प्लेटो का जीवन परिचय 

प्लेटो महान् यूनानी दार्शनिक थे। प्लेटो का जन्म 427 ई. पूर्व में एथेन्स के एक कुलीन परिवार में हुआ था। उनके पिता अरिस्टोन एथेन्स के अन्तिम राजा कोर्डस के वंशज थे। माता पेरिकतिओन यूनान के सोलन घराने से थी। प्लेटो का वास्तविक नाम एरिस्तोकलीज था, उसके अच्छे स्वास्थ्य के कारण उसके व्यायाम शिक्षक ने इसका नाम प्लाटोन रख दिया। 

प्लेटो 18 या 20 वर्ष की आयु में सुकरात की ओर आकर्षित हुआ। यद्यपि प्लेटो तथा सुकरात में कुछ विभिन्नताएँ थीं लेकिन सुकरात की शिक्षाओं ने इसे अधिक आकर्षित किया। प्लेटो सुकरात का शिष्य बन गया। प्लेटो का गुरु सुकरात था। सुकरात के विचारों से प्रेरित होकर ही प्लेटो ने राजनीति की नैतिक व्याख्या की, सद्गुण को ज्ञान माना, शासन कला को उच्चतम कला की संज्ञा दी और विवेक पर बल दिया। 399 ई0 पू0 में सुकरात को मृत्यु दण्ड दिया गया तो प्लेटो की आयु 28 वर्ष थी। इस घटना से परेशान होकर वह राजनीति से विरक्त होकर एक दार्शनिक बन गए। उसने अपनी रचना ‘रिपब्लिक’ में सुकरात के सत्य तथा न्याय को उचित ठहराने का प्रयास किया है। यह उसके जीवन का ध्येय बन गया। वह सुकरात को प्राणदण्ड दिया जाने पर एथेन्स छोड़कर मेगरा में चला गया। क्योंकि वह लोकतन्त्र से घृणा करने लग गया था। 

 

मेगरा जाने पर 12 वर्ष का इतिहास अज्ञात है। लोगों का विचार है कि इस दौरान वह इटली, यूनान और मिस्र आदि देशों में घूमता रहा। वह पाइथागोरस के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए 387 ई0 पू0 में इटली और सिसली गया। सिसली के राज्य सिराक्यूज में उसकी भेंट दियोन तथा वहाँ के राजा डायोनिसियस प्रथम से हुई। उसके डायोनिसियस से कुछ बातों पर मतभेद हो गए और उसे दास के रूप में इजारन टापू पर भेज दिया गया। उसे इसके एक मित्र ने वापिस एथेन्स पहुँचाने में उसकी मदद की।

प्लेटो ने 386 ई. पू. में इजारन टापू से वापिस लौटकर अपने शिष्यों की मदद से एथेन्स में अकादमी खोली जिसे यूरोप का प्रथम विश्वविद्यालय होने का गौरव प्राप्त है। उसने जीवन के शेष 40 वर्ष अध्ययन-अध्यापन कार्य में व्यतीत किए। प्लेटो की इस अकादमी के कारण एथेन्स यूनान का ही नहीं बल्कि सारे यूरोप का बौद्धिक केन्द्र बन गया। उसकी अकादमी में गणित और ज्यामिति के अध्ययन पर विशेष जोर दिया जाता था। उसकी अकादमी के प्रवेश द्वार पर यह वाक्य लिखा था- “गणित के ज्ञान के बिना यहाँ कोई प्रवेश करने का अधिकारी नहीं है।” यहाँ पर राजनीतिज्ञ, कानूनवेता और दार्शनिक शासक बनने की भी शिक्षा दी जाती थी।

अपने किसी शिष्य के आग्रह पर वह एक विवाह समारोह में शामिल हुआ और वहीं पर सोते समय 81 वर्ष की अवस्था में प्लेटो की मृत्यु हो गयी।

प्लेटो की प्रमुख रचनाएँ

सुकरात से सम्बन्धित रचनाएँ हैं। इन रचनाओं के विचार सुकरान्त के विचारों की ही अभिव्यक्ति है। 

  1. अपोलॉजी (Apology)
  2. क्रीटो (Crito)
  3. यूथीफ्रो (Euthyphro)
  4. जोर्जियस (Gorgias)
  5. मीनो (Meno)
  6. प्रोटागोरस (Protagoros)
  7. सिंपोजियम (Symposium)
  8. फेडो (Phaedo)
  9. रिपब्लिक (Republic)
  10. फेड्रस (Phaedrus)
  11. कथोपकथन (Dialogues) 
  12. पार्मिनीडिज (Parmenides)
  13. थीटिटस (Theaetetus)
  14. सोफिस्ट (Sophist)
  15. स्टेट्समैन (Statesman)
  16. फीलिबस (Philobus)
  17. टायमीयस (Timaeus)
  18. लॉज (Laws) 
  19. रिपब्लिक (Republic) 

प्लेटो का शिक्षा दर्शन 

स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन आदर्शवाद के साथ-साथ मानवतावाद के दर्शन पर आधारित था। स्वामी विवेकानंद ने समकालीन शिक्षा पद्धति की मानवतावादी दृष्टिकोण से आलोचना की। वह एक मानवतावादी थे तथा उन्हानें मनुष्य के लिए शिक्षा की वकालत की। उनके अनुसार, शिक्षा का कार्य हमारे मस्तिष्क में विद्यमान ज्ञान को उजागर करना है। स्वामी विवेकानंद का शैक्षिक विचार निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है: 

  1. समकालीन शिक्षा व्यवस्था के विपरीत, स्वामी विवेकानंद ने आत्मविकास हेतु शिक्षा की वकालत की। उन्होंने आत्मविकास हेतु ब्रह्मचर्य का सुझाव दिया। 
  2. स्वधर्म की पूर्ति शिक्षा का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है। इसके द्वारा, स्वामीजी ने सुझाव दिया कि दूसरों की नकल करने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं द्वारा विकास करना चाहिए। प्रत्येक बच्चे को उसकी आंतरिक प्रकृति के अनुसार विकास के अवसर दिए जाने चाहिए। 
  3. उन्होंने चरित्र निर्माण की वकालत की जो शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। उन्होंने कठिन परिश्रम, गुरुकुल शिक्षा पद्धति के अनुकरण हेतु नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को उत्पन्न करने, अच्छी आदतों के निर्माण, अपनी भूल से सीखना आदि को चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा की आवश्यकता के रूप में सुझाव दिया।
  4. आत्मविश्वास, मानव सेवा, साहस, सत्य की अनुभूति, मानव व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास, विविधता में एकता आदि शिक्षा के लक्ष्य थे। 
  5. स्वामीजी ने यह स्वीकार किया कि व्यक्ति के प्रयास के सभी पक्षों में उत्कृष्टता या पूर्णता शिक्षा का महान धर्म है।

शिक्षा का उद्देश्य 

प्लेटो ने शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य बताये:-

  1. अपने सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ रिपब्लिक में प्लेटो स्पष्ट घोषणा करता है कि ‘अज्ञानता ही सारी बुराइयों की जड़ है। सुकरात की ही तरह प्लेटो सद्गुणों के विकास के लिए शिक्षा को आवश्यक मानता है। प्लेटो बुद्धिमत्ता को सद्गुण मानता है। हर शिशु में विवेक निष्क्रिय रूप में विद्यमान रहता है- शिक्षा का कार्य इस विवेक को सक्रिय बनाना है। विवेक से ही मानव अपने एवं राष्ट्र के लिए उपयोगी हो सकता है।
  2. प्लेटो एवं अन्य प्राच्य एवं पाश्चात्य आदर्शवादी चिन्तक यह मानते हैं कि जो सत्य है वह अच्छा (शिव) है और जो अच्छा है वही सुन्दर है। सत्य, शिव एवं सुन्दर ऐसे शाश्वत मूल्य हैं जिसे प्राप्त करने का प्रयास आदर्शवादी शिक्षाशास्त्री लगातार करते रहे हैं। प्लेटो ने भी इसे शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य माना।
  3. सुकरात एवं प्लेटो के काल में ग्रीस में सोफिस्टों ने व्यक्तिवादी सोच पर जोर दिया था। लेकिन आदर्शवादी शिक्षाशास्त्रियों की दृष्टि में राज्य अधिक महत्वपूर्ण है। राज्य पूर्ण इकाई है और व्यक्ति वस्तुत: राज्य के लिए है। अत: शिक्षा के द्वारा राज्य की एकता सुरक्षित रहनी चाहिए। शिक्षा के द्वारा विद्यार्थियों में सहयोग, सद्भाव और भातश्त्व की भावना का विकास होना चाहिए। 
  4. न्याय पर आधारित राज्य की स्थापना के लिए अच्छे नागरिकों का निर्माण आवश्यक है जो अपने कर्तव्यों को समझें और उसके अनुरूप आचरण करें। प्लेटो शिक्षा के द्वारा नई पीढ़ी में दायित्व बोध, संयम, साहस, युद्ध-कौशल जैसे श्रेष्ठ गुणों का विकास करना चाहते थे। ताकि वे नागरिक के दायित्वों का निर्वहन करते हुए राज्य को शक्तिशाली बना सकें। 
  5. प्लेटो के अनुसार मानव-जीवन में अनेक विरोधी तत्व विद्यमान रहते हैं। उनमें सन्तुलन स्थापित करना शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कार्य है। सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास एवं उचित आचार-विचार हेतु ‘स्व’ को नियन्त्रण में रखना आवश्यक है। शिक्षा ही इस महत्वपूर्ण कार्य का सम्पादन कर सकती है। 
  6. जैसा कि हमलोग देख चुके हैं प्लेटो ने व्यक्ति के अन्तर्निहित गुणों के आधार पर समाज का तीन वर्गों में विभाजन किया है। ये हैं: संरक्षक, सैनिक तथा व्यवसायी या उत्पादक वर्ग। दासों की स्थिति के बारे में प्लेटो ने विचार करना भी उचित नहीं समझा। पर ऊपर वर्णित तीनों ही वर्णों को उनकी योग्यता एवं उत्तरदायित्व के अनुरूप अधिकतम विकास की जिम्मेदारी शिक्षा की ही मानी गई। 

इस प्रकार प्लेटो शिक्षा को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानता है। व्यक्ति और राज्य दोनों के उच्चतम विकास को प्राप्त करना प्लेटो की शिक्षा का लक्ष्य है। वस्तुत: शिक्षा ही है जो जैविक शिशु में मानवीय गुणों का विकास कर उसे आत्मिक बनाती है। इस प्रकार प्लेटो की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य अत्यन्त ही व्यापक है।

पाठ्यक्रम 

उसके अनुसार जीवन के प्रथम दस वर्षों में विद्यार्थियों को अंकगणित, ज्यामिति, संगीत तथा नक्षत्र विद्या अनुसरण किया जाए तो यह अनुपयोगी है। विद्यार्थियों को कविता, गणित, खेल-कूद, कसरत, सैनिक-प्रशिक्षण, शिष्टाचार तथा धर्मशास्त्र की शिक्षा देने की बात कही गई। प्लेटो ने खेल-कूद को महत्वपूर्ण माना लेकिन उसका उद्देश्य प्रतियोगिता जीतना न होकर स्वस्थ शरीर तथा स्वस्थ मनोरंजन प्राप्त करना होना चाहिए। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क तथा आत्मा का निवास संभव है। प्लेटो की शिक्षा व्यवस्था में जिम्नास्टिक (कसरत) एवं नृत्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। 

प्लेटो ने साहित्य, विशेषकर काव्य की शिक्षा को महत्वपूर्ण माना है। काव्य बौद्धिक संवेदनशील जीवन के लिए आवश्यक है। गणित को प्लेटो ने ऊँचा स्थान प्रदान किया है। रेखागणित को प्लेटो इतना अधिक महत्वपूर्ण मानते थे कि उन्होंने अपनी शैक्षिक संस्था ‘एकेडमी’ के द्वार पर लिखवा रखा था कि ‘जिसे रेखागणित न आता हो वे एकेडमी में प्रवेश न करें।’ इन विषयों में तर्क का प्रयोग महत्वपूर्ण है- और सर्वोच्च प्रत्यय- ईश्वर की प्राप्ति में तर्क सहायक है।

शिक्षा के स्तर 

प्लेटो ने आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की तरह बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक विकास की अवस्था के आधार पर शिक्षा को विभिन्न स्तरों में विभाजित किया है। ये विभिन्न स्तर हैं- ;

  1. शैशवावस्था:- जन्म से लेकर तीन वर्ष शैशव-काल है। इस काल में शिशु को पौष्टिक भोजन मिलना चाहिए और उसका पालण-पोषण उचित ढ़ंग से होना चाहिए। चूँकि प्लेटो के आदर्श राज्य में बच्चे राज्य की सम्पत्ति है अत: राज्य का यह कर्तव्य है कि वह बच्चे की देखभाल में कोई ढ़ील नहीं होने दे। 
  2. नर्सरी शिक्षा:- इसके अन्र्तगत तीन से छह वर्ष की आयु के बच्चे आते हैं। इस काल में शिक्षा प्रारम्भ कर देनी चाहिए। इसमें कहानियों द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए तथा खेल-कूद और सामान्य मनोरंजन पर बल देना चाहिए।
  3. प्रारम्भिक विद्यालय की शिक्षा:- इसमें छह से तेरह वर्ष के आयु वर्ग के विद्याथ्र्ाी रहते हैं। वास्तविक विद्यालयी शिक्षा इसी स्तर में प्रारम्भ होती है। बच्चों को राज्य द्वारा संचालित शिविरों में रखा जाना चाहिए। इस काल में लड़के-लड़कियों की अनियन्त्रित क्रियाओं को नियन्त्रित कर उनमें सामन्जस्य स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। इस काल में संगीत तथा नृत्य की शिक्षा देनी चाहिए। नृत्य एवं संगीत विद्याथ्र्ाी में सम्मान एवं स्वतंत्रता का भाव तो भरता ही है साथ ही स्वास्थ्य सौन्दर्य एवं शक्ति की भी वृद्धि करता है। इस काल में गणित एवं धर्म की शिक्षा भी प्रारम्भ कर देनी चाहिए। 
  4. माध्यमिक शिक्षा:- यह काल तेरह से सोलह वर्ष की उम्र की है। अक्षर ज्ञान की शिक्षा पूरी कर काव्य-पाठ, धार्मिक सामग्री का अध्ययन एवं गणित के सिद्धान्तों की शिक्षा इस स्तर पर दी जानी चाहिए।
  5. व्यायाम :- यह सोलह से बीस वर्ष की आयु की अवधि है। सोलह से अठारह वर्ष की आयु में युवक-युवती व्यायाम, जिमनैस्टिक, खेल-कूद द्वारा शरीर को मजबूत बनाते हैं। स्वस्थ एवं शक्तिशाली शरीर भावी सैनिक शिक्षा का आधार है। अठारह से बीस वर्ष की अवस्था में अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग, घुड़सवारी, सैन्य-संचालन, व्यूह-रचना आदि की शिक्षा एवं प्रशिक्षण दिया जाता है। 
  6. उच्च शिक्षा:- इस स्तर की शिक्षा बीस से तीस वर्ष की आयु के मध्य दी जाती है। इस शिक्षा को प्राप्त करने हेतु भावी विद्यार्थियों को अपनी योग्यता की परीक्षा देनी होगी और केवल चुने हुए योग्य विद्याथ्र्ाी ही उच्च शिक्षा ग्रहण करेंगे। इस काल में विद्यार्थियों को अंकगणित, रेखागणित, संगीत, नक्षत्र विद्या आदि विषयों का अध्ययन करना था।
  7. उच्चतम शिक्षा:- तीस वर्ष की आयु तक उच्च शिक्षा प्राप्त किए विद्यार्थियों को आगे की शिक्षा हेतु पुन: परीक्षा देनी पड़ती थी। इसमें ‘डाइलेक्टिक’ या दर्शन का गहन अध्ययन करने की व्यवस्था थी। इस शिक्षा को पूरी करने के बाद वे फिलॉस्फर या ‘दार्शनिक’ घोषित हो जाते थे। ये समाज में लौटकर अगले पन्द्रह वर्ष तक संरक्षक के रूप में प्रशिक्षित होंगे और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करेंगे। राज्य का संचालन इन्हीं के द्वारा होगा। 

शिक्षण-विधि 

प्लेटो के गुरू सुकरात, संवाद (डायलॉग) द्वारा शिक्षा देते थे- प्लेटो भी इसी पद्धति को पसन्द करते थे। प्लेटो ने संवाद के द्वारा मानव जीवन के हर आयाम पर प्रकाश डाला है। एपालोजी एक अत्यधिक चर्चित संवाद है जिसमें सुकरात अपने ऊपर लगाए गए समस्त आरोपों को निराधार सिद्ध करते है। ‘क्राइटो’ एक ऐसा संवाद है जिसमें वे कीड़ो के साथ आत्मा के स्वरूप का विवेचन करते हैं। प्लेटो अपने गुरू सुकरात के संवाद को स्वीकार कर उसका विस्तार करता है। उसने संवाद को ‘अपने साथ निरन्तर चलने वाला संवाद’ कहा। सुकरात ने इसकी क्षमता सभी लोगों में पाई पर प्लेटो के अनुसार सर्वोच्च सत्य या ज्ञान प्राप्त करने की यह शक्ति सीमित लोगों में ही पायी जाती है। शाश्वत सत्य का ज्ञान छठी इन्द्रिय यानि विचारों का इन्द्रिय का कार्य होता है। इस प्रकार सुकरात अपने समय की प्रजातांत्रिक धारा के अनुकूल विचार रखता था जबकि इस दृष्टि से प्लेटो का विचार प्रतिगामी कहा जा सकता है।

 

 

प्लेटो का शिक्षा का सिद्धांत

प्लेटो अपने आदर्श राज्य में न्याय की प्राप्ति के लिए जिन दो तरीकों को पेश करता है, उनमें से शिक्षा एक सकारात्मक तरीका है। समाज में शिक्षा की बहुत आवश्यकता होती है। शिक्षा द्वारा ही समाज में भ्रातृभाव और एकता की भावना पैदा होती है। शिक्षा के महत्व को स्वीकारते हुए प्लेटो कहता है- “राज्य वृक्षों या चट्टानों से निर्मित नहीं होता, बल्कि उन व्यक्तियों के चरित्र से निर्मित होता है, जो उसमें रहते हैं, व्यक्तियों को श्रेष्ठ व चरित्रवान बनाने के लिए शिक्षा की बहुत आवश्यकता है। 

 

बार्कर के अनुसार- “शिक्षा एक मानसिक रोग का मानसिक औषधि से इलाज करने का प्रयास है।” शिक्षा व्यक्ति का समाज के प्रति दृष्टिकोण बदलकर उसे अच्छा व्यक्ति बनाती है।

शिक्षा का महत्व

  1. शिक्षा का सिद्धांत न्याय सिद्धांत का तार्किक परिणाम : अपने आदर्श राज्य को न्याय पर आधारित करने हेतु प्लेटो ने शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया है। न्याय का अर्थ व्यक्तियों और वर्गों द्वारा अपने स्वभावानुकूल विशिष्ट कार्यों का सम्पन्न करना है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति को विशिष्ट कार्य का प्रशिक्षण देकर कुशल व दक्ष बनाया जा सकता है। प्लेटो न्याय की रक्षा के लिए भी शिक्षा को आवश्यक मानता है।
  2. नागरिकों को सदग्ग्ण्णी बनाना : प्लेटो का शिक्षा-सिद्धांत इस बात पर आधारित है कि “सदग् णा ही ज्ञान है “ यदि सद्गुण ज्ञान है तो उसे सिखाया जा सकता है। नागरिकों को सद्गुणी बनाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता है ताकि समाज के तीनों वर्ग सद्गुणी बनकर अपने-अपने कर्त्तव्यों को स्वेच्छा से पूरा कर सकें।
  3. शिक्षा द्वारा व्यक्ति की आत्मा का विकास : प्लेटो का मानना है कि मनुष्य की आत्मा में अनेक श्रेष्ठ तत्त्व निवास करते हैं। इन्हीं अन्तर्निहित तत्त्वों को बाहर निकाल कर सही दिशा में गतिमान करना ही प्लेटो की शिक्षा का उद्देश्य है। शिक्षा एक ऐसा वातावरण तैयार करती है जो आत्मा को अपने विकास के प्रत्येक स्तर पर सहायता करती है। शिक्षा के अभाव में मानव आत्मा पथभ्रष्ट हो सकती है, जो समाज और व्यक्ति दोनों के लिए घातक है।
  4. शिक्षा व्यक्ति को सामाजिक बनाती है : शिक्षा व्यक्ति के हृदय में समष्टि का भाव भरती है और उसे आत्मसंयम का पाठ पढ़ाती है। यह व्यक्ति को सत्यवादी और आज्ञाकारी होने की सीख देती है तथा अहंकार व स्वार्थ को त्याग कर परमार्थ की ओर प्रेरित करती है। शिक्षा व्यक्ति की सामाजिक चेतना को जगाकर विभिन्न वर्गों में सामंजस्य व एकता स्थापित करती है।
  5. शिक्षा का राजनीतिक महत्त्व : शिक्षा के द्वारा शासक व सैनिक वर्ग को प्रशिक्षण प्राप्त होता है और दार्शनिक शासक का जन्म होता है। शिक्षा लोगों को राजनीतिक जीवन में भाग लेने के योग्य बनाती है। राज्य के प्रत्येक वर्ग को उसके कर्त्तव्य से अवगत कराती है। यह व्यक्ति के राजनीतिक जीवन को परिशुद्ध कर राज्य को एकता के सूत्रा में बाँधती है।
  6. शिक्षा का दार्शनिक महत्त्व : शिक्षा अपने आप में एक अच्छाई है। इसका अन्तिम लक्ष्य उस चरम सत्य की खोज करना है जो काल और स्थान से परे है, जो सृष्टि की सभी वस्तुओं का मूल कारण है, जो अपनी विभूति से सदा देदीप्यमान होता है एवं जिसकी ज्योति से समस्त चराचर प्रकाशित होता रहता है। इसी चिरंतन, शाश्वत और अटल सत्य की खोज कर व्यक्ति पार्थिव जीवन की सीमाओं से ऊपर उठने का प्रयास करता है।

प्लेटो के शिक्षा सिद्धांत का दार्शनिक आधार

प्लेटो की शिक्षा योजना के पीछे एक दार्शनिक दृष्टिकोण निहित है। प्लेटो की मान्यता है कि मनुष्य की आत्मा कोई निश्चेष्ट वस्तु न होकर सक्रिय तत्त्व है। अपनी सक्रियता के कारण मन अपने आप को पर्यावरण के हर पदार्थ की ओर अग्रसर करता है। अत: शिक्षक का कार्य तो इस सक्रिय आध्यात्मिक शक्ति को सौन्दर्य की ओर आकृष्ट करना है। प्लेटो के लिए शिक्षा का अर्थ है- “मन के ‘अन्तरचक्षु’ को प्रकाश की ओर प्रेरित करना।” प्लेटो की शिक्षा योजना का दूसरा महत्त्वपूर्ण दार्शनिक आधार यह है कि मनुष्य की आत्मा को अपनी सतत सक्रियता के लिए सतत भोज्य पदार्थ की उसी प्रकार आवश्यकता है जैसी कि भौतिक अस्तित्व के लिए शरीर को भोजन आवश्यकता है। अत: जब तब आत्मा का अस्तित्व है तब तक उसे शिक्षा द्वारा पोषक तत्त्व प्रदान किया जाना चाहिए। अत: शिक्षा जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। यह युवावस्था में भावनाओं और कल्पनाओं को संतुलित करती है तो प्रौढ़ावस्था में विज्ञान के द्वारा विवेक का विकास करती है और इसके बाद भी दर्शन के द्वारा विभिन्न शास्त्रों के पारस्परिक सम्बन्धों का ज्ञान कराती है एवं मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य को समझने हेतु अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है।

प्लेटो मानव मस्तिष्क की सोद्देश्यता में विश्वास करता है। इसकी दो बातें प्रमुख हैं- (i) मानव मस्तिष्क सदा एक उद्देश्य की ओर बढ़ता है क्योंकि यह विवेक प्रेरित होता है। (ii) यह सदैव एक ही उद्देश्य की ओर बढ़ता है और वह उद्देश्य है शिव (Good) की प्राप्ति। अत: मस्तिष्क सदैव एक ही उद्देश्य की ओर बढ़ता है और उन्हीं वस्तुओं को जानने का प्रयास करता है जिनके कुछ उद्देश्य होते हैं। शिव के स्वरूप की खोज करना विश्व की समस्त वस्तुओं का आधार है। अत: प्लेटो की शिक्षा की परिणति शिव के स्वरूप के ज्ञान प्राप्त करने में होती है। शिव के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ है सदाचारपूर्ण कार्य करना। यही सभी वस्तुओं का अन्तिम लक्ष्य है। इसी वास्तविक एवं अन्तिम अर्थ में प्लेटो ने सद्गुण को ज्ञान कहा है। अत: ‘ज्ञान ही गुण है’, यही प्लेटो की शिक्षा का दार्शनिक आधार है।

प्लेटो का शिक्षा सिद्धांत

प्लेटो ने रिपब्लिक में अपने शिक्षा-सिद्धांत पर विस्तार से चर्चा की है। रूसो के शब्दों में- “रिपब्लिक राजनीतिशास्त्र पर ही, वरन् शिक्षा पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है।” सेवाईन का मत है कि- “शिक्षा एक सकारात्मक साधन है जिसके द्वारा शासक एक सामंजस्यपूर्ण राज्य का निर्माण करने के लिए मानव प्रकृति को सही दिशा में ढाल सकता है।” प्लेटो अपने समय के एथेन्स व यूनान की शिक्षा पद्धतियों का गहरा विद्वान था। उसने अपने आदर्श राज्य में न्याय की प्राप्ति के लिए शिक्षा का जो सकारात्मक साधन पेश किया, वह एथेन्स व स्पार्टा दोनों की शिक्षा पद्धतियों पर आधारित था। इसलिए प्लेटो की योजना को समझने से पहले इन दोनों पद्धतियों को जानना आवश्यक है।

एथेन्स और स्पार्टा की शिक्षा प्रणालियों का पुनरावलोकन

एथेन्स की शिक्षा व्यवस्थाएथेन्स में शिक्षा परिवार का अपना उत्तरदायित्व था और राज्य का उस पर कोई नियन्त्रण नहीं था। तत्कालीन एथेन्स में प्रचलित शिक्षा समाजोन्मुखी न होकर व्यक्तिपरक थी जिससे राज्य के लिए अच्छे व्यक्तियों का निर्माण असम्भव था। परिवार को स्वतन्त्रता थी कि वे अपने बच्चों को कैसी भी शिक्षा दें और कहीं भी दें। रोमन साम्राज्य के समय तक एथेन्स में कोई राज्य-नियन्त्रित स्कूल नहीं था। प्रसिद्ध विधिशास्त्री सोलन के नियम के अनुसार- “माता-पिता का यह कर्त्तव्य था कि वे अपने बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध करें।” लड़के एवं लड़कियों के लिए शिक्षा की समान व्यवस्था नहीं थी। लड़कियों को घरेलू आवश्यकताओं की ही शिक्षा दी जाती थी। एथेन्स की शिक्षा प्रणाली तीन स्तरों में विभाजित थी, जिसका वर्णन इस प्रकार है :-

  1. प्राथमिक शिक्षा : प्राथमिक शिक्षा में केवल पढ़ना लिखना ही सिखाया जाता था और प्राचीन कविता, व्यायाम व संगीत की शिक्षा दी जाती थी। यूनान में कवि धर्म गुरु माने जाते थे, अत: उन्हें साहित्य के अध्ययन में नीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता था। शिक्षा का समय 6 से 14 वर्ष तक था।
  2. माध्यमिक शिक्षा : इस शिक्षा का लाभ अमीर लोग ही उठा सकते थे। भारी शिक्षा शुल्कों के कारण गरीब व्यक्ति शिक्षा से वंचित रह जाते थे। इसमें अलंकारशास्त्र, भाषण कला और राजनीति की शिक्षा दी जाती थीं इसका समय 14 से 18 वर्ष का था।
  3. सैनिक शिक्षा : एथेन्स के प्रत्येक युवक के लिए यह शिक्षा अनिवार्य थी। इस शिक्षा में दक्ष होने पर ही व्यक्ति को नागरिक अधिकार प्रदान किए जाते थे। शिक्षा का यह स्तर 18 से 20 वर्ष की आयु तक था। यह शिक्षा केवल 2 वर्ष तक राज्य द्वारा प्रदान की जाती थी।

एथेन्स की यह शिक्षा पद्धति व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और चारिित्राक विकास के लिए उपयुक्त थी, परन्तु इसका सबसे बड़ा दोष यह था कि इसमें शिक्षा देना राज्य का नहीं, परिवार का उत्तरदायित्व था। यह शिक्षा पद्धति राज्य की आवश्यकताओं और उसकी प्रकृति के अनुकूल नहीं थी। इसके परिणामस्वरूप एथेन्स अज्ञानी व अयोग्य शासकों द्वारा शासित रहा। प्लेटो ने इन दोषों को पहचानकर अपनी शिक्षा-पद्धति में इन दोषों का निराकरण किया। उसने इस शिक्षा प्रणाली की अच्छी-अच्छी बातों को ग्रहण कर लिया।

स्पार्टा की शिक्षा-प्रणाली

यह शिक्षा पद्धति राज्य द्वारा पूर्णतया नियन्त्रित थी। स्पार्टा का समाज प्राचीन ढंग का योद्धाओं का समाज था जिसके लिए योद्धाओं की आवश्यकता थी। इसलिए राज्य में सैनिक शिक्षा पर विशेष जोर दिया जाता था। शिक्षा परिवार का उत्तरदायित्व न होकर राज्य का अपना उत्तरदायित्व था। बच्चे 7 वर्ष की आयु तक ही अपनी माता के पास रहते थे। शिक्षा को राज्य के उद्देश्यों के अनुकूल ढालने के लिए बच्चों को 7 वर्ष के बाद राज्य अपने नियन्त्रण में ले लेता था। इसके बाद बच्चों को उनकी प्रतिभा, योग्यता, अभिरुचि के अनुसार राज्य द्वारा शिक्षा दी जाती थी। इस शिक्षा का उद्देश्य अच्छे लड़ाकू व रक्षक पैदा करना था। स्त्रियों के लिए भी शारीरिक शिक्षा जरूरी थी। 

 

प्लूटार्क ने लाइकरगस (स्पार्टा का विधि निर्माता) की जीवनी में लिखा है- “यहाँ बालक-बालिकाएँ एक साथ नग्नावस्था में विविध प्रकार के व्यायाम करते थे। युवतियों के शरीर दौड़, कुश्ती, बर्छी, भाला फेंकने आदि के व्यायामों द्वारा सुपुष्ट बनाए जाते थे ताकि उनकी सन्तान बलवान और पुष्ट हो सके और स्वयं स्त्रिया भी राज्य रक्षा में पुरुषों की भाँति भाग ले सकें।” इस तरह स्पार्टा में राज्य हित की पूर्ति के लिए परिवार को गौण बना दिया था और जीवन के सभी सुखों का सैनिक आवश्यकताओं के ऊपर बलिदान कर दिया था। स्पार्टा में 20 वर्ष की आयु के बाद विवाह की स्वतन्त्रता थी। विवाह एक गुप्त एवं अवैध सम्बन्ध होता था। पति-पत्नी वैवाहिक जीवन का आनन्द नहीं ले सकते थे। स्पार्टा की सामाजिक व्यवस्था भी राज्य की सैनिक आवश्यकताओं के अनुकूल थी। सभी नागरिक सामूहिक भोजनालयों में भोजन करते थे। स्पार्टा में अमीर गरीब का भेदभाव नहीं था। वहाँ कोई सोना या चाँदी रख सकता था। लोहे की मुद्रा प्रचलित थी। स्पार्टा का शासन कुलीन व्यक्तियों के हाथों में था। जनता आर्थिक व पारिवारिक चिन्ताओं से दूर अपना सारा समय राज्य के लिए अर्पित कर देते थे। इस शिक्षा प्रणाली को समस्त यूनान में ख्याति प्राप्त थी और समस्त यूनान विशेष तौर पर एथेन्स से युवक शिक्षा प्राप्ति के लिए वहाँ जाते थे।

स्पार्टा की इस शिक्षा प्रणाली का पाठ्यक्रम भी संकुचित एवं एकांगी था। इसमें साहित्यिक शिक्षा की उपेक्षा की गई थी, जिससे स्पार्टा की अधिकांश जनता पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे। उन्हें यूनान के साहित्य का कोई ज्ञान नहीं था। स्पार्टा में शारीरिक विकास तो हो सकता था लेकिन वहाँ मानसिक एवं बौद्धिक विकास उपेक्षित था। अत: यह शिक्षा व्यक्ति को पूर्ण नहीं बना सकती थी।

उपर्युक्त दोनों शिक्षा पद्धतियों का विश्लेषण करके बार्कर ने कहा है- “एथेन्स से प्लेटो की शिक्षा योजना का व्यक्तिगत पहलू आता है – मानव का सम्पूर्ण विकास होना चाहिए, स्पार्टा से उसका सामाजिक पहलू आता है – नागरिक को राज्य में उसके उचित स्थान पर प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से शिक्षा राज्य द्वारा नियन्त्रित होनी चाहिए।”

प्लेटो की शिक्षा के उद्देश्य

प्लेटो की शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना है। यह विकास ज्ञान पर ही निर्भर होता है। इसलिए प्लेटो ने अपनी शिक्षा के उद्देश्य बताए हैं :-

  1. व्यक्तित्व के पूर्णत्व की प्राप्ति के लिए प्लेटो के अनुसार शिक्षा को व्यक्ति के सामाजिक और वैयक्तिक दोनों के पक्षों के पूर्ण विकास के उद्देश्य को पूर्ण करना चाहिए।
  2. आदर्श राज्य के निर्माण को सम्भव बनाने के लिए विशेषकर संरक्षक वर्ग (सैनिक व दार्शनिक शासक) को प्रशिक्षित करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।
  3. स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा का निवास होता है। अत: शिक्षा का उद्देश्य शरीर और मस्तिष्क दोनों का विकास करना होना चाहिए।
  4. प्लेटो का मत है – सदाचार ही ज्ञान है। अत: शिक्षा का उद्देश्य केवल सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करना ही नहीं, उसे उस ज्ञान को आचरण में कैसे उतारा जाए इसका व्यावहारिक प्रशिक्षण भी देना चाहिए, प्लेटो के अनुसार विद्यार्थियों को पहले सैद्धान्तिक शिक्षा और उसे बाद प्रयोगात्मक शिक्षा दी जानी चाहिए।
  5. मनुष्य की आत्मा का गुण ज्ञान होने के कारण, शिक्षा का उद्देश्य भी ज्ञान प्राप्त करना है, प्लेटो के अनुसार मानव-आत्मा के पास स्वयं ज्ञान-नेत्रा होता है, शिक्षा तो उस ज्ञान-नेत्रा का रुख प्रकाश की ओर आकर्षित करती है। शिक्षा एक ऐसा वातावरण देती है कि आत्मा का ज्ञान स्वत: ही प्रकट हो जाए। प्लेटो के अनुसार शिक्षा आत्मनेत्रा को प्रकाशोन्मुख करती है।
  6. शिक्षा का उद्देश्य मात्रा वस्तुगत जगत् का ज्ञान प्राप्त करना नहीं है, अपितु वस्तुगत जगत् के मूल में निहित ‘सत्’ अर्थात अनन्त वास्तविकता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना है।
  7. शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को सौन्दर्य के प्रति आकर्षित करना है; अत: विशिष्ट कलाओं; जैसे साहित्य, संगीत आदि का प्रशिक्षण देना भी शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।

आदर्श राज्य में शिक्षा-योजना

प्लेटो की शिक्षा योजना स्पार्टा व एथेन्स की शिक्षा योजनाओं का मिला-जुला रूप है। लेकिन यह प्लेटो की अपनी देन होने के कारण मौलिकता के गुण से भी युक्त है। प्लेटो ने शिक्षा को जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया बताया है। प्लेटो की शिक्षा योजना 6 से 50 वर्ष तक की आयु तक चलने वाली प्रक्रिया व पाठ्यक्रम है। प्लेटो की शिक्षा योजना को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है :-

  1. प्रारम्भिक शिक्षा (Elementary Education)
  2. उच्चस्तरीय शिक्षा (Higher Education)
  1. प्रारम्भिक शिक्षा

प्लेटो प्रारम्भिक शिक्षा को तीन भागों में बाँटता है :-

 

(i) प्रारम्भिक शिक्षा 6 वर्ष की शिक्षा : इस समय में जन्म से 6 वर्ष की शिक्षा शामिल है। इस दौरान बालक को मुख्यत: छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से नैतिक और धार्मिक शिक्षा दी जाती है।

(ii) 6 से 18 वर्ष तक की शिक्षा : इसमें किशोरों को व्यायाम, अक्षरबोध, संगीत की शिक्षा शामिल है। प्लेटो ने इसे दो विषयों में समाहित किया है- (i) व्यायाम (Gymnastics) (ii) संगीत (Music) शिक्षा की यह योजना एथेनियन पाठ्यक्रम पर ही आधारित है जिसमें कुछ सुधार किए गए हैं।

  1. व्यायाम : व्यायाम द्वारा शरीर को स्वस्थ बनाया जा सकता है। बार्कर के शब्दों में-”व्यायाम मस्तिष्क के लिए शरीर का प्रशिक्षण है।” प्लेटो ने इसमें शरीर की समस्त शिक्षा को शामिल किया है। इसमें खुराक, व्यायाम और चिकित्सा भी शामिल है। प्लेटो का उद्देश्य है कि व्यायाम द्वारा विद्यार्थियों को हृष्ट-पुष्ट बनाकर उन्हें रोगमुक्त रखा जाए। प्लेटो ने व्यक्ति के शारीरिक विकास के लिए सात्विक भोजन पर बल दिया है। नैटलशिप के शब्दों में- “शारीरिक प्रशिक्षण में खुराक का सादापन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वस्तु है।” प्लेटो का मानना है कि जो व्यक्ति सादा भोजन करेगा, वह रोगमुक्त हो जाएगा। यदि नागरिक नियमित रूप से व्यायाम और सात्विक भोजन लेते रहेंगे तो वे कभी रोग की चपेट में नहीं आएँगे और उन्हें डॉक्टर की जरूरत नहीं होगी।
  2. संगीत : प्लेटो ने व्यायाम की तरह संगीत का भी व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। संगीत का अर्थ केवल गान-विद्या नहीं है। बार्कर के अनुसार- “यह मन के सामान्य प्रशिक्षण का मार्ग है।” प्लेटो के शिक्षा सिद्धांत में काव्य, साहित्य, इतिहास, गीत व नृत्य, चित्राकला, मूर्तिकला आदि सभी आ जाते हैं। प्लेटो के अनुसार संगीत मन को उसी तरह साधता है, जिस प्रकार व्यायाम शरीर को। काव्य, संगीत व मूर्तिकला का प्रभाव व्यापक होता है। इनकी ओर व्यक्ति स्वत: ही आकृष्ट होता है और अपने जीवन में नवजात शक्ति का अनुभव करता है। प्लेटो के अनुसार, संगीत शिक्षा द्वारा मनुष्य के शौर्यत्व पर संयम कायम रखा जाता है तथा बौद्धिक गुणों को बाहर निकला गया है। यह आत्मा का विकास करता है। अत: प्लेटो ने उसी संगीत का समर्थन किया है जो न्यायपरायणता के भाव भरे। प्लेटो ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा में सत् साहित्य को भी शामिल किया है। उसके अनुसार जो साहित्य व्यक्ति के उज्ज्वल चरित्रा, गुरुजनों तथा माता-पिता के प्रति आदर, भ्रातृ-भाव, साहस, सत्यप्रियता, आत्मसंयम आदि गुणों का विकास करता हो सत् साहित्य कहलाने का अधिकारी है। जो साहित्य भय, क्रोध, घृणा, पथभ्रष्टता आदि बुराइयों को बढ़ावा दे उसे छोड़ देना चाहिए। प्लेटो ने जन उपयोगी कविता को ही महऋत्त्व दिया है। वह देवमन्त्रा (Hymns to the Gods) तथा यशस्वी व्यक्तियों की प्रशस्तियाँ ही अपनी कविता में शामिल करना चाहता है, अन्य नहीं। कविता की ही तरह वह नाटक पर रोक लगाने का पक्षधर है। प्लेटो ने धर्म सुधार और साहित्यिक आलोचना का ही सूत्रापात किया है। प्लेटो ने धर्म, विश्वास और साहित्य के सही स्वरूप की रक्षा के लिए सुधार और आलोचना के तरीके अपनाए हैं। प्लेटो ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा में वाद्ययन्त्रों के चयन पर काफी जोर दिया है। वह नगरवासियों के लिए ‘लिरे’ (Lyre) तथा हार्प (Harp) को तथा ग्रामवासियों के लिए ‘पाइप’ (Pipe) को उचित ठहराया है। उसने वंशी को स्वीकृति प्रदान नहीं की है। प्लेटो संगीत के प्रभाव को शाश्वत मानता है। वह राग-रागनियों को सावधानीपूर्वक संगीत में शामिल करने की बात करता है। वह सरल लय व ताल को अपनाने की बात करता है। प्लेटो का कहना है कि सुरताल को सरल भेदों तक ही सीमित होना चाहिए। वह संगीत कभी भी मान्य नहीं हो सकता जिसमें न्याय की प्रभुत्वमयी छवि प्रतिबिम्बित नहीं हो।

(iii) 18 से 20 वर्ष तक की शिक्षा : प्लेटो इस अवधी के दौरान या 2 वर्ष तक सैनिक शिक्षा का प्रावधान करता है। इससे विद्यार्थियों में साहस, आत्म-नियन्त्रण तथा अनुशासन की प्रवृत्ति बढ़ेगी और वे राज्य की रक्षा करने के योग्य बनेंगे। यह शिक्षा राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण होगी।

  1. उच्चस्तरीय शिक्षा

प्लेटो ने उन विद्यार्थियों के लिए जो प्राथमिक स्तर पर प्रतिभावान होते हैं, उच्च शिक्षा का प्रावधान किया है। शेष प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों को सैनिक वर्ग में स्थान दिया जाता है। प्लेटो ने उच्च शिक्षा के दो स्तर निर्धारित किए हैं :- (क) 20 से 30 वर्ष तक। (ख) 30 से 35 वर्ष तक।

(क) 20 से 30 वर्ष तक की आयु के लिए शिक्षा : प्लेटो ने इस वर्ग के विद्यार्थियों के लिए चार विषयों – अंकगणित, रेखागणित, ज्योतिशास्त्र तथा स्वर-विद्या को स्थान दिया है। प्लेटो ने इस आयु में जिन विषयों के अध्ययन पर जोर दिया है, वे वैज्ञानिक अध्ययन के प्रतीक माने गए हैं। प्लेटो मानव आचरण और विकास के सन्दर्भ में विज्ञान को बहुत महत्त्व प्रदान करता था। प्लेटो ने सबसे अधिक महत्त्व अंकगणित को दिया है। उसके बाद रेखागणित, ज्योतिशास्त्र व स्वर-विद्या के अध्ययन पर भी बहुत जोर दिया है।

(ख) 30 से 35 वर्ष तक की आयु के लिए शिक्षा : 20 से 30 वर्ष की आयु में वैज्ञानिक शिक्षा के बाद एक परीक्षा का आयोजन करके गिने-चुने विद्यार्थियों को 30 से 35 वर्ष की आयु में द्वन्द्व और दर्शन (Dialectic and Philosophy) की शिक्षा दी जाएगी। कवायर ने कहा है- “दर्शन प्रौढ़ अवस्था के लिए है, युवावस्था के लिए नहीं।” प्लेटो ने द्वन्द्वात्मकता को गणित से भी बढ़कर माना है।

हम द्वन्द्वात्मक को तर्कशास्त्र, तत्त्वमीमांसा या सीधे दर्शन का नाम दे सकते हैं। इसमें केवल मनोविज्ञान का ही अध्ययनन न होकर, सत्ता के आदि और अन्त, सत्ता के कारण व ज्ञान का लक्ष्य का अध्ययन होता है। यहाँ प्लेटो का सत्ता से तात्पर्य उस नियामक शक्ति से है जो इस ब्राह्माण्ड का संचालन करती है और सद् का अस्तित्व कायम करती है। प्लेटो के अनुसार- “द्वन्द्वात्मकवादी वह है जो प्रत्येक वस्तु को निचोड़ की सम्बोधन तक पहुँचाता है और श्रेय के भाव का दर्शन कर लेता है।” यद्यपि ग्रीक जगत् में द्वन्द्वात्मकता का सिद्धांत सत्य तक पहुँचने के लिए और उसे साक्षात् करने के लिए एक प्रभावशाली साधन था लेकिन फिर भी इसे समझना कठिन होने के कारण सभी लोग इसे समझने में अयोग्य होते थे। यह सिद्धांत श्रेष्ठ बुद्धि वाले उन लोगों की ही समझ में आ सकता था जो सद्गुणी होते थे। इसे समझने का अथक प्रयास करते थे।

अत: प्लेटो की शिक्षा प्रणाली इस बात का संकेत है कि एक तरफ तो प्लेटो का राज्य नागरिकों में सामाजिकता का भाव जागृत करके शरीर और मन को स्वस्थ व शुद्ध भाव में राज्य की रक्षा का भार सौंपना चाहता है और दूसरी तरफ वह एक ऐसे दार्शनिक शासक का निर्माण करना चाहता है जो सद्गुणी होकर निष्पक्ष रूप से शासन करते हुए प्रजा में तालमेल व संतुलन बनाए रख सके।

प्लेटो की यह शिक्षा सैद्धान्तिक पक्ष से सरोकार रखती है, व्यावहारिक पक्ष से नहीं। अत: प्लेटो ने आगामी 15 वर्षों तक जीवन की पाठशाला में कठिनाइयाँ झेलकर व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था की है। प्लेटो का मानना है कि 50 वर्ष की आयु में ही दार्शनिक शासक बनने की प्रक्रिया पूरी होती है और उसे शासक वर्ग में शामिल कर लिया जाता है। अब यह राज्य का संचालन संभालकर भावी पीढ़ी की शिक्षा योजना का संचालन करता है और अपने उत्तराधिकारी तैयार करता है। 50 वर्ष के बाद भी व्यक्ति के आत्म-साक्षात्कार तथा अन्तिम सत्य की खोज के लिए शिक्षा चलती रहती है। आयु के बढ़ने के साथ-साथ राजनीति का क्षेत्र खाली होता जाता है और स्वयं अन्तिम सत्य के अन्वेषण में लग जाते हैं।

प्लेटो की शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ

  1. चरित्र निर्माण  पर बल : प्लेटो की शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को अच्छे या सद्गुणी बनाकर उन्हें राज्य के प्रति नि:स्वार्थ सेवा की भावना जगाना है। प्लेटो शिक्षा को एक ऐसा विद्यात्मक साधन मानता है जो नागरिकों का चरित्र निर्माण करती है।
  2. राज्य द्वारा नियन्त्रित तथा अनिवार्य शिक्षा : प्लेटो शिक्षा को व्यक्तिगत क्षेत्र में नहीं छोड़ना चाहता। वह शिक्षा पर राज्य के नियन्त्रण का पक्षधर है। प्लेटो का मानना है कि राज्य के नियन्त्रण के अभाव में शिक्षा व्यक्तिगत हितों की ही पोषक होगी, सामाजिक हितों की नहीं। प्लेटो ने शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक परिवार व व्यक्ति के लिए अनिवार्य कर दिया है। राज्य की ओर से शिक्षा की अनिवार्य व्यवस्था हो गई है।
  3. कला और साहित्य पर नियन्त्रण : प्लेटो काव्य और साहित्य पर कठोर नियन्त्रण का पक्षधर है। प्लेटो का उद्देश्य गन्दे साहित्य का निर्माण रोकना है। उसका उद्देश्य युवकों को बुरे रास्ते से हटाकर सद्मार्ग पर चलाना है ताकि वे अच्छे नागरिक बन सकें।
  4. स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान शिक्षा : प्लेटो की शिक्षा योजना स्त्री और पुरुष दोनों के लिए है। प्लेटो स्त्री-पुरुष में कोई स्वाभाविक अन्तर नहीं मानता है। वह इस दृष्टि से एथेन्स की शिक्षा प्रणाली का दोष दूर कर देता है क्योंकि उस समय एथेन्स में केवल पुरुषों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। प्लेटो का विश्वास था कि स्त्रिया भी राज्य को शक्तिशाली बनाने में योगदान दे सकती हैं। इसलिए दोनों को समान व अनिवार्य शिक्षा मिलनी ही चाहिए।
  5. शिक्षा राज्य के कर्त्तव्य के रूप में : अपने आदर्श राज्य में व्यक्ति को गुणी से सामाजिक बनाने के लिए शिक्षा को अनिवार्य माना है अर्थात् शिक्षा व्यक्ति तथा समाज दोनों का निर्माण करती है। अत: प्लेटो शिक्षा को निजी हाथों में न सौंपकर राज्य को सौंपता है। प्लेटो का उद्देश्य योजनाबद्ध तरीके से नागरिकों में कर्त्तव्यभावना पैदा करके उन्हें समाज के अनुरूप बनाना है। सेबाइन ने लिखा है- “प्लेटो की राज्य नियन्त्रित शिक्षा प्रणाली एथेन्स की शैक्षणिक कार्यशैली का नया परिवर्तन था।”
  6. शिक्षा मानसिक रोग का मानसिक उपचार है : प्लेटो सारी बुराई की जड़ अज्ञानता को मानता है। उसका कहना है कि शिक्षा द्वारा ही बुराइयों का अन्त किया जा सकता है। शिक्षा व्यक्ति के स्वभाव को राज्य के उद्देश्य के अनुकूल बदलत सकती है। बार्कर के अनुसार- “शिक्षा मानसिक रोग के उपचार के लिए एक मानसिक औषधि है।” अर्थात् यह मानसिक रोग का मानसिक उपचार है।
  7. नैतिक विकास पर बल : प्लेटो की शिक्षा योजना ‘सद्गुण ही ज्ञान है’ के सिद्धांत को स्वीकार करके व्यक्ति के नैतिक विकास की परिस्थितियाँ पैदा करती है। प्लेटो कला व साहित्य के ऐसे अंशों पर प्रतिबन्ध लगाने का पक्षधर है जो नागरिकों के नैतिक गुणों का Ðास करते हों।
  8. सर्वांगगीण विकास पर बल  : प्लेटो की शिक्षा प्रणाली व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक तीनों पक्षों के पूर्ण विकास पर बल देती है। प्लेटो की शिक्षा योजना व्यक्ति के प्रत्येक सद्गुण को विकसित करने का प्रयास करती है।
  9. शिक्षा केवल उच्च वर्ग के लिए : प्लेटो की शिक्षा प्रणाली में उत्पादक वर्ग के लिए शिक्षा का कोई पाठ्यक्रम ही नहीें है। प्लेटो की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य राजनेताओं का निर्माण करना है जिससे आदर्श राज्य का सपना साकार हो सके। अत: प्लेटो संरक्षक वर्ग के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने का पक्षपाती है।
  10. शिक्षा-योजना मनोवैज्ञानिक तत्त्वों पर आधारित है: प्लेटो ने मानव स्वभाव की प्रवृत्तियों और आत्मा के तीन तत्त्वों के अनुकूल ही अपनी शिक्षा व्यवस्था को आधारित किया है।
  11. शिक्षा का पाठ्यक्रम आयु-भेद व वर्ग-भेद पर आधारित : प्लेटो ने शिक्षा प्रणाली के दो भाग किए हैं – प्राथमिक व उच्च शिक्षा। दोनो शिक्षा स्तरों का आधार आयु व वर्ग-भेद है। प्रारम्भिक शिक्षा नौजवानों के लिए जबकि उच्च शिक्षा प्रौढ़ावस्था का प्रशिक्षण है तथा शासक वर्ग का भी इसमें गणित, तर्क, दर्शन व विज्ञान का ज्ञान दिया जाता है।
  12. प्लेटो की शिक्षा में सीखने की प्रक्रिया सरल से जटिल की और : प्लेटो की शिक्षा व्यवस्था में पाठ्यक्रम सरलता से जटिलता की आरे बढ़ता है। शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर पर संगीत, साहित्य, व्यायाम आदि सरल विषय पढ़ाए जाते हैं, परन्तु बीस वर्ष के बाद गणित, विज्ञान आदि कुछ जटिल विषय और अन्त में 30 वर्ष बाद द्वन्द्व व दर्शन का ज्ञान कराया जाता है।
  13. शिक्षा आजीवन प्रक्रिया : प्लेटो की शिक्षा योजना जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। 35 वर्ष से 50 वर्ष तक मनुष्य दार्शनिक व व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करता है। उसके बाद अन्तिम सत्य की खोज करता है। अत:यह आजीवन प्रक्रिया है।
  14. दार्शनिक शासक के लिए प्रशिक्षण : प्लेटो की शिक्षा का उद्देश्य एक ऐसे दार्शनिक शासक का निर्माण करना है जो सर्वगुणसम्पन्न हो और सैनिक व उत्पादक वर्ग पर समाज हित में पूर्ण नियन्त्रण व सभी वर्गों में एकता व सामंजस्य कायम रख सके।
  15. शिक्षा में गणित को महत्त्व : प्लेटो की शिक्षा योजना में सबसे अधिक महत्त्व गणित को दिया गया है। प्लेटो ने अपनी अकादमी के बाहर दरवाजे पर ये शब्द लिखे थे- “जिसे अंकगणित का ज्ञान नहीं, वह इसमें प्रवेश नहीं कर सकता।” अत: प्लेटो ने सर्वाधिक महत्त्व गणित को दिया है।

प्लेटो के शिक्षा सिद्धांत की आलोचना

प्लेटो के शिक्षा सिद्धांत की आलोचना के आधार हैं :-

  1. शिक्षा मात्रा अभिभावक वर्ग के लिए : प्लेटो शिक्षा को महान् वस्तु मानता है और उसे आदर्श राज्य का आचार बताता है किन्तु उसने समस्त नागरिकों के लिए शिक्षा का प्रबन्ध न करके केवल अभिभावक वर्ग (सैनिक व दार्शनिक वर्ग) के लिए ही शिक्षा की योजना प्रस्तुत की है। इस प्रकार उसकी शिक्षा योजना कुलीनतन्त्रावादी है जिसे आधुनिक दृष्टि से अप्रजातािन्त्राक कहा जाएगा। सेबाइन ने कहा है- “राज्य में शिक्षा के महत्त्वपूर्ण स्थान को देखकर यह आश्चर्यजनक प्रतीत होता है कि प्लेटो शिल्पियों (उत्पादक वर्ग) के लिए शिक्षा के सम्बन्ध में कोई विचार नहीं करता।” अत: यह सिद्धांत अभिजातवर्ग का ही पोषक है।
  2. उत्पादक वर्ग की उपेक्षा : प्लेटो की शिक्षा प्रणाली संकुचित है। प्लेटो ने बहुसंख्यक उत्पादक वर्ग की पूर्ण उपेक्षा की है। प्लेटो के न्याय सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक वर्ग, जिसमें उत्पादक वर्ग भी एक है, को अपने समस्त कार्य विशिष्टता के साथ करने चाहिएं। किन्तु प्लेटो यह भूल जाता है कि उत्पादक वर्ग बिना शिक्षा व प्रशिक्षण के अभाव में कार्य-कौशल व विशेषज्ञता कैसे प्राप्त करेंगे। अत: प्लेटो द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में उत्पादक वर्ग की अपेक्षा न्याय के सिद्धांत के विपरीत है।
  3. डॉक्टर एवं वकीलों का बहिष्कार : प्लेटो ने अपने राज्य से डॉक्टरों ओर सभी अदालती संस्थाओं का बहिष्कार किया है। उसके अनुसार व्यायाम और संगीत के प्रशिक्षण से नागरिक के शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे और इस प्रकार शारीरिक और मानसिक रोगों के होने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी। आलोचकों ने कहा है कि प्लेटो ने अपनी शिक्षा प्रणाली यह ही भरोसा किया है, डॉक्टरों व वकीलों पर नहीं।
  4. साहित्य की उपेक्षा: प्लेटो ने अपनी शिक्षा योजना में गणित को अधिक तथा साहित्य को कम महत्त्व दिया है। साहित्य जीवन व समाज का दर्पण है और मानव की कोमन भावनाओं को विकसित कर उसके दृष्टिकोण को व्यापक करता है।
  5. कला और साहित्य पर कठोर नियन्त्रण : काव्य और साहित्य पर कठोर प्रतिबंध लगाना उचित नहीं होता। इससे स्वतन्त्रा कलात्मक प्रवृत्ति मुरझा सकती है और उस पर विध्वंसकारी प्रभाव पड़ सकता है। कला और साहित्य का विकास स्वतन्त्रा वातावरण में ही हो सकता है। बार्कर के शब्दों में- “एक नैतिक उद्देश्य के लिए राज्य के पास में जकड़ी हुई कला मानव की भावनाओं को स्पर्श नहीं कर सकती और जो कला विशुद्ध कला के रूप में श्रोता या पाठक की भावनाओं को गुदगुदा नहीं सकती, वह उसके आधार को भी प्रभावित नहीं कर सकती।” 
  6. शिक्षा क्रम लम्बा और खर्चीला है : प्लेटो का शिक्षा-क्रम इतना लम्बा और खर्चीला है कि इसको धनी-वर्ग ही ग्रहण कर सकता है। 35 वर्ष तक लगातार अध्ययन से ज्ञान का उत्साह कम हो जाता है और लोगों में इसके प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है। यह राज्य की व्यक्ति के ऊपर जबरदस्ती थोपी गई इच्छा है।
  7. पुरुषों व स्त्रियों की प्रकृ्रति और भावना में अन्तर : प्लेटो ने सभी पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए एक ही प्रकार का पाठ्यक्रम निश्चित किया है। दोनों के स्वभाव एवं भावनाओं में अन्तर होने के कारण दोनों के पाठ्यक्रम में अन्तर होना आवश्यक है। प्लेटो ने दोनों के लिए समान शिक्षा व्यवस्था करने की भारी भूल है।
  8. शिक्षा-योजना में विरोधाभास : एक ओर तो प्लेटो शिक्षा व्यवस्था को आदर्श राज्य का आधार मानता है, दूसरी तरफ राज्य का नियन्त्रण स्थापित करता है। यदि उचित शिक्षा के द्वारा आदर्श राज्य की स्थापना हो सकती है तो राज्य का शिक्षा पर नियन्त्रण ठीक नहीं है। प्लेटो कहता है कि उचित शिक्षा की व्यवस्था राज्य द्वारा ही हो सकती है, लेकिन दूसरी ओर शिक्षा व्यवस्था आदर्श राज्य की स्थापना के बाद प्रारम्भ होती है। अत: प्लेटो के दृष्टिकोण में विरोधाभास है। बार्कर के अनुसार- “प्लेटो के शिक्षा सिद्धांत में कार्य सम्बन्धी आदर्श तथा चिन्तन सम्बन्धी आदर्श के बीच एक प्रकार की डगमगाहट पाई जाती है।”
  9. तकनीकी शिक्षा का कोई प्रावधान नहीं : प्लेटो ने अपनी शिक्षा योजना में तकनीकी शिक्षा का कोई प्रावधान नहीं किया है जो आज के औद्योगिक और तकनीकी विकास के लिए आवश्यक है। तकनीकी विकास के बिना किसी भी राज्य का आर्थिक विकास नहीं हो सकता।
  10. अनावश्यक एकरूपता का दोष : प्लेटो ने अपनी शिक्षा योजना में सदैव के लिए एक स्थायी और अपरिवर्तनशील पाठ्यक्रम निश्चित किया है। परन्तु वह मानव स्वभाव की रुचि की विविधता को भूल जाता है जिससे वैचारिक संकीर्णता बढ़ती है।
  11. शिक्षा योजना में अधिनायकवाद : प्रो0 अल्फ्रेड हार्नले के अनुसार प्लेटो के शिक्षा सिद्धांत में अधिनायकतन्त्रा के बीज छिपे हैं। फासीवादी, नाजीवादी और साम्यवादी के समान प्लेटो का राज्य भी शिक्षा पर पूर्ण नियन्त्रण रखता है, कला और साहित्य पर कठोर प्रतिबन्ध लगाता है, शासन के अनुरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व को ढालता है एवं व्यक्ति को अपनी प्रतिभा को स्वतन्त्रा रूप से मुखरित करने से वंचित करता है।
  12. व्यक्तित्व का स्वतन्त्रा विकास नहीं : प्लेटो ने व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास राज्य के हित के अनुकूल किया है। प्लेटो ने राज्य के हितों पर व्यक्ति के हितों की बलि चढ़ाकर व्यक्ति के व्यक्तित्व की स्वतन्त्रता पर ध्यान नहीं दिया है। पापर के अनुसार- “प्लेटो की शिक्षा का उद्देश्य आत्म-समीक्षा करना एवं समीक्षात्मक विचारों को जगाना नहीं, अपितु मत-शिक्षण है – मस्तिष्क और आत्मा के एक ऐसे साँचे में ढालना है कि वे स्वतन्त्रा रूप से कुछ करे के योग्य न हो सकें। 

प्लेटो की शिक्षा सिद्धांत का महत्व

प्लेटो के सिद्धांत की अनेक आलोचनाएँ हुर्इं फिर भी उसका बहुत महत्त्व है। प्लेटो के विचार आधुनिक युग के लिए भी सत्य है। आधुनिक युग में भी स्त्रियों की शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है, यह प्लेटो की देन है। मानसिक विकास के साथ-साथ शारीरिक शिक्षा पर भी आज जोर दिया जा रहा है। आज विश्व के अनेक देशों में खराब साहित्य पर राज्य रोक लगाता है। प्लेटो के शिक्षा सिद्धांत के महत्त्व हैं :-

  1. प्लेटो पहला चिन्तक है जिसने यह बताया कि शिक्षा का सम्बन्ध केवल जीवन के किसी एक निश्चित काल से न होकर समस्त जीवन से है। प्लेटो ने आजीवन शिक्षा की व्यवस्था की है।
  2. प्लेटो ने शिक्षा को आजीवन व निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया बताया है। यह सिर्फ मानसिक नहीं, धार्मिक, नैतिक और शारीरिक भी है; संकीर्ण नहीं, सर्वांगीण हैं, सैद्धान्तिक नहीं, व्यावहारिक भी है।
  3. प्लेटो उचित आयु के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था करता है।
  4. प्लेटो की शिक्षा का उद्देश्य शरीर और मस्तिष्क दोनों का विकास करना है।
  5. प्लेटो का प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की अनिवार्य व्यवस्था आज के राज्यों में भी पाई जाती है। यह प्लेटो के सिद्धांत का अनुसरण है।

मैक्सी के अनुसार- “प्लेटो की शिक्षा योजना अनेक दृष्टियों से आश्चर्यजनक रूप में आधुनिक लगती है।” प्लेटो ने शिक्षा पर जो बल दिया है तथा शिक्षा का जो व्यापक महत्त्व बताया है। उसके लिए संसार उस महान् शिक्षा-शास्त्री का सदैव ऋणी रहेगा। जावेट का सारगर्भित कथन है- “प्लेटो पहला लेखक है जो स्पष्ट रूप से कहता है कि शिक्षा का क्रम आजीवन चलना चाहिए।” अत: प्लेटो का शिक्षा सिद्धांत राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक अमूल्य एवं बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन है।

 

 

 

प्लेटो का दार्शनिक राजा का सिद्धांत

प्लेटो ने तत्कालीन एथेन्स की राजनीतिक दुर्दशा देखकर एक शक्तिशाली शासन की आवश्यकता महसूस की ताकि स्वार्थी तत्त्वों से आसानी से निपटा जा सके। उसने महसूस किया कि राजा इतना शक्तिशाली होना चाहिए कि वह आसानी से एथेन्स को राजनीतिक भ्रष्टाचार, व्यक्तिवाद व अस्थिरता के गर्त से निकाल सके और राज्य में शान्ति व्यवस्था कायम कर सके। इसलिए उसने अपने आदर्श राज्य की संकल्पना के न्याय को लागू करने के लिए दार्शनिक शासक का सिद्धान्त पेश किया है जो उसकी एक प्रमुख एवं मौलिक देन है। प्लेटो के अनुसार राज्य तभी आदर्श रूप प्राप्त कर सकता है जब उसका शासन कुशल, योग्य, ज्ञानी एवं स्वार्थहीन व्यक्ति के हाथ में हो। फोस्तर ने इसे प्लेटो का सबसे अधिक मौलिक विचार बताया है। राजनीतिक दर्शन के इतिहास में प्लेटो का यह सिद्धान्त जितना अधिक प्रेरणादायक और प्रगतिशील रहा हे, अन्य किसी चिन्तक का कोई सिद्धान्त नहीं रहा।

प्लेटो का दार्शनिक राजा का सिद्धांत

प्लेटो का दार्शनिक राजा का सिद्धान्त दो मान्यताओं पर आधारित है। पहली मान्यता यह है कि “सद्गुण ही ज्ञान है” (Virtue is Knowledge)। इसका सरल अर्थ यह है कि केवल तथ्यों की जानकारी को ही ज्ञान नहीं कहा जा सकता, अपितु तथ्यों के पीछे निहित ‘सत् (Good) को जानना और उसमें पूर्ण आस्था रखना ही ज्ञान है। सद्गुण वह है जो व्यक्ति व समाज के लिए ‘सत्यम् शिवम् व सुन्दरम्’ मूल्यों की स्थापना करता है और ऐसी सद्गुणमयी दृष्टि केवल प्रत्ययवादी ज्ञान (दर्शन) से ही प्राप्त हो सकती है। ऐसे ज्ञान प्राप्त व्यक्ति को प्लेटो दार्शनिक कहता है। सत्य ही वास्तविकता है और मनुष्य की इच्छा गौण है। सत्य का ज्ञान विवेक से ही हो सकता है। अत: विवेकी व्यक्ति ही शासन करने का अधिकारी है। ऐसा व्यक्ति जो सद्गुणी होगा, वह स्वयं भी न्यायी होगा और राज्य में भी न्याय की स्थापना करेगा। इससे नगर-राज्यों के सारे दोष दूर हो जाएंगे और आदर्श राज्य व्यवस्था की स्थापना होगी। अत: प्लेटो के राजदर्शन का तार्किक परिणाम ‘दार्शनिक शासक’ का शासन है। इसलिए बार्कर कहता है- “दार्शनिक राजा प्लेटो की राज्य-रचना की पद्धति का न्याय-संगत परिणाम है।”

प्लेटो की दूसरी मान्यता यह है कि आत्मा त्रिगुणी है। उसका एक अंश तृष्णा (Appetite) है जो अविवेकी इच्छा तथा वासनात्मक प्रवृत्ति का स्रोत है। दूसरा अंश शौर्य (Spirit) है जो मानव पुरुषार्थ, अभिलाषा, प्रतिस्पर्धा आदि गुणों का स्रोत है। तीसरा अंश विवेक है जो ज्ञान प्राप्त करने तथा प्रेम करने का मार्ग सिखाता है। ये तीनों तत्त्व राज्य-समाज में पाए जाते हैं, क्योंकि व्यक्ति और समाज की चेतना एक ही है। इन तत्त्वों के आधार पर समाज में तीन वर्ग पाए जाते हैं – उत्पादक वर्ग (तृष्णा प्रधान), सैनिक वर्ग (शौर्य प्रधान) और शासक वर्ग (विवेक प्रधान)। इन तीनों गुणों का सामंजस्य ही प्लेटो का आदर्श राज्य है। इस आदर्श राज्य के प्रशासन में सबसे अधिक महत्त्व विवेक तत्त्व का है। इस प्रकार विवेक के प्रतीक दार्शनिक व्यक्ति को ही आदर्श राज्य का शासन होना चाहिए।

प्लेटो के दार्शनिक राजा कौन है ?

प्लेटो के अनुसार एक दार्शनिक राजा में इन गुणों का होना आवश्यक है :-

  1. विवेक का प्रेमी : दार्शनिक राजा विवेक का संगी होगा। वह समस्त जगत् के ज्ञान का भण्डार होगा और जानने की इच्छा उसमें कभी समाप्त नहीं होगी। वह सदैव ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर रहेगा और अपने विवेक से जनता को लाभान्वित करेगा। मैक्सी के अनुसार- “एक सच्चा दार्शनिक ज्ञान से प्रेम रखता है न कि किसी मत से। वह क्रोध, घृणा, संकीर्णता, द्वेष, स्वार्थपरता आदि से दूर रहता है।”
  2. सत्य का प्रेमी : दार्शनिक राजा सत्य के मार्ग पर चलेगा। वह कभी सत्य के मार्ग से विचलित नहीं होगा। उसके मस्तिष्क में अविश्वास, निन्दा, झूठ, फरेब और धोखा आदि विचार नहीं आएंगे।
  3. आत्म नियन्त्रण : दार्शनिक शासक आत्म-नियन्त्रण के गुण से युक्त होना चाहिए। उसे सांसारिक मोह-माया के जाल से स्वयं को दूर रखना चाहिए। उसे अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण रखना चाहिए। उसमें आदेश व निर्देश देने की शक्ति होती है, जो अपने जीवन एवं शासन का संचालन स्वयं करता है।
  4. नि:स्वार्थता: प्लेटो का दार्शनिक राजा पूर्णत: नि:स्वार्थी होता है। उसका न अपना परिवार और न ही अपनी सम्पत्ति होती है। अत: वह नि:स्वार्थ भावना से सर्वकल्याण के कार्य में लगा रहता है। 
  5. सज्जनता आरै सामाजिकता : प्लेटो का दाशर् िनक राजा सज्जन, भद ्र आरै सामाजिक हागे ा। सक्ष्ं ापे में प्लेटो का दार्शनिक शासक श्रेष्ठ आत्मा के सभी गुणों से युक्त होता है। वह सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् का मूर्तिमान स्वरूप होता है। वह मृत्यु से नहीं डरता, असत्य का अलाप नहीं करता। उसमें सुन्दर आत्मा के सभी गुण होते हैं। उसे न्याय, सौन्दर्य और संयम के विचारों का तथा परम सत् का ज्ञान (Knowledge of eternal Truth) हो चुका होता है। अत: प्लेटो का दार्शनिक शासक प्रकृति के श्रेष्ठतम गुणों से युक्त होता है और उसका उत्तम ढंग से प्रयोग करता है।
  6. शांत स्वभाव : प्लेटो के अनुसार, “दार्शनिक शासक का स्वभाव शान्त होना चाहिए। वह अपने राज्य में शान्ति बनाए रखेगा। उसका अपना व्यक्तित्व होगा। उसकी जनता अमन-चैन से साँस लेगी।” इस प्रकार दार्शनिक शासक शील स्वभाव से युक्त होगा।
  7. न्याय का प्रेमी : आदर्श राज्य में दार्शनिक राजा ‘न्याय’ का प्रेमी होगा तथा वह यह भी ध्यान रखेगा कि राज्य के दो अन्य वर्ग – सैनिक और उत्पादक वर्ग अपने कर्त्तव्य का पालन उचित ढंग से करें ताकि न्याय की स्थापना हो सके।

अत: उपर्युक्त गुणों से युक्त दार्शनिक शासक ही शासन करने का अधिकारी होगा।

प्लेटो द्वारा दार्शनिक शब्द को नूतन अर्थ प्रदान करना

प्लेटो ने ‘दार्शनिक’ शब्द को सर्वथा अलग अर्थ में प्रयुक्त किया है जिसे हम भी साधारण बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त करते हैं। नैडलशिप के अनुसार- “दार्शनिक से प्लेटो का अर्थ वह नहीं है, जिसे हम लोग समझते हैं। शब्द के पूर्ण अर्थ में उसका अभिप्राय प्रतिभाशाली व्यक्तियों से है। हम लोग इस शब्द का अर्थ किसी ऐसे व्यक्ति से लेते हैं जो एक विशेष प्रकार के गुण से सम्पन्न हो। परन्तु प्लेटो ने इस सम्बन्ध में उन सारे गुणों का उल्लेख किया है जो एक महान् व्यक्ति को निर्मित करते हैं।” फॉस्टर के अनुसार- “दार्शनिक से प्लेटो का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो वैज्ञानिक चिन्तन की शक्ति से सम्पन्न और प्लेटो के अनुसार सच्चा ज्ञान ही विज्ञान है।” प्लेटो के अनुसार दर्शन का कार्य यह है िक वह न केवल गणित के क्षेत्र में बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में राय की जगह सच्चे ज्ञान की प्रतिष्ठा करे।

प्लेटो का दार्शनिक शासक ज्ञान का उपासक ही नहीं है अपितु ज्ञान और विद्वता का अपूर्व भण्डार है। वह सत्य का अन्वेषक, ज्ञान का प्रेमी, शान्ति का पुजारी, न्यायी, साहसी और संयमी है। उसकी बुद्धि तीव्र है, स्मरण शक्ति तीक्ष्ण है और चरित्र उज्ज्वल है। अत: दार्शनिक के द्वारा शासन से अभिप्राय ‘विद्वता का शासन’ अथवा ‘विवेक का शासन’ से है।

प्लेटो के दार्शनिक शासक की शिक्षा

प्लेटो अपनी शिक्षा पद्धति के माध्यम से दार्शनिक शासक का निर्माण करता है। 20 वर्ष तक की प्राथमिक शिक्षा की अवधि में व्यायाम और संगीत के द्वारा उसके शरीर और मन का विकास किया जाता है। 20 से 30 वर्ष तक विभिन्न विज्ञानों के द्वारा उसके विवेक को विकसित और आत्मचक्षु को सत्य की ओर उन्मुख किया जाता है। 30 से 35 वर्ष तक की अवस्था के बीच द्वन्द्वात्मकता की शिक्षा के द्वारा उसे सर्वोच्च सत्य का ज्ञान प्राप्त होता है। परन्तु शिक्षा यहीं पूर्ण नहीं होती। आगामी 15 वर्ष तक अपने सैद्धान्तिक ज्ञान को व्यावहारिक रूप देन के लिए उसे संसार की पाठशाला में विचरण करना पड़ता है। इस अवधि में उसे सोने की तरह अग्नि में तपाया जाता है ताकि वह भविष्य में शासक बनने पर भ्रष्ट और पथ से विचलित न हो। यहाँ तक कि कंचन और कामिनी का मोह भी उसे पथभ्रष्ट न करे। इस प्रकार उसे धन-लोलुप, स्वार्थी व आसक्त बनने से रोकने के लिए उसे सब प्रकार के प्रलोभनों से वंचित कर दिया जाता है।

प्लेटो के दार्शनिक शासक के कर्तव्य और बन्धन

कानूनों के बन्धन को अस्वीकार करते हुए भी प्लेटो अपने दार्शनिक शासक को कुछ अनुदेश (हिदायतें) देना जरूरी मानता है। ये अनुदेश ही दार्शनिक शासक के कर्त्तव्य हैं। ये कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं :-

  1. राज्य में अत्यधिक धन और अत्यधिक गरीबी अर्थात् अत्यधिक सम्पन्नता और अत्यधिक विपन्नता को आने से रोके क्योंकि दोनों की अधिकता राज्य के लिए हानिकारक है। अत्यधिक धन विलासिता, आलस्य और गुटबन्दी को जन्म देता है और अत्यधिक निर्धनता नीचता और बुरे कार्यों का जन्म देती है।
  2. जहाँ तक समभव हो राज्य को आदर्श राज्य के निकट बनाए रखे और उसके आधारभूत सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन न करे।
  3. राज्य का अत्यधिक विस्तार न हो अर्थात् एकता और आत्म-निर्भरता के अनुकूल राज्य का क्षेत्रफल हो। 
  4. न्याय सिद्धान्त का पालन कराए ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान के कार्य को करे और दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप न करे।
  5. राज्य की शिक्षा प्रणाली में कोई परिवर्तन न करे। प्लेटो कहता है कि सभी बुराइयों की जड़ त्रुटिपूर्ण शिक्षा है और उसका उपचार भी शिक्षा है। दार्शनिकों को सकारात्मक कर्त्तव्य है कि वे “आत्माओं का पोषण करें और उन्हें स्वरूप दें।”

उपर्युक्त अनुदेशों से स्पष्ट होता है कि प्लेटो के दार्शनिक शासक भी मूलभूत सामाजिक व्यवस्था के सेवक हैं।

सीमाएँ

दार्शनिक राजा सर्वशक्तिमान् होते हुए भी प्रतिबन्धों से युक्त है। यद्यपि वह न जनता के द्वारा चुना जाता है और न जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। वह लोकमत, रीति-रिवाज और कानून के बन्धन से पूर्णत: मुक्त होता है। प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य में लोकमत और कानून के महत्त्व को बिल्कुल अस्वीकार कर दिया है। उसकी मान्यता है कि यदि दार्शनिक अपने ज्ञान के कारण शासक बनता है तो उसे लोकमत के प्रति उत्तरदायी बनाना पूर्णत: अप्रासंगिक है। इसी प्रकार दार्शनिक शासक को कानून की जंजीरों में बाँधना, उसके हाथों को कानून के नियमों से बाँधना, उसी प्रकार मूर्खतापूर्ण है जिस प्रकार किसी योग्य चिकित्सक को इस बात के लिए विवश करना कि वह चिकित्सा के ग्रन्थ देखकर ही दवा लिखे। वस्तुत: प्लेटो दार्शनिकों के स्वतन्त्र विवेक के महत्त्व में विश्वास रखता है।

बर्कर के अनुसार- “हालांि क दाशर् िनक राजा का शासन ऊपर से देखने पर निरकुंश लग सकता है, वह लिखित विधि से स्वतन्त्र हो सकता है; पर जिन्हें हम संविधान के मूल अनुच्छेद कह सकते हैं, उनके अंकुश से वह स्वतन्त्र नहीं होता। दार्शनिक का काम यह नहीं कि मनमाने ढंग से राज्य को प्रभावित करे या उसे बदल डाले, वह तो मूल सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा रखते हुए एक अचल संस्था के रूप में उसकी रक्षा करने के लिए, उसकी स्थिरता कायम रखने के लिए होता है। प्लेटो ने दार्शनिक राजा के शासन पर सीमाएँ या प्रतिबन्ध लगाए हैं।

  1. शिक्षा पद्धति बनाए रखना : उसे शिक्षा पद्धति में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए क्योंकि शिक्षा पद्धति में परिवर्तन होने से राज्य के मूलभूत नियम भी बदल जाते हैं।
  2. न्याय प्र्शासन कायम रखना : दार्शनिक शासक का यह कर्त्तव्य होगा कि वह न्याय के सिद्धान्त को बनाए रखने के लिए अपने राज्य में प्रत्येक व्यक्ति से अपने निर्धारित कार्य का पालन कराता रहे।
  3. राज्य की सीमा में वृद्धि या कमी को रोकना : राज्य की एकता को कायम रखने के लिए उसे राज्य की सीमा को न तो अधिक बढ़ाना चाहिए और न ही अधिक कम करना चाहिए। 
  4. राज्य में धन और निर्धनता का प्रवेश रोकना : प्लेटो के अनुसार दार्शनिक शासक को यह देखते रहना पड़ेगा कि राज्य में निर्धनता अथवा धन का प्रवेश न हो क्योंकि धन से विलासिता, आलस्य और वैमनस्य पैदा होते हैं तथा दरिद्रता से कमीनापन और कुकृत्य।

इस प्रकार प्लेटो का दार्शनिक शासक निरंकुश नहीं, मर्यादित होता है, राज्य का स्वामी नहीं, सेवक होता है। उसे कुछ मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। ये महिलाएँ ही उसके ऊपर सीमाएँ हैं जिनसे वह मुक्त नहीं हो सकता।

प्लेटो के दर्शन के शासन की विशेषताएँ

प्लेटो के दर्शन को शासन की बहुत सी विशेषताएँ हैं, उनमें से प्रमुख हैं :-

  1. यह प्रजातन्त्र का विरोधी है। प्लेटो ने तत्कालीन एथेन्स में प्रजातन्त्र के शासन को मूर्खों का शासन कहकर आलोचना की है। प्लेटो ने प्रजातन्त्र के दोषों को दूर करने के लिए इस मौलिक विचार का प्रतिपादन किया है। प्लेटो का दर्शन का शासन ज्ञान का प्रतीक है।
  2. प्लेटो के दर्शन के शासन के विचार का जन्म शिक्षा व्यवस्था की देन है। प्लेटो की शिक्षा पद्धति में दार्शनिक शासक को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है ताकि वह हर तरह से योग्य सिद्ध हो। जीवन के हर क्षेत्र में सफल होने पर ही उसे दार्शनिक की उपाधि मिलती हैं अत: दर्शन का शासन उच्च दर्जे के प्रशिक्षण की उपज है।
  3. दर्शन का शासन सद्गुणों पर आधारित होता है। दार्शनिक शासक सत्य का अन्वेषक, ज्ञान का प्रेमी, शान्ति का पुजारी, न्यायी, साहसी और संयमी होता है। उसकी बुद्धि तीव्र होती है, स्मरणशक्ति तीक्ष्ण और चरित्र उज्ज्वल होता है। उसे शिव का ज्ञान होता है। वह विवेकशील होता है। मैक्सी के अनुसार- “एक सच्चा दार्शनिक ज्ञान से प्रेम करता है, न कि किसी मत से। वह क्रोध, घृणा, संकीर्णता, द्वेष, स्वार्थपरता आदि से दूर रहता है।”
  4. दर्शन का शासन नि:स्वार्थ भावना पर आधारित होता है। उसे कंचन और कामिनी का मोह नहीें होता। वह विवेकी होने के कारण राज्य से प्रेम करता है। उसकी राज्य के प्रति असीम श्रद्धा होती है। वह अपना हर कार्य राज्य हित के लिए ही करता है। उसका कोई व्यक्तिगत हित नहीं होता। वह पूर्णत: निस्वार्थ भावना पर टिका हुआ होता है।
  5. यह अभिजन वर्ग का शासन है। सभी व्यक्ति दार्शनिक नहीं हो सकते। यह प्रतिभा तो कुछ ही व्यक्तियों में होती है। सभी व्यक्ति ज्ञानी नहीं हो सकते। यह प्रतिभा तो एक या कुछ ही व्यक्तियों में होती है, सभी में नहीं।
  6. दार्शनिक शासक की शक्ति पूर्णत: अमर्यादित होती है। वह न तो जनता के द्वारा चुना जाता है न जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। वह जनमत, परम्परा और कानून के बन्धन से पूर्णत: मुक्त होता है। वह उत्तम ज्ञान के आधार पर ही शासक बनता है। अत: उस पर कोई भी प्रतिबन्ध उचित नहीं हो सकता।

दार्शनिक शासन उँचे दर्जे के प्राविधिक प्रशिक्षण की उपज होने के कारण पूर्ण विवेक पर आधारित होता है। उस पर प्रतिबन्ध लगाना गलत है। लेकिन फिर भी प्लेटो के दर्शन के शासन को कुछ आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा।

प्लेटो के दर्शन के शासन की आलोचना

प्लेटो के दर्शन के शासन की इन आधारो पर आलोचना हुई है :-

  1. यह निरंकुश शासकों को जन्म देता है जो आधुनिक युग में घृणा का पात्र हैं।
  2. आधुनिक शासन प्रणालियों में कर्त्तव्यों के साथ-साथ अधिकारों पर भी महत्त्व दिया जाता है लेकिन दर्शन का शासन कर्त्तव्यों तक ही सीमित रह जाता है।
  3. कानून और जनमत की अवहेलना गलत है। क्योंकि कानून जनमत के द्वारा शताब्दियों से संग्रहीत विवेक का परिणाम है। प्लेटो ने स्वयं ‘लाज’ में इसके महत्त्व को स्वीकार किया है।
  4. यह प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र के किसी भी रूप का विरोधी है। सत्य तो यह है कि आज का युग प्रजातन्त्र का युग है। जनमत की अवहेलना करके कोई भी शासन स्थायित्व को प्राप्त नहीं कर सकता।
  5. दर्शन का शासन एकमात्र कल्पना है। आज तक इतिहास में इस बात के प्रमाण नहीं हैं जहाँ ऐसा कानून लागू हुआ हो।
  6. दर्शन का शासन प्लेटो की महत्त्वाकांक्षा को ही परिलक्षित करता है। वह स्वयं एथेन्स का शासक बनना चाहता था।

इस प्रकार प्लेटो के आदर्श राज्य में दर्शन से शासन की अनेक आलोचनाएँ की गई हैं। क्रासमैन के अनुसार- “दार्शनिक शासक सम्बन्धी प्लेटो का प्रस्ताव अव्यावहारिक है क्योंकि किसी भी नगर या राष्ट्र में बुद्धिमान लोगों की संख्या इतनी अधिक नहीं होती कि वे स्थायी रूप से शासक वर्ग का निर्माण कर सकें और यदि वे हों भी तो अपार जनसमूह में से उनका चयन कठिन हो जाएगा।” आज तक इतिहास में कोई भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहाँ दर्शन का शासन लागू हुआ हो।

लेकिन अनेक आलोचनाओं के बावजूद भी यह कहना पड़ेगा कि प्लेटो ने शासकों के लिए जिस प्रशिक्षण की आवश्यकता महसूस की, वह आज भी जरूरी है। आधुनिक शासक वर्ग को उचित प्रशिक्षण द्वारा राज्य हितों का साधक बनाया जा सकता है। आधुनिक शासक वर्ग को व्यावसायिक ज्ञान के स्तर पर शून्य होने के कारण अनेक शासन सम्बन्धी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए शासक वर्ग का सद्गुणी होना आवश्यक है। यह कहा गया है कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’। आज का युग विज्ञान का युग है। आज अशान्ति के दौर में दार्शनिक शासक जैसा विवेकी शासक ही प्रजाजनों को अपनी ज्ञान-ज्योति से सही रास्ता दिखा सकता है। अत: दर्शन का शासन प्लेटो की बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन है। इसका राजदर्शन के इतिहास में बहुत महत्त्व है।

 

 

प्लेटो के साम्यवाद का सिद्धांत

प्लेटो ने अपने आदर्श में न्याय की प्राप्ति के लिए जो दो तरीके अपनाए हैं, उनमें से साम्यवाद का निषेधात्मक व भौतिक तरीका भी शामिल है। प्लेटो का मानना है कि आदर्श राज्य की स्थापना में तीन बाधाएँ – अज्ञान, निजी सम्पत्ति व निजी परिवार है।। इन बाधाओं को दूर करने के लिए प्लेटो शिक्षा का सिद्धांत व साम्यवादी व्यवस्था का प्रावधान करता है। अज्ञान को तो शिक्षा द्वारा दूर किया जा सकता है लेकिन निजी सम्पत्ति परिवार की संस्था का लोप करने के लिए वह जिस व्यवस्था का समर्थन करता है, वह साम्यवाद के नाम से जानी जाती है। प्लेटो का साम्यवाद राजनीतिक सत्ता तथा आर्थिक लोलुपता के सम्मिश्रण से उत्पन्न बुराई को दूर करता है। 

 

प्लेटो साम्यवाद के द्वारा अभिभावक या संरक्षक वर्ग को सम्पत्ति तथा पारिवारिक जीवन की चिन्ताओं से मुक्त रखना चाहता है। इस सिद्धांत को प्रतिपादित करने के पीछे प्लेटो का उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से नि:स्वार्थी शासकों को तैयार करने के बाद भी सांसारिक आकर्षणों और चारित्रिक दुर्बलताओं के शिकार होकर अपने कर्त्तव्य-पथ से भटकने को रोकना है। प्लेटो साम्यवाद को समाज का आध्यात्मिक उत्थान करने का नकारात्मक मार्ग कहता है। वह इसे व्यक्ति के उत्थान का भौतिक साधन मानता है। 

 

प्लेटो का मानना है कि कांचन और कामिनी का मोह संरक्षक वर्ग को धनलोलुप, स्वार्थी और आस्क्त बना देता है। अत: संरक्षक वर्ग को अपने कर्त्तव्य पथ से विचलित होने से रोकना अति आवश्यक है। इसके लिए वह सम्पत्ति और पत्नियों का साम्यवाद का सिद्धांत पेश करता है। 

 

इसके बारे में बार्कर ने कहा है- “साम्यवाद आत्मिक सुधार का केवल एक भौतिक व आर्थिक अनुपूरक साधन है, जिसे सर्वप्रथम तथा सर्वाधिक महत्त्व देते हुए प्लेटो लागू करना चाहता है।”

साम्यवाद का अर्थ

प्लेटो का मानना है कि सैनिक और शासकों के लिए आदर्श राज्य में न तो अपना परिवार या घर होना चाहिए न ही निजी सम्पत्ति। अपने इस उद्देश्य या विचार को सकारात्मक रूप देने के लिए प्लेटो ने जिस विस्तृत योजना का निर्माण किया है, उसे ही प्लेटो का साम्यवाद या प्लेटो का साम्यवादी सिद्धांत कहा जाता है। प्लेटो का कहना है कि संरक्षक या अभिभावक वर्ग के सदस्य विवाह करने और निजी परिवार बसाने के अधिकार से वंचित रहेंगे। पतियों, पत्नियों तथा बच्चों पर एक व्यक्ति या परिवार का अधिकार न होकर, सम्पूर्ण समाज या राज्य का अधिकार रहेगा। सभी को उसमें साँझा अधिकार प्राप्त होगा। अच्छी संतान या योग्य सन्तान पैदा करने के लिए योग्य पुरुष व स्त्री का संयोग कराया जाएगा, संरक्षक वर्ग के सदस्य निजी सम्पत्ति से भी वंचित रखे गए हैं। 

 

प्लेटो के अनुसार समस्त सम्पत्ति (चल व अचल) राज्य के नियन्त्रण में ही रहेगी। प्लेटो की योजना के अनुसार सभी सैनिकों व शासकों को (अभिभावक या संरक्षक वर्ग) बैरकों में रखना होगा और उन्हें साथ-साथ भोजन करना होगा। उत्पादक वर्ग अपनी पैदावार का कुछ हिस्सा उन्हें दे देगा ताकि उनकी अनिवार्य आवश्यकताएँ पूरी हो सकें। सामूहिकता की जीवन-व्यवस्था को प्लेटो ने पत्नियों व सम्पत्ति को साम्यवाद का नाम दिया है।

प्लेटो के प्रेरणा स्रोत

प्लेटो की साम्यवादी विचारधारा कोई नवीन तथा मौलिक विचारधारा नहीं है। प्लेटो से पहले भी यूनान में साम्यवाद के बीज विद्यमान थे। एथेन्स में 5 वीं शताब्दी ईñ पूर्व में ही साम्यवाद के दर्शन होते हैं। एथेन्स में राज्य का व्यक्तिगत सम्पत्ति पर नियन्त्रण था। स्पार्टा में स्त्रियों को राज्य हित की दृष्टि से शासन संचालन का भार सौंप दिया जाता था, बालकों को 7 वर्ष की आयु के बाद राज्य को सौंप दिया जाता था। स्पार्टा में सार्वजनिक जलपान गृह तथा भोजनालयों की व्यवस्था थी। स्पार्टा के नागरिक अपनी उपज का एक भाग सामूहिक भोजनालयों में भेजते थे। क्रीट नामक नगर में सामूहिक खेती की जाती थी। एथेन्स के नगर में भी राज्य की अपनी जंगलात व खानें थीं। एथेन्स में पाइथोगोरस का मत था- “मित्रों की सम्पत्ति पर समान रूप से सबका अधिकार है।” यह साम्यवादी विचार थां यूरीपाइडीज नामक विचारक ने भी प्लेटो से पहले ही स्त्रियों के साम्यवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन कर दिया था, हिरोडोटस ने अर्गाथीसियन्ज की चर्चा में नारियों की साम्यवादी प्रथा का वर्णन किया है।

प्लेटो के साम्यवादी विचारों पर तत्कालीन परिस्थितियों का गहरा प्रभाव पड़ा है। प्लेटो के काल में सम्पत्तिशालियों के हित में शासन का संचालन होता था, शोषण प्रथा प्रचलित थी एवं आर्थिक तत्त्व राजनीतिक वातावरण पर प्रभावी थे। प्लेटो के युग में महिलाओं की दशा काफी दयनीय थी। सामाजिक क्षेत्र में उनकी भूमिका नगण्य थी। उन्हें चारदीवारी तक ही सीमित कर दिया गया था। उनका कर्त्तव्य पति की कामवासना की तृप्ति, संतानोत्पत्ति व उनके पालन-पोषण तक ही सीमित था। प्लेटो नारियों की दुर्दशा से चिन्तित था। इसलिए उसने नारी उत्थान के लिए पत्नियों के साम्यवाद का सिद्धांत पेश किया।

प्लेटो के साम्यवाद की विशेषताएँ

प्लेटो की सम्पत्ति व पत्नियों से सम्बन्धित साम्यवाद की विशेषताएँ हैं :-

  1. अर्ध-साम्यवाद : प्लेटो की साम्यवादी व्यवस्था समाज के केवल एक वर्ग (शासक वर्ग) पर लागू होती है; उत्पादक वर्ग पर नहीं। इसमें संरक्षक वर्ग सम्पत्ति और कुटुम्ब से अछूता रहेगा, उत्पादक वर्ग को अपनी सम्पत्ति व परिवार रहेंगे। इसलिए इसे अर्ध-साम्यवाद की संज्ञा दी जाती है।
  2. न्याय की पूरक व्यवस्था : प्लेटो के न्याय सिद्धांत का प्रमुख उद्देश्य आदर्श राज्य की स्थापना करना है। प्लेटो ने न्याय सिद्धांत की व्यावहारिकता के लिए दो साधनों – शिक्षा एवं साम्यवाद को अपनाया है। शिक्षा योजना न्याय की प्राप्ति का आध्यात्मिक व सकारात्मक साधन है; वहीं साम्यवादी योजना न्याय की प्राप्ति का भौतिक व नकारात्मक तरीका है।
  3. अभिजातवादी : प्लेटो केवल उच्च वर्ग को ही साम्यवादी व्यवस्था के अन्तर्गत रखता है। यह व्यवस्था केवल शासक वर्ग के लिए है, साम्यवाद का प्रयोजन केवल थोड़े शासकों के जीवन को नियन्त्रित करना है ताकि वे सामाजिक हित के कार्य निर्बाध रूप से पूरे कर सकें। अत: प्लेटो का साम्यवाद ‘बौद्धिक अल्पतन्त्र‘ के शासन की स्थापना करता है।
  4. राजनीतिक : प्लेटो का साम्यवाद आर्थिक न होकर राजनीतिक है। प्लेटो के साम्यवाद का उद्देश्य आर्थिक असमानता को दूर करना नहीं था अपितु तत्कालीन राजनीतिक दोषों को दूर करना था। प्लेटो चाहता था कि शासन की बागडोर दार्शनिक शासक के हाथों में हो।
  5. तपस्यात्मक : प्लेटो ने शासक तथा सैनिक वर्ग को सम्पत्ति तथा परिवार का मोह त्यागकर संन्यासी बनने को कहा है। वह व्यक्तिगत सुख की अपेक्षा समाज के सुख को महत्त्व देता है। प्लेटो के शासक वर्ग का जीवन त्याग का है, भौतिक सुखों का नहीं। प्लेटो का साम्यवाद साधुवादी है जिसमें शासक वर्ग समस्त आर्थिक सुख-सुविधाओं का त्याग करता है।
  6. आर्थिक ढाँचे में परिवर्तन नहीं: प्लेटो का साम्यवाद उत्पादक वर्ग को इस व्यवस्था से बाहर रखता है। उत्पादक वर्ग अपनी सम्पत्ति का स्वामी बना रहता है। प्लेटो अपने साम्यवाद में आर्थिक ढाँचे को यथावत् बनाए रखना चाहता है।
  7. राज्य की एकता की रक्षक व्यवस्था : प्लेटो राज्य में एकता स्थापित करने के लिए संरक्षक वर्ग के लिए साम्यवादी व्यवस्था की योजना प्रस्तुत करता है। प्लेटो की साम्यवादी योजना अभिभावक वर्ग को कंचन और कामिनी के मोह से दूर रखकर सार्वजनिक हित में शासन करने के लिए प्रेरित करेगी। स्त्रियों को भी राज्य की सेवा का सक्रिय अवसर मिलेगा, इससे राज्य की एकता में वृद्धि होगी।

प्लेटो के साम्यवाद के प्रकार

प्लेटो का साम्यवाद दो तरह का है :-

  1. सम्पत्ति का साम्यवाद (Communism of Property)
  2. पत्नियों का साम्यवाद (Communism of Wives)

सम्पति का साम्यवाद 

प्लेटो ने सम्पत्ति के साम्यवाद के अन्तर्गत यह व्यवस्था की है कि अभिभावक वर्ग के लिए अर्थात शासक एवं सैनिक वर्ग के लिए निजी सम्पत्ति निषिद्ध होगी; उनकी कोई निजी भूमि या निजी सम्पत्ति नहीं होगी। उनका निजी घर भी नहीं होगा अपितु वे राज्य द्वारा निर्मित बैरकों में रहेंगे, उनका आवास सभी के लिए खुला रहेगा जिसमें कोई भी कभी आ सके। राज्य के उत्पादकों द्वारा उनको इतनी जीवन वृत्ति दी जाएगी कि वह उनके लिए कम न पड़े और न ही निजी संग्रह के लिए बचे। वे सामूहिक रूप से मेजों पर भोजन करेंगे। उन्हें सोने-चाँदी के सामान का स्पर्श करना निषिद्ध होगा। चल-अचल सम्पित्त्व से विरक्त होकर वे देश की सेवा और रक्षा करेंगे। इसी में उनकी मुक्ति है और ऐसा करने से वे राज्य के रक्षक बन सकेंगे। किन्तु जब वे कभी भी भूमि, घर और धन का उपार्जन करेंगे तब वे अन्य नगरवासियों से घृणा करने लग जाएंगे। वे प्रपंच करेंगे; द्वेष करेंगे तथा राज्य के रक्षक बनने की बजाय उसके शत्रु और निरंकुश व्यक्ति बन जाएंगे। लोग उनसे घृणा करेंगे और वे लोगों से। वे अपने सार्वजनिक हित के धर्म से पदच्युत हो जाएंगे। इस प्रकार वे राष्ट्र के सर्वनाश का ही मार्ग प्रशस्त करेंगे। प्लेटो के सम्पत्ति विषयक साम्यवाद की कुछ विशेषताएँ हैं :-

  1. यह साम्यवाद सभी नागरिकों के लिए नहीं, बल्कि केवल शासक और सैनिक वर्ग के लिए है। उसका उद्देश्य यद्यपि सम्पूर्ण समाज का कल्याण है किन्तु सम्पूर्ण समाज द्वारा व्यवहार में नहीं लिया जाता है।
  2. प्लेटो का सम्पत्ति सम्बन्धी साम्यवाद भोग का नहीं बल्कि त्याग का मार्ग है। यह समाज के शासक वर्ग की कंचन और कामिनी का मोह छोड़कर जन-कल्याण में लगे रहने के लिए प्रेरित करता है। फोस्टर के शब्दों में- “प्लेटो के संरक्षक वर्ग को सामूहिक रूप से सम्पत्ति का स्वामित्व ग्रहण करना नहीं, वरन् इसका त्याग करना है।”
  3. इसका उद्देश्य राजनीतिक है, आर्थिक नहीं। वर्तमान साम्यवाद की तरह यह आर्थिक विषमता को दूर न करके राजनीतिक दोषों को ही दूर करता है।

सम्पत्ति के साम्यवाद के पक्ष में तर्क

प्लेटो ने निम्न आधारों पर सम्पत्ति को साम्यवाद का समर्थन किया है :-

  1. मनोवैज्ञानिक आधार : प्लेटो के अनुसार शासक और सैनिक आत्मा के विवेक और साहस तत्त्व का क्रमश: प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तत्त्वों से प्रेरित होकर वे अपने निश्चित प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तत्त्वों से प्रेरित होकर वे अपने निश्चित उत्तरदायित्वों को निभाना चाहते हैं, तो उन्हें क्षुधारूपी निकृष्ट तत्त्व के जाल में नहीं फँसना चाहिए। निजी सम्पत्ति की व्यवस्था मनुष्य की उदार प्रवृत्ति पर विपरीत प्रभाव डालती है और व्यक्ति को स्वार्थी बनाती है। यदि दार्शनिक शासक व सैनिक वर्ग के लिए निजी सम्पत्ति की व्यवस्था स्वीकार की जाएगी तो उनमे भी स्वार्थ की वृद्धि होगी और क्रमश: उनका विवेक और साहस कुण्ठित हो जाएगा। सेबाइन के अनुसार- “शासकों को लालच से मुक्ति दिलाने का एक ही उपाय है कि उन्हें किसी चीज को अपना या निजी कहने के अधिकार से वंचित कर दिया जाए और यह उपाय प्लेटो की सम्पत्ति की व्यवस्था में ही सम्भव है।” अत: प्लेटो का सम्पत्ति का साम्यवाद आदर्श राज्य के लिए मनोवैज्ञानिक आवश्यक शर्त है।
  2. राजनीतिक और व्यावहारिक आधार : प्लेटो का सम्पत्ति का सिद्धांत दो आधारों पर राजनीतिक है। एक तो यह सिर्फ शासक व सैनिक वर्ग पर लागू होता है, उत्पादक वर्ग पर नहीं। शासक वर्ग तक सीमित होने के कारण यह राजनीतिक है। दूसरा यह है कि शासन के ऊपर धन का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इस बुराई को दूर करने के लिए प्लेटो अभिभावक वर्ग को सम्पत्ति के अधिकार से मुक्त करता है। प्लेटो के अनुसार जब राजसत्ता तथा निजी सम्पत्ति का संयोग हो जाता है तो राज्य का पतन हो जाता है। शासक वर्ग धन की लालसा के लिए सत्ता का दुरुपयोग करता है। अत: प्लेटो राजनीतिक अर्थ शक्ति के केन्द्रीयकरण को समाप्त करके शासक वर्ग को केवल राजनीतिक शक्ति देने के पक्ष में है। प्लेटो की यही व्यावहारिक मान्यता भी है और राजनीतिक अनिवार्यता। यदि शासकों को व्यक्तिगत सम्पत्ति की छूट दी जाए तो शासक वर्ग भ्रष्ट होकर आदर्श राज्य को धनिकतन्त्र में बदल देगा। इस सम्बन्ध में सेबाइन ने लिखा है- “जहाँ तक सैनिकों व शासकों का सम्बन्ध है, प्लेटो को शासन के ऊपर धन के बुरे प्रभावों के बारे में इतना दृढ़ विश्वास था कि इस दोष को मिटाने के लिए उसे स्वयं सम्पत्ति के नाश के अतिरिक्त कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया।”
  3. नैतिक आधार : प्लेटो इस बात में विश्वास नहीं करता कि व्यक्ति का अस्तित्व मात्र स्वार्थसिद्धि के लिए है, उसके अनुसार कर्त्तव्यों का पूर्ण निष्ठा के साथ सम्पादन कर, अपने योग्य कार्य-क्षेत्र की सीमा में रहकर एवं समष्टि के एक अभिन्न अंग के रूप में अपने अस्तित्व को स्वीकार करके ही व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है। प्लेटो का सिद्धांत व्यक्ति को विवेकी व निस्वार्थी बनाकर कत्तव्यों का सम्पादन करने पर जोर देता है। 
  4. दार्शनिक आधार: प्लेटो का सम्पत्ति का साम्यवादी सिद्धांत दार्शनिक आधार पर भी उचित है। प्लेटो ने इसे कार्य विशिष्टीकरण के आधार पर सही ठहराया है। प्लेटो का कहना है कि जिन लोगों के ऊपर शासन का भार है, उनकी जीवन-शैली विशिष्ट होनी चाहिए। यह शैली कार्य विशेष के आधार पर ही होनी चाहिए। शासक वर्ग को उच्चादर्शों को प्राप्त करने के लिए सांसारिक प्रलोभनों से मुक्त होना चाहिए। प्लेटो का कहना है कि जिन व्यक्तियों पर शासन का भार है, उन्हें अपने कार्य में बाँधा या विघ्न उत्पन्न करने वाले सभी सांसारिक तत्त्व से उसी प्रकार बचना चाहिए जिस प्रकार ईश्वर की भक्ति में लगे एक साधक या संन्यासी को घर, पानी, बच्चे, सम्पत्ति या सांसारिक मोह-माया से दूर रहना चाहिए।

सम्पत्ति के साम्यवाद के उद्देश्य

प्लेटो की सम्पत्ति की योजना के प्रमुख उद्देश्य है :-

  1. सार्वजनिक हित के लिए : प्लेटो का दार्शनिक राजा सार्वजनिक हित में शासन करता है। वह सैनिक वर्ग व उत्पादक वर्ग पर सार्वजनिक हित के ही सन्दर्भ में कठोर नियन्त्रण रखता है।
  2. अभिभावक वर्ग के लिए कार्यकुशलता : सम्पत्ति के साम्यवाद की योजना सैनिक वर्ग तथा शासक वर्ग को आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त करती है और वह अपना समस्त समय व ध्यान अपनी कार्यकुशलता की वृद्धि में लगा सकते हैं।
  3. राज्य की एकता के लिए : जब शासक वर्ग के पास निजी सम्पत्ति होती है तो शासक वर्ग में सम्पत्ति को लेकर आपसी प्रतियोगिता व ईर्ष्या भी होती है और इससे राज्य को एकता को भय उत्पन्न हो जाता है। किन्तु सम्पत्ति को साम्यवादी योजना शासक वर्ग में इस प्रकार का भय उत्पन्न नहीं होने देती और यह राज्य की एकता की रक्षक सिद्ध होती है।
  4. सामाजिक भ्रातृभाव के लिए : प्लेटो का सम्पत्ति का साम्यवाद संरक्षक वर्ग को साधुवादी प्रवृत्ति अपनाने की सलाह देता है। सम्पत्ति पर किसी एक का अधिकार न होकर सम्पूर्ण समाज का अधिकार होगा। इससे किसी के पास कम या अधिक सम्पत्ति संचय करने की भावना पैदा नहीं होगी। सम्पत्ति का साम्यवाद लोगों में भ्रातृभाव की भावना को जन्म देगा।

सम्पत्ति के साम्यवाद की आलोचनाएँ

प्लेटो के सम्पत्ति सम्बन्धी साम्यवाद की सेबाइन, बार्कर, पोपर व अरस्तू द्वारा अनेक आलोचनाएँ की गई हैं :-

(क) अरस्तू द्वारा की गई आलोचनाएँ

  1. यह धारणा मानवीय प्रकृति की मूलभूत प्रवृत्तियों की अवहेलना करती है। प्रत्येक मानव में निजी सम्पत्ति प्राप्त करना उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है और अगर उसे इस अधिकार से वंचित रखने की कोशिश की जाती है तो यह उसकी प्रकृति के प्रतिकूल बात होगी।
  2. अरस्तू साम्यवाद को जीवन के सामान्य अनुभव के विरुद्ध मानता है।
  3. अरस्तू का यह भी कहना है कि सम्पत्ति की साँझी व्यवस्था कभी भी सामाजिक कल्याण में वृद्धि नहीं कर सकती।
  4. अरस्तू का यह भी कहना है कि वैयक्तिक सम्पत्ति की प्रथा का विकास हमारी सभ्यता के विकास का प्रतीक है। वैयक्तिक सम्पत्ति का अभाव प्रगति के मार्ग को रोकता है।
  5. इससे परोपकार और उदारता की श्रेष्ठ मानवीय सम्भावनाएँ नष्ट हो जाएँगी क्योंकि व्यक्ति परोपकार सम्बन्धी कार्य निजी सम्पत्ति के आधार पर ही करता है।
  6. अरस्तू ने यह विचार प्रस्तुत किया है कि यह अधिक अच्छा होगा कि सम्पत्ति निजी हो परन्तु उसका प्रयोग सामूहिक हो। इससे राज्य तथा व्यक्ति दोनों का भला हो सकता है।
  7. व्यक्तिगत सम्पत्ति के लिए उत्साह और लगन के कारण ही मनुष्य दूसरों के साथ प्रतियोगिता करता है तथा अपने सर्वोत्तम गुणों का विकास करता है परन्तु निजी सम्पत्ति के न होने पर ऐसा नहीं होगा।
  8. प्लेटो की यह योजना बहुमत को शामिल नहीं करती है और इसलिए यह असफल होकर रहेगी तथा इससे राज्य में विभाजन होगा तथा फूट, ईष्र्या व कलह की सम्भावना प्रबल होगी।
  9. अरस्तू का मानना है कि बिना सम्पत्ति के अभिभावक वर्ग सुखी नहीं रहेगा और जिस राज्य में शासक वर्ग ही सुखी नहीं रहेगा उसमें भला प्रजा कैसे सुखी रह सकती है। अत: प्लेटो का साम्यवादी राज्य एक दु:खपूर्ण राज्य होगा।
  10. राज्य में एकता को उचित शिक्षा द्वारा ही बढ़ाया जाना चाहिए, साम्यवाद से नहीं। प्लेटो स्वयं आत्मिक उपाय को भौतिक उपाय से अधिक महत्त्व देते हैं। अत: साम्यवाद एक गौण उपाय है।
  11. प्लेटो आवश्यकता से अधिक एकता लाने की प्रवृत्ति पर कायम है। वह राज्य की वेदी पर व्यक्तियों की इच्छाओं का बलिदान कर देता है।

(ख) अन्य विद्वानों द्वारा की गई आलोचनाएँ

  1. सद्ग्गुणों के विकास में बाधक : निजी सम्पत्ति की व्यवस्था अनेक सद्गुणों के विकास में सहायक होती है, जैसे दान, दया, परोपकार, अतिशय आदि के सद्गुण। किन्तु प्लेटो ने निजी सम्पत्ति के अवगुणों की ओर ध्यान न देकर संरक्षक वर्ग को इससे वंचित कर दिया है, जो अनुचित है।
  2. मानव स्वभाव के प्रतिकूल : प्लेटो ने निजी सम्पत्ति का अन्त करके मानव स्वभाव के विपरीत कार्य किया है। सम्पत्ति अर्जित करना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इससे व्यक्ति के अनेक उदार गुण विकसित होते हैं। अत: प्लेटो ने मानव स्वभाव के विपरीत कार्य किया है।
  3. न्यायपूर्ण वितरण की समस्या : निजी सम्पत्ति के अभाव में यह बताना कठिन होगा कि किस व्यक्ति का समाज में कितना योगदान है। इससे न्यायपूर्ण वितरण की अनेक समस्याएँ खड़ी होंगी जो समाज की एकता को नष्ट कर देंगी।
  4. व्यक्ति की प्रेरणा शक्ति का ह्रास : निजी सम्पत्ति के समर्थकों का मानना है कि सम्पत्ति का आकर्षण व्यक्ति को अधिक से अधिक कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करता है। इसी प्रेरणा से व्यक्ति अनेक नए-नए आविष्कार करता है, परिश्रम करता है। इसके अभाव में प्रेरणादायक शक्ति का ह्रास हो जाएगा।
  5. अमनोवैज्ञानिक : निजी सम्पत्ति की संख्या मानव स्वभाव के अनुकूल है। व्यक्ति सम्पत्ति अजर्न करने के लिए ही सारे क्रियाकलाप करता है। प्लेटो अभिभावक वर्ग को इससे वंचित करके मानव प्रकृति के विरुद्ध चला जाता है। अत: प्लेटो का सम्पत्ति का सिद्धांत अमनोवैज्ञानिक है।
  6. अर्ध-साम्यवाद : प्लेटो सम्पूर्ण सामाजिक इकाई की बजाय एक वर्ग विशेष को ही इस व्यवस्था में शामिल करता है। प्लेटो का साम्यवाद केवल शासक और सैनिक (संरक्षक) वर्ग के लिए ही है। अगर व्यक्तिगत सम्पत्ति मतभेद, अनेकता, लोभ व मोह को जन्म देती है तो उत्पादक वर्ग को इसका अधिकार देना विवेकपूर्ण नहीं है।
  7. मानव स्वतन्त्रता की बलि चढ़ा़ाना : प्लेटो ने साम्यवाद के नाम पर मानव-स्वतन्त्रता का दमन किया है। प्लेटो की साम्यवाद व्यवस्था में केवल वही कार्य करने का अधिकार होगा जो राज्य चाहेगा। प्लेटो ने व्यक्ति को एक साधनमात्र मानकर व्यक्ति के अधिकार व स्वतन्त्रताओं पर कुठाराघात किया है।
  8. सम्पत्ति से वंचित शासकों की कठिनाइयाँ : प्लेटो के संरक्षक वर्ग के सदस्य व्यक्तिगत सम्पत्ति से सम्बन्धित समस्याओं और प्रेरणाओं के ज्ञान से भी वंचित रहेंगे जिसके कारण उन्हें साधारण लोगों की सम्पत्ति से जुड़ी समस्याओं का निपटारा करने में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। शासक उत्पादक वर्ग की व्यक्तिगत सम्पत्ति को तभी नियन्त्रित कर सकता है, जबकि वह स्वयं निजी सम्पत्ति के गुण-दोषों के बारे में ज्ञान रखता हो।
  9. आध्यात्मिक रोगों के लिए भौतिक उपचार अनुचित : प्लेटो ने आध्यात्मिक रोगों को रोकने के लिए कोई आध्यात्मिक औषधि न ढूँढकर भौतिक साधनों का सहारा लिया है। संसार की भौतिक वस्तुएँ आध्यात्मिक वस्तुओं के साथ लगी हुई हैं, जिनके निराकरण से यदि बुराई दूर होती है तो उनके द्वारा जो हित होता है, वह भी दूर हो जाएगा। भौतिकतर आध्यात्मिकता का आधार है और उसके लिए साधन भी। भौतिकता को दूर करने का तात्पर्य होगा इन साधनों का अन्त। 
  10. तपस्यात्मक : सम्पत्ति के साम्यवाद की योजना सार्वजनिक हित के नाम पर अभिभावक वर्ग को सम्पत्तिहीन रखती है और सम्पत्ति सम्बन्धी स्वतन्त्रता का अन्त करती है तथा तपस्वी का जीवन व्यतीत करने पर बाध्य करती है। प्लेटो के साम्यवाद में व्यक्ति का जीवन त्याग का जीवन है, भौतिक सुखों का भोग नहीं। प्लेटो का साम्यवाद साधुवादी है जिसमें राज्य के श्रेष्ठ व्यक्ति आर्थिक सुख-सुविधाओं का त्याग करते हैं। अत: साम्यवाद तपस्यात्मक है।
  11. दास-प्रथा का जिक्र नहीं : प्लेटो ने अपने व्यक्तिगत सम्पत्ति के सिद्धांत में दास-प्रथा जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत की चर्चा नहीं की है। प्लेटो ने किसी ऐसे कार्य का उल्लेख नहीं किया है जो दासों द्वारा किया जाए। प्लेटो का दास-प्रथा को महत्त्वहीन समझना उसे स्वयं को ही महत्त्वहीन बना देता है।
  12. सम्पत्ति पर एक पक्षीय विचार : प्लेटो सम्पत्ति के अवगुणों के आधार पर ही अपने सम्पत्ति के साम्यवादी सिद्धांत को खड़ा करता हैं उसने सम्पत्ति के गुणों की अनदेखी करने की भारी भूल की है। अनेक आलोचनाओं के बावजूद यह मानना ही पड़ेगा कि प्लेटो का सम्पत्ति का साम्यवादी सिद्धांत व्यावहारिक, तर्कपूर्ण एवं उपयोगी है। यह उनके न्याय सिद्धांत का तर्कसंगत निष्कर्ष है। सम्पत्ति का लालच समाज में भ्रष्टाचार व अराजकता को जन्म देता है। आज के सामाजिक वैमनस्य के लिए सम्पत्ति की चाह ही जिम्मेदार हैं प्लेटो ने तत्कालीन एथेन्स की सामाजिक बुराइयों को बहुत करीब से देखा था और उन दोषों को दूर करने के लिए उसने अपना यह सिद्धांत खड़ा किया। यद्यपि उसकी कुछ आलोचनाएँ तर्कपूर्ण हैं लेकिन आज भी यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि प्लेटो का साम्यवादी सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण देन है।

पत्नियों का साम्यवाद

प्लेटो अपनी पुस्तक रिपब्लिक में संरक्षक वर्ग के लिए केवल निजी सम्पत्ति को ही निषिद्ध नहीं करता अपितु परिवर की संस्था को समाप्त कर अपनी पत्नियों की साम्यवादी योजना भी प्रस्तुत करता है। प्लेटो के न्याय सिद्धांत पर आधारित एक आदर्श के निर्माण के लिए सम्पत्ति के साम्यवाद के साथ ही परिवार का साम्यवाद भी जरूरी है। प्लेटो परिवार व सम्पत्ति में घनिष्ठ सम्बन्ध मानता है। वस्तुत: परिवार का साम्यवाद की योजना उसके सम्पत्ति के ही साम्यवाद का तार्किक विस्तार है। प्लेटो का मानना है कि यदि पारिवारिक संस्था का अन्त किए बिना ही व्यक्तिगत सम्पत्ति के उन्मूलन का प्रयास निरर्थक होगा। विवाह और परिवार भी निजी सम्पत्ति के ही रूप हैं और इससे लालच और ईष्र्या को बढ़ावा मिलता है। अत: उद्देश्य की दृष्टि से साम्यवाद के ये दोनों प्रकार एक-दूसरे के सहायक व पूरक हैं। प्लेटो के परिवार या पत्नियों के साम्यवाद के महत्त्व पर बार्कर लिखता है- “परिवार की समाप्ति का दिन राज्य के लिए एकता व व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता तथा इन दोनों के लिए न्याय की शुरुआत का दिन होगा।”

पत्नियों के साम्यवाद के पक्ष में तर्क

  1. राजनीतिक आधार : प्लेटो चाहता था कि स्त्रियाँ घर की चारदीवारी की कैद से मुक्त होकर राज्य के शासन सम्बन्धी कार्यों में भाग ले। नारियों के योगदान के बिना राज्य अपने आधे भावी संरक्षकों से वंचित रह जाता है। वह स्त्री-पुरुष में कोई भेद स्वीकार नहीं करता। उसका मानना है कि ऐसा कोई भी प्रशासनिक कार्य नहीं है जो स्त्री न कर सके। वह केवल लिंग-भेद को ही स्वीकार करता है, परन्तु इसे शासन क्रियाओं में बाधक नहीं मानता है। प्लेटो का मानना है कि स्त्रीयाँ राजनीतिक, प्रशासनिक और सैनिक कार्यों में भाग ले सकती हैं और अपना कर्त्तव्य उचित प्रकार से निभा सकती हैं। इस लिए प्लेटो परिवार की कैद से उन्हें मुक्ति दिलाना चाहता है।
  2. नैतिक आधार: प्लेटो का मानना है कि परिवार व सम्पत्ति का मोह शासक वर्ग को भ्रष्ट बना देता है। पारिवारिक स्नेह-बंधन का कारण होता है। संतान की चिन्ता व्यक्ति को स्वार्थी बनाकर पथभ्रष्ट करती है। परिवारों के मोह के कारण शासक अनुचित नीतियों का पालन करते हैं। इससे शासक वर्ग के विभिन्न परिवारों में भी संघर्ष उत्पन्न होता है। यह राज्य की एकता के लिए भय को पैदा करता है। परिवार राज्य की एकता में महान् बाधक होता है। शासक व सैनिक वर्ग परिवार के प्रति अनुरक्त होकर राज्य के प्रति अपने कर्त्तव्यों की अवहेलना कर सकते हैं। अत: प्लेटो नैतिक आधार पर इस साम्यवाद का समर्थन करता है।
  3. सुप्रजनन का आधार: प्लेटो तत्कालीन वैवाहिक प्रथा और पारिवारिक व्यवस्था पर कुठाराघात करता है। उस समय मनुष्य लापरवाही से संभोग करके पशु-पक्षियों की तरह अवैध सन्तानों को जन्म देते थे जो राज्य के हित में किसी भी दृष्टि से उपयोगी नहीं होती थी। राज्य में कुरूप व अयोग्य सन्तानों का अम्बार लगा हुआ था। प्लेटो ने इस समस्या से निजात दिलाने के लिए महसूस किया कि आदर्श राज्य के लिए श्रेष्ठ नागरिक जरूरी हैं। इसके लिए योग्य पुरुष व स्त्रियों का ही सहवास होना आवश्यक है ताकि श्रेष्ठ सन्तान ही जन्म ले। प्लेटो संरक्षक या अभिभावक वर्ग को ही इसके योग्य समझकर इस वर्ग के स्त्री पुरुषों में अस्थायी विवाह सम्बन्ध द्वारा सन्तानोत्पत्ति आवश्यक मानता है। परन्तु वह इसमें यह सावधानी रखता है कि स्त्रियों व पुरुषों के जोड़े उनकी आयु व गुण को ध्यान में रखकर ही बनाए जाएं ताकि श्रेष्ठ सन्तान का जन्म हो।

पत्नियों के साम्यवाद का स्वरूप औरा उसकी व्याख्या

  1. राज्य-परिवार का स्वरूप : प्लेटो ने संरक्षक वर्ग के निजी परिवार का उन्मूलन कर राज्य-परिवार (State-Family) का समर्थन किया है। उसके समक्ष नारी सुधार की समस्या थी और साथ ही राज्य के लिए अच्छी-से-अच्छी सन्तान उत्पन्न करना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने संरक्षक के निजी परिवार का उन्मूलन किया और एक राज्य-परिवार का रूप चित्रित किया।
  2. यौन-सम्बन्ध : प्लेटो ने उस समय की वैवाहिक प्रथा के दोषों को दूर करने के लिए, अपने आदर्श के निर्माण के लिए यौन-सम्बन्धों में पत्नियों के साम्यवाद के माध्यम से सुधार करने का प्रयास किया है। संरक्षक वर्ग भी अपनी निजी पत्नी नहीं रख सकेगा। सभी का समाजीकरण कर दिया जाएगा। वे एक साथ बैरकों में रहेंगे और एक साथ खाना खाएँगे। प्लेटो को विश्वास है कि परिपक्व व श्रेष्ठ नर-नारी ही श्रेष्ठ संतान को जन्म दे सकते हैं। जिन स्त्री-पुरुषों ने सार्वजनिक सेवा के कार्य या युद्ध में श्रेष्ठता दिखाई है, उसे अधिक सन्तान पैदा करने की छूट प्राप्त होगी। स्त्री व बच्चे सामाजिक होंगे न कि किसी एक व्यक्ति के।
  3. राज्य बच्चों के पालन-पोषण का पूरा ध्यान रखेगा : प्लेटो के अनसार बच्चों के जन्म के बाद उनके पालन-पोषण का उत्तरदायित्व राज्य अपने ऊपर लेगा। बच्चों को शिशु-गृहों में रखा जाएगा। माताएँ बच्चों को राज्य की देख-रेख में दूध पिलाएँगी, परन्तु उन्हें अपने बच्चों का कोई भी निजी ज्ञान नहीं होगा, बच्चों को भी अपनी माँ का कोई ज्ञान नहीं होगा।
  4. बच्चा पैदा करने की आयु : प्लेटो के अनुसार स्त्रियों को 20 से 40 वर्ष तक तथा पुरुषों को 25 से 55 वर्ष तक सन्तान पैदा करने की छूट होगी। इस समय स्त्री व पुरुष परिपक्व होते हैं। उनके इस आयु में सहवास से यौगय सन्तान ही पैदा होगी। राज्य केवल श्रेष्ठ स्त्री-पुरुष के सहवास से उत्पन्न सन्तान का ही लालन-पालन करेगा, निकृष्ट स्त्री-पुरुषों के संभोग से उत्पन्न सन्तान का पालन-पोषण राज्य नहीं करेगा। राज्य के नियमों के विरुद्ध जो सन्तान पैदा होगी, उसे या तो राज्य नहीं पालेगा या उसे किसी अज्ञात एवं अंधकारमय जगह में गाड़ दिया जाएगा या जन्म लेने से पूर्व ही गर्भपात द्वारा नष्ट कर दिया जाएगा।
  5. सम्बन्धों का ज्ञान : प्लेटो कहता है कि संरक्षक वर्ग के अन्तर्गत आने वाले बच्चे सामुदायिक जीवन के भागीदार होंगे और इस सामुदायिक जीवन में उनके सम्बन्ध भी सामुदायिक होंगे। पुरुष उन सभी बच्चों को अपना पुत्र या पुत्री समझेगा जो उनके वर बनने के मास से लेकर 10 वें मास तक पैदा होते हैं और वे स्त्री बच्चे उस पुरुष को पिता समझेंगे। वह इन बच्चों की सन्तानों को पौत्र कहेगा और वे समुदाय के पुरुषों व स्त्रियों को दादा-दादी कहेंगे तथा वे सब बच्चे जो कि एक माता-पिताओं के समुदाय के प्रजनन काल में उत्पन्न हुए हैं एक दूसरे को भाई-बहिन मानेंगे।

पत्नियों के साम्यवाद के उद्देश्य

प्लेटो के अनुसार पत्नियों के साम्यवाद को प्रतिपादित करने के पीछे उद्देश्य हैं:-

  1. नारियों की मुक्ति : प्लेटो के समय में एथेन्स में राजनीतिक व सामाजिक कार्यों में स्त्रियों को भाग लेने का अधिकार प्राप्त नहीं था। उन्हें केवल घर की चारदीवारी में रहकर बच्चों का लालन-पालन करना होता था। राज्य की सेवा के लिए बच्चों को उत्पन्न करने में विवाह एक साधन और पत्नी एक उपकरण मानी जाती थी। परिवार की सीमित परिधि में बंधी होने के कारण उनका व्यक्तित्व कुंठित होता है। इससे समाज को भी हानि होती है, क्योंकि स्त्री समाज की आधी सुषुप्त शक्ति होती है। प्लेटो ने यह स्वीकार किया है कि स्त्रियों की संभाव्य शक्ति को ध्यान में रखते हुए उन्हें चारदीवारी से बाहर निकालना आवश्यक है। प्लेटो ने कहा है- “परिवार एक ऐसा साधन है जहाँ मनुष्य की प्रतिभा का हनन होता है तथा पत्नी की मानसिक शक्ति चौके-चूल्हे में ही बर्बाद हो जाती है।” प्लेटो स्त्रियों के इस हीन जीवन का अन्त करके उन्हें सक्रिय राजनीति में देखना चाहता था।
  2. अभिभावक वर्ग की क्षमता में वृद्धि : परिवार के साम्यवाद की योजना उन्हें परिवार के कुप्रभावों से बचाती हुई अपने परिवार की दैनिक आवश्यकताओं की चिन्ता से मुक्त रखती है। ऐसी स्थिति में अभिभावक वर्ग अपने कर्त्तव्य की पूर्ति करने में भी अधिक सक्षम होगा।
  3. जनसंख्या का सन्तुलन : परिवार के साम्यवाद की योजना का एक प्रमुख उद्देश्य आदर्श नगर राज्य की जनसंख्या को आदर्श सीमा में ही बनाए रखना है। प्लेटो के अनुसार- “विवाहों की संख्या को हम शासकों के स्वविवेक पर छोड़ देंगे। वे इस लक्ष्य को सदैव ध्यान में रखेंगे कि युद्धों, महामारियों आदि से जनसंख्या की होने वाली हानि के बाद भी नागरिकों की जनसंख्या यथासम्भव स्थिर रहे और वे ऐसे सभी सम्भव प्रयत्न करेंगे कि हमारा राज्य न तो जनसंख्या की दृष्टि से बड़ा हो पाए और न छोटा रह जाए. . .।” एण्टोनी फलु के अनुसार- “प्लेटो सामाजिक दृष्टि से जनसंख्या की विस्फोटक स्थिति के बारे में जागरूक है।”
  4. नस्ल-सुधार : प्लेटो के इस साम्यवाद का उद्देश्य नस्ल-सुधार करना भी है। प्लेटो ने स्पष्ट कहा है कि केवल योग्य पुरुषों व स्त्रियों का ही संभोग कराया जाएगा। कुरूप बच्चों को मार दिया जाएगा या राज्य उनका पालन-पोषण नहीं करेगा। प्लेटो का नस्ल-सुधार का उद्देश्य एक स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट, बलवान, वीर तथा प्रतिभाशाली सन्तान को पैदा करके पूरा हो सकता था। अत: प्लेटो ने नस्ल-सुधार के लिए परिवार के साम्यवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया।
  5. शासकों के शुद्ध विवेक की रक्षा : प्लेटो के आदर्श राज्य में निर्लिप्त, निष्काम, प्रज्ञावान, दार्शनिक शासकों का शासन होगा, किन्तु सब जानते हैं कि ऐसे शासक पारिवारिक मोह के कारण शुद्ध कर्म व ज्ञान के मार्ग से भटक सकते हैं। प्लेटो ने माना है कि कंचन और कामिनी शासक वर्ग को अपने मार्ग से विचलित कर सकते हैं। इसलिए वह शासक वर्ग के शुद्ध विवेक की रक्षा करने के लिए परिवार को साम्यवाद की व्यवस्था करता है।
  6. राज्य में एकता : परिवार व्यक्तितयों में तेरे-मेरे की भावना उत्पन्न करता है और इस भावना के कारण संरक्षक वर्ग में सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष उत्पन्न होता है। प्लेटो ने राज्य के हित में पारस्परिक संघर्ष की इस प्रवृत्ति का अन्त आवश्यक माना है। अत: प्लेटो अभिभावक वर्ग के समस्त स्त्री-पुरुषों को एक ही परिवार (राज्य परिवार) के रूप में बाँधकर राजनीतिक एकता की स्थापना करना चाहता है ताकि समाज के सभी व्यक्ति आपस में भ्रातृभाव से रहें। 

पत्नियों के साम्यवाद की आलोचना

प्लेटो के साम्यवाद की निम्न आधारों पर आलोचना की गई है :-

  1. परिवार – एक ऐतिहासिक अनुभव : प्लेटो ने परिवार नामक संस्था का लोप करके भारी गलती की है। परिवार से ही राज्य व समाज का जन्म हुआ है। परिवार राज्य की छोटी इकाई है। परिवार का अन्त करना मानव समाज के लिए अहितकर होगा क्योंकि :- (क) परिवार एक ऐतिहासिक संस्था है। इसके पीछे युगों का अनुभव है। इसे समाप्त करने का अर्थ है – पुन: असभ्यता के युग में लौटना। (ख) राज्य की तरह परिवार भी मानव-स्वभाव से उत्पन्न संस्था है। राज्य के नाम पर परिवार का अन्त करना सर्वथा अनुचित है। (ग) परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला है। परिवार ही बच्चे को सद्गुणी बनाता है। परिवार में सहयोग, सहानुभूति, दया, परोपकार व अनुशासन जैसे गुणों को सीखा जाता है।
  2. पत्नी और परिवार के प्रति प्लेटो के विचार सही तथ्यों पर आधारित नहीं हैं : आलोचकों का कहना है कि स्त्री का बच्चों के प्रति स्नेह और उनके पालन-पोषण की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, उसे न तो शिशु पालनगृहों को स्थानान्तरित किया जा सकता है और न ही उन गृहों में वही प्यार ही प्राप्त हो सकता है। वैसे भी मातृत्व को समाप्त करना कभी भी एक आदर्श राज्य की नीति नहीं हो सकती बल्कि मातृत्व को राज्य में उचित स्थान को प्राप्त करने का प्रोत्साहन ही प्लेटो के न्याय का सही रूप हो सकता था। मातृत्व एक ऐसी चीज है जिसे माँ के सिवाय कोई दूसरा कृत्रिम तरीके से प्रदान नहीं कर सकता। स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध भी पशुओं जैसा सम्बन्ध नहीं है जो सन्तान की उत्पत्ति के लिए ही जुड़ता हो। उसमें एक पवित्रता है और यह सम्बन्ध जीवनभर के लिए होता है। अत: प्लेटो ने पारिवारिक सम्बन्धों के पीछे की वास्तविकता को नहीं समझा। इसलिए अरस्तू ने इसे एक व्यभिचारी योजना कहा है जिसे कोई भी सभ्य मानव-जाति स्वीकार नहीं करेगी। माता के स्नेह को प्लेटो राज्य की एकता के नाम पर कुर्बान नहीं कर देता है।
  3. जो वस्तु सभी की होती है, वह किसी की भी नहीं होती : अरस्तू का आरोप है कि प्लेटो के साम्यवाद में अभिभावक वर्ग की सारी पत्नियों और सभी बच्चे यदि सभी के हैं तो वास्तव में वे किसी के नहीं हैं और इसलिए कोई भी उनकी व्यवस्था व परवाह उतने प्रेम से नहीं कर सकता जितना परिवार में उन्हें मिलता है।
  4. अपराध अधिक होंगे : आलोचकों का कहना है कि यदि परिवार व व्यक्तिगत सम्पत्ति न रहेंगे तो पिता-पुत्र, माँ-बेटे, भाई-भाई का रिश्ता समाप्त हो जाएगा और तब समाज में स्वाभाविक होने वाली समस्याओं, झगड़ों या अपराधों को पारिवारिक ढंग से नहीं सुलझाया जा सकेगा। ऐसी स्थिति में अपराध बढ़ेंगे। समाज में नैतिक मूल्यों का पतन हो जाएगा और नागरिक अधिक अपराधों की ओर प्रवृत्त होंगे।
  5. अमनोवैज्ञानिक तथा अव्यावहारिक : प्लेटो के परिवार के साम्यवाद की योजना अपनी प्रकृति से अमनोवैज्ञानिक और अव्यावहारिक है। यही कारण है कि यह योजना प्लेटो के समय में ही अमान्य हो गई थी और न ही इसे आज तक कहीं लागू किया गया। प्लेटो ने स्वयं भी अपनी ग्रन्थ ‘लॉज’ में अस्थायी विवाह की जगह स्थायी विवाह व निजी परिवार की व्यवस्था को मान्यता दी है।
  6. अनावश्यक योजना : अरस्तू का विचार है कि प्लेटो ने न्याय की स्थापना के लिए साधन के रूप में परिवार का साम्यवाद गलत अपनाया क्योंकि प्लेटो जिन दोषों – जैसे लोभ, पक्षपात आदि को दूर करने की बात करता है। उसके लिए तो शिक्षा व्यवस्था का सहारा लेना उचित होता। ये रोग नैतिक रोग के समान हैं और इनका इलाज भौतिक साधन द्वारा नहीं हो सकता।
  7. परिवार रहित शासक की व्यावहारिक कठिनाइयाँ : पारिवारिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ व अनजान शासकों को उत्पादक वर्ग के पारिवारिक विवादों को हल करने का अधिकार है, किन्तु वे इस दृष्टि से अयोग्य ही सिद्ध होंगे, क्योंकि उन्हें स्वयं पारिवारिक जीवन का कोई अनुभव नहीं होता है। 
  8. अपवित्र यौन-सम्बन्ध की सम्भावना : प्लेटो को परिवार के साम्यवाद में ऐसी यौन सम्भावना भी है जिससे रक्त का सम्बन्ध भी हो। इस व्यवस्था में पिता-पुत्री को और भाई-बहिन को नहीं पहचानता। अत: इससे अपवित्र यौन-सम्बन्ध की अधिक सम्भावना है जो सामाजिक मापदण्डों के विरुद्ध है। नैतिकता इसका कभी समर्थन नहीं कर सकती।
  9. दासों के लिए स्थान नहीं : प्लेटो ने दास-वर्ग को इस व्यवस्था से पूर्णत: बाहर रखा है। दास-प्रथा उस समय की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रथा थी। दास एक उपयोगी सामाजिक वर्ग का रूप ले चुका था। उनकी अवहेलना करना सर्वथा गलत है।
  10. न्याय सिद्धात के विरुद्ध : प्लेटो के न्याय सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार आचरण करना चाहिए, किन्तु प्लेटो का परिवार का साम्यवाद के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। स्त्रियों के लिए स्वाभाविक गुण बच्चों का लालन-पालन है, किन्तु प्लेटो अभिभावक वर्ग की स्त्रियों को इस स्वाभाविक कर्म से वंचित करता है।
  11. व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधक : प्लेटो राज्य की एकता को साध्य मानकर व्यक्ति को उसका साधनमात्र मान लेता है। वह अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए परिवार की संस्था को राज्य के अधीन कर देता है। अत: यह व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधक है।
  12. जीवशास्त्र के नियमों के विरुद्ध : प्लेटो की परिवार की साम्यवादी व्यवस्था जीवशास्त्र के नियमों के विरुद्ध है। इसमें कोई गारण्टी नहीं है कि गुणवान माता-पिता की सन्तान भी गुणवान हो। यह पद्धति पशु-विज्ञान में तो लागू हो सकती है, जीवशास्त्र में नहीं।
  13. स्त्री-पुरुष में भेद होता है : प्लेटो स्त्री-पुरुष में लिंग-भेद को छोड़कर अन्य कोई अन्तर नहीं मानता। स्त्री कोमल हृदय होती है, जबकि पुरुष कठोर हृदयी होते हैं। इस तरह के कई अन्तर दोनों में होते हैं। प्लेटो का पत्नियों का साम्यवाद न ही वांछनीय है और न ही सम्भव। प्लेटो परिवार जैसी महत्त्वपूर्ण संस्था का लोप करता है, जो असम्भव है। परिवार जैसी संस्था के समाप्त होते ही बच्चे सद्गुणी न होकर आपराधिक प्रवृत्ति की ओर प्रवृत्त होंगे। यह सिद्धांत तर्क की दृष्टि से तो ठीक हो सकता है लेकिन नैतिकता, संस्कृति तथा मनोविज्ञान की दृष्टि से यह कभी मान्य नहीं हो सकता। प्लेटो की सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह है कि उसने महिलाओं और पुरुषों की समानता पर जोर दिया है। उसके सारे प्रयास नारी उत्थान के लिए ही हैं। इस कार्य में परिवार की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है, जिसकी प्लेटो ने उपेक्षा की है। यह निर्विवाद सत्य है कि साम्यवादी व्यवस्था का प्रयास प्लेटो की नारी उत्थान के लिए एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण देन है।

प्लेटो प्रथम साम्यवादी के रूप में

मैक्सी ने अपने ग्रन्थ ‘पोलिटिकल फिलास्फी’ (Political Philosophy) में लिखा है कि प्लेटो साम्यवादी विचारों का मुख्य प्रेरणा-स्रोत है और ‘रिपब्लिक’ (Republic) में सभी साम्यवादी और समाजवादी विचारों के बीज मिलते हैं। लेकिन प्रो0 नैटलशिप, प्रो0 कैटलिन, प्रो0 बार्कर, मैकरी के इस विचार से सहमत नहीं हैं। प्रोñ कैटलिन के अनुसार प्लेटो का साम्यवाद न तो स्ववर्गीय है और न ही अन्तरराष्ट्रीय है। यह आधुनिक साम्यवाद से बिल्कुल मेल नहीं खाता। आधुनिक साम्यवाद जिसका प्रतिपादन कार्ल माक्र्स और लेनिन जैसे विचारकों ने किया है, एक वर्ग-विहीन और राज्य-विहीन समाज के विश्वास करते हैं। मुख्य रूप में यह विचारधारा पूंजीपति वर्ग के सर्वहारा वर्ग के शोषण को समाप्त करने पर जोर देती है। प्रोñ जायजी की राय में प्लेटो और रूस के साम्यवादियों में बहुत सी समानता है। दोनों ही व्यक्तिगत सम्पत्ति को सभी बुराइयों की जड़ मानते हैं, दोनों ही व्यक्तिगत सम्पत्ति और गरीबी को समाप्त करने के पक्षधर हैं। दोनों ही सामूहिक शिक्षा और बच्चों की सामूहिक देख-रेख में चाहते हैं। दोनों ही कला और साहित्य को राज्य का केवल साधन मानते हैं और दोनों सभी विज्ञान और विचारधाराओं को राज्य के हित में प्रयोग करना चाहते हैं। इस आधार पर प्लेटो को प्रथम साम्यवादी मानना सर्वथा सही है। लेकिन दूसरी ओर टेलर ने इसके विपरीत विचार दिए हैं। टेलर के अनुसार- “रिपब्लिक में न तो समाजवाद पाया जाता है और न साम्यवाद।” प्लेटो को प्रथम साम्यवादी मानने के लिए साम्यवाद की आधुनिक विचारधारा को प्लेटो की विचारधारा से तुलना करना आवश्यक हो जाता है। दोनों अवधारणाओं में कुछ समानताएँ व असमानताएँ हैं।

समानताएँ

प्लेटो के प्रथम साम्यवादी होने के पक्ष में कुछ विचार हैं, जो परस्पर दोनों विचारधाराओं की समानता पर आधारित है। दोनों में मुख्य समानताएँ हैं :-

  1. व्यक्तिगत सम्पत्ति सारी बुराइयों की जड़ है : प्लेटो और आधुनिक साम्यवाद दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि समाज में समस्त दोषों का कारण निजी सम्पत्ति का पाया जाना है। इलिए इसके स्थान पर सार्वजनिक सम्पत्ति की व्यवस्था करना आवश्यक है। प्लेटो ने संरक्षक वर्ग को व्यक्तिगत सम्पत्ति से वंचित करके स्वयं को आधुनिक साम्यवाद के पास लाकर रख दिया है। व्यक्तिगत सम्पत्ति के अन्त से ही समाज की सभी बुराइयों का अन्त हो सकता है।
  2. अधिनायकतन्त्र मे आस्था : दोनों ही साम्यवाद सम्पूर्ण समाज के हित के लिए एक सर्वसत्ताधिकावादी राज्य या शासक में विश्वास करते हैं। प्लेटो विवेकयुक्त दार्शनिक शासक के अधिनायकतन्त्र की स्थापना करता है जो कानून एवं परम्परा से ऊपर है। वह उत्पादक व सैनिक वर्ग पर समाज हित में पूर्ण नियन्त्रण रखता है। प्लेटो का दार्शनिक शासक सर्वशक्तिमान है। आधुनिक साम्यवादी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही में विश्वास करते हैं। अत: दोनों ही अधिनायकतन्त्र के पक्षधर हैं।
  3. स्त्री-पुरुष की समानता में विश्वास : दोनों ही साम्यवादी स्त्री-पुरुष की समान योग्यता व क्षमता में विश्वास करते हैं। प्लेटो के अनुसार स्त्री-पुरुष में लिंग भेद को छोड़कर कोई अन्तर नहीं है। स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह प्रशासकीय पदों को अच्छी तरह संभाल सकती हैं। आधुनिक साम्यवादी भी नारी शक्ति में पूर्ण विश्वास करते हैं।
  4. कला और साहित्य राज्य के साधन हैं : दोनों ही साम्यवाद कला और साहित्य को केवल एक साधन मानते हैं जो केवल राज्य के हितों के अनुकूल होना चाहिए। इसलिए वे कला और साहित्य पर नियन्त्रण की बात करते हैं। कविता की भावना, संगीत के स्वर, वाद्ययन्त्रों की लय तक को वे राज्य द्वारा नियन्त्रित व निर्देशित करना चाहते हैं। इसी तरह आधुनिक साम्यवादी भी कला और साहित्य पर कठोर नियन्त्रण की बात करते हैं। यदि कोई कला व साहित्य राज्य हितों के विपरीत है तो उसे किसी भी अवस्था में सम्मान नहीं दिया जा सकता। अत: दोनों ही साम्यवादी कला ओर साहित्य पर नियन्त्रण के पक्षधर हैं और वे इन्हें राज्य के कल्याण का एक साधन मानते हैं। इस साधन का पवित्र होना जरूरी है।
  5. कर्त्तव्य की भावना ही सामाजिक न्याय है : दोनों ही साम्यवाद समाज के हित में ही व्यक्ति का हित मानते हैं। वे कर्त्तव्यों पर अधिक जोर देते हैं। वे अधिकारों के नाम पर प्रतिबन्धों की व्यवस्था के समर्थक हैं। प्लेटो ने अपनी योग्यतानुसार योग्य स्थान पर काम करने को सामाजिक न्याय कहा है। आधुनिक साम्यवाद भी इस बात पर जोर देता है कि खाने का अधिकार उसी मनुष्य को है जो समाज के लिए काम करता है। अत: दोनों ही साम्यवादी अधिकारों की तुलना में कर्त्तव्यों को महत्त्व देते हैं।
  6. अव्यावहारिक: दोनों ही साम्यवाद मानव-स्वभाव व मनोविज्ञान के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए वे व्यावहारिक नहीं है। इस दोष के कारण न तो प्लेटो की साम्यवादी व्यवस्था कभी कायम हुई है और न ही होगी। इसी तरह आधुनिक साम्यवादी जिस शक्ति द्वारा साम्यवादी समाज की स्थापना की बात करते हैं, वह भी अव्यावहारिक है। आज विश्व के अनेक साम्यवादी व्यवस्था पतन की राह पर है।
  7. समष्टिवाद में विश्वास : दोनों ही व्यवस्थाएँ समष्टिवादी हैं। दोनों साम्यवाद समुदाय की सर्वोच्चता में विश्वास करते हैं जिसमें व्यक्ति की वैयक्तिकता की उपेक्षा करते हैं। दोनों व्यवस्थाओं में व्यक्ति को एक साधनमात्र माना गया है। 8ण् आर्थिक प्रतियोगिता की समाप्ति : दोनों ही साम्यवाद समाज के आर्थिक प्रतियोगिता को समाप्त करने के पक्षधर है। प्लेटो का विश्वास है, यही राजनीतिक कलह का कारण है। आधुनिक साम्यवाद भी आर्थिक प्रतियोगिता को समाप्त कर समाज में एकता का भाव पैदा करना चाहता है।

उपर्युक्त तर्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्लेटो ने ही साम्यवाद के बीज बो दिए थे। प्लेटो के साम्यवादी सिद्धांतों के आधार पर ही आधुनिक साम्यवादी दर्शन खड़ा किया है। इस दृष्टि से प्लेटो को प्रथम साम्यवादी कहना सर्वथा सही है।

असमानताएँ

प्लेटो के साम्यवाद व आधुनिक साम्यवाद में बहुत सी असमानताएँ हैं जिनके आधार पर उसके प्रथम साम्यवादी होने के विचार का खण्डन किया गया है। वे आधार हैं :-

  1. अर्ध साम्यवाद और पूर्ण साम्यवाद: प्लेटो का साम्यवाद सारे समाज पर लागू न होकर केवल संरक्षक वर्ग तक ही सीमित है। प्लेटो ने उत्पादक वर्ग को अपनी इस व्यवस्था से पूर्णतया बाहर रखकर अपने अर्ध-साम्यवादी होने का ही परिचय दिया है। आधाुनिक साम्यवाद पूरे समाज के लोगों पर समान रूप से लागू होता है लेकिन इसमें परिवार का साम्यवाद शामिल नहीं है। आधुनिक साम्यवाद समाज के हर वर्ग को अपने में समेटकर चलता है। अत: दोनों में अन्तर है।
  2. संन्यासवाद और भौतिकवाद : प्लेटो का साम्यवाद वास्तव में तपस्यात्मक है। प्लेटो शासकों को भौतिक सुख साधनों से विरक्त बनाता है। बार्कर के शब्दों में – “यह समर्पण का मार्ग है और उस समर्पण की माँग सर्वोत्तम और केवल सर्वोत्तम व्यक्ति से ही की गई है।” प्लेटो ने संरक्षक वर्ग को समस्त सम्पत्ति से वंचित कर दिया है क्योंकि वह निजी सम्पत्ति को सार्वजनिक कल्याण के कर्त्तव्य-पालन में एक बाधा मानता है। आधुनिक साम्यवाद की आधारशिला भौतिकता है। आधुनिक साम्यवाद भौतिक सुख-साधनों में वृद्धि को ही अपना लक्ष्य श्मानता है। आधुनिक साम्यवाद सम्पत्ति की वांछनीयता को स्वीकार करते हुए उसके वितरण पर बल देता है। अत: प्लेटो के साम्यवाद में न्याय का तात्पर्य कार्यों का यथोचित वितरण है तो आधुनिक साम्यवाद के सन्दर्भ में राज्य के उत्पादन का न्यायोचित वितरण।
  3. राजनीतिक उद्देश्य और आर्थिक उद्देश्य : प्लेटो के साम्यवाद का लक्ष्य राजनीतिक है क्योंकि वह विशेष प्रकार की आर्थिक योजना के आधार पर राज्य में कुशासन तथा भ्रष्टाचार को समाप्त कर अच्छे शासन की स्थापना करना चाहता है। प्लेटो का उद्देश्य राजनीतिक स्थिरता पैदा करता है। आधुनिक साम्यवाद का प्रमख लक्ष्य आर्थिक है। आधुनिक साम्यवादी विशेष प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था के आधार पर आर्थिक साधनों का न्यायपूर्ण वितरण करना चाहते हैं। अत: एक का लक्ष्य राजनीतिक है तो दूसरे का आर्थिक।
  4. सवर्ग समाज और वर्गहीन समाज : प्लेटो के साम्यवाद में वर्गों का अस्तित्व है जिनके कार्यों की विशिष्टता द्वारा राज्य की एकता मे वृद्धि की जाती है। आधुनिक साम्यवाद में वर्गविहीन समाज की स्थापना की बात की जाती है। इसमें वर्गों का कोई महत्त्व नहीं है।
  5. पारिवारिक साम्यवाद के सम्बन्ध में भेद : प्लेटो की साम्यवादी व्यवस्था में सम्पत्ति के साम्यवाद के साथ-साथ पत्नियों के साम्यवाद की भी व्यवस्था की गई है। किन्तु आधुनिक साम्यवाद में इस प्रकार की किसी व्यवस्था का प्रतिपादन नहीं किया गया है।
  6. नगर राज्यों और अन्तरराष्ट्रीय का भेद : प्लेटो का साम्यवाद यूनान के छोटे-छोटे नगर-राज्यों को ध्यान में रखकर प्रतिपादित किया गया है। प्लेटो ने कभी विश्व व्यवस्था की बात नहीं की। अत: उनका साम्यवाद क्षेत्रवाद पर ही आधारित है। कार्लमाक्र्स सम्पूर्ण विश्व के आर्थिक व राजनीतिक घटनाचक्र को ध्यान में रखते हुए अपने साम्यवादी सिद्धांत की रचना की है। वे समस्त विश्व की एकता में विश्वास रखते हैं। अत: आधुनिक साम्यवाद विश्वस्तरीय है।
  7. साम्यवाद में दार्शनिक शासकों की भूमिका में अन्तर : प्लेटो के साम्यवाद में शासन का संचालन दार्शनिक शासक के नेतृत्व में होगा और सामान्य नागरिक उसका अनुसरण करेंगे, जबकि आधुनिक साम्यवाद में दार्शनिक राजा का कोई स्थान नहीं। मजदूरों का साम्यवादी दल तानाशाही से सम्पूर्ण शासन-व्यवस्था पर नियन्त्रण रखता है।
  8. साधन सम्बन्धी अन्तर : प्लेटो ने अपने साम्यवाद की स्थापना के लिए किसी साधन का वर्णन नहीं किया है। आधुनिक साम्यवादी क्रान्ति या दूसरे हिंसात्मक साधनों के प्रयोग द्वारा साम्यवाद की स्थापना करने की बात कहते हैं।
  9. वर्गों  की संख्या में अन्तर : प्लेटो ने समाज में तीन वर्ग – दार्शनिक , सैनिक तथा उत्पादक का वर्णन किया है, जबकि माक्र्स ने पूंजीपति व सर्वहारा वर्ग की ही व्याख्या की है। अत: प्लेटो के अनुसार समाज में तीन तथा आधुनिक साम्यवादी दो वर्गों की बात करते हैं।
  10. श्रमिक वर्ग की महत्ता के सम्बन्ध में अन्तर : प्लेटो के साम्यवाद में श्रमिक वर्ग को कोई महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं है, जबकि आधुनिक साम्यवाद में श्रमिक वर्ग को ही क्रान्ति का आधार माना गया है। आधुनिक साम्यवादी दर्शन तो श्रमिक वर्ग के इर्द-गिर्द ही घूमता है।
  11. व्यावहारिक एवं अव्यावहारिक : प्लेटो का साम्यवाद पूर्णत: अव्यावहारिक है और इसे व्यवहार में कभी भी लागू नहीं किया जा सकता। आधुनिक साम्यवाद के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आधुनिक साम्यवाद अनेक देशों में व्यावहारिक रूप में लागू हुआ है। यद्यपि यह रूस में तो असफल रहा लेकिन चीन में इसका अब भी अस्तित्व है। अत: प्लेटो के साम्यवाद की तुलना में आधुनिक साम्यवाद अधिक व्यावहारिक है।
  12. परिस्थितियों सम्बन्धी अन्तर : प्लेटो का साम्यवाद 5 वीं शताब्दी को एथेन्स की परिस्थितियों की उपज है, जबकि आधुनिक साम्यवाद 19 वीं सदी में ब्रिटेन में उत्पन्न औद्योगिक क्रान्ति का परिणाम है।

इस प्रकार अनेक असमानताओं के आधार पर टेलर का कथन उचित है- “रिपब्लिक में समाजवाद तथा साम्यवाद के बरे में बहुत कुछ कहे जाने के बावजूद वास्तव में इस ग्रन्थ में न तो समाजवाद है और न ही साम्यवाद।” इसलिए प्लेटो को प्रथम साम्यवादी मानना सर्वथा गलत है। प्लेटो में ऐसा कोई विशेष तत्त्व नहीं है, जो आधुनिक साम्यवाद से मेल खाता हो।

 

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