गुप्तोत्तर काल की राजनीति
6ठीं शताब्दी ई. के मध्य अर्थात् 550 ई. के आस-पास गुप्त साम्राज्य पूर्णरूपेण छिन्न-भिन्न हो गया, जिससे एक बार फिर भारतीय राजनीति में विकन्द्रीकरण और विभाजन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिला। हर्ष ने एक सुदृढ़ प्रशासनिक ढांचा तैयार किया तथा लगभग 40 वर्षों तक एक विस्तृत क्षेत्र पर सुदृढ़ता के साथ शासन किया, किन्तु विघटनकारी तत्वों पर वह भी अंकुश न लगा सका।
इस काल में प्रमुख क्षेत्रीय वंश एवं राज्य थे:
- बल्लभी का मैत्रक वंश (475-770 ई०)
- मालवा का औलीकर वंश (528-543 ई०)
- कन्नौज का मौखरी वंश
- बंगाल का गौण राज्य
- मगध का उत्तर गुप्त वंश (480-730 ई.)
- पुष्यभूति वंश या वर्धन वंशः
हमनें एक स्वतंत्र लेख गुप्तोत्तर काल के प्रमुख वंश एवं शासक में इस बारे में विस्तार से चर्चा किया है, आपको इसे अवश्य पढना चाहिए|
गुप्तोत्तरकालीन प्रशासनिक व्यवस्था
गुप्तोत्तर प्रशासन गुप्त प्रशासनिक ढांचे पर ही आधारित था परंतु विकेंद्रीकरण के तत्कोव ज्यादा प्रबल हो गए थे| प्रशासन में सामंतो का विशिष्ट स्थान हो गया था।
हर्ष के काल में सामंतशाही एवं प्रशासनिक विकेंद्रीकरण को ज्यादा बढ़ावा मिला| राजा प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था, जो दैवी उत्पत्ति मे विश्वास करता था। राजा की सहायता के लिए एक बहुत बड़ी मंत्रिपरिषद होती थी|
मंत्री को सचीव अथवा अमात्य कहा जाता था। साम्राजय का विभाजन प्रांत या भुक्अति में किया गया था, जिसका शासक राजस्थानीय अथवा अपरिक कहलाता था। प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई ग्राम थी।
अधिकारियों को नकद वेतन की जगह भूमि अनुदान दिया जाता था| नौकरशाही में वंशानुगत तत्त्व प्रबल हो गए थे|इस काल में दंड विधान कठोर था।
गुप्तोत्तर काल में भी राजस्व का प्रमुख स्रोत भूमिकर था। इसके अतिरिक्त व्यापारिक मार्गो, बिक्री की वस्तुओ आदि पर भी कर आरोपित किया जाता था।
गुप्तोत्तर काल का इतिहास और सामाजिक जीवन
समाज वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था। समाज में अनेक वर्णसंकर जातियों का उदय होता है|
ब्राह्मणों को पूर्व की भांति समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। ब्राह्मणों द्वारा इस काल में अपने पेशे से इतर व्यवसाय अपनाने के भी साक्ष्य मिलते है| इस काल में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन वैश्यों एवं शुद्रों के मध्य दूरी कम हो गयी| शुद्रो के द्वारा शासनकाल भी उल्लेख मिलता है जैसे मतिपुर एवं सिन्ध के राजा शुद्र थे। इस काल में कुछ स्मृतिकारो ने विदेशी आक्रमण एवं सामाजिक दुर्व्यवस्था के समय ब्राह्मणों को शस्त्र धारण करने की छूट दी है।
इस काल में भी वैश्य राज्य का मुख्य करदाता बना रहा परंतु उसकी स्थिति में गिरावट आयी। क्षत्रियों के द्वारा शासन कार्य के अलारवा कृषि एवं व्यापार का भी कार्य किया जाने लगा। इस काल में सबसे ज्यादा अच्छा प्रभाव शुद्रों की स्थिति पर पड़ा।शुद्रों को सेवावृत्ति के अलावा अन्य व्यवसाय अपनाने की छूट दा गइ। ह्वेनसांग ने शुद्रों का खेतिहर वर्ग के रूप में उल्लेख किया है|
इस काल में अछूतों का एक बड़ा वर्ग था, जिसे अंत्यज कहा जाता था। ये लोग नगर के बाहर निवास करते थे| इस काल की एक अन्य बुराई थी दास प्रथा का व्यापक स्तर पर प्रचलन। दासों को खरीदा एवं बेचा जा सकता था। दासों का पश्चिमी देशों को निर्यात होता था।
इस काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आती है। समाज में अनुलोभ तथा प्रतिलोभ विवाह, अंर्तजातीय विवाह, बहु विवाह, सती प्रथा तथा बाल विवाह आदि का प्रचलन था। बाल विवाह का प्रभाव स्त्रियों की शिक्षा पर भी पड़ा। केवल कुलीन परिवार की कन्याएं ही शिक्षित होती थीं। स्त्रियों को सम्पत्ति विषयक अधिकार से वंचित रखा गया तथा उनके लिए अनेक कर्तव्य निर्धारित कर दिए गए थे।
इस काल में अधीनस्थ शासकों तथा आधिकारियों आदि को वेतन के बदले भूमि अनुदान देने से एक नवीन प्रवृत्ति सामंतशाही का उदय हुआ। सामंत एक ऐसा वर्ग था, जो प्राप्त भू-अनुदान पर बिना श्रम के अपना जीविकोपार्जन करता था। यद्यपि भारत में इसका उदय गुप्त काल में हुआ परंतु गुप्तोत्तर काल में सामंतवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया।
गुप्तोत्तर काल में सामंतों को भू-राजस्व की वसूली के अलावा सेना रखने का भी अधिकार दे दिया गया। कालांतर में ये सामंत राज्य को चुनौती देने लगे तथा स्वतंत्र शासक की भांति व्यवहार करने लगे। परिणामस्वरूप विकेन्द्रीकरण के तत्व प्रबल हो गए तथा देश मुस्लिम आक्रमणकारियो के आगे झुक गया।
सामंतवाद ने किसानों के शोषण के साथ-साथ अंतर्राज्यीय व्यापार को आघात पहुँचाया परंतु सामंतों के विलासी स्वभाव ने स्थानीय शिल्प उद्योग को फलने-फुलने का मौका भी दिया।
इस काल में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह से समाज में अनेक वर्णसंकर जातियों का उदय होता है। अनुलोम विवाह में पुरूष उच्च वर्ण का एवं स्त्री निम्न वर्ण की होती थी, जबकि प्रतिलोम विवाह में संतान की सामाजिक स्थिति पिता और माता से निम्न होती थी। प्रतिलोम विवाह को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था।
समग्र रूप से देखने पर ज्ञात होता है कि इस काल में भी पूर्व की भांति ब्राह्मण एवं क्षत्रिय विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग बना रहा। वैश्यों की स्थिति में जहाँ गिरावट आयी, वहीं शुद्रों की स्थिति में सुधार होता है। स्त्रियों की स्थिति निम्न बनी रही तथा दासों की भी स्थिति खराब थी। भूमि अनुदानों के कारण एक नवीन वर्ग एवं व्यवस्था (सामंत तथा सामंतवाद) का उदय हुआ।
गुप्तोत्तर काल का इतिहास और धार्मिक जीवन
गुप्तोत्तर काल में हिन्दू बौद्ध एवं जैन धर्मों के अंदर अनेक पक्षों का विकास हुआ तथा तंत्रवाद जैसे सम्प्रदायों का उदय हुआ। धर्म में आडंबर एवं जटिलता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई।
हिन्दू धर्म के अंतर्गत शैव धर्म सर्वाधिक लोकप्रिय था| जबकि बौध्द धर्म के अंतर्गत महायान शाखा का सर्वाधिक विकास हुआ। जैन धर्म का प्रभाव पंजाब, बंगाल और दक्षिण भारत के कुछ भागों में था| इस काल में सभी धर्मों के अंतर्गत अनेक शाखाओं के विकास तथा धार्मिक क्रियाकलापों की कठोरता का कारण अरब आक्रमणकारियों एवं इस्लाम से अपने धर्म की रक्षा करना था।
गुप्तोत्तर काल के धार्मिक जीवन में शैव उपासना
शिव की प्राचीनता प्रागैतिहासिक है। नवपाषणकालीन लोगों ने भूमि का उर्वरा बढ़ाने के लिए शिव लिंगों की पूजी की थी। शिव का विकास रूद्र से शिवम् के रूप में हुआ। शैव धर्म का उदगम सैंधव सभ्यता में परलक्षित होता है, जहां मोहनजोदड़ों से प्राप्त एक मुहर पर पशुपति शिव का अंकन हुआ है।
- शैव सम्प्रदाय
- सम्पूर्ण सृष्टि की रचना तीन रत्नों एवं तीन पदार्थों में क्रिया के संयोग से।
- तीन रत्न (शिव कर्त्ता),शक्ति (करण), बिन्दु (उत्पादन) –
- तीन पदार्थ (पति शिव), पशु (जीवात्मा), पाश (बंधन)
- पाशुपत
- लकुलिश
- शिव का 28 वाँ अवतार
- इस सम्प्रदाय के लोग अपने हाथ में लगद (डंडा) धारण करते थे।
- कापालिक
- भैरव की पूजा, अतिवादी
- हाथ में नरमुण्डों की माला एवं शरीर पर शमसान की राख लगाते थे।
- कालामुख
- कापालिकों से भी ज्यादा अतिवादी कपालों में भोजन एवं सुरापान
- विरशैव या लिंगापत
- अल्लभप्रभु / बसव
- निष्काम कर्म में विश्वास, जाति-पति का खंडन, पुनर्जन्म को नकारा
- कश्मीरी शैव या त्रिक दर्शन
- दार्शनिक एवं ज्ञानमार्गी संप्रदाय
- नाथ पंथ या सहजयान सिद्धि सम्प्रदाय
- मत्स्येनद्रनाथ
गुप्त काल में शैव धर्म का अत्यधिक विकास हुआ। गुप्त काल में भूमरा एवं खोह से एकमुखी शिवलिंग तथा कमरदण्डा से चर्तुमुखी शिवलिंग का साक्ष्य मिलता है।
गुप्तोत्तर काल में शैव उपासना के अनेक प्रमाण मिलते हैं। हर्ष बौद्ध धर्म स्वीकार करने से पहले शैव मतानुयायी था। कामरूप का भास्करवर्मन एवं गौण नरेश शशांक शैव थे। ह्वेनसांग ने काशी में 100 शिव मंदिरों का उल्लेख किया है।
राजपूत काल में भी शैव धर्म अत्यंत प्रसिद्ध हुआ। पाल, चंदेल तथा सेन वंशीय शासकों के अभिलेख की शुरूआत पंचाक्षरी मंत्र नमः शिवाय से शुरू होता है।
दक्षिण भारत में प्रारंभ से ही शैव धर्म की जानकारी मिलती है। संगम साहित्य में प्रमुख रूप से तोलकाप्पियम, शिलपादिकारम एवं मणिमेखले नामक ग्रंथों में शैव उपासना के साक्ष्य मिलते हैं।
7वीं शताब्दी से लेकर 9वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में शैव नयनारों के द्वारा शिव भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। सैकिलार द्वारा रचित शैव ग्रंथ पेरीय पुराण में 63 नयनार संतों का उल्लेख मिलता है, जिसमें प्रमख रूप से अप्पर, तिरूज्ञानसमबंदर, सुन्दरमूर्ति, मणिवाचगर तथा महिला नयनार अमययार का नाम महत्वपूर्ण था।
शैव धर्म के विकास के साथ ही साथ विभिन्न प्रकार के पूजा करने वाले वर्गों का विकास हुआ, जो अपने विचारों एवं सिद्धांतों के अनुसार शिवोपासना करते थे। वामन पुराण तथा शैवागम नामक ग्रंथों में शैव धर्म के प्रमुख रूप से चार सम्प्रदायों शैव, पाशुपत, कापालिक तथा कालामुख का उल्लेख मिलता है।
गुप्तोत्तर काल के धार्मिक जीवन में शैव उपासना
शाक्त को ईष्टदेव मानकर पूजा करने वाले सम्प्रदाय को शाक्त कहा जाता है।मातृदेवी का उपासना तो प्राक् वैदिक कालीन है लेकिन शक्ति की उपासना वैदिक कालीन है|
वैदिक साहित्य में अदिति, उषा, सरस्वती आदि देवियों के विषय में जानकारी मिलती है| देवी के अधिकतर मंदिर पूर्व-मध्यकाल के हैं, जिसमें जबलपुर में भेड़ा घाट का प्रसिद्ध चौसठ योगनियों का मंदिर है। शाक्त धर्म में श्रीचक्र या चक्रपूजा का विशेष महत्व है।
गुप्तोत्तर काल के धार्मिक जीवन में वैष्णव उपासना
प्राचीन भगवत धर्म ही कालांतर में वैष्णव धर्म में परिवर्तित हआ। वैष्णव धर्म विष्णु की भक्ति पर आधारित है| गुप्तकाल में वैष्णव धर्म का विकसित स्वरूप परिलक्षित होता है। जिसमें साहित्य के साथ-साथ मूर्तियों एवं मदिरों में विष्णु की उपासना के संकेत मिलते हैं। हर्ष काल में भी वैष्णव धर्म एक लोकप्रिय धर्म रहा लेकिन इसका सबसे अधिक उत्कर्ष राजपूत कल में हुआ|
चंदेल राजाओं ने खजुराहों में विष्णु के कई मंदिर बनवाए। परमार पाल तथा सेन राजाओं के काल में भी विष्णु के कई मंदिर बने| दक्षिण भारत में वैष्णव आंदोलन का प्रारम्भ सर्वप्रथम पल्लवों के राज्य से हुआ।, उसके बाद यह दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में फैला। दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार अलवार संतों के द्वारा हुआ, जिसमें 12 संत प्रमुख थे|
वैष्णव धर्म में विष्णु के 10 अवतारों की कल्पना की गई है। जिसमे कल्कि (10वां) विष्णु का भविष्य में होने वाला अवतारा है| वैष्णव धर्म में पांचरात्रिक मत या व्यूहवाद का उदय हुआ। इसमें भगवान वासुदेव (नारायण) और उनके परिवारिक स्वरूपों(वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरूद्ध) की पूजा की जाती थी। इन्हीं चार व्यूहों से कालांतर में 16 उप-व्यूह एवं 4 विभेश्वर उत्पन्न हुए, जिसके फलस्वरूप वासुदेव की 24 मूर्तियों स्थापित हुई।
गुप्तोत्तर काल के धार्मिक जीवन में बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म
बौद्ध धर्म पूर्ववर्ती काल की तुलना में पतनशील अवस्था में था। इस काल में बंगाल एवं बिहार के पाल शासको तथा हर्ष ने बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान किया। बौद्ध धर्म की महायान शाखा का विकास हुआ।
बौद्ध धर्म की भांति जैन धर्म में भी अनेक सम्प्रदाय विकसित होते हैं। जैन धर्म में यक्ष-यक्षणियों का महत्व बढ़ जाता है| इस काल में जैन धर्म राजस्थान, गुजरात, मालवा तथा दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में लोकप्रिय था।
गुप्तोत्तर आर्थिक स्थिति
गुप्तोत्तर काल में भी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। उपज का 1/4 से 1/6 भाग राजस्व के रूप में वसूल किया जाता था।
इस काल में भूमि अनुदान का व्यापक प्रचलन हुआ, जिससे कृषि संबंधों में बदलाव आता है। भूमि अनुदानों के कारण सामंतवाद का विकास होता है। भूमि अनुदानों का एक उद्देश्य जहां परती भूमि को उपजाऊ बनाना था, वहीं दूसरी ओर ब्राह्मणों का समर्थन प्राप्त करना भी था|
भूमि का उसकी उत्पादकता के आधार पर वर्गीकरण किया गया था। उत्पादन की स्थानीय ईकाईयों द्वारा कृषि के विकास का प्रयास किया गया। मुक्त अथवा निःशुल्क अनुदान में दी गई। भूमि को प्राप्तकर्ता द्वारा बेचने या बंधक रखने का अधिकार नहीं था।
राज्य द्वारा भूमि की सिंचाई के लिए प्रयास किया जाता था। राजतंरगिणी में कश्मीर के शासक अवंतिवर्मन के मंत्री सूय्य द्वारा झेलम नदी पर बांध बनवाने का उल्लेख मिलता है। इस काल में भूमि के माप की कई ईकाईयां प्रचलित थीं, जिसमें निवर्तन प्रमुख था।
इस काल में कृषि अर्थव्यवस्था के सामंतीकरण तथा आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बावजूद आंतरिक तथा बाह्य व्यापार प्रणाली जीवंत रही।
पूर्वी तट पर ताम्रलिप्ति तथा पश्चिमी तट पर देवल, भड़ौच एवं खंभाल इस काल के प्रसिद्ध बंदरगाह थे। इन बंदरगाहों के माध्यम से भारत का मध्य एशिया तथा दक्षिण पूर्व एशिया से व्यापार होता था।
भारत द्वारा सूती वस्त्र, मसालो, हाथी दांत की वस्तुओं तथा अन्य विलासिता की वस्तुओं का निर्यात किया जाता था। जबकि भारतीय आयात की प्रमुख वस्तुएं सोना, चाँदि मुंगा, घोड़ा आदि थे।
इस काल में बाह्य व्यापार से ज्यादा विकास आंतरिक व्यापार का होता है, विशेषकर नए-नए शिल्पों का उदय होता है। कन्नौज, मथुरा बयाना से देश के दूसरे भागों के लिए व्यापारिक मार्ग जाते थे। अनेक छोटे-छोटे राज्यों के उदय ने अंतर्राज्यीय व्यापार को नुकसान पहुँचाया|।
इन राज्यों द्वारा मार्ग कर के अलावा अन्य प्रकार के करों ने अंतर्राज्यीय व्यापार को हतोत्साहित किया। इस काल में सिक्कों की कमी व्यापार-वाणिज्य के ह्यास को इंगित करती है। साधारण लेन-देन में कौड़ियों का प्रयोग किया जाता था।
गुप्तोत्तर काल में शिल्पी विभिन्न श्रेण्यिों में संगठित होते थे, जो एक ही व्यवसाय करने वाले का संगठन होता था। बंगाल क्षेत्र मलमल के लिए प्रसिद्ध था, मलावा क्षेत्र उत्तम नील एव अफीम के लिए, गुजरात सूती वस्त्र के लिए प्रसिद्ध था।
मुद्राओं, व्यापारिक श्रेणियों एवं मुहरो के अभाव तथा अनेक शिल्प नगरों के उजडने से यह सिद्ध होता है कि इस काल में व्यापार वाणिज्य के पतन के साथ-साथ समाज उतरोत्तर कृषि मूलक होता जा रहा था।
स्पष्ट है कि प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्तोत्तर काल एक महत्वपूर्ण काल खंड है|