• पेरिस समझौते ने आखिर, जलवायु परिवर्तन के लिये सदा से ही विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराए जाने की प्रवृत्ति को दरकिनार कर दिया। पेरिस में सहमति बनने के उपरान्त विकसित देशों के लिये उत्सर्जन में खासी कमी लाने की दरकार नहीं रहेगी।
  • यह समझौता विकसित देशों को भविष्य में पहले से ज्यादा ‘कार्बन स्पेस’ का उपयोग अनुमत करता है। दूसरी, जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व के गरीब देशों को होने वाले नुकसान और क्षति की ज़िम्मेदारी से विकसित देशों को मुक्त करता है।
  • अब जलवायु परिवर्तन की गम्भीरता कम करने तथा उसके दुष्प्रभावों की क्षतिपूर्ति का ज़िम्मा विकासशील देशों की ओर स्थानान्तरित हो गया है। ध्यान रखना होगा कि समझौते के उपरान्त विकसित देशों के उत्सर्जन कटौती को लेकर किसी प्रकार के वैधानिक लक्ष्य नहीं रह गए हैं।

 

सीओपी क्या है?

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के ढांचे यानी यूएनएफसीसीसी में शामिल सदस्यों का सम्मेलन कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टिज (सीओपी) कहलाता है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को स्थिर करने और पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के खतरे बचने के लिए सन 1994 में यूएनएफसीसीसी का गठन हुआ था। वर्ष 1995 से सीओपी के सदस्य हर साल मिलते रहे हैं। साल 2015 तक यूएनएफसीसीसी में सदस्य देशों की संख्या 197 तक पहुंच चुकी है।

 

सीओपी-21 समझौता क्या है?

दिसंबर 2015 में पेरिस में हुई सीओपी की 21वीं बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के जरिये वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर सीमित रखने और 1.5 डिग्री सेल्सियस के आदर्श लक्ष्य को लेकर एक व्यापक सहमति बनी थी। इस बैठक के बाद सामने आए 18 पन्नों के दस्तावेज को सीओपी21 समझौता या पेरिस समझौता कहा जाता है। अक्तूबर, 2016 तक 191 सदस्य देश इस समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके हैं। यानी अधिकांश देश ग्लोबल वार्मिंग पर काबू पाने के लिए जरूरी तौर-तरीके अपनाने पर राजी हो गए हैं।   

इस समझौते में सदस्य देशों की क्या भूमिका है?

कार्बन उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग को काबू में रखने के लिए पेरिस सम्मेलन के दौरान सदस्य देशों ने अपने-अपने योगदान को लेकर प्रतिबद्धता जताई थी। हरेक देश ने स्वेच्छा से कार्बन उत्सर्जन में कटौती के अपने लक्ष्य पेश किए थे। ये लक्ष्य न तो कानूनी रूप से बाध्यकारी हैं और न ही इन्हें लागू कराने के लिए कोई व्यवस्था बनी है।

यह समझौता भारत को कैसे प्रभावित करेगा?

भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों से प्रभावित होने वाले देशों में से है। साथ ही कार्बन उत्सर्जन में कटौती का असर भी भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं पर सबसे अधिक पड़ेगा। साल 2030 तक भारत ने अपनी उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के मुकाबले 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए कृषि, जल संसाधन, तटीय क्षेत्रों, स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर भारी निवेश की जरूरत है। पेरिस समझौते में भारत विकासशील और विकसित देशों के बीच अंतर स्थापित करने में कामयाब रहा है। यह बड़ी सफलता है।

इस समझौते का क्या महत्व है?

पेरिस संधि पर शुरुआत में ही 177 सदस्यों ने हस्ताक्षर कर दिए थे। ऐसा पहली बार हुआ जब किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते के पहले ही दिन इतनी बड़ी संख्या में सदस्यों ने सहमति व्यक्त की। इसी तरह का एक समझौता 1997 का क्योटो प्रोटोकॉल है, जिसकी वैधता 2020 तक बढ़ाने के लिए 2012 में इसमें संशोधन किया गया था। लेकिन व्यापक सहमति के अभाव में ये संशोधन अभी तक लागू नहीं हो पाए हैं।

पेरिस समझौते ने स्पष्ट रूप से माना है कि नियंत्रण औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से खासा नीचे रहना है और विश्व अपने तई पूरे प्रयास करेगा कि इसमें बढ़ोत्तरी 1.5% से ज्यादा न होने पाये। यह एक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य है। डेढ़ डिग्री सेल्सियस का स्तर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के जोखिमों में उल्लेखनीय कमी लाता है।

  • अलबत्ता, 12 दिसम्बर, 2015 की रात पेरिस में कांफ्रेंस कक्ष को छोड़ने वाले किसी भी वार्ताकार के मन में सन्देह पुख्ता था कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल कर पाना क्या सम्भव है।
  • पर्यावरण वैज्ञानिक बखूबी जानते हैं और जतलाते रहे हैं कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिये विश्व को 2050 से काफी पहले पूरी तरह से कार्बन-मुक्त हो जाना होगा। तात्पर्य यह कि हमें 2035 तक हर हाल में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बन्द करना होगा। और 2050 तक अन्य ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को शून्य पर लाना होगा।
  • विकसित देशों ने 2020 से पहले उत्सर्जन का स्तर कम करने के वादे, जो उनने 2010 में कानकुन सम्मेलन में किया था, को मानने से इनकार कर दिया है।
  • यह कोई बड़ा कुछ कर गुजरने का वादा भी नहीं था। अब पेरिस समझौते के तहत विश्व एकमत हुआ कि सब मिलकर 2023 तक क्या कुछ हासिल कर सकते हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि जब तक तमाम देश कुछ अतिरिक्त प्रतिबद्धताएँ पूरी करेंगे, हम 2025 में पहुँच चुके होंगे।

भारत के लिए  ‘महत्त्वपूर्ण उपलब्धि’

भारत ने हासिल क्या किया है।

1. विकसित देशों के लिये कार्बन स्पेस खाली किया जाना जरूरी है; तथा

  • 2. विकसित देश और विकासशील देशों के बीच अन्तर के विचार को बनाए रखना है।यह स्पष्ट है कि पेरिस में हुए फैसले में भारत ने जिन ‘शब्दों’ को भी शामिल करवाना चाहा, करवाया। यह समझौता यूएन क्लाइमेट कन्वेंशन 1992 के तहत हुआ है।

    समझौते के पाठ में विभिन्न बिन्दुओं में उल्लिखित विभिन्न राष्ट्रीय स्थितियों की रोशनी में भिन्न दायित्वों और सापेक्ष क्षमताओं (सीबीडीआरआरसी) के इतर समानता और सामान्यता के सिद्धान्तों से सम्बद्ध भाषा को शामिल करवा सका।

    भारतीय वार्ताकारों के मुताबिक, इनसे विकसित और विकासशील देशों के बीच ‘अन्तर’ स्पष्ट बना रहेगा। इसमें ‘जलवायु न्याय’, ‘टिकाऊ जीवनशैली’ और ‘उपभोग’ जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल किया गया है। लेकिन इनका उल्लेख समझौते के मुख्य हिस्सों में न होने के कारण इन अवधारणों के प्रति कोई प्रतिबद्धताएँ नहीं हैं।

तो इन शब्दों के निहितार्थ क्या हैं?

सबसे पहला तो यह कि विकसित विश्व के ऐतिहासिक दायित्वों समाप्त होने पर हैं, सीबीडीआरआरसी में ‘भिन्न दायित्व’ सन्दर्भ से बाहर हो गए हैं और मात्र ‘अपनी-अपनी क्षमताएँ’ बचा है। इसलिये अब से तमाम देशों की अपनी-अपनी क्षमताएँ और उनके राष्ट्रीय हालात ही होंगे जो जलवायु को लेकर उनके कार्यकलाप का आधार होंगे। इससे विभेदन का विचार ही हल्का पड़ जाता है।

अमेरिका जैसे देश के लिये अब मन्दी का नाम लेकर या अपनी संसद की सहमति का नाम देकर उत्सर्जन में कम कटौती करने में आसानी होगी। इसे वह ‘राष्ट्रीय स्थितियों’ का हवाला देकर तार्किक ठहरा सकेगा। दूसरी तरफ, ‘‘अपनी अपनी क्षमताएं’ का अर्थ होगा कि भारत जैसे देश को उत्सर्जन में ज्यादा कटौती करने को विवश किया जाएगा।

साथ ही, अन्य विकासशील देशों को अधिक धन देने को कहा जाएगा। आखिर, भारत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाला विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश है और इसकी जीडीपी भी विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा है।

हालांकि हमारा प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम है, या फिर यह तय है कि भारतीयों में ज्यादातर बेहद गरीब हैं, विश्व भारत से समूची या माँग आनुपातिक कार्यकलाप की अपेक्षा रखने जा रहा है।

दूसरा यह कि सरकार ने कहीं नहीं कहती कि तमाम देशों के कार्यकलाप काफी हद तक शेष कार्बन स्पेस पर आधारित होंगे। दूसरे शब्दों में भारत विकसित देशों से कार्बन स्पेस खाली करने को सहमत कराने के मामले में सफल नहीं रहा। यह मुश्किल काम भी था। पेरिस में तो और भी मुश्किल भरा हो गया क्योंकि भारत को इस मुद्दे पर अन्य देशों से समर्थन नहीं मिल पाया।

पेरिस समझौते में कार्बन स्पेस शब्द की गैर मौजूदगी ही मुझे ज्यादा चिन्ता में डाले हुए है। आगे चल कर भारत को इससे नुकसान होने वाला है क्योंकि कार्बन स्पेस तेजी से खत्म हो रहा है।

2030 तक तमाम देश उत्सर्जन को कम करने की इच्छा नहीं दिखाते तो 2.0 डिग्री सेल्सियस का 60-70 प्रतिशत बजट जाया हो जाएगा और 1.5 डिग्री सेल्सियस के लिये कुछ भी नहीं बच रहेगा। 2030 में भारत का मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) 0.7 से कम होगा।

भारत को कार्बन स्पेस की 2030 के बाद जरूरत होगी ताकि खाद्य, आश्रय, ढाँचागत सुविधाओं और ऊर्जा जैसी बुनियादी विकासात्मक ज़रूरतों को पूरा कर सके। लेकिन यह उपलब्ध न होगा। मेरा मानना है कि पेरिस समझौता सुनिश्चित करता है कि भारत अब से आगे लगातार दबाव में रहने वाला है।

जलवायु न्याय

जलवायु न्याय का अर्थ है कि जलवायु परिवर्तन विश्व में और असमानता को बढ़ावा न दे, कि ग़रीबों की वास्तविक आकांक्षाएँ पूरी हों; तथा जलवायु परिवर्तन के सर्वाधिक खराब दुष्प्रभावों से बचे रहें।

दुर्भाग्यवश, पेरिस समझौता ग़रीबों के कार्बन स्पेस पर डाका डाल रहा है ताकि अमीर देशों अपनी जीवनशैली को अच्छा बनाए रख सकें। लेकिन मैं सोचता हूँ कि गरीब एकजुट होकर लड़ेंगे। अच्छी बात यह है कि पेरिस समझौता बातचीत का आरम्भ है, अन्त नहीं।

प्रारूप की अच्छाइयाँ व खामियाँ

विकासशील देशों के लिये उपलब्धियाँ
1. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ ढाँचा सम्मेलन (यूएनएफ़सीसीसी) के अन्तर्गत समझौता में साम्यता किन्तु अलग-अलग जवाबदेही तथा देशों की भिन्न परिस्थितियों के आलोक में उनकी भिन्न क्षमताओं के सिद्धांत का पूरा सम्मान किया जाएगा।
2. समझौते का क्रियान्वयन न्याय संगत तथा सीबीडीआर को प्रतिबिम्बित करता है कि वर्धित समर्थन विकासशील पक्षों के लिये महत्त्वाकांक्षाओं का स्तर बढ़ाने की अनुमति देगा।
3. विकसित देश जहाँ निरपेक्ष अर्थव्यवस्था में व्यापक उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य पूरा करेंगे वहीं विकासशील देश अपने उत्सर्जन में कटौती प्रयासों को बढ़ाएँगे। लेकिन राष्ट्रीय परिस्थितियों की रोशनी में अर्थव्यवस्था-व्यापक उत्सर्जन में कमी को प्रोत्साहित करेंगे।
4. जलवायु न्याय को कुछ अवधारणाओं के लिये महत्त्वपूर्ण रूप से उल्लेखित किया गया है।
5. टिकाऊ जीवनशैली के लिये आवश्यकता तथा टिकाऊ उपभोग प्रणाली एवं विकसित देशों के साथ उत्पादन की स्वीकृति, जलवायु परिवर्तन को आगे बढ़ाते पक्षों का नेतृत्व। वित्त में भेदभाव है- आवश्यकता है कि विकसित देश शमन तथा अनुकूलन के लिये विकासशील देशों वाले पक्ष की सहायता वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराके करें।
6. निष्पक्षता तथा सबसे बेहतर उपलब्ध विज्ञान की रोशनी में वैश्विक जाँच पड़ताल
7. शमन, समीक्षा तथा ‘भेदभाव’ से छुटकारा पाने के लिये समाचार प्रेषण
8. अब पक्षों के बीच कोई अन्तर नहीं है क्योंकि उनसे संवाद तथा महत्वाकांक्षी कार्रवाई की अपेक्षा की जाती है ; सभी पक्ष बीतते समय के साथ एक क्रमिकता का प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करेंगे।
9. सभी पक्ष प्रत्येक पाँच साल पर अभिप्रेत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (आईएनडीसी) का रिपोर्ट करेंगे
10. रिपोर्टिंग में किसी तरह का भेदभाव नहीं होगा, ग्रीन हाउस गैस के आविष्करण तथा उसकी प्रगति आईएनडीसी के कार्यान्वयन के अन्तर्गत ही किये जाएँगे (सिर्फ शब्दों की तरलता उपलब्ध, पारिभाषित नहीं)।
11. पैमाइश, रिपोर्टिंग तथा तथ्यांकन (एमआरवी) में किसी तरह का भेदभाव नहीं होगा। यह व्यापक होगा तथा रिपोर्टिंग व प्रगति पर तकनीकी रूप से सजग समीक्षा होगी। यह सुविधाजनक, अदंडात्मक तथा राष्ट्रीय सम्प्रभुता के प्रति सम्मान रखेगा।
12. जाँच पड़ताल सार्वभौम है सम्पूर्ण कार्रवाई के लिये तथा 2023 में होगी तथा इसके बाद प्रत्येक पाँच साल में होगी।

वित्त
1. विकसित देश शमन तथा अनुकूलन के लिये निधि उपलब्ध कराएगा-लेकिन 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की निधि को समझौते से हटा लिया गया है। इस निर्णय में यह अब भी है।
2. अन्य पक्ष इसे स्वैच्छिक रूप से उपलब्ध कराने के लिये प्रोत्साहित किये जाएँगे।

हानि और क्षति
एक प्रणाली स्थापित है, लेकिन निर्णय कहता है कि यह क्षतिपूर्ति एवं देनदारी के आधार पर संलग्न या उपलब्ध नहीं होगा।

व्यापार प्रणाली निर्मित
1. बाज़ार प्रणाली है, लेकिन यह अच्छा नहीं है, क्योंकि हम उत्सर्जन को घटाने के लिये वैधानिक रूप से प्रतिबद्ध हैं तथा कार्रवाई को आगे बढ़ाने के लिये भी हमारी एक प्रतिबद्धता है। अब व्यापारिक प्रणाली के साथ विकासशील देश को यह अनुमति होगी कि वह सस्ता उत्सर्जन विकल्प को खरीदें, जिसे विकासशील देश बिना किसी घटाने के अन्य विकल्प के उसे छोड़ते हैं। इसलिये, हमने दोहरे कार्यभार को सम्भाला है। हम अपने आईएनडीसी के लिये अपनी गणना घटाते हैं तथा हम उनके आईएनडीसी के अन्तर्गत उनकी देनदारी को पूरा करने के लिये कमी लाते हैं।

आकांक्षा और कार्बन बजट
1. 2018 में जलवायु परिवर्तन पर एक अन्तरराष्ट्रीय पैनल इस पर रिपोर्ट देगा कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का वादा पूरा किया जाएगा, जिससे यह साफ़ तौर पर स्पष्ट हो जाएगा कि अधिकतर आकांक्षी कार्रवाई की आवश्यकता है।
2. 2018 में एक सुविधाजनक संवाद के ज़रिए सामूहिक रूप से समीक्षा की जाएगी।
3. 2020 में, हमें अपने आईएनडीसी की समीक्षा के लिये हम पर बहुत दबाव होगा।
4. जैसा कि दस्तावेज़ कहता है कि 2025 तक बड़े पैमाने पर अपेक्षाओं को बढ़ाने की आवश्यकता होगी-यह स्वीकार करता है कि कार्बन बजट का पूरा इस्तेमाल किया जाएगा।
5. 2025 तक, किसी तरह का भेदभाव नहीं रहेगा, क्योंकि विकसित तथा विकासशील देश को अपनी कार्रवाई में तेज़ी लानी होगी। विश्व के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे लाया जाएगा।

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