जैव प्रौद्योगिकी के महत्त्वपूर्ण टॉपिक्स
टॉपिक-1
GM फसलें क्या है ?
- जेनेटिक इजीनियरिंग के ज़रिये किसी भी जीव या पौधे के जीन को अन्य पौधों में डालकर एक नई फसल प्रजाति विकसित की जाती
- जीएम फसल उन फसलों को कहा जाता है जिनके जीन को वैज्ञानिक तरीके से रूपांतरित किया जाता है।
GM फसलों के लाभ
- यह बीज साधारण बीज से कहीं अधिक उत्पादकता प्रदान करता है।
- इससे कृषि क्षेत्र की कई समस्याएँ दूर हो जाएंगी और फसल उत्पादन का स्तर सुधरेगा।
- जीएम फसलें सूखा-रोधी और बाढ़-रोधी होने के साथ कीट प्रतिरोधी भी होती हैं।
- जीएम फसलों की यह विशेषता होती है कि अधिक उर्वर होने के साथ ही इनमें अधिक कीटनाशकों की ज़रूरत नहीं होती।
जीएम फसलों के नुकसान
भारत में इन फसलों का विरोध करने के कई कारण हैं…
- जीएम फसलों की लागत अधिक होती है, क्योंकि इसके लिये हर बार नया बीज खरीदना पड़ता है।
- बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार के कारण किसानों को महँगे बीज और कीटनाशक उनसे खरीदने पड़ते हैं।
- इस समय हाइब्रिड बीजों पर ज़ोर दिया जा रहा है और अधिकांश हाइब्रिड बीज(चाहे जीएम हों अथवा नहीं) या तो दोबारा इस्तेमाल लायक नहीं होते और अगर होते भी हैं तो पहली बार के बाद उनका प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं होता।
- इसे स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा जैव विविधता के लिये हानिकारक माना जाता है।
- भारत में इस प्रौद्योगिकी का विरोध करने वालों का कहना है कि हमारे देश में कृषि में काफी अधिक जैव विविधता है, जो जीएम प्रौद्योगिकी को अपनाने से खत्म हो जाएगी।
भारत में उपयोग की जा रही GM फसलें
BT कपास (एकमात्र उपयोग की जा रही GM फसल ),GM सरसों ,BT बैंगन (विवादित )।
वर्तमान संदर्भ
कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय (Ministry of Agriculture & Farmers Welfare) द्वारा लोकसभा में प्रस्तुत जानकारी के अनुसार, कृषि, सहकारिता और किसान कल्याण विभाग (Department of Agriculture, Cooperation and Farmers Welfare) ने राज्यों को BT बैंगन और HT कपास के प्रसार को नियंत्रित करने के लिये निर्देश जारी किये हैं।
विवाद
- भारत में Bt कपास, जो कि एक GM फसल है, की शुरुआत काफी सफल किंतु विवादास्पद रही है। वर्ष 2002 में इसकी शुरुआत के बाद एक दशक में कपास का उत्पादन दुगुने से भी अधिक हो गया। लेकिन, इसी समय मूल्य निर्धारण एवं बौद्धिक संपदा अधिकारों के मुद्दे पर विवाद भी शुरू हो गया था।
- Bt-बैंगन के विकास के लिये 2005 में महिको (अमेरिकन कृषि बायोटेक कंपनी मोनसेंटो की भारतीय सहयोगी कंपनी) ने दो विश्वविद्यालयों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किये। दो विशेषज्ञ समितियों द्वारा जैव सुरक्षा द्वारा और क्षेत्र परीक्षणों के अध्ययन के बाद Bt-बैंगन को भारत के शीर्ष बायोटेक्नोलॉजी नियामक जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रेजल कमेटी (GEAC) ने 2009 में इसके वाणिज्यिक उत्पादन की मंज़ूरी दे दी। लेकिन इसके बाद में भारी विरोध को देखते हुए सरकार ने इसके उत्पादन को स्थगित कर दिया।
- GM सरसों का प्रयोग भी विवादास्पद बना हुआ है।
GM फसलों से सम्बंधित विवादों का समाधान –
- आनुवांशिक रूप से संशोधित सूक्ष्म जीवों और उत्पादों के कृषि में उपयोग को स्वीकृति प्रदान करने वाली जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) की शक्तियाँ बढ़ाई जाएँ तथा उसे निर्णय लेने हेतु और अधिक स्वायत्ता दी जाए।
- जीएम फसलों को मंज़ूरी उनके सामाजिक-आर्थिक व स्वास्थ्य पर प्रभाव के मूल्यांकन के बाद ही दी जानी चाहिये।
- GM फसलों को अपनाने वाले कृषकों के हितों की रक्षा हेतु उचित नीतियाँ अपनाई जानी चाहिये।
टॉपिक-2
बीटी बैंगन
खबरों में क्यों?
हाल ही में हरियाणा के एक ज़िले में ट्रांसजेनिक बैगन की किस्म (Transgenic Brinjal Variety) की खेती किये जाने की जानकारी प्राप्त हुई है। हालाँकि भारत में अभी तक इसकी खेती की अनुमति नही दी गई है।
- बीटी बैंगन (Bt brinjal) के उत्पादन से देश के पर्यावरण संरक्षण कानूनों का उल्लंघन होने की आशंका है।
बीटी बैंगन
- बीटी बैंगन जो कि एक आनुवंशिक रूप से संशोधित फसल है, इसमें बैसिलस थुरियनजीनिसस (Bacillus thuringiensis) नामक जीवाणु का प्रवेश कराकर इसकी गुणवत्ता में संशोधन किया गया है।
- बैसिलस थुरियनजीनिसस जीवाणु को मृदा से प्राप्त किया जाता है।
- बीटी बैंगन और बीटी कपास (Bt Cotton) दोनों के उत्पादन में इस विधि का प्रयोग किया जाता है।
आनुवंशिक संशोधित फसल (Genetically Modified Crops)
- आनुवंशिक संशोधित या जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें (Genetically Modified Crops) वे होती हैं जिनके गुणसूत्र में कुछ परिवर्तन कर उनके आकार-प्रकार एवं गुणवत्ता में मनवांछित परिवर्तन किया जा सकता है।
- यह परिवर्तन फसलों की गुणवत्ता, कीटाणुओं से सुरक्षा या पौष्टिकता में वृद्धि के रूप में हो सकता है।
फसलों का परीक्षण
- फसलों को कीटों से सुरक्षा प्रदान करने के लिये किये गए परीक्षण में वैज्ञानिकों द्वारा जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग कर एक जीवाणु प्रोटीन (Bacterial Protein) को पौधे में प्रवेश कराया गया।
- प्रारंभिक परीक्षण में जीएम-फ्री इंडिया (CGFI) के लिये गठबंधन का प्रतिनिधित्व कार्यकर्ताओं ने किया।
- इस मामले में जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (GEAC) और राज्य कृषि विभाग को पहले ही सूचित कर दिया गया है।
जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (Genetic Engineering Appraisal Committee- GEAC)
- यह समिति (GEAC) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत कार्य करती है।
- इस समिति की अध्यक्षता पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के विशेष सचिव द्वारा की जाती है, जैव प्रौद्योगिकी विभाग का एक प्रतिनिधि इसका सह-अध्यक्ष होता है।
- वर्तमान में इसके 24 सदस्य हैं।
- नियमावली 1989 के अनुसार, यह समिति अनुसंधान और औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में खतरनाक सूक्ष्मजीवों एवं पुनः संयोजकों के बड़े पैमाने पर उपयोग संबंधी गतिविधियों का पर्यावरणीय दृष्टिकोण से मूल्यांकन करती है।
- यह समिति प्रायोगिक क्षेत्र परीक्षणों सहित आनुवंशिक रूप से उत्पन्न जीवों और उत्पादों के निवारण से संबंधित प्रस्तावों का भी मूल्यांकन करती है।
पूर्व के संदर्भ में बात करें तो
- वर्ष 2010 में सरकार ने महिको द्वारा विकसित बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन पर अनिश्चितकालीन रोक लगा दी थी।
- उसी दौरान भारत में जैव विविधता को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिकों को इस पर स्वतंत्र रूप से अध्ययन करने के लिये बुलाया गया। क्योंकि भारत बैंगन के लिये (घरेलू और जंगली दोनों क्षेत्र में) विविधता का केंद्र है।
- लेकिन उसी ट्रांसजेनिक किस्म को 2013 में बांग्लादेश में व्यावसायिक खेती के लिये अनुमोदित किया गया था।
शासन की विफलता
- जैसा कि देखा जा रहा है देश में अवैध रूप से की जाने वाली बीटी बैंगन की खेती स्पष्ट रूप से संबंधित सरकारी एजेंसियों की विफलता को दर्शाती है।
- हालाँकि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। गुजरात में बीटी कपास की बड़े पैमाने पर अवैध खेती की शिकायतें मिलीं। जब तक इस पर रोक के लिये कदम उठाया है जाता तब तक यह लाखों हेक्टेयर क्षेत्र में फैल चुकी होती हैं।
- 2017 के उत्तरार्द्ध में गुजरात में अवैध रूप से जीएम सोया की खेती किये जाने का भी पता चला था।
- जीएम फसलों की अवैध खेती की शिकायत GEAC के पास दर्ज कराने पर भी तत्काल कोई कार्रवाई नही की जाती है।
टॉपिक-3
जीनोम मैपिंग
जीनोम मैपिंग क्या है?
- हमारी कोशिका के अंदर आनुवंशिक पदार्थ (Genetic Material) होता है जिसे हम DNA, RNA कहते हैं। यदि इन सारे पदार्थों को इकठ्ठा किया जाए तो उसे हम जीनोम कहते हैं।
- एक जीन के स्थान और जीन के बीच की दूरी की पहचान करने के लिये उपयोग किये जाने वाले विभिन्न प्रकार की तकनीकों को जीन मैपिंग कहा जाता है।
- अक्सर, जीनोम मैपिंग का उपयोग वैज्ञानिकों द्वारा नए जीन की खोज करने में मदद के लिये की जाती है।
- जीनोम में एक पीढ़ी के गुणों का दूसरी पीढ़ी में ट्रांसफर करने की क्षमता होती है।
- ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट (HGP) के मुख्य लक्ष्यों में नए जीन की पहचान करना और उसके कार्य को समझने के लिये बेहतर और सस्ते उपकरण विकसित करना है। जीनोम मैपिंग इन उपकरणों में से एक है।
- मानव जीनोम में अनुमानतः 80,000-1,00,000 तक जीन होते है। जीनोम के अध्ययन को जीनोमिक्स (Genomics) कहा जाता है।
जीनोम अनुक्रमण क्या होता है?
- जीनोम अनुक्रमण (Genome Sequencing) के तहत डीएनए अणु के भीतर न्यूक्लियोटाइड के सटीक क्रम का पता लगाया जाता है।
- इसके अंतर्गत डीएनए में मौज़ूद चारों तत्त्वों- एडानीन (A), गुआनीन (G), साइटोसीन (C) और थायामीन (T) के क्रम का पता लगाया जाता है।
- डीएनए अनुक्रमण विधि से लोगों की बीमारियों का पता लगाकर उनका समय पर इलाज करना और साथ ही आने वाली पीढ़ी को रोगमुक्त करना संभव है।
जीनोम मैपिंग के लाभ
- जीनोम मैपिंग के माध्यम से हम जान सकते हैं कि किसको कौन सी बीमारी हो सकती है और उसके क्या लक्षण हो सकते हैं।
- इससे यह भी पता लगाया जा सकता है कि हमारे देश के लोग अन्य देश के लोगों से किस प्रकार भिन्न हैं या उनमें क्या समानता है।
- इससे पता लगाया जा सकता है कि गुण कैसे निर्धारित होते हैं तथा बीमारियों से कैसे बचा जा सकता है।
- बीमारियों का समय रहते पता लगाया जा सकता है और उनका सटीक इलाज भी खोजा जा सकता है।
- क्यूरेटिव मेडिसिन के द्वारा रोग का इलाज किया जाता है तथा प्रिकाशनरी मेडिसिन के द्वारा बीमारी न हो इसकी तैयारी की जाती है, जबकि जीनोम के माध्यम से प्रिडीक्टिव मेडिसिन की तैयारी की जाती है।
- इसके माध्यम से पहले से पता लगाया जा सकता है कि 20 साल बाद कौन सी बीमारी होने वाली है। वह बीमारी न होने पाए तथा इसके नुकसान से कैसे बचा जाए इसकी तैयारी आज से ही शुरू की जा सकती है।
- जीनोम मैपिंग से बच्चे के जन्म लेने से पहले उसमें उत्पन्न होने वाली बीमारियों के जीन का पता लगाया जा सकता है और सही समय पर इसका इलाज किया जा सकता है या यदि बीमारी लाइलाज है तो बच्चे को पैदा होने से रोका जा सकता है।
- कुछ ऐसी बीमारियाँ हैं जो सही समय पर पता चल जाएँ तो उनकी क्यूरेटिव मेडिसिन विकसित की जा सकती है तथा व्यक्ति के जीवनकाल को बढ़ाया जा सकता है।
जीनोम मैपिंग की आवश्यकता क्यों?
- 2003 में मानव जीनोम को पहली बार अनुक्रमित किये जाने के बाद प्रत्येक व्यक्ति की अद्वितीय आनुवंशिक संरचना तथा रोग के बीच संबंध को लेकर वैज्ञानिकों को एक नई संभावना दिख रही है।
- लगभग 10,000 बीमारियाँ जिनमें सिस्टिक फाइब्रोसिस, थैलेसीमिया शामिल हैं, के होने का कारण एकल जीन में खराबी (Single Gene Malfunctioning) को माना जाता है।
- जीन कुछ दवाओं के प्रति असंवेदनशील हो सकते हैं, जीनोम अनुक्रमण ने यह सिद्ध किया है कि कैंसर जैसे रोग को भी आनुवंशिकी के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।
- अधिकांश गैर-संचारी रोग जैसे मानसिक मंदता (Mental Retardation), कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, न्यूरोमस्कुलर डिसऑर्डर तथा हीमोग्लोबिनोपैथी (Haemoglobinopathy) कार्यात्मक जीन में असामान्य डीएनए म्यूटेशन के कारण होते हैं।
टॉपिक-4
मानव एटलस पहल
चर्चा में क्यों?
हाल ही में मानव शरीर के सभी ऊतकों की आणविक संरचनाओं का एक एकीकृत डेटाबेस बनाने और मानव शरीर की क्रियाविधि का एक समग्र रूप से खाका खींचने हेतु एक नई पहल ’मानव एटलस’ शुरू की गई है।
प्रमुख बिंदु
- ‘मानव’नामक परियोजना को जैव प्रौद्योगिकी विभाग और जैव प्रौद्योगिकी कंपनी पर्सिसटेंट सिस्टम (Persistent Systems) द्वारा शुरू किया गया है।
- इस वृहद परियोजना के अंतर्गत मानव ऊतकों और अंगों की आणविक जानकारियाँ अर्जित तथा एकीकृत की जाएगी जो वर्तमान में विभिन्न शोध-पत्रों में अव्यवस्थित रूप से लिखित हैं।
- यह डेटाबेस शोधकर्त्ताओं को मौज़ूदा कमियों को सुधारने और भविष्य में रोगों की पहचान एवं उसके निदान से जुडी परियोजनाओं में मदद करेगा।
- इस परियोजना का विचार स्मार्ट इंडिया हैकाथॉन की सफलता से आया। स्मार्ट इंडिया हैकाथॉन एक राष्ट्रव्यापी प्रतियोगिता है, जिसमें बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों ने भाग लिया तथा इन विद्यार्थियों को समस्याओं का समाधान खोजने हेतु प्रोत्साहित किया गया।
- उसी तरह से ‘मानव’ (MANAV) जीव विज्ञान के छात्रों को जीव विज्ञान से जुड़ा साहित्य पढ़ने में,अपने कौशल को निखारने और जैविक प्रणाली के बारे में अपनी समझ को उन्नत करने में सहायता करेगी।
- इस सार्वजनिक-निजी उपक्रम में DBT और Persistent Systems क्रमशः 13 करोड़ एवं 7 करोड़ रुपए का निवेश करेंगे।
- इस परियोजना को भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (Indian Institute of Science Education and Research- IISER) और पुणे स्थित नेशनल सेंटर फॉर सेल साइंसेज (National Center for Cell Sciences- NCCS) द्वारा निष्पादित किया जाएगा।
- गौरतलब है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा स्थापित स्वायत्त संस्थान है। NCCS भी एक स्वायत्त संगठन है, जो जैव प्रौद्योगिकी विभाग, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा सहायता प्राप्त है।
- इस परियोजना के अंतर्गत संस्थान छात्रों को प्रशिक्षित करेंगे तथा डेटा प्रबंधन एवं प्रौद्योगिकी मंच निजी भागीदार द्वारा प्रदान किया जाएगा।
- इस परियोजना में DBT के सर्वश्रेष्ठ कॉलेजों और जैव प्रौद्योगिकी सूचना नेटवर्क प्रणाली (Biotechnology Information network system- BTIS) के छात्र और संकाय भी शामिल होंगे।
- इस परियोजना की टीम अन्य एजेंसियों जैसे कि अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (All India Council of Technical Education- AICTE), वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (Council of Scientific and Industrial Research- CSIR), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission- UGC) और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research-ICMR) के साथ सहयोग हेतु बातचीत कर रही है।
- वर्ष 2016 में भी इसी तरह का एक मानव सेल एटलस प्रोजेक्ट (Human Cell Atlas project) वैज्ञानिकों के बीच एक सहयोगी प्रयास के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शुरू किया गया था।
- इस परियोजना में सिंगल सेल जीनोमिक्स (Single Cell Genomics) जैसी तकनीकों के माध्यम से अपने सामान्य और रोग के दौरान शरीर में विभिन्न प्रकार की कोशिकीय और आणविक गतिविधियों से संबंधित डेटाबेस का निर्माण किया जाएगा।
- भारतीय परियोजना कोशिकाओं संबंधी जानकारी प्राप्त करने के लिये पहले से ही उपलब्ध ज्ञान के आधार पर निर्भर करती है।
- इस परियोजना के दौरान विकसित डेटा पद्धति और तकनीकी प्लेटफॉर्म को अन्य विज्ञान संबंधी परियोजनाओं जैसे-जैवविविधता, पारिस्थितिकी, पर्यावरण आदि में भी प्रयोग किया जा सकता है।
टॉपिक-5
जीन एडिटिंग
जीन एडिटिंग क्या है ?
- जीन एडिटिंग का उद्देश्य जीन थेरेपी है जिससे खराब जीन को निष्क्रिय किया जा सके या किसी अच्छे जीन के नष्ट होने की स्थिति में उसकी आपूर्ति की जा सके।
जीन एडिटिंग के अनुप्रयोग (Applications of Gene Editing)
- क्रिस्पर-कैस 9 ((Clustered Regualarly Interspaced Short Palindromic Repeats-9) जीन एडिटिंग हेतु तकनीक है जो DNA को काटने और जोड़ने की अनुमति देती है, जिससे रोग के आनुवंशिक सुधार की उम्मीद बढ़ जाती है।
- क्रिस्पर-कैस 9 को HIV, कैंसर या सिकल सेल एनिमिया जैसी बीमारियों के लिये संभावित जीनोम एडिटिंग उपचार हेतु एक आशाजनक तरीके के रूप में भी देखा गया है।
- इससे चिकित्सकीय रूप से बीमारी पैदा करने वाले जीन को निष्क्रिय किया जा सकता है या आनुवंशिक उत्परिवर्तन को सही कर सकते हैं।
- यह तकनीक मूल बीमारी अनुसंधान, दवा जाँच और थेरेपी विकास, तेजी से निदान, इन-विवो एडिटिंग (In Vivo Editing) और ज़रूरी स्थितियों में सुधार के लिये बेहतर अनुवांशिक मॉडल प्रदान कर रही है।
- इसका उपयोग शरीर की टी-कोशिकाओं (T-Cells) के कार्य को बढ़ावा देने के लिये किया जा सकता है ताकि प्रतिरक्षा प्रणाली के विकार और अन्य संभावित बीमारियों को लक्षित किया जा सके।
- किसानों द्वारा भी फसलों को रोग प्रतिरोधी बनाने के लिये क्रिस्पर तकनीक का उपयोग किया जा रहा है।
- चिकित्सकीय क्षेत्र में, जीन एडिटिंग द्वारा संभावित आनुवंशिक बीमारियों जैसे हृदय रोग और कैंसर के कुछ रूपों या एक दुर्लभ विकार जो दृष्टिबाधा या अंधेपन का कारण बन सकता है, का इलाज़ किया जा सकता है।
- कृषि क्षेत्र में यह तकनीक उन पौधों को पैदा कर सकती है जो न केवल उच्च पैदावार में कारगर होंगे, जैसे कि लिप्पमैन के टमाटर, बल्कि यह सूखे और कीटों से बचाव के लिये फसलों में विभिन्न परिवर्तन कर सकती है ताकि आने वाले सालों में चरम मौसम के बदलावों में भी फसलों को हानि से बचाया जा सके।
- क्रिस्पर DNA के हिस्से हैं, जबकि कैस-9 (CRISPR-ASSOCIATED PROTEIN9-Cas9) एक एंजाइम है। हालाँकि इसके साथ सुरक्षा और नैतिकता से संबंधित चिंताएँ जुड़ी हुई हैं।
जीन एडिटिंग से सम्बंधित नैतिक चिंताएँ –
- इससे भविष्य में ‘डिज़ाइनर बेबी’ के जन्म की अवधारणा को और बल मिलेगा। यानी बच्चे की आँख, बाल और त्वचा का रंग ठीक वैसा ही होगा, जैसा उसके माता-पिता चाहेंगे।
- इस तकनीक का संभावित दुरुपयोग आनुवंशिक भेदभाव पैदा करने के लिये भी हो सकता है।
- चूँकि यह तकनीक अत्यंत महँगी है अतः इसका उपयोग केवल धनी वर्ग के लोग कर पाएंगे।
- किसी एक भ्रूण में गलत जीन एडिटिंग से उसके बाद वाली सभी पीढ़ियों का नुकसान होगा।
- किसी भी भ्रूण में जीन एडिटिंग एक अजन्मे बच्चे के अधिकार का हनन है।
- मानव भ्रूण एडिटिंग अनुसंधान को पर्याप्त रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, जिससे इसे जीन-एडिटेड बच्चों को बनाने के लिये विभिन्न प्रयोगशालाओं को बढ़ावा मिल सकता है।
- कृषि के क्षेत्र में भी जीन एडिटिंग अत्यंत विवादास्पद बना हुआ है।
आगे की राह –
- इसके दुरुपयोग को रोकने के लिये, इसे विश्व स्तर पर विनियमित करने की आवश्यकता है।
- भारत में व्यापक जीन संपादन नीति नहीं है, हालाँकि जर्मेनलाइन जीन संपादन अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप प्रतिबंधित है अतः जीन चिकित्सा से संबंधित प्रावधानों को विनियमित करने के लिये नीति होनी चाहिये।
- जीन एडिटिंग अनुमेय होना चाहिये अथवा नहीं इसमें जनता की राय को महत्त्व देते हुए सार्वजानिक विचार विमर्श को बढ़ावा देना चाहिये।
- डिज़ाइनर बेबी जैसे प्रयासों को हतोत्साहित किया जाना चाहिये।
टॉपिक-6
एक्वापोनिक्स
चर्चा में क्यों?
- एक्वापोनिक्स (Aquaponics) पारिस्थितिकी रूप से एक स्थायी मॉडल है जो एक्वाकल्चर (Aquaculture) के साथ हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics) को जोड़ता है।
मुख्य बिंदु
- एक्वापोनिक्स में एक ही पारिस्थितिकी-तंत्र में मछलियाँ और पौधे साथ-साथ वृद्धि कर सकते हैं।
- मछलियों का मल पौधों को जैविक खाद्य उपलब्ध कराता है जो मछलियों के लिये जल को शुद्ध करने का कार्य करता है और इस प्रकार एक संतुलित पारिस्थितिकी-तंत्र का निर्माण होता है।
- तीसरा प्रतिभागी यानि सूक्ष्मजीव या नाइट्राइजिंग बैक्टीरिया मछली के मल में उपस्थित अमोनिया को नाइट्रेट्स में परिवर्तित कर देता है जो कि पौधों की वृद्धि के लिये आवश्यक है।
हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics)
- हाइड्रोपोनिक्स में पौधे मिट्टी के बिना वृद्धि करते हैं जहाँ मिट्टी को पानी द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है।
एक्वाकल्चर प्रणाली (Aquaculture System)
- इस प्रणाली के तहत एक प्राकृतिक या कृत्रिम झील, ताज़े पानी वाले तालाब या समुद्र में, उपयुक्त तकनीक और उपकरणों की आवश्यकता होती है।
- इस तरह की खेती में जलीय जंतुओं जैसे- मछली एवं मोलस्क का विकास, कृत्रिम प्रजनन तथा संग्रहण का कार्य किया जाता है।
- एक्वाकल्चर एक ही प्रजाति के जंतुओं की बड़ी मात्रा, उनके मांस या उप-उत्पादों के उत्पादन में सक्षम बनाता है।
- मत्स्य पालन इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।
एक्वापोनिक्स के लाभ और खामियाँ
- संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization -FAO) ने वर्ष 2014 में एक तकनीकी शोध-पत्र प्रकाशित किया जिसमें इन प्रयासों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणामों पर प्रकाश डाला गया है।
लाभ:
- उच्च पैदावार (20-25% अधिक) और गुणात्मक उत्पादन।
- गैर कृषि योग्य भूमि जैसे मरुस्थलीय, लवणीय, रेतीली, बर्फीली भूमि का उपयोग किया जा सकता है।
- पौधों और मछलियों दोनों का उपयोग उपभोग एवं आय के सृजन में किया जा सकता है।
खामियाँ:
- मृदा उत्पादन अथवा हाइड्रोपोनिक्स की तुलना में आरंभिक लागत बहुत महँगी है।
- मछली, बैक्टीरिया और पौधों की जानकारी आवश्यक है।
- अनुकूलतम तापमान (17-34°C) की आवश्यकता होती है।
- छोटी-सी गलतियों और दुर्घटनाओं से सारा तंत्र नष्ट हो सकता है।
- यदि एकल रूप में (यानी एक स्थान पर केवल एक एक्वापोनिक्स) उपयोग किया जाता है तो एक्वापोनिक्स पूर्ण भोजन प्रदान नहीं करेगा।
टॉपिक-7
बायोप्लास्टिक
क्या है बायोप्लास्टिक?
- बायोप्लास्टिक मक्का, गेहूँ या गन्ने के पौधों या पेट्रोलियम की बजाय अन्य जैविक सामग्रियों से बने प्लास्टिक को संदर्भित करता है। बायो-प्लास्टिक बायोडिग्रेडेबल और कंपोस्टेबल प्लास्टिक सामग्री है।
- इसे मकई और गन्ना के पौधों से सुगर निकालकर तथा उसे पॉलिलैक्टिक एसिड (PLA) में परिवर्तित करके प्राप्त किया जा सकता है। इसे सूक्ष्मजीवों के पॉलीहाइड्रोक्सीएल्केनोएट्स (PHA) से भी बनाया जा सकता है।
- PLA प्लास्टिक का आमतौर पर खाद्य पदार्थों की पैकेजिंग में उपयोग किया जाता है, जबकि PHA का अक्सर चिकित्सा उपकरणों जैसे-टाँके और कार्डियोवैस्कुलर पैच (ह्रदय संबंधी सर्जरी) में प्रयोग किया जाता है।
यह एकल-उपयोग प्लास्टिक से बेहतर कैसे?
- बायो-प्लास्टिक या पौधे पर आधारित प्लास्टिक को पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक के विकल्प स्वरूप जलवायु के अनुकूल रूप में प्रचारित किया जाता है।
- प्लास्टिक आमतौर पर पेट्रोलियम से बने होते हैं। जीवाश्म ईंधन की कमी और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं पर उनका प्रभाव पड़ता है।
- अनुमान है कि 2050 तक प्लास्टिक वैश्विक CO2 उत्सर्जन के 15% उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार होगा।
- पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक में कार्बन का हिस्सा ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देता है। दूसरी तरफ, बायो-प्लास्टिक्स जलवायु के अनुकूल हैं। अर्थात् ऐसा माना जाता है कि बायो-प्लास्टिक कार्बन उत्सर्जन में भागीदार नहीं होता है।
बायो-प्लास्टिक के प्रभाव
- क्रॉपलैंड का विस्तार:बायोप्लास्टिक के उपयोग में वृद्धि वैश्विक स्तर पर कृषि उपयोग हेतु भूमि के विस्तार को बढ़ावा दे सकती है, जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को और बढ़ाएगा।
- वनों की कटाई:बड़ी मात्रा में बायो-प्लास्टिक का उत्पादन विश्व स्तर पर भूमि उपयोग को बदल सकता है। इससे वन क्षेत्रों की भूमि कृषि योग्य भूमि में बदल सकती है। वन मक्के या गन्ने के मुकाबले अधिक कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करते हैं।
खाद्यान्न की कमी: मकई जैसे खाद्यान्नों का उपयोग भोजन की बजाय प्लास्टिक के उत्पादन के लिये करना खाद्यान्न की कमी का कारण बन सकता है। - औद्योगिक खाद की आवश्यकता:बायोप्लास्टिक को तोड़ने हेतु इसे उच्च तापमान तक गर्म करने की आवश्यकता होती है। तीव्र ऊष्मा के बिना बायो-प्लास्टिक से लैंडफिल या कंपोस्ट का क्षरण संभव नहीं होगा। यदि इसे समुद्री वातावरण में निस्सारित करते हैं तो यह पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक के समान ही नुकसानदेह होगा।
टॉपिक-8
पहली मानव जीनोम मैपिंग परियोजना
भारत अपनी पहली मानव जीनोम मैपिंग परियोजना (Human Genome Mapping Project) शुरू करने की योजना बना रहा है।
प्रमुख बिंदु
- इस परियोजना में कैंसर जैसे रोगों के उपचार के लिये नैदानिक परीक्षणों और प्रभावी उपचारों हेतु (अगले पाँच वर्षों में) 20,000 भारतीय जीनोम की स्कैनिंग (Scanning) करने का विचार है।
- इस परियोजना को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Biotechnology-DBT) द्वारा लागू किया जाना है।
जीनोम (Genome)
- आणविक जीव विज्ञान और आनुवंशिकी के अनुसार जीन जीवों का आनुवंशिक पदार्थ है, जिसके माध्यम से जीवों के गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुँचते हैं।
- किसी भी जीव के डीएनए में विद्यमान समस्त जीनों का अनुक्रम जीनोम (Genome) कहलाता है।
- मानव जीनोम में अनुमानतः 80,000-1,00,000 तक जीन होते हैं।
- जीनोम के अध्ययन को जीनोमिक्स कहा जाता है।
जीनोम अनुक्रमण क्या होता है?
- जीनोम अनुक्रमण (Genome Sequencing) के तहत डीएनए अणु के भीतर न्यूक्लियोटाइड के सटीक क्रम का पता लगाया जाता है।
- इसके अंतर्गत डीएनए में मौज़ूद चारों तत्त्वों- एडानीन (A), गुआनीन (G), साइटोसीन (C) और थायामीन (T) के क्रम का पता लगाया जाता है।
- DNA अनुक्रमण विधि से लोगों की बीमारियों का पता लगाकर उनका समय पर इलाज करना और साथ ही आने वाली पीढ़ी को रोगमुक्त करना संभव है।
जीनोम मैपिंग की आवश्यकता क्यों?
- 2003 में मानव जीनोम को पहली बार अनुक्रमित किये जाने के बाद प्रत्येक व्यक्ति की अद्वितीय आनुवंशिक संरचना तथा रोग के बीच संबंध को लेकर वैज्ञानिकों को एक नई संभावना दिखाई दे रही है।
- अधिकांश गैर-संचारी रोग, जैसे- मानसिक मंदता (Mental Retardation), कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, न्यूरोमस्कुलर डिसऑर्डर तथा हीमोग्लोबिनोपैथी (Haemoglobinopathy) कार्यात्मक जीन में असामान्य DNA म्यूटेशन के कारण होते हैं। चूँकि जीन कुछ दवाओं के प्रति असंवेदनशील हो सकते हैं, ऐसे में इन रोगों को आनुवंशिकी के दृष्टिकोण से समझने में सहायता मिल सकती है।
महत्त्व
- स्वास्थ्य देखभाल:चिकित्सा विज्ञान में नई प्रगति (जैसे भविष्य कहनेवाला निदान और सटीक दवा, जीनोमिक जानकारी) और रोग प्रबंधन में जीनोम अनुक्रमण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
- जीनोम अनुक्रमण पद्धति के माध्यम से शोधकर्त्ता और चिकित्सक आनुवांशिक विकार से संबंधित बीमारी का आसानी से पता लगा सकते हैं।
- जेनेटिक स्क्रीनिंग (Genetic Screening):जीनोम परियोजना जन्म से पहले की बीमारियों के लिये जेनेटिक स्क्रीनिंग की उन्नत तकनीकों को जन्म देगी।
- विकास की पहेली:जीनोम परियोजना मानव DNA की प्राइमेट (Primate) DNA के साथ तुलना करके मानव के विकास संबंधी प्रश्नों के जवाब दे सकती है।
लाभ
- जीनोम मैपिंग के माध्यम से यह पता लगाया जा सकता है कि किसको कौन सी बीमारी हो सकती है और उसके क्या लक्षण हो सकते हैं।
- इससे यह भी पता लगाया जा सकता है कि हमारे देश के लोग अन्य देश के लोगों से किस प्रकार भिन्न हैं और यदि उनमें कोई समानता है तो वह क्या है।
- इससे पता लगाया जा सकता है कि गुण कैसे निर्धारित होते हैं तथा बीमारियों से कैसे बचा जा सकता है।
- बीमारियों का पता समय रहते लगाया जा सकता है और उनका सटीक इलाज भी खोजा जा सकता है।
- इसके माध्यम से उपचारात्मक और एहतियाती (Curative & Precautionary) चिकित्सा के स्थान पर Predictive चिकित्सा की जा सकती है।
- इसके माध्यम से यह पता लगाया जा सकता है कि 20 साल बाद कौन सी बीमारी होने वाली है। वह बीमारी न होने पाए तथा इसके नुकसान से कैसे बचा जाए इसकी तैयारी पहले से ही शुरू की जा सकती है। इसे ही Predictive चिकित्सा कहा गया है।
- इसके अलावा बच्चे के जन्म लेने से पहले उसमें उत्पन्न होने वाली बीमारियों के जींस का पता भी लगाया जा सकता है और आवश्यक कदम उठाए जा सकते हैं।
चिंताएँ
- पक्षपात:जीनोटाइप (Genotype) पर आधारित पक्षपात जीनोम अनुक्रमण का एक संभावित परिणाम है। उदाहरण के लिये, नियोक्ता कर्मचारियों को काम पर रखने से पहले उनकी आनुवंशिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। यदि कोई कर्मचारी अवांछनीय कार्यबल के प्रति आनुवंशिक रूप से अतिसंवेदनशील पाया जाता है तो नियोक्ता द्वारा उसके जीनप्रारूप/जीनोटाइप (Genotype) के साथ पक्षपात किया जा सकता है।
- स्वामित्व और नियंत्रण: गोपनीयता और गोपनीयता संबंधी मुद्दों के अलावा, आनुवंशिक जानकारी के स्वामित्व और नियंत्रण के प्रश्न अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
- आनुवंशिक डेटा का उचित उपयोग:बीमा, रोज़गार, आपराधिक न्याय, शिक्षा, आदि के लिये महत्त्वपूर्ण है।
पृठभूमि
- वर्ष 1988 में अमेरिकी ऊर्जा विभाग तथा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने मिलकर मानव जीनोम परियोजना (Human Genome Project-HGP) पर काम शुरू किया था और इसकी औपचारिक शुरुआत वर्ष 1990 में हुई थी।
- HGP एक बड़ा, अंतर्राष्ट्रीय और बहु-संस्थागत प्रयास है जिसमें जीन अनुक्रमण की रूपरेखा तैयार करने में 13 साल [1990-2003] लगे और इस प्रोजेक्ट पर 7 बिलियन डॉलर खर्च हुए।
- भारत इस परियोजना में शामिल नहीं था, लेकिन इस परियोजना की सहायता से भारत में मानव जीनोम से संबंधित कार्यक्रम शुरू किये जा रहे हैं और उन्हें आगे बढ़ाया जा रहा है।
टॉपिक-9
DNA प्रौद्योगिकी (उपयोग एवं अनुप्रयोग) विनियमन विधेयक, 2019
क्या है DNA?
- इसका पूरा नाम डीऑक्सी राइबो न्यूक्लिक एसिड है और यह सभी जीवित रचनाओं का अनुदेश समुच्चय या रूपरेखा है अर्थात् DNA किसी कोशिका के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले जेनेटिक इंस्ट्रक्शंस होते हैं। यह जीव अंगों की कोशिका के विभिन्न अंशों के निर्माण और क्रिया संबंधी कार्य प्रणालियों के विस्तृत समुच्चय का कोड तैयार करता है। इसे किसी जीव की वृद्धि और विकास के लिये इस्तेमाल किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति का DNA अलग होता है यानी कि किसी से मिलता-जुलता नहीं हो सकता। DNA के भिन्न-भिन्न क्रमों के आधार पर लोगों की पहचान कर उन्हें चिह्नित किया जा सकता है।
क्या है DNA प्रोफाइलिंग?
- यह ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति अथवा उसके ऊतक के नमूने से एक विशेष DNA पैटर्न (जिसे प्रोफाइल कहा जाता है) लिया जाता है।
- सभी व्यक्ति अलग होते हैं और सभी का DNA भी अलग होता है, लेकिन 9 प्रतिशत यह सभी में एक जैसा ही होता है । भिन्नताओं वाले इन्हीं DNA को ‘बहुरूपी’ (Polymorphic) कहा जाता है।
- प्रत्येक व्यक्ति अपने माता-पिता से ‘बहुरूपों’ का एक विशेष संयोजन प्राप्त करता है। DNA प्रोफाइल प्राप्त करने के लिये ‘DNA के बहुरूपों’ (DNA Polymorphisms) की ही जाँच की जाती है।
- लार, बाल, रक्त के नमूने, किसी व्यक्ति की मांसपेशियों या ऊतकों के बारीक अंशों तथा नाखून से DNA निकाला जा सकता है।
- DNA की आणविक संरचना की पहचान सबसे पहले वर्ष 1953 में जेम्स वाटसन और फ्रांसिस क्रिक ने की थी और इसके लिये उन्हें वर्ष 1962 का नोबल पुरस्कार दिया गया था।
- समय के साथ DNA तकनीक विकसित हुई और वर्ष 1984 में ब्रिटिश वैज्ञानिक सर एलेक जॉन जेफरी ने DNA प्रोफाइलिंग की आधुनिक तकनीक की खोज की।
- DNA प्रोफाइलिंग व्यक्तिगत विशेषताओं से किसी व्यक्ति की पहचान स्थापित करने के लिये सामान्यतः फोरेंसिक तकनीक के रूप में सबसे अधिक इस्तेमाल में लाई जाने वाली प्रक्रिया है।
विधेयक के प्रमुख उद्देश्य तथा लाभ
- इस विधेयक का प्राथमिक उद्देश्य देश की न्याय प्रणाली को सहायता और मज़बूती प्रदान करने के लिये DNA आधारित फोरेंसिक प्रौद्योगिकियों के अनुप्रयोग का विस्तार करना है।
- इस विधेयक में DNA प्रयोगशालाओं के लिये अनिवार्य प्रत्यायन और विनियमन (Accreditation & Regulation) का प्रावधान किया गया है। इसके बिना प्रयोगशालाओं में DNA परीक्षण, विश्लेषण आदि करने पर रोक लगाई गई है।
- विधेयक यह सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा कि देश में इस प्रौद्योगिकी के प्रस्तावित विस्तृत उपयोग के DNA परीक्षण का डेटा विश्वसनीय है।
- यह व्यवस्था भी की जाएगी कि नागरिकों केनिजता के अधिकार के संदर्भ में इसके डेटा का दुरुपयोग न हो।
- यह विधेयक DNA प्रमाण के अनुप्रयोग को सक्षम बनाकरआपराधिक न्याय प्रणाली को सशक्त करेगा, जिसको अपराध जाँच में सर्वोच्च मानक समझा जाता है।
- इस विधेयक में परिकल्पितराष्ट्रीय और क्षेत्रीय DNA डेटा बैंकों की स्थापना फॉरेंसिक जाँच में सहायक होगी।
- यह विधेयक देश भर में DNA परीक्षण में शामिल सभी प्रयोगशालाओं में यूनिफॉर्म कोड ऑफ प्रैक्टिस के विकास को गति प्रदान करेगा।
- यह विधेयक DNA नियामक बोर्ड के उचित सहयोग से देश में DNA परीक्षण गतिविधियों को वैज्ञानिक रूप से अद्यतन करने और उन्हें सुव्यवस्थित करने में मदद करेगा, जिसे इसी उद्देश्य से गठित किया जाएगा।
- इस विधेयक में यह अपेक्षा की गई है कि वैज्ञानिक रूप से संचालित इस प्रौद्योगिकी के विस्तारित उपयोग से मौजूदा न्याय प्रणाली और सशक्त बनेगी।
- इस विधेयक के प्रावधान गुमशुदा व्यक्तियों तथा देश के विभिन्न हिस्सों में पाए जाने वाले अज्ञात शवों की पहचान का काम आसान बनाएंगे।
- आतंकवादी हमलों, सुनामी, भूकंप या बाढ़ विभीषिका जैसी बड़ी आपदाओं के शिकार हुए व्यक्तियों की पहचान करने में भी आसानी होगी।
- वर्ष 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमलों तथा वर्ष 2004 में एशियाई सूनामी जैसी आपदाओं में पीड़ितों की पहचान करने के लिये DNA तकनीक का इस्तेमाल किया गया था।
- DNA तकनीक का इस्तेमाल सिविल मामलों को सुलझाने के लिये भी किया जा सकता है, जिनमें जैविक माता-पिता की पहचान, आव्रजन मामले और मानव अंगों के प्रत्यारोपण जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण आयाम शामिल हैं।
- किसी व्यक्ति के DNA सैंपल इकट्ठे करने के लिये उससे लिखित अनुमति लेने की जरूरत होगी।
- किसी अपराध के लिये सात वर्ष से अधिक की सजा या मृत्यु दंड पाने वाले व्यक्तियों के सैंपल इकट्ठा करने हेतु ऐसी सहमति की जरूरत नहीं है।
- पुलिस रिपोर्ट फाइल करने या न्यायालय के आदेश पर संदिग्ध व्यक्तियों के DNA प्रोफाइल को हटाने का प्रावधान करता है।
- न्यायालय के आदेश पर विचाराधीन कैदियों के प्रोफाइल भी हटाए जा सकते हैं, जबकि क्राइम सीन से संबंधित प्रोफाइल्स और लापता व्यक्तियों के इंडेक्स लिखित अनुरोध पर हटाए जा सकेंगे।
- ज्ञातव्य है कि अपराधों की गुत्थियाँ सुलझाने और अज्ञात मृत व्यक्तियों की पहचान के लिये DNA आधारित प्रौद्योगिकियों के उपयोग को दुनियाभर में स्वीकार किया गया है।
विधेयक के पक्ष में तर्क
- व्यक्तिगत गोपनीयता सुनिश्चित की गई है, क्योंकि डेटा बैंक के का कस्टोडियन औपचारिक आग्रह के बिना कोई सूचना जारी नहीं करेगा।
- जिसे DNA प्रक्रिया की ज़रूरत होती है यानी कि जाँचकर्त्ता को पुलिस के माध्यम से आवश्यक प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा।
- जाँचकर्त्ताओं से वही डेटा स्वीकार किया जाएगा, जो डेटा बैंक में उपलब्ध डेटा से मेल खाएगा।
- DNA पैटर्न को DNA बैंक में रखा जाएगा और आवश्यकता पड़ने पर इसका उपयोग राष्ट्रीय हित, पुलिस हित या फोरेंसिक हित के उद्देश्य के लिये किया जा सकेगा।
- कुछ नियमों और शर्तों के साथ DNA प्रोफाइल को एक सरकारी नियामक निकाय के अंतर्गत रखा जाएगा, जहाँ इसके दुरुपयोग की न्यूनतम संभावना होगी।
- इस विधेयक पर संसद की स्थायी समिति तथा विधि आयोग ने भी विचार किया और इस पर व्यापक चर्चा हो चुकी है। विधि आयोग ने जुलाई 2017 में अपनी 271वीं रिपोर्ट में इस मुद्दे पर मसौदा विधेयक भी तैयार किया था।
विधेयक के विरोध में तर्क
- बहुत से लोगों का मानना है कि DNA प्रोफाइलिंग विधेयक मानवाधिकारों का उल्लंघन है क्योंकि यह व्यक्तियों की गोपनीयता के साथ समझौता कर सकता है। यह आशंका इसलिये है क्योंकि व्यक्ति के शरीर और उसकी DNA प्रोफाइल के सभी विवरण सरकार के पास होंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि निजता का अधिकार व्यक्ति का मूलभूत अधिकार है।
- DNA प्रोफाइलिंग का उपयोग न केवल आपराधिक मामलों के निपटारे में, बल्कि सरोगेसी, मातृत्व/पितृत्व जाँच, अंग प्रत्यारोपण और आव्रजन जैसे सिविल मामलों में भी किया जाएगा।
- अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणा और वर्ष 1964 के हेलसिंकी घोषणा को भी इसके खिलाफ उद्धृत किया जाता है।
- संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाया गया मानव अधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा-पत्र 1948 अनैच्छिक कुपोषण के खिलाफ मानव के अधिकारों के बारे में सचेत करता है।
- वर्ष 1964 में हेलसिंकी की घोषणा के आधार पर ही 18वीं विश्व चिकित्सा संघ की महासभा द्वारा दिशा-निर्देशों को अपनाया गया है। इसमें कुल 32 सिद्धांत हैं, जो सूचित सहमति, डेटा की गोपनीयता, सुभेद्य जनसंख्या और एक प्रोटोकॉल की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इनमें एथिक्स कमेटी द्वारा किये जाने वाले अध्ययन के वैज्ञानिक कारणों की समीक्षा भी शामिल है।
- फॉरेंसिक DNA प्रोफाइलिंग का ऐसे अपराधों के समाधान में स्पष्ट महत्त्व है जिनमें मानव शरीर (जैसे- हत्या, दुष्कर्म, मानव तस्करी या गंभीर रूप से घायल) को प्रभावित करने वाले एवं संपत्ति (चोरी, सेंधमारी एवं डकैती सहित) की हानि से संबंधित मामले से जुड़े किसी अपराध का समाधान किया जाता है। देश में ऐसे अपराधों की कुल संख्या प्रतिवर्ष तीन लाख से अधिक है। इनमें से बहुत छोटे से हिस्से का ही वर्तमान में DNA परीक्षण हो पाता है। यदि यह विधेयक कानून का रूप ले लेता है तो तमाम किंतु-परंतु के बीच यह आशा की जा सकती है कि इस प्रकार के अपराधों में इस प्रौद्योगिकी के विस्तारित उपयोग से न केवल न्यायिक प्रक्रिया में तेज़ी आएगी, बल्कि सज़ा दिलाने की दर भी बढ़ेगी, जो वर्ष 2016 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार वर्तमान में केवल 30 प्रतिशत है।