस मिशन के तहत एक क्षमता विकास आयोग स्थापित करने का भी प्रस्ताव है, ताकि सहयोगात्मक और सह-साझाकरण के आधार पर क्षमता विकास परिवेश या व्यवस्था के प्रबंधन और नियमन में एकसमान दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जा सके।
आयोग की भूमिका निम्नानुसार होगी–
- वार्षिक क्षमता विकास योजनाओं काअनुमोदन करने में मानव संसाधन परिषद की सहायता करना।
- सिविल सेवा क्षमता विकास से जुड़े सभी केंद्रीय प्रशिक्षण संस्थानों का कार्यात्मक पर्यवेक्षण करना।
- आंतरिक एवं बाह्य संकाय और संसाधन केंद्रों सहित साझा शिक्षण संसाधनों को सृजित करना।
- हितधारक विभागों के साथ क्षमता विकास योजनाओं के कार्यान्वयन के लिये समन्वय और पर्यवेक्षण करना।
- प्रशिक्षण एवं क्षमता विकास, शिक्षण शास्त्र और पद्धति के मानकीकरण पर सिफारिशें पेश करना।
- सभी सिविल सेवाओं में करियर के मध्य में सामान्य प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिये मानदंड निर्धारित करना।
- सरकार को मानव संसाधन के प्रबंधन और क्षमता विकास के क्षेत्रों में आवश्यक नीतिगत उपाय सुझाना।
मिशन कर्मयोगी का उद्देश्य व महत्त्व
- मिशन कर्मयोगी का उद्देश्य पारदर्शिता और प्रौद्योगिकी के माध्यम से सिविल सेवकों को एक आदर्श कर्मयोगी के रूप में राष्ट्र की सेवा करने के लिये भविष्य में उन्हें रचनात्मक, सर्जनात्मक, नवीन, सक्रिय और तकनीकी रूप से सशक्त बनाना है।
- उन्नयन और सुधार– मिशन कर्मयोगी का घोषित उद्देश्य लगातार क्षमता निर्माण, टैलेंट पूल को अद्यतन करने और सभी स्तरों पर सरकारी अधिकारियों के व्यक्तिगत और व्यावसायिक विकास और सम्मान के लिये समान अवसर प्रदान करने हेतु एक तंत्र प्रदान करना है।
- दक्षतापूर्ण सार्वजनिक सेवा प्रदान करने के लिये व्यक्तिगत, संस्थागत और प्रक्रिया के स्तरों पर क्षमता विकास व्यवस्था में व्यापक सुधार करना।
- यह अधिकारियों द्वारा बंद कमरों (Silos) में कार्य निष्पादन की संस्कृति को समाप्त करेगा और नई कार्य संस्कृति को जन्म देगा। साथ ही देश भर में फैले संस्थानों के कारण प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की बहुलता और अंतर को दूर करने का भी एक प्रयास है।
वित्तीय व्यय
- लगभग 46 लाख केंद्रीय कर्मचारियों को कवर करने के लिये वर्ष 2020-2021 से लेकर 2024-25 तक 5 वर्षों की अवधि के दौरान 510.86 करोड़ रुपये की धनराशि व्यय कीजाएगी।
- विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक सहित बहुपक्षीय एजेंसियों से $ 50 मिलियन की प्रारम्भिक निधि प्राप्त होगी।
- सभी सरकारी विभाग उनके लिये काम करने वाले प्रत्येक सिविल सेवक के लिये एस.पी.वी. की सदस्यता शुल्क के रूप में 431 रुपये वार्षिक का योगदान करेंगे।
निष्कर्ष
- सिविल सेवाओं की क्षमता दरअसल सेवाओं की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदान करने, कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने और गवर्नेंस से जुड़े मुख्य कार्यों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कार्य संस्कृति में रूपांतरण को व्यवस्थित रूप से जोड़कर, सार्वजनिक संस्थानों का सुदृढ़ीकरण कर और सिविल सेवा क्षमता के निर्माण के लिये आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाकर सिविल सेवा क्षमता में रूपांतरणकारी बदलाव किये जाने का प्रस्ताव है, ताकि नागरिकों को प्रभावकारी रूप से सेवाएँ मुहैया कराना सुनिश्चित किया जा सके।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र –2: विषय– केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य–निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय।)
विषय–विकलांग/दिव्यांग व्यक्तियों के लिये सामाजिक न्याय पर संयुक्त राष्ट्र के दिशानिर्देश
- संयुक्त राष्ट्र संघ ने हाल ही में पहली बार विकलांग/दिव्यांग व्यक्तियों के लिये सामाजिक न्याय तक पहुँच को सुनिश्चित किये जाने के बारे में दिशा-निर्देश जारी किये हैं, जिससे उन्हें दुनिया भर में न्याय प्रणालियों तक बिना किसी अवरोध के पहुँचने में आसानी हो सके।
विकलांगता– एक समग्र अवलोकन:
- सर्वप्रथम संयुक्त राष्ट्र के द्वारा1980 का दशक अशक्तजनों का दशक घोषित किया गया था। वर्ष 1987 में एक वैश्विक बैठक में इसके प्रगति की समीक्षा की गई और यह अनुशंसा की गई कि संयुक्त राष्ट्र महासभा को अशक्तजनों के विरुद्ध भेदभाव के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय तैयार करना चाहिये।
- ड्राफ्ट अभिसमय की रूपरेखा इटली द्वारा प्रस्तावित की गई एवं उसके पश्चात् स्वीडन ने ऐसा कियालेकिन किसी प्रकार की सहमति पर किसी भी देश या संस्थान द्वारा नहीं पहुँचा जा सका।
- कई सरकारी प्रतिनिधियों ने तर्क दिया कि मौजूदा मानवाधिकार दस्तावेज़ पर्याप्त थे। इसके बावजूद, वर्ष 1998 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने गैर–अपरिहार्य स्टैण्डर्ड रूल्स ऑन द इक्वलाइज़ेशन ऑफ अपार्च्युनिटीज़ फॉर पर्सन्स विद डिसेबिलिटीज़ (The Standard Rules on the Equalization of Opportunities for Persons with Disabilities) को अपनाया।
- वर्ष 2000 में पांच अंतर्राष्ट्रीय गैर–सरकारी संगठनों के नेताओं ने अभिसमय का सभी सरकारों द्वारा समर्थन करने का आह्वान करने के लिये बीजिंग घोषणा जारी की।
- संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अभिसमय पर बातचीत करने के लिये वर्ष 2001 में एक तदर्थ समिति की स्थापना की। पहली बैठक अगस्त 2002 में आयोजित की गई और मसौदा बनाने का कार्य मई 2004 में शुरू किया गया। तदर्थ समिति के प्रतिनिधि मण्डल में एन.जी.ओ,सरकारें, राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थान और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का प्रतिनिधित्व होता है।
- यह पहला समय था कि जब विभिन्न एन.जी.ओ. ने मानवाधिकार यंत्र के निर्माण में सक्रिय भागीदारी निभाई।
- 21 वीं सदी में मानव अधिकारों के पहले प्रमुख साधन के रूप में अंततः विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UN Convention on the Rights of Persons with Disabilities-UNCRPD) को अपनाया गया था।संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इसके मसौदे को 13 दिसम्बर, 2006 को स्वीकार किया गया और 30 मार्च, 2007 को हस्ताक्षर के लिये रखा गया। 20 पक्षों द्वारा इसकी पुष्टि के बाद 3 मई, 2008 को यह अभिसमय प्रवृत हो गया। वर्तमान में इसके 163 हस्ताक्षरकर्ता देश हैं एवं 181 देशों ने इसकी पुष्टि की है।
- अशक्त जनों के अधिकारों का सम्वर्धन–संरक्षण,उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार, आवास एवं पुनर्वास, राजनीतिक जीवन में सहभागिता और समानता तथा भेदभाव रहित व्यवहार जैसे कई महत्त्वपूर्ण बिंदु इस अभिसमय में शामिल हैं।
- अभिसमय के अनुच्छेद 4-32 अशक्तजनों के अधिकारों को परिभाषित करते हैं और उनके प्रति राज्यों/देशों के दायित्त्व की बात करते हैं। इनमें से अधिकतर अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र के अन्य अभिसमयों में पुष्टि हुई है। गौरतलब है कि अभिसमय में कुल 50 अनुच्छेद हैं।
- अभिसमय उन व्यक्तियों को विकलांग व्यक्तियों के तौर पर परिभाषित करता है जो “दीर्घावधि, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी विकारों” से ग्रस्त हैं। अभिसमय के अनुसार, विकलांग व्यक्तियों के विकारों और समाज के रूख़ के कारण अक्सर अन्य सामान्य व्यक्तियों की तरह समाज में शामिल होने या भागीदारी करने से रोका जाता है या उन्हें कमतर आँका जाता है।
- अभिसमय के सिद्धांत विकलांग व्यक्तियों को मानव समाज के अभिन्न अंश के रूप में स्वीकार करने पर आधारित हैं। विकलांग व्यक्तियों को नज़रअंदाज़ करने पर समाज उन्हें अशक्त कर देता है। यदि उन्हें सम्मिलित किया जाता हैतो वे सम्पूर्ण और खुशहाल जीवन जी सकते हैं और समाज में अपना समुचित योगदान दे सकते हैं।
- पूरे विश्व में विकलांग व्यक्तियों को मानवाधिकारों तक वह पहुँच प्राप्त नहीं है जो अन्य व्यक्तियों को है। विकलांगता अभिसमय एक विश्वव्यापी मानवाधिकार अभिसमय है। यह विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को स्पष्ट करता है।
- हालाँकि यह ध्यान देने वाली बात है कि यह अभिसमय विकलांग व्यक्तियों को नए मानवाधिकार नहीं देता है। यह इस बात को स्पष्ट करता है कि उनके अधिकार भी वही हैं जो किसी अन्य आम व्यक्ति के हैं। यह सरकारों को बताता है कि किस प्रकार यह सुनिश्चित किया जाए कि विकलांग व्यक्तियों को उनके अधिकारों तक पहुँच प्राप्त हो।
- इसका उद्देश्य सभी विकलांग व्यक्तियों के लिये समान मानवाधिकारों और स्वतंत्रता को बढ़ावा देना, इनकी सुरक्षा करना और इन्हें सुनिश्चित करना हैऔर विकलांग व्यक्तियों की प्रतिष्ठा के लिये सम्मान का प्रचार करना है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा दिये गएदिशा निर्देशों की मुख्य विशेषताएँ:
दिव्यांग जनों के लिये सामाजिक न्याय को सुनिश्चित किये जाने को लेकर संयुक्त राष्ट्र द्वारा दिये गए निर्देशों में मूलतः 10 प्रमुख सिद्धांतों की बात की गई है, जो निम्न हैं:
- सिद्धांत 1: सभी दिव्यांग व्यक्ति कानूनी सहायता प्राप्त करने के योग्य और इसलिये किसी को भी विकलांगता के आधार पर न्याय तक पहुँचने से वंचित नहीं रखा जा सकता।
- सिद्धांत 2: किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना दिव्यांग व्यक्तियों तक न्याय की समान पहुँच सुनिश्चित करने के लिये सुविधाएँ और सेवाएँ सार्वभौमिक रूप से सुलभ होनी चाहिये।
- सिद्धांत 3: विकलांग बच्चों सहित सभी दिव्यांग जनों कोउचित प्रक्रियात्मक आवास का अधिकार (appropriate procedural accommodations) है।
- सिद्धांत 4: अन्य व्यक्तियों की तरह दिव्यांग जनों को भी कानूनी नोटिस और सूचना को समय पर और सुलभ तरीके से प्राप्त करने का अधिकार है।
- सिद्धांत 5: अंतर्राष्ट्रीय कानून में अन्य व्यक्तियों के तरह ही दिव्यांग जन भी सभी मूल और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के हकदार हैंऔर सभी राज्यों/देशों को इससे जुड़ी सभी यथोचित प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करना चाहिये।
- सिद्धांत 6: दिव्यांग जनों को मुफ़्त या सस्ती कानूनी सहायता का अधिकार है।
- सिद्धांत 7: दिव्यांग जनों को अन्य व्यक्तियों की तरह ही न्यायाधिकार से जुड़े क्षेत्रों को प्रशासित करने व उनसे जुड़ने का अधिकार है।
- सिद्धांत 8: दिव्यांग जनों के पास उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन एवं उनके साथ हुए अपराधों से सम्बंधित सूचना देने पर कानूनी कार्यवाही केतहत, शिकायतों की यथा सम्भव जाँच और प्रभावी न्याय प्राप्त करने के अधिकार हैं।
- सिद्धांत 9: दिव्यांग व्यक्तियों के लिये न्याय तक पहुँच को सुलभ बनाने में प्रभावी और मज़बूत निगरानी तंत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उनकी पहुँच सुनिश्चित करना भी देशों का कर्त्तव्य है।
- सिद्धांत 10: न्याय प्रणाली से जुड़े सभी व्यक्तियों को इस बात विधिवत शिक्षा दी जानी चाहिये कि न्याय के लिये आये किसी दिव्यांग व्यक्ति की किस प्रकार सहायता की जाए।
भारत में दिव्यांगजन:
- सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग भारत में दिव्यांग व्यक्तियों को सशक्त बनाने के लिये कार्य करता है।
- वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में दिव्यांग जनों की कुल जनसंख्या 2.68 करोड़ है, जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 2.21 % है। इसमें से लगभग 55.89% पुरुष और 44.11% महिलाएँ हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगों की संख्या शहरों की तुलना में कहीं अधिक है। भारत में दिव्यांगों की कुल जनसंख्या का 69.45% ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती है।
- वर्ष 2011की जनगणना के अनुसारदेश की 45 % विकलांग आबादी अशिक्षित है। दिव्यांगों में भी जो शिक्षित हैं, उनमें 59 % मात्र 10वीं पास हैं।
- भारत में सर्वशिक्षा अभियान के तहत सभी को एक समान शिक्षा देने का प्रावधान है, इसके बावजूद शिक्षा व्यवस्था से बाहर रहने वाली आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा दिव्यांग बच्चों का है। 6-13 आयुवर्ग के दिव्यांग बच्चों की 28 % आबादी स्कूलों से दूर है।
- दिव्यांगों के बीच ऐसे बच्चे भी हैं जिनके एक से अधिक अंग अपंग हैं,जिनकी 44 % आबादी शिक्षा से वंचित है। जबकि मानसिक रूप से दिव्यांग 36 % बच्चे और बोलने में अक्षम 35 % बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। भारत सरकार द्वारा दिव्यांग बच्चों को स्कूल में भर्ती कराने हेतु यद्यपि कई कदम उठाए गए हैं इसके बावजूद आधे से अधिक दिव्यांग बच्चे स्कूल जा पाने में अक्षम हैं।
आगे की राह
- दिव्यांग जनों के सामाजिक न्याय की बात की जाए तो विभिन्न पहलुओं पर सरकार को आगे आने की आवश्यकता है एवं राष्ट्रीय स्तर पर एक समेकित नीति बनाने और उसके उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने की ज़रुरत है।
- भारत को संयुक्त राष्ट्र द्वारा दिये गए निर्देशों पर भी ध्यान देते हुए इनके उचित एवं विधिसम्मत क्रियान्वयन के लिये आगे आना चाहिये।
- भारत में दिव्यांगजनों की सहायता और सहायक उपकरणों के सम्बंध में अनुसंधान और विकास को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न सुविधाओं तक उनकी पहुँच को आसान बनाया जा सके। साथ ही स्मार्ट सिटी और शहरी सुविधाओं की बेहतरी पर जोर देते हुए दिव्यांगजनों की चिंताओं को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : विभिन्न संवैधानिक निकायों की शक्तियाँ, कार्य और उत्तरदायित्त्व, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ)
विषय–देश में एकल मतदाता सूची की चर्चा का ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिये निहितार्थ
पृष्ठभूमि
- हाल ही मेंप्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा निर्वाचन आयोग और विधि मंत्रालय के प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक आयोजित की गई, जिसका उद्देश्य पंचायत, नगरपालिका, राज्य विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिये भिन्न–भिन्न मतदाता सूची के स्थान पर एक ही मतदाता सूची से चुनाव कराने की सम्भावना पर चर्चा करना था। इसके बाद ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर पुनः चर्चा शुरु हो गई।
भारत में मतदाता सूचियाँ
- कई राज्यों में पंचायत व नगरपालिका चुनावों के लिये प्रयोग की जाने वाली मतदाता सूची लोकसभा व विधानसभा चुनावों के लिये प्रयोग की जाने वाली मतदाता सूची से भिन्न होती है। इस अंतर का प्रमुख कारण भारत में चुनावों के पर्यवेक्षण और संचालन का कार्य दो संवैधानिक प्राधिकारियों– भारत निर्वाचन आयोग (EC) और राज्य चुनाव आयोगों (SECs) द्वारा किया जाता है।
- वर्ष 1950 में गठित भारत निर्वाचन आयोग पर संसद और भारत के राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति कार्यालयों के साथ-साथ राज्य विधानसभाओं व विधान परिषदों के चुनाव की ज़िम्मेदारी होती है।
- वहीं दूसरी ओर राज्य चुनाव आयोगों द्वारा नगरपालिका और पंचायत चुनावों की निगरानी की जाती है।
- स्थानीय निकाय चुनावों के लिये राज्य चुनाव आयोग स्वयं की मतदाता सूची तैयार करने के लिये स्वतंत्र है। साथ ही इस कार्य के लिये भारत निर्वाचन आयोग के साथ समन्वय करने की भी आवश्यकता नहीं होती है।
क्या सभी राज्यों में स्थानीय निकाय चुनावों के लिये एक अलग मतदाता सूची है?
- कुछ राज्य स्थानीय निकाय चुनावों के लिये भारत निर्वाचन आयोग की मतदाता सूची का पूरी तरह से उपयोग करने की अनुमति देते हैं, जबकि कुछ दूसरे ‘राज्य निर्वाचन आयोग’ नगरपालिका और पंचायत चुनावों के लिये मतदाता सूची को तैयार करने और उनमें संशोधन करने हेतु भारत निर्वाचन आयोग की मतदाता सूची का उपयोग एक आधार के रूप में करते हैं।
- प्रत्येक ‘राज्य चुनाव आयोग’ अलग-अलग राज्य अधिनियमों द्वारा शासित होते हैं परंतु सभी राज्यों में स्थानीय निकाय चुनावों के लिये अलग मतदाता सूची ही हो ऐसा आवश्यक नहीं है।
- वर्तमान में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा व केरल स्थानीय निकाय चुनावों के लिये राज्य चुनाव आयोग द्वारा तैयार किये गए मतदाता सूची का प्रयोग करते हैं। साथ ही कुछ पूर्वी राज्य असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड के साथ-साथ केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर भी स्थानीय निकाय चुनावों के लिये राज्य चुनाव आयोग द्वारा तैयार किये गए मतदाता सूची का प्रयोग करते हैं। इनको छोड़कर अन्य सभी राज्य स्थानीय निकाय चुनावों के लिये भारत निर्वाचन आयोग की मतदाता सूची का प्रयोग करते हैं।
देश में सभी चुनावों के लिये एकल मतदाता सूची के प्रस्ताव का कारण
- देश के लिये एकल मतदाता सूची का प्रावधान वर्तमान सरकार द्वारा पिछले लोकसभा चुनाव के समय अपने घोषणा पत्र में किये गए वादों में से एक है। यह लोकसभा व राज्य विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने की सरकार की प्रतिबद्धता के साथ भी दृढ़ता से सम्बंधित है।
- एकल मतदाता सूची तैयार करने से सूचियों में एकरूपता आने के साथ–साथ धन, श्रम और समय की बचत होगी। अलग-अलग मतदाता सूची को तैयार करना दो अलग–अलग एजेंसियों द्वारा एक ही कार्य का दोहराव मात्र है।
- एकल मतदाता सूची की माँग नई नहीं है। विधि आयोग ने वर्ष 2015 में इसकी सिफारिश की थी। भारत निर्वाचन आयोग भी वर्ष 1999 और 2004 में इसी तरह की सिफारिश कर चुका है।
- मतदाताओं में विभिन्न मतदाता सूचियों के कारण उत्पन्न भ्रम की स्थिति भी एकल मतदाता सूची से समाप्त हो जाएगी।
एकल मतदाता सूची के प्रावधान हेतु सरकार के पास विकल्प
- पहला विकल्प अनुच्छेद 243K और 243ZA में संवैधानिक संशोधन है, जो राज्य चुनाव आयोगों को स्थानीय निकाय चुनावों के संचालन और मतदाता सूची तैयार करने का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण की शक्ति प्रदान करता है।
- दूसरा विकल्प राज्य सरकारों को अपने सम्बंधित कानूनों को संशोधित करने और नगरपालिका तथा पंचायत चुनावों के लिये भारत चुनाव आयोग की मतदाता सूची को अपनाने के लिये सहमत करना है। एकल मतदाता सूची के विचार ने ‘वन नेशन’ वन इलेक्शन’ के प्रस्ताव पर चर्चा की पृष्ठभूमि पुनः तैयार कर दी है।
वन नेशन, वन इलेक्शन : इतिहास
- वर्ष 1952 और 1957 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ सम्पन्न हुए। यह चक्र तब टूटा जब पहली बार जुलाई 1959 में केंद्र ने केरल में ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार के विरुद्ध अनुच्छेद 356 का प्रयोग किया।
- इसके बाद फरवरी 1960 में केरल में चुनाव हुए। वर्ष 1967 तक कई राज्यों में गैर–कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ। दल बदल की बढ़ती घटनाओं के कारण राज्य सरकारें और विधानसभाएँ अस्थिर रहने लगी, जिससे कई राज्यों के चुनावों को लोकसभा चुनावों से अलग कराना पड़ा।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के पक्ष में तर्क
- पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने से खर्च में कमी आएगी और यह सभी चुनावों एक सीज़न तक सीमित हो जाएंगे। वर्तमान में कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं और बार–बार आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण सरकार परियोजनाओं का कार्यान्वयन या नई नीतियों की घोषणा नहीं कर पाती है।
- एक साथ चुनाव से आवश्यक सेवाओं के वितरण पर पड़ने वाले प्रभाव को कम किया जा सकेगा। साथ ही चुनाव के समय तैनात किये जाने वाले महत्त्वपूर्ण जनशक्ति पर बोझ को कम किया जा सकेगा।
- हाल के वर्षों में विधानसभाएँ सामान्यतया अपना कार्यकाल पूरा कर रही हैं। इसका मुख्य कारण वर्ष 1985 का दल-बदल विरोधी कानून और अनुच्छेद 356 को लागू करने के सम्बंध में उच्चतम न्यायालय के फैसले हैं। न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति राज्य विधानसभा को निलम्बित कर सकते हैं परंतु संसद की सहमति के बिना इसे भंग नहीं कर सकते।
- इसके अलावा राष्ट्रपति शासन की घोषणा की वैधता की जाँच न्यायपालिका द्वारा की जा सकती है। इन कारणों से लोकसभा और विधानसभा के चुनाव चक्र जल्द नहीं टूटेंगें।
- वर्ष 1983 में चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव का सुझाव दिया था। मई 1999 में न्यायमूर्ति बी. पी..जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट ने लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के विपक्ष में तर्क
- वृहद् स्तर पर सिर्फ एक चुनाव आयोजित करना भारत जैसे बड़े और जटिल देश के लिये बहुत कठिन होगा और इससे चुनावी भ्रष्टाचार में वृद्धि हो सकती है।
- यदि सरकार विश्वास मत खो देती है तो चुनाव ही इसका एकमात्र वैध विकल्प है। साथ ही चुनावों में किसी भी दल को बहुमत न मिलने और वर्तमान प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के चुनाव हार जाने की स्थिति में भी पराजित प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे, जो संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध होगा।
- लोग एक निश्चित समय के लिये प्रतिनिधियों का चुनाव करते है। साथ चुनाव कराने के लिये यदि किसी सदन की निर्धारित अवधि को बढ़ाया या घटाया जाएगा तो यह संसदीय लोकतंत्र के लिये घातक सिद्ध होगा।
- ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से एकात्मक प्रणाली, मज़बूत कार्यकारी और कमज़ोर विधानमंडल के साथ-साथ विविधता का आभाव और एकरूपता में वृद्धि होगी।
- एक साथ चुनाव कराने से ‘इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन’ और ‘वोटर वेरिफ़िएबल पेपर ऑडिट’ (VVPAT) ट्रेल मशीनों की दोगुनी आवश्यकता होगी।
- एक साथ चुनाव कराने से छोटे व क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी दल को अधिक फायदा होगा।
- न्यायमूर्ति बी. एस. चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने कहा कि संविधान के मौजूदा ढाँचे के भीतर एक साथ चुनाव सम्भव नहीं हैं। इसके लिये संविधान, जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम 1951, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के संचालन प्रक्रिया नियम में संशोधन की आवश्यकता होगी।
आगे की राह
- तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो संघीय व्यवस्था वाला कोई भी प्रमुख देश राष्ट्रीय स्तर और राज्य विधानसभाओं का चुनाव एक साथ नहीं कराते हैं। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और जर्मनी इसके उदाहरण हैं।
- इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें और केंद्र सरकार कभी भी अल्पमत में आ सकती हैं, जिससे एक साथ चुनाव का चक्र टूट सकता है।
- एक कैलेंडर वर्ष में होने वाले सभी चुनावों को एक साथ आयोजित किया जा सकता है।
- इसके अतिरिक्त विधि आयोग का एक सुझाव यह भी है कि ‘अविश्वास प्रस्ताव’ को ‘रचनात्मक अविश्वास प्रस्ताव’ द्वारा प्रतिस्थापित किया जाए और अविश्वास प्रस्ताव द्वारा सरकारों को तभी हटाया जाए जब किसी वैकल्पिक सरकार के गठन की सम्भावना हो।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2: विषय– भारतीय संविधान– ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना, संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, संघीय ढाँचे से सम्बंधित विषय एवं चुनौतियाँ, स्थानीय स्तर पर शक्तियों और वित्त का हस्तांतरण और उसकी चुनौतियाँ, संसद और राज्य विधायिका– संरचना, कार्य, कार्य–संचालन, शक्तियाँ एवं विशेषाधिकार और इनसे उत्पन्न होने वाले विषय)
विषय–जम्मू और कश्मीर में प्रशासन हेतु नए नियम
- हाल ही में, गृह मंत्रालय (MHA) ने केंद्रशासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में प्रशासन के लिये नए नियमों की अधिसूचना जारी की है। इन नियमों द्वारा उपराज्यपाल (Lieutenant Governor– LG) तथा मंत्रिपरिषद को कार्य संचालनके लिये विभिन्न निर्देश दिये गएहैं।नियमों कोजम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की धारा 55 के तहत अधिसूचित किया गया है।
पृष्ठभूमि:
- 6 अगस्त, 2019 को, भारत की संसद द्वारा जम्मू–कश्मीर की विशेष स्थिति को रद्द कर दिया गया था एवं संविधान के अनुच्छेद 370 को संशोधित कर राज्य को जम्मू–कश्मीर एवं लद्दाख, दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभक्त कर दिया गया था।
- इस कदम के बाद कई नागरिक समूहों ने विरोध जताया था और जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे की बहाली की माँग की थी। उच्चतम न्यायालय में एक याचिका भी दाखिल की गई थी,जिसमें धारा 370 में हुए फेरबदल की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी।
- जम्मू कश्मीर में इस बड़े राजनैतिक, प्रशासनिक बदलाव के बाद हाल ही में पाकिस्तान ने अपना एक नया राजनीतिक मानचित्र भी जारी किया था, जिसमें पाकिस्तान ने जम्मू–कश्मीर, लद्दाख, सर क्रीक और जूनागढ़ को अपना हिस्सा बताया था।
- चीन ने भारत के इस कदम को अवैध ठहराते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में इस मुद्दे को उठाया था।
- ध्यातव्य है कि जम्मू–कश्मीर में जून, 2018 से कोई मुख्यमंत्री नहीं है एवं जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के अनुसार, केंद्र शासित प्रदेशों में परिसीमन प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही अगले वर्ष नए चुनाव कराए जाएँगे।
नए नियम–एक नज़र:
उपराज्यपाल की भूमिका एवं शक्तियाँ:
- उपराज्यपाल का केंद्र शासित प्रदेश की पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था, अखिल भारतीय सेवाओं और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (ACB) पर सीधा नियंत्रण रहेगा अर्थात यदि वहाँ चुनाव होते हैं और मुख्यमंत्री चुने जाते हैं तो मुख्यमंत्री या उनकी मंत्रिपरिषद का उपराज्यपाल के कार्य में किसी भी प्रकार का कोई दखल नहीं होगा।
- ऐसे सभी प्रस्ताव या मामले मुख्यमंत्री को सूचित करते हुए मुख्य सचिव के माध्यम से अनिवार्यतः उपराज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किये जाएंगे, जिनसे केंद्र शासित प्रदेश की शांति–व्यवस्था प्रभावित हो सकती है या वे किसी अल्पसंख्यक समुदाय, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के हितों को प्रभावित करते होंगे या करते हुए प्रतीत होंगे।
- यदि उपराज्यपाल तथा किसी मंत्री के बीच किसी प्रकार के मतभेद की स्थिति उत्पन्न होती है और यदि एक महीने के बाद भी वे लोग किसी समझौते पर नहीं पहुँच पा रहे हैं तो ‘उपराज्यपाल के फैसले को मंत्रिपरिषद द्वारा स्वीकृत’ माना जाएगा।
राष्ट्रपति की भूमिका:
- यदि किसी मामले में उपराज्यपाल तथा परिषद के बीच मतभेद होता है तो सम्बंधित मामले को उपराज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के निर्णय के लिये केंद्र के पास भेजा जाएगा तथा तदोपरांत उपराज्यपाल राष्ट्रपति के निर्णयानुसार कार्य करेगा।
- ऐसी स्थिति में जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल को दिशा-निर्देश जारी करने के सभी अधिकार दिये गए हैं तथा मंत्रिपरिषद द्वारा की गई कार्रवाई भारत के राष्ट्रपति द्वारा सम्बंधित मामलों पर निर्णय लेने तक निलम्बित रहेगी।
मुख्यमंत्री तथा मंत्रिपरिषद की भूमिका:
- मुख्यमंत्री के नेतृत्त्व में मंत्रिपरिषद अखिल भारतीय सेवा के अलावा अन्य सेवाओं (राज्य स्तर)के अधिकारियों के सेवा मामलों, नए कर लगाने सम्बंधी प्रस्ताव, सरकारी सम्पत्ति की बिक्री, भूमि राजस्व, अनुदान अथवा पट्टे, विभागों और कार्यालयों के पुनर्गठन तथा कानूनों के मसौदों से जुड़े मुद्दों पर निर्णय लेगी।
- ऐसा कोई भी मामला जो केंद्रशासित प्रदेश की सरकार तथा किसी अन्य राज्य सरकार अथवा केंद्र सरकार के साथ विवाद उत्पन्न कर सकता हैउसे अति शीघ्र सम्बंधित सचिव के द्वारा मुख्य सचिव के माध्यम से उपराज्यपाल तथा मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाया जाएगा।
केंद्र सरकार की भूमिका:
नए नियमों के अनुसार उपराज्यपाल द्वारा निम्नलिखित प्रस्तावों के सम्बंध में केंद्र सरकार को पहले से सूचित किया जाएगा:
- किसी अन्य राज्य, भारत के उच्चतम न्यायालय अथवा किसी अन्य उच्च न्यायालय के साथ केंद्र के सम्बंधों को प्रभावित करने वाले सभी प्रस्ताव;
- मुख्य सचिव एवं पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति से जुड़े प्रस्ताव;
- ऐसे मामले जिनसे प्रदेश की शांति-व्यवस्था के भंग अथवा प्रभावित होने की सम्भावना हो; तथा
- ऐसे मामले जिनसे किसी अल्पसंख्यक समुदाय, अनुसूचित जाति या पिछड़े वर्गों के हितों के प्रभावित होने की सम्भावना हो।
नए नियमों के निहितार्थ:
- जब जम्मू कश्मीर को एक राज्य के रूप में विशेष दर्जा प्राप्त था तब यहाँ के मुख्यमंत्री को निर्णय लेने की प्रक्रिया में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता था।
- नए नियमों के द्वारा मुख्यमंत्री को मात्र एक अलंकारिक पद बना दिया गया है। इन नियमों के लागू हो जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के मुख्य मंत्री के पास जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक कांस्टेबल को स्थानांतरित करने की शक्ति भी नहीं होगी।
आगे की राह:
- अनुच्छेद 370 में संशोधन और विशेष राज्य का दर्जा लिये जाने के बाद से जम्मू कश्मीर क्षेत्र में सेना द्वारा ही शांति-व्यवस्था और प्रशासन की देख-रेख की जा रही थी, नए नियमों के आने के बाद अब यहाँ गैर-सैन्य प्रशासन की राहखुली है।
- प्रदेश के बहुत से क्षेत्रों में नए नियमों को लेकर रोष देखा जा सकता है लेकिन केंद्र सरकार का कहना है कि जम्मू-कश्मीर के हालात अभी तक सुधरे नहीं हैं इसलियेवहाँ प्रशासन केमज़बूत होने से शांति व्यवस्था बहाली में कठिनाई नहीं आएगी।
- लोकतांत्रिक संघीय ढाँचे में राज्यों को भी स्वायत्तता प्राप्त होती है, लेकिन कई कानूनविदों का कहना है कि वर्तमान नियम संघीय ढाँचे के खिलाफ हैं और मुख्यमंत्री एवं उसकी मंत्रिपरिषद को भी पर्याप्त स्वायत्तता एवं अधिकार मिलने चाहियें।
- ऐसा हो सकता है कि भविष्य में केंद्र सरकार यहाँ के मुख्यमंत्री एवं उनकी मंत्रिपरिषद को और अधिकार प्रदान करे लेकिन शायद केंद्र सरकार उससे पहले क्षेत्र में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करना चाह रही है।
(मुख्या परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्त्व, जनसंख्या के अति सम्वेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ, इन अति सम्वेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय)
विषय–एस.सी. व एस.टी. जातियों का उप–वर्गीकरण तथा सम्बंधित मामले
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय ने आरक्षण के लिये ‘अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों’ की केंद्रीय सूची के उप-वर्गीकरण पर कानूनी बहस को पुनः जन्म दे दिया है।
पृष्ठभूमि
- उच्चतम न्यायालयकी पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने कहा है कि राज्यों द्वारा अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) की केंद्रीय सूची को ‘दुर्बल में दुर्बलतम लोगों’ को तरज़ीह देने के लिये उप–वर्गीकृत किया जा सकता है। हालाँकि, अंतिम निर्णय लेने के लिये यह मामला एक बड़ी पीठ को सौंप दिया गया। यह फैसला संविधान पीठ के ‘पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवा में आरक्षण) अधिनियम, 2006’ की एक धारा से सम्बंधित ‘विधि के प्रश्न’ पर आधारित है। यह कानूनी प्रावधान पंजाब राज्य में अनुसूचित जातियों के लिये आरक्षित सीटों का 50% वाल्मीकि और मज़हबी सिखों को आवंटित करने की अनुमति देता है।
ई.वी. चिन्नैया मामला
- वर्ष 2000 में आंध्र प्रदेश ने कुछ एस.सी. जातियों को उप-समूह में पुनर्गठित करते हुए एस.सी. कोटे को उप–विभाजित करने वाला एक कानून पारित किया।
- हालाँकि, बाद में उच्चतम न्यायालय ने ‘ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश व अन्य’ के फैसले में इस कानून को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि राज्यों को ‘अनुसूचित जाति के वर्ग के भीतर एक उपवर्ग’ बनाने की एकतरफ़ा अनुमति देना राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित सूची में छेड़छाड़ करने जैसा है।
- राज्यों को एस.सी. और एस.टी. जातियों की पहचान करने वाली राष्ट्रपति सूची के साथ छेड़छाड़ या उसमें फेरबदल करने की शक्ति नहीं है। संविधान सभी अनुसूचित जातियों को एक ‘एकल सजातीय समूह’ मानता है।
- पाँच सदस्यीय वर्तमान पीठ ने ई.वी. चिन्नैया मामले में पाँच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिये गए फैसले के विपरीत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। सामान संख्या की दो पीठों द्वारा विपरीत दृष्टिकोण रखने के कारण इस मुद्दे को सात–न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया गया है।
- उल्लेखनीय है कि समान शक्ति (संख्या) वाली कोई पीठ पिछले फैसले को रद्द नहीं कर सकती है।
संवैधानिक प्रावधान
- SC और ST की केंद्रीय सूची संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के तहत राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित की जाती है।
- इस सूची में शामिल जातियों को बाहर करने या अन्य जातियों को शामिल करने के लिये संसद की सहमति आवश्यक है। संक्षेप में, राज्य एकतरफा इस सूची में जातियों को न तो जोड़ सकते हैं और न ही बाहर निकाल सकते हैं।
राष्ट्रपति सूची
- संविधान में SC और ST को समानता प्रदान करने के उद्देश्य से विशेष उपबंध किया गया है, परंतु मूल संविधान ऐसी जातियों और जनजातियों की पहचान नहीं करता है, जिन्हें SC और ST कहा जाए। यह शक्ति केंद्रीय कार्यकारी- राष्ट्रपति के पास है।
- सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2018-19 में देश में 1,263 अनुसूचित जातियाँ थी। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तथा लक्षद्वीप में किसी भी समुदाय को अनुसूचित जाति के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया गया है।
उप–वर्गीकरण के पक्ष में तर्क और जाति संघर्ष
- राज्यों का तर्क है कि सामान मात्रा में आरक्षण प्राप्त होने के बावज़ूद अनुसूचित जातियों में कुछ ऐसी जातियाँ हैं, जिनका प्रतिनिधित्त्व सकल रूप से अन्य अनुसूचित जातियों की तुलना में कम हैं। अनुसूचित जातियों के भीतर इस असमानता को कई रिपोर्टों में रेखांकित किया गया है और इसके लिये कुछ राज्यों द्वारा विशेष कोटा भी तैयार किया गया है।
- उदाहरण के लिये आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु और बिहार में सर्वाधिक कमज़ोर दलितों के लिये विशेष कोटे का प्रावधान किया गया। वर्ष 2007 में बिहार ने अनुसूचित जाति के भीतर पिछड़ी जातियों की पहचान करने के लिये ‘महादलित आयोग’ का गठन किया।
- तमिलनाडु की कुल एस.सी. जनसँख्या में अरुंधतियार जाति 16% है, जबकि नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्त्व केवल एक-तिहाई के आस-पास था। इनके लिये एस.सी. कोटा के भीतर ही 3% का कोटा प्रदान किया गया।
- इसके अलावा क्रीमी लेयर की अवधारणा का भी उदाहरण लिया जा सकता है। अदालत ने वर्ष 2018 में SCs के भीतर क्रीमी लेयर की अवधारणा को जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता के फैसले में सही ठहराया। केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 के फैसले की समीक्षा की माँग की है और मामला फिलहाल लम्बित है।
- क्रीमी लेयर की अवधारणा आरक्षण के लिये पात्र लोगों पर आय की अधिकतम सीमा लगाती है। यद्यपि यह अवधारणा अन्य पिछड़ी जातियों पर लागू होती है, परंतु वर्ष 2018 में पहली बार अनुसूचित जातियों की पदोन्नति के मामले में इसे लागू किया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आरक्षण ने आरक्षित जातियों के भीतर ही असमानताएँ पैदा कर दी हैं। आरक्षित वर्ग के भीतर एक ‘जाति संघर्ष’ है क्योंकि आरक्षण का लाभ कुछ ही लोगों द्वारा लिया जा रहा है।
- राज्य को पर्याप्त उपाय करने के लिये विभिन्न वर्गों के बीच गुणात्मक और मात्रात्मक अंतर करने की शक्ति से वंचित नहीं किया जा सकता है। अनुसूचित जातियों के बराबर प्रतिनिधित्त्व को सुनिश्चित करने के लिये यह आवश्यक है।
- राज्यों ने तर्क दिया है कि वर्गीकरण एक निश्चित कारण से किया जाता है और यह समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।
उप–वर्गीकरण के विरोध में तर्क
- यह तर्क दिया जाता है कि शैक्षिक पिछड़ेपन के परीक्षण की आवश्यकता को SC और ST पर लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि अस्पृश्यता से पीड़ित होने के कारण संविधान में उनके लिये विशेष उपबंध किया गया है, अत: इस सूची का उप-वर्गीकरण नहीं किया जाना चाहिये।
- ई.वी. चिन्नैया मामले में न्यायालय ने कहा कि सभी अनुसूचित जातियों में सामूहिक असमानता की परवाह किये बिना आरक्षण के लाभों को सामूहिक रूप प्रदान किया जाना चाहिये क्योंकि इनका संरक्षण शैक्षिक, आर्थिक या अन्य ऐसे कारकों पर नहीं बल्कि अस्पृश्यता पर आधारित है।
- इसका समर्थन करते हुए वर्ष 1976 के ‘केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस’ मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ‘अनुसूचित जातियाँ’ जाति नहीं बल्कि ‘वर्ग’ है।
उच्चतम न्यायालय का वर्तमान दृष्टिकोण
- न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति/केंद्रीय सूची के भीतर उप–वर्गीकरण करना इसमें ‘फेरबदल’ करने जैसा नहीं है क्योंकि इसके द्वारा किसी भी जाति को सूची से बाहर नहीं किया जा रहा है।
- राज्य केवल सांख्यिकीय आँकड़ों के आधार पर व्यावहारिक रूप से सबसे कमज़ोर समूहों को वरीयता दे सकते हैं।
- आरक्षण के लाभ का वितरण सुनिश्चित करने के लिये अधिक पिछड़ों को तरज़ीह देना भी समानता के अधिकार का एक पहलू है।
- जब आरक्षण स्वयं आरक्षित जातियों के भीतर असमानता पैदा करता है, तो इनका उप-वर्गीकरण करके राज्य द्वारा इस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है, जिससे राज्य की नीतियों का लाभ सभी को मिल सके और सभी को समान न्याय प्रदान किया जा सके।
निष्कर्ष
- सवाल यह है कि लाभ को निचले पायदान तक कैसे पहुँचाया जाए। यह स्पष्ट है कि जाति, व्यवसाय और गरीबी आपस में जुड़ी हुई है।
- इसके अलावा अदालत द्वारा जरनैल सिंह पर सुनाया गया फैसला इस तथ्य पर बल देता है कि इन जातियों के बीच भी सामाजिक असमानताएँ मौजूद हैं।
- यह निर्णय महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये क्रीमी लेयर अवधारणा का विस्तार करने का पूरी तरह से समर्थन करता है।
- नागरिकों को सदा के लिये सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हुआ नहीं माना जा सकता है और आरक्षण का लाभ पाकर आगे बढ़ चुके लोगों और समूहों को क्रीमी लेयर की तरह बाहर रखा जाना चाहिये।
- सामाजिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखे बिना सामाजिक परिवर्तन और समता का संवैधानिक लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–2: विषय– सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय, केंद्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य–निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय, स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से सम्बंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से सम्बंधित विषय)
विषय–विशेष विवाह अधिनियम
- हाल ही में, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने युवा महिलाओं में होने वाले कुपोषण पर ध्यान देने और सही उम्र में उनका विवाह सुनिश्चित करने के लिये एक पैनल की घोषणा की थी।
- यदि हम सामजिक विकास पर नज़र डाले तो पाएँगे कि महिलाओं का विवाह शीघ्र कर देने व फिर उनके शीघ्र गर्भ धारण करने की वजह से वे अक्सर कई तरह की व्याधियों से ग्रसित हो जाती हैं।
- वर्तमान में, नियमों के अनुसार भारत में पुरुषों केविवाह की न्यूनतम आयु 21 वर्ष है और महिलाओं के लिये 18 वर्ष है।
पृष्ठभूमि:
- सर्वप्रथम, वर्ष 1860 में जब भारतीय दंड संहिता (IPC) का अधिनियमन हुआ तब 10 वर्ष से कम आयु की लड़की के साथ किसी भी प्रकार के शारीरिक सम्बंध या यौनाचार को अपराध घोषित कर दिया गया था।
- वर्ष 1927 में एक विधेयक के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने 12 वर्ष से कम आयु की किसी लड़की के साथ विवाह को अमान्य घोषित कर दिया था।
- वर्ष 1929 में, बाल विवाह निरोधक अधिनियम के द्वारा महिलाओं और पुरुषों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 14 और 18 वर्ष निर्धारित कर दी गई। इस कानून के लिये आवाज़ मुखर करने वाले, आर्य समाजी डॉ. हरविलास सारदा के नाम पार इस अधिनियम को सारदा अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है।
- यद्यपि सारदा अधिनियम भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान सुषुप्तावस्था में ही रहा, क्योंकि हिंदू व मुस्लिम दोनों धर्मों के साम्प्रदायिक लोग इसके समर्थन में नहीं थे और अंग्रेज़ उस समय उनसे नाराज़गी नहीं मोल लेना चाहते थे। इसके अलावा रियासतों में भी इस कानून को पालन करनेअथवा पालन नकरने को लेकर छूट दे दी गई थी।
- इसके बाद वर्ष 1949 में एक संशोधन के माध्यम से महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष से बढ़ाकर 15 वर्ष कर दी गई।
- वर्ष 1978 में इस अधिनियम में पुनः एक संशोधन किया गया और महिलाओं तथा पुरुषों के लिये विवाह की न्यूनतम कानूनी आयु को क्रमशः 18 वर्ष और 21 वर्ष कर दिया गया।
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (धारा 5 (iii))और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के द्वारा भी महिलाओं और पुरुषों की विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 और 21 वर्ष ही निर्धारित की गई है।
कम उम्र में विवाह:
- आँकड़े बताते हैं कि भारत में अधिकांश महिलाएँ 21 वर्ष की आयु के बाद विवाह करती हैं।
- आँकड़ों(चार्ट-1) से पता चलता है कि भारत में विवाह के समय महिलाओं की औसत आयु 22.1 वर्ष हैऔर लगभग सभी राज्यों में यह 21 वर्ष से अधिक ही है। हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि बाल विवाह अब रुक गए हैं।
- नवीनतम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey: NFHS-4) में पाया गया कि 20-24 आयु वर्ग (चार्ट–2) की लगभग 26.8% महिलाओं का विवाह वयस्कता (18 वर्ष) से पहले हुआ था।
विवाह के उम्र से स्वास्थ्य कैसे सम्बंधित है?
- डॉक्टरों एवं स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का कहना है और अध्ययन में भीयह पाया गया है कि शीघ्र विवाह को रोकने से मातृ मृत्यु दर (maternal mortality ratio) और शिशु मृत्यु दर (infant mortality ratio) में कमी आ सकती है।
- वर्तमान में, मातृ मृत्यु दर (जन्म लेने वाले प्रत्येक 100,000 बच्चों पर मातृ मृत्यु की संख्या) 145 है।
- भारत के शिशु मृत्यु दर(IMR) के आँकड़ों को देखने से पता चलता है कि एक वर्ष में पैदा होने वाले प्रत्येक 1,000 बच्चों में से 30 बच्चों की मृत्यु एक वर्ष की आयु से पहले हो जाती है।
- अध्ययन में यह भी पाया गया है कि युवा माताओं को एनीमिया होने की आशंका अधिक होती है। भारत में प्रजनन आयुवर्ग (15-49 वर्ष) की आधी से अधिक महिलाएँ एनीमिक हैं।
- कम आयु में विवाह करने से अवांछित गर्भधारण की सम्भावनाभी बनी रहती है साथ ही यौन संचारित रोगों का डर भी बना रहता है।
क्या भारतीय समाज में शीघ्र विवाह किये जाने को रोका जा सकता है?
- भारतीय समाज में गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक स्रोतों तक सीमित पहुँच और सुरक्षा सम्बंधी चिंताएँ,शीघ्र विवाह किये जाने के सम्भावित ज्ञात कारण हैं।
- अतः विभिन्न कानूनविदों ने यह स्पष्ट किया है कि यदि जल्दी विवाह किये जाने के मुख्य कारणों को सम्बोधित नहीं किया जाता है, तो विवाह की आयु बढ़ाए जाने के लिये नए कानून का कोई औचित्य नहीं होगा और मात्रयह कानून इसे रोकने के लिये पर्याप्त नहीं होगा।
- कई लोग यह तर्क भी देते हैं कि देर से विवाह करने से आगे कई प्रकार की दिक्कतें आ सकती हैं। खासकर परिवार बढ़ाने के सिलसिले में कुछ परेशानियाँ आ सकती हैं। हालाँकि मनोवैज्ञानिकों औरडॉक्टरों का कहना है कि मेडिकल साइंस के विकास के साथ अब ऐसी आशंकाएँ बहुत कम हो गई हैं।
आँकड़े क्या बताते हैं?
- आँकड़े (चार्ट-5) बताते हैं कि सबसे गरीब 20% महिलाओं का विवाहसबसे अमीर 20% महिलाओं की अपेक्षा बहुत कम उम्र में हो जाता है।
- स्कूली शिक्षा न प्राप्त कर पाने वाली महिलाओं के विवाह की औसत आयु 17.6 थी, जो कि कक्षा 12 (चार्ट-6) तक शिक्षित महिलाओं के विवाह की औसत आयु से बहुत कम थी।
- राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, 15-18 वर्ष की लगभग 40% लड़कियाँ स्कूल नहीं जाती हैं।
- इनमें से लगभग 65% लड़कियाँ गैर-पारिश्रमिक कार्यों में लगी हुई हैं।
- इसीलिये विशेषज्ञों का मानना है कि विवाह की आधिकारिक उम्र में फेरबदल करने से गरीब, कम पढ़ी-लिखी और दमित महिलाओं के साथ भेदभाव हो सकता है।
आगे की राह:
- विवाह के लिये महिलाओं और पुरुषों की न्यूनतम आयु अलग-अलग होने का कोई भी कानूनी या सामाजिक तर्क नहीं दिखता है,बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) का स्पष्ट उल्लंघन है। अतः इस विभेद तथा इसके मूल कारणों को ख़त्म करने के बारे में सरकार को विशेष ध्यान देना चाहिये।
- वर्ष 2018 में विधि आयोग ने इस विभेद को रूढ़िवादिता को बढ़ावा देने वाला एक कारक माना था। इससे जुड़े विधि आयोग के परामर्शों पर सरकार को ध्यान देना चाहिये।
- पूर्व में विभिन्न उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनमें इससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएँ सामने आई हैं, सरकार को चिकित्सकीय पहलुओं को ध्यान में रखकर भी एक समावेशी सोच के तहत इस पक्षपाती उम्र सीमा पर पुनर्विचार करना चाहिये।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, देशज रूप से प्रौद्योगिकी का विकास)
विषय–पेयजल आपूर्ति के सम्बंध में भारतीय मानक ब्यूरो का मापदंड प्रारूप
चर्चा में क्यों?
- भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) ने पाइप आधरित पेयजल आपूर्ति प्रणाली के लिये एक मानक प्रारूप तैयार किया है।इस पर दिल्ली जल बोर्ड सहित जल उपयोग करने वाले निकायों से टिप्पणियाँ आमंत्रित की गईं हैं।
पृष्ठभूमि
- केंद्र सरकार के ‘जल जीवन मिशन’ के अंतर्गत वर्ष 2024 तक सभी ग्रामीण परिवारों को पाइप के माध्यम से सुरक्षित और पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराने का लक्ष्यनिर्धारित किया गया है।
- वर्तमान में ग्रामीण घरों में पाइप से पानी की आपूर्ति लगभग 18% है। इसको ध्यान में रखते हुए‘पेयजल आपूर्ति गुणवत्ता प्रबंधन प्रणाली– पाइप आधारित पेयजल आपूर्ति सेवा के लिये आवश्यकताएँ’ नाम से इस प्रारूप को तैयार किया गया है।
- यह प्रारूप जल स्रोतों से घर तक जलापूर्ति की प्रक्रिया की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। नीति आयोग के‘समग्र जल प्रबंधन सूचकांक’ (CWMI) के अनुसार, देश में 70% जलापूर्ति दूषित है। एन.जी.ओ. ‘वाटरएड’ के गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में 120 वें स्थान पर है।
प्रारूप के प्रमुख बिंदु
- यह प्रारूप जल आपूर्तिकर्ता के लिये आवश्यकताओं को रेखांकित करता है, जिसमें पाइप आधारित पेयजल आपूर्ति सेवा की स्थापना, संचालन, रखरखाव और सुधार की आवश्यकताओं के बारे में बताया गया है।
- जलापूर्ति की प्रक्रिया जल स्रोत की पहचान के साथ शुरू होती है। ये स्रोत भूजल के साथ-साथ नदियों व जलाशयों जैसे सतही जल स्रोत हो सकते हैं। प्रारूप में इस बात का उल्लेख नहीं है कि जल का उपचार किस प्रकार किया जाए। हालाँकि, यह कहा गया है कि उपचार के बाद पेयजल बी.आई.एस. द्वारा विकसित भारतीय मानक (IS) 10500 के अनुरूप हो।
- आपूर्ति सेवा के लिये एक गुणवत्ता नीति स्थापित करना, आपूर्ति किये गए पानी की गुणवत्ता की निगरानी करना और जल लेखा परीक्षण को भी इसमें शामिल किया गया है।
IS 10500
- IS 10500 पेयजल में विभिन्न पदार्थों की स्वीकार्य सीमा को रेखांकित करता है, जिसमें भारी धातुएँ जैसे– आर्सेनिक के साथ–साथ पानी का पी.एच. मान (pH value), मैलापन, घुलित ठोस पदार्थ और रंग व गंध जैसे अन्य पैरामीटर शामिल हैं।
- IS 10500 से गुणवत्ता प्रमाणित जल का सीधे उपभोग किया जा सकता है। यह दर्शाता है कि जल कोलीफॉर्म, कीटनाशक अवशेषों और अन्य रासायनिक संदूषकों से मुक्त है। यह प्रमाण पत्र जल शोधन की प्रक्रिया के स्थान पर जल की अच्छी गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करता है।
जलापूर्ति की प्रक्रिया
- आपूर्ति प्रणाली की प्रक्रिया पानी के स्रोत की पहचान के साथ शुरू होनी चाहिये। इसके बाद पानी को पीने के स्वीकार्य मानकों के अनुरुप उपचारित किया जाना चाहिये।
- वितरण प्रणाली में संयंत्रों से पानी छोड़े जाने के बाद इसके भंडारण हेतु जलाशय की आवश्यकता होती है। वितरण के किसी भी स्तर पर संदूषण को ख़त्म करने के लिये कीटाणुशोधन सुविधाएँ होनी चाहिये।
- सम्पूर्ण वितरण प्रणाली में प्रवाह के उचित स्तर को बनाए रखने के लिये पर्याप्त मात्रा में दबाव की ज़रूरत होती है। प्रारूप के अनुसार वितरण प्रणाली को स्वचालित मोड में संचालित पर ज़ोर दिया जाना चाहिये।
- यह भी उल्लेख किया गया है कि गुणवत्ता मानकों के अनुसरण में प्रत्येक चार घंटे में उपचार संयंत्र से पानी का नमूना लिया जाना चाहिये, जबकि वितरण प्रणाली में पानी के जलाशयों से प्रत्येक आठ घंटे में नमूने को एकत्र किया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त घरेलू स्तर पर रैंडम सैम्पलिंग भी की जानी चाहिये।
जलापूर्ति प्रक्रिया के अतिरिक्त प्रारूप में क्या है?
- प्रारूप में पानी के ऑडिट पर दिशा निर्देश को भी शामिल किया गया है, जो उपभोग की गई जल राशि और वितरित किये जाने वाले पानी की मात्रा की गणना है। साथ ही यह भी कहा गया है कि जल लेखा परीक्षण त्रैमासिक आधार पर किया जानी चाहिये।
- नियंत्रण प्रणाली और पानी के ऑडिट के लिये पूरे सिस्टम में वॉल्व, मीटर तथा अन्य मूल्यांकन यंत्र लगाए जाएँ। जल लेखा परीक्षण को मज़बूत करने के लिये घरेलू उपभोक्ताओं और जलापूर्ति निकायों को पानी के मीटर उपलब्ध कराए जाने चाहिये।
- प्रारूप के अनुसार उपभोक्ताओं के बीच सर्वेक्षण करने और सेवा पर प्रतिक्रिया प्राप्त करने की आवश्यकता है। प्रारूप मानक में जवाबदेही और ग्राहको के संदर्भ में जल उपयोगिता के शीर्ष प्रबंधन हेतु दिशा–निर्देश भी शामिल हैं।
देश में पाइप आधारित जल की गुणवत्ता –
- जल जीवन मिशन के तहत वर्ष 2024 तक देश भर में पाइप द्वारा पयेजल की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु ‘हर घर नल से जल’ के सामने कई चुनौतियाँ हैं। पाइप आधारित जल की गुणवत्ता भारत के अधिकांश हिस्सों में मानकों के अनुसार नहीं है।
- पिछले वर्ष जारी बी.आई.एस. के आधिकारिक जलापूर्ति गुणवत्ता रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली अंतिम स्थान पर था तथा केवल मुम्बई ही सभी मानकों को पूरा करता था।
- 13 राजधानियों– चंडीगढ़, तिरुवनंतपुरम, पटना, भोपाल, गुवाहाटी, बेंगलुरु और गांधीनगर के साथ-साथ लखनऊ, जम्मू, जयपुर, देहरादून, चेन्नई और कोलकाता में भी नमूने मानदंडो के अनुरूप नहीं थे।
विश्व स्तर पर जल की गुणवत्ता –
- उच्च विकास सूचकांक वाले देशों में अच्छी गुणवत्ता वाले नल के जल की उपलब्धता है। फिनलैंड, डेनमार्क, स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों में मीठे जल की झीलों के साथ-साथ ग्लेशियर तक पहुँच आसान है, जो बेहद साफ और खनिज समृद्ध जल उपलब्ध कराते हैं। इस जल को और फिल्टर किया जाता है।
- सिंगापुर और इज़राइल मुख्यतः रीसाइक्लिंग पर निर्भर हैं और यहाँ तक कि सीवेज के जल को भी पीने योग्य बनाते है।
- भारत की तुलना में सीमित जनसंख्या दबाव और सार्वजनिक संसाधन इन देशों को स्वच्छ पेयजल सुनिश्चित करने में सहायक हैं परंतु विश्व के अधिकांश हिस्सों में सार्वजनिक आपूर्ति द्वारा जल की पहुँच एक चुनौती बनी हुई है।
महत्त्व
- प्रारूप मानक इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इससे पाइप आधारित जलापूर्ति की प्रक्रिया को और अधिक समरूप बनाने में सहायता प्राप्त होगी, विशेष रूप से देश के उन ग्रामीण और अविकसित क्षेत्रों में जहाँ यह प्रक्रिया विभिन्न सरकारी आदेशों और परिपत्रों के अनुसार चलती है।
- वर्तमान में मानक को अनिवार्य किये जाने की उम्मीद नहीं है। प्रारूप के अधिसूचित होने के बाद मानक को लागू करने की योजना बनाने वाले राज्य लाइसेंस ले सकते हैं।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–2: भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
विषय–भारत और IMF
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, भारत द्वारा आई.एम.एफ. के एस.डी.आर. कोटा प्रणाली में सुधारों को लेकर अपनी असहमति जताई गई है, जबकि भारत शुरुआत से ही आइ.एम.एफ. में सुधारों का पुरज़ोर समर्थक रहा है।
विशेष आहरण अधिकार (एस.डी.आर.)
- विशेष आहरण अधिकार (एस.डी.आर.) आरक्षित मुद्रा का एक रूप है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) द्वारा जारी किया जाता है। इसमें अमेरिकी डॉलर, यूरो, स्टर्लिंग पाउंड, येन और रेनमिनबी (युआन) शामिल है।
- प्रत्येक देश एस.डी.आर. में एक विशेष कोटा रखता है, जो आई.एम.एफ. बोर्ड में उसके मतदान का अधिकार तय करता है। सदस्य राष्ट्र आवश्यकता पड़ने पर इन आरक्षित मुद्राओं के लिये अपने एस.डी.आर. का आदान- प्रदान कर सकते हैं।
- एस.डी.आर. के विस्तार का अर्थ संकट के समय में बड़े संसाधन आधार की उपलब्धतता है। यह बाहरी स्थिरता और सुरक्षा का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम माना जाता है, जिससे बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भण्डार रखने की आवश्यकता कम हो जाती है।
भारत का वर्तमान कदम तथा आलोचना
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की कोटा प्रणाली के विस्तार का विरोध करने के लिये भारत ने अमेरिका का पक्ष लेने का निर्णय किया है।
- भारत लम्बे समय से उभरती अर्थव्यवस्थाओं को अधिक प्रतिनिधित्त्व प्रदान करने हेतु आई.एम.एफ. के संसाधनों के विस्तार और कोटा प्रणाली में सुधार पर ज़ोर देता रहा है।
- भारत द्वारा किये गए प्रयासों से मतदान अधिकारों में कुछ मज़बूती भी देखने भी मिली है तथा अमेरिका और यूरोप के एकतरफा नीतिगत परिवर्तनों की क्षमता में कमी आई है। हालाँकि अमेरिका ने कुछ प्रमुख सुधारों पर वीटो बरकरार रखा है।
- इस बार विकसित अर्थव्यवस्थाओं के केन्द्रीय बैंकों द्वारा मुहैया कराई गई पूँजी वर्ष 2008 के वित्तीय संकट की तुलना में काफी कम है, जबकि वर्तमान संकट उससे भी व्यापक है।
- भारत द्वारा महामंदी के बाद सबसे बड़े वैश्विक संकट के दौरान 500 अरब डॉलर के नए एस.डी.आर. जारी करने के आई.एम.एफ. के प्रस्ताव के विरोध पर भी प्रश्नचिन्ह है।
भारत के कदम का समर्थन
- न्यू डेवलपमेंट बैंक और एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक जैसे वैकल्पिक बहुपक्षीय संस्थानों के गठन के पिछले प्रयासों को भी चीन द्वारा बाधित किया गया है।
- भारत के इस कदम का अर्थ यह है। इन सुधारों के चलते अमेरिका की वीटो शक्ति की समाप्ति से चीन के मतदान अधिकारों में व्यापक वृद्धि होगी, जोकि भारत के हित में नहीं है।
- चीनी सरकार का अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों को नष्ट करने का इतिहास रहा है और तथ्य यह है कि वर्तमान में अमेरिका ही चीन के विरूद्ध खड़ा होने की ताकत रखता है। इसलिये भारत का यह कदम ज़रूरी लगता है।
- वैश्विक प्रशासन में चीन के प्रभाव को सीमित करना भारत का एक बड़ा लक्ष्य हो सकता है लेकिन भारत सरकार को इस लक्ष्य को हासिल करने हेतु और बेहतर विकल्प खोजने पर विचार करना चाहिये।
आगे की राह
- वित्तीय बाज़ार की अस्थिरता के खिलाफ मज़बूत वित्तीय सुरक्षा सहायता का स्वागत किया जाना चाहिये।
- वर्तमान में अगर सरकार विदेशी मुद्रा भण्डार को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाज़ार के प्रबंधन के लिये पर्याप्त मानती है तब भारत की राजकोषीय स्थिति दबाव में ही है।
- देश लॉकडाउन से चरणबद्ध तरीके से बाहर निकल रहे हैं। नागरिकों को वित्तीय सहायता और बेहतर सार्वजानिक स्वास्थ्य संसाधनों की आवश्यकता होगी विशेषकर भारत जैसी, विकासशील अर्तव्यवस्था हेतु।
- भारत सरकार आई.एम.एफ. के सामने इसके सदस्यों की सहायता करने हेतु नए उपाय किये जाने की माँग उठाकर विकासशील देशों का नेतृत्व कर सकता है।
निष्कर्ष
- संकट के समय में सुधारों में तेज़ी लाने का यह एक बेहतर अवसर है। एस.डी.आर. के विस्तार के साथ ही मतदान अधिकारों में भी विस्तार का समर्थन किया जाना चाहिये, जिससे आई.एम.एफ. के प्रशासन में उभरते हुई अर्थव्यवस्थाओं का पक्ष मज़बूत हो सके।
- अमेरिका की ‘अमेरिका प्रथम’ की नीति के तहत वह कभी भी आई.एम.एफ. जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था में सुधार पर सहमत नहीं होगा। इसलिये भारत को अपनी सम्प्रभुता बनाए रखते हुए विकसित देशों के प्रभाव में आने से बचना चाहिये।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र:2, विषय:संघीय ढांचे से संबंधित मुद्दे और चुनौतियाँ)
विषय–मातृभाषा व अधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी का अस्तित्त्व
चर्चा में क्यों?
- पूर्व इसरो प्रमुख के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की एक समिति ने हाल ही में नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया था, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने बाद में मंज़ूरी दे दी थी। नई शिक्षा नीति में स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किये गए हैं।
- विगत कुछ दिनों से लगातार इस नीति के एक प्रमुख अवयव पर चर्चा हो रही है। नई शिक्षा नीति में पाँचवी कक्षा तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे कक्षा आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है।विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी/द्वितीयक स्तर से होगी। हालाँकि नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा।
- इसके बाद से तमाम माध्यमों से विभिन्न संगठनों द्वारा इसके पक्ष में अपनी बात रखी गई है, और लोग मातृभाषा को शिक्षा की मुख्यधारा में लाने की बात जोर शोर से उठा रहे हैं।हिंदीको शिक्षा की भाषा और आधिकारिक भाषा बनाए जाने की लिये पूर्व में भी अनेकों आंदोलन हुए हैं।
पृष्ठभूमि:
संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार–
- दुनिया की लगभग6,000 भाषाओं में से 43% लुप्तप्राय हैं।
- दुनिया की आबादी की 60% (~4.8 बिलियन)से अधिक आबादी मात्र 10 भाषाओं को ही बोलती है।
ऑनलाइन डेटाबेस एथ्नोलॉग के अनुसार वैश्विक स्तर पर, वर्ष 2019 में लगभग1 अरब 13 करोड़ वक्ताओं के साथ अंग्रेज़ी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बनी हुई है, इसके बाद चीन की मंदारिन (1 अरब 11 करोड़) भाषा है।हिंदी 61 करोड़ 50 लाख वक्ताओं के साथ तीसरे जबकि बंगाली 26 करोड़ 50 लाख वक्ताओं के साथ सातवें स्थान पर है।
भारत में,
- वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में लगभग 52 करोड़से अधिक वक्ताओं के साथ हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।
- बंगाली बोलने वाले लगभग 9 करोड़ 72 लाखतथा मराठी बोलने वाले लगभग 8 करोड़ 30 लाख के आस पास लोग थे।
- 5 करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोले जाने वाली अन्य भाषाएँ तेलुगु (8 करोड़10 लाख), तमिल (6 करोड़ 90 लाख), गुजराती (5 करोड़ 55 लाख) और उर्दू (5 करोड़ 8 लाख) हैं।
भारत संघ में ‘आधिकारिक भाषा‘ की बहस :
जब संविधान सभा में भारतीय संविधान के प्रारूप पर बहस हो रही थी तो संविधान निर्माताओं के मन में राजभाषा के रूप में एक भाषा को चुनने का प्रश्न उत्पन्न हुआ। केंद्र सरकार की आधिकारिक भाषा क्या रखी जाए यह संविधान सभा में सबसे अधिक विभाजनकारी आधिकारिक मुद्दा था क्योंकि इस मुद्दे पर विभिन्न लोगों के अलग अलग मत थे। हिंदी को राजभाषा घोषित किये जाने के सम्बंध में दो प्रमुख समस्याएँ थीं: क) हिंदी की बोलियाँ; और b) भारत में विद्यमान अन्य भाषाएँ।
- हिंदी बोली को अपनाने का प्रश्न: हिंदी भाषा लगभग 13 विभिन्न बोलियों में बोली जाती है। इसलिये यह बहस भी शुरू हुई कि किस बोली को आधिकारिक हिंदी बोली के रूप में चुना जाए। बाद में दिल्ली-आगरा क्षेत्र में संस्कृत शब्दावली के साथ बोली जाने वाली हिंदी बोली को अपनाया गया।
- महात्मा गांधी का एक राष्ट्रीय भाषा का सपना: संविधान सभा के अधिकांश सदस्य महात्मा गांधी के सपने को पूरा करना चाहते थे, जिन्होंने कहा था कि भारत में एक राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिये जो राष्ट्र को एक विशेष पहचान दे। संविधानसभा के कुछ प्रमुख सदस्यों ने भारत संघ की आधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी को देश की सबसे लोकप्रिय भाषा के रूप में स्वीकार किया। जब यह प्रस्ताव सम्पूर्ण संविधान सभा के समक्ष रखा गया तोसभा के कई सदस्यों ने इसका विरोध इस आधार पर किया कि यह गैर-हिंदी भाषी आबादी के लिये अनुचित है, क्योंकि गैर-हिंदी पृष्ठभूमि कि वजह से वे लोग रोज़गार के अवसरों, शिक्षा और सार्वजनिक सेवाओं को यथोचित रूप में प्राप्त नहीं कर पाएँगे।
- क्षेत्रीय भाषाओं को शामिल करने की माँग: हिंदी भाषा शामिल करने तथा इसके विरोध में कई तर्क दिये गए। संविधान सभा के कुछ सदस्यों जैसे एल.के.मित्रा. और एन.जी.अय्यंगर आदि ने माँग की कि क्षेत्रीय भाषाओं को भी मान्यता दी जानी चाहिये (राज्य स्तर पर) और चुनी हुई राष्ट्रीय भाषा को एक मात्र विशेष भाषा नहीं बना दिया जाना चाहिये। लोकमान्य तिलक, गांधीजी, सी. राजगोपालाचारी, सुभाष बोस और सरदार पटेल आदि इस बात के पक्षधर थे कि पूरे भारत में बिना किसी अपवाद के हिंदी का उपयोग किया जाना चाहिये और राज्यों को भी हिंदी के उपयोग का सहारा लेना चाहिये क्योंकि इससे एकीकरण को बढ़ावा मिलेगा।
- विधानसभा में दो समूह: पूरी संविधान सभा दो समूहों में विभाजित हो गई थी, एक जो हिंदी का समर्थन करते थे और वह चाहते थे कि हिंदी को आधिकारिक भाषा बना दिया जाए और दूसरे जो हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाये जाने के पक्ष में नहीं थे।
- अम्बेडकर के विचार: कई भाषाओं को आधिकारिक भाषाओं के रूप में प्रस्तुत करना सम्भव नहीं था, इस परिप्रेक्ष्य में डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने यह भी कहा था कि ”एक भाषा लोगों को एकजुट कर सकती है। दो भाषाएं लोगों को निश्चित रूप से विभाजित कर देंगी। चूँकि भारत कि संस्कृति भाषा द्वारा संरक्षित है तो सभी भारतीय अगर एक सर्वमान्य संस्कृति को विकसित करना चाहते हैं, तो यह सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि वे हिंदी को अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाएँ।”
- मुंशी–अय्यंगर सूत्र: अंततः, जब संविधान सभा कि एकता भंग होने के कगार पर थी, तब मुंशी–अय्यंगर सूत्र नामक समझौता बिना किसी विरोध के अपनाया गया। यह एक प्रकार का अपूर्ण समझौता ही था क्योंकि किसी भी समूह को वह नहीं मिला, जो वह चाहता था। इस सूत्र के अनुसार, अंग्रेज़ी को पंद्रह वर्षों की अवधि के लिये हिंदी के साथ-साथ भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में जारी रखा जाएगा, लेकिन इस सीमा का विस्तार संसद द्वारा कभी भी किया जा सकता है।यह 15 वर्षों कि अवधि जब समाप्त होने वाली थी तो गैर-हिंदी भाषी राज्यों में प्रदर्शनों को रोकने के लिये ‘आधिकारिक भाषा अधिनियम, 1963 ‘नाम से एक क़ानून लाया गया लेकिन अधिनियम के प्रावधान प्रदर्शनकारियों के विचारों को संतुष्ट नहीं कर सके।
- लाल बहादुर शास्त्री नीति: प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री ने गैर-हिंदी समूहों की राय पर कभी भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया। उन्होंने गैर-हिंदी समूहों की आशंकाओं को प्रभावी ढंग से शांत करने(कि हिंदी एकमात्र आधिकारिक भाषा बन जाएगी) की बजाय,घोषित किया कि वे लोक सेवा कि परीक्षाओं में हिंदी को वैकल्पिक माध्यम बनाने पर विचार कर रहे हैं, जिसका सीधा अर्थ यह था कि गैर-हिंदी भाषी छात्र हालाँकि इन परीक्षाओं में भाग ले सकेंगे लेकिन हिंदी भाषी छात्रों को इस वजह से अतिरिक्त लाभ ज़रूर मिलेगा।। इससे गैर-हिंदी समूहों का रोष बढ़ गया तथा वे और अधिक हिंदी विरोधी हो गए और बाद में उन्होंने ‘हिंदी नेवर, अंग्रेज़ी एवर’ के नारे के साथ इसका विरोध भी किया। इस प्रकार लाल बहादुर शास्त्री ने हिंदी के खिलाफ गैर-हिंदी समूहों के धधकते आंदोलन को मात्र हवा ही दी इसके लिये कुछ कारगर कदम नहीं उठाए।
- आधिकारिक भाषाओं में संशोधन अधिनियम: आधिकारिक भाषा अधिनियम को अंततः वर्ष1967 में इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा संशोधित किया गया था,जिसके द्वारा देश की आधिकारिक भाषाओं के रूप में अंग्रेज़ी और हिंदी के अनिश्चित कालीन उपयोग को अधिनियमित कर दिया गया।
हिंदी से जुड़ी विडंबना:
- भाषा किसी भी समुदाय की पहचान और उसके सामाजिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। भारत के औपनिवेशिक इतिहास केबाद से ही देश कि लगभग सभी प्रमुख भाषाएं अपनी वैधानिक जगह के लिये “वैश्विक” भाषा अंग्रेज़ी के साथ लगातार जूझती आई हैं। मातृभाषाओं की प्रासंगिकता और भाषाई वर्चस्व का सवाल लगातार विवादों में रहा है। दैनिक जीवन के अनेक ऐसे सवाल हैं जो भाषाओँ कि महत्ता दर्शाते हैं-
- हम किस भाषा में सोचते और सपने देखते हैं?
- क्या हम खुद को वास्तव में द्विभाषी या बहुभाषी भी कह सकते हैं?
- हममें से कितने लोग अपनी मातृभाषाओं में सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं?
- यद्यपि स्कूल और उच्च शिक्षा मेंशिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं का उपयोग स्वतंत्रता-पूर्व काल से ही किया जाता रहा है, लेकिन विचारणीय बात यह है कि अंग्रेज़ी में अध्ययन करने के इच्छुक लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसके आलावा अंग्रेज़ी भाषा द्वारा शासित मोनोलिंगुअल (एक भाषी) शिक्षण संस्थानों ने इस विभेद को और ज़्यादा बढ़ा दिया है और एक ऐसे समाज की आधारशिला रख रहा है, जो किसी भी दृष्टि से संवेदनशील या न्यायसंगत नहीं है।
- अन्य सभी मातृ भाषाओं पर अंग्रेज़ी के प्रभुत्व के हिसाब से ही छात्रों की स्थिति और पहचान आदि को जोड़ा जा रहा है।विभिन्न मातृ भाषाओं को बोलने वाले छात्र एक शैक्षिक संस्थान में अध्ययन करने के लिये एक साथ आते हैं, जहाँ वे एक दूसरे के साथ स्कूल और उच्च शिक्षा स्तर पर किसी भी कठिनाइयों के बिना बातचीत करते हैं। फिर भी उन्हें मात्र अंग्रेज़ी के द्वारा ही शिक्षा प्रदान की जा रही है, जिससे सभी छात्र आसानी के साथ नहीं जुड़ पाते। इस पूरी प्रक्रिया से छात्रों के बीच मातृ भाषाओं के प्रति अज्ञानता और आपस में विभेद की भावना पैदा हुई है।
आगे की राह:
- अंग्रेज़ी का ज्ञान युवाओं को अच्छी नौकरी पाने में बहुत मदद करता है, लेकिन केवल अंग्रेज़ी का ज्ञान ही सार्थक नहीं है, अन्य सभी चीज़ों को समझने और मौलिक जानकारी हासिल करने के लिये मातृभाषा का कुशल ज्ञान भी ज़रूरी है अधिकांश भारतीय स्कूलों में इस्तेमाल की जाने वाली अंग्रेज़ी बहुत ही कृत्रिम किस्म कि होती है, जो मौलिकता से बहुत दूर होती है।
- सरकार को लोगों की आकांक्षाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिये और इच्छा के विरुद्ध उन पर किसी भाषा का बोझ ज़बरदस्ती नहीं डालना चाहिये। भाषाई अल्पसंख्यकों और अल्पसंख्यक भाषाओं की रक्षा के लिये समुचित विधायी उपबंध किये जाने चाहियें।
- हमें तीन-भाषा-सूत्र का पालन करने की आवश्यकता है और सभी भाषाओं को बड़े पैमाने पर विकसित करने की भी आवश्यकता है।
- भाषा को बढ़ावा देने के लिये प्रौद्योगिकी और नए संसाधनों का उपयोग करने की आवश्यकता है और बड़े पैमाने पर नागरिकों को सभी भाषाओं के प्रति सहिष्णु और जागरूक करने कि भी आवश्यकता है।
- सरकार की एक भारत-श्रेष्ठ भारत जैसी पहल को जितना हो सके उतना बढ़ावा दिये जाने की आवश्यकता है।
- निम्न बातों पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है-
- भाषा के शिक्षकों के प्रशिक्षण और उनकी भर्ती पर।
- भाषा और साहित्य पर गुणवत्ता कार्यक्रमों का विकास।
- भाषाओं पर विस्तृत शोध।
GS-3 Mains
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–3 : विषय – सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष, कम्प्यूटर, रोबोटिक्स, नैनो–टैक्नोलॉजी, बायो–टैक्नोलॉजी और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों से सम्बंधित विषयों के सम्बंध में जागरूकता।
विषय–महासागरीय सेवाओं से जुड़ी प्रौद्योगिकी व ओ–स्मार्ट योजना
चर्चा में क्यों?
- केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने हाल ही में ओ-स्मार्ट (O-SMART) योजना की प्रगति के बारे में जानकारी दी है।
- ध्यातव्य है कि भारत का महत्त्वाकांक्षी ‘डीप ओशन मिशन’ ओ-स्मार्ट पहल के तहत ही एक छाता योजना (Umbrella Scheme) है।
O-स्मार्ट योजना
- O-स्मार्ट योजना के तहत प्रदान की जाने वाली सेवाएँ तटीय और महासागरीय क्षेत्रों,जैसे- मत्स्य पालन,अपतटीय उद्योग,तटीय राज्यों, रक्षा, नौवहन, बंदरगाहों आदि में कई उपयोगकर्ता समुदायों को आर्थिक लाभ प्रदान करेंगी।
- यह पहल सतत विकास लक्ष्य(SDG)14 से सम्बंधित मुद्दों के समाधान में सहायक होगी। ध्यातव्य है कि SDG 14 का उद्देश्य सतत विकास के लिये महासागरों एवं समुद्री संसाधनों के उपयोग का संरक्षण करना है।
- यह ब्लू इकोनॉमी के विभिन्न पहलुओं के कार्यान्वयन के लिये आवश्यक वैज्ञानिक और तकनीकी पृष्ठभूमि भी प्रदान करती है।
- अत्याधुनिक पूर्व चेतावनी प्रणाली या स्टेट ऑफ आर्ट अर्ली वार्निंग सिस्टम योजना सुनामी और तूफान की घटनाओं जैसी समुद्री आपदाओं से प्रभावी ढंग से निपटने में सहायक होगी।
- विकसित की जा रही तकनीकों से भारत के चारों ओर के समुद्रों में उपस्थित जीवित और निर्जीव दोनों प्रकार के संसाधनों के दोहन में मदद मिलेगी।
- अनुसंधानिक जहाज़ों का एक बेड़ा, जैसे- प्रौद्योगिकी प्रदर्शन पोत सागरनिधि,समुद्र विज्ञान अनुसंधान पोत सागरकन्या,मत्स्य और समुद्र विज्ञान अनुसंधान पोत सागरसम्पदा और तटीय अनुसंधान पोत सागरपुरी आदि को भी आवश्यक अनुसंधान सहायता प्रदान करने के लिये अधिगृहीत किया गया है।
O-स्मार्ट योजना के उद्देश्य:
- भारतीय विशेष आर्थिक क्षेत्र (ई.ई.जेड.) में मरीन लिविंग रिसोर्सेज और भौतिक पर्यावरण के साथ उनके सम्बंधों के बारे में जानकारी प्राप्त करना और नियमित रूप से अपडेट करना।
- समय-समय पर भारत के तटीय जल सम्पदा की गुणवत्ता के मूल्यांकन के लिये समुद्री जल प्रदूषकों के स्तर की निगरानी करना एवं प्राकृतिक और मानवजनित गतिविधियों के कारण तटीय क्षरण के आकलन के लिये तटरेखा परिवर्तन मानचित्र विकसित करना।
- भारत में समुद्रों से वास्तविक समय के आँकड़ों के अधिग्रहण के लिये अत्याधुनिक महासागरीय अवलोकन प्रणालियों की एक विस्तृत श्रृंखला विकसित करना।
- सामयिक लाभों के लिये महासागर की उपयोगकर्ता-उन्मुख जानकारी, सलाह, चेतावनी, आँकड़े और आँकड़ों से जुड़े उत्पादों का एक निकाय बनाना और प्रसारित करना।
- समुद्र के पूर्वानुमान और पुनर्विश्लेषण प्रणाली के लिये उच्च रिज़ॉल्यूशन मॉडल विकसित करना।
- तटीय अनुसंधान के लिये उपग्रहों से प्राप्त आँकड़ों के सत्यापन के लिये एल्गोरिदम विकसित करना और तटीय अनुसंधान में परिवर्तन की निगरानी करना।
- तटीय प्रदूषण की निगरानी, पानी के नीचे के विभिन्न घटकों के परीक्षण और उनसे जुड़ी प्रौद्योगिकियों के प्रदर्शन के लिये 2 नए तटीय अनुसंधान पोतों (Coastal Research Vessels-CRV) का अधिग्रहण करना।
- मध्य हिंद महासागर बेसिन में संयुक्त राष्ट्र द्वारा भारत को आवंटित किये गए 75000 वर्ग किमी.के क्षेत्र में 5500 मीटर की पानी की गहराई से पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स (एम.पी.एन.) की खोज की दिशा में प्रयास करना।
- अंतर्राष्ट्रीय समुद्री जल प्राधिकरण (International Seabed Authority) एवं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय जलीय क्षेत्र में भारत को आवंटित किये गए 10000 वर्ग किमी.के क्षेत्र में रोड्रिग्स ट्रिपल जंक्शन के पास बहुरूपदर्शक सल्फाइड की खोज की दिशा में प्रयास करना।
- वैज्ञानिक आँकड़ों द्वारा समर्थित विशेष आर्थिक क्षेत्र (Exclusive Economic Zone) के स्थलाकृतिक सर्वेक्षण द्वारा महाद्वीपीय शेल्फ पर भारत के दावे का प्रस्तुतीकरण करना।
नीली अर्थ व्यवस्था:
- नीली अर्थव्यवस्था में वह आर्थिक गतिविधियाँ शामिल हैं, जिनमें समुद्र के संसाधनों का उपयोग इस तरह किया जाता है कि उससे समुद्री पर्यावरण व्यवस्था को कोई नुकसान ना हो।
- इसमें मत्स्य कृषि, जलीय कृषि, मरीन जैव–प्रौद्योगिकी एवं जैव सम्भावना(Marine Biotechnology and Bioprospecting), अलवणीकरण के माध्यम से ताज़े पानी की प्राप्ति, नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन, मेरीटाइम परिवहन, बंदरगाह सेवाएँ व पर्यटन आदि शामिल हैं। इसके अलावा, जैव विविधता की रक्षा और तटीय क्षेत्रों का विकास व रक्षा भी इसमें शामिल हैं।
- नीली अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि व रोज़गार के अवसर में तेज़ी लाने की क्षमता है। यह नई औषधियों,कीमती रसायनों और प्रोटीनयुक्त खाद्य-पदार्थों का पता लगाने में सहायक हो सकती है, साथ ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की जानकारी भी इसके द्वारा प्राप्त होती है।
आगे की राह :
- महासागर मानव के लिये अनन्य सम्पदा के भंडार हैं, जिनका उपयोग मानव प्राचीन समय से ही करता आया है। वर्तमान में भी वैश्विक स्तर पर विभिन्न देश महासागरीय संसाधनों का उपयोग अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिये कर रहे हैं।
- भारत ने भी विगत कुछ समय से नीली अर्थव्यवस्था की अवधारणा पर विशेष बल दिया है,जिससे महासागरीय संसाधनों का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जा सके। भारत की भौगोलिक अवस्थिति इस अर्थव्यवस्था के विचार में सहायक की भूमिका निभाती है, किंतु इस क्षेत्र की चुनौतियों की वजह से बहुत समस्याएँ भी सामने आती रहती हैं।
- जलवायु परिवर्तन, महासागरीय संसाधनों का अनुचित दोहन तथा इस क्षेत्र में किसी प्रमुख विनियामक ढाँचे की कमी अभी भी प्रमुख चुनौती बने हुए हैं।
- भारत यदि अपनी कुशल अवसंरचना के विकास द्वारा महासागरीय संसाधनों के धारणीय उपयोग में सक्षम हो पाता है तो यह इस क्षेत्र में भारत की अर्थव्यवस्था को गति देने में प्रमुख भागीदार हो सकता है।
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–3 ; विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी– अंतरिक्ष)
विषय–भारत की अंतरिक्ष हथियार क्षमता : चुनौतियाँ तथा सुझाव
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में यूनाइटेड स्टेट्स स्पेस कमांड (USSC) द्वारा एक बयान जारी कर कहा गया है कि जुलाई 2020 में रूस द्वारा एक सह-कक्षीय (एक कक्षा से दूसरी कक्षा में) एंटी सैटेलाइट (ASAT) मिशन लांच किया गया। इसने अंतरिक्ष में हथियारों तथा काइनेटिक एनर्जी वेपन (KEWs) के महत्त्व के सम्बंध में दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है।
काइनेटिक एनर्जी वेपन (KEWs)
- काइनेटिक एनर्जी वेपन लेज़र, माइक्रोवेव और कण-पुंज (Particle Beam)सहित अत्यधिक केंद्रित उर्जा के साथ अपने लक्ष्य को क्षति पहुँचाने या उसकी संचार व्यवस्था को बाधित करने की क्षमता रखते हैं। इस तकनीक के सम्भावित अनुप्रयोगों में अंतरिक्षकर्मियों, मिसाइलों, सैटेलाइटों तथा अंतरिक्ष वाहनों को लक्षित किया जाता है।
भारत की अंतरिक्ष सैन्य क्षमता
- भारत विभिन्न अंतरिक्ष सम्बंधी संधियों का पक्षधर रहा है लेकिन महाशक्तियों तथा पड़ोसी देशों की अंतरिक्ष क्षमताओं के विकास को देखते हुए भारत द्वारा वर्ष 2019 में मिशन शक्ति के अंतर्गत ‘एंटी सैटेलाइट मिशन’ लांच किया गया। हालाँकि, भारत का यह कदम किसी राष्ट्र के विरुद्ध नहीं बल्कि आत्मरक्षा के लिये है।
भारत के लिये चुनौतियाँ :
- पाकिस्तान और चीन की बढ़ती घनिष्टता को देखते हुए ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि चीन काइनेटिक एनर्जी वेपन विकसित करने के साथ पाकिस्तान को भी यह तकनीक प्रदान कर सकता है, जिससे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है।
- चीन के पास भारत की नौवहन प्रणाली (IRNSS) को नष्ट करने की क्षमता है, जिससे भारत की संचार प्रणाली बाधित की जा सकती है।
- ध्यातव्य है कि भारत एक विकासशील देश है, जहाँ अन्य महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ गरीबी, बेरोज़गारी और कुपोषण भी विद्यमान हैं। इसलिये इन चुनौतियों को देखते हुए भारत का अंतरिक्ष क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी बने रहना एक बड़ी समस्या है।
- अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी उद्यमियों एवं स्टार्ट-अप्स को पर्याप्त रूप में प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, जिससे निजी क्षेत्र की प्रतिभाओं और क्षमताओं का लाभ नहीं मिल पाता है।
- वर्तमान में भारत बड़े स्तर पर अंतरिक्ष उपकरणों का आयात करता है, जिससे भारत की अंतरिक्ष परियोजनाओं की लागत में वृद्धि होती है।
- यद्यपि अंतरिक्ष में काफी सैन्य सैटेलाइट तैनात हैं, जिनमें अमेरिका, रूस तथा चीन प्रथम पंक्ति में हैं, लेकिन भारत की अंतरिक्ष में सैन्य स्थिति अभी संतोषजनक नहीं है।
- अंतरिक्ष को युद्ध क्षेत्र बनाने के लिये विकसित देशों के प्रयास अनिवार्य रूप से अंतरिक्ष के परमाणुकरण की ओर जाएँगे।
आगे की राह
- भारत को रूस के इस प्रयास को गम्भीरता से लेना चाहिये तथा अपनी अंतरिक्ष सैन्य क्षमता में वृद्धि हेतु गम्भीरता से कार्य करना चाहिये।
- भारत ने वर्ष 2019 में धरती से अपने ही उपग्रह को नष्ट करने का सफल परीक्षण किया था। लेकिन भविष्य की चुनौतियों तथा पड़ोसी देशों की क्षमताओं को देखते हुए भारत को काइनेटिक एनर्जी वेपन त्रय (KEWs Triad) हासिल करने पर ज़ोर देना चाहिये।
- भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र के लिये अधिक बजट आवंटित करने की आवश्यकता है। साथ ही इसरो और डी.आर.डी.ओ. जैसी संस्थाओं को अधिक वित्त उपलब्ध करवाया जाना चाहिये।
§ उच्च भूमि का मूल्य युद्ध के सबसे पुराने और सबसे स्थाई सिद्धांतों में से एक है। अंतरिक्ष क्षेत्र इन सभी विशेषताओं को समाहित करता है। इसलिये भारत द्वारा अपनी सुरक्षा के लिये एक सैन्य अंतरिक्ष बल का संचालन किया जाना चाहिये। - रूस की इस अंतरिक्षीय गतिविधि को भारत को अपनी अंतरिक्ष क्षमता में वृद्धि के एक अवसर के रूप में देखना चाहिये, जिससे हमें एक अंतरिक्ष सैन्य शक्ति बनने तथा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन का दबदबा कम करने में सहायता मिलेगी। दूसरी तरफ भारत अगर इस मौके को गँवाता है तो निश्चित रूप से चीन का वर्चस्व स्थापित होगा।
निष्कर्ष
- अंतरिक्ष एक ग्लोबल कॉमन्स (इसके अंतर्गत पृथ्वी के वैश्विक प्राकृतिक संसाधन जैसे उच्च महासागर, वायुमंडल, बाहरी क्षेत्र और विशेष रूप से अंटार्कटिका को शामिल किया जाता है) है, अगर इनका उपयोग शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिये नहीं किया गया तो अंतरिक्ष हथियारों की दौड़ सम्पूर्ण मानवता को खतरे में डाल देगी।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–3: संचार नेटवर्क के माध्यम से आंतरिक सुरक्षा को चुनौती, आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों में मीडिया और सामाजिक नेटवर्किंग साइटों की भूमिका)
विषय–ऑनलाइन आंदोलन : बढ़ता प्रभाव तथा चुनौतियाँ
चर्चा में क्यों ?
- कोविड–19 महामारीके दौर ने ऑनलाइन आंदोलनों के महत्त्व को अत्यधिक बढ़ा दिया है। इस महामारी के दौरान भारत में विरोध प्रदर्शन लगभग पूरी तरह से ऑनलाइन हो गया है।
भूमिका
- सोशल मीडिया तथा ई-मेल जैसी इलेक्ट्रॉनिक तकनीकों के माध्यम से नागरिक आंदोलनों को तीव्रता प्रदान करने तथा इसे अतिरिक्त रूप से प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाता है। यह एक संगठित सार्वजनिक प्रयास है, जिसमें किसी विशिष्ट मुद्दे पर डिजिटल मीडिया की सहायता से नागरिकों का समर्थन प्राप्त किया जाता है।
- सोशल मीडिया तीन प्रमुख तरीकों से ऑनलाइन सक्रियता (Online Activism) में वृद्धि करता है।
- पहला, यह लोगों की सामाजिक समस्याओं से सम्बंधित अनुभव और राय व्यक्त करने का मंच प्रदान करता है।
- दूसरा, ऑनलाइन असामाजिक तत्त्वों द्वारा प्रसारित नकारात्मक प्रतिक्रियाओं को चुनौती देने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
- तीसरा, यह अपनी विचारधाराओं से अलग लोगों के साथ भी सम्बंधित मुद्दों की वास्तविकताओं को साझा करने का भी अवसर देता है।
ऑनलाइन आंदोलनों के लाभ
- जो लोग प्रदर्शनों में शामिल नहीं हो सकते हैं, ये उन्हें ऑनलाइन प्लेटफार्म के ज़रिये अपनी आवाज़ को बुलंद करने और समर्थन प्राप्त करने में सहायता करते हैं।
- ये लोकतंत्र और कल्याणकारी शासन चाहने वाले समुदाय या देश के लिये एक महत्त्वपूर्ण मंच प्रदान करते हैं।
- ये राजनीति के विकेंद्रीकरण में अत्यंत सहायक हैं। इनमें एक व्यापक जनसमूह की सहभागिता सुनिश्चित हो पाती है।
- ये सरकार नियंत्रित पारम्परिक मीडिया द्वारा अपने पक्ष में प्रसारित सूचनाओं को प्रमाणिकता प्रदान करने तथा विभिन्न वर्गों की आवाज़ को बुलंद करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- ऑनलाइन आंदोलन युवा पीढ़ी को सामाजिक मुद्दों के सम्बंध में अधिक सहभागिता प्रदान करने के साथ-साथ उन्हें शिक्षित करने तथा उनमें संचार और तकनीकी कौशल का विकास करने में भी सहायता करते हैं।
ऑनलाइन आंदोलनों की चुनौतियाँ
- ऑनलाइन आंदोलनों की अवधि बहुत छोटी होती है। इस प्रकार के आंदोलनों की शुरुआत जिस तीव्रता के साथ होती है उसी तीव्रता के साथ ये समाप्त भी हो जाते हैं, जिससे लोगों पर इन आंदोलनों का प्रभाव सीमित समय के लिये ही हो पाता है।
- इन आंदोलनों में भाग लेने वाले लोग कभी-कभी गैर-ज़िम्मेदाराना रूप से अपना मत प्रकट करते हैं, जिससे किसी मुद्दे या आँकड़े की गुणवत्ता तथा विश्वसनीयता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा आंदोलन अपने मूल उद्देश्य से ही भटक जाते हैं।
- ऑनलाइन माध्यमों में अफवाहों तथा अविश्वसनीय जानकारी का प्रसार तीव्रता से होता है, जिससे लोगों में भ्रम तथा असमंजस की स्थिति उत्पन्न होती है तथा गलत जानकारी के प्रसार से हिंसक गतिविधियों को भी बढ़ावा मिलता है।
- ऑनलाइन माध्यमों के गलत हाथों में पड़ने से इनका दुरूपयोग भी व्यापक स्तर पर किया जा सकता है, जिससे किसी भी राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है।
- ऑनलाइन आंदोलन लोगों को तीव्रता से तथा व्यापक स्तर पर जोड़ते हैं लेकिन सीमित भौतिक प्रयास के चलते लोगों का केवल प्रतीकात्मक समर्थन मिल पाता है। अल्पकालिक ध्यानाकर्षण के अलावा इन आंदोलनों का प्रभाव लोगों पर गहराई से नहीं पड़ता है।
- ऑनलाइन माध्यम उस क्षेत्र, समुदाय या देश के लिये उपयोगी नहीं हैं, जहाँ इंटरनेट की पहुँच तथा डिजिटल साक्षरता का अभाव है।
- इंटरनेट के अस्थिर स्वभाव तथा सोशल मीडिया पर प्रामाणिक स्रोतों के अभाव के चलते इन आंदोलनों की विश्वसनीयता तथा इनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह है।
- इन आंदोलनों के कुछ मुद्दे या विषय सम्बंधित क्षेत्र या देश की सरकार की आलोचना के रूप में हो सकते हैं, जिसकी प्रतिक्रिया में सम्बंधित सरकार इंटरनेट सेंसरशिप जैसे कदम उठा सकती है।
सुधार हेतु सुझाव
- वर्तमान समय में अधिकांश युवा आबादी इंटरनेट से जुड़ी हुई है तथा टेक्नो फ्रेंडली है, जिसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स से व्यापक स्तर पर जोड़कर व्यापक परिवर्तन लाया जा सकता है।
- अफवाहों पर प्रभावी नियंत्रण रखते हुए ऑनलाइन आंदोलनों को सही दिशा की ओर उन्मुख किया जाना चाहिये।
- ऑनलाइन आंदोलनों के लिये सोशल मीडिया का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है|लेकिन इतने विस्तृत मंच पर लोगों को लामबंद करने का मानवीय प्रयास तथा इन लोगों को अपने लाभ के लिये उपयोग करने की सोच से भी सतर्क रहने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
- ऑनलाइन आंदोलन और सोशल मीडिया की ताकत एवं प्रभाव भारत के संदर्भ में विशेष रूप से दिखाई पड़ता है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह तर्क भी विचारणीय है कि ऑनलाइन सहमति और असहमति वास्तव में धरातल पर उपयोगी है या नहीं।
- सुविधापूर्ण एवं आलस्यपूर्ण प्रतिक्रिया जैसी कुछ आलोचनाओं के बावजूद ऑनलाइन आंदोलनों का लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इक्कीसवीं सदी में ये आंदोलन स्वयंसिद्ध रूप से स्थापित हो चुके हैं।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : विभिन्न सुरक्षा बल और संस्थाएँ तथा उनके अधिदेश)
विषय–उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल अधिनियम : आवश्यकता, महत्त्व और चिंताएँ
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, उत्तर प्रदेश सरकार ने‘उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल अधिनियम’ (Uttar Pradesh Special Security Force Act: UPSSF) से सम्बंधित अधिसूचना जारी की है।
पृष्ठभूमि
- 31 अगस्त को अधिसूचित किये गए इस अधिनियम केकुछ प्रावधानों, जैसे– ‘बिना वारंट’ या ‘बिना मजिस्ट्रेट के आदेश’ के गिरफ्तारी की अनुमति को लेकर विवाद है। हालाँकि, उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि यह सुरक्षा बल केंद्र सरकार के केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल ( Central Industrial Security Force: CISF) और ओडिशा व महाराष्ट्र जैसे राज्यों के विशेष बलों से अलग नहीं है। ऐसी स्थिति में उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल अधिनियम, 2020 के प्रावधानों की तुलना केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल अधिनियम,1968 और महाराष्ट्र राज्य सुरक्षा निगम अधिनियम, 2010 से करना आवश्यक है।
उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल : पृष्ठभूमि और स्थापना
- उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा महत्त्वपूर्ण संस्थानों और व्यक्तियों की सुरक्षा के लिये CISF जैसे सुरक्षा बल के तर्ज़ पर जून 2020 में इसकी घोषणा की गई।
- प्रस्तावित बल की परिकल्पना एक ‘उच्च–स्तरीय कौशल से युक्त पेशेवर’ के रूप में की गई थी, जो प्रांतीय सशस्त्र पुलिस दल ( Provincial Armed Constabulary: PAC) पर पड़ने वाले बोझ को कम करेगा। इससे PAC कानून और व्यवस्था पर ध्यान केंद्रित कर सकती है।
- जुलाई में राज्य मंत्रिमंडल ने पहले चरण में लगभग 9,900 कर्मियों वाली पाँच बटालियन के साथ, एक आठ-बटालियन वाले सुरक्षा बल के निर्माण को हरी झंडी दे दी।
- इस सुरक्षा बल की स्थापना की अधिसूचना 31 अगस्त को जारी की गई और इसके गठन को सुनिश्चित करने के लिये पुलिस महानिदेशक को तीन महीने की समय-सीमा दी गई है।
- UPSSF का नेतृत्व अतिरिक्त महानिदेशक स्तर के एक अधिकारी द्वारा किया जाएगा, जिसके बाद इसमें एक महानिरीक्षक, उप महानिरीक्षक, कमांडेंट और डिप्टी कमांडेंट शामिल होंगे।
ऐसे सुरक्षा बल की आवश्यकता का कारण
- UPSSF अधिनियम के अनुसार, इस बल का गठन राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किसी निकाय या व्यक्ति या आवासीय परिसर को ‘बेहतर सुरक्षा’ प्रदान करने के लिये किया गया है।
- इसके अतिरिक्त, अदालतों सहित महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठान, प्रशासनिक कार्यालय, मंदिर, मेट्रो रेल, हवाई अड्डे, बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान व औद्योगिक उपक्रमों की सुरक्षा भी इसी बल के ज़िम्मे रहेगी।
- केंद्र और अन्य राज्यों की तरह, महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठानों और अधिसूचित व्यक्तियों की सुचारु और मज़बूत सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखना इस अधिनियम का उद्देश्य है, क्योंकि पूर्व में उत्तर प्रदेश में कोई विशेष सुरक्षा बल स्थापित नहीं किया गया था।
- अभी ऐसे स्थानों और व्यक्तियों की सुरक्षा का कार्य राज्य पुलिस और प्रांतीय सशस्त्र पुलिस बल द्वारा किया जा रहा है, जो इस कार्य के लिये विशेष रूप से प्रशिक्षित और कुशल नहीं हैं।
- साथ ही इसके गठन के लिये उच्च न्यायालय द्वारा उत्तर प्रदेश के सभी न्यायालय परिसरों में सुरक्षा की स्थिति के सम्बंध में स्वत: संज्ञान लेते हुए दिये गए एक निर्देश का भी हवाला दिया है।
सम्बंधित विवाद और आलोचना
- UPSSF अधिनियम की धारा 10 की उपधारा (1) (बिना वारंट गिरफ्तारी की शक्ति) के अनुसार, ‘यह बल किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकेगा जो उसे प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के दौरान कर्तव्यों का पालन करने से रोकता है, वहाँ हमला करने, हमला करने की धमकी देने, आपराधिक बल का प्रयोग करने की कोशिश करता है’।
- इसके लिये बल के सदस्यों को किसी मजिस्ट्रेट के वारंट की ज़रूरत नहीं होगी। संदेह के आधार पर बिना वारंट तलाशी भी ली जा सकेगी। हालाँकि, ऐसा करने के लिये इसके जवान के पास पुख्ता सुबूत होने चाहिये।
- हालाँकि, गिरफ्तारी के बाद वरिष्ठ अधिकारियों को जानकारी देनी होगी और गिरफ्तार व्यक्ति को थाने के हवाले करना होगा।
- इस बल को सुरक्षा के तहत परिसरों और अचल सम्पतियों से अतिक्रमण को हटाने का भी अधिकार होगा।
- पैसे देकर निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठान भी इसकी सेवाएँ ले सकेंगे और उन परिस्थितियों में भी पुलिस बल के ये असीमित अधिकार बने रहेंगे।
- हालाँकि, इस धारा के तहत जिस तरह से शक्तियों का प्रयोग किया जाएगा, वह ‘निर्धारित नियमों द्वारा शासित’ होगा। पुलिस महानिदेशक को रोडमैप तैयार करने और सम्बंधित नियमों को प्रस्तावित करने के लिये कहा गया है।
अन्य अधिनियमों से तुलना : समानता
- UPSSF अधिनियम की धारा 10 CISF अधिनियम 1968 की धारा 11 के समान है, जो ‘बिना वारंट के गिरफ्तारी की शक्ति’ देती है।
- महाराष्ट्र राज्य सुरक्षा निगम अधिनियम, 2010 में भी ‘बिना वारंट के गिरफ्तारी की शक्ति’ का प्रावधान है। हालाँकि, गिरफ्तारी की प्रक्रिया और शक्ति का प्रयोग सुरक्षा बलों द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के तहत किया जाएगा।
- UPSSF अधिनियम और CISF अधिनियम की तरह महाराष्ट्र अधिनियम में भी आवश्यक है कि किसी गिरफ्तार व्यक्ति को एक पुलिस अधिकारी या निकटतम पुलिस स्टेशन को सौंप दिया जाए।
- ओडिशा औद्योगिक सुरक्षा बल अधिनियम, 2012 ‘बिना वारंट के गिरफ्तारी की शक्ति’ को भी परिभाषित करता है। यह CISF और UPSSF अधिनियमों के समान है।
- इन अधिनियमों में न केवल गिरफ्तारी के सम्बंध में एक समान प्रावधान हैं, बल्कि ‘बिना वारंट के तलाशी’ के सम्बंध में भी एक समान प्रावधान हैं।
अन्य अधिनियमों से तुलना : असमानता
- यू.पी. का अधिनियम ‘बिना वारंट के गिरफ्तारी और तलाशी’ के प्रावधानों में दूसरों के समान है, परंतु सुरक्षा किये जाने वाले संस्थानों और बल के सदस्यों को प्राप्त संरक्षण के सम्बंध में कई विभिन्नताएँ हैं।
- CISF और ओडिशा औद्योगिक सुरक्षा बल ‘औद्योगिक उपक्रमों’ की सुरक्षा करने के लिये हैं। UPSSF का क्षेत्र काफी व्यापक है। यह न केवल एक निकाय को बल्कि व्यक्ति और ‘आवासीय परिसर’ को भी सुरक्षा प्रदान करेगा।
- महाराष्ट्र राज्य अधिनियम के अनुसार, महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठानों में ऐसे प्रतिष्ठानों को शामिल किया गया है, जिनके क्षतिग्रस्त करने या उनमें तोड़फोड़ करने से देश या राज्य की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा प्रभावित होती है।
- इसके विपरीत, UPSSF में ‘स्थापना’ की परिभाषा में प्रतिमा और स्मारक भी शामिल हैं। यू.पी. का अधिनियम ‘प्रतिष्ठान’ को सार्वजनिक और निजी दोनों भवनों के रूप में परिभाषित करता है।
UPSSF व ऐसे ही अन्य बलों के अधिकारों की तुलना
- इस बल का प्रत्येक सदस्य हमेशा ऑन ड्यूटी माना जाएगा और उसे प्रदेश में कहीं भी तैनाती दी जा सकती है। इस बल के किसी सदस्य द्वारा ड्यूटी के दौरान किये जाने वाले किसी भी कार्य को लेकर न्यायालय बिना सरकार की मंज़ूरी के उसके खिलाफ अपराध का संज्ञान नहीं ले पाएगा।
- CISF के मामले में, यदि कोई ‘मुकदमा या कार्यवाही’ बल के किसी भी सदस्य के खिलाफ लम्बित है, तो उसे यह अनुरोध करने का अवसर मिलता है कि उसकी कार्रवाई एक सक्षम अधिकारी के आदेश के तहत हुई थी। इस तरह की दलील उसे आदेश के निर्देशन के सम्बंध में साबित करनी होगी।
- ओडिशा औद्योगिक सुरक्षा बल अधिनियम, 2012 UPSSF के समान ही अपने सदस्यों को सुरक्षा प्रदान करता है।
- महाराष्ट्र राज्य सुरक्षा निगम अधिनियम के तहत, कोई भी सदस्य या अधिकारी कर्तव्यों के निर्वहन में अच्छी नियत से किये गए कार्यों के लिये किसी भी ‘मुकदमे या कार्यवाही’ में किसी भी आपराधिक या नागरिक कार्रवाई के लिये उत्तरदायी नहीं होता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)
विषय–सेबी द्वारा मल्टी कैप फंड सम्बंधी दिशा–निर्देश
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) द्वारा म्यूचुअल फंडों पर मल्टी कैप स्कीमों के शेयर बाज़ार में निवेश पर एक सीमा तय कर दी गई है।
सेबी द्वारा म्यूचुअल फंड को दिशा–निर्देश
- सेबी ने निर्देश दिया है कि मल्टी कैप स्कीमों में लार्ज, मिड और स्मॉल कैप कम्पनियों के इक्विटी और इक्विटी से सम्बंधित उपकरणों में न्यूनतम निवेश कुल सम्पत्ति का 25% होना चाहिये।
- इस प्रकार, अगर किसी फंड हाउस की मल्टी कैप स्कीम में 10,000 करोड़ रुपए का ए.यू.एम. (AUM- Assets Under Management) है, तो उसे तीनों श्रेणियों के शेयरों में कम-से -कम 2,500 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा।
- इससे पहले मल्टी कैप फंड के लिये ऐसा न्यूनतम निवेश दिशा-निर्देश (स्टॉक की श्रेणी में) नहीं था।
- आँकड़ों से पता चलता है कि कुछ योजनाओं में स्मॉल कैप कम्पनियों को आवंटन शून्य के आस-पास था और 35 में से 9 मल्टी कैप स्कीमों द्वारा स्मॉल कैप कम्पनियों में 5% से कम निवेश किया गया है।
म्यूचुअल फंड (Mutual Fund)
- म्यूचुअल फंड एक ऐसा ट्रस्ट है, जिसमें कई निवेशकों का पैसा एक जगह एकत्रित किया जाता है। इसके बाद इस फंड से बाज़ार में निवेश किया जाता है। म्यूचुअल फंड को परिसम्पत्ति प्रबंधन कम्पनियों (AMC) द्वारा प्रबंधित किया जाता है। आमतौर पर प्रत्येक AMC में अनेक म्यूचुअल फंड स्कीम होती हैं।
- यू.टी.आई. ए.एम.सी. (UTI AMC) भारत की सबसे पुरानी म्यूचुअल फंड कम्पनीहै। म्यूचुअल फंड में एक फंड प्रबंधक होता है जो फंड के निवेशों को निर्धारित करता है और लाभ तथा हानि का हिसाब रखता है।
मल्टी कैप फंड (Multicap Fund)
- ये विविध प्रकार के म्यूचुअल फंड हैं, जो विभिन्न बाज़ार पूंजीकरण वाली कम्पनियों के इक्विटी और इक्विटी सम्बंधित शेयरों के पोर्टफोलियो में अपने धन का निवेश करते हैं।
- बाज़ार पूंजीकरण (Market Capitalization)
- किसी भी कम्पनी की कुल वैल्यू ‘कैपिटलाइज़ेशन’ कहलाती है। कम्पनी के शेयरों की संख्या को उनके बाज़ार मूल्य से गुणन करने पर कैपिटलाइज़ेशन प्राप्त होता है।
- किसी कम्पनी में निवेश से पहले उस कम्पनी का कैपिटलाइज़ेशन देखा जाता है। लार्ज कैप, मिड कैप और स्मॉल कैप का निर्णय भी कैपिटलाइज़ेशन से होता है।
- दरअसल शेयर बाज़ार में कम्पनियों को उनके बाज़ार मूल्य के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। कम्पनी के बाज़ार पूंजीकरण का तात्पर्य शेयर बाज़ार द्वारा निर्धारित उस कम्पनी की वैल्यू से है।
लार्ज कैप, मिड कैप और स्मॉल कैप कम्पनियाँ
- सामान्यतया मार्केट कैप के लिये कोई निश्चित मापदंड नहीं होता है, परंतु लगभग 1,0000 करोड़ रुपए के बाज़ार पूंजीकरण वाली कम्पनियों को लार्ज कैप माना जाता है, जबकि इससे कम बाज़ार पूंजीकरण वाली कम्पनियाँ मिड और स्मॉल कैप होती हैं।
- सेबी की परिभाषा के अनुसार, पूर्ण बाज़ार पूंजीकरण के मामले में प्रथम 100 कम्पनियाँ लार्ज कैप हैं।
- 101 से 250 तक रैंक वाली कम्पनियाँ मिड कैप हैं। इसके बाद और आगे की कम्पनियाँ स्मॉल कैप कम्पनियों में आती हैं।
- इक्विटी योजनाओं के लिये निवेश के सम्बंध में एकरूपता सुनिश्चित करने के लिये यह वर्गीकरण किया गया है।
- म्यूचुअल फंड शीर्ष 100 लार्ज कैप पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और उनमें से कई निवेशकों को अच्छा रिटर्न दे रहें हैं।
म्यूचुअल फंड की चिंताएँ
- म्यूचुअल फंड्स को लार्ज–कैप शेयरों में निवेश करके अच्छा रिटर्न प्राप्त हो रहा था। इस कारण से लार्ज कैप शेयरों की तुलना में मिड और स्मॉल कैप शेयरों का प्रदर्शन खराब रहा है, अत: अब मिड और स्मॉल कैप शेयरों में निवेश को लेकर चिंता बढ़ गई है।
- विदेशी निवेशकों को ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया गया है और एफ.पी.आई. किसी भी स्टॉक में निवेश करने के लिये स्वतंत्र है। फंड मैनेजर यह भी चाहते हैं कि एफ.पी.आई. पर सेबी इसी तरह का नियंत्रण करे।
- एफ.पी.आई. ने जहाँ भारतीय इक्विटी में 9.33 लाख करोड़ रुपए का निवेश किया है, वहीं घरेलू म्यूचुअल फंड में इक्विटी निवेश 7.69 लाख करोड़ रुपए है।
- यह भी माना जा रहा है कि निवेशकों को इस निर्देश से लाभ प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि उनके रिटर्न में भी कमी आ सकती है या योजनाओं को अधिक जोखिम का सामना करना पड़ सकता है।
- मिड और स्मॉल कैप फंड मैनेजरों को सुविधा का उचित स्तर नहीं प्रदान करते हैं। इस कदम से केवल छोटे शेयरों और उनको फायदा होगा, जिन्होंने ऐसे शेयरों में निवेश कर रखा है।
- इसके अतिरिक्त, पर्याप्त स्टॉक की भी कमी है, जिसमें निवेशकों का पैसा निवेश किया जा सके। साथ ही अर्थव्यवस्था में गिरावट के समय ऐसा कदम उपयुक्त नहीं लगता है।
प्रभाव
- इस निर्णय से म्यूचुअल फंड्स की योजना पर प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि उन्हें अपने पोर्टफोलियो में पड़े लगभग 40,000 करोड़ रुपए के स्टॉक पर मंथन करना होगा।
- इस निर्देश से फंड हाउस अगले कुछ महीनों में पोर्टफोलियो में फेरबदल के लिये मजबूर होंगे, जिससे मल्टी कैप फंडों के लार्ज कैप कम्पनियों में अधिक निवेश आवंटन का मिड और स्मॉल कैप कम्पनियों में स्थानांतरण होगा।
- बड़े स्तर पर इस प्रकार के पुनर्संतुलन का परिणाम यह होगा कि लार्ज कैप कम्पनियों को मिलने वाले फंड का प्रवाह मिड कैप और स्मॉल कैप कम्पनियों की ओर होने लगेगा।
- इससे कुछ लार्ज कैप कम्पनियों के शेयर की कीमतों में गिरावट और मिड और स्मॉल कैप कम्पनियों के शेयर की कीमतों में वृद्धि होने की उम्मीद है। साथ ही कुछ अच्छी स्मॉल कैप कम्पनियों के शेयर की कीमतों में बड़ा उछाल आना सकारात्मक प्रभाव होगा।
- इस कदम से लार्ज कैप फंडों और मल्टी कैप फंडों के बीच स्पष्ट अंतर भी होगा, क्योंकि वर्तमान में मल्टी कैप फंड्स का अधिकांश भाग लार्ज कैप कम्पनियों में निवेश होता है।
- आँकड़ों से पता चलता है कि 35 में से 27 मल्टी कैप स्कीमों में निवेश का 60% से अधिक हिस्सा लार्ज कैप स्टॉक स्कीम का है।
आगे की राह
- चूँकि म्यूचुअल फंड को जनवरी 2021 तक यह सम्पूर्ण कवायद पूरी करनी है, इससे मिड कैप और स्मॉल कैप कम्पनियों के शेयर की कीमतों में उछाल देखने को मिलेगा। अब निवेश किये जाने वाले ऐसे शेयरों का पता लगाना थोड़ा मुश्किल है, जो अच्छा रीटर्न दे सकें। अत: निवेशक स्टॉक चुनने के लिये निष्क्रिय मोड का प्रयोग कर सकते हैं। वे म्यूचुअल फंड्स की अच्छे प्रदर्शन करने वाली मिड और स्मॉल कैप स्कीम में निवेश कर सकते हैं।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ; देशज रूप से प्रौद्योगिकी का विकास और नई प्रौद्योगिकी का विकास, अंतरिक्ष)
विषय–हाइपरसोनिक प्रौद्योगिकी प्रदर्शन वाहन : स्क्रैमजेट की क्षमता और महत्त्व
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में‘रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन’ (DRDO) ने ‘हाइपरसोनिक प्रौद्योगिकी प्रदर्शन वाहन’ (Hypersonic Technology Demonstrator Vehicle-HSTDV) का सफल परीक्षण किया।
पृष्ठभूमि
- डी.आर.डी.ओ. द्वारा यह परीक्षणओडिशा के व्हीलर द्वीप (डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वीप) स्थित प्रक्षेपण केंद्र से किया गया। इस वाहन में मानवरहित स्क्रैमजेट प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया गया है, जिसकी गति ध्वनि की गति से लगभग छह गुना तेज़ है। इस वाहन के प्रदर्शन के साथ ही भारत हाइपरसोनिक तकनीक विकसित करने वाला चौथा देश बन गया है। इससे पूर्व अमेरिका, रूस और चीन इस तकनीक को प्राप्त कर चुके हैं।
क्रिया विधि
- HSTDV क्रूज़ वाहन एक ठोस रॉकेट मोटर पर लगाया गया है, जो इसे आवश्यक ऊँचाई तक ले जाता है।
- एक बार जब यह कुछ मैक संख्या की गति प्राप्त कर लेता है, तो क्रूज़ वाहन को लॉन्च वाहन से अलग कर दिया जाता है। उसके बाद स्क्रैमजेट इंजन स्वचालित रूप से प्रज्वलित होता है।
- वर्तमान परीक्षण में ईंधन के रूप में हाइपरसोनिक दहन की प्रक्रिया लगातार जारी रही और क्रूज़ वाहन अपने वांछित उड़ान पथ पर 20 सेकंड तक मैक 6 की गति से उड़ता रहा।
- परीक्षण के मापदंडों की निगरानी कई ट्रैकिंग रडार, इलेक्ट्रो-ऑप्टिकल सिस्टम और टेलीमेट्री स्टेशनों द्वारा की गई। साथ ही हाइपरसोनिक वाहन के क्रूज़ चरण के दौरान प्रदर्शन की निगरानी बंगाल की खाड़ी से भी की गई।
हाइपरसोनिक प्रौद्योगिकी प्रदर्शन वाहन और स्क्रैमजेट इंजन
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- HSTDV हाइपरसोनिक गति पर एक मानव रहित स्क्रैमजेट प्रदर्शन विमान है।
- HSTDV स्वयं में एक हथियार नहीं है परंतु हाइपरसोनिक और लम्बी दूरी की क्रूज़ मिसाइलों के लिये एक वाहक वाहन के रूप में विकसित किया जा रहा है।
- ध्वनि की गति से पाँच गुना या अधिक गति को हाइपरसोनिक गति कहा जाता हैं। डी.आर.डी.ओ. ने जिस इकाई का परीक्षण किया है, वह ध्वनि की गति से छ: गुना या मैक 6 तक की गति प्राप्त कर सकती है, जो लगभग दो किलोमीटर प्रति सेकंड से अधिक है।
- इस परीक्षण में स्क्रैमजेट के ‘फ्यूल इंजेक्शन’ और ‘स्वत: दहन’ जैसी महत्त्वपूर्ण घटनाओं के प्रदर्शन ने तकनीकी परिपक्वता को प्रदर्शित किया।
- स्क्रैमजेट, जेट इंजनों की श्रेणी का एक प्रकार है। इसे ‘एयर ब्रीदिंग इंजन’ कहा जाता है। ध्यातव्य है कि ‘एयर ब्रीदिंग इंजन’ द्वारा ईंधन के दहन में वायुमंडलीय ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है। इसमें टर्बोजेट, टर्बोप्रॉप, रैमजेट और पल्स-जेट जैसे इंजन शामिल हैं। यह प्रणाली उपयोग में अन्य प्रणालियों की तुलना में हल्की, कुशल और लागत प्रभावी है।
- रैमजेट, ‘एयर ब्रीदिंग इंजन’ जेट इंजन का एक रूप है, जो बिना किसी घूर्णन कंप्रेसर (संपीडक) के आने वाली हवा को संपीडित करने के लिये वाहन की (आगे की) फॉरवर्ड मोशन या अग्र गति का उपयोग करता है।
- स्क्रैमजेट इंजन, रैमजेट इंजन का एक विकसित स्वरूप है, क्योंकि यह हाइपरसोनिक गति पर कुशलतापूर्वक संचालित होता है और सुपरसोनिक दहन की अनुमति देता है। इस प्रकार, इसे सुपरसोनिक दहन रैमजेट या स्क्रैमजेट के रूप में जाना जाता है।
गति सीमा | मैक संख्या |
सबसोनिक या उपध्वनिक | 0.8 से कम |
ट्रांसोनिक | 0.8 से 1.3 के मध्य |
सुपरसोनिक या पराध्वनिक | 1.3 से 5 के मध्य |
हाइपरसोनिक या अतिध्वनिक | 5 से 10 के मध्य |
उच्च-हाइपरसोनिक | 10 से 25 के मध्य |
- हालाँकि, यह तकनीक हाइपरसोनिक गति प्राप्त करने में मदद करती है परंतु इसकी कुछ खामियाँ है, जिसमें इसकी बहुत उच्च लागत और ‘थ्रस्ट–टू–वेट’ (Thrust-to-Weight) का उच्च अनुपात हैं । कोई इंजन जितना बल पैदा करता है, उसको ‘थ्रस्ट’ और वाहन के वज़न को ‘वेट’ कहते हैं।
प्रौद्योगिकी का विकासक्रम
- डी.आर.डी.ओ. ने 2010 के दशक की शुरुआत में इंजन के विकास पर कार्य शुरू किया था। इसरो ने भी इस प्रौद्योगिकी के विकास पर कार्य किया है और वर्ष 2016 में इस प्रणाली का एक सफल परीक्षण किया। डी.आर.डी.ओ. ने भी जून 2019 में इस प्रणाली का परीक्षण किया है।
- हाइपरसोनिक गति पर किसी सिस्टम को 25000C की सीमा तक के तापमान के साथ–साथ हवा की गति को भी सम्भालना पड़ता है जो कि इसके विकास की मुख्य चुनौतियों में से एक है।
- स्वदेशी रूप से विकसित स्क्रैमजेट प्रोपल्शन सिस्टम का उपयोग करना अपने-आप में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
परीक्षण का महत्त्व
- इस मिशन के साथ डी.आर.डी.ओ. ने अत्यधिक जटिल प्रौद्योगिकी क्षमता का प्रदर्शन किया है, जो उद्योगों के साथ साझेदारी में अगली पीढ़ी के हाइपरसोनिक वाहनों के लिये बिल्डिंग ब्लॉक के रूप में काम करेगा।
क्रूज़ मिसाइल
I. क्रूज़ मिसाइलों को सतह, समुद्र या हवा से प्रक्षेपित किया जा सकता है, जो सबसोनिक, सुपरसोनिक और हाइपरसोनिक गति से दूरी तय कर सकती हैं। II. पृथ्वी की सतह के समांतर चलने के कारण क्रूज़ मिसाइल को मिसाइल–रोधी प्रणाली द्वारा आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता है। इन मिसाइलों का प्रयोग भारी विस्फोटकों को लम्बी दूरी तक उच्च सटीकता से ले जाने के लिये किया जाता है। बैलिस्टिक मिसाइल I. सीधे हवा में प्रक्षेपित की जाने वाली बैलिस्टिक मिसाइल परवलयाकार पथ (Ballistic Trajectory) का अनुसरण करती है, जो गुरुत्वाकर्षण और सम्भवतः वायुमंडलीय घर्षण के प्रभाव में आगे बढ़ती है। II. वायुमंडल की ऊपरी परतों में पहुँचकर इनमें लगा हुआ वारहेड मिसाइल से अलग होकर पूर्व निर्धारित लक्ष्य की ओर गिरता है। अंतर–महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (Inter Continental Ballistic Missile- ICBM) I. अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल की मारक क्षमता न्यूनतम 5,500 किमी. तथा अधिकतम 7,000 से 16,000 किमी. तक होती है। II. रूस, अमेरिका, चीन और फ्रांस के साथ–साथ भारत व उत्तर कोरिया के पास ICBM क्षमता है। |
- यद्यपि इस प्रणाली का परीक्षण बहुत कम अवधि के लिये किया गया परंतु इसने वैज्ञानिकों को आगे के विकास के लिये डाटा पॉइंट्स का एक महत्त्वपूर्ण सेट प्रदान किया है।
- इस प्रौद्योगिकी के स्वदेशी विकास से हाइपरसोनिक वाहनों के साथ निर्मित प्रणालियों के विकास को भी बढ़ावा मिलेगा, जिसमें आक्रामक और रक्षात्मक हाइपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल सिस्टम के साथ-साथ अंतरिक्ष क्षेत्र भी शामिल है।
अनुप्रयोग व लाभ
- यह स्वदेशी तकनीक, ध्वनि की गति की छह गुना (Mach 6) गति से दूरी तय करने वाली मिसाइलों के विकास का मार्ग प्रशस्त करेगी।
- इस प्रौद्योगिकी का प्रयोग आने वाले समय में लम्बी दूरी वाली क्रूज़ मिसाइलों में किया जा सकेगा। साथ ही यह तकनीक कम लागत पर उपग्रहों के प्रक्षेपण में भी प्रयोग की जा सकती है।
- इसकी उच्च गति के कारण, अधिकांश रडार इसका पता लगाने में असमर्थ होंगे। यह अधिकांश मिसाइल रक्षा प्रणालियों को भेदने में भी सक्षम होगा।
- यह तकनीक कम लागत, उच्च दक्षता वाले पुन:प्रयोज्य उपग्रहों (Reusable Satellites) के विकास में सहायक होगी।
आगे की राह
- यह परीक्षण स्वदेशी रक्षा प्रौद्योगिकियों में एक विशाल छलांग और एक सशक्त तथा आत्मनिर्भर भारत के लिये मील का पत्थर है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह परीक्षण एक बड़ा कदम है परंतु अमेरिका, रूस और चीन जैसे देशों के प्रौद्योगिकी स्तर को प्राप्त करने के लिये कई अतिरिक्त परीक्षण की आवश्यकता होगी।
- हाइपरसोनिक मिसाइलों को ‘सैन्य खतरे का एक नया वर्ग’ कहा जा रहा है, क्योंकि ये चकमा देने और 5,000 किलोमीटर प्रति घंटे से अधिक गति से उड़ने में सक्षम हैं। हाइपरसोनिक मिसाइलों की गतिशीलता इसे मिसाइल रक्षा प्रणाली से बचने में सक्षम बनाती है और इसके प्रति किसी भी प्रतिक्रिया के लिये समय बहुत कम होता है।
- अत: भारत द्वारा ज़िम्मेदारी से आगे बढ़ते हुए कम लागत पर छोटे उपग्रहों के प्रक्षेपण सहित कई नागरिक अनुप्रयोगों के लिये HSTDV का उपयोग करना चाहिये।
PT Analysis
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(मुख्या परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : मुद्रा एवं बैंकिंग, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)
विषय–आर.बी.आई. द्वारा प्राथमिकता क्षेत्र ऋण मानदंडों में बदलाव
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (आर.बी.आई.) ने स्टार्ट-अप और कृषि सहित अन्य क्षेत्रों में वित्त पोषण बढ़ाने के उद्देश्य से प्राथमिकता क्षेत्र ऋण मानदंडों के लिये संशोधित दिशा-निर्देश जारी किये हैं।
प्राथमिकता क्षेत्र ऋण (Priority Sector Lending)
- पी.एस.एल. को रोजगार सृजन करने वाले प्रमुख क्षेत्रों, जैसे– कृषि और एम.एस.एम.ई. के साथ–साथ विशेष रूप से कमज़ोर वर्गों तक ऋण की पहुँच व ऋण का पर्याप्त प्रवाह सुनिश्चित करने के उद्देश्य से पेश किया गया था।
- वर्ष 2016 में प्राथमिकता क्षेत्र ऋण प्रमाणपत्र (PSL-Cs) को प्रारम्भ किया गया, जिसका उद्देश्य विभिन्न बैंकों को उनकी विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में तुलनात्मक लाभ का समर्थन करना था।
- प्राथमिकता क्षेत्र में निम्नलिखित श्रेणियाँ शामिल हैं-
- कृषि– कृषि ऋण, कृषि अवसंरचना और सहायक गतिविधियाँ
- सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम
- निर्यात ऋण, शिक्षा और आवास
- सामाजिक संरचना, नवीकरणीय ऊर्जा और अन्य।
संशोधन की आवश्यकता
- यह निर्णय प्राथमिकता क्षेत्र ऋण (PSL)दिशा-निर्देशों की व्यापक समीक्षा और सभी हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श के बाद लिया गया है।
- इसका उद्देश्य उभरती हुई राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के साथ संरेखित होना और समावेशी विकास पर गहन ध्यान केंद्रित करना है।
- इससे पूर्व पी.एस.एल. दिशा-निर्देशों की समीक्षा अंतिम बार अप्रैल 2015 में वाणिज्यिक बैंकों के लिये और मई 2018 में शहरी सहकारी बैंकों (यू.सी.बी.) के लिये की गई थी।
नए बदलाव
- प्राथमिकता क्षेत्र के तहत वित्त के लिये पात्र नई श्रेणियाँ निम्नानुसार हैं :
- स्टार्ट-अप को ₹50 करोड़ तक का बैंक वित्त
B.ग्रिड से जुड़े हुए कृषि पम्पों के सोलराइज़ेशन हेतु सौर ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना के लिये किसानों को ऋण
C. संपीडित बायोगैस (CBG) संयंत्र स्थापित करने के लिये किसानों को ऋण
- जहाँ प्राथमिकता क्षेत्र क्रेडिट प्रवाह तुलनात्मक रूप से कम है, उन ‘चिन्हित ज़िलों’में वृद्धिशील प्राथमिकता क्षेत्र क्रेडिट को अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है।
- ‘छोटे और सीमांत किसानों’ और ‘कमज़ोर वर्गों’ के लिये निर्धारित लक्ष्यों को चरणबद्ध तरीके से बढ़ाया जाना है। पूर्व-निर्धारित मूल्यों पर उपज के विपणन आश्वासन के साथ खेती करने वाले किसान उत्पादक संगठनों (एफ.पी.ओ.)/किसान उत्पादक कम्पनियों (एफ.पी.सी.) के लिये उच्चतर ऋण सीमा निर्दिष्ट की गई है।
- इसके अतिरिक्त नवीकरणीय ऊर्जा के लिये ऋण सीमा दोगुनी कर दी गई है। वाणिज्यिक बैंकों को संशोधित दिशानिर्देशों का पालन करने का निर्देश दिया गया है।
- साथ ही देश के स्वास्थ्य ढाँचे में सुधार के लिये स्वास्थ्य आधारभूत संरचना की क्रेडिट सीमा,जिसमें आयुष्मान भारत शामिल हैं, को भी दोगुना कर दिया गया है।
ज़िलेवार रैंकिंग
- प्राथमिकता क्षेत्र के लिये प्रति व्यक्ति क्रेडिट प्रवाह के आधार पर ज़िलों की रैंकिंग करने और तुलनात्मक रूप से कम क्रेडिट प्रवाह वाले ज़िलों के लिये एक प्रोत्साहन ढाँचा तैयार करने का निर्णय लिया गया है। साथ ही प्राथमिकता क्षेत्र ऋण के तुलनात्मक रूप से उच्च क्रेडिट प्रवाह वाले ज़िलोंको हतोत्साहित करने के लिये एक ढाँचा (Dis-incentive Framework) तैयार किया जाना है।
- इसके अनुसार वित्त वर्ष 2021-22 से उन चिन्हित ज़िलों में वृद्धिशील प्राथमिकता क्षेत्र क्रेडिट को अधिक महत्त्व (125%) दिया जाएगा, जहाँ क्रेडिट प्रवाह तुलनात्मक रूप से कम है (प्रति व्यक्ति पी.एस.एल. ₹6,000 से कम)।
- साथ ही उन चिन्हित ज़िलों में वृद्धिशील प्राथमिकता क्षेत्र क्रेडिट को कम महत्त्व (90%) दिया जाएगा, जहाँ क्रेडिट प्रवाह तुलनात्मक रूप से उच्चहै (प्रति व्यक्ति पी.एस.एल. ₹ 25,000 से अधिक)।
- दोनों श्रेणियों के ज़िलों की सूची भी उपलब्ध कराई गई है। यह सूची वित्त वर्ष 2023-24 तक की अवधि के लिये मान्य होगी और उसके बाद इसकी समीक्षा की जाएगी। इन दोनों सूचियों में उल्लिखित ज़िलों के अतिरिक्त अन्य ज़िलों में 100% का मौजूदा वेटेज जारी रहेगा।
महत्त्व और लाभ
- संशोधित दिशा-निर्देश क्रेडिट की कमी वाले क्षेत्रों में बेहतर क्रेडिट को सक्षम करेगा।यह छोटे और सीमांत किसानों तथा कमज़ोर वर्गों के लिये ऋण में वृद्धिके साथ नवीकरणीय ऊर्जा व स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे के लिये ऋण को बढ़ावा (BoostCredit) देगा।
- संशोधित दिशा-निर्देशों को प्राथमिकता क्षेत्र ऋण के प्रवाह में क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने के लिये तैयार किया गया है।
- आर.बी.आई. के नए दिशा-निर्देश विशिष्ट क्षेत्रों जैस– स्वच्छ ऊर्जा, कमज़ोर वर्गों, स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे और ऋण प्रवाह की कमी वाले भौगोलिक क्षेत्रों के लिये ऋण प्रवाह को प्रोत्साहित करेगा।
- इससे ज़िला स्तर पर प्राथमिकता क्षेत्र ऋण प्रवाह में क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने में मदद मिलेगी।
- इस तरह के उधार वित्त क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय देश के समग्रविकास में मददगार होते हैं। साथ ही इससे वित्तीय समावेशन में सहायता मिलती है।
- आर.बी.आई. के कदम से निम्न प्रति व्यक्ति पी.एस.एल. क्रेडिट प्रवाह वाले 184 ज़िलों को लाभ होगा। साथ ही इससे ग्रामीण क्षेत्र में उच्च ऋण प्रवाह से ग्रामीण खर्च में वृद्धि की उम्मीद है, जब जी.डी.पी. विकास दर में तीव्र गिरावट देखी जा रही है।
- एम.एस.एम.ई. को भारत में सबसे बड़े रोजगार सृजनकर्ता के साथ-साथ मध्यम वर्ग के विकास और आय के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है।प्राथमिकता क्षेत्र ऋण के अंतर्गत इस क्षेत्र पर जोर देने से अर्थव्यवस्था में गति आएगी।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 व 3 : प्रभावक समूह तथा शासन प्रणाली में उनकी भूमिका, पारदर्शिता एवं जवाबदेही और संस्थागत तथा अन्य उपाय, सूचना प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटर, आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों में मीडिया और सामाजिक नेटवर्किंग साइटों की भूमिका)
विषय–सोशल मीडिया मंच पर सामग्री नियमन से जुड़ी प्रक्रियाएँ और चिंताएँ
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया मंच फेसबुक ने भारत में कुछ सत्ताधारी दल से जुड़े ‘हेटस्पीच’ से सम्बंधित नियमों को लागू नहीं किया। इससे पूर्व भी कहा गया था कि सोशल मीडिया पर घृणास्पद भाषणों को हतोत्साहित करने के लिये उठाए गए कदम अपर्याप्त हैं और सरकारें इन मंचों पर सामग्री के नियमन और निर्णयन में दखल दे रही हैं।
मुद्दे की शुरुआत
- सोशल मीडिया मंचों, विशेषकर फेसबुक पर सामग्री नियमन के मुद्दे को उठाने वाला सर्वप्रथम देश जर्मनी था। वर्ष 2015 में जर्मनी ने सोशल मीडिया पर शरणार्थियों व प्रवासियों पर बढ़ते ज़ीनोफ़ोबिक हमलों पर चर्चा की थी। दूसरे देशों के लोगों के प्रति बुरे व्यवहार या पूर्वाग्रह की स्थिति को ज़ीनोफ़ोबिक (Xenophobic) कहा जाता है।
- वर्ष 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में फेसबुक ने कम्पनी के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने के बावजूद कुछ वीडियो को पोस्ट करने की अनुमति दी। साथ ही तर्क दिया कि यह सामग्री चुनावी वार्तालाप का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
- मई 2020 में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ विरोध प्रदर्शन के सम्बंध में ट्रम्प द्वारा किये गए एक पोस्ट को हटाने से इनकार के बाद वर्तमान अमेरिकी चुनाव में यह मुद्दा पुनः फलक पर आ गया।
- फेसबुक ने माना है कि वर्ष 2018 में म्यांमार में उसके मंच पर मानवाधिकारों के हनन को रोकने में वह विफल रहा था।
कुछ कानूनी प्रावधान
- वर्ष 2015 में ही जर्मनी में पहली बार किसी सोशल मीडिया के मुख्य कार्यकारी के खिलाफ जाँच शुरू की गई। जर्मनी ने वर्ष 2017 में हेट–स्पीच के खिलाफ एक कानून भी पारित किया।
- ऑस्ट्रेलिया में अब तकनीकी अधिकारियों को जेल हो सकती है, यदि वे अपने प्लेटफॉर्म से हिंसक वीडियो सामग्री को तुरंत नहीं हटाते हैं।
- फ्रांस ने भी सोशल मीडिया के माध्यम से किये जाने वाले प्रचार की सामग्री के लेखक और प्रचार के लिये दी गई धनराशि के प्रकाशन को आवश्यक कर दिया है।
- अधिकांश देशों में हेट–स्पीच या सोशल मीडिया पर सामग्री नियमन के लिये कोई विशेष कानून नहीं है। इसका नियमन और सम्बंधित आपराधिक कार्यवाहियाँ वर्तमान आई.टी. एक्ट और अपराध व दंड प्रक्रिया सहिंता के अनुसार की जाती है।
सोशल मीडिया पर सामग्री नियमन की कार्यप्रणाली
- फेसबुक सहित अन्य सोशल मीडिया मंचों पर कम्पनी के नियमों का उल्लंघन करने वाली अधिकांश सामग्री को एक एल्गोरिद्म द्वारा चिह्नित और फ़िल्टर किया जाता है। उपयोगकर्त्ता व्यक्तिगत रूप से भी आपतिजनक सामग्री के बारे में सूचित कर सकते हैं।
- फेसबुक की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2019 में कम्पनी ने हेट-स्पीच के लगभग 20 मिलियन पोस्ट को हटाया है। इनमें से लगभग तीन-चौथाई (16 मिलियन) सामग्री को उपयोगकर्त्ताओं द्वारा रिपोर्ट किये जाने से पूर्व एल्गोरिद्म के द्वारा ही चिह्नित कर लिया गया था। शेष 4 मिलियन आपत्तिजनक सामग्री को सामग्री नियामकों या फेसबुक के सामग्री संचालन टीमों के पास भेज दिया गया था। हालाँकि, यह संख्या फेसबुक पर पोस्ट होने वाली और आपत्तिजनक मानी जाने वाली सामग्रियों की तुलना में काफी कम है।
- यदि यह सामग्री फेसबुक की एक ‘रणनीतिक प्रतिक्रिया’ टीम के कर्मचारियों पास आती है तो वे अपनी विधिक टीमों जैसी अन्य स्थानीय टीमों से सम्पर्क करते हैं। अगर इन सामग्रियों को लेकर कुछ ऐसे विचारणीय और संवेदनशील जोखिम कारक (जैसे कि राजनीतिक जोखिम) हैं, तो प्रायः लोकनीति इन मुद्दों में शामिल होती है। यदि सामग्री को लेकर आंतरिक टीम में कुछ असहमति है तो इसको आगे भेज दिया जाता है।
- वैश्विक टीम द्वारा किसी मुद्दे पर अंतिम निर्णय लेने के बाद यदि कोई सामग्री एक बार आपत्तिजनक के रूप में अंकित हो जाती है तो वह सामग्री विश्व स्तर पर अवरुद्ध कर दी जाती है। दूसरी सोशल मीडिया कम्पनियाँ भी इसी तरह कार्य करती हैं।
- गूगल के अनुसार सामग्री नियमन और लोकनीति अलग रहती है परंतु लोकनीति इकाइयों को इनपुट और निर्णय लेने में मदद करने की अनुमति होती है। विशेषकर यदि ऐसे निर्णय महत्त्वपूर्ण राजनीतिक या सरकारी प्रतिक्रिया से सम्बंधित हों।
भारत की स्थिति
- द वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार भारत में फेसबुक की लोकनीति के शीर्ष कार्यकारी ने आंतरिक रूप से चिह्नित किये गए एक दल विशेष से जुड़े व्यक्तियों और समूहों के हिंसक भाषण पर हेट-स्पीच नियमों को लागू नहीं किया और इसके लिये सरकार व व्यावसायिक सम्बंधों का हवाला दिया।
- कुछ प्रौद्योगिकी नीति विशेषज्ञों ने लोकनीति और सामग्री नियमन के बीच एक मोटी रेखा का आह्वान किया है, जबकि कुछ अन्य ने ‘अनौपचारिक और अपारदर्शी’ कहते हुए इन प्रक्रियाओं की आलोचना की है।
चिंता की बात
- परम्परागत रूप से लोकनीति की भूमिकाओं ने सरकारी सम्बंधों को उलझा दिया है। जब सामग्री नियमन की बात आती है तो वास्तविक चिंता सार्वजनिक पारदर्शिता की कमी और निर्णय–प्रक्रिया में अपर्याप्त आंतरिक जवाबदेही की है।
- फेसबुक इंडिया के बारे में हाल के खुलासे में समस्या लोकनीति टीमों की है, जो इन फैसलों को, विशेष रूप से व्यावसायिक विचारों के आधार पर, वीटो या ब्लॉक करने की स्पष्ट क्षमता रखती हैं।
- यह भी माना जाता है कि वैश्विक सोशल मीडिया प्लेटफार्मों से सामग्री को हटाने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्षय होता है, जिसको सोशल मीडिया एक व्यवसायिक खतरे के रूप में देखते हैं। सम्भावित डेटा स्थानीयकरण कानून और अन्य माध्यमों से भी इन व्यवसायों के लिये खतरा पैदा किया जाता है।
आगे की राह
- भारत में ऐसे वैश्विक प्लेटफार्मों को विनियमित करने वाले स्पष्ट कानूनों की कमी एक समस्या है, अत: सामग्री नियमन हेतु एक विशिष्ट कानून की आवश्यकता है।
- पूर्व न्यायाधीशों की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र निकाय की स्थापना की जानी चाहिये, जो आपत्तिजनक सामग्री के उल्लंघन के मामलों की जाँच करे।
- सभी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर ऐसी सामग्री के नियमन के लिये सरकार द्वारा एक लोकनीति अधिकारी और विधिक अधिकारी की नियुक्ति की जानी चाहिये।
- जर्मनी में नेटवर्क प्रवर्तन अधिनियम, नफ़रत फैलाने वाले भाषण के खिलाफ सख्त निषेध सुनिश्चित करता है। यह तय करने का आधार कि क्या कोई सामग्री कानून का उल्लंघन करती है, उनके आपराधिक कोड पर आधारित है। भारत में भी ऐसा किया जाना चाहिये।
- सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर किसी प्रकार की प्रायोजित प्रचार सामग्री के लेखक और प्रचार के लिये दी गई राशि को प्रकाशित किया जाना चाहिये।
- इसके अलावा, ऐसे मुद्दों से निपटने के लिये वर्तमान कानून अपर्याप्त और अस्पष्ट हैं और भारतीय दंड संहिता, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत कई अधिनियमों और नियमों में बिखरे हुए हैं। ज़रूरत मौजूदा कानूनों के सामंजस्य और एकीकरण की है।
- इंटरनेट पर प्रसारित होने वाली घृणा सामग्री के आधुनिक रूपों से निपटने के लिये प्रारूप मध्यस्थ दिशानिर्देश नियमों (Draft Intermediary Guidelines Rules) में संशोधन करने की आवश्यकता है।
- ऐसी सामग्रियों को परिभाषित करने, पहचान करने और रोकने आदि के लिये अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतों के अनुसार एक अंतर्राष्ट्रीय फ्रेमवर्क की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
- जबकि सोशल मीडिया के अधिकारियों द्वारा किया गया राजनीतिक पक्षपात जाँच के दायरे में है, विडंबना यह है कि सार्वजनिक अधिकारियों का राजनीतिक पक्षपात युक्त व्यवहार जारी है। स्वतंत्रता, शिष्टाचार और सेंसरशिप के मध्य अंतर की समस्या गहराती जा रही है। सुरक्षा मानव-मूल्य में है और निजता संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार है, अत:सरकार को गोपनीयता, सुरक्षा और वाक्–स्वतंत्रता के मध्य सामंजस्य के साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ, अंतरिक्ष)
विषय–भारत द्वारा एक नई आकाशगंगा की ख़ोज
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में भारतीय खगोलविदों ने ब्रह्मांड में सबसे दूर स्थित स्टार आकाशगंगाओं में से एक की ख़ोज की है।
आकाशगंगा (Galaxy)
- आकाशगंगा गैस, धूल, डार्क मैटर तथा अरबों तारोंऔर उनकी सौर प्रणालियों का एक विशाल संग्रह है, जो आपस में गुरुत्त्वाकर्षण द्वारा बंधे रहतेहैं।
- पृथ्वी सौर मंडल का हिस्सा है और यह सौर मंडल‘मिल्की-वे आकाशगंगा’ का एक छोटा सा हिस्सा है।यह माना जाता है कि लगभग सभी बड़ी आकाश गंगाओं के केंद्र में विशालकाय ब्लैक होल होते हैं।
- एडविन हबलने आकाश गंगाओं को वर्गीकृत करने की कोशिश की। उन्होंने इसको चार मुख्य प्रकारों में विभाजित किया: सर्पिल आकाशगंगाएँ, लेंटिक्युलर आकाश गंगाएँ, दीर्घवृत्ताकार आकाश गंगाएँ और अनियमित आकाश गंगाएँ।
- अभी तक प्रेक्षित की गई सभी आकाश गंगाओं में से दो–तिहाई से अधिक आकाश गंगाएँ सर्पिल आकार की हैं।
आकाशगंगा का नाम
- भारत की पहली बहु–तरंगदैर्घ्य अंतरिक्ष वेधशाला ‘एस्ट्रोसैट’ ने पृथ्वी से 9.3 बिलियन प्रकाश वर्ष दूर स्थित एक आकाशगंगा से अत्यधिक–यू.वी. प्रकाश का पता लगाया।
- ए.यू.डी.एफ.एस01(AUDFs01) नामक इस आकाशगंगा की ख़ोज अंतर-विश्वविद्यालयी खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी केंद्र (IUCAA), पुणे के नेतृत्व में खगोलविदों के एक अंतर्राष्ट्रीय समूह ने की।
- इस अंतर्राष्ट्रीय समूह में भारत के साथ-साथ स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, अमेरिका, जापान और नीदरलैंड के वैज्ञानिक शामिल थे।
- उल्लेखनीय है कि खगोलीय शोध को समर्पित भारत की पहली अंतरिक्ष वेधशाला एस्ट्रोसैट को 28 सितम्बर, 2015 को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा प्रक्षेपित किया गया था।
- पराबैंगनी इमेजिंग टेलीस्कोप (UVIT) एस्ट्रोसैटमें लगे पाँच पेलोड में से एक है। यह विद्युत चुम्बकीय वर्णक्रम के दृश्य, निकट और सुदूर पराबैंगनी क्षेत्रों के आकाश का अवलोकन करने में सक्षम है।
महत्त्व
- भारतीय अंतरिक्ष अभियानों के लिये यह एक ऐतिहासिक उपलब्धि है।शानदार अंतरिक्षीय रिज़ॉल्यूशन और उच्च संवेदनशीलता दरअसल एक दशक से भी अधिक समय तक की गई वैज्ञानिकों की यू.वी.आई.टी. (UVIT) कोर टीम की कड़ी मेहनत का परिणाम है।
- इस मौलिक ख़ोज के महत्त्व और विशिष्टता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाली एक शीर्ष अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘नेचर एस्ट्रोनॉमी’ में इसके बारे में बताया गया है।
- भारत का एस्ट्रोसैट/यू.वी.आई.टी. इस अनूठी उपलब्धि को हासिल करने में इसलिये सक्षम रहा क्योंकि यू.वी.आई.टी. डिटेक्टर में पृष्ठभूमि का शोर अमेरिका स्थित नासा के हबल स्पेस टेलीस्कोप की तुलना में काफी कम है।
- ए.यू.डी.एफ.एस01(AUDFs01) पिंडीय या पुंजीय आकृति विज्ञान और 60 नैनोमीटर पर आयनीकृत विकिरण को लीक करने वाले आकाशगंगा का पहला उदाहरण है।
- यह ख़ोज इस संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण सुराग है कि ब्रह्मांड में अंधकार का समापन कैसे हुआ और प्रकाश की शुरुआत कैसे हुई। साथ ही यह जानने की ज़रूरत है कि इसकी शुरूआत कब हुई क्योंकि प्रकाश के सबसे शुरुआती स्रोतों को ख़ोजना बहुत कठिन रहा है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3: विषय– भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय, समावेशी विकास तथा इससे उत्पन्न विषय,निवेश मॉडल, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव)
विषय–स्वयं सहायता समूह और बढ़ता एन.पी.ए.
- हाल ही में, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय (MoRD)ने राज्यों से कहा है कि वे गैर–निष्पादनकारी परिसम्पत्तियों (Non Performing Assets – एन.पी.ए.) की वर्तमान स्थिति पर ध्यान दें और स्वयं सहायता समूहों (एस.एच.जी. ) से अतिदेय/बकाया राशि की वसूली के लिये सुधारात्मक उपाय लागू करें।
- उल्लेखनीय है कि यह मुद्दा दीनदयाल अंत्योदय योजना – राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (NRLM) की समीक्षा बैठक में उठाया गया।
- जब ऋण लेने वाला व्यक्ति 90 दिनों तक ब्याज या मूलधन का भुगतान करने में विफल रहता है तो उसको दिया गया ऋण गैर निष्पादित परिसम्पत्ति (नॉन– परफॉर्मिंग एसेट) माना जाता है।
दीनदयाल अंत्योदय योजना – राष्ट्रीय आजीविका मिशन:
- दीनदयाल अंत्योदय योजना मुख्यतः राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (एन.यू.एल.एम.) और राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एन.आर.एल.एम.) का एकीकरण है।
- दीनदयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डी.ए.वाई.-एन.आर.एल.एम.), ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक महत्वपूर्ण योजना है, जिसका उद्देश्य गरीबों के विकास के लिये सतत सामुदायिक संस्थानों की स्थापना करना तथा इसके माध्यम से ग्रामीण गरीबी को समाप्त करना तथा ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका के विविध स्रोतों को प्रोत्साहन देना है।
- केंद्र द्वारा प्रायोजित इस कार्यक्रम को राज्यों के सहयोग से लागू किया गया है। इस मिशन को वर्ष 2011 में लॉंच किया गया था।
- यदि आँकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो NRLM का उद्देश्य स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से देश के 600 ज़िलों, 6000 ब्लॉकों, 2.5 लाख ग्राम पंचायतों और 6 लाख गाँवों के लगभग 7 करोड़ गरीब ग्रामीण परिवारों के लिये अगले 8-10 वर्षों की आजीविका को सुनिश्चित करना है।
- NULM योजना शहरी सड़क विक्रेताओं की आजीविका सम्बंधी समस्याओं को देखते हुए उभरते बाज़ार के अवसरों तक उनकी पहुँच को सुनिश्चित करने के लिये उपयुक्त जगह, संस्थागत ऋण और सामाजिक सुरक्षा व कौशल प्रदान करके आजीविका को सुविधाजनक बनाने से सम्बंधित है।
- इसके अलावा योजना का लक्ष्य शहरी गरीब परिवारों कीगरीबी और जोखिम को कम करने के लिये उन्हें लाभकारी स्वरोज़गार और कुशल मज़दूरी के अवसर का उपयोग करने में सक्षम करना, जिसके परिणाम स्वरूप ज़मीनी स्तर पर उनकी आजीविका में स्थाई सुधार हो सके।
प्रमुख बिंदु
एस.एच.जी. ऋण एन.पी.ए. के रूप में:
- मार्च 2020 के अंत तक देश भर में लगभग 54.57 लाख एस.एच.जी.को ऋण के रूप में 91,130 करोड़ रूपए दिये गए हैं।
- गौरतलब है कि इस राशि का लगभग लगभग 2.37% अर्थात लगभग 2,168 करोड़ रूपए एन.पी.ए. घोषित हो चुके हैं।
- स्वयं सहायता समूहों को दिये गए बैंक ऋणों में एन.पी.ए. का अनुपात पिछले एक दशक में काफी बढ़ गया है, 2008 में यह 2.90% था जो 2018 में बढ़कर 6.12% तक पहुँच गया है।
- वित्तीय वर्ष 2018-19 की तुलना में 2019-20 में एस.एच.जी. ऋण के समग्र एन.पी.ए. में 0.19% की वृद्धि हुई है।
राज्य वार वितरण:
- उत्तर प्रदेश में 71,907 एस.एच.जी. समूहों द्वारा लिये गए ऋण में से 36.02% मार्च 2020 के अंत तक एन.पी.ए. घोषित हो गया था,जबकि 2018-19 में यह 22.16% था।
- अरुणाचल प्रदेश में एन.पी.ए. अनुपातमें 43% वृद्धि चौंकाने वाली थी जबकि यहाँ स्वयं सहायता समूहों की संख्या सिर्फ 209 है।
- ध्यातव्य है कि राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन (एस आर एल एम) को ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा निर्देशित किया गया था कि एन.पी.ए.की ज़िलेवार निगरानी की जाएऔर जहाँ भी एन.पी.ए. या अतिदेय के उदाहरण दिखें वहाँ तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई की जाए।
- बढ़ते एन.पी.ए. के कारण: वर्ष 2019 में, राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान और पंचायती राज (NIRDPR) ने एस.एच.जी. द्वारा लिये गए ऋणों के एन.पी.ए.पर एक शोध साझा किया था।
- इसमें पाया गया कि खराब आर्थिक स्थिति, सहयोग का ना होना, प्रशिक्षण की कमी, विवाह और सामाजिक समारोहों के लिये खर्च और आपात चिकित्सा स्थिति आदि एस.एच.जी. द्वारा ऋण का भुगतान न कर पाने के मुख्य कारण हैं।
- सरकार से ऋण माफी की उम्मीदें रखना भीएस.एच.जी.के खराब वित्तीय प्रबंधन का एक प्रमुख कारण माना गया।
एस.एच.जी. को बढ़ावा देने के लिये केंद्र सरकार द्वारा पहल:
- कृषि अवसंरचना निधि
- माइक्रो फ़ूड प्रोसेसिंग एंटरप्राइज़ेस
- प्रधान मंत्री मत्स्य सम्पदा योजना (PMMSY)
- आंबेडकर स्वास्थ्य विकास योजना (AHSY)
- उत्तर पूर्व ग्रामीण आजीविका परियोजना
राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान और पंचायती राज (NIRD & PR)
- यह केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संगठन है जो कि ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज के क्षेत्र में एक शीर्ष राष्ट्रीय उत्कृष्ट केंद्र है।
- इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यू.एन.-एस्कैप के उत्कृष्ट केंद्र के रूप में मान्यता प्राप्त है।
- यह संस्थान प्रशिक्षण अनुसंधान और परामर्श के परस्पर क्रियाकलापों द्वारा, ग्रामीण विकास के पदाधिकारियों, पंचायती राज के निर्वाचित प्रतिनिधियों, बैंकरों, गैर सरकारी संगठनों की ग्रामीण विकास की क्षमता को बढ़ाता है। यह संस्थान, तेलंगाना राज्य में हैदराबाद शहर में स्थित है।
- एन.आई.आर.डी. एवं पी.आर. ने 2008 में अपने स्थापना वर्ष की स्वर्ण जयंती मनाई।
- हैदराबाद में मुख्य परिसर के अतिरिक्त, उत्तरपूर्वी-क्षेत्र की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये गुवाहाटी, असम में भी इस संस्थान का एकउत्तर-पूर्वी क्षेत्रीय केंद्र स्थित है।
सुझाव:
- एस.एच.जी. को विधिवत प्रशिक्षित करना और उन्हें उत्पादों / सेवाओं के लिये बाज़ार लिंकेज प्रदान करना ताकि वे आय सृजन गतिविधि के लिये धन का सही उपयोग कर सकें एवं सरकार द्वारा दी गई ऋण राशि का भुगतान करने में कोई समस्या न उत्पन्न हो। इसके अलावा, ऋण के साथ ही कम ब्याज दर या कम लागत पर स्वास्थ्य व जीवन बीमा प्रदान करने से सदस्यों को सहायता मिलेगी।
- यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि स्वयं सहायता समूह की ग्रेडिंग सही तरीके से की जाए और ऋण तभी दिये जाएँ जब वह समूह ऋण लेने के लिये उपयुक्त हो। इसके लिये इन समूहों की निरंतर निगरानी ज़रूरी है।
- ऋण की मात्रा का निर्धारण सही ढंग से होना चाहिये, यह ऋण कितना बड़ा होगा या कितने भागों में दिया जाएगा या इस ऋण के लिये क्या मनाक होने चाहियें यह सब निर्धारित किया जाना बहुत ज़रूरी है।
आगे की राह:
- एस.एच.जी.के मामले में एन.पी.ए.का बढ़ना चिंता का प्रमुख विषय है, लेकिन सरकार को एस.एच.जी. का समर्थन करने से पीछे नहीं हटना चाहिये। लॉकडाउन के बाद आर्थिक पुनरुद्धार और पुनर्निर्माण बहुत आवश्यक है और ये स्वयं सहायता समूह उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण किरदार निभाएंगे।
- सरकार को विभिन्न माध्यमों से यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि किस प्रकार स्वयं सहायता समूहों की ऋण के प्रति प्रतिबद्धता निर्धारित की जा सके साथ ही इसकी वजह से उनके कार्यों पर कोई असर न पड़े।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 व 3 : महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, संस्थाएँ और मंच– उनकी संरचना, अधिदेश, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव)
विषय–व्यापार सुगमता सूचकांक और अपेक्षित सुधार तथा भारत
चर्चा में क्यों?
- हाल ही मेंविश्व बैंक द्वारा वार्षिक रूप से प्रकाशित किये जाने वाले ‘व्यापार सुगमता सूचकांक’ के प्रकाशन को कुछ देशों के आँकड़ों में अनियमितता पाए जाने के कारण रोक दिया गया है।
पृष्ठभूमि
- वर्ष 2018 और 2020 के व्यापार सुगमता सूचकांक के आँकड़ों मेंबदलाव के सम्बंध में कई अनियमितताएँ पाई गईं हैं। ये सूचकांक क्रमशः वर्ष 2017 और 2019 में अक्टूबर माह में प्रकाशित किये गए थे। वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार चीन, अज़रबैजान, यू.एई. और सऊदी अरब ऐसे राष्ट्रों में हैं, जिनके पास ‘अनुचित रूप से परिवर्तित’ डाटा हो सकता है।
व्यापार सुगमता सूचकांक
- ‘व्यापार सुगमता सूचकांक’ विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित एक सूचकांक है। इसे विश्व बैंक समूह के दो प्रमुख अर्थशास्त्रियों शिमोन जोन्कॉव और गेरहार्ड पोहल द्वारा संयुक्त रूप से विकसित किया गया। सर्वप्रथम इस रिपोर्ट को वर्ष 2002 में प्रकाशित किया गया।
- विभिन्न मापदंडों पर आधारित यह एक समग्र आँकड़ा है, जो इस समूह में शामिल देशों में व्यापार सुगमता की स्थिति को परिभाषित करता है। उच्च रैंकिंग (या निम्न संख्यात्मक मान, जैसे-1 का अर्थ उच्चतम रैंकिंग) व्यवसायों के लिये बेहतर, आमतौर पर सरल विनियमन और सम्पत्ति अधिकारों के मज़बूत संरक्षण को इंगित करता है।
- यह व्यापार विनियमन का एक बेंचमार्क अध्ययन है। अध्ययन के लिये प्रयोग किये जाने वाले संकेतकों में निर्माण कार्य के लिये परमिट, सम्पति का पंजीकरण, सीमा पार व्यापार, कारोबार शुरू करने के लिये आवश्यकताएँ, क्रेडिट प्राप्त करने की स्थिति, कर भुगतान तंत्र, निवेशकों की सुरक्षा, विद्युत् की प्राप्ति और दिवालियेपन का समाधान शामिल है।
- इस इंडेक्स का मतलब सीधे तौर पर व्यवसायों को प्रभावित करने वाले नियमों को मापना है। यह सामान्य परिस्थितियों, जैसे– बड़े बाज़ारों तक देश की पहुँच, बुनियादी ढाँचे की गुणवत्ता, मुद्रास्फीति या अपराध आदि के स्तर को नहीं मापता है।
- वर्ष 2020 के लिये भारत की रैंकिंग 63 थी, जिसमें पिछले वर्ष के मुकाबले 14 स्थानों का सुधार देखा गया था। विश्व बैंक द्वारा डाटा प्रामाणिकता के मुद्दे पर अपनी वार्षिक ‘डूइंग बिजनेस’ रिपोर्ट के प्रकाशन को रोकने का फैसला महत्त्वपूर्ण है और इसके कई निहितार्थ हैं।
विश्व बैंक का दृष्टिकोण
- विश्व बैंक द्वारा पिछले पाँच व्यापार सुगमता रिपोर्ट के लिये संस्थागत डाटा समीक्षा प्रक्रिया के बाद हुए डाटा परिवर्तनों की एक व्यवस्थित समीक्षा और मूल्यांकन किया जाएगा।
- विश्व बैंक समूह के स्वतंत्र आंतरिक लेखा परीक्षण व्यवस्था द्वारा डाटा संग्रह की प्रक्रियाओं को ऑडिट करना, व्यापार सूचकांक की समीक्षा और डाटा की प्रमाणिकता के लिये नियंत्रण को बढ़ाना भी इन प्रयासों में शामिल हैं।
रैंकिंग और ‘मेक इन इंडिया‘
- भारत ‘मेक इन इंडिया’ पहल के तहत निवेश को आकर्षित करने के लिये व्यापार सूचकांक में अपनी रैंकिंग को बेहतर बनाने के लिये प्रयासरत है।
- इस पहल का लक्ष्य जी.डी.पी. में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी को 25% (16-17% से) तक बढ़ाना तथा वर्ष 2022 तक विनिर्माण क्षेत्र में 100 मिलियन अतिरिक्त नौकरियाँ पैदा करना है।
- इस सूचकांक में भारत ने शानदार सफलता अर्जित की है। भारत वर्ष 2015 में जहाँ 142वें स्थान पर था, वहीं वर्ष 2020 में 63वें स्थान पर पहुँच गया। इस उपलब्धि को ‘न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन’ के लिये भारत की प्रतिबद्धता के रूप में दर्शाया गया है।
- व्यापार सूचकांक के पिछले पाँच वर्षों की रिपोर्ट के ऑडिटिंग के फैसले से भारत की रैंकिंग में कमी आ सकती है।
- जनवरी 2018 में वैश्विक विकास केंद्र के अध्ययन में भी पाया गया कि भारत की रैंकिंग में सुधार लगभग–लगभग पूरी तरह से पद्धतिगत परिवर्तनों के कारण ही था।
भारत का मामला
- देशों की रैंकिंग में सुधार और ज़मीनी वास्तविकता में काफी अंतर देखा गया है। भारत की जी.डी.पी. में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 16-17% पर स्थिर है और वर्ष 2011-12 से 2017-18 के मध्य लगभग 3.5 मिलियन नौकरियों का नुकसान हुआ है।
- राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी के अनुसार विनिर्माण में वार्षिक जी.डी.पी. वृद्धि दर वर्ष 2015-16 में 13.1% से गिरकर वर्ष 2019-20 में शून्य हो गई।
- इस रिपोर्ट के वर्ष 2020 के लिये जारी संस्करण में भारत उन शीर्ष 10 देशों में शामिल है, जिसकी रैंकिंग में पिछले वर्ष के मुकाबले सबसे बड़ी उछाल देखी गई।
- हालाँकि, इस बीच भारत की चीन पर आयात निर्भरता भी बढ़ गई है, जिसका एक परिणाम ‘आत्मनिर्भर भारत’ पहल की घोषणा है।
चिली और रूस का मामला
- इसी अवधि के दौरान चिली की रैंकिंग वर्ष 2014 में 34 से कम होकर वर्ष 2017 में 57 पर आ गई। चिली के तत्कालीन राष्ट्रपति ने विश्वबैंक पर व्यापार सूचकांक की कार्यप्रणाली में हेरफेर का भी आरोप लगाया था।
- वर्ष 2017 में विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल एम. रोमर ने विश्व बैंक की गलतियों को स्वीकार भी किया था।
- रूस के साथ भी यही स्थिति रही और उसकी रैंकिंग वर्ष 2012 में 120 से वर्तमान में 28 पर आ गई है। इन वर्षों के दौरान रूस किसी बड़े निवेश अंतर्वाह के बिना ही चीन, ब्राज़ील और भारत से आगे निकल गया।
- इसके विपरीत सबसे अधिक पूँजी प्रवाह को आकर्षित करने के बाबज़ूद वर्ष 2006 और 2017 के बीच चीन की व्यापार रैंकिंग 78 से 96 के बीच ही रही। हालाँकि, वर्तमान में चीन की रैंकिंग 31 है।
संकेतक में सैद्धांतिक आधार का अभाव और प्रमुख दोष
- सूचकांक के संरचना और कार्यान्वयन में कई दोष हैं। सूचकांक के लिये उपयोग किये जाने वाले संकेतक केवल क़ानूनी संरचना पर ही आधारित हैं, उन कानूनों के संचालन में आने वाली समस्याओं और वास्तविक परिस्थितियों पर आधारित नहीं हैं। सूचकांक की गणना के लिये केवल दो शहरों, मुम्बई और दिल्ली से वकीलों, एकाउंटेंट और दलालों से आँकड़े एकत्र किये गए हैं, न की उद्यमियों से।
- इसके अतिरिक्त विश्व बैंक द्वारा ही किये गए एक ‘वैश्विक उद्यम सर्वेक्षण रिपोर्ट’ और ‘व्यापार सुगमता रैंकिंग’ में कोई अंतर्सम्बंध नहीं दिखाई दिया है।
- साथ ही व्यापार सुगमता सूचकांक के सैद्धांतिक आधार पर भी संदेह व्यक्त किया गया है, जोकि अधिक गम्भीर मुद्दा है। बहुत कम आर्थिक विचार ऐसे हैं, जिनके अनुसार श्रम और पूँजी का न्यूनतम विनियमन बाज़ार उत्पादन और रोज़गार के मामले में बेहतर परिणाम देते हैं।
- आर्थिक विकास के इतिहास में किसी सामान्यीकृत सिद्धांत के स्थान पर देशों के आर्थिक प्रदर्शन और नीतिगत शासनों में काफी विविधता दिखाई पड़ती है। व्यापर सुगमता के लक्ष्यों को पूरा करने के लिये कारखानों के सुरक्षा मानकों से भी समझौता किया जाता है।
- उदाहरण स्वरुप वर्ष 2016 में महाराष्ट्र सरकार ने बॉयलर अधिनियम, 1923 और भारतीय बॉयलर विनियमन, 1950 के तहत भाप बॉयलरों के वार्षिक अनिवार्य निरीक्षण को समाप्त कर दिया।
- साथ ही किसी भी कारखाने ने स्व-प्रमाणन का भी पालन नहीं किया है या किसी तीसरे पक्ष से बॉयलर को प्रमाणित नहीं करवाया।
निष्कर्ष
- किसी व्यवसाय की व्यवहार्यता उस अर्थव्यवस्था की जीवन शक्ति पर निर्भर करती है। चिली और भारत के विपरीत अनुभवों के कारण न केवलदेश–स्तर के आँकड़ों पर संदेह व्यक्त किया गया बल्कि अंतर्निहित कार्यप्रणाली में भी बदलाव हुआ है। यह उचित समय है, जब विश्व बैंक को व्यापार सुगमता सूचकांक रिपोर्ट को तैयार करने हेतु पुनर्विचार की आवश्यकता है। भारत को भी इस पर विचार करना चाहिये कि उसके रैंकिंग में अधिक सुधार तथा ज़मीनी वास्तविकता में अंतर क्यों है? हालाँकि, विश्व बैंक द्वारा पिछले पाँच वर्षों की रिपोर्ट की व्यवस्थित समीक्षा एक सराहनीय कदम है।
(प्रारम्भिक परीक्षा: आर्थिक और सामाजिक विकास, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ ; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3: विषय– भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय, निवेश मॉडल, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव)
विषय–सकल घरेलू उत्पाद में अभूतपूर्व संकुचन
- हाल ही में, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय(एन.एस.ओ.)ने जी.डी.पी. के नए तिमाही आँकड़े जारी किये हैं।नवीन आँकड़ों के अनुसार 2019 में इसी अवधि (अप्रैल-जून) की तुलना में 2020 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के बजाए 9% का संकुचन देखा गया।
- वर्ष 1996 से भारत में तिमाही आँकड़ों जारी करने शुरू किये गए, तब से यह अबतक का सबसे तेज़ संकुचन है।
- इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सकल मूल्य वर्द्धन (GVA) वृद्धि दर में भी 22.8% की गिरावट आई है।
- सकल घरेलू उत्पाद (GDP) या जी.डी.पी. या सकल घरेलू आय (GDI), किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक प्रदर्शन की एक बुनियादी माप है, यह एक वर्ष में एक राष्ट्र की सीमा के भीतर सभी अंतिम माल और सेवाओ का बाज़ार मूल्य है।
- किसी देश की अर्थव्यवस्था में सभी क्षेत्रों, यथा- प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीयक क्षेत्र और तृतीयक क्षेत्र द्वारा किये गए अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं के कुल उत्पादन के मौद्रिक मूल्य को सकल मूल्य वर्द्धन कहते हैं। सामान्य शब्दों में GVA के द्वारा किसी अर्थव्यवस्था में होने वाले कुल निष्पादन व आय का पता चलता है। किसी उत्पाद के मूल्य से उसकी इनपुट लागत और कच्चे माल की लागत में कटौती के बाद बची राशि को GVA कहते हैं।
दोनों में क्या फर्क होता है?
- GVA के द्वारा प्रोड्यूसर/सप्लायर/उत्पादक की तरफ से होने वाली आर्थिक गतिविधियों का पता चलता है जबकि जी.डी.पी. के द्वारा डिमांड/कंज़्यूमर/उपभोक्ता के तरफ की तस्वीर दिखती है। ज़रूरी नहीं कि दोनों ही आँकड़े एक से हों क्योंकि इन दोनों की सकल कर गणना में फर्क होता है। वित्तीय वर्ष 2015-16 से सकल मूल्य वर्द्धन की अवधारणा को शुरू किया गया है।
- GVA की गणना इसलिये भी शुरू की गई क्योंकि इससे मिलने वाली क्षेत्रवार वृद्धि से नीति निर्धारकों को यह फैसला करने में आसानी होती है कि किस सेक्टर को प्रोत्साहन राशि वाले राहत पैकेज की ज़रूरत है। कुछ लोगों का मानना है कि GVA अर्थव्यवस्था की स्थिति जानने का सबसे अच्छा तरीका है क्योंकि सिर्फ ज़्यादा कर संग्रहण होने से यह मान लेना सही नहीं होता कि उत्पादन में तेज़ बढ़ोतरी हुई है क्योंकि ऐसा तो ज़्यादा कवरेज की वजह से भी हो सकता है और इससे वास्तविक उत्पादन की गलत तस्वीर भी मिल सकती है। लेकिन जी.डी.पी. का आँकड़ा तब अहम साबित होता है जब अपने देश की तुलना दूसरे देश की अर्थव्यवस्था से की जाती है।
प्रमुख बिंदु:
- क्षेत्रवार आँकड़े: इस तिमाही में निर्माण, विनिर्माण, व्यापार, होटल और अन्य सेवाएँ और खनन सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र थे, जिनमें क्रमशः 50.3%, 39.3%, 47.0% और 23% का संकुचन दर्ज किया गया।
- यह संकुचन इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के दौरान महामारी और लॉकडाउन की वजह से आर्थिक गतिविधि में अभूतपूर्व गिरावट को दर्शाता है।
- इस दौरान केवल कृषि क्षेत्र ने 3.4% की सकारात्मक वृद्धि दिखाई दी।
- जी.डी.पी. संकुचन के कारक:किसी भी अर्थव्यवस्था में, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि विकास के चार कारकों पर निर्भर करती है। ये चार कारक हैं: निजी खपत, निजी क्षेत्र के व्यवसायों द्वारा उत्पन्न माँग एवं सरकार व निर्यात द्वारा उत्पन्न माँग।
- निजी खपत में 27% की गिरावट आई है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था को चलाने वाला सबसे बड़ा कारक है।
- निजी क्षेत्र के व्यवसायों द्वारा निवेश में 47% की गिरावट आई है। यह दूसरा सबसे बड़ा कारक है।
- शुद्ध निर्यात माँग इस पहली तिमाही में सकारात्मक हो गई है क्योंकि कोविड–19 की वजह से भारत का आयात,निर्यात की तुलना में बहुत कमथा।
- यद्यपि कागज़ों पर, इससे यह पता चलता है कि किसी देश की जी.डी.पी.कितनी बढ़ गई है लेकिन अक्सर वास्तविकता में यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था की ओर भी इशारा करता है, जहाँ की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई हो।
- सरकार का व्यय 16% तक पहुँच गया था लेकिन यह अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों (कारकों) की माँग में हुए नुकसान की भरपाई के लिये आवश्यक मात्रा से बहुत कम था।
प्रभाव:
- नौकरियों पर: जिन क्षेत्रों में संकुचन हुआ है, जैसे निर्माण (50 % संकुचन), विनिर्माण (39 % संकुचन), खनन (23 % संकुचन) और व्यापार, होटल तथा अन्य सेवा (47 % संकुचन) आदि, ये वे क्षेत्र हैं जो देश में अधिकतम नई नौकरियों का सृजन करते हैं।
- इसलिये ऐसी स्थिति में जब लगभग हर क्षेत्र में तेज़ी से संकुचन हो रहा है तो आने वाले समय में पहले से कार्य कर रहे लोगों को अपना रोज़गार खोना पड़ सकता है और नए लोगों को भी इन क्षेत्रों में काम ढूँढने में मुश्किल होगी।
- अनौपचारिक क्षेत्र पर: आर्थिक संकट की वास्तविकता और ज़्यादा गहरी होने की सम्भावना है क्योंकि लघु क्षेत्र और अनौपचारिक क्षेत्र, संगठित क्षेत्र की तुलना में ज़्यादा प्रभावित हुए हैं, यद्यपि तिमाही के वर्तमान आँकड़ों में यह संख्या परिलक्षित नहीं होती।
- बैंकों पर: अधिस्थगन (moratorium) समाप्त होने के बाद बैंकिंग क्षेत्र में बैंक ऋणों का डिफ़ॉल्ट होना बैंकिंग क्षेत्र के संकटों को और बढ़ाएगा, जिससे बैंकों की उधार देने की क्षमता और दिये गए ऋण पर असर पड़ेगा।
- इसके अलावा, लोगों द्वारा लिया गया घरेलू ऋण भी चिंता का विषय है क्योंकि लोगों की आय में वृद्धि हो नहीं रही, वेतन में कटौती हो रही है और बहुत से मामलों में लोगों की नौकरी भी छूट गई है।
- अर्थव्यवस्था पर: अधिकांश पर्यवेक्षकों द्वारा अपेक्षित संकुचन से भी ज़्यादा संकुचित होने की वजह से, अब यह माना जा सकता है कि आने वाले पूरे वित्तीय वर्ष की जी.डी.पी. भी खराब हो सकती है।
सम्भावित समाधान:
- जैसे-जैसे व्यक्तियों की आय में तेज़ी से गिरावट आती है, उनकी खपत कम हो जाती है। जब खपत तेज़ी से कम होती है, तो व्यवसाय में उनका निवेश करना कम हो जाता है। चूँकि ये दोनों ही स्वैच्छिक निर्णय हैं, इसलिये लोगों को अधिक निवेश करने के लिये मज़बूर करने या बड़े व्यवसायों में निवेश करवाने का कोई तरीका उपलब्ध नहीं है।
- यही तर्क निर्यात और आयात के लिये भी लागू होता है।
- इसलिये इन परिस्थितियों में, केवल एक कारक है जो जी.डी.पी. को मज़बूती दे सकता है, वह है सरकार।
- यदि सरकार सड़कों और पुलों के निर्माण में ज़्यादा से ज़्यादा खर्च करे या लोगों को इन निर्माण कार्यों के लिये वेतन का भुगतान करना शुरू करे या किसी भी अन्य प्रकार से लोगों के हाथ में पैसा आएगा तो मध्यम अवधि के लिये अर्थव्यवस्था ऊपर आ सकती है।
- यदि सरकार पर्याप्त रूप से इन क्षेत्रों (विनिर्माण आदि) में खर्च नहीं करेगी तो अर्थव्यवस्था को दुरुस्त होने में लम्बा समय लग सकता है।
- भारत सरकार मैकिंसे ग्लोबल इंस्टिट्यूट द्वारा सुझाए गए उपायों को भी अपना सकती है, जिनके द्वारा जी.डी.पी.को अतिरिक्त 3.5% तक ऊपर लाया जा सकता है। ये उपाय निम्न हैं-
- ग्लोबल शिफ्ट: डिजिटलीकरण, स्वचालन, आपूर्ति श्रृंखला में बदलाव, शहरीकरण, बढ़ती आय, जनसांख्यिकीय बदलाव, स्थिरता, स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे वैश्विक विषयों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना महामारी के बाद की अर्थव्यवस्था को ऊपर उठा सकता है।
- निजीकरण के माध्यम से उच्च उत्पादकता: अपनी उत्पादकता को सम्भावित रूप से दोगुना करने के लिये सरकार के स्वामित्व वाले लगभग 30 सबसे बड़े उद्यमों का निजीकरण।
- आत्मनिर्भर भारत के तहत भी निजीकरण पर ध्यान देना।
- अवसंरचना में सुधार: भारत को 20-25% तक भूमि लागत को कम करते हुए भूमि बाज़ारों में आपूर्ति को बहाल करने की आवश्यकता है, वाणिज्यिक और औद्योगिक टैरिफ को 20-25% तक कम करने के लिये कुशल रूप से बिजली वितरण सुनिश्चित करना और व्यापार सुगमता में सुधार करना।
- कुशल वित्तपोषण: राजकोषीय संसाधनों को सुव्यवस्थित करने से निवेश में 2.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक का उछाल मिल सकता है तथा उद्यमों के लिये पूँजी की लागत लगभग 3.5% तक कम करके उद्यमशीलता को बढ़ावा भी दिया जा सकता है।
- बैड बैंक के निर्माण द्वारा निष्क्रिय सम्पत्तियों की देखभाल की जा सकती है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–अटलांटिक महासागर में बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण की गम्भीरता
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में ‘नेचर कम्युनिकेशन’ में प्रकाशित एक अध्ययन में अटलांटिक महासागर में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण की मात्रा का अनुमान लगाया गया है।
पृष्ठभूमि
- इस अध्ययन के अनुसारसमुद्र में प्लास्टिक के आगत और स्टॉक का स्तर पहले की तुलना में बहुत अधिक हैं। यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक, विशेष रूप से माइक्रोप्लास्टिक से होने वाला प्रदूषण महासागरों और यहाँ तक कि आर्कटिक के कुछ सबसे दूरस्थ क्षेत्रों तक भी पहुँच गया है। अभी भी समुद्रों में विशेष रूप से माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण की मात्रा को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है।
माइक्रोप्लास्टिक
- माइक्रोप्लास्टिक ऐसे प्लास्टिक मलबे होते हैं, जिनका आकार 5 मिमी. से कम या लगभग तिल के बराबर होता है। ये विभिन्न प्रकार के स्रोतों से उत्पन्न होते हैं।
- जब प्लास्टिक के बड़े टुकड़े छोटे- छोटे टुकड़ों में अपघटित होते हैं तब भी माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषक उत्पन्न होते हैं, जिनका पता लगाना कठिन होता है।
- महासागरों तक प्लास्टिक के पहुँचने का प्रमुख कारण
- वैज्ञानिकों के अनुसार, महासागरों तक माइक्रोप्लास्टिक पहुँचने के कई कारण हैं, जिसमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-
- तटीय और आंतरिक क्षेत्रों से नदी और वायुमंडलीय परिवहन द्वारा
- अवैध डम्पिंग गतिविधियों द्वारा
- नौ–परिवहन जहाज़ों से सीधे समुद्र में कूड़े–कचरों द्वारा
- मछली पकड़ने और जलीय कृषि गतिविधियों द्वारा
- अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) के अनुसार, प्रत्येक वर्ष समुद्रों में कम से कम 8 मिलियन टन प्लास्टिक पहुँचता है, जो समुद्र की सतह से लेकर समुद्र की तली तक सभी समुद्री मलबे का लगभग 80% हिस्सा होता है।
प्लास्टिक प्रदूषण से क्षति
- प्लास्टिक की स्थाई प्रकृति के कारण इसका विघटन काफी कठिन होता है। विघटन की प्रक्रिया प्लास्टिक के प्रकार और उसके डंपिंग के स्थान पर निर्भर करती है।
- महासागरों में प्लास्टिक प्रदूषण बढ़ने से समुद्री जीवन, महासागरीय स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी के साथ-साथ तटीय पर्यटन और अंततः मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
- प्लास्टिक प्रदूषण से सभी प्रकार की समुद्री प्रजातियों के प्रभावित होने का खतरा रहता है परंतु आमतौर पर बड़ी समुद्री प्रजातियाँ इससे अधिक प्रभावित होती हैं।
- समुद्री जानवर जैसे व्हेल, समुद्री पक्षी और कछुए अनजाने में प्लास्टिक को निगल लेते हैं और अक्सर उनका दम घुट जाता है। पिछले वर्ष स्कॉटिश बीच पर मृत मिली स्पर्म व्हेल के अंदर अनुमानत: 100 किलो (220 पाउंड) मलबा मिला था, जिसमें जाल, रस्सी और प्लास्टिक, आदि थे।
- खाद्य श्रृंखला में पहुँचने की स्थिति में समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण मनुष्यों के लिये भी हानिकारक है। उदाहरण के लिये माइक्रोप्लास्टिक नल के पानी, बीयर और यहाँ तक कि नमक में भी पाए गए हैं।
- पिछले वर्ष प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार एक औसत व्यक्ति प्रति वर्ष कम से कम 50,000 माइक्रोप्लास्टिक के कणों का अंतर्ग्रहण करता है। प्लास्टिक का उत्पादन करने के लिये उपयोग किये जाने वाले कई रसायन कैंसर जनक होते हैं।
अध्ययन के निहितार्थ
- वैज्ञानिकों के अनुसार, अटलांटिक महासागर में मुख्यतः तीन प्रकार के प्लास्टिकों के कारण प्रदूषण हुआ। ये हैं- पॉलीइथाइलीन (Polyethylene), पॉलीप्रोपाइलीन और पॉलीस्टाइनिन, जो समुद्र की सतह से 200 मीटर की गहराई तक निलम्बित पाए गए हैं। उल्लेखनीय है कि इन तीन प्रकार की प्लास्टिक का उपयोग पैकेजिंग के लिये सबसे अधिक किया जाता है।
- प्लास्टिक के सूक्ष्म कण आसानी से समुद्र की अधिक गहराई तक डूब सकने के कारण भी अधिक खतरनाक होते हैं। कुछ समुद्री प्रजातियाँ, जैसे की ज़ूप्लैंकटन छोटे कणों का भक्षण प्राथमिक रूप से करतीं हैं, जिससे उनका खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करना आसान हो जाता है।
- पिछले आकलनों में माइक्रोप्लास्टिक के कारण होने वाले प्रदूषण को गम्भीर रूप से कम आंका गया है क्योंकि छोटे माइक्रोप्लास्टिक की काफी मात्रा समुद्र की सतह से उसके आंतरिक हिस्सों में संग्रहीत हो जाती है।
- अध्ययन के अनुसार, अटलांटिक महासागर के जल में कुल 17 से 47 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा होने की सम्भावना है। यह निष्कर्ष वर्ष 1950 से 2015 तक प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पादन की प्रवृत्तियों तथा इन 65 वर्षों में वैश्विक प्लास्टिक कचरे के 0.3 से 0.8% भाग का अटलांटिक महासागर में पहुँचने के आकलन पर आधारित है।
निष्कर्ष
- महासागरों मेंसूक्ष्म प्लास्टिक प्रदूषण को कम करके आंका जाना और प्रदूषण के परिमाण की अनिश्चितता एक समस्या है। माइक्रोप्लास्टिक का अध्ययन का एक उभरता हुआ क्षेत्र है अत: पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके सटीक जोखिम स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं हैं। निष्कर्षों से पता चलता है कि पूर्व में आकलित किये गए मात्रा की तुलना में समुद्र में प्लास्टिक प्रदूषण बहुत अधिक है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–संयुक्त राष्ट्र द्वारा जलवायु प्रस्ताव और भारत के लिये उसकी व्यावहारिकता
चर्चा में क्यों?
- हाल ही मेंसंयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस ने भारत से कोयले के प्रयोग को तत्काल बंद करने और वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में 45% की कमी लाने का आह्वान किया है।
नैतिक दबाव में वृद्धि का प्रयास
- टेरी (TERI) में व्याख्यान के दौरान जलवायु कूटनीति कदम के रूप में गुटारेस ने भारत से वर्ष 2020 के बाद कोयले में कोई नया निवेश न करने का आह्वान किया।
- यह अपील वास्तव में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय (UNFCCC) के स्थापना सिद्धांतों के विपरीत विमर्श तैयार करने की दिशा में एक कदम है। UNFCCC विकासशील देशों के प्रति विकसित देशों की ज़िम्मेदारियों और प्रतिबद्धताओं के बीच अंतर को स्पष्ट करता है।
- नवीनतम जलवायु रिपोर्ट जारी करते हुए उन्होंने विकसित देशों की भाँति चीन और भारत से भी वर्ष 2030 तक अपने उत्सर्जन में 45% कमी करने को कहा है, जो एक विशेष रणनीति को ज़ाहिर करता है।
- यह सलाह उस समय दी गई है, जब यह स्पष्ट है कि G-20 देशों में भारत की प्रति व्यक्ति आय सबसे कम है और वर्तमान में इस समूह के सदस्यों में भारत के आर्थिक संकुचन की दर सर्वाधिक है, जिसका दीर्घकालिक प्रभाव अभी भी बहुत स्पष्ट नहीं है।
- भारतीय विदेश मंत्री की उपस्थिति में देश के एक प्रमुख जलवायु संस्थान में दिया गया यह भाषण जलवायु क्षेत्र में भारत पर दबाव बनाने वाला एक प्रयास है। सभी G-20 राष्ट्रों से जलवायु के सम्बंध में एक जैसी अपील करना और इन देशों द्वारा समान रूप से इसके पालन की उम्मीद करना अव्यवहारिक है।
जलवायु के सम्बंध में भारत का कार्य निष्पादन रिकॉर्ड
- भारत का नवीकरणीय ऊर्जा कार्यक्रम अत्यंत महत्त्वाकांक्षी है। साथ ही भारत का ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम भी विशेष रूप से घरेलू खपत क्षेत्र में प्रभाव दिखा रहा है।
- भारत कम से कम 2 °C जलवायु ऊष्मन कार्रवाई लक्ष्य का अनुपालन करने वाले कुछ चुनिंदा देशों में से एक है। वर्तमान में ऐसे देशों की सूची बहुत छोटी है, जो पेरिस समझौते की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने हेतु सही दिशा में कार्यरत हैं।
- हाल के दशकों में त्वरित आर्थिक विकास के बावजूद भारत का वार्षिक उत्सर्जन 0.5 टन प्रति व्यक्ति है, जो वैश्विक औसत 1.3 टन से कम है। निरपेक्ष रूप से तीन प्रमुख उत्सर्जक– चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ है, जिनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से अधिक है।
- संचयी उत्सर्जन के संदर्भ में (यह तापमान वृद्धि की सीमा का निर्धारण करने में वास्तव में महत्त्वपूर्ण है) वर्ष 2017 तक भारत की हिस्सेदारी 1.3 अरब जनसंख्या के लिये केवल 4% था, जबकि केवल 448 मिलियन जनसंख्या वाला यूरोपीय संघ 20% उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार था।
- यू.एन.एफ.सी.सी.सी. के ही अनुसार वर्ष 1990 और 2017 के बीच विकसित देशों (रूस और पूर्वी यूरोप को छोड़कर) ने अपने वार्षिक उत्सर्जन में केवल 1.3% की कमी की है। साथ ही उत्सर्जन में कमी के अनुमान व लेखांकन में अपरिहार्य त्रुटियों को देखते हुए यह कमी व्यावहारिक रूप से शून्य हो जाती है।
- कोयले को चरणबद्ध रूप से प्रयोग से बाहर करने की बात करते हुए ग्लोबल नॉर्थ (Global North) ने तेल और प्राकृतिक गैस पर निरंतर निर्भरता की वास्तविकता को अस्पष्ट कर दिया है, जबकि दोनों समान रूप से जीवाश्म ईंधन हैं और उनके प्रयोग को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने की कोई समयसीमा नहीं है।
- इन देशों ने वर्ष 2050 तक ‘कार्बन तटस्थता’ (Carbon Neutrality) की बात करके वास्तविक मुद्दे से ध्यान भटका दिया है और इनमें से कुछ देशों द्वारा जलवायु आपातकाल की घोषणा का प्रस्ताव वास्तविकता की अपेक्षा नैतिक दिखावा अधिक है।
- कार्बन तटस्थता का अर्थ वायुमंडल में कार्बन के उत्सर्जन और कार्बन सिंक द्वारा उसके अवशोषण के बीच संतुलन या साम्यता का होना है।
प्रथम विश्व/विकसित देशों की रणनीति
- प्रथम विश्व के पर्यावरणविद् जलवायु कार्रवाई के लिये आवश्यक घरेलू राजनीतिक समर्थन प्राप्त करने में असमर्थ रहें हैं, अत: वे जलवायु शमन का दबाव विकासशील देशों पर डाल रहें हैं।
- उनकी रणनीतियों में कोयला उत्पादन प्रमुखता से शामिल है। साथ ही साथ इन दावों को भी बढ़ावा दिया जा रहा है कि त्वरित जलवायु शमन चमत्कारिक रूप से घरेलू असमानताओं को कम करेगा और जलवायु अनुकूलन को सुनिश्चित करेगा।
- इसके अतिरिक्त विनाश के सिद्धांत या औद्योगिक उत्पादकता की उपेक्षा को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही इन एजेंडों को विकासशील देशों पर लागू करने हेतु प्रथम विश्व के वित्तीय व विकास संस्थानों और बहुपक्षीय अपीलों में भी वृद्धि देखी जा रही है।
- इन सब कारणों से विकासशील देशों के युवाओं का एक वर्ग भविष्य को लेकर चिंतित हैं, लेकिन वैश्विक और अंतर्राष्ट्रीय असमानताओं के प्रति वह असंवेदनशील है। इससे जलवायु आपातकाल के सम्बंध में आलंकारिक बयानबाजी को भी बढ़ावा मिलता है।
- संयुक्त राष्ट्र ने पेरिस समझौते से हटने के लिये अमेरिका या कोयले की आड़ में गैस और तेल पर दीर्घकालिक निर्भरता के लिये यूरोपीय संघ के देशों की शायद ही कभी आलोचना की है।
- ये देश वैश्विक जलवायु कार्रवाई में ‘विभेदित जिम्मेदारियों के सिद्धांत’ के बिना वर्ष 2050 तक सभी के लिये लागू होने वाले कार्बन तटस्थता के एजेंडे को बढ़ावा दे रहें हैं।
कोयले में निवेश को समाप्त करना
- यदि भारत वास्तव में इस वर्ष से कोयले में सभी निवेश को बंद कर देता है तो इसके वास्तविक परिणाम के बारे में भी सोचना होगा। वर्तमान में कोयला आधारित उत्पादन का लगभग 2 गीगावॉट प्रति वर्ष की दर से डीकमीशन किया जा रहा है, जिसका तात्पर्य है कि वर्ष 2030 तक भारत में कोयला आधारित उत्पादन मात्र 184 गीगावॉट तक रह जाएगा।
- हालाँकि, वर्ष 2030 तक प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 1,580 से 1,660 यूनिट बिजली की खपत के लक्ष्य को पूरा करने हेतु 650 गीगावॉट से 750 गीगावॉट के बीच अक्षय ऊर्जा की आवश्यकता होगी। विकसित राष्ट्रों के विपरीत भारत तेल और गैस द्वारा कोयले को विस्थापित नहीं कर सकता है। पवन ऊर्जा की क्षमता के बावजूद इसका एक बड़ा हिस्सा सौर ऊर्जा से ही प्राप्त होने की उम्मीद है।
- नवीकरणीय, विशेषकर सौर ऊर्जा से वास्तव में कोई भी उद्योग, विशेष रूप से विनिर्माण उद्योगों का संचालन नहीं हो पाएगा, क्योंकि नवीकरणीय ऊर्जा आवासीय उपभोग और सेवा क्षेत्र के कुछ हिस्से की माँग को ही भली भाँति पूरा कर सकती हैं।
- जब से कोपेनहेगन समझौते ने विकसित देशों द्वारा उत्सर्जन में कमी लाने हेतु कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं को ख़त्म करने का संकेत दिया है, जलवायु परिवर्तन शमन प्रौद्योगिकी के विकास और पेटेंट में महत्त्वपूर्ण गिरावट दर्ज़ की गई है। इसका अपवाद केवल चीन रहा है।
आगे की राह
- नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों की उत्पादन क्षमता में कमी और उनका बड़े पैमाने पर संचालन व स्थापना भारत की बाहरी स्रोतों और आपूर्ति श्रृंखलाओं पर बढ़ती गम्भीर निर्भरता को उजागर करता हैं। इस समस्या को हल करने की आवश्यकता है।
- चिंता की बात यह है कि जलवायु परिवर्तन शमन प्रौद्योगिकी के पेटेंट में भारत की उपस्थिति न्यूनतम से लेकर शून्य रही है। दशकों की इस निरंतर प्रवृत्ति को बहुत जल्द पलटना मुश्किल है, परंतु इस तरफ तेज़ी से कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
- यह भी एक स्वयंसिद्ध सत्य है कि कोयले के साथ–साथ नवीकरणीय स्रोत, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से, अकेले नवीकरण स्रोत से कहीं अधिक रोज़गार पैदा करेगा, अत: दोनों में सामंजस्य की आवश्यकता है।
- बिजली संयंत्रों द्वारा वर्ष 2022 की समय सीमा तक उत्सर्जन मानकों को पूरा करने पर भी जोर दिया जाना चाहिये।
- भारत को वैश्विक तापन की चुनौती हेतु एक न्यायसंगत प्रतिक्रिया के लिये अपनी दीर्घकालिक प्रतिबद्धता को दोहराना चाहिये।
निष्कर्ष
- संयुक्त राष्ट्र महासचिव इस बात से अवगत हैं कि किसी भी गणना और अनुमान के अनुसार जलवायु कार्रवाई में भारत अपनी ज़िम्मेदारी और आर्थिक क्षमता के अनुसार कम से कम बराबर की भूमिका तो अवश्य ही निभा रहा है। यहआह्वान एक प्रकार से देश को अनौद्योगीकृत करने और जनसंख्या को विकास के निम्न जाल में ले जाने का है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : कृषि उत्पाद का भंडारण, परिवहन तथा विपणन, सम्बंधित विषय और बाधाएँ; किसानों की सहायता के लिये ई–प्रौद्योगिकी, देशज प्रौद्योगिकी और नई प्रौद्योगिकी का विकास, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण)
विषय–बायोमास संयंत्र, बायो–सी.एन.जी. और बायो–एथेनॉल में पराली का अधिकतम उपयोग
पृष्ठभूमि
- पराली दहन पंजाब सरकार के लिये एक बड़ी समस्या है।प्राथमिकताओं को पुन: तय करने के साथ–साथ एक अलग सोच इस समस्या का एक प्रभावी समाधान हो सकता है। पंजाब में ‘पंजाब ऊर्जा विकास एजेंसी’ (PEDA) पराली उपयोग के विभिन्न विकल्पों को अपनाकर इस समस्या को हल करने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के साथ मिलकर एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
पेडा और वर्तमान परिदृश्य
- पेडा (PEDA) पिछले तीन दशकों से नवीकरणीय ऊर्जा के विकास और संवर्धन की दिशा में कार्यरत है। इसने 11 बायोमास बिजली संयंत्र स्थापित किये हैं, जहाँ 97.50 मेगा वाट (MW) बिजली उत्पन्न होती है।
- इन संयंत्रों में प्रतिवर्ष 8.80 लाख मीट्रिक टन धान की पराली का उपयोग बिजली पैदा करने के लिये किया जाता है, जो कि पंजाब में उत्पन्न होने वाली कुल 20 मिलियन टन धान की पराली के 5% से भी कम है।
- कार्बन–डाईऑक्साइड और कणिका तत्वों (Particulate Matter) के अपेक्षाकृत कम उत्सर्जन और कोयले जैसे अन्य जीवाश्म ईंधन को विस्थापित करने के कारण ये परियोजनाएँ पर्यावरण के अनुकूल हैं।
जैवभार (Biomass)
- जैव ऊर्जा का मूल स्रोत सूर्य का प्रकाश है। कुल सौर ऊर्जा का कुछ हिस्सा प्रकाश संश्लेषित पौधों द्वारा जैवभार में संचित हो जाता है। अतः वे सभी पदार्थ जिनकी उत्पत्ति प्रकाश संश्लेषण द्वारा होती है, जैव–भार कहलाते हैं।
- यह नवीकरणीय ऊर्जा का एक स्रोत है। इसके अंतर्गत लिग्नोसेल्युलोज युक्त पादप (जैसे-यूकेलिप्टस, चीड़ आदि) के साथ-साथ जलीय पादप (जलकुम्भी) तथा अपशिष्ट पदार्थों के रूप में खाद, कूड़ा-करकट आदि को ऊर्जा स्रोत के रूप में रखा गया है।
जैव–सी.एन.जी. (Bio-CNG)
- जैव–गैस का शुद्ध रूप, जिसकी संरचना और ऊर्जा क्षमता जीवाश्म आधारित प्राकृतिक गैस के समानहोती है। इसे कृषि अवशेषों, पशुओं के गोबर, खाद्य अपशिष्ट, शहरी ठोस अपशिष्ट (MSW) और सीवेज जल से उत्पन्न किया जाता है।
पराली उपयोग के अन्य क्षेत्र
- बायोमास परियोजनाओं के अलावा बायो-सी.एन.जी. की आठ परियोजनाएँ राज्य में क्रियान्वित हैं। इन परियोजनाओं के पूरा होने पर इनको सालाना लगभग 3 लाख मीट्रिक टन धान की पराली की आवश्यकता होगी।
- ‘स्टार्ट-अप’ अवधारणा के तहत पंजाब में धान के पराली के उपयोग की बहुत सम्भावना है। यहाँ संगरूर ज़िले में भारत की सबसे बड़ी सी.एन.जी. परियोजना स्थापित करने पर कार्य चल रहा है। इस एकल परियोजना के लिये प्रति वर्ष 1.10 लाख मीट्रिक टन धान के पुआल की आवश्यकता होगी।
- वर्तमान में ठप पड़ी भटिंडा में स्थित 100 किलो लीटर की एक बायो–एथेनॉल परियोजना को भी सालाना 2 लाख मीट्रिक टन धान के पराली की आवश्यकता होगी।
- इन सभी परियोजनाओं के प्रारम्भ होने के बाद पंजाब 1.5 मिलियन टन धान की पराली (कुल का 7%) का उपयोग करने में सक्षम होगा। इससे उत्पन्न एथेनॉल का उपयोग डीज़ल और पेट्रोल के सम्मिश्रण के बाद वाहनों को चलाने के लिये किया जा सकता है।
- यदि पंजाब में आधे वाहन भी एथेनॉल–आधारित ईंधन पर चलने लगते हैं, तो धान की पराली, जिसे अभी अभिशाप माना जाता है, आने वाले दिनों में एक वरदान साबित हो सकती है।
एथेनॉल (Ethanol)
- एथेनॉल को ‘एथिल एल्कोहल’ भी कहते हैं। यह एक प्रकार का तरल है। 95% शुद्धता की स्थिति में इसे ‘रेक्टिफाइड स्पिरिट’ या ‘शोधित स्पिरिट’ कहते हैं। इसका प्रयोग मादक पेय (Alcoholic beverages) में नशीले घटकों (Intoxicating Ingredient) के रूप में होता है।
- लगभग 99% शुद्धता की स्थिति में एथेनॉल का प्रयोग पेट्रोल के साथ मिलाने के लिये भी होता है।
बायो–एथेनॉल (Bio-Ethanol)
- जैवभार से उत्पन्न एथेनॉल को बायो–एथेनॉलकहा जाता है। बायो-एथेनॉल के लिये जैवभार के रूप में शर्करा युक्त सामग्री, जैसे- गन्ना, चुकंदर, मीठे चारे आदि के साथ-साथ स्टार्च युक्त मक्का, कसावा, पके आलू, शैवाल, लकड़ी के कचरे, कृषि और वन अवशेष आदि को शामिल किया जाता है।
धान के पुआल पर आधारित उद्योग के लाभ
- यदि किसान धान की पराली को जलाने के बजाय उद्योगों में प्रयोग होने के लिये बेच सकें, तो उन्हें बहुत लाभ हो सकता है। इससे पर्यावरण के साथ–साथ मृदा को भी लाभ होगा, क्योंकि पराली को जलाए जाने से प्रतिवर्ष उपजाऊ मिट्टी को भी क्षति पहुँचती है, क्योंकि इससे भारी मात्रा में मृदा में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ भी जल जाते हैं।
- इसके अतिरिक्त ऐसी परियोजनाएँ स्थापित होने से ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के बड़े अवसर भी उपलब्ध हो सकते हैं।
आगे की राह
- वर्तमान में पराली के उत्पादन की तुलना में उसका प्रयोग काफी कम स्तर पर होता है। इसके लिये अधिक से अधिक पराली के उपयोग वाले उद्योगों को स्थापित करने की आवश्यकता है।
- पंजाब में बड़े व्यावसायियों और एन.आर.आई. के साथ–साथ विशेष रूप से इंजीनियरिंग, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में स्नातक युवाओं को भी ‘स्टार्ट–अप’ अवधारणा के तहत ऐसी परियोजनाओं को स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- यह उनके बीच उद्यमशीलता की भावना पैदा करेगा। साथ ही, सरकार को पहले से ही स्वीकृत ऋण को प्राप्त करने और बाज़ार तक पहुँच प्रदान करने में इन उद्यमशील युवाओं की मदद करनी चाहिये।
- किसानों की पराली को आय में परिवर्तित करने के लिये सार्वजनिक और निजी भागीदारी सहित राज्य, केंद्र और उद्योगों की ओर से संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है।
- इसके अतिरिक्त प्लाई और पेंट उद्योगों में भी पराली के उपयोग की एक व्यापक सम्भावना है।
PT analysis
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(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 व 3 : न्यायपालिका की संरचना, सूचना प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटर, आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों में मीडिया और सामाजिक नेटवर्किंग साइटों की भूमिका, साइबर सुरक्षा की बुनियादी बातें)
विषय–फोरेंसिक क्लोनिंग तथा सम्बंधित कानूनी पहलू
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) ने फोन के ‘क्लोन’ से प्राप्त चैट के आधार पर नशीले पदार्थों के सम्बंध में कुछ मामले दर्ज किये हैं। इस परिप्रेक्ष्य में फोरेंसिक क्लोनिंग की तकनीक व उसके कानूनी और नैतिक पहलुओं पर चर्चा आवश्यक है।
मोबाइल फोन फोरेंसिक क्लोनिंग
- यह मोबाइल डिवाइस फोरेंसिक का एक हिस्सा है और मूल रूप से पूरे मोबाइल डिवाइस को शब्दशः (Bit-for-Bit) कॉपी करता है।
- मोबाइल फोन क्लोनिंग का प्रयोग पिछले काफी समय से हो रहा है। इस तकनीक के ज़रिये क्लोन किये जा रहे फोन के डाटा व सेलुलर आइडेंटिटी को एक नए डिवाइस में कॉपी किया जाता है।
- हालाँकि,फोन की क्लोनिंग निजी तौर पर गैर–कानूनी है। सम्बंधित अधिकरण उपयोगकर्त्ता के फोन का डाटा एक्सेस करने के लिये कानूनी तौर पर फोरेंसिक का सहारा लेते हैं। इस प्रक्रिया में IMEI नम्बर की ट्रांसफरिंग भी इनेबल होती है।
- फोन क्लोनिंग के लिये महज प्रोग्रामिंग स्किल्स की ज़रूरत होती है और अब फोन को बिना छुए ही केवल ऐप के प्रयोग से उसकी क्लोनिंग की जा सकती है।
- कुछ जाँच एजेंसियाँ और फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाएँ ‘मोबाइल’ या किसी भी डिजिटल डिवाइस के ‘इमेजिंग’ या फोरेंसिक क्लोनिंग को तभी कार्यान्वित करते हैं, जब वे मानते हैं कि यह जाँच या अदालत में किसी मामले को साबित करने में मददगार होगी।
डिवाइस या लैपटॉप से पूरे डाटा को कॉपी करने और मोबाइल फोन क्लोनिंग में अंतर
- पारम्परिक रूप से डाटा की कॉपी–पेस्टिंग में केवल क्रियाशील फाइलें या वर्तमान में डिवाइस पर मौजूद फाइलें कॉपी की जाती हैं। इसमें वे फाइलें शामिल नहीं होती हैं, जिन्हें उपयोगकर्ता द्वारा डिलीट कर दिया गया है या उनमें अधिलेखित/बदलाव (Overwritten) कर दिया गया है।
- ऐसे अपराधों की जाँच में जहाँ सम्बंधित डाटा के नष्ट होने या डिलीट करने की सम्भावना होती है, वहाँ इमेजिंग तकनीक का उपयोग करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस तकनीक से डाटा को भौतिक रूप से अर्जित किया जाता है।
- मोबाइल फोन डाटा के भौतिक अर्जन का अर्थ है भौतिक भंडारण (Physical Storage) में डाटा का शब्दशः कॉपी करना। इसमें सभी डिलीट किये गए डाटा भी शामिल होते हैं, जबकि अन्य तरीकों में केवल फोल्डर कॉपी किये जाते हैं, डिलीट की गई फाइलें नहीं।
इमेजिंग तकनीक के उपयोग से प्राप्त डाटा/चैट आदि का अदालत में सबूत के रूप में प्रयोग
- किसी विशेष उपकरण से प्राप्त जानकारी यदि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 65(B) प्रमाण पत्र के साथ है तो वह स्वीकार्य है। यह अधिनियम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को एक विशेष तरीके से संचालित करने की परिस्थिति व विधि का उल्लेख करता है और यदि इसके साथ छेड़छाड़ नहीं की गई है, तो इसका उपयोग किसी व्यक्ति के खिलाफ अदालत में किया जा सकता है।
- इस प्रकार, यह तकनीक एक जाँच उपकरण के रूप में प्रयोग होने के साथ–साथ अदालत में भी स्पष्ट रूप से प्रामाणिक मूल्य रखती है। आतंकी गतिविधियों, आत्महत्या और डाटा लीक के मामलों की जाँच के साथ-साथ न्यायालय में भी साक्ष्य के तौर इस तकनीक के प्रयोग किये जाने के कई उदाहरण हैं।
डिवाइस को मरम्मत हेतु देने व बेचने पर डाटा की पुनर्प्राप्ति के सम्भावित खतरे
- आम तौर पर डिवाइस से डिलीट किये गए डाटा को सॉफ्टवेयर का उपयोग करके पुनर्प्राप्त किया जा सकता है, परंतु एक सीमा तक यह डिवाइस पर निर्भर करता है।
- हालाँकि, ऐप्पल और ब्लैकबेरी के कुछ उपकरणों में डाटा रिकवरी प्रक्रिया मुश्किल है और यहाँ तक कि फैक्टरी रीसेट भी इन फोन पर डाटा को पुनर्प्राप्त करना मुश्किल बना सकता है।
- किसी डिवाइस को बेचने और उस डिवाइस से डाटा को पुनर्प्राप्त करके उसके दुरुपयोग को रोकने के लिये कुछ अनुशंसाएँ की गईं हैं। किसी डिवाइस को बेचने से पूर्व फाइलों को एन्क्रिप्ट करना चाहिये और फिर फैक्टरी रीसेट करना चाहिये।
- अधिकांश एंड्रॉइड फोन सेटिंग्स में डाटा एन्क्रिप्ट करने का विकल्प मौजूद होता है। हालाँकि, एन्क्रिप्शन के बावजूद डाटा की सुरक्षा इस बात पर निर्भर करती है कि एन्क्रिप्शन कितना उन्नत और विकसित है।
- ‘ब्रूट फोर्स एक्विजिशन’ विधि का उपयोग करके पासवर्ड या पिन निकाला जाता है। कई कानून प्रवर्तन एजेंसियाँ अपराधों की जाँच करने, विशेषकर आतंकवाद से सम्बंधित मामलों के लिये ऐसे सॉफ्टवेयर का प्रयोग करती हैं।
PT Analysis
(IMEI : International Mobile Station Equipment Identity)
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