The Hindu Editorials Notes हिंदी में for IAS/PCS Exam (7 सितम्बर 2019)
GS-2 Mains
प्रश्न – भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर टिप्पणी करें और आगे का रास्ता सुझाएं। (250 शब्द)
संदर्भ – भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं की बिगड़ती हालत।
पृष्ठभूमि (टीम अरोरा आईएएस इनपुट)
- भारत में उपचार की विभिन्न पद्धतियों में स्वास्थ्य सेवाओं के अलग-अलग स्तर हैं : सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मचारी, पारम्परिक उपचारक, स्वास्थ्य केन्द्र तथा अस्पताल। इन सभी को एक साथ “ स्वास्थ्य सेवा तंत्र “ कहा जाता है। स्वास्थ्य सेवा तंत्र में स्वास्थ्य कर्मचारी, डॉक्टर, नर्सें तथा अन्य सम्मिलित होते हैं। वे निजी प्रैक्टिस में हो सकते हैं ( अर्थात अपनी सेवाएं प्रदान करने के लिए फिस लेते हैं ) या वे समुदाय, सरकार, किसी धार्मिक/सेवा संस्था, कल्याण संस्था या किसी अन्य संगठन द्वारा समर्थित होते हैं। कभी-कभी वे भली भांति प्रशिक्षित होते हैं और कभी-कभी नहीं।
- भारत में स्वास्थ्य सेवा तंत्र में सरकारी व निजी सेवाएं सम्मिलित हैं । जबकि सरकारी स्वास्थ्य सेवा तंत्र का ढांचा व नेटवर्क अधिक वृहद है , यह ग्रामीण क्षेत्रों व उन लोगों तक पहुँचने में उतना सफल नहीं हुआ है । जहाँ इनकी आवश्यकता सर्वाधिक है । परिणामस्वरूप 80 प्रतिशत चिकित्सा सेवाएं निजी स्रोतों में आधुनिक चिकित्सा पद्धति, आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध , योग तथा प्राकृतिक चिकित्सा (नैचुरोपैथी) के प्रक्टिसनर्स को अधिक पसंद करती है क्योंकि उन तक पहुंच अधिक आसान होती है।
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र
प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र 20,000 -30,000 आबादी के लिए एक बनाया जाता है । एक प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र ये सब सेवाएं प्रदान करने के लिए सक्षम होना चाहिए ।
- स्वास्थ्य जानकारी ताकि हरके व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के बारे में बेहतर फैसले ले सके ।
- टीकाकरण जो अनके रोगों की रोकथाम कर सकते हैं जिनमें टिटनेस, खसरा, डिप्थीरिया, काली खांसी, पोलियो, टी. बी. तथा टीकाकरण से रोकी जा सकने वाली अन्य बिमारियां सम्मिलित हैं ।
- गर्भावस्था के दौरान देखभाल (प्रसव के पूर्व देखभाल) जो किसी महिला को गर्भावस्था में उसे व उसके अजन्मे बच्चे को प्रभावित करने वाली समस्याओं का गंभीर होने से पहले ही समाधान करने में सहायक होती है ।
- परिवार नियोजन सम्बंधित सेवाएं व पूर्ति जो महिलाओं को यह चुनने से सहायक होकर अनके जानें बचाती हैं कि महिलाओं को कितने बच्चे व कब-कब हों ।
- टी.बी. व मलेरिया का शीघ्र निदान तथा उपचार
- प्रजनन तंत्र के रोगों व यौन संचारित रोगों, का प्रबंधन व रोकथाम
- मामूली रोगों का उपचार
- समय पर रेफरल सेवाएं
- पर्यावरण की स्वच्छता जिसमें पीने के पानी के स्त्रोत्रों का शुद्धिकरण भी सम्मिलित हैं।
- स्वास्थ्य गाईड्स, स्वस्थ्य कर्मचारियों, स्वस्थ्य सहायकों व दाईयों का प्रशिक्षण
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र आम तौर पर बड़े कस्बों में होते हैं । प्रा०स्वा० केन्द्रों द्वारा दी जाने वाली सेवाएं देने के साथ-साथ यहां लोगों के उपचार के लिए 30 बिस्तर भी होते हैं । प्रा०स्वा०केन्द्रों की तुलना में यहां डॉक्टर व प्रशिक्षित नर्सों की संख्या अधिक होती है और ये महिलाओं व बच्चों के लिए विशेष सेवाएं भी प्रदान करते हैं । तदापि यहां भीड़-भाड होने और डॉक्टरों व नर्सों की अपने रोगियों को ठीक से न जानने की सम्भावना रहती है । सा०स्वा० कें० में विशेष उपकरणों से सज्जित प्रयोगशालाएं भी होती है जो रोक का कारण जानने के लिए परिक्षण कर सकती है
सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मचारी
कुछ समुदायों में अच्छी तरह से प्रशिक्षित, दक्ष कर्मचारी होते हैं । वे स्वास्थ्य कर्मचारी अकसर स्वास्थ्य पोस्ट या केंद्र पर कार्य करते हैं, लेकिन सभी नहीं । समुदाय स्तर पर स्वस्थ्य सेवाओं को आवश्यकता पड़ने पर महिलाएं पारम्परिक प्रसव सहायक या दाई या सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मचारी से ही सर्प्रथम सम्पर्क करती हैं । सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मचारीयों को ट्रेनिग दी जानी चाहिए। समुदाय के लोगों में साथ नजदीकी रूप से कार्य करके वे उन स्थानीय परम्पराओं तथा रिवाजों के बारे में सीख सकते हैं जो अनके सामान्य स्वास्थ्य समस्याओं की रोकथाम तथा उसके गंभीर रूप धारण करने से पहले ही उनका उपचार कर सकते हैं।
द हिन्दू एडिटोरियल सारांश
भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की स्थिति:
- स्पष्ट रूप से भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली की स्थिति अच्छी नहीं है।
- लोग प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल इकाइयों की तुलना में बुखार जैसी मामूली बीमारियों की जांच के लिए सीधे विशेषज्ञों के पास जा जाते हैं।
- अधिकतर स्वास्थ्य केंद्रों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है और वे राष्ट्रीय मापदंडों के अनुकूल नहीं हैं। स्वास्थ्य केंद्रों में आपातकालीन प्रसूती सेवाओं और कुशल मानव संसाधन की कमी एक प्रमुख बाधा बनी हुई है। पर्याप्त साजो-सामान, दवाओं की आपूर्ति और मानव संसाधन में कमी के कारण ज्यादातर स्वास्थ्य केंद्रों में बेहतर प्रसूति सेवाएं नहीं मिल पाती है।
- स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसव की दर काफी कम दर्ज की गई है और शहरी तथा ग्रामीण इलाकों में हालात लगभग एक जैसे ही हैं।
- प्रसव के दौरान रक्तस्राव को मातृ मृत्यु दर अधिक होने का एक प्रमुख कारण माना जाता है। लेकिन, ज्यादातर स्वास्थ्य केंद्रों में रक्तस्राव के प्रबंधन की व्यवस्था न के बराबर पायी गई है। महज 10 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और एक तिहाई सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर सहायक की मदद से सामान्य प्रसूति सेवाएं मिल पाती हैं। आपात स्थिति में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों से रेफरल केंद्र के रूप में कार्य करने की अपेक्षा रहती है, पर इस मामले में ये केंद्र खरे नहीं पाए गए हैं। दवाओं और अन्य जरूरी चीजों की आपूर्ति में खामियां स्थिति को और भी गंभीर बना देती हैं।
प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल- एक केस स्टडी- भारत और जापान
जापान:
- शुरुआत में जापान के आधुनिक चिकित्सा के इतिहास के शुरुआती समय में, पहुंच सीमित लोगों तक ही सीमित थी। जापान के आम लोगों को आधुनिक दवाओं से इलाज करना मुश्किल होता था ।
- इसलिए जापानी सरकार ने चीजों को क्रम में लाने के लिए कुछ कदम उठाए। उदाहरण के लिए, जापानी सरकार ने अस्पतालों के लिए अपने फंड को कम कर दिया। इससे अस्पतालों में बिना राज्य सब्सिडी के इलाज के कारण यह इलाज महंगा हो गया।
- इसलिए आम लोगों और यहां तक कि संपन्न वर्ग के एक वर्ग को इलाज के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की ओर रुख करना पड़ा। इसके कारण प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली फली-फूली और बेहतर हुई। अस्पताल ज्यादातर मेडिकल छात्रों को प्रशिक्षित करने और संक्रामक मामलों का इलाज करने जैसे कार्यों तक ही सीमित रहे थे।
- सरकार ने निजी क्लीनिकों और अस्पतालों में प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों के बीच किसी भी तरह की सांठगांठ को रोकने के लिए भी कदम उठाए।
- इसके साथ ही इन उपायों के परिणामस्वरूप प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की स्थिति में सुधार के साथ, क्लिनिक-आधारित पीसीपी (प्राथमिक देखभाल प्रदाता) की एक मजबूत लॉबी विकसित हुई।
- जापानी सोशल हेल्थ इंश्योरेंस को भी 1927 में लागू किया गया था, और तब पीसीपी के वर्चस्व वाले जापानी मेडिकल एसोसिएशन (JMA) बीमा की फीस तय करने वाले मुख्य खिलाड़ी थे।
भारत
- दूसरी ओर भारत में स्वास्थ्य देखभाल के एक “अस्पताल-उन्मुख”, तकनीकी लोकतांत्रिक मॉडल का विकास हुआ।
- जब हम अस्पताल-उन्मुख कहते हैं तो हमारा मतलब है कि लोग प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल क्लीनिक की तुलना में इलाज के लिए अस्पतालों में जाते हैं।
- यह सरकार द्वारा शहरी अस्पतालों के निर्माण के लिए भारी धनराशि आवंटित करने के माध्यम से किया गया था। यह प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल पर अधिक प्राथमिकता दी गई थी।
- इसके साथ ही एक अन्य गैर-पंजीकृत दोहरी-प्रैक्टिस प्रणाली थी, यानी सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में एक साथ अभ्यास करने वाले डॉक्टर थे
- इस प्रणाली ने इन दोहरे अभ्यास करने वाले डॉक्टरों को बहुत ही प्रभावशाली और शक्तिशाली समूह के साथ सुसंगत हितों द्वारा आयोजित करने की अनुमति दी।
- यह प्रभावशाली डॉक्टरों का समुदाय, जिसने सुपर-स्पेशिएलिटी मेडिसिन में एक आकर्षक भविष्य देखा, टेक्नोक्रैटिक अप्रोच (गवर्नेंस का एसेसिस्टम जिसमें निर्णय लेने वाले को जिम्मेदारी के दिए गए क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता के आधार पर चुना जाता है, विशेष रूप से वैज्ञानिकों के संबंध में या तकनीकी ज्ञान से होता है ) तो किसी भी चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञ मुख्य निर्णय लेने वाले बन गए और इसलिए इन डॉक्टरों ने बाद में सबसे अधिक फीस की मांग शुरू करी ।
- इस सब के बाद प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदाता धीरे-धीरे प्रमुखता से बाहर हो गए। लोग प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं या प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल क्लीनिकों की तुलना में सामान्य बिमारियों के लिए भी विशेषज्ञों के पास जाने लगे।
- जब यह चल रहा था तब एक संपन्न मध्यम वर्ग का उदय हुआ, जिसके पास मामूली उपचार के लिए भी इन विशेष क्लीनिकों पर खर्च करने के लिए पैसे थे।
- घटनाओं के इस प्रक्षेपवक्र का वर्तमान भारतीय स्वास्थ्य देखभाल पर व्यापक प्रभाव पड़ा है।
वर्तमान परिदृश्य:
- हमारे देश में-हाई-टेक ’चिकित्सा देखभाल के प्रति दीवानगी यहां तक कि सब-स्टॉर्टनल सेक्शन (subaltern section) तक भी सिमट गई है, जिसमें इस तरह के हस्तक्षेपों के लिए भुगतान करने के साधनों का अभाव है।
- आयुष्मान भारत जैसी सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाएँ भी बड़े पैमाने पर निजी अस्पताल में भर्ती होने के लिए गरीबों को बीमा प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करती हैं – जब बुनियादी चिकित्सा देखभाल पर सबसे कम खर्च होता है। यह आंशिक रूप से तथाकथित उच्च गुणवत्ता वाली चिकित्सा देखभाल के लिए भावुक लोकप्रिय मांग से प्रभावित है और आज स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में विकृति को कम करता है।
- ऐतिहासिक भोरे समिति की रिपोर्ट (1946) ने भारत की स्वास्थ्य प्रणाली में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में एक ‘सामाजिक चिकित्सक’ की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
- लेकिन यह केवल 37 साल बाद ‘पारिवारिक चिकित्सा’ की स्थापना थी जो चिकित्सा अध्ययन में एक अलग शाखा के रूप में, जिसमें से कोई भी विशेषता प्राप्त कर सकता है।
- इस देश में डॉक्टरों का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वोच्च पेशेवर निकाय, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (MCI), स्वयं प्राथमिक देखभाल से कोई प्रतिनिधित्व नहीं करने वाले विशेषज्ञों का प्रभुत्व है। यद्यपि एमसीआई को एक राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) के साथ-साथ प्राथमिक देखभाल क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के साथ बदलने का प्रस्ताव है, लेकिन लोगों के संवेदीकरण के बिना स्थिति नए संगठन के साथ बहुत अलग होने की संभावना नहीं है।
- सरकार ने अब एनएमसी अधिनियम 2019 के तहत मध्य-स्तर के स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं को प्रशिक्षण प्रदान करने का निर्णय लिया है। लेकिन जिस तरह से इसका विरोध किया जा रहा है वह इस बात का उदाहरण है कि वर्तमान अधिकारी संरचना ,प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए कैसे अनैतिक है।
- इसी प्रकार, अल्पकालिक पाठ्यक्रमों के माध्यम से प्रशिक्षित आधुनिक चिकित्सा के चिकित्सकों (जैसे चिकित्सा सहायक) का कहना है कि साक्ष्य की उपस्थिति के बावजूद, 2-3 साल की अवधि के लोगों की तरह, ग्रामीण आबादी को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में बहुत मदद कर सकते हैं, ऐसा कोई भी रूढ़िवादी एलोपैथिक समुदाय द्वारा भारत में प्रस्ताव का कड़ा विरोध किया जाता है।
- आधुनिक चिकित्सा में आयुर्वेद जैसी चिकित्सा पद्धति के चिकित्सकों को प्रशिक्षित करने का प्रस्ताव भी इसी तरह के विरोध से मिलता है।
तो आगे क्या किया जा सकता है।
- सबसे पहले, लोगों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है और मिथक है कि गैर-एलोपैथिक चिकित्सक अच्छे नहीं होते इसको तोड़ने की जरूरत है। गैर-एलोपैथिक उपचार के माध्यम से ठीक होने वाले लोगों के उदाहरणों पर प्रकाश डाला जाना चाहिए। इस बात का बेहद ध्यान रखा जाना चाहिए कि इससे अंधविश्वास को बढ़ावा न मिले।
- दूसरा, U.K. और S.A जैसे देशों के उदाहरणों पर भी प्रकाश डाला जाना चाहिए जो आधुनिक चिकित्सा में दो वर्षीय पाठ्यक्रमों के माध्यम से चिकित्सक सहायक या सहयोगी बनने के लिए लगातार पैरामेडिक्स और नर्सों को प्रशिक्षित कर रहे हैं।
- इसके अलावा, हमें कई देशों से सीखना चाहिए, जिनमें यू.के. और जापान भी शामिल हैं, जिन्होंने शब्दों में सामान्य चिकित्सकों (GP) को उदारतापूर्वक प्रोत्साहन देकर इसके चारों ओर एक रास्ता खोज लिया है, और प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का दृढ़ता से पालन करने वाले सिस्टम की जांच करते हैं।
- हमें पीसीपी को पर्याप्त रूप से सशक्त और समृद्ध करने का एक तरीका खोजने की जरूरत है और उन्हें स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित हमारी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में एक प्रमुख आवाज देनी चाहिए।
- इसके अलावा बहुत महत्वपूर्ण रूप से एक गेट-कीपिंग सिस्टम (gate-keeping system) की आवश्यकता है, और किसी को भी प्राथमिक चिकित्सक को सीधे विशेषज्ञ तक पहुंचने के लिए बायपास करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, जब तक कि आपात स्थिति जैसी स्थितियों में इतना वारंट न हो।
- सामान्य चिकित्सकों या प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं को दरकिनार कर मामूली बीमारियों के लिए भी लोगों का रवैया सीधे तौर पर विशेषज्ञों की ओर रुख करने की जरूरत है। यह भी कि जो चिकित्सक अधिक शुल्क लेता है, उसे बेहतर तरीके से जांचना आवश्यक है।
(टीम अरोरा आईएएस इनपुट)
क्या है राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ?
- इस कमीशन के तहत 25 सदस्य शामिल होंगे जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाएगी। इनका कार्यकाल अधिकतम 4 वर्षों का होगा।
- इस विधेयक में शामिल अन्य महत्त्वपूर्ण प्रावधान हैं:
► भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के स्थान पर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का गठन करना।
► चिकित्सा शिक्षा सुधार के क्षेत्र में दूरगामी कार्य करना।
► प्रक्रिया आधारित नियमन की बजाय परिणाम आधारित चिकित्सा शिक्षा नियमन का अनुपालन करना।
► स्वशासी बोर्डों की स्थापना करके नियामक के अंदर उचित कार्य विभाजन सुनिश्चित करना।
► चिकित्सा शिक्षा में मानक बनाए रखने के लिये उत्तरदायी और पारदर्शी प्रक्रिया बनाना।
► भारत में पर्याप्त स्वास्थ्य कार्यबल सुनिश्चित करने का दूरदर्शी दृष्टिकोण विकसित करना।
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग की ज़रूरत क्यों?
- दरअसल, देश में स्वास्थ्य क्षेत्र बदहाल है और इसकी बदहाली के कई कारण हैं। मसलन, चिकित्सा शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार और नैतिकता एवं कुशल प्रशासन के मानकों में लगातार गिरावट देखी जा रही है।
- उल्लेखनीय है कि लोढ़ा समिति, नीति आयोग और संसदीय स्थायी समिति ने बदहाली के इन कारणों का ज़िम्मेदार भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 को माना है।
- यह मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) को मेडिकल प्रशासन में असमान शक्तियाँ प्रदान करता है।
क्या है मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया?
- मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की स्थापना वर्ष 1934 में हुई थी। भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1933 के तहत स्थापित इस परिषद का कार्य एक मेडिकल पंजीकरण और नैतिक निरीक्षण करना था।
- दरअसल, तब चिकित्सा शिक्षा में इसकी कोई विशेष भूमिका नहीं थी, किन्तु वर्ष 1956 के संशोधन द्वारा स्नातक और स्नातकोत्तर दोनों ही स्तरों पर चिकित्सा शिक्षा की देख-रेख हेतु यह अधिकृत कर दिया गया।
वर्ष 1992 शिक्षा के निजीकरण का दौर था और इसी दौरान एक अन्य संशोधन के ज़रिये एमसीआई को एक सलाहकार निकाय की भूमिका दे दी गई। जिसके तीन महत्वपूर्ण कार्य थे-
- मेडिकल कॉलेजों को मंज़ूरी देना
- छात्रों की संख्या तय करना
- छात्रों के दाखिला संबंधी किसी भी विस्तार को मंजूरी देना
एमसीआई में सुधार आवश्यक क्यों?
- लाइसेंस-राज नियंत्रक की तरह, एमसीआई द्वारा मेडिकल कॉलेजों के लाइसेंस पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करना चिंताजनक है।
- साथ ही एमसीआई ने कई अव्यावहारिक आदेश भी जारी किये हैं, इस पेशे में नैतिक आचरण सुनिश्चित करने के अपने कार्य से वह दूर रहा है।
- यह मेडिकल कॉलेजों में सीटों की खरीद-फरोख्त को रोकने में विफल रहा है। साथ ही यह एक ऐसी सर्व-शक्तिशाली एजेंसी के रूप में उभरा है जो कॉर्पोरेट अस्पतालों से काफी प्रभावित है।