भारतीय संविधान: संसदीय संप्रभुता 

भारतीय संविधान संसदीय संप्रभुता के सिद्धांत को अपनाता है। इसका मतलब है कि भारत की संसद, जिसमें लोक सभा और राज्य सभा शामिल हैं, सर्वोच्च विधायिका है और इसके पास देश के लिए कानून बनाने और संशोधित करने की पूर्ण शक्ति है।

संसदीय संप्रभुता की मुख्य विशेषताएं:

  • सर्वोच्चता: संसद द्वारा बनाए गए कानून देश के सर्वोच्च कानून होते हैं और वे किसी भी अन्य कानून से ऊपर होते हैं।
  • असीमित शक्ति: संसद के पास अपनी शक्तियों को सीमित करने या किसी अन्य संस्था को शक्ति प्रदान करने के अलावा किसी भी विषय पर कानून बनाने की शक्ति है।
  • न्यायिक समीक्षा: संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है, लेकिन न्यायालय केवल यह तय कर सकते हैं कि कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं। वे कानूनों को रद्द नहीं कर सकते हैं।

उदाहरण:

  • लोक सभा ने 2023 में “नागरिकता संशोधन अधिनियम” पारित किया।
  • यह अधिनियम कुछ देशों से अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों को भारतीय नागरिकता प्रदान करता है।
  • कुछ लोगों ने इस अधिनियम को चुनौती देते हुए न्यायालय में याचिका दायर की।
  • न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अधिनियम संविधान के अनुरूप है, लेकिन उन्होंने कुछ प्रावधानों की व्याख्या की।

संसदीय संप्रभुता के लाभ:

  • लोकतंत्र: संसदीय संप्रभुता लोकतंत्र को मजबूत करती है क्योंकि यह लोगों द्वारा चुनी गई संसद को देश के लिए कानून बनाने की शक्ति प्रदान करती है।
  • दक्षता: संसद के पास त्वरित और कुशलता से कानून बनाने की शक्ति है, जो बदलती परिस्थितियों के अनुकूल होने में मदद करता है।
  • स्थिरता: संसदीय संप्रभुता सरकार में स्थिरता ला सकती है क्योंकि यह किसी भी एक व्यक्ति या समूह को बहुत अधिक शक्ति केंद्रित करने से रोकता है।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारत में संसदीय संप्रभुता पूर्ण नहीं है।

  • संविधान: संविधान संसद की शक्तियों को सीमित करता है और यह सुनिश्चित करता है कि कानून मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता के अनुरूप हों।
  • न्यायिक समीक्षा: न्यायालय संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की न्यायिक समीक्षा कर सकते हैं और यह तय कर सकते हैं कि वे संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
  • अंतर्राष्ट्रीय कानून: भारत

 

संसदीय संप्रभुता की सीमाएं – भारतीय परिप्रेक्ष्य:

जैसा कि बताया गया है, संसदीय संप्रभुता एक पूर्ण अवधारणा नहीं है, खासकर भारत में। आइए इसकी सीमाओं को भारतीय संदर्भ में देखें:

  • संविधान की सर्वोच्चता: भारतीय संविधान एक लिखित और कठोर संविधान है। यह संविधान संसद की सर्वोच्चता को सीमित करता है। संसद द्वारा बनाए गए कानून को संविधान के अनुरूप होना चाहिए। यदि कोई कानून संविधान का उल्लंघन करता है, तो उसे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है।
  • संविधान का संशोधन: हालाँकि संसद के पास व्यापक विधायी शक्तियाँ हैं, लेकिन संविधान को संशोधित करना आसान नहीं है। संविधान के संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। कुछ मामलों में, राज्य विधानसभाओं के अनुसमर्थन की भी आवश्यकता होती है। यह प्रक्रिया संविधान को संसद के क्षणिक जुनून से बचाती है और इसे दीर्घकालिक स्थिरता प्रदान करती है।
  • मौलिक अधिकार: भारतीय संविधान मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है, जो नागरिकों के कुछ बुनियादी अधिकार हैं। संसद ऐसे कानून नहीं बना सकती जो इन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हों।
  • संघीय ढांचा: भारत एक संघीय गणराज्य है। इसका मतलब है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा होता है। संसद केवल उन विषयों पर कानून बना सकती है जो संविधान के तहत उसे सौंपे गए हैं। राज्य सरकारें बाकी विषयों पर कानून बनाती हैं।

उदाहरण:

  • 2016 में, केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर आधार कार्ड को अनिवार्य बनाने का प्रयास किया।
  • कुछ लोगों ने इस कदम को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में चुनौती दी।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि आधार कार्ड कुछ मामलों में अनिवार्य हो सकता है, लेकिन इसे सभी के लिए अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता।

 संसदीय संप्रभुता की जटिलताएं (भारतीय संदर्भ में)

भारतीय संदर्भ में संसदीय संप्रभुता एक जटिल अवधारणा है जो नियंत्रणों और संतुलनों के ढांचे के भीतर संचालित होती है। स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिए इसकी सीमाओं और संभावित खड्डों को समझना आवश्यक है।

भारतीय संदर्भ में संसदीय संप्रभुता का विकास

  • ब्रिटिश प्रणाली से विरासत: भारत ने ब्रिटिश प्रणाली से संसदीय संप्रभुता की अवधारणा को विरासत में प्राप्त किया है। हालांकि, भारतीय संविधान के निर्माताओं ने जानबूझकर इसके दायरे को सीमित कर दिया ताकि अत्याचारी सरकार को रोका जा सके।
  • ऐतिहासिक फैसले : उच्चतम न्यायालय के फैसलों ने भारत में संसदीय संप्रभुता को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। केशवानंद भारती (1973) जैसे मामलों ने संविधान की “मूल संरचना” की अवधारणा को स्थापित किया, जिसे संसद द्वारा संशोधनों के माध्यम से भी दरकिनार नहीं किया जा सकता।

उभरती चुनौतियां

  • कार्यपालिका का उदय: कार्यपालिका शाखा की बढ़ती शक्ति, विशेष रूप से प्रधानमंत्री कार्यालय, संसद की विधि निर्माण में भूमिका को संभावित रूप से प्रभावित कर सकती है।
  • दलबंदी की राजनीति: मजबूत पार्टी अनुशासन ऐसी स्थितियों को जन्म दे सकता है जहां संसद सत्तारूढ़ दल के एजेंडे के लिए एक रबर स्टाम्प बन जाती है, जिससे वास्तविक बहस और असहमति के अवसर कम हो जाते हैं।
  • न्यायिक अतिरेक चिंताएं : जबकि न्यायिक समीक्षा आवश्यक है, कुछ का तर्क है कि अत्यधिक सक्रिय अदालतें संसद की विधायी दक्षता को बाधित कर सकती हैं।

संतुलन ढूँढना

  • मजबूत नागरिक समाज: एक जीवंत नागरिक समाज जो विधायी प्रक्रिया में सक्रिय रूप से जुड़ता है, संसद को जवाबदेह ठहराने और उत्तरदायी कानून बनाने के लिए महत्वपूर्ण है।
  • संसदीय सुधार: संसद के आंतरिक कामकाज को मजबूत करने के उपाय, जैसे कि विधेयकों की अधिक समिति-आधारित जांच को बढ़ावा देना, इसकी प्रभावशीलता को बढ़ा सकता है।

निष्कर्ष

भारत में संसदीय संप्रभुता एक जटिल अवधारणा है जो नियंत्रणों और संतुलनों के ढांचे के भीतर काम करती है। इसकी सीमाओं और संभावित नुकसानों को समझना एक स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।

 

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