गांधी, 21वीं सदी का पर्यावरणविद : प्राकृतिक स्वराज के मायने
गांधी जी ने हिंद स्वराज में संसद को गुलामी का प्रतीक कहा है। इससे हमें स्वराज के मूल भाव का पता चलता है। गांधी ने हिंद स्वराज में स्वराज की परिकल्पना “स्व-शासन” के रूप में की है। लेकिन बारीकी से देखने पर गांधी जी और टैगोर जी दोनों स्पष्ट थे कि स्वराज को केवल साम्राज्यवाद के विरुद्ध आजादी की लड़ाई से जोड़कर देखा नहीं जा सकता। इसमें केवल साम्राज्यवादी ताकत को उखाड़ कर फेंकना शामिल नहीं है। स्व-शासन समाज की नि:स्वार्थ सेवा की आध्यात्मिक क्रिया का राजनीतिक और मानसिक प्रतिफल है। गांधी जी ने सर्वोदय की बात की जिसका मतलब बहुसंख्यक का कल्याण नहीं है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति में जागरुकता का सृजन और कल्याण है। इस प्रकार जो व्यक्ति समाज के लिए कुछ नहीं करता, वह अपनी स्वतंत्रता खो देता है। चाहे फिर वह आधुनिक उदार विचारधारा से प्रभावित असत्य का प्रचार कर बदले में आजादी हासिल ही क्यों न कर ले।
टैगोर जी ने साधना में बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि स्वतंत्रता अधिकार (अहंकार की तुष्टि) से ज्यादा प्रेम के निकट है। यह ऐसा तथ्य है जो आधुनिक उदार विचारधारा में कहीं नहीं मिलता। टैगोर निश्चित रूप से देशभक्त थे, लेकिन उन्होंने राष्ट्रवाद के विचार को पूरी तरह नकार दिया था। उनके विचार में यह समाज की नि:स्वार्थ सेवा के विपरीत केवल सामूहिक अहंकार का प्रदर्शन है। यही नि:स्वार्थ सेवा मानव स्वतंत्रता की अप्रत्यक्ष गारंटी है। उनके समय के कई स्वतंत्रता सेनानी स्वराज की प्रसिद्ध परिभाषा समझते थे। उन्होंने अपने और गांधी जी के करीबी रहे चार्ल्स एंड्रयूज को इस बारे जो कुछ लिखा वह इस प्रकार है, “स्वराज क्या है?”
यह माया है। यह कोहरा है जो छंट जाएगा और आत्मा पर कोई निशान भी नहीं छोड़ेगा। हालांकि हम पश्चिम द्वारा सिखाए गए शब्दजाल में फंस सकते हैं फिर भी स्वराज हमारा विषय नहीं है। हमारी लड़ाई आध्यात्मिक है, मानव जाति के लिए है। हमें मानव को उस जाल से मुक्त कराना है जो उसने अपने चारों तरफ बुन रखा है और यह जाल है राष्ट्रीय अहंकार के संगठनों का। इस चिड़िया को यह समझाना होगा कि आसमान की स्वतंत्रता और उसकी ऊंचाई उसके घोंसले से ज्यादा है। यदि हम ताकतवर, हथियारबंद और अमीर समाज का त्याग करके दुनिया को अनश्वर आत्मा की शक्ति से अवगत कराएं तो सद्भावना का भक्षण करने वाले दानव का खयाली महल ढह जाएगा और व्यक्ति को अपना स्वराज मिल जाएगा।”
गांधी और टैगोर आधुनिक युग में विशेष महत्व रखते हैं जो यह समझते थे कि स्वतंत्रता मानवता के लिए आध्यात्मिक और पर्यावरणीय क्षमता रखती है। यह आजादी की तरह नहीं है जिसका राजनीतिक दृष्टिकोण है। इसमें उनके विचार को आधुनिक धारणाओं से अलग संपूर्ण ब्रह्मांड के रूप में देखना चाहिए जिसमें प्रकृति मानवता की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की मूक दर्शक बन गई है। टैगोर एक के बाद एक कहानी पर जोर देते हैं जिसका मूल भाव यह है कि मानव की स्वतंत्रता के लिए प्रकृति से निकटता अनिवार्य है। अगर इस तथ्य को दरकिनार कर दिया जाए तो पर्यावरण से दूरी, जो आधुनिक विश्व को अपनी चपेट में ले रही है, मानवता को उस स्वतंत्रता से दूर कर देगी जो हर व्यक्ति के लिए जरूरी है।
गांधी ब्रिटिश राज के उतने विरोधी नहीं थे, जितना वह भारत में आधुनिक साम्राज्यवाद के अनुचित प्रभाव के विरोधी थे। उन्होंने हिंद स्वराज में लिखा है “भारत को अंग्रेजों के पैरों तले नहीं बल्कि आधुनिक सभ्यता के नीचे कुचला जा रहा है।” देश इस दानव के बोझ से दबा जा रहा है। गांधी ने “अंग्रेजों के बिना अंग्रेजी राज” पर चेतावनी देते हुए कहा था कि अब भी इससे बचने का मौका है लेकिन दिन-ब-दिन राह कठिन होती जाएगी। यह मान लेना मूर्खता होगी कि एक भारतीय शासन अमेरिकी शासन से बेहतर होगा। दरिद्र भारत स्वतंत्र हो सकता है, लेकिन अनैतिकता से समृद्ध हुए भारत के लिए अपनी स्वतंत्रता हासिल करना मुश्किल होगा… पैसा व्यक्ति को असहाय बना देता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि सहज ज्ञान आज के विश्व की संचालन शक्तियों के बीच अलग-थलग पड़ गया है। “बिना अमेरिकियों के अमेरिकी राज” आज की हकीकत बन गई है। इस बेचैन विश्व में कॉर्पोरेट तंत्र (निगरानी पूंजीवाद का कॉर्पोरेट अधिनायकवाद) ने लोकतंत्र का मुखौटा पहन रखा है। इस व्यवस्था में केवल कुछ शक्तिशाली लोग ही मुकाबला कर पाते हैं और बाकी को मुकाबले से बाहर कर दिया जाता है। इन सब कारणों से गांधी और टैगोर का जीवन और विचार पहले से अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। उनकी दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि उन्होंने प्राकृतिक स्वराज का खाका पहले ही खींच लिया था। जल्द ही यह रूपरेखा भारत ही नहीं बल्कि पूरी मानवता की रक्षा के लिए पारिस्थितिकीय अनिवार्यता साबित हो सकती है।