विदेश नीति के निर्धारक तत्व
विदेश नीति के इन निर्धारक तत्वों के बारे में विस्तृत विश्लेषण निम्नांकित हैं:
(1) जनसंख्या: जनसंख्या के महत्व का मूल्यांकन दो दृष्टिकोणों से किया जाता है-जनसंख्या और गुणात्मक पहलू । चीन और भारत जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े देश हैं जिस कारण वे विशाल स्थल सेना रखने में समर्थ हैं । वे विशाल मानव-स्रोत को गुणात्मक दृष्टि से भी मजबूत कर सकते हैं ।
जनसंख्या का गुणात्मक पहलू भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है । जनसंख्या की संख्यात्मक दृष्टि से अमरीका और जापान हालांकि चीन और भारत से छोटे हैं, किन्तु जनसंख्या की गुणात्मक दृष्टि से काफी बड़े हैं । गुणात्मक दृष्टि से सम्पन्न जनसंख्या वाले जापान, अमरीका, जर्मनी और ब्रिटेन विश्व में महत्वपूर्ण स्थिति बनाये हुए हैं ।
साथ ही यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि, जहां संख्यात्मक दृष्टि से बड़ी जनसंख्या वाला देश यदि अपने देशवासियों को गुणात्मक स्तर से समुन्नत कर दे तो वह विश्व में एक बड़ी शक्ति का स्थान ले लेगा । इस प्रकार विदेश नीति में जनसंख्या (संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों दृष्टिकोण से) एक महत्वपूर्ण तत्व है ।
(2) भौगोलिक स्थिति:
किसी भी देश की भौगोलिक स्थिति विदेश नीति निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । यह स्थायी तत्व है जिसमें अधिकांशतया परिवर्तन नहीं होता । भारत की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसे स्थल सेना नौसेना तथा वायुसेना तीनों का अपार व्यय सहन करना पड़ रहा है ।
नेपाल कि भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि, उसे नौसेना रखने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि उसकी कोई भी सीमा समुद्र से लगी हुई नहीं है । इस प्रकार किसी देश की भौगोलिक स्थिति से उत्पन्न समस्याओं का कभी-कभी सामना करना पड़ता है तो कभी-कभी अन्य देश को उससे उत्पन्न फायदे भी अर्जित होते हैं । अत: भौगोलिक स्थिति विदेश नीति में एक प्रमुख स्थायी निर्धारक तत्व है, जिसकी विश्व का कोई भी राष्ट्र उपेक्षा नहीं कर सकता ।
(3) प्राकृतिक सम्पदा:
प्राकृतिक सम्पदा भी भौगोलिक स्थिति की तरह कमोवेश एक निश्चित और स्थायी तत्व है, लेकिन ऐसा नहीं है कि इसमें परिवर्तन हो ही नहीं । प्राकृतिक सम्पदा दोहन के बाद समाप्त हो सकती है । जैसा कि आजकल यह कहा जा जा रहा है कि, चालीस-पचास वर्षों में विश्व की तेल सम्पदा समाप्त हो जायेगी जिस कारण तेल का कोई नया विकल्प ढूंढा जाना चाहिए ।
प्राकृतिक सम्पदा की बहुलता के कारण ही आज अमरीका अत्यधिक समृद्ध राष्ट्र है । वह इतना अधिक सम्पन्न है कि विश्व के गरीब राष्ट्रों को विदेशी मदद देकर उनको अपने खेमे की ओर आकर्षित करता है अर्थात् प्राकृतिक साधनों के बल पर ही अमरीका छोटे देशों की विदेश नीतियों को अपने पक्ष में प्रभावित करता है ।
दूसरा दिलचस्प उदाहरण अरब देशों का है जो ‘तेल’ जैसी महत्वपूर्ण वस्तु के बल पर बड़ी शक्तियों की अर्थव्यवस्था तक को व्यापक रूप में प्रभावित कर रहे हैं । इसकी प्रतिक्रिया में अमरीका रूस और समस्त बड़ी शक्तियां इन अरब देशों से अच्छे सम्बन्ध कायम करने की कोशिश करती हैं । इस प्रकार विदेश नीति निर्धारण में प्राकृतिक सम्पदा के तत्व की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है ।
(4) औद्योगिक स्रोत और क्षमता:
विदेश नीति निर्धारण में औद्योगिक स्रोत और क्षमता एक प्रभावशाली तत्व है । विज्ञान और टेकॉन्लोजी के इस आधुनिक युग में औद्योगीकरण के चरण तेजी से बढ़ते जा रहे हैं । ओद्योगिक रूप से समृद्ध देशों में अमरीका ओर जापान के नाम बरबस ही लिए जाते हैं । अमरीका आज सारी विश्व राजनीति को प्रभावित करता है । इसका कारण ही उसकी औद्योगिक क्षमता है ।
एक समय अमरीका को शत्रु समझने वाला देश चीन अब अमरीका से अपने औद्योगिक विकास के लिए मदद ले रहा है । अमरीका और जापान के अनेक देशों में उद्योग-धन्धे हैं जिनसे वे अरबों डॉलर प्रतिवर्ष कमाने के साथ-साथ उन देशों के आन्तरिक घटनाक्रम को भी अपने पक्ष में बनाते हैं ।
भारत भी औद्योगिक दृष्टि से विकसित होने के कारण विकासशील देशों को औद्योगिक मदद दे रहा है । औद्योगिक रूप से विकसित देश अन्य देशों को औद्योगिक मदद देकर उनकी विदेश नीतियों को प्रभावित करते हैं ।
(5) सैनिक शक्ति:
आधुनिक युग में विश्व राष्ट्रों के बीच शस्त्रों की होड़ दिनों-दिन बढ़ रही है । शस्त्रीकरण की इस प्रवृत्ति का मूल कारण राष्ट्रीय सुरक्षा और दुनिया में शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरने की महत्वाकांक्षा है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका और सोवियत संघ दोनों शक्तिशाली राष्ट्र माने जाते रहे हैं । इसका सबसे प्रमुख कारण दोनों की अपार सैनिक शक्ति रही है ।
विश्व के अन्य राष्ट्र इन दोनों महाशक्तियों का उनकी सैनिक शक्ति के कारण सम्मान करते रहे हैं । अन्य राष्ट्र इनसे हथियार खरीदते हैं । एक समय था जब अमरीका द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के प्रारम्भिक वर्षों में सैनिक दृष्टि से सबसे ज्यादा शक्तिशाली राष्ट्र था और इसी कारण विश्व के अन्य राष्ट्र उसके खेमे के अन्दर चले गये, किन्तु जब कुछ वर्षों बाद सैनिक क्षेत्र में सोवियत संघ ने अमरीका के समक्ष क्षमता प्राप्त कर ली तो अनेक देश सोवियत छाता का सहारा लेने दौड़ पड़े । आइनिस क्लॉंड ने भी शक्ति के अपने विश्लेषण का मुख्य विषय सैनिक पहलू को ही माना है । इससे स्पष्ट है कि विदेश नीति निर्माण में सैनिक शक्ति का अत्यन्त महत्व है ।
(6) भाषा, धर्म, नस्त और संस्कृति:
विदेशी नीति के क्षेत्र में भाषा, धर्म, नस्ल, और संस्कृति की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है । भाषा और नस्त के कारण ही सीमान्त प्रदेश के पठानों के मसले को लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सम्बन्ध खराब रहे हैं । रंगभेद की नीति के कारण दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार को विश्व के राष्ट्रों ने अलग-थलग डाल दिया था । अरब-इजरायल युद्ध के पीछे धर्म एक प्रमुख कारण रहा है ।
विदेश नीति में भाषा के महत्व का आज के युग में अंग्रेजी की लोकप्रियता से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । जिन देशों में भाषा धर्म नस्ल और संस्कृति में साम्यता हो उनमें सहयोग करने की प्रवृत्ति पायी जाती है ।
धर्म के नाम पर मुस्लिम देश एक हो रहे हैं । इसी प्रकार ईसाई धर्म के नाम पर अनेक पश्चिमी देशों में एकता पायी जाती है, अत: स्पष्ट है कि विदेश नीति के क्षेत्र में भाषा, धर्म नस्त और सांस्कृतिक परम्पराए महत्वपूर्ण तत्व हैं ।
(7) विचारधारा:
किसी भी देश का समाज किसी राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पर आधारित होता है । यह व्यवस्था उस देश की विचारधारा से प्रभावित होती है उस देश की बनने वाली विदेश नीति में भी इसी विचारधारा की प्रमुख भूमिका होती है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि विचारधारा के आधार पर विश्व अमरीका और सोवियत संघ के अलग-अलग नेतृत्व में विभाजित हो गया । अमरीका ने पूंजीवादी विचारधारा का नेतृत्व किया तो सोवियत संघ ने साम्यवादी विचारधारा का ।
दोनों ने विश्व के अन्य देशों में अपनी-अपनी विचारधारा को फैलाने की नीति अपनायी । अमरीका ने सोवियत साम्यवाद के प्रसार को रोकने के प्रयास किये तो सोवियत संघ ने अमरीकी पूंजीवाद के । इसी प्रकार अन्य देश भी विदेश नीति निर्धारण में अपनी विचारधारा के सिद्धान्तों को अपनाते हैं ।
भारत अशोक और बुद्ध के जमाने से शान्तिप्रिय राष्ट्र रहा है । भारत द्वारा विदेश नीति के निर्धारण में शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का सिद्धान्त उसकी विचारधारा की अमिट छाप को स्पष्ट करता है ।
(8) नीति-निर्माता:
विदेश नीति-निर्धारण में नीति-निर्माता एक प्रमुख मानवीय तत्व है । इसके अन्तर्गत प्रमुख रूप से राजनेताओं, विदेश मन्त्रालय के अधिकारियों तथा कूटनीतिज्ञों को सम्मिलित किया जाता है । नीति-निर्माता विदेश नीति का निर्माण करते हैं । विदेश नीति-निर्माण के दौरान उसके प्रमुख तत्वों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करना उनकी प्रमुख जिम्मेदारी है, अत: नीति-निर्माता वह विशिष्ट वर्ग है जो देश की विदेश नीति के निर्धारण में सक्रिय भाग लेता है ।
(9) विश्व जनमत:
विदेश नीति के क्षेत्र में विश्व जनमत की प्रभावशाली भूमिका होती है । विश्व के किसी भी देश में संकट होने पर अन्य देशों की उस पर प्रतिक्रिया जरूर होगी । इसका प्रमुख कारण यह है कि अन्तर्निर्भरता के वर्तमान युग में किसी भी देश की विदेश नीति अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के साथ अन्त क्रिया करती है ।
कोई भी देश विदेश नीति-निर्माण के समय विश्व जनमत के अनुकूल या प्रतिकूल होने की सम्भावना पर विचार करता है । इसके अलावा आजकल विश्व के राष्ट्र विश्व जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए अनेक प्रकार के प्रचारात्मक कार्य करते हैं ताकि विश्व समुदाय में उसके मित्र राष्ट्र ज्यादा हों और शान्तिपूर्ण परिस्थितियों में वह चहुंमुखी आन्तरिक विकास कर सके ।
विदेश नीति के क्षेत्र में विश्व जनमत किस प्रकार प्रभावी भूमिका अदा करता है, इसका उदाहरण 1956 में ब्रिटेन फ्रांस और इजरायल द्वारा स्वेज संकट के बाद मिस्र पर किये गये अपने आक्रमण को वापस लेना है । इस आक्रमण को वापस लेने का कारण यह था कि इस बर्बर सैनिक आक्रमण के विरुद्ध विश्व जनमत ने उग्र रोष एवं विरोध व्यक्त किया था । अमरीका विश्व जनमत के कारण ही वियतनाम पर बमबारी रोकने को बाध्य हुआ । इस प्रकार विदेश नीति पर विश्व लोकमत का गहरा असर पड़ता है ।
(10) विश्व संगठन:
हरेक देश की घोषित विदेश नीति विश्वशान्ति और सुरक्षा की स्थापना के समर्थन की हामी होती है । किसी भी विश्व संगठन की स्थापना का उद्देश्य भी विश्वशान्ति और सुरक्षा कायम करना होता है । इस कारण राष्ट्र विश्व संगठन के सदस्य बन जाते हैं ।
उनका किसी अन्य देश से विवाद होने की अवस्था में वे इस विश्व संगठन से अपेक्षा रखते हैं कि यह विवाद के समाधान में सक्रिय भूमिका निभाये । दूसरी तरफ सदस्य राष्ट्र भी विश्व संगठन के उद्देश्यों और सिद्धान्तों तथा निर्णयों में बंध जाता है । 1945 में स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ का ही उदाहरण लें ।
इसके सदस्य राष्ट्र इसके चार्टर और घोषणा-पत्र से बंधे हुए हैं तथा वे उनके विभिन्न निर्णयों का पालन करते हैं । इस प्रकार विश्व-संगठन की सदस्यता स्वीकार करने के बाद सदस्य देश की विदेश नीति मर्यादित हो जाती है । अत: इसे विदेश नीति का एक तत्व माना जाता है ।
(11) सम्बद्ध देशों की प्रतिक्रिया:
हरेक देश विदेश नीति निर्माण के दौरान इस बाद को सदैव ध्यान में रखता है कि किसी विशेष नीति के अपनाने से सम्बद्ध देशों की प्रतिक्रिया क्या होगी ? उसे किस हद तक कौन-सी नीति अपनानी चाहिए । ताकि सम्बद्ध देश कम-से-कम नाराज हों । इन बातों पर बिना विचार किये किसी भी निर्णय के भयंकर परिणाम हो सकते हैं ।
यह बात अमरीका द्वारा चीन के साथ सम्बन्ध सुधारने के उदाहरण से अधिक स्पष्ट हो जायेगी । अमरीका ने साम्यवादी चीन से सम्बन्ध सुधारते वक्त ताइवान और सोवियत संघ जैसे सम्बद्ध देशों की प्रतिक्रिया का जरूर ख्याल किया होगा । ताइवान अमरीका का मित्र है और चीन का शत्रु, दूसरी तरफ चीन सोवियत संघ का शत्रु था ।
ऐसी परिस्थितियों में अमरीका ने चीन से सम्बन्ध सुधारने के पहले इस पर जरूर विचार किया होगा कि कहीं इस कदम से उसके सोवियत संघ और ताइवान पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा । यदि प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो वह किस हद तक होगा और उसके बारे में अमरीका को कौन-से सम्भावित कदम उठाने पडेंगे । इस प्रकार सम्बद्ध देशों की प्रतिक्रिया विदेश नीति का एक प्रमुख तत्व है ।