प्रश्न – कार्बन टैक्स क्या है? सभी देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन के बोझ को साझा करने से हमारा क्या मतलब है? (250 शब्द)

संदर्भ – वैश्विक जलवायु परिवर्तन और इसके दिखने वाले प्रभाव है।

 

पृष्ठभूमि:

  • यूरोपीय संघ ने वर्ष 2005 में अपने यहां एमिशन ट्रेडिंग स्कीम (ईटीएस) लागू की थी. इसका उद्देश्य कार्बन उत्सर्जन की मात्रा में कमी लाना था. यूरोपीय संघ के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में तीन प्रतिशत भागीदारी विमानों से फैलने वाले प्रदूषण की है. इसे रोकने हेतु संघ ने यूरोप के हवाई अड्डों का इस्तेमाल करने और वहां के आकाश से गुजरने वाले विमानों पर कार्बन उत्सर्जन टैक्स लगाने की घोषणा की थी.
  • पेरिस समझौते पर 2015 में हस्ताक्षर किए गए थे, जिसमें राष्ट्रों को सामूहिक रूप से वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) को सन 2100 तक 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित करने की बात कही गई थी। साथ ही, तापमान में वृद्धि को रोकने के लिए प्रयास करने की भी बात कही गई, जबकि तापमान पहले ही 1.5 डिग्री सेल्सियस के पार पहुंच चुका है।
  • इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए 2070 तक मानव जनित कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) उत्सर्जन को शून्य तक पहुंचाने, हवा से सीओ 2 को हटाने वाली रणनीतियों का उपयोग करने का निर्णय लिया गया था।

कार्बन कर (टैक्स) क्या है?

  • कार्बन कर एक अप्रत्यक्ष कर है. यह उन आर्थिक गतिविधियों पर लगाया जाता है जिनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनजीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
  • इसके द्वारा सरकारें अपना राजकोष भी संवर्धित करती हैं. इस कर से दो अन्य कर भी संबंधित हैं- उत्सर्जन कर और ऊर्जा कर. उत्सर्जन कर जहाँ प्रत्येक टन हरितगृह गैस के उत्सर्जन पर लगने वाला कर है, वहीं ऊर्जा कर ऊर्जा से संबंधित वस्तुओं पर आरोपित कर है.
  •  संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 1992 में बढ़ते हरितगृह गैस के स्तर को नियंत्रित करने तथा इससे पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को कम करने की दिशा में पहल की.
  • एक कार्बन टैक्स जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने और अंततः नष्ट करने के लिए मुख्य नीति है जिसका दहन हमारी जलवायु को अस्थिर और नष्ट कर रहा है।

कार्बन टैक्स का उद्देश्य क्या है?

  • प्राथमिक उद्देश्य- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना है।
  • चूंकि टैक्स जीवाश्म ईंधन पर एक शुल्क लेता है, जो जलने पर कितना कार्बन उत्सर्जित करता है, इसके आधार पर लगता है
  • दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देश क्रमशः चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत और रूस हैं।

 

कार्बन टैक्स और “सीमा का आवंटन”( cap and trade) में क्या अंतर है साथ ही प्रदूषण कम करने की विधि क्या है ?

  • एक सीमा का आवंटन कार्यक्रम प्रत्येक वर्ष व्यक्तिगत कंपनियों के लिए उत्सर्जन “भत्ते” की एक निर्धारित संख्या जारी करता है।
  • कर के तहत सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों को कोटा दिया गया है. उन्हें साथ ही अन्य कंपनियों के साथ कोटे की खरीद-बिक्री का अधिकार भी दिया गया है.
  • वे कंपनियां जो प्रति वर्ष उत्सर्जन करने की अनुमति से कम प्रदूषण का उत्सर्जन करती हैं, वे अपने अतिरिक्त कोटे को किसी अन्य कंपनी को बेच सकती हैं इस तरह जो कंपनियां अपने प्रदूषण को तेजी से घटाते हैं, वे उन कंपनियों को प्रदूषण कोटा बेच सकती हैं जो भविष्य में उपयोग के लिए उन्हें अधिक प्रदूषित कर सकती  हैं।
  • इसलिए, एक कार्बन टैक्स सीधे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर एक मूल्य स्थापित करता है – इसलिए कंपनियों द्वारा उत्पादित उत्सर्जन के प्रत्येक टन के लिए एक डॉलर की राशि का शुल्क लिया जाता है – जबकि एक सीमा का आवंटन प्रोग्राम प्रत्येक वर्ष उत्सर्जन “भत्ते”( allowances) की एक निर्धारित संख्या जारी करता है। इन भत्तों को सबसे अधिक बोली लगाने वाले के साथ-साथ द्वितीयक बाजारों में कारोबार किया जा सकता है, जिससे कार्बन की कीमत तय की जा सकती है।

चिंताएँ:

  • जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है और इस समस्या को हल करना राष्ट्रों के बीच एक वैश्विक सहमति की आवश्यकता है। लेकिन राष्ट्रों के बीच एक वास्तविक सहमति गायब है।
  • जलवायु परिवर्तन पर सबसे हालिया अंतर सरकारी पैनल (IPCC) रिपोर्ट बताती है कि हम, मानव जाति के रूप में, ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने के लिए अभी एक दशक से अधिक का समय लग सकता है।
  • कुल वैश्विक उत्सर्जन में 2030 तक 2010 के स्तर से 45% की गिरावट और 2050 तक शुद्ध शून्य तक पहुंचने की आवश्यकता होगी। अगर यह पूरा नहीं होता है तो दुनिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र यानी ज्यादातर वैश्विक दक्षिण क्षेत्र (एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और कैरिबियाई देशों) कम-ऊंचाई वाले देश और पहले से मौजूद उच्च तापमान के कारण अपने स्थान पर सबसे अधिक प्रभावित होंगे।
  • ऊंचाई का मतलब मूल रूप से ऊंचाई है। जब कोई स्थान समुद्र तल से अधिक ऊँचाई में स्थित होता है अर्थात् ऊँची जगह समुद्र तल से ऊपर होती है तो वह ठंडा होगा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है, हवा पतली होती जाती है और गर्मी को अवशोषित और बनाए रखने में कम सक्षम होती है।
  • तो सबसे ज्यादा प्रभावित वे क्षेत्र होंगे जो एशियाई देशों की तरह कम ऊंचाई पर हैं।

समय में वापस देखना : (A look back in time)

  • ग्लोबल नॉर्थ(Global north countries) जैसे यूके, यूएसए, कनाडा, यूरोप के पश्चिमी भाग और एशिया के अन्य विकसित हिस्सों ने ग्लोबल साउथ (Global south countries) की तुलना में अधिक कार्बन उत्सर्जन में योगदान दिया है (यहां तक ​​कि वर्तमान में इसकी प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन तुलना में बहुत छोटा है) वैश्विक उत्तर के देश में )।
  • यह वैश्विक उत्तर द्वारा बनाई गई जीवन शैली विकल्पों के प्राप्त होने वाले छोर पर होता है।
  • लेकिन यह दोष देने और प्रतिवाद करने का समय नहीं है। यह परिवर्तन हम सभी को प्रभावित कर रहा है और सभी देशों तक एक साझा जिम्मेदारी पहुँचनी है।
  • लेकिन यह साझा बोझ ऐसा होना चाहिए कि उत्तर (ग्लोबल नॉर्थ)  ने जो किया है उसके लिए भुगतान करे और दक्षिण(ग्लोबल साउथ) अपना बकाए के लिए भुगतान करे।
  • वर्तमान में, शमन रणनीति का सबसे स्वीकृत मॉडल कार्बन ट्रेडिंग प्रक्रिया है। हालाँकि, इसकी अपनी सीमाएँ हैं।
  • इसके अलावा, जो आवश्यक है वह एक ऊर्जा पारगमन (transition) (JET) है ताकि गरीब देश वित्त या अन्य समान जरूरतों के बारे में चिंता किए बिना आसानी से परिवर्तन कर सकें।

तो आगे क्या किया जा सकता है?

  • सबसे पहले, ऊर्जा के बुनियादी ढांचे को मौलिक रूप से बदलना है। इसके लिए दुनिया भर में हरित ऊर्जा कार्यक्रम के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता होगी।
  • जो देश शीर्ष पर है , अपने स्वयं के ऊर्जा पारगमन के वित्तपोषण के अलावा, छोटे देशों के लिए आंशिक रूप से पारगमन का समर्थन करना होगा और विकास के बोझ का यह साझाकरण करना होगा
  • नवीकरणीय स्रोतों के लिए एक सफल ऊर्जा पारगमन के लिए, देशों को अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.5% खर्च करना पड़ता है। इसलिए यह प्रस्तावित है कि वैश्विक कार्बन कर की एक प्रणाली के माध्यम से वैश्विक ऊर्जा पारगमन को वित्तपोषित किया जाए
  • वे देश जो प्रति व्यक्ति औसत से अधिक वैश्विक उत्सर्जन करते हैं वे अपने स्वयं के पारगमन के लिए भुगतान करते हैं और उन लोगों के ऊर्जा पारगमन का एक हिस्से में निधि देते हैं जो इस औसत से नीचे हैं। इसलिए, जलवायु अन्याय के अंत में, कार्बन टैक्स बंटवारे की इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप पूरे विश्व में भूगर्भीय धरती पर पारगमन के लिए भी इसकी भरपाई की जानी चाहिए ।
  • वर्तमान में, कार्बन उत्सर्जन का वैश्विक औसत 4.97 मीट्रिक टन प्रति व्यक्ति है।
  • इस स्तर से अधिक उत्सर्जन वाले सभी देश (सभी में 68) ”लाभार्थी’ देशों (संख्या में 135) के लिए ऊर्जा पारगमन को वित्त देने के लिए “भुगतान करने वाले” हैं, जो इस स्तर से नीचे निकल रहे हैं।
  • दो शीर्ष भुगतानकर्ता देश पूर्ण रूप से स्थानान्तरण के मामले में अमेरिका और चीन हैं क्योंकि उनका उत्सर्जन वैश्विक औसत से अधिक है। जबकि l मुआवजे वाले देशों की सूची में भारत पहले स्थान पर है। करीब से निगरानी की भी जरूरत है।

 

अरोरा IAS इनपुट

कार्बन टैक्स का आधार

  • कार्बन टैक्स, नेगेटिव एक्सटर्नलिटीज़ के आर्थिक सिद्धांत (The Economic Principle of Negative Externalities) पर आधारित है।
  • एक्सटर्नलिटीज़ (Externalities) वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन से प्राप्त लागत या लाभ (Costs or Benefits) हैं, जबकि नेगेटिव एक्सटर्नलिटीज़ वैसे लाभ हैं जिनके लिये भुगतान नहीं किया जाता है।
  • जब जीवाश्म ईंधन के दहन से कोई व्यक्ति या समूह लाभ कमाता है तो होने वाले उत्सर्जन का नकारात्मक प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है।
  • यही नेगेटिव एक्सटर्नलिटीज़ है, अर्थात् उत्सर्जन के नकारात्मक प्रभाव के एवज़ में लाभ तो कमाया जा रहा है लेकिन इसके लिये कोई टैक्स नहीं दिया जा रहा है।
  • नेगेटिव एक्सटर्नलिटीज़ का आर्थिक सिद्धांत मांग करता है कि ऐसा नहीं होना चाहिये और नेगेटिव एक्सटर्नलिटीज़ के एवज़ में भी टैक्स वसूला जाना चाहिये।

 

कार्बन ट्रेडिंग किसे कहते हैं?

  • कार्बन क्रेडिट अंतर्राष्ट्रीय उद्योग में कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की योजना है. कार्बन क्रेडिट सही मायने में किसी देश  द्वारा किये गये कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने का प्रयास है जिसे प्रोत्साहित करने के लिए मुद्रा से जोड़ दिया गया है. कार्बन डाइआक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए क्योटो संधि में एक तरीक़ा सुझाया गया है जिसे कार्बन ट्रेडिंग कहते हैं. अर्थात कार्बन ट्रेडिंग से सीधा मतलब है कार्बन डाइऑक्साइड का व्यापार.

विकसित और विकासशील देशों के बीच क्या अंतर होता है?

  • क्योटो प्रोटोकॉल में प्रदूषण कम करने के दो तरीके सुझाए गए थे. इस कमी को कार्बन क्रेडिट की यूनिट में नापा जाना था.
  • इन तरीकों में पहला था कि विकसित देश कम प्रदूषण फ़ैलाने वाली तकनीकी को विकसित करने में पैसे लगाएं या फिर, बाजार से कार्बन क्रेडिट खरीद लें.
  • मतलब अगर विकसित देशों की कंपनियां खुद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी न ला सकें तो विकासशील देशों से कार्बन क्रेडिट खरीद लें.
  • चूंकि भारत और चीन जैसे देश में इन गैसों का उत्सर्जन कम होता है इसलिए यहां कार्बन क्रेडिट का बाजार काफी बड़ा है.
  • कार्बन क्रेडिट पाने के लिए कंपनियां ऐसे प्रोजेक्ट लगाती हैं जिनसे हवा में मौजूद कार्बन डाइ ऑक्साइड में कमी आए या फिर कम प्रदूषण फ़ैलाने वाली तकनीकी के माध्यम से अपनी औद्योगिक गतिविधियाँ जारी रखें.

 

कार्बन ट्रेडिंग कैसे होती है ?

  • इस व्यापार में प्रत्येक देश या उसके अन्दर मौजूद विभिन्न सेक्टर जैसे ऑटोमोबाइल, टेक्सटाइल, खिलौना उद्योग या किसी विशेष कम्पनी को एक निश्चित मात्रा में कार्बन उत्सर्जन करने की सीमा निर्धारित कर दी जाती है.
  • यदि किसी देश ने अधिक औद्योगिक कार्य करके अपनी निर्धारित सीमा (cap and trade) का कार्बन उत्सर्जित कर लिया है और उत्पादन कार्य जारी रखना चाहता है तो वह किसी ऐसे देश से कार्बन को खरीद सकता है जिसने अपनी सीमा का आवंटित कार्बन उत्सर्जित नही किया है.
  • हर देश को कार्बन उत्सर्जन की सीमा का आवंटन (cap and trade) यूनाईटेड नेशनस फ्रेम वर्क कनेक्शन आन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) द्वारा किया जाता है.
  • ऐसा ही कार्बन व्यापार किसी देश की सीमा में स्थित कंपनी करती है. कार्बन ट्रेडिंग का बाजार मांग और पूर्ती के नियम पर चलता है. जिसको जरुरत है वो खरीद सकता है और जिसको बेचना है वो बेच सकता है.
  • उदाहरण के लिए ब्रिटेन, भारत में कोयले की जगह सौर ऊर्जा की कोई परियोजना शुरु करे. इससे कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम होगा जिसे आंका जाएगा और फिर उसका मुनाफ़ा ब्रिटेन को मिलेगा.

 

क्या  है क्योटो प्रोटोकॉल?

  • क्योटो प्रोटोकॉल जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन से संबंधित एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है जिसमें शामिल भागीदार देश उत्सर्जन कटौती लक्ष्यों के प्रति अंतरराष्ट्रीय रूप से बाध्य होते हैं।
  • 11 दिसंबर, 1997 को क्योटो, जापान में ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ को स्वीकार किया गया और यह 16 फरवरी, 2005 को प्रभावी हुआ।
  • क्योटो प्रोटोकॉल के विस्तृत नियम को वर्ष 2001 में माराकेश (Marrakesh), मोरक्को में आयोजित कोप-7 (COP-7) में स्वीकार किया गया और इसे ‘मारकेश समझौता’ कहा जाता है।
  • क्योटो प्रोटोकॉल की पहली प्रतिबद्धता अवधि वर्ष 2008 में प्रारंभ हुई थी और वर्ष 2012 में समाप्त हुई थी।

क्योटो प्रोटोकॉल की द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि

  • 2016 को दोहा, कतर में ‘क्योटो प्रोटोकॉल के दोहा संशोधन’ को अपनाया गया था।
  • संशोधन के तहत क्योटो प्रोटोकॉल के एनेक्स-1 (विकसित देशों) में शामिल देशों के लिए नई प्रतिबद्धताओं को शामिल किया गया।
  • ये देश ‘क्योटो प्रोटोकॉल की द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि 1 जनवरी, 2013 से 31 दिसंबर, 2020’ में शामिल प्रतिबद्धताओं को पूरा करने पर सहमत हुए हैं।

क्योटो प्रोटोकॉल की प्रथम प्रतिबद्धता अवधि बनाम द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि

  • क्योटो प्रोटोकॉल की प्रथम प्रतिबद्धता अवधि का कार्यकाल वर्ष 2008 से 2012 था जबकि द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि का कार्यकाल 2013 से 2020 तक है।
  • क्योटो प्रोटोकॉल की प्रथम प्रतिबद्धता के तहत 37 औद्योगिकीकृत देशों और यूरोपीय समुदाय ने ‘हरित गृह गैसों’ (GHG) के उत्सर्जन में वर्ष 1990 के स्तर से 5 प्रतिशत की कटौती की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी जबकि द्वितीय प्रतिबद्धता के तहत पक्षकारों ने हरित गृह गैस उत्सर्जन में वर्ष 1990 के स्तर से 18 प्रतिशत की कटौती की प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
  • भारत द्वारा क्योटो प्रोटोकॉल की द्वितीय प्रतिबद्धता अवधि के अनुसमर्थन को मंजूरी
  • इस प्रतिबद्धता अवधि के भीतर सतत विकास प्राथमिकताओं के अनुरूप ‘स्वच्छ विकास प्रक्रिया’ (CDM) परियोजनाओं के क्रियान्वयन से भारत में निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी।
  • भारत द्वारा द्वितीय प्रतिबद्धता की पुष्टि अन्य देशों को भी यह कदम उठाने के लिए प्रोत्साहित करेगी।
  • सारांशतः जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय आम सहमति को बनाए रखने में भारत द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए यह फैसला पर्यावरण की रक्षा और जलवायु न्याय के वैश्विक उद्देश्य पर प्रतिबद्ध राष्ट्रों के समुदाय में भारत के नेतृत्व को रेखांकित करता है।

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