कांगो वायरस

आखिर क्या है कांगो वायरस?

  • इस संक्रमण के लक्षण सबसे पहले वर्ष 1944 में क्रिमिया में सामने आए थे। 1969 में ये पाया गया कि कांगों में भी इसी तरह का संक्रमण फैला था और इसीलिए इस वायरस को क्रिमियन कांगो वायरस के नाम से जाना जाता है।
  • हालाँकि आमतौर पर जानवर ही इसका शिकार होते हैं, लेकिन यह संक्रमण मनुष्यों में भी फैल जाता है। इस बीमारी की चपेट में आने वाले व्यक्तियों की मौत की आशंका बहुत ज्यादा होती है और एक बार संक्रमित हो जाने पर इसे पूरी तरह से शरीर में फैलने में तीन से नौ दिन लग सकते हैं।

 

ये किस तरह से फैलता है?

  • कुछ संदिग्ध मामलों की जाँच जारी है। जानवरों में ये बीमारी टिक्स या पिस्सू से फैलती है। पर ये बीमारी बहुत ही खतरनाक है क्योंकि इस तरह के संक्रमण के 30 से 80 प्रतिशत मामलों में मौत हो जाती है।
  • मौत शरीर से खून का तेज रिसाव और शरीर के विभिन्न अंगों का एक साथ फेल होने की वजह से होती है।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इससे संक्रमित होने पर बुखार के एहसास के साथ शरीर की माँशपेशियों में दर्द, चक्कर आना और सर में दर्द, आँखों में जलन और रोशनी से डर जैसे लक्षण पाए जाते हैं। कुछ लोगों को पीठ में दर्द और मितली होती है और गला बैठ जाता है।

डीएनए नहीं आरएनए पर हमला

  • स्वाइन फ्लू आदि बुखार में विषाणु डीएनए (डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) पर हमला करते हैं, जिसमें दवाओं के सहारे एंटीबॉडीज को पैदा कर लिया जाता है और बीमारी ठीक हो जाती है। हालांकि, यह हाईलोमा टिक के वायरस आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) पर हमला करने वाले विषाणु हैं। इसको संक्रमण के बाद मरीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म होने लगती है। दूसरा कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता को देखकर शरीर के भीतर खराब बैक्टीरिया भी प्रहार करने लगते हैं। ऐसे में मरीज विषाणु और जीवाणु दोनों की मार झेलता है।

बचाव के लिए राईबोवेरिन एकमात्र दवा

  • जो जानवर इस विषाणु के कारण मर गया है और यदि उसे मांस भक्षण करने वाले पक्षी खाते हैं तो यह वायरस उनसे होते हुए हमारे घरों तक भी पहुंच सकता है। ऐसे में इस वक्त संदेह वाले इलाकों में राइबोवेरिन दवाएं बचाव के तौर पर खिलाई जाती हैं। मरीज के संपर्क में आने से बचने के लिए पूरी सुरक्षा जरूरी है। वहीं, मृतकों के शवदाह में भी संक्रमण न फैलने पाए इसका पूरा ख्याल रखना पड़ता है।

 

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