सामान्य अध्ययन GS-1 ,GS-2 ,GS-3 & GS-4
The Hindu Editorials in Hindi Medium
नवम्बर 2020
क्रम-सूची
GS-1 Mains
- विलवणीकरण संयंत्र
- सरना धार्मिक कोड
GS-2 Mains
- पंजाब तथा हरियाणा का मुद्दा
- महामारी और तालाबंदी
- न्यायाधीशों का स्वयं को मामलों से अलग करना
- विशेष विवाह अधिनियम
- फ़ूड फोर्टिफिकेशन
- बल्क ड्रग्स पार्क
- भारत में नवाचार
- दिव्यांगों द्वारा उपयोग किये जाने वाले सहायक उपकरणों पर 5% जी.एस.टी.
- भारत-बहरीन सम्बंध
- फ्रांस का प्रस्तावित सुरक्षा कानून
- अफगानिस्तान से अमेरिका की सैन्य वापसी
- इथोपिया में नृजातीय संकट और गृहयुद्ध
- RCEP तथा भारत के निर्णय के निहितार्थ
- आर्मीनिया और अज़रबैजान के मध्य नया शांति समझौता
- हिंद-प्रशांत और क्वॉड
- यू.ए.ई. में इस्लामिक कानूनों में सुधार
GS-3 Mains
- मधुमक्खी पालन
- तटीय सुरक्षा
- बैंकिंग उद्योग में औद्योगिक घरानों के प्रवेश की सिफारिश
- सतत् विकास लक्ष्य निवेश मानचित्र
- मियावाकी पद्धति
- ‘डीप ओशन मिशन‘
- चंद्र अन्वेंषण यान : ‘चांग’ई-5’
- ठोस अपशिष्ट प्रबंधन
- राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड : चुनौतियाँ तथा समाधान
- ऊर्जा दक्षता
- चीन द्वारा माइक्रोवेव हथियारों का प्रयोग
- स्टारलिंक
- डिजिटल मीडिया में एफ.डी.आई. नीति के अनुपालन सम्बंधी निर्देश
- भारत में दुर्लभ तितलियों की मौजूदगी
- कोयला उद्योग का घटता वित्तपोषण
- दिल्ली में वायु प्रदूषण का खतरनाक स्तर
- फ्लाई ऐश से जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का विकास
- पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह (EOS-01)
- तटीय नौवहन विधयेक, 2020 का मसौदा
- भारत के लिये अनुकरणीय वियतनाम और बांग्लादेश मॉडल
- कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम
- राष्ट्रीय राजधानी और सम्बद्ध क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन हेतु आयोग
- उर्वरक सब्सिडी की कार्यप्रणाली
- डिजिटल भुगतान प्रणाली : आर.बी.आई. के प्रयास तथा चुनौतियाँ
GS-1 Mains
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–1- भूकंप, सुनामी, ज्वालामुखीय हलचल, चक्रवात आदि जैसी महत्त्वपूर्ण भू–भौतिकीय घटनाएँ, भौगोलिक विशेषताएँ और उनके स्थान– अति महत्त्वपूर्ण भौगोलिक विशेषताओं (जल–स्रोत और हिमावरण सहित) और वनस्पति एवं प्राणिजगत में परिवर्तन और इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रभाव।
विषय–विलवणीकरण संयंत्र
चर्चा में क्यों ?
- विश्व भर में, विलवणीकरण को जल संकट को रोकने के लिये एक सम्भावित समाधान के रूप में देखा जा रहा है। हाल ही में, महाराष्ट्र ने मुम्बई में एक अलवणीकरण संयंत्र स्थापित करने की घोषणा की, जो इस प्रकार के संयंत्र का प्रयोग करने वाला देश का चौथा राज्य बन गया।
- ध्यातव्य है कि इससे पूर्व तमिलनाडु, गुजरात और आंध्र प्रदेश में भी विलवणीकरण संयंत्र स्थापित किये जा चुके हैं।
विलवणीकरण
- लवण व खनिजों को खारे जल से अलग करने की प्रक्रिया विलवणीकरण कहलाती है, जैसे- मृदा विलवणीकरण।
- सामान्य रूप से खारे जल को मीठे जल में बदलने के लिये विलवणीकरण किया जाता है ताकि यह पीने योग्य या सिंचाई के लिये उपयुक्त बना रहे।
- उन क्षेत्रों में, जहाँ ताज़े जल की उपलब्धता सीमित है या कम हो रही है, वहाँ ताज़े जल को उपलब्ध कराने के लिये आजकल विलवणीकरण पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
विलवणीकरण संयंत्र
- विलवणीकरण संयंत्र खारे जल को पेयजल में बदलता है।
- दुनिया का सबसे बड़ा विलवणीकरण संयंत्र संयुक्त अरब अमीरात में जेबेल अली संयंत्र (चरण 2) है।
- इस प्रक्रिया के लिये सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाली तकनीक निर्वात आसवन और रिवर्स ऑस्मोसिस है, रिवर्स ऑस्मोसिस (RO) के द्वारा जल से दूषित पदार्थों को दबाव का उपयोग करके अर्धपारगम्य झिल्ली (Semipermeable Membrane) के माध्यम से बाहर निकाला जाता है।
भारत में प्रयोग
- विलवणीकरण संयंत्रों का प्रयोग काफी हद तक मध्य पूर्व के समृद्ध देशों तक सीमित है। हाल ही में, संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों में इनको स्थापित किया गया है।
- भारत में, तमिलनाडु इस तकनीक का उपयोग करने में अग्रणी रहा है, चेन्नई में वर्ष 2010 में दो और फिर वर्ष 2013 एक विलवणीकरण संयंत्र स्थापित किया गया।
पारिस्थितिकी पर असर
- विलवणीकरण शुद्ध पेयजल उत्पन्न करने का एक महँगा तरीका माना जाता है क्योंकि इसके लिये उच्च मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
- इसके अलावा, एक मुख्य समस्या इससे निकलने वाले उपोत्पादों, विशेषकर उच्च सांद्रता वाले खारे जल का निपटान है। हालाँकि ज़्यादातर जगहों पर इसे वापस समुद्र में डाल दिया जाता है, लेकिन इससे संयंत्र के आसपास की स्थानीय पारिस्थितिकी को गम्भीर नुकसान पहुंचने की शिकायतें भी सामने आई हैं।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 1 : भारतीय समाज की मुख्य विशेषताएँ, भारत की विविधता, सामाजिक सशक्तीकरण और धर्मनिरपेक्षता)
विषय – सरना धार्मिक कोड
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, झारखंड सरकार नेसरना धर्म को मान्यता देने और वर्ष 2021 की जनगणना में एक अलग कोड के रूप में शामिल करने के लिये केंद्र को पत्र भेजने का प्रस्ताव पारित किया है।
- पिछले कई वर्षों से विभिन्न आदिवासी समूहों द्वारा झारखंड और अन्य जगहों पर इस माँग को लेकर कई विरोध प्रदर्शन और बैठकें हुई हैं।
सरना धर्म
- सरना धर्म के अनुयायी प्रकृति के उपासक होते हैं। ‘जल, जंगल और ज़मीन’ इनकी आस्था का केंद्र बिंदु व मूल तत्त्व हैं। इसके अनुयायी वन क्षेत्रों की रक्षा करने में विश्वास करते हुए पेड़ों व पहाड़ियों की प्रार्थना करते हैं।
- झारखंड में 32 जनजातीय समूह हैं, जिनमें से 8 विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों (PVTG) से हैं।
- इसमें से कई लोग हिंदू धर्म का पालन करते हैं जबकि कुछ ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए हैं। विभिन्न आदिवासी संगठनों के अनुसार ‘धार्मिक पहचान को बचाने’ के लिये एक अलग कोड की माँग का यह एक प्रमुख कारण है।
- ऐसा माना जाता है कि पूरे देश में लगभग 50 लाख आदिवासियों ने वर्ष 2011 की जनगणना में अपने धर्म को ‘सरना’ के रूप में रेखांकित किया है, यद्यपि उस जनगणना में इसे एक कोड के रूप में शामिल नहीं किया गया था।
सम्बंधित मुद्दे
- इस कोड का पालन करने वाले कई आदिवासी बाद में ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए हैं। झारखण्ड में 4% से अधिक ईसाई रहते हैं, जिनमें से अधिकांश आदिवासी हैं।
- सरना कोड का पालन करने वाले कुछ लोगों का मानना है कि परिवर्तित आदिवासी अल्पसंख्यक के रूप में आरक्षण का लाभ लेने के साथ-साथ अनुसूचित जनजातियों को प्राप्त अन्य लाभों का भी फायदा उठा रहे हैं।
- साथ ही उनका यह भी मानना है कि यह लाभ ऐसे लोगों को मिलना चाहिये जिन्होंने धर्मांतरण नहीं किया है, न कि धर्मांतरित लोगों को। सरना कोड के अनुयाइयों और नेताओं ने आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने की रणनीति का विरोध किया है।
- वर्ष 2017 में राज्य सरकार ने भी धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किया जिससे उनके बीच में विभाजन और गहरा हो गया।
झारखण्ड सरकार का पक्ष
- सरकार के अनुसार राज्य में आदिवासियों की जनसंख्या वर्ष 1931 में 38.3% से घटकर वर्ष 2011 में 26.02% हो गई है।
- इसका एक कारण जनगणना में दर्ज न किये जाने वाले आदिवासी थे जो विभिन्न राज्यों में रोज़गार के लिये जाते हैं और अन्य राज्यों में उनकी गणना आदिवासियों के रूप में नहीं की जाती है। अलग कोड से उनकी जनसंख्या का रिकॉर्ड सुनिश्चित किया जा सकेगा।
- साथ ही उनकी घटती संख्या उनको प्रदान किये गए संवैधानिक अधिकारों को प्रभावित करती है और संविधान की 5वीं अनुसूची के तहत आदिवासियों को प्राप्त अधिकारों का लाभ उनको नहीं मिल पाता है।
निष्कर्ष
- आदिवासियों की भाषा, संस्कृति, इतिहास व विरासत का संरक्षण एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। वर्ष 1871 से 1951 के बीच आदिवासियों का एक अलग कोड था। हालाँकि, इसे वर्ष 1961-62 के आसपास बदल दिया गया था।
- विशेषज्ञों का कहना है कि जब आज पूरे विश्व में प्रदूषण को कम करने व पर्यावरण की रक्षा पर ध्यान दिया जा रहा है, तो समझदारी यह है कि सरना कोड को एक धार्मिक संहिता (कोड) बना दिया जाए क्योंकि इस धर्म की आत्मा प्रकृति व पर्यावरण की रक्षा करना ही है।
GS-2 Mains
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 : विषय – संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, संघीय ढाँचे से सम्बंधित विषय एवं चुनौतियाँ, स्थानीय स्तर पर शक्तियों और वित्त का हस्तांतरण और उसकी चुनौतियाँ।)
विषय- पंजाब तथा हरियाणा का मुद्दा
- हाल ही में, हरियाणा के उपमुख्यमंत्री ने कहा कि चंडीगढ़ को स्वतंत्र केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाना चाहिये और दोनों प्रदेशों (पंजाब तथा हरियाणा) को अपनी-अपनी स्वतंत्र राजधानियाँ बनानी चाहिये और उच्च न्यायालय की अलग-अलग खंडपीठों का निर्माण करना चाहिये।
पृष्ठभूमि
- आज़ादी से पहले, तत्कालीन पंजाब की राजधानी लाहौर की जगह चंडीगढ़ को बनाए जाने की योजना थी, लेकिन विभाजन के बाद वह पंजाब पाकिस्तान का हिस्सा बन गया।
- मार्च 1948 में, केंद्र के परामर्श पर, पंजाब (भारतीय) की सरकार ने, नई राजधानी के लिये शिवालिक की तलहटी के क्षेत्र को मंज़ूरी दी।
- वर्ष 1952 से 1966 तक (जब तक हरियाणा नहीं बना था), चंडीगढ़ पंजाब की राजधानी बना रहा।
- वर्ष 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के बाद , चंडीगढ़ को पंजाब और हरियाणा दोनों की राजधानी होने का अनूठा गौरव प्राप्त हुआ।
- इसे केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया था और केंद्र के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया था।
- चंडीगढ़ में अवस्थित परिसम्पत्तियों को पंजाब, हरियाणा के बीच 60:40 के अनुपात में विभाजित किया जाना निर्धारित हुआ था।
पंजाब का दावा
- 70 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह घोषणा की, कि हर हाल में हरियाणा की अपनी अलग राजधानी होगी और चंडीगढ़ पूर्णतः पंजाब का भाग होगा। हरियाणा के अस्तित्व में आने के बाद इस बाबत सरकार द्वारा कुछ निर्देश भी जारी किये गए थे।
- वर्ष 1985 में हुए राजीव–लौंगोवाल समझौते के तहत, 26 जनवरी, 1986 को चंडीगढ़ को पंजाब को पूर्णतः सौंप दिया जाना था, लेकिन राजीव गांधी सरकार ने अंतिम समय पर इस फैसले को रोक दिया।
हरियाणा का जवाबी दावा
- 1970 के दस्तावेज़ों के अनुसार, केंद्र ने मामले को सुलझाने के लिये शहर को विभाजित करने के अलावा कुछ अन्य विकल्पों पर भी विचार किया था। चंडीगढ़ को विभाजित करना मुश्किल था क्योंकि इसे राज्य की राजधानी के रूप में एक नियोजित शहर की तरह बसाया गया था
- हरियाणा को चंडीगढ़ में केवल पाँच वर्ष के लिये कार्यालय और आवासीय क्षेत्र का उपयोग करने के लिये कहा गया था, जब तक कि वह अपनी नई राजधानी में स्थानांतरित न हो जाए।
- केंद्र ने हरियाणा को नई राजधानी स्थापित करने के लिये बड़ी राशि की पेशकश की थी। यद्यपि यह कभी मूर्त रूप में साकार ना हो सका।
- वर्ष 2018 में, हरियाणा के मुख्यमंत्री ने चंडीगढ़ के विकास के लिये एक विशेष निकाय गठित करने का सुझाव दिया था, लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा था कि, “यह शहर निर्विवाद रूप से पंजाब का है”।
(मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र– 2 : सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)
विषय – महामारी और तालाबंदी
संदर्भ
- वर्तमान में विश्व की लगभग सभी अर्थव्यवस्थाएँ महामारी और तालाबंदी की दोहरी मार का सामना कर रही हैं। भारत में बेरोज़गारी में निरंतर वृद्धि हो रही है तथा नौकरियों का वादा और बेरोज़गारी की राजनीति का मुद्दा यहाँ लम्बे समय से बना हुआ है। महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या कोई नागरिक कार्य की माँग एक अधिकार के रूप में कर सकता है और क्या राज्य की ज़िम्मेदारी है कि वह आवश्यक रूप से रोज़गार प्रदान करे?
कार्य का अधिकार
- कार्य के अधिकार शब्द का प्रयोग बिना किसी बाधा के आजीविका कमाने के अधिकार के संदर्भ में किया जाता है। कार्य के अधिकार की माँग अक्सर बेरोज़गारी या काम की अनुपलब्धता के चलते की जाती है।
कार्य के अधिकार की कानूनी स्थिति
- द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात से ही कार्य का अधिकार महत्त्वपूर्ण चर्चा का विषय रहा है। मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से सम्बंधित प्रसंविदा में भी कार्य के अधिकार को शामिल किया गया है।
- भारत में कार्य के अधिकार को संवैधानिक मान्यता नहीं प्राप्त है परंतु मनरेगा इस दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम है। इसके तहत कार्य के अधिकार को वैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। इस योजना के अंतर्गत एक व्यक्ति काम न मिलने के आधार पर सरकार से बेरोज़गारी भत्ते की माँग कर सकता है।
- हालाँकि अगर इस कानून में संशोधन किया जाता है या इसे वापस ले लिया जाता है तो यह अधिकार भी समाप्त हो जाएगा।
भारत में कार्य के अधिकार के कार्यान्वयन की स्थिति
- भारत में जी.डी.पी. के अनुपात में नौकरियों में कमी देखी गई है तथा विशेष रूप से रोज़गार विहीन संवृद्धि (जॉबलेस ग्रोथ) में बढ़ोतरी हुई है। साथ ही श्रमिकों तथा कर्मचारियों को सख्त औद्योगिक कानूनों का सामना करना पड़ता है।
- पिछले कुछ दशकों में भारत में रोज़गार तथा आजीविका के साधनों में कमी तथा रोज़गार के अन्य क्षेत्रों में विस्थापन देखा गया है। नई नौकरियाँ पैदा करने की विफलता ने रचनात्मक तरीके से कार्य करने के अधिकार की संकल्पना को कानूनी रूप से लागू करने हेतु महत्त्वपूर्ण बना दिया है।
- भारत में सुरक्षात्मक श्रम कानून मौजूद हैं लेकिन वे अधिकांश रूप से केवल सरकारी कर्मचारियों के अधिकारों को ही संरक्षित करने तक सीमित हैं। श्रमिकों के कानूनी संरक्षण की ख़राब स्थिति का मुख्य कारण श्रम कानूनों का कमज़ोर कार्यान्वयन तथा श्रमिकों में जागरूकता का अभाव है।
सुझाव
- कार्य के अधिकार हेतु विकेंद्रीकृत शहरी रोज़गार तथा प्रशिक्षण (Decentralised Urban Employment and Training– DUET) एप्रोच को मनरेगा के साथ रोज़गार के नए अवसरों का सृजन करने के लिये प्रयोग किया जा सकता है।
- विकेंद्रीकृत शहरी रोज़गार तथा प्रशिक्षण के अंतर्गत शहरी स्थानीय निकायों द्वारा पूर्व अनुमोदित कार्यों के लिये (सरकारी संस्थानों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों की पेंटिंग, साफ-सफाई, इमारतों की मरम्मत तथा फर्नीचर आदि के निर्माण हेतु) रोज़गार के वाउचर जारी किये जा सकते हैं।
- सम्मानजनक जीवन के लिये एक बेहतर रोज़गार का होना आवश्यक है। कार्य की बेहतर दशाएँ, कार्य के निश्चित घंटे तथा समय पर वेतन भुगतान के सम्बंध में स्पष्ट प्रावधान तथा उनका कार्यान्वयन होना चाहिये। साथ ही विवाद की स्थिति में एक विश्वसनीय निवारण तंत्र का होना आवश्यक है।
- कार्य के अधिकार का न होना रोज़गार की अनुपलब्धता के साथ-साथ सार्वजानिक सम्पत्तियों तथा संसाधनों की गहन कमी को भी दर्शाता है। मनरेगा के तहत भी परिसम्पत्ति निर्माण की दिशा में संतोषजनक कदम नहीं उठाए गए हैं। मनरेगा को शहरी रोज़गार गारंटी के साथ समन्वय स्थापित करने के अलावा पूँजीगत निवेश को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- इस सम्बंध में थाईलैंड का उदाहरण स्मरणीय है जहाँ श्रम-गहन सार्वभौमिक बुनयादी स्वास्थ्य प्रणाली है। इससे एक ही समय में दो समस्याओं (सामाजिक बुनयादी ढाँचे का निर्माण तथा रोज़गार सृजन) को हल किया जा सकता है।
- कार्य का अधिकार वास्तव में एक गम्भीर विचारणीय मुद्दा है लेकिन इसे व्यावहारिक रूप में लागू करने हेतु न केवल राजनीतिक इच्क्षाशक्ति की, बल्कि राजकोषीय संसाधनों की भी आवश्यकता है।
निष्कर्ष
- विदित हो कि भारत की जी.डी.पी. उन देशों की तुलना में कम है जो सार्वजानिक सुविधाओं पर भारी खर्च कर रोज़गार सृजन करते हैं। भारत श्रम सुधार तथा रोज़गार सृजन की दिशा में निरंतर प्रयासरत है। हाल ही में भारत सरकार ने 44 श्रम कानूनों को 4 सहिंताओं में परिवर्तित कर बहुप्रतीक्षित श्रम सुधार की दिशा में ऐतिहासिक तथा सराहनीय कार्य किया है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : विषय– भारतीय संविधान– ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना)
विषय–न्यायाधीशों का स्वयं को मामलों से अलग करना
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश यू.यू. ललित ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी के खिलाफ चल रही सुनवाई से खुद को अलग कर लिया है। ध्यातव्य है कि न्यायपालिका पर आरोप लगाने के एक मामले में जगनमोहन के खिलाफ कार्रवाई की माँग वाली याचिका पर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई चल रही है।
- जगनमोहन पर आरोप है कि उन्होंने न्यायपालिका के खिलाफ आरोप लगाते हुए न सिर्फ प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखा, बल्कि प्रेस कांफ्रेंस कर झूठे बयान भी दिये। न्यायमूर्ति ललित ने कहा कि वह इस पीठ में नहीं रहेंगे क्योंकि एक वकील के रूप में उन्होंने इसमें से एक पक्ष का प्रतिनिधित्व किया था।
न्यायाधीशों का खुद को मामलों से अलग करना
- हितों के टकराव या किसी मामले में पक्षकारों के साथ पूर्व सम्बन्ध होने की दशा में अक्सर न्यायाधीश या नीति निर्धारक खुद को मामले से अलग (Recusal of Judges) कर लेते हैं।
- उदाहरण के तौर पर यदि न्यायालय में किसी ऐसी कम्पनी से जुड़ा मामला आता है, जिसमें खुद न्यायाधीश शेयर धारक हैं, तो यहाँ न्यायाधीश की मंशा पर संदेह हो सकता है अतः अक्सर ऐसी परिस्थितियों में वे खुद को मामले से अलग कर लेते हैं।
- यद्यपि इस वजह से मामलों की सुनवाई में अनिवार्य रूप से देरी आती है और मामला मुख्य न्यायाधीश के पास वापस पहुँच जाता है और पुनः एक नई खंडपीठ का गठन किया जाता है।
क्या हैं नियम?
- न्यायालयों में सूचीबद्ध मामलों की सुनवाई से न्यायाधीशों के अलग होने के विषय पर कोई लिखित नियम नहीं हैं। यह न्यायाधीश के विवेक पर छोड़ दिया जाता है।
- यदि वे मामले से खुद को अलग करते हैं तो इसके लिये कोई न्यायिक आदेश नहीं निकालना पड़ता है। कुछ न्यायाधीश, मामले में शामिल वकीलों को मौखिक रूप से बता देते हैं जबकि कुछ न्यायाधीश नहीं बताते हैं।
निष्कर्ष
- खुद को मामलों से अलग कर लेना अक्सर कर्तव्य से विमुखता भी माना जाता है। वर्ष 2015 में एन.जे.ए.सी. के फैसले में अपनी राय देते हुए न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने पारदर्शिता स्थापित करने के लिये न्यायधीशों द्वारा खुद को मामलों से अलग होने के कारणों को स्पष्ट करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला था।
- पारदर्शी और जवाबदेह होना न्यायाधीशों का संवैधानिक कर्तव्य है, जो कि उनकी शपथ में भी प्रतिबिम्बित होता है, अतः किसी भी न्यायाधीश को उन कारणों का स्पष्टीकरण आवश्यक है, जिनकी वजह से वे किसी मामले से अलग हुए हों।
(मुख्य परीक्षा, प्रश्नपत्र – 2 : सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय)
विषय–विशेष विवाह अधिनियम : प्रमुख विशेषताएँ तथा चुनौतियाँ
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा है कि दो भिन्न धर्मों के व्यक्तियों द्वारा केवल विवाह के उद्देश्य से धर्म परिवर्तन करना अनुचित है।
विशेष विवाह अधिनियम, 1954
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954 सभी भारतीय नागरिकों तथा कुछ विशेष मामलों में विदेश में रह रहे भारतीय नागरिकों पर भी लागू होता है। यह अधिनियम मुख्य रूप से अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह से सम्बंधित है। इसके तहत, विवाह के लिये दोनों पक्षों को अपना-अपना धर्म छोड़ने की आवश्यकता नहीं होती।
मुख्य विशेषताएँ
- अधिनियम का प्रमुख उद्देश्य अंतर-धार्मिक विवाहों को एक धर्मनिरपेक्ष संस्था के रूप में स्थापित करना तथा सभी धार्मिक औपचारिकताओं को केवल विवाह पंजीकरण से प्रतिस्थापित करना है।
- अधिनियम की धारा 5 के तहत, विवाह करने वाले जोड़े को सम्बंधित ज़िले के विवाह अधिकारी के समक्ष मैरिज नोटिस देने की आवश्यकता होती है। साथ ही, यह भी आवश्यक है कि विवाह करने वाले जोड़े में किसी एक ने उस ज़िले में कम-से-कम 30 दिनों तक निवास किया हो।
- धारा 6 के तहत, विवाह अधिकारी विवाह करने वाले जोड़े के नोटिस को प्रकाशित करता है तथा इसकी मूल प्रति को सुरक्षित रखता है।
- अधिनियम के तहत विवाहित जोड़ा विवाह की तारीख के 1 वर्ष पश्चात् ही तलाक के लिये याचिका दायर कर सकता है।
- इस अधिनियम के तहत पंजीकृत विवाहित व्यक्ति के उत्तराधिकारी तथा उसकी सम्पत्ति को भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत नियंत्रित किया जाता है।
अधिनियम के अंतर्गत अन्य प्रावधान
- विवाह के लिये लड़के की न्यूनतम आयु 21 वर्ष तथा लड़की की न्यूनतम आयु 18 वर्ष होनी चाहिये।
- अधिनियम के तहत विवाह करने वाले जोड़े में से कोई भी चित-विकृति के कारण सहमति देने में असमर्थ नहीं होना चाहिये।
- अधिनियम के अनुसार कोर्ट मैरिज में मैरिज रजिस्ट्रार के समक्ष तीन गवाहों की उपस्थति अनिवार्य है।
- अगर विवाह अधिकारी विवाह के लिये अनुमति देने से मना करता है तो ज़िला अदालत में अपील की जा सकती है।
विवाद के बिंदु
- अधिनियम की धारा 6 के तहत विवाह पक्ष के निजी विवरणों को भी प्रकाशित किया जाता है। इसमें आपत्तियाँ दर्ज करने हेतु सार्वजनिक रूप से 30 दिनों का समय दिया जाता है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) तथा अनुच्छेद 21 (निजता का अधिकार) का उल्लंघन है। ध्यातव्य है कि इस सम्बंध में सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई है।
- असामाजिक तत्त्वों द्वारा सार्वजनिक नोटिस से विवाह करने वाले जोड़े की व्यक्तिगत तथा गोपनीय जानकारी एकत्र कर लव-जिहाद, साम्प्रदायिकता तथा हिंसा का वातावरण निर्मित कर अव्यवस्था उत्पन्न की जाती है। ध्यातव्य है कि गत जुलाई में केरल सरकार के विवाह पंजीकरण विभाग ने मैरिज नोटिस के अनुचित प्रयोग के कारण इसे अपनी वेबसाइट पर अपलोड करना बंद कर दिया है।
- कुछ राजनीतिक दलों द्वारा कोर्ट मैरिज सम्बंधी नोटिसों की संवेदनशील जानकारी का उपयोग धार्मिक और जातिगत आधार पर राजनीतिक लाभ के लिये भी किया जाता है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 व 3 : स्वास्थ्य, जन वितरण प्रणाली– उद्देश्य, कार्य, सीमाएँ, सुधार; बफर स्टॉक तथा खाद्य सुरक्षा सम्बंधी विषय)
विषय–फ़ूड फोर्टिफिकेशन तथा सम्बंधित पहलू
चर्चा में क्यों?
- केंद्र सरकार ने अगले तीन वर्षों में कुछ पोषक तत्वों से चावल के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन या पौष्टिकीकरण की योजना बनाई है।
फ़ूड फोर्टिफिकेशन (Food Fortifiction)
- ‘फ़ूड फोर्टिफिकेशन’ अथवा ‘खाद्य पौष्टिकीकरण’ से तात्पर्य किसी खाद्य पदार्थ में विटामिन या खनिज जैसे आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाने की प्रक्रिया से है, ताकि इन खाद्य पदार्थों के पोषण मान में सुधार हो सके और न्यूनतम लागत पर सार्वजनिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया सके।
योजना के प्रमुख बिंदु
- भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) अगले तीन वर्षों में चावल के फोर्टिफिकेशन को अनिवार्य बनाने के प्रस्ताव पर कार्य कर रहा है। इससे प्रत्येक वित्त वर्ष में अनुमानित 2,500 करोड़ रुपए की लागत आएगी। एफ.एस.एस.ए.आई. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत देश का शीर्ष खाद्य नियामक है।
- सरकार की योजना लौह, फोलिक एसिड और विटामिन बी-12 जैसे पोषक तत्वों से चावल के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन की है। इससे अनुमानत: फोर्टिफाइड चावल की कीमत में 60-70 पैसे प्रति किलोग्राम की वृद्धि होने का अनुमान है।
- उल्लेखनीय है कि एफ.एस.एस.ए.आई. वर्ष 2018 से फोर्टिफिकेशन पर जोर दे रहा है। वर्ष 2018 में एफ.एस.एस.ए.आई. ने फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों के लिये एक नया ‘+F’ लेबल लॉन्च किया है। साथ ही एफ.एस.एस.ए.आई. ने गेहूं के आटे, चावल, दूध, खाद्य तेल और डबल फोर्टिफाइड नमक सहित पाँच श्रेणियों में फोर्टिफिकेशन के लिये मानक तय किये थे। हालांकि, इन मानकों का पालन करना अनिवार्य नहीं है।
कारण
- एनीमिया (रक्ताल्पता) के प्रसार को रोकने और इस समस्या से निपटने के लिये सरकार फ़ूड फोर्टिफिकेशन की योजना बना रही है।
- प्राधिकरण के अनुमानों के अनुसार चावल 70% से अधिक भारतीय जनसँख्या का मुख्य खाद्य है, अत: इसके फोर्टिफिकेशन से अधिक लोगों तक स्वास्थ्य लाभ पहुँचेगा।
- फोर्टिफिकेशन की प्रक्रिया एक व्यवहार्य प्रस्ताव है क्योंकि इस योजना को प्रारम्भ करने के कुछ वर्षों में भारत में एनीमिया की घटनाओं में लगभग 35% की कमी आने की सम्भावना है।
एनीमिया और भारत
- एनीमिया ऐसा रोग है, जिसमें किसी व्यक्ति में हीमोग्लोबिन का स्तर कम हो जाता है। इससे रक्त की ऑक्सीजन परिवहन की क्षमता कम हो जाती है।
- एनीमिया का सबसे आम कारण पोषक तत्वों की कमी है, विशेष रूप से लौह की कमी। इससे शारीरिक और मानसिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, 6-59 महीने की आयुवर्ग के लगभग 58% बच्चे और 15-49 आयु की महिलाओं पर किये गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 53% महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित थीं।
- एनीमिया के कारण जनसंख्या की कम उत्पादकता से राष्ट्र को आर्थिक नुकसान पहुँचता है।
फोर्टिफिकेशन से हानियाँ
- ‘सतत् और समग्र कृषि हेतु गठबंधन’ (ASHA) ने कई नकारात्मक परिणामों का हवाला देते हुए एफ.एस.एस.ए.आई. से खाद्य तेल और चावल के फोर्टिफिकेशन की योजना पर पुनर्विचार करने को कहा है।
- इस निर्णय से असहमत होने का एक प्राथमिक कारण फोर्टिफाइड चावल के लाभों की प्रमाणिकता का अभी तक सिद्ध न होना था।
- साथ ही आशा के शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि चावल के फोर्टिफिकेशन से एनीमिया होने के जोखिम में बहुत कम या लगभग न के बराबर अंतर आया है।
- साथ ही फोर्टिफाइड चावल के अधिक सेवन को लेकर भी चिंताएँ हैं। फ़ूड फोर्टिफिकेशन और ‘आयरन टैबलेट सप्लिमेंटेशन’ से महिलाओं के शरीर में आयरन की अधिकता हो सकती है।
- आर्थिक रूप से देखा जाए तो यह कदम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये एक सुनिश्चित बाज़ार (Assured Market) का निर्माण करेगा, जिससे भारत में चावल और तेल प्रसंस्करण की छोटी इकाइयों के लिये खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
- तीसरा कारण यह है कि इस तरह के कदम से जैव विविधता के नष्ट होने का खतरा होता है, जो मोनोकल्चर में वृद्धि और मृदा स्वास्थ्य को कम करेगा।
अन्य विकल्प
- फोर्टिफिकेशन का एक विकल्प अमृत कृषि के माध्यम से खाद्य फसलों को उगाना हैं। यह एक जैविक कृषि तकनीक है, जो खाद्य पोषण में वृद्धि करेगा।
- एक अन्य उपाय माताओं द्वारा शिशुओं को उचित स्तनपान कराना है। यह शुरुआती 1,000 दिनों में पोषण की कमी पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है।
- एक तीसरा तरीका किचन गार्डन का है। महाराष्ट्र में एक अध्ययन से पता चला है कि जैविक रूप से किचन गार्डन में उगाई गई सब्जियाँ हीमोग्लोबिन के स्तर को बढ़ाने में सहायक रही हैं।
- चौथा विकल्प सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कम प्रसंस्कृत या बिना पॉलिश किये हुए चावल को शामिल करना है। इससे राइस ब्रान (भूसी युक्त चावल) लोगों तक पहुंच सकेगा, जो विभिन्न सूक्ष्म पोषक तत्वों का एक समृद्ध स्रोत है।
- अंतत: एफ.एस.एस.ए.आई. भारत में पैदा होने वाले विविध प्रकार के अनाज, सब्जियों, फलों और अन्य फसलों के बारे में भी जागरूकता फैला सकता है।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–2 – सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय।
विषय–बल्क ड्रग्स पार्क
- इस वर्ष की शुरुआत में केंद्र सरकार ने तीन बल्क ड्रग पार्क स्थापित करने की योजना बनाई थी, जिसके तहत हिमाचल प्रदेश ने बल्क ड्रग पार्क के आवंटित किये जाने की माँग की है।
बल्क ड्रग्स या ए.पी.आई. क्या हैं?
- बल्क ड्रग, जिन्हें सक्रिय दवा सामग्री (active pharmaceutical ingredient – API) भी कहा जाता है, किसी दवा या ड्रग के प्रमुख घटक होते हैं, जो दवा या ड्रग को वांछित चिकित्सीय प्रभाव देते हैं।
- प्रत्येक दवा दो मुख्य अवयवों से बनी होती है। इसमें से एक अवयव है रासायनिक रूप से सक्रिय ए.पी.आई. तथा दूसरा अवयव रासायनिक रूप से निष्क्रिय (Excipients) घटक होता है। यह एक ऐसा पदार्थ है जो ए.पी.आई. के प्रभाव को शरीर के किसी हिस्से या किसी प्रणाली में पहुँचाता है। इन दोनों अवयवों को मिला कर ही किसी औषधि का फ़ॉर्मूला तैयार किया जाता है।
- ए.पी.आई. एक रासायनिक यौगिक है, जो किसी दवा को अंतिम रूप से उत्पादित करने हेतु सबसे महत्त्वपूर्ण कच्चा माल माना जाता है।
- चिकित्सा क्षेत्र में, ए.पी.आई. ही किसी बीमारी को ठीक करने के लिये आवश्यक प्रभाव उत्पन्न करता है। उदाहरण के तौर पर पैरासिटामॉल, क्रोसिन के लिये एक ए.पी.आई. है और यह पैरासिटामॉल ए.पी.आई. ही शरीर में दर्द और बुखार से राहत देता है, जबकि एम.जी. (mg) किसी दवा में उपस्थित सक्रिय औषधीय अवयव (ए.पी.आई.) की मात्रा प्रदर्शित करती है जैसे- क्रोसिन 450 एम.जी. का अर्थ है कि इस टेबलेट में 450 एम.जी. सक्रिय औषधीय अवयव है।
- फिक्स्ड-डोज़ कॉम्बिनेशन ड्रग्स (औषधि) विभिन्न ए.पी.आई. का उपयोग करते हैं, जबकि क्रोसिन जैसी सिंगल-डोज़ ड्रग्स सिर्फ एक ए.पी.आई. का उपयोग करती हैं।
- बुनियादी कच्चा माल या प्राथमिक रसायन जो ए.पी.आई. बनाने के लिये विभिन्न अभिक्रियाओं से गुज़रते हैं उन्हें प्रमुख प्रारम्भिक सामग्री (key starting material) या के.एस.एम. कहा जाता है।
- इन अभिक्रियाओं के दौरान मध्यवर्ती चरणों में बनने वाले रासायनिक यौगिकों को दवा मध्यवर्ती (drug intermediates) या डी.आई. कहा जाता है।
भारत बल्क ड्रग पार्क को क्यों बढ़ावा दे रहा है?
- भारत में दुनिया के सबसे बड़े फार्मास्युटिकल उद्योगों में से एक (परिमाण के हिसाब से तीसरा सबसे बड़ा) है, लेकिन यह उद्योग ए.पी.आई, डी.आई.एस. और के.एस.एम. के आयात के लिये बड़े पैमाने पर अन्य देशों, विशेष रूप से चीन पर निर्भर है।
- ध्यातव्य है कि इस वर्ष भारत में दवा निर्माताओं को आयात में लगातार आ रहे व्यवधानों के कारण बार-बार दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
- पहले लॉकडाउन के कारण चीन में फैक्ट्रियाँ बंद हो गईं फिर पूरे विश्व में महामारी फैलने के बाद अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति शृंखला भी बुरी तरह से प्रभावित हो गई।
- भारत और चीन के बीच सीमा संघर्ष ने व्यापार समीकरणों को और खराब कर दिया।
केंद्र की योजना क्या है?
- केंद्र की योजना आम बुनियादी सुविधाओं के निर्माण के लिये एकमुश्त अनुदान सहायता प्रदान करके देश के तीन चयनित पार्कों के निर्माण में सहायता प्रदान करने की है।
- सरकार आम सुविधाओं की लागत का 70% अनुदान सहायता के रूप में देगी जबकि हिमाचल प्रदेश और अन्य पहाड़ी राज्यों के मामले में यह सहायता 90% होगी।
- केंद्र प्रति पार्क अधिकतम 1,000 करोड़ रुपये प्रदान करेगा।
- एक राज्य केवल एक साइट का प्रस्ताव कर सकता है, जो क्षेत्र में एक हज़ार एकड़ से कम न हो या पहाड़ी राज्यों के मामले में 700 एकड़ से कम ना हो।
बल्क पार्क क्या प्रदान करता है?
- बल्क ड्रग पार्क में ए.पी.आई, डी.आई, या के.एस.एम. के अनन्य निर्माण के लिये सामान्य अवस्थापना सुविधाओं के साथ भूमि का एक निर्दिष्ट सन्निहित क्षेत्र होगा और एक सामान्य अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली भी होगी।
- इन पार्कों से देश में थोक दवाओं की विनिर्माण लागत में कमी आने और घरेलू बल्क ड्रग उद्योग में प्रतिस्पर्धा बढ़ने की उम्मीद है।
हिमाचल ही क्यों?
- हिमाचल में पहले से ही एशिया का सबसे बड़ा फार्मा मैन्युफैक्चरिंग हब बद्दी-बरोटीवाला-नालागढ़ औद्योगिक क्षेत्र (Baddi-Barotiwala-Nalagarh industrial belt) है और यह राज्य भारत की कुल दवा निर्माण का लगभग आधा हिस्सा उत्पादित करता है।
- हिमाचल प्रदेश, देश में सबसे कम दरों पर बिजली और पानी प्रदान करता है और यहाँ एक औद्योगिक गैस पाइपलाइन भी है।
- हिमाचल प्रदेश ने पिछले महीने केंद्र द्वारा घोषित की गई व्यापार रैंकिंग में नौ स्थान की छलांग लगाते हुए देश में सातवाँ स्थान हासिल किया है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : विज्ञानं एवं प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ, देशज रूप से प्रौद्योगिकी का विकास और नई प्रौद्योगिकी का विकास)
विषय–भारत में नवाचार की बढ़ती सम्भावनाएँ
चर्चा में क्यों?
- पिछले कुछ महीनों में सरकार द्वारा नवाचार को बढ़ावा देने हेतु कई योजनाएँ तथा पहलें शुरू की गई हैं, जिनके महत्त्व तथा चुनौतियों के सम्बंध में चर्चा आवश्यक है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु
- भारत इंटरनेट उपयोग के मामले में सबसे तीव्र वृद्धि करने वाला देश है। वर्तमान में यहाँ 700 मिलियन इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं तथा वर्ष 2025 तक इनके 974 मिलियन होने की सम्भावना है।
- जैम ट्रिनिटी (जन-धन आधार और मोबाइल) के अंतर्गत 404 मिलियन जन-धन खातों के साथ ही 1.2 बिलियन आधार कार्ड तथा 1.2 बिलियन मोबाइल सब्सक्राइबर हैं।
- भारत की जी.डी.पी. में कृत्रिम बुद्धिमत्ता की सहायता से वर्ष 2035 तक 957 बिलियन डॉलर की वृद्धि होने की सम्भावना है।
- नवाचार नए उत्पादों और सेवाओं के माध्यम से समाज के रहन-सहन को सुगम बनाते हैं तथा उन्हें नई दिशा प्रदान करते हैं।
भारत के प्रयास
- भारत द्वारा 2 अक्तूबर को वैश्विक भारतीय वैज्ञानिक समिट या वैभव समिट का आयोजन किया गया था। इसमें 55 देशों के 3,000 से अधिक भारतीय मूल के विदेशी शिक्षाविदों तथा वैज्ञानिकों के साथ ही 10,000 भारतीयों ने भी भाग लिया। इसका उद्देश्य विज्ञान, अनुसंधान और शोध को बढ़ावा देना है।
- 5 से 9 अक्तूबर तक सामाजिक सशक्तिकरण के लिये ज़िम्मेदार कृत्रिम बुद्धिमत्ता या ‘रिस्पांसिबल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस फॉर सोशल एम्पावरमेंट‘, 2020 (RAISE, 2020) शिखर सम्मलेन का आयोजन किया गया।
- RAISE, 2020 सामाजिक सशक्तिकरण के लिये जवाबदेह कृत्रिम बुद्धिमता विषय पर आधारित एक वैश्विक सम्मलेन है। इस सम्मलेन में सामाजिक परिवर्तन, स्वास्थ्य, समावेशी कृषि, शिक्षा तथा स्मार्ट मोबिलिटी के क्षेत्रों में सशक्तिकरण पर विचारों का आदान-प्रदान किया गया।
- भारत में नवाचार को प्रोत्साहित तथा पुरस्कृत करने हेतु कई पहलें शुरू की गई हैं। जैसे- हाल ही में, डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के अंतर्गत mapmyindia तथा setu (स्टार्टअप) को पुरस्कृत किया गया है।
- मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अनुसंधान और प्रशिक्षण पर ध्यान केंद्रित करने हेतु स्टार्स (स्कीम फॉर ट्रांसफॉर्मल एंड एडवांस्ड रिसर्च इन साइंसेज – STARS) योजना शुरू की गई है।
- केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा किरण योजना (Knowledge Involvement in Research Advancement through Nurturing- KIRAN) की शुरुआत की गई है। इसका उद्देश्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में लैंगिक समानता से सम्बंधित चुनौतियों का समाधान करना है।
- अभिप्रेरित अनुसंधान हेतु विज्ञान की खोज में नवोन्मेष (Innovation in science pursuit for Inspired Research– INSPIRE)। इस योजना के तहत मेधावी और प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के अध्ययन तथा अनुसंधान व विकास हेतु छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है।
- युवा आबादी को राष्ट्र निर्माण के कार्यों से जोड़ने हेतु स्मार्ट इंडिया हैकाथॉन की शुरुआत वर्ष 2017 में की गई थी। इसके अंतर्गत नवाचारी तकनीकी प्रतिभा को पुरस्कृत किया जाता है।
- हाल ही में, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकरण (IFSCA) द्वारा विनियामक सैंडबॉक्स की रूपरेखा पेश की गई है। इसके अंतर्गत पूंजी बाज़ार, बैंकिंग, बीमा, पेंशन और वित्तीय सेवाओं के क्षेत्र में कार्यरत इकाइयों को नवीन फिनटेक समाधानों के प्रयोग पर कुछ सुविधाएँ तथा छूट प्रदान की जाएँगी।
महत्त्व
- तकनीकी नवाचार नए उत्पाद और सेवाओं के निर्माण हेतु अवसर उपलब्ध करवाता है।
- नवाचार के बिना कोई भी कम्पनी या संगठन बाज़ार में ज्यादा दिनों तक प्रतिस्पर्धी नहीं बना रह सकता है।
- समाज की उन्नति के लिये नवाचार महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि ये जटिल सामाजिक समस्याओं का समाधान करते हैं तथा समाज की कार्य क्षमता में वृद्धि करते हैं।
वर्तमान चुनौतियाँ
- अत्यधिक सरकारी विनियमन
- पर्याप्त बजट का अभाव
- वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिकी दृष्टिकोण की कमी
- जनरेशन गैप
- भारतीय संस्थाओं की विश्वस्तरीय प्रौद्योगिकी साझीदारों से समन्वय में कमी
- तकनीकी तथा प्रबंधन विश्विद्यालयों का उद्योग क्षेत्र के साथ प्रत्यक्ष समन्वय न होना।
- शुरुआत में लोग नई तकनीक को अपनाने तथा उसके उसके दीर्घकालिक प्रभाव को समझ नहीं पाते हैं, जिससे कई नवाचार शुरुआती अवस्था में ही समाप्त हो जाते हैं।
सुझाव
- नवाचारी परियोजनाओं के सुगम संचालन हेतु जोखिमपूर्ण पूँजी (रिस्क कैपिटल) जुटाने हेतु सरकार द्वारा उद्योग तथा नवाचार करने वाले व्यक्ति या संस्थाओं के मध्य एक सम्पर्क सेतु का निर्माण किया जाना चाहिये।
- शिक्षित समुदाय तथा उद्योगों के मध्य सम्बंधों तथा समन्वय को मज़बूत किया जाना चाहिये।
- निजी तथा सरकारी संस्थाओं में कर्मचारियों के नए विचारों को प्राप्त करने हेतु एक नियमित व्यवस्था होनी चाहिये।
- भारत में नवाचारी संस्कृति तथा नवोन्मेषी विकास को प्रोत्साहित करने हेतु एक सकारात्मक वातावरण के निर्माण की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
- वैश्वीकरण की बढ़ती चुनौतियों को देखते हुए भारत ने कई घरेलू तथा विश्व स्तरीय प्रयास किये हैं, जो भविष्य में हमारी तकनीकी क्षमता की वृद्धि का आधार बनेंगे। संस्थाओं या समाज को अपना आधुनिक आस्तित्व बनाए रखने हेतु नवाचार महत्त्वपूर्ण आधार है।
नवाचार और उद्यमशीलता की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने हेतु नीति आयोग द्वारा अटल इनोवेशन मिशन (AIM) की स्थापना की गई थी।
AIM के तहत प्रौद्योगिकी की व्यावहारिक प्रशिक्षण तथा प्रयोग हेतु देशभर में अटल टिंकरिंग लेबोरेटरीज (ATL) की स्थापना की गई है।
जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद् (BIRAC) द्वारा बायोटेक्नोलॉजी इग्निशन ग्रांट (बी.आई.जी.) की शुरुआत की गई है, जिसका उद्देश्य युवा स्टार्टअप को अनुदान प्रदान करना है। यह भारत में सबसे बड़ा प्रारम्भिक बायोटेक फंडिंग प्रोग्राम है।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–2 : केन्द्र एवं राज्यों द्वारा जनसंख्या के अति संवेदनशील वर्गों के लिये कल्याणकारी योजनाएँ और इन योजनाओं का कार्य-निष्पादन; इन अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय।
विषय – दिव्यांगों द्वारा उपयोग किये जाने वाले सहायक उपकरणों पर 5% जी.एस.टी.
संदर्भ
- हाल ही में, दिव्यांगों द्वारा उपयोग किये जाने वाले सहायक उपकरणों पर 5% जी.एस.टी. लगाए जाने की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की गई।
- याचिकाकर्ता (निपुण मल्होत्रा बनाम भारत संघ में) का तर्क है कि दिव्यांगों के लिये व्हीलचेयर, तिपहिया वाहन, ब्रेल पेपर और ब्रेल घड़ियाँ आदि सहायक उपकरणों पर लगाया गया कर भेदभावपूर्ण है। इन उत्पादों पर जी.एस.टी. अधिरोपण दिव्यांगों के गरिमापूर्ण जीवन जीने की क्षमता पर एक अतिरिक्त बोझ डालता है।
उच्चतम न्यायलय का तर्क
- न्यायालय ने इस संदर्भ में संकेत दिया कि कर उदग्रहण की समीक्षा के मामले में उसकी शक्ति सीमित है, क्योंकि कर लगाने का निर्णय एक नीतिगत विषय है अतः न्यायपालिका को सामान्यतः इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
- इस मामले को स्थगित करने से पूर्व न्यायलय ने यह सुझाव भी दिया कि याचिकाकर्ता द्वारा जी.एस.टी. परिषद् को अपनी शिकायतें प्रस्तुत करके विकल्पों को समाप्त कर दिया गया है। कौन से उत्पादों पर किस दर से कर निर्धारित किया जाना है इसके लिये जी.एस.टी. परिषद् एक शासी निकाय है।
गतिशील सहायता उपकरणों पर कर अधिरोपण
- वस्तु एवं सेवा कर अधिरोपण से पूर्व सहायक उपकरणों को अप्रत्यक्ष करों से पूरी तरह छूट प्राप्त थी। वस्तुतः ऐसे उत्पादों को प्रत्येक राज्य में मूल्य-वर्धित कर के भुगतान से भी छूट दी गई थी।
- जी.एस.टी. के अधिरोपण के बाद इन उपकरणों पर 18% कर लगाया गया था जिसे बाद में घटाकर 5% कर दिया गया। लेकिन दिव्यांगों द्वारा उपयोग की जाने वाली सबसे बुनियादी आवश्यकताओं की वस्तुओं की कीमतें इस दर पर भी कई गुना बढ़ जाती है।
- सरकार का कहना है कि इन उत्पादों को कराधान से पूर्णता राहत नहीं दी जा सकती है, क्योंकि ऐसा करने से घरेलू विनिर्माता हतोत्साहित होंगे। हालांकि घरेलू विनिर्माता अंतिम खरीदार द्वारा विनिर्माण की प्रक्रिया में कच्चे माल पर किये गए कर भुगतान पर ‘इनपुट टैक्स क्रेडिट’ (ITC) का दावा कर सकते हैं।
- नीति-निर्माताओं का तर्क है कि अंतिम उत्पाद पर जी.एस.टी. नहीं लगाने की स्थिति में विनिर्माता पर आई.टी.सी. का अधिक बोझ पड़ेगा। चूंकि वह किये गए कर भुगतान के लिये किसी भी क्रेडिट का दावा नहीं कर सकता है जिससे उसे अंतिम उत्पाद की कीमतों को उच्चतर रूप से देना होगा। जिसके फलस्वरूप घरेलू विनिर्माता विदेशी निर्माताओं के समान नुकसान की स्थिति में रहेंगे।
विवाद का विषय
- मुख्य रूप से यह विवाद दो मामलों से सम्बंधित है- पहला विवाद जी.एस.टी. परिषद् द्वारा जारी विभिन्न पूर्व अधिसूचनाओं में मानवीय जरूरतों के लिये आवश्यक कई उत्पादों को कर से छूट देने से सम्बंधित है। दूसरा, इन मामलों में विनिर्माताओं को इनपुट टैक्स क्रेडिट का दावा करने से रोकना विधायी क्षेत्र का मामला है।
न्यायालय तथा कर उदग्रहण
- सामान्यतः न्यायपालिका विधायी और कार्यकारी क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप नहीं करती है। लेकिन यहाँ यह सुनिश्चित करना होगा की कर कानून किसी भी तरह से न्यायिक समीक्षा के लिये पूर्णतः अयोग्य नहीं हैं।
- करों का सीधा सम्बंध सामाजिक व्यवस्था से होता है। किसी उत्पाद पर लगाए गए कर की प्रकृति और दर दोनों एक व्यक्ति की स्वतंत्रता और अधिकारों को समान रूप से प्रभावित करते हैं।
- एक स्वतंत्र देश की न्यायपालिका को यह जानने का अधिकार होना चाहिये कि कर का अधिरोपण मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है या नहीं। जैसा कि हाल ही में कनाडा और कोलम्बिया की शीर्ष अदालतों के द्वारा किया गया।
आगे की राह
- घरेलू विनिर्माताओं को उनके द्वारा किये गये कर भुगतान के लिये आई.टी.सी. प्राप्त करने की प्रक्रिया निर्धारित करने की शक्ति संसद को दी गई है।
- कराधान से मुक्त उत्पादों पर लिया गया कोई भी निर्णय सामाजिक सरोकार का विषय है। दिव्यांग वर्ग की स्थिति को देखते हुए कि ये ध्यान दिया जाना चाहिये कि यह हमारे न्यायिक समानता के तार्किक विचार के अनुरूप हो तथा इसमें असमानता या भेदभाव परिलक्षित न हो। इन करों के उदग्रहण की विफलता को जी.एस.टी. लेवी का भेदभावपूर्ण होना कहा जा सकता है।
- सरकार के पास इन वस्तुओं को कर से छूट प्राप्त अन्य वस्तुओं से अलग मानने के कई कारण हैं। राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों में (अनुच्छेद 41, 46) राज्य को निःशक्त एवं दुर्बल वर्गों के हित में नीति-निर्माण का निर्देश दिया है। राज्य द्वारा इन निर्देशों का पालन करते हुए सहायक उपकरणों को कर भुगतान से पूर्णता छूट देने पर उसे समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।
- इसके अतिरिक्त जी.एस.टी. परिषद् कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के समान सहायक उपकरणों पर लगाए गए कर पर पूरी तरह से छूट दे सकती है।
भारतीय संविधान अनुच्छेद 41: राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर, काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबंध करेगा।
भारतीय संविधान अनुच्छेद 46: राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उसकी संरक्षा करेगा।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2: विषय – द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार।)
विषय– फ्रांस का प्रस्तावित सुरक्षा कानून
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, फ्रांस की संसद (नेशनल असेंबली) के निचले सदन ने एक सुरक्षा कानून पारित किया है, जिसका वहाँ की अधिकार संरक्षण संस्थाओं तथा पत्रकारों द्वारा विरोध किया जा रहा है।
क्या है फ्रांस का प्रस्तावित सुरक्षा कानून?
- यह कानून फ्रांस के पुलिस अधिकारियों के लिये अधिक शक्तियाँ तथा संरक्षण का प्रावधान करता है, जिसका नागरिक स्वंत्रता समूह, पत्रकार और प्रवासी कार्यकर्ता कड़ा विरोध कर रहे हैं। विधयेक के तीन प्रावधान विवाद का मुख्य कारण हैं।
- प्रस्तावित सुरक्षा कानून के आर्टिकल 21 और 22 के तहत पुलिस तथा अर्द्धसैनिक बलों को नागरिकों की वीडियो रिकॉर्डिंग तथा तस्वीरों के लिये बॉडी कैमरा तथा ड्रोन के उपयोग की अनुमति दी गई है। साथ ही, इसमें ऑनड्यूटी पुलिस अधिकारियों की फोटो लेने तथा वीडियो रिकॉर्डिंग पर प्रतिबंध लगाया गया है।
- आर्टिकल 24 के अंतर्गत ऑपरेशन में कार्य कर रहे किसी पुलिस या अर्द्धसैनिक बल के अधिकारी के चेहरे की छवि या किसी अन्य हिस्से को जानबूझकर प्रकाशित या प्रसारित करने पर कठोर दण्ड का प्रावधान है।
सुरक्षा कानून के पक्ष में तर्क
- इस कानून का उद्देश्य ड्यूटी के पश्चात् पुलिस अधिकारियों तथा उनके परिवारों को ऑनलाइन ट्रोलिंग तथा उत्पीड़न से बचाना है। सरकार का पक्ष है कि इसका प्रेस की स्वंत्रता या मानवाधिकारों को सीमित करने जैसा कोई लक्ष्य नहीं है।
- फ्रांस में हाल ही में हुए आतंकवादी हमले को देखते हुए इस तरह के कड़े सुरक्षा कानूनों की आवश्यकता है ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोका जा सके।
सुरक्षा कानून के विपक्ष में तर्क
- कानून के विरोधी पक्ष का मत है कि वर्ष 2018 के येलो वेस्ट मूवमेंट के दौरान तथा उसके बाद से आम जनता के खिलाफ पुलिस की प्रतिक्रिया तथा व्यवहार काफी कठोर और दंडात्मक रहा है।
- नए सुरक्षा कानून के लागू होने से मीडिया तथा मानवाधिकार संस्थाएँ सार्वजानिक घटनाओं तथा पुलिस की हिंसक कार्यवाही को कवर नहीं कर पाएंगी, जिससे पुलिस अधिकारियों को जवाबदेह ठहराना काफी कठिन होगा।
- इस प्रस्तावित कानून में इस्लामिक कट्टरपंथ को रोकने के लिये कड़े उपाय किये गए हैं। साथ ही, मस्जिदों और उपदेशकों पर कठोर नियंत्रण के कारण इस कानून ने फ्रांस के मुस्लिम वर्ग में चिंता उत्पन्न कर दी है।
येलो वेस्ट मूवमेंट
- फ्रांस में वर्ष 2018 में तेल के मूल्यों में वृद्धि (तेल पर अधिक कर लगाने के कारण) के बाद से प्रदर्शनकारियों ने पीले रंग की जैकेट पहनकर सड़कों पर विरोध किया था। इसीलिये इसका नाम येलो वेस्ट मूवमेंट पड़ा।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2: विषय – द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार।)
विषय–भारत–बहरीन सम्बंध
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, भारत और बहरीन, रक्षा और समुद्री सुरक्षा के क्षेत्रों सहित अपने ऐतिहासिक सम्बंधों को और मज़बूत करने पर सहमत हुए हैं।
प्रमुख बिंदु
- सहयोग के मुख्य मुद्दों में, दोनों देशों के आपसी हित से जुड़े क्षेत्रीय और वैश्विक मामले, रक्षा और समुद्री सुरक्षा, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, व्यापार एवं निवेश, बुनियादी ढाँचा, आईटी, फिनटेक, स्वास्थ्य, हाइड्रोकार्बन और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्रों से जुड़े मुद्दे शामिल होंगें।
- दोनों पक्षों ने कोविड–19 से जुड़े मुद्दों पर सहयोग को और मज़बूत करने की पुष्टि की।
- बहरीन ने महामारी के दौरान भारत द्वारा दवाओं, चिकित्सा उपकरणों और चिकित्सा पेशेवरों की आपूर्ति के रूप में प्रदान की गई सहायता की सराहना की।
- बहरीन ने दोनों देशों के बीच एयर बबल व्यवस्था के संचालन पर भी संतोष व्यक्त किया।
- भारत ने आगामी समय में आयोजित होने वाली भारत-बहरीन उच्च संयुक्त आयोग की तीसरी बैठक के लिये बहरीन को भारत आने के लिये पुनः निमंत्रण दिया है।
- वर्ष 2019 में, भारत ने 4.2 मिलियन डॉलर की लागत से बहरीन की राजधानी मनामा में स्थित ‘श्री कृष्ण मंदिर’ के पुनर्विकास योजना शुरू की थी।
- 200 वर्ष पुराना यह मंदिर भारत और बहरीन के बीच घनिष्ठ सम्बंधों गवाह है।
भारत ने बहरीन के दिवंगत प्रधान मंत्री खलीफा बिन सलमान अल खलीफा के निधन पर भी संवेदना व्यक्त की, जिन्होंने भारत-बहरीन सम्बंधों को मज़बूत बनाने और बहरीन में भारतीय समुदाय के कल्याण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था।
भारत–बहरीन सम्बंध
ऐतिहासिक सम्बंध:
- भारत और बहरीन सम्बंधों का इतिहास लगभग 5000 वर्ष पुराना है। बहरीन की दिलमुन सभ्यता और भारत की सिंधु घाटी सभ्यता के बीच के सम्बंध इसका प्रमाण है।
- ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में बहरीन के व्यापारी बड़े स्तर पर मोतियों के बदले भारत के मसाले खरीदा करते थे।
भारत और बहरीन के बीच द्विपक्षीय समझौते / समझौता ज्ञापन:
- प्रत्यर्पण संधि (जनवरी 2004)
- सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग पर समझौता ज्ञापन (मई 2012)
- संयुक्त उच्चायोग की स्थापना पर समझौता ज्ञापन (फरवरी 2014)
- जल संसाधन विकास एवं प्रबंधन पर समझौता ज्ञापन (फरवरी 2015)
- अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने में सहयोग, अवैध संगठित अपराध और अवैध ड्रग्स, नशीले पदार्थों और नशीले पदार्थों के रसायनों की तस्करी पर सहयोग (दिसम्बर 2015)
- डिप्लोमैटिक एंड स्पेशल/ऑफिशियल पासपोर्ट (जुलाई 2018) के होल्डर्स के लिये शॉर्ट स्टे वीज़ा पर छूट
- नवीनकणीय ऊर्जा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सहयोग के लिये समझौता ज्ञापन
- शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिये बाह्य अंतरिक्ष के उपयोग और सहयोग पर समझौता ज्ञापन (मार्च 2019)
व्यापार और आर्थिक सम्बंध:
- दोनों देशों के बीच वर्ष 2018-19 में कुल द्विपक्षीय व्यापार 1282.96 मिलियन अमेरिकी डॉलर और 2019-20 (अप्रैल-दिसम्बर) में यह 753.60 मिलियन अमेरिकी डॉलर था।
- बहरीन में भारतीय निर्यात: खनिज ईंधन और तेल, अकार्बनिक रसायन, दुर्लभ मृदा धातुओं के कार्बनिक या अकार्बनिक यौगिक, अनाज, फल, परिधान और कपड़े आदि।
- बहरीन से भारतीय आयात: कच्चे तेल, खनिज ईंधन और उनके बिटुमिनस पदार्थ, , एल्यूमीनियम, उर्वरक, अयस्क/स्लैग/एल्यूमीनियम की राख, लोहा, ताम्बा, लुगदी आदि।
बहरीन में भारतीय निवेश:
- जनवरी 2003 और मार्च 2018 के बीच बहरीन में भारत का कुल पूँजी निवेश लगभग 1.69 बिलियन अमरीकी डॉलर आँका गया है।
- सबसे अधिक निवेश (कुल परियोजनाओं का 40%) वित्तीय सेवाओं में किया गया है।
भारतीय प्रवासी समुदाय:
- वर्तमान में लगभग 3,50,000 भारतीय बहरीन में रह रहे हैं और इनमें से लगभग 70% अकुशल श्रमिक की श्रेणी में हैं।
- प्रमुख श्रम बल के अलावा अन्य भारतीय पेशेवरों की एक बड़ी संख्या है जो बहरीन के सामाजिक-आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- नवम्बर 2015 में, बहरीन ने भारतीय समुदाय के योगदान को सम्मान देने के लिये ‘लिटिल इंडिया इन बहरीन‘ नामक कार्यक्रम का शुभारम्भ किया।
एयर बबल (या यात्रा गलियारा) दो देशों के बीच स्थापित वह सिस्टम है, जिसमें दोनों देश एक दूसरे को सुरक्षित मानते हुए, दोनों देशों के वाहकों को किसी भी प्रतिबंध के बिना यात्रियों को ले जाने की अनुमति देते हैं।
बहरीन, खाड़ी सहयोग परिषद् (GCC) का सदस्य है और हाल ही में बहरीन ने इज़राइल और यू.ए.ई. के साथ अब्राहम एकॉर्ड या अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं, इस समझौते की मध्यस्थता अमेरिका ने की थी।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2: विषय – द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार।)
विषय–अफगानिस्तान से अमेरिका की सैन्य वापसी
चर्चा में क्यों?
- अमेरिका 20 जनवरी तक अफगानिस्तान में अपनी सैन्य उपस्थिति को लगभग 2,500 तक कम करने की तैयारी कर रहा है। विदित है कि 20 जनवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण समारोह आयोजित होगा।
पृष्ठभूमि
- तालिबान वर्ष 2001 में अमेरिकी आक्रमण के बाद सत्ता से बेदखल हो गया था और तब से वह विदेशी सेना व अफगान सरकार दोनों से संघर्षरत हैं। वर्तमान में इसका देश के आधे से अधिक हिस्से पर नियंत्रण हैं। इस वर्ष हुए समझौते के तहत अमेरिका द्वारा सैनिकों की संख्या कम करने से अफगानिस्तान अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ रहा है।
समझौते के मुख्य बिंदु
- इस वर्ष फरवरी में दोहा में अमेरिका और तालिबान के मध्य हुए समझौते के अनुसार अमेरिका 14 महीने में अफगानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा। इसके बदले में तालिबान ने आश्वासन दिया है कि वह अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे अंतर्राष्ट्रीय जिहादी संगठनों को अफगानिस्तान की ज़मीन का उपयोग नहीं करने देगा।
- साथ ही, तालिबान ने अफगान सरकार के साथ सीधी वार्ता प्रारम्भ करने की प्रतिबद्धता भी व्यक्त की है। यह वार्ता सितम्बर में अफगान सरकार द्वारा लगभग 5,000 तालिबान कैदियों को रिहा करने के बाद शुरू हुई जिसका वादा अमेरिका ने समझौते में किया था।
वर्तमान स्थिति
- बातचीत करने वाले पक्षों ने दोहा में आगामी शांति वार्ता में ‘अमेरिका-तालिबान समझौते’ तथा ‘अफगान शांति प्रक्रिया के लिये संयुक्त राष्ट्र के अनुसमर्थन’ को वार्ता में शामिल करने पर सहमति व्यक्त की है।
- विशेषज्ञ इसे एक सफलता के रूप में देख रहे हैं क्योंकि तालिबान अभी तक अफगान सरकार के साथ वार्ता में अमेरिकी समझौते को शामिल करने का विरोध करता रहा है।
- हालाँकि, बातचीत के दौरान भी तालिबान का आक्रामक रवैया जारी रहा है। वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार, फरवरी के बाद से तालिबान देश भर में 13,000 से अधिक हमले कर चुका है।
अनिश्चितता का समय
- अफगान शांति प्रक्रिया के लिये यह अनिश्चितता का समय है। ब्रुसेल्स स्थित अंतर्राष्ट्रीय संकट समूह (ICG) के अनुसार हाल के महीनों में तालिबान द्वारा हिंसा को पुनः प्रारम्भ करने और वार्ता में धीमी प्रगति के बावजूद सैनिकों की निरंतर कमी ने अफगानी लोगों और पर्यवेक्षकों को चिंतित कर दिया है।
- विश्लेषकों के अनुसार तालिबान ने ऐसे बहुत से संकेत दिये हैं जिससे यह पता चलता है कि वह अमेरिकी समझौते के प्रति प्रतिबद्ध नहीं रहना चाहता है। साथ ही, इस बात के भी सबूत हैं कि तालिबान अफगानिस्तान में अल-कायदा का सहयोग कर रहा है। जून में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि दोनों समूहों के बीच घनिष्ठ सम्बंध जारी रहे हैं।
- तालिबान अब बड़े प्रांतों और प्रांतीय राजधानियों को भी निशाना बना रहा हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इसके द्वारा तालिबान सैन्य दबाव से बातचीत में अपनी स्थिति को मज़बूत करना चाहता है।
- सितम्बर में भी शांति वार्ता से पूर्व उपराष्ट्रपति अमिरुल्लाह सालेह पर हमला हुआ था, जिनको कट्टर तालिबान विरोधी विचारों के लिये जाना जाता है।
प्रभुत्व की कोशिश
- अफगानिस्तान से सैनिकों को कम करने के आदेश ने तालिबान के प्रभुत्व में वृद्धि करने और देश भर में आक्रामक रवैया बनाए रखने के लिये प्रोत्साहित किया है।
- साथ ही, अमेरिका कंधार में बड़े पैमाने पर बेस को भी ध्वस्त करने की तैयारी में है। इस निर्णय से भी तालिबान को अपना प्रभुत्व बढ़ाने में सहायता मिलेगी।
- वर्तमान में अमेरिकी व गठबंधन सेना प्रत्यक्ष रूप से युद्ध में शामिल नहीं हैं बल्कि वे अफगान सैनिकों के प्रशिक्षण का कार्य करते हैं। हालाँकि, अमेरिकी वायु सेना अफगान सेना की महत्त्वपूर्ण सहयोगी है जो तालिबान द्वारा जनसंख्या के बड़े केंद्रों व शहरों को अधिकार में लिये जाने के प्रयासों का विरोध करती है।
बाइडन की नीति
- अभी अफगान सरकार की आशाएँ धूमिल नहीं हुई हैं क्योंकि सैकड़ों-हजारों सैनिक इसके लिये लड़ रहे हैं और शहरों की सुरक्षा में अपना समर्थन प्रदान कर रहे हैं।
- आगे की स्थिति काफी कुछ जो बाइडन की अफगान नीति और शांति वार्ता के परिणाम पर निर्भर करती है। बाइडन ने कहा है कि उनका प्रशासन अपने पहले कार्यकाल में ही अफगानिस्तान से सभी अमेरिकी सैनिकों को वापस बुला लेगा। साथ ही, नाटो ने भी अगले चार वर्षों के लिये ही अफगान सैनिकों की फंडिंग के लिये प्रतिबद्धता जाहिर की है।
- इन चुनौतियों के बावजूद अच्छी बात यह है कि सरकार के प्रतिनिधि व तालिबान बातचीत कर रहे हैं और वार्ता में अमेरिका-तालिबान समझौते को शामिल करने के करीब पहुँच गए हैं।
- नए अमेरिकी प्रशासन ने आगामी किसी भी सैन्य वापसी को जिम्मेदारी पूर्वक पूरा करने का वचन दिया है। अनिश्चितता के बावजूद यह शांति प्रक्रिया को पुन: स्थापित करने एवं गति देने के लिये एक महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
निष्कर्ष
- अमेरिका द्वारा महत्त्वपूर्ण समय पर अफगानिस्तान वापसी से न केवल अफगानी सैन्य बल आवश्यक समर्थन से वंचित होंगे बल्कि यह उनके मनोबल को भी प्रभावित करेगा। अफगानी सैनिक अत्यधिक दबाव में हैं और अमेरिकी समर्थन के बिना संघर्ष की सम्भावनाओं से चिंतित हैं। इससे दक्षिण एशिया में शांति प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह और भारत से संबंधित और/अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार।
विषय– इथोपिया में नृजातीय संकट और गृहयुद्ध
चर्चा में क्यों ?
- इथोपिया में सरकार और तिग्रे/टाइग्रे पीपल्स लिबरेशन फ्रंट (TPLF) के बीच गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हैं। अभी तक हज़ारों लोगों की मौत हो चुकी है और अब देश के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है।
पृष्ठभूमि
- वर्ष 1974 की क्रांति के दौरान इथोपिया के राजा हेली सेलासी को सत्ता से हटा दिया गया था। इसके बाद मेनगिस्तु हाइले मरियम के नेतृत्व में मिलिट्री डर्ग/सेना ने कमान संभाली। इसके बाद इथोपिया में ‘लाल आतंक’ शुरू हो गया जब सेना ने हज़ारों युवाओं की हत्या कर दी और देश में गृह युद्ध प्रारंभ हो गया।
- वर्ष 1988 में सेना द्वारा हुए एक हवाई हमले में हॉसियान शहर में 1800 लोग मारे गए थे। वर्ष 1991 में TPLF के नेतृत्व वाले इथोपियन पीपल्स रेवलूशनरी डेमोक्रैटिक फ्रंट (EPRDF) ने सेना की सरकार को हरा दिया।
वर्तमान गतिरोध
- वर्ष 2018 में बढ़ते विरोध के कारण EPRDF ने सरकार का नेतृत्त्व करने के लिये पूर्व सैन्य खुफिया अधिकारी और ओरोमो समुदाय के अबी अहमद को चुना।
- वर्ष 2018 में इथोपिया के प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद उन्होंने टाइग्रे पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट (TPLF) के प्रभाव को कम करने के लिये कई बड़े कदम उठाए। उन्होंने न सिर्फ TPLF के सदस्यों को मुख्य सरकारी पदों से हटाया बल्कि उन कैदियों को भी रिहा कर दिया जिन्हें TPLF द्वारा कैद किया गया था।
- उन्होंने EPRDF को खत्म कर नई प्रॉस्पैरिटी पार्टी (Prosperity Party) की स्थापना की। अबी ने इरिट्रिया के साथ शांति समझौता भी किया, जिसके लिये उन्हें विगत वर्ष नोबेल का शांति पुरस्कार भी मिला। जबकि TPLF के सम्बंध इरिट्रिया के साथ अच्छे नहीं थे।
- इसी वर्ष सितम्बर में स्थानीय चुनावों को लेकर TPLF और प्रॉस्पैरिटी पार्टी के बीच गहरे मतभेद उत्पन्न हो गए और प्रॉस्पैरिटी पार्टी ने आरोप लगाया कि उन्हें चुनाव लड़ने नहीं दिया गया।
- इथोपिया के संविधान में संघीय व्यवस्था का प्रावधान है, जिसके तहत स्थानीय समूह अपने क्षेत्र की सरकार चलाते हैं। इसे EPRDF के सरकार में आने के बाद अपनाया गया था जिसे प्रधानमंत्री अबी समाप्त करना चाहते हैं।
- देश के क्षेत्रीय राज्यों को अपने चुनाव कराने का अधिकार है। यह प्रावधान इसलिये किया गया था कि अगर केंद्र में लोकतांत्रिक सरकार गिर जाए तो क्षेत्र अपने दम पर चलते रहें। इसकी मांग टिगरायन समूह के साथ-साथ ओरोमो जैसे समूहों ने भी की।
- TPLF अलग होने की माँग नहीं कर रहा लेकिन मौजूदा विवाद से कुछ ऐसा ही हो सकता है। ध्यातव्य है कि ओरोमो गायक हचालू हुंडेसा की हत्या के बाद हुए दंगों में 150 लोगों की मौत हो गई और 10 हज़ार से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था।
- इथोपिया की कुला आबादी का 6% टाइग्रे लोग हैं जबकि ओरोमो (34%) और अम्हार (27%) हैं। चूँकि वर्ष 2018 से पूर्व सत्ता में TPLF और टाइग्रे लोगों की संख्या ज़्यादा थी अतः ओरोमो लोगों द्वारा उनके खिलाफ पक्षपात के आरोप लगाए जाते थे और अब ओरोमो समुदाय के अबी अहमद के सत्ता में आने के बाद टाइग्रे लोग उग्र हो गए हैं।
टाइग्रे पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट
इस फ्रंट की स्थापना इथोपिया की सैन्य तानाशाही के विरुद्ध वर्ष 1975 में टाइग्रे क्षेत्र के लोगों के हितों की रक्षा करने के लिये की गई थी।
वर्ष 1991 में यह संगठन सैन्य तानाशाही सरकार को सत्ता से हटाने में सफल रहा और इसके बाद इसने इथोपिया में लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही कई सुधार कार्य किये।
वर्ष 1991 में ही TPLF के नेता मेल्स ज़ेनावी पहले अंतरिम राष्ट्रपति और फिर वर्ष 1995 में प्रधानमंत्री चुने गए और वर्ष 2012 तक सत्ता में रहे।
इथोपिया
इथोपिया अफ़्रीका का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है और क्षेत्रफल की दृष्टि से अफ़्रीका का दसवाँ सबसे बड़ा देश है। इसकी राजधानी अदिस अबाबा है।
इथोपिया, सूडान के दक्षिण-पूर्व में, इरिट्रिया के दक्षिण में, जिबूती और सोमालिया के पश्चिम में, केन्या के उत्तर में और दक्षिण सूडान के पूर्व में स्थित है। यह विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला स्थल-रुद्ध देश है।
(मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र– 2 : द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह तथा भरता से सम्बंधित अथवा भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
विषय– RCEP तथा भारत के निर्णय के निहितार्थ
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, भारत की ग़ैर मौजूदगी में ‘क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी’ (RCEP) पर सदस्य देशों द्वारा हस्ताक्षर किये गए हैं। हालाँकि, भविष्य में भारत भी इस समूह की बैठक में एक पर्यवेक्षक (OBSERVER) के रूप में भाग ले सकता है।
क्या है RCEP?
- RCEP चीन के नेतृत्व में 15 देशों का एक क्षेत्रीय व्यापारिक ब्लाक है जिसमें 10 असियान देशों (इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, ब्रुनेई, वियतनाम, लाओस, म्यांमार व कम्बोडिया) के साथ-साथ चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड शामिल हैं।
- इस व्यापारिक साझेदारी का उद्देश्य सदस्य देशों के मध्य बाधा रहित बाज़ार तक पहुँच, सीमा शुल्क को समाप्त या कम करके तथा मुक्त व्यापार समझौतों के माध्यम से आपसी व्यापार को प्रोत्साहन देना है।
- इस ब्लाक में विश्व की जनसंख्या का एक-तिहाई तथा जी.डी.पी. का 30% हिस्सा शामिल है। इस ब्लाक में शामिल देश अन्य ग़ैर सदस्य देशों से आयात नहीं करने पर सहमत हुए हैं।
भारत के निर्णय का विश्लेषण
- भारत का मानना है RCEP से सम्बंधित भारत की चिंताओं को पर्याप्त रूप से सम्बोधित नहीं किया गया है। भारत निरंतर घरेलू अर्थव्यवस्था के अनुरूप वस्तुओं और सेवाओं की संरक्षित सूची के आधार पर बाज़ार पहुँच का मुद्दा उठा रहा है।
- भारत अभी RCEP पर विचार विमर्श कर रहा है। भारत द्वारा अपने लागत-लाभ विश्लेषण का मूल्यांकन करने के पश्चात ही अंतिम निर्णय लिया जाएगा।
- महामारी के प्रसार में चीन की संदिग्ध भूमिका के साथ ही बढ़ती सैन्य आक्रामकता (गलवान घाटी संघर्ष तथा पेंगोंग झील के तनाव) के चलते भारत ने पिछले कुछ महीनों में चीन के विरुद्ध कई निर्णय लिये हैं। इसमें चीन के गेम्स तथा अन्य लोकप्रिय एप्स पर प्रतिबंध लगाया जाना शामिल हैं।
- जापान ने RCEP में भारत की भागीदारी पर मंत्रियों की घोषणा का मसौदा तैयार किया है, जो भारत जैसी समान विचारधारा वाले देशों के बीच सहयोग का एक प्रतिबिम्ब है इस मसौदे में विशेष रूप से क्वाड देशों द्वारा भविष्य में एक लचीली आपूर्ति श्रृंखला के निर्माण पर बल दिया जाएगा।
- क्वाड के साथ-साथ कुछ अन्य देश (न्यूज़ीलैंड, दक्षिण कोरिया और वियतनाम) गुप्त रूप से चीन से अलग एक लचीली आपूर्ति श्रृंखला को सुरक्षित करने हेतु एक-दूसरे से बात कर रहे हैं। साथ ही जापान और ऑस्टेलिया, चीन के साथ जटिल और तनावपूर्ण सम्बंध होने के बावजूद आर्थिक हित के कारण RCEP में शामिल हो गए हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारत को अपनी नीति का निर्धारण करना चाहिये।
- भारत पहले से ही आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते तथा दक्षिण कोरिया व ऑस्ट्रेलिया के साथ व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौतों (CEPA) में भागीदार है।
- वर्तमान में भारत का चीन के साथ बड़ा व्यापार घाटा है। भारत ने आसियान देशों के लिये अपना बाज़ार 74% तक खोला है जबकि इंडोनेशिया जैसे अमीर देशों ने भारत के लिये केवल 50% तक बाज़ार खोले हैं। इसलिये RCEP पर भारत अभी संदेहास्पद स्थिति में है।
आगे की राह
- यह कई बार देखा गया है कि चीन सहित कई देशों ने अपनी बाज़ार पहुँच को रोकने हेतु ग़ैर टैरिफ बाधाओं का उपयोग किया है, जिससे भविष्य में व्यापारिक अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न होती है। इसलिये वर्तमान में भारत को अपने व्यापरिक तथा औद्योगिक हितों को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग देशों के साथ अलग-अलग व्यापारिक समझौते करने चाहिये।
- ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टी.पी.पी./TPP) की कमज़ोर स्थिति पर विचार करना आवश्यक है। इसका केवल सुरक्षा से जुड़े पहलुओं (आर्थिक दृष्टिकोण के बजाय) पर ध्यान केंद्रित करना इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है।
- भारत और चीन को भू-राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर सामूहिक रूप से अपनी अर्थव्यवस्थाओं की संवृद्धि पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, जिससे आर्थिक विकास, व्यापक स्तर पर रोज़गार सृजन तथा एक मज़बूत क्षेत्रीय आपूर्ति श्रृंखला के निर्माण में सहायता मिलेगी।
निष्कर्ष
- वर्ष 2017 में जब भारत ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बी.आर.आई.) से बाहर निकलने का फैसला किया था तब भी भारत को विभिन्न आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। लेकिन बाद में समान विचारधारा वाले देशों ने भारत के निर्णय का समर्थन किया। इसलिये भारत द्वारा वर्तमान में अपने राष्ट्रहितों को सर्वोपरि रखते हुए, RCEP में शामिल न होने का निर्णय उचित और सराहनीय प्रतीत होता है।
ट्रांस पैसीफिक पार्टनरशिप : TPP
ट्रांस पैसीफिक पार्टनरशिप प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के चारों ओर अवस्थित 12 देशों (ऑस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, चिली, कनाडा, जापान, मलेशिया, मेक्सिको, न्यूज़ीलैंड, पेरू, सिंगापुर, यू.एस. और वियतनाम) के मध्य एक व्यापार समझौता है। इन 12 देशों की संयुक्त रूप से दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 40% हिस्सेदारी है।
उत्पादों और सेवाओं को बड़ा बाज़ार उपलब्ध कराने के अलावा TPP में बौद्धिक सम्पदा अधिकार, विदेशी निवेश, प्रतिस्पर्धा नीति, पर्यावरण, श्रम, सरकार के स्वामित्व वाले उद्यम, ईकॉमर्स प्रतिस्पर्धा और आपूर्ति श्रृंखला, सरकारी खरीद, व्यापार में तकनीकी बाधाएँ, हेल्थकेयर टेक्नोलॉजी और फार्मास्यूटिकल में पारदर्शिता तथा एक नियामक संस्था के गठन पर सहमति व्यक्त की गई है।
ध्यातव्य है कि अमेरिका इस समूह से बाहर हो गया है। वर्तमान में इसमें 11 सदस्य देश हैं।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–2 – भारत एवं इसके पड़ोसी- संबंध।
विषय– आर्मीनिया और अज़रबैजान के मध्य नया शांति समझौता
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, आर्मीनिया और अज़रबैजान के मध्यनया शांति समझौता सम्पन्न हुआ है।
पृष्ठभूमि
आर्मीनिया और अज़रबैजान के मध्य विवाद दक्षिण कॉकेशस स्थित नागोर्नो-काराबाख़क्षेत्र पर कब्ज़े को लेकर है। इस क्षेत्र में पिछले 6 सप्ताह से सैन्य संघर्ष जारी था। इसे हालिया वर्षों में सबसे गम्भीर संघर्ष माना जा रहा है। इस संघर्ष में लगभग 1200 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई हैं तथा हज़ारों लोग विस्थापित हुए हैं।
नए शांति समझौते के प्रमुख बिंदु
- नए समझौते के अनुसार दोनों पक्ष अब इस क्षेत्र में यथा स्थिति बनाए रखेंगे। इससे अज़रबैजान को लाभ होगा क्योंकि हालिया संघर्ष के दौरान अज़रबैजान ने इस क्षेत्र के 15-20% हिस्सा पर पुनः कब्ज़ा कर लिया है।
- साथ ही इस समझौते के तहत, सभी सैन्य अभियानों व कार्रवाईयों पर रोक लगा दी गई है और रूसी शांति सैनिकों को नागोर्नो-काराबाख़ में सम्पर्क रेखा (Line of Contact) तथा इस क्षेत्र को आर्मीनिया से जोड़ने वाले लाचिन गलियारे (Lachin corridor) के समानांतर पाँच वर्ष की अवधि के लिये तैनात किया जाएगा।
- इसके अतिरिक्त शरणार्थी एवं आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्ति इस क्षेत्र में व आस-पास के क्षेत्रों में वापस आएंगे तथा दोनों पक्ष युद्ध बंदियों व शवों की भी अदला-बदली करेंगे।
- गौरतलब है कि रूसी नियंत्रण में नखचिवन से अज़रबैजान तक एक नया कॉरिडोर भी खोला जाएगा।
- इस शांति समझौते का आर्मीनिया में व्यापक विरोध हुआ है, जबकि अज़रबैजान ने इसे ‘ऐतिहासिक महत्त्व’ वाला समझौता कहा है।
रूस की मध्यस्थता और चिंता
- दोनों देशों के मध्य यह शांति समझौता रूस की मध्यस्थता में हुआ है। इस पर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, अज़रबैजान के राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव और आर्मीनियाई प्रधानमंत्री निकोल पशिनान द्वारा हस्ताक्षर किये गए हैं।
- सितम्बर में संघर्ष प्रारम्भ होने के बाद से दोनों पक्षों के बीच कई युद्धविराम समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए परंतु अभी तक कोई भी सफल नहीं हुआ है।
- इस संघर्ष में रूस की भूमिका कुछ हद तक अस्पष्ट है क्योंकि यह दोनों देशों को हथियारों की आपूर्ति करता है तथा आर्मीनिया के साथ उसका एक सैन्य गठबंधन है, जिसे सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (Collective Security Treaty Organization) कहा जाता है।
अन्य युद्धविराम समझौते
- वर्ष 1994 के शांति समझौते के बाद भीइस क्षेत्र में नियमित रूप से तनाव बना रहा है। वर्ष 2016 हुआ चार-दिवसीय युद्ध भी रूस की मध्यस्थता से समाप्त हुआ था।
- यूरोपीय सुरक्षा और सहकारिता संगठन (OSCE)मिंस्क ग्रुप ने भी कई वर्षों तक दोनों देशों के मध्य स्थाई शांति समझौते पर सहमति बनाने की कोशिश की है। विदित है कि फ्रांस, रूस और अमेरिका मिंस्क ग्रुप से सम्बंधित रहे हैं।
- इस वर्ष अक्तूबर में भी रूस की मध्यस्थता से दोनों देशों के मध्य हुआ संघर्ष विराम समझौता भी असफल रहा था।
दोनों देशों के बीच संघर्ष में नृजातीयता की भूमिका
- इस विवाद में दशकों पुराने नृजातीय तनावों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। वर्तमान में इस विवादित क्षेत्र में बहुसंख्यक आर्मीनियाई ईसाई आबादी निवास करती है, यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस क्षेत्र को मुस्लिम बहुल अज़रबैजान का हिस्सा माना जाता है।
हालिया संघर्ष का कारण
- वर्तमान संघर्ष की शुरुआत 27 सितम्बर को हुई, जिसमें पहली बारदोनों देशोंमेंमार्शल लॉ की घोषणा की गई।
- वारसॉ स्थित सेंटर फॉर ईस्टर्न स्टडीज (OSW) के अनुसार, सम्भावित रूप से संघर्ष में मौजूदा वृद्धि अज़रबैजान द्वाराकी गई थी।
नागोर्नो–काराबाख़ क्षेत्र
- नागोर्नो-काराबाख़ क्षेत्र ट्रांस-कॉकेशिया या दक्षिण कॉकेशिया (जॉर्जिया और आर्मीनिया के पूर्वी यूरोप और पश्चिमी एशिया की सीमा पर दक्षिणी काकेशस पर्वत के आसपास का भौगोलिक क्षेत्र) का हिस्सा है।
- इस क्षेत्र से गैस और कच्चे तेल की पाइपलाइनें गुज़रती है जिससे इस क्षेत्र के स्थायित्व को लेकर चिंता जताई जा रही है।
वर्तमान स्थिति
- नागोर्नो-काराबाख़ को अंतर्राष्ट्रीय रूप से अज़रबैजान के हिस्से के रूप में मान्यता प्राप्त है परंतु इसका अधिकांश क्षेत्र आर्मीनियाई अलगाववादियों द्वारा नियंत्रित हैं।
- अलगाववादियों ने इस क्षेत्र को ‘नागोर्नो-काराबाख़ गणतंत्र’ घोषित किया हुआ है। हालाँकि, आर्मीनियाई सरकार नागोर्नो-काराबाख को स्वतंत्र रूप से मान्यता नहीं देती है परंतु इस क्षेत्र को राजनीतिक और सैन्य रूप से समर्थन प्रदान करती है।
- नागोर्नो-काराबाख़क्षेत्र सोवियत संघ के समय से अज़रबैजान का हिस्सा रहा है। 1980 के दशक में सोवियत संघ के पतन के साथ आर्मीनिया की क्षेत्रीय संसद ने इस क्षेत्र को आर्मीनिया को हस्तांतरण के लिये मतदान किया था।
- वर्ष 1994 में रूस ने युद्ध विराम के लिये मध्यस्थता किया। हालाँकि, उस समय तक नृजातीय आर्मीनियाई लोगों ने इस क्षेत्र पर नियंत्रण कर लिया था।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 : भारत एवं इसके पड़ोसी सम्बंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय व वैश्विक समूह और भारत से सम्बंधित या भारत के हितों को प्रभावित करने वाले करार)
विषय – हिंद–प्रशांत और क्वॉड
पृष्ठभूमि
- हाल ही में सम्पन्न तीसरी ‘वार्षिक अमेरिका-भारत : 2 + 2’ मंत्रिस्तरीय वार्ता में भारत में ‘चतुष्पक्षीय सुरक्षा संवाद’ (Quadrilateral Security Dialogue : Quad), हिंद-प्रशांत वार्ता, चीन से खतरे पर चर्चा और अमेरिका से सम्भावित सहयोग के विचार को आगे बढ़ाया गया है।
- वर्तमान समय में भारत के विदेश नीति-निर्माताओं और रणनीतिक समुदाय को ‘हिंद-प्रशांत’ और ‘क्वॉड’ जैसे सामरिक दृष्टिकोण ने अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित किया है।
- अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अनुसार भारत इस क्षेत्र के रणनीतिक भविष्य को आकार देने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है।
हिंद–प्रशांत और क्वॉड : तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य
- हिंद-प्रशांत एक वृहद् राजनीतिक-आर्थिक दृष्टिकोण है, जबकि क्वॉड भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के बीच रणनीतिक व सैन्य परामर्श के लिये एक मंच है।
- इन दोनों दृष्टिकोणों में समानता भी हैं जैसे- क्वॉड के सदस्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र के प्रमुख देशों में शामिल हैं। वहीं, कई आधारों पर भिन्नता भी है, जैसे- हिंद-प्रशांत एक राजनीतिक-आर्थिक दृष्टिकोण है, जबकि क्वॉड एक सैन्य-रणनीतिक दृष्टिकोण है।
- हिंद-प्रशांत एक जटिल राजनीतिक व आर्थिक तस्वीर प्रस्तुत करता है, जबकि क्वॉड अभी संस्थागत शैशवावस्था में है और मुख्यतः राजनयिक व कूटनीतिक स्तर तक सीमित है।
हिंद–प्रशांत और क्वॉड : चीन के संदर्भ में
- हिंद-प्रशांत और क्वॉड दोनों की अवधारणा चीन केंद्रित है, यह कई मायनों में भारत की भौगोलिक स्थिति तथा इसकी नीतियों को प्रभावित करती है।
- चीन विरोधी सूक्ष्म व जटिल उपक्रमों के बावजूद हिंद-प्रशांत दृष्टिकोण इस क्षेत्र में चीन की अनावश्यक बढ़त को रोकने में असमर्थ रहा है। जबकि रणनीतिक रूप में चीन की बढ़ती चुनौतियों के बीच क्वॉड अपने चरित्र और अभिप्राय में स्वाभाविक रूप से अधिक चीन विरोधी है।
- ऐसा प्रतीत होता है कि क्वॉड के सफल होने की सम्भावना पूरी तरह से चीन पर निर्भर करेगी क्योंकि चीन जितना अधिक आक्रामक होगा, क्वॉड को उतना ही अधिक मज़बूत बनाने की कोशिश की जाएगी।
- दूसरे शब्दों में, यदि चीन को इस समीकरण से बाहर निकाल दिया जाता है तो हिंद-प्रशांत और क्वॉड का औचित्य कम हो जाएगा, यदि भारत इस पूरी रणनीति से बाहर हो जाता है तो भू-राजनीतिक रूप से इनकी और इनसे सम्बंधित देशों की क्षमता बहुत कम हो जाएगी।
- यद्दपि यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि हिंद-प्रशांत आर्थिक निर्माण के रूप में चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ ( BRI) का एक विकल्प प्रस्तुत करने में सक्षम होगा क्योंकि हिंद-प्रशांत के कई देश पहले से ही बी.आर.आई. के सदस्य हैं।
भारत की रणनीतिक बाधाएँ
- रणनीतिक, राजनीतिक व आर्थिक पक्ष
- राजनीतिक-आर्थिक संरचना के रूप में हिंद-प्रशांत रणनीति की मज़बूती के लिये इसके सदस्यों के बीच आर्थिक भागीदारी और सम्पर्क मज़बूत होना चाहिये। केवल रणनीतिक वार्ता और सम्भावित सैन्य सहयोग पर ध्यान केंद्रित करना पर्याप्त नहीं है क्योंकि ऐसे मुद्दों में आर्थिक पक्ष भी निर्णायक भूमिका निभाता है।
- हाल ही में, भारत ने ‘क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी’ (RCEP) में शामिल न होने का निर्णय लिया था। यह निर्णय इस क्षेत्र में भारत की भावी सम्भावनाओं के लिये चुनौती उत्पन्न कर सकता है।
- वस्तुतः आर.सी.ई.पी. में शामिल न होने का निर्णय घरेलू राजनीतिक दबाव का परिणाम है, क्योंकि हिंद-प्रशांत देशों के साथ व्यापार के मामले में भारत व चीन की स्थिति में व्यापक अंतर है।
- हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ भारत और चीन में बढ़ता व्यापार अंतर इस क्षेत्र की रणनीतिक वास्तविकताओं को आकार देने में निर्धारक सिद्ध होगा। साथ ही, आर.सी.ई.पी. पर भारत द्वारा हस्ताक्षर न करने के निर्णय को भी इस क्षेत्र के चीन के साथ संस्थागत जुड़ाव को व्यापक संदर्भ में देखने की ज़रूरत है।
- ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, अमेरिका, बांग्लादेश और मालदीव के साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता नहीं है, जबकि दक्षिण कोरिया, आसियान, जापान और श्रीलंका के साथ इसका मुक्त व्यापार समझौता है।
- इसके विपरीत अमेरिका को छोड़कर उपर्युक्त लगभग सभी देशों के साथ चीन का मुक्त व्यापार समझौता है। हालाँकि, बांग्लादेश के साथ चीन का मुक्त व्यापार समझौता नहीं है किंतु हालिया समय में दोनों देशों के मध्य आर्थिंक सम्बंध सुदृढ़ हुए हैं, जबकि श्रीलंका के साथ उसकी बातचीत चल रही है। साथ ही चीन, जापान और दक्षिण कोरिया के बीच त्रिपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता वार्ता भी चल रही है।
- अतः यदि ये देश पर्याप्त विकल्प और राजनीतिक दृढ़ता के साथ चीन से आर्थिक रूप से दूर होने का प्रयास करते हैं तो भी यह एक लम्बी प्रक्रिया होगी।
- इस प्रकार स्पष्ट रूप से कहा जाए तो केवल रणनीतिक वार्ताओं के कारण ही आर्थिक वास्तविकताओं को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है।
- सैन्य पक्ष
- यदि इस क्षेत्र के साथ भारत का आर्थिक जुड़ाव अपर्याप्त है तो इस क्षेत्र में भारत की सामरिक और सैन्य भागीदारी भी कम ही है।
- बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस और थाईलैंड सहित इस क्षेत्र के कई देशों के लिये चीन प्रमुख रक्षा आपूर्तिकर्ता है, जो भारत की बिक्री, रक्षा संवाद और इस क्षेत्र में सामयिक संयुक्त सैन्य अभ्यासों को प्रभावित करता है।
आगे की राह
- चीन का मुकाबला करते समय भारत को यह ध्यान रखना चाहिये कि केवल रणनीतिक वार्ताओं से ही आर्थिक वास्तविकताओं का सामना नहीं किया जा सकता है। चीन से मुकाबला करने के लिये वर्तमान में भारत का आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरने के साथ-साथ रणनीतिक और सैन्य उभार भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है।
- यदि भारत इन राज्यों के लिये एक प्रमुख आर्थिक भागीदार साबित नहीं होता है तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका सीमित ही रहेगी।
- इसके अलावा इस तरह के दृष्टिकोण पर आगे बढ़ने के लिये देश के रणनीतिक वर्ग के भीतर पर्याप्त राजनीतिक सहमति भी आवश्यक है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 2 ; विषय – भारत के हितों पर विकसित तथा विकासशील देशों की नीतियों तथा राजनीति का प्रभाव)
विषय– यू.ए.ई. में इस्लामिक कानूनों में सुधार
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, संयुक्त अरब अमीरात ने देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता से सम्बंधित कानूनों में सुधार की घोषणा की है, ऐसा माना जा रहा है कि इन सुधारों की वजह से कठोर इस्लामी कानूनों में सुधार होगा।
- इन सुधारों में ऑनर किलिंग, शराब बंदी, अविवाहित जोड़ों के लिव-इन में रहने, तलाक और उत्तराधिकार से सम्बंधित कानूनों में हुए बदलाव शामिल हैं।
- ध्यातव्य है कि आधुनिकीकरण के इन प्रयासों की घोषणा एक्सपो–2020 से पहले की गई है। यह दुबई द्वारा आयोजित मेगा वर्ल्ड इवेंट है, जिससे देश में बड़े स्तर पर निवेश और लगभग 2.5 करोड़ आगंतुकों के आने की उम्मीद है। यह एक्सपो इस वर्ष अक्तूबर से 2021 अप्रैल तक आयोजित किया जाना था, लेकिन कोविड–19 महामारी के कारण अब इसका आयोजन अक्तूबर 2021 – मार्च 2022 में किये जाने की सम्भावना है।
कानूनों में निम्लिखित सुधार किये गए हैं :
1) ऑनर किलिंग और महिलाओं का उत्पीड़न
- पूर्व के कानूनों के अनुसार ‘ऑनर किलिंग’ के लिये ज़िम्मेदार पुरुष मुकदमे से बच जाते थे या उनको न्यूनतम स्तर की सज़ा ही मिलती थी।
- वहाँ लोगों की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार किसी महिला का अन्य पुरुष के साथ भाग जाना या प्यार करना धार्मिक ग्रंथों की तथा धर्म की अवज्ञा करना या अवहेलना करना है, अतः देश में महिलाओं के साथ मारपीट करना बहुत सामान्य था। नए कानून के अनुसार ऐसी घटनाओं को अब किसी शारीरिक हमले के समान ही अपराध माना जाएगा।
- रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि नए कानून में महिलाओं का उत्पीड़न करने वाले पुरुषों के लिये कठोर दंड निर्धारित भी किये जाएंगे, इसमें किसी महिला का पीछा करना या सड़कों पर उन्हें छेड़ना भी शामिल है। नए सुधारों में पुरुषों के उत्पीड़न से जुड़े कानूनों की भी बात की गई है।
- रिपोर्ट में यह विशेष रूप से कहा गया है कि किसी नाबालिग या किसी भी उम्र की महिला के साथ बलात्कार करने के जुर्म पर फाँसी का प्रवधान जारी रहेगा।
2) शराब का सेवन
- 21 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिये शराब पीने को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है और अधिकृत क्षेत्रों में एल्कोहल लाइसेंस के बिना मादक पेय रखने या बेचने के लिये पूर्व में दिये जाने वाले दंड को हटा दिया गया है।
- इससे पहले भी, खाड़ी देशों में शराब से सम्बंधित मुकदमे सामान्यतः दर्ज नहीं होते थे, लेकिन यदि किसी व्यक्ति को किसी अन्य अपराध के लिये हिरासत में लिये जाने पर यह पता चलता था कि वह बिना लाइसेंस के शराब बेच रहा था तो उस पर मुकदमा दर्ज किया जाता था। लेकिन नए सुधारों के तहत यह अतिरिक्त मुक़दमा नहीं किया जाएगा। यद्यपि नाबालिग बच्चों के लिये, शराब पीना आगे भी दंडनीय अपराध रहेगा।
3) अविवाहित जोड़े लिव–इन में रह सकते हैं
- अविवाहित जोड़ों के लिव-इन में रहने को पहली बार वैध घोषित किया गया है। पहले, यह अवैध था यद्यपि इस श्रेणी में अभियोग या मुकदमे बहुत कम होते थे।
- देश में बाहर से आकर बसने वाले लोगों (विशेषकर युवाओं) के लिये यहाँ रहना अधिक सुगम बनाने के लिये कानूनों में यह बदलाव ज़रूरी था।
4) तलाक और उत्तराधिकार
- एक और बड़े बदलाव के रूप में ऐसे वैवाहिक जोड़ों, जिन्होंने विवाह तो अपने गृह देश में किया था लेकिन वो तलाक यू.ए.ई. में लेना चाहते हैं, के तलाक के लिये अब यू.ए.ई. में उस देश का कानून वैध होगा, जिस देश के कानून के हिसाब से उनका विवाह हुआ था।
- पूर्व में उत्तराधिकार के सम्बन्ध में स्थानीय अदालतों को परिवार के सदस्यों के बीच सम्पत्ति को विभाजित करने के लिये यू.ए.ई. के शरिया कानून को लागू करने का अधिकार था। किंतु अब, किसी व्यक्ति की नागरिकता का कानून यह निर्धारित करेगा कि सम्पत्ति को कैसे विभाजित किया जाएगा, विशेषकर जब किसी व्यक्ति द्वारा कोई लिखित वसीयत नहीं दी गई हो।
- हालाँकि, यू.ए.ई. में खरीदी गई सम्पत्ति के लिये शरिया कानून पूर्वानुसार ही लागू होंगे।
5) आत्महत्या
- नए सुधारों के अनुसार आत्महत्या करना या आत्महत्या की कोशिश करने को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है। पहले, आत्महत्या के प्रयास से बचने वाले व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जा सकता था।
- इसे न सिर्फ अब अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया है बल्कि अब अदालतों और पुलिस को इस प्रकार के कमज़ोर लोगों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता भी उपलब्ध करानी होगी।
- यद्यपि आत्महत्या के प्रयास में किसी व्यक्ति की सहायता करना, अभी भी अपराध ही माना जाएगा और व्यक्ति को अनिश्चित समय के लिये कारावास की सज़ा दी जा सकती है।
- उपरोक्त सुधारों के अलावा अदालतों द्वारा प्रतिवादियों और गवाहों के लिये कानूनी रूप से अनुवादक प्रदान करना भी अनिवार्य कर दिया गया है, विशेषकर उन लोगों के लिये जो अरबी नहीं जानते हैं।
- इसके अलावा, देश के गोपनीयता कानून को भी मज़बूत किया गया है और अब किसी भी कथित अपराध से सम्बंधित सबूतों को संरक्षित किया जाएगा और इनका सार्वजनिक रूप से खुलासा नहीं किया जा सकेगा।
आगे की राह
इस्लामी देशों में शरिया कानून की कठोरता और कई बार उनके अमानवीय होने की बहस अक्सर उठती रहती है किन्तु यू.ए.ई. सरकार द्वार किये गए वर्तमान सुधार निश्चित रूप से स्वागत योग्य हैं। इन सुधारों से न सिर्फ यू.ए.ई. की वैश्विक छवि में सुधार होगा बल्कि भविष्य में वहाँ आकर बसने वाले लोगों के लिये कानूनी अड़चनें भी कम होंगीं।
GS-3 Mains
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : विषय– भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)
विषय-मधुमक्खी पालन
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा नेशनल एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (NAFED) के हनी फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन (FPO) कार्यक्रम का उद्घाटन किया गया।
- ध्यातव्य है कि निर्माता संगठन या प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन (PO), प्राथमिक उत्पादकों (किसान, दुग्ध उत्पादक, मछुआरे, बुनकर, शिल्पकार आदि) द्वारा गठित एक कानूनी इकाई है। एफ.पी.ओ. एक प्रकार का पी.ओ. है, जहाँ सदस्य किसान होते हैं।
प्रमुख बिंदु
- यह एक केंद्रीय क्षेत्र योजना (Central Sector Scheme) है, जिसके द्वारा 10,000 नए एफ.पी.ओ. का प्रचार और प्रसार किये जाने का लक्ष्य है।
- इसके तहत, नेशनल लेवल प्रोजेक्ट मैनेजमेंट एडवाइज़री एंड फंड सैंक्शनिंग कमेटी (N-PMAFSC) ने सभी कार्यान्वयन एजेंसियों को वर्ष 2020-21 के लिये एफ.पी.ओ. क्लस्टर आवंटित किये थे।
- एफ.पी.ओ. के प्रचार और प्रसार के लिये तीन शुरूआती कार्यान्वयन एजेंसियाँ; स्मॉल फार्मर एग्री-बिज़नेस कंसोर्टियम (SFAC), राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (NCDC) और नाबार्ड होंगीं। नाफेड चौथी राष्ट्रीय कार्यान्वयन एजेंसी के रूप में कार्य करेगी।
- राज्य भी यदि चाहें तो कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग (DAC& FW) के परामर्श से अपनी कार्यान्वयन एजेंसी को खुद भी नामित कर सकते हैं।
- एफ.पी.ओ. को कार्यान्वयन एजेंसियों द्वारा स्थापित क्लस्टर आधारित व्यावसायिक संगठनों (CBBO) द्वारा विकसित किया जाएगा ।
- नाफेड ने क्लस्टर आधारित व्यावसायिक संगठनों (CBBOs) और इंडियन सोसाइटी ऑफ एग्री बिज़नेस प्रोफेशनल्स (ISAP) के माध्यम से भारत के 5 राज्यों में मधुमक्खी पालकों और शहद संग्राहकों के एफ.पी.ओ. के गठन और संवर्धन की पहल की है।
- ये 5 स्थान/राज्य हैं- पूर्वी चम्पारण (बिहार), मुरैना (मध्य प्रदेश), भरतपुर (राजस्थान), मथुरा (उत्तर प्रदेश) और सुंदरबन (पश्चिम बंगाल)।
- राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन और हनी मिशन (NBHM) के तहत पहले हनी एफ.पी.ओ. का पंजीकरण मध्य प्रदेश में किया गया है।
लाभ
- वैज्ञानिक रूप से मधुमक्खी पालन में कौशल सृजन और उत्पादों की गुणवत्ता में वृद्धि।
- शहद और सम्बद्ध मधुमक्खी पालन उत्पादों के लिये अवसंरचनात्मक सुविधाओं का विकास।
- संग्रह, भंडारण, बॉटलिंग और विपणन केंद्रों में सुधार करके बेहतर आपूर्ति शृंखला प्रबंधन।
कृषि को आत्मनिर्भर कृषि में बदलने के लिये प्रयास करना।
- मधुमक्खी पालन को बढ़ावा देने के लिये सरकार द्वारा अन्य प्रयास
- सरकार किसानों की आय को दोगुना करने और आदिवासी उत्थान सुनिश्चित करने के उद्देश्य से मधुमक्खी पालन को बढ़ावा दे रही है।
- हाल ही में, सरकार द्वारा आत्मनिर्भर अभियान के तहत मधुमक्खी पालन के लिये 500 करोड़ रुपए का अनुदान भी दिया गया।
- ‘स्वीट रिवोल्यूशन’ के एक भाग के रूप में एन.बी.एच.एम. का शुभारम्भ।
मुख्य परीक्षा, प्रश्नपत्र – 3 : सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा चुनौतियाँ एवं उनका प्रबंधन)
विषय– तटीय सुरक्षा
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, 26/11 हमले की 12वीं वर्षगांठ पर तटीय क्षेत्रों में सुरक्षा इंतज़ामों की समीक्षा की गई है। समुद्री सुरक्षा में ‘सूचना प्रबंधन और विश्लेषण केंद्र’ (IMAC) द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने के कारण यह संस्था चर्चा में है।
पृष्ठभूमि
- भारतीय नौसेना, तटरक्षक बल तथा समुद्री पुलिस द्वारा तटीय क्षेत्रों में तीन स्तरीय सुरक्षा घेरा तैयार किया गया है, जिससे समुद्री क्षेत्र में संदिग्ध गतिविधियों पर रोकथाम में अभूतपूर्व सफलता मिली है।
- ध्यातव्य है कि 26/11 हमले में शामिल आतंकवादियों ने समुद्री रास्ते से ही मुम्बई में प्रवेश कर हमले को अंजाम दिया था, जिससे तटीय सुरक्षा की कई कमज़ोरियाँ सामने आईं।
- मुम्बई हमले जैसे खतरनाक हमलों को रोकने के लिये आई.एम.ए.सी. का निर्माण किया गया।
- सूचना प्रबंधन और विश्लेषण केंद्र (Information Management and Analysis Centre –IMAC)
- आई.एम.ए.सी. की स्थापना वर्ष 2014 में की गई थी। इसका मुख्यालय गुरुग्राम में स्थित है। यह संस्थान समुद्री सुरक्षा से सम्बंधित जानकारी के एकत्रीकरण और प्रसार के लिये नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करता है।
- आई.एम.ए.सी. को भारतीय नौसेना तथा तटरक्षक बल द्वारा सयुंक्त रूप से संचालित किया जाता है। यह संस्थान भारत के हितों से सम्बंधित समुद्री यातायात की निगरानी के लिये राष्ट्रीय कमान नियंत्रण, संचार एवं खुफिया नेटवर्क की आधारशिला है।
सूचना प्रबंधन और विश्लेषण केंद्र के कार्य
- यह विभिन्न राष्ट्रीय हितधारकों के मध्य समुद्री सुरक्षा से सम्बंधित सूचनाओं के आदान-प्रदान करता है तथा सामान्य संचालन तंत्र के विकास पर भी बल देता है।
- चूँकि समुद्री क्षेत्र में खतरे अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति के होते हैं इसलिये आई.एम.ए.सी. द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्रोतों से भी आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं।
- आई.एम.ए.सी. केवल ग़ैर सैन्य या वाणिज्यिक जहाज़ों की निगरानी करता है, जिन्हें वाइट शिपिंग के रूप में जाना जाता है। सैन्य जहाज़ों को एक वर्गीकृत नेटवर्क के माध्यम से नौसेना संचालन निदेशालय द्वारा ट्रैक किया जाता है।
- आई.एम.ए.सी. हिन्द महासागर क्षेत्र (IOR) से गुजरने वाले जहाज़ों की निगरानी करता है तथा इस क्षेत्र से गुजरते समय जहाज़ एक स्वचालित पहचान प्रणाली (Automatic Identification System – AIS) को संकेत प्रेषित करते हैं, जिसमें जहाज़ के लिये मार्ग, गंतव्य, राष्ट्रीयता और स्वामित्व आदि की जानकारी शामिल होती है।
- अगर किसी जहाज़ ने अपनी पहचान बदल ली है या वह किसी देश में कानूनी प्रवर्तन से सम्बंधित मुद्दों में शामिल है तो आई.एम.ए.सी. इसकी भी जाँच करने में सक्षम है।
अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदु
- हिंद महासागर क्षेत्र सबसे व्यस्त समुद्री मार्ग है जो 7500 नॉटिकल मील लम्बे तथा 5500 नॉटिकल मील चौड़े क्षेत्र में फैला हुआ है तथा इसमें 35 देश शामिल हैं।
- भारतीय नौसेना समग्र समुद्री सुरक्षा (तटीय और अपतटीय) के लिये ज़िम्मेदार है। साथ ही, तटरक्षा बल, राज्य समुद्री पुलिस तथा अन्य एजेंसियों द्वारा समुद्री सुरक्षा में सहायता प्रदान की जाती है।
- 26/11 हमले के बाद वर्ष 2009 में सुरक्षा मामलों की मंत्रीमंडलीय समिति ने तटरक्षक बल को क्षेत्रीय स्तर पर तटीय सुरक्षा के लिये ज़िम्मेदार प्राधिकारी के रूप में नामित किया था
नोट : सूचना प्रबंधन और विश्लेष्ण केंद्र का नाम बदलकर नेशनल मेरीटाइम डोमेन अवेयरनेस सेंटर किया जाना प्रस्तावित है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : भारतीय अर्थव्यवस्था तथा औद्योगिक नीति में परिवर्तन आदि
विषय- बैंकिंग उद्योग में औद्योगिक घरानों के प्रवेश की सिफारिश
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, भारतीय रिज़र्व बैंकके आंतरिक कार्यदल (IWG) ने बड़े कॉर्पोरेट/औद्योगिक घरानों को बैंक लाइसेंस देने सिफारिश की है।
- आई.डब्ल्यू.जी. का गठन ‘भारतीय निजी क्षेत्र के बैंकों के लिये मौजूदा स्वामित्व, दिशानिर्देशों और कॉर्पोरेट संरचना की समीक्षा’ के लिये किया गया था।
बैंकिंग उद्योग में औद्योगिक घरानों के प्रवेश के विचार की पृष्ठभूमि
- कॉर्पोरेट घरानों को बैंकिंग क्षेत्र में अनुमति देने का विचार नया नहीं है। फरवरी 2013 में आर.बी.आई. ने औद्योगिक घरानों को भी बैंकिंग लाइसेंस के लिये आवेदन करने की अनुमति देने के लिये दिशानिर्देश जारी किये थे।
- हालाँकि, इसके लिये कुछ आवेदन प्राप्त होने के बावजूद अंततः किसी भी कॉर्पोरेट घराने को बैंक लाइसेंस नहीं दिया गया और केवल दो संस्थाएँ आई.डी.एफ.सी. और बंधन फाइनेंशियल सर्विसेज लाइसेंस के योग्य पाई गईं।
- वर्ष 2014 में आर.बी.आई. ने कॉर्पोरेट घरानों के बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश को पुन: रोक दिया। इस विषय पर आर.बी.आई. की स्थिति वर्ष 2014 से अपरिवर्तित ही रही है। विदित है कि वर्ष 2014 में आर.बी.आई. के गवर्नर रघुराम राजन थे।
- इससे पूर्व वर्ष 2008 में रघुराम राजन की अध्यक्षता वाली ‘वित्तीय क्षेत्र सुधार समिति’ के अनुसार औद्योगिक घरानों को बैंकिंग की अनुमति देना अपरिपक्वता है और यह वर्तमान स्थिति के अनुरूप नहीं है।
जोखिम की चिंता
- आंतरिक कार्यदल की रिपोर्ट कॉर्पोरेट घरानों के बैंकिंग उद्योग में प्रवेश के लाभ और हानि की तुलना करती है। तर्क है कि कॉर्पोरेट घरानों के प्रवेश से बैंकिंग क्षेत्र में पूंजी और विशेषज्ञता का प्रवाह होगा। विश्व भर में कई जगह पर कॉर्पोरेट घरानों को बैंकिंग उद्योग में प्रवेश की अनुमति प्राप्त है।
- हालाँकि, नकारात्मक जोखिम की समस्या अत्यधिक चिंता का विषय है। प्रमुख चिंता अंत:सम्बद्ध व पारस्परिक उधारी (Interconnected Lending), आर्थिक शक्ति के संकेंद्रण और अर्थव्यवस्था के वाणिज्यिक क्षेत्रों के लिये बैंकों (जमा की गारंटी के माध्यम से) को प्रदान किये गए सुरक्षा जाल का जोखिम है।
- ‘इंटरकनेक्टेड लेंडिंग’ एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है जहाँ किसी बैंक का प्रमोटर स्वयं उधारकर्ता भी होता है और इस प्रकार, एक प्रमोटर के लिये जमाकर्ताओं के धन को स्वयं के उपक्रम के लिये उपयोग करना सम्भव हो जाता है। इसके हालिया उदाहरण आई.सी.आई.सी.आई, यस बैंक व डी.एच.एफ.एल. आदि हैं।
- इंटरकनेक्टेड लेंडिंग को ट्रेस करना भी एक चुनौती है। साथ ही, कॉरपोरेट घराने कानून प्रवर्तन एजेंसियों के कार्यों में बाधा डालने के लिये अपनी राजनीतिक पहुँच का भी प्रयोग कर सकते हैं।
- एक मुद्दा आर.बी.आई. द्वारा इंटरकनेक्टेड लेंडिंग पर रोक लगाने से सम्बंधित प्रतिक्रिया से सम्बंधित है। आर.बी.आई. द्वारा की जाने वाली कोई भी कार्रवाई सम्बंधित बैंक से जमा राशि की निकासी और इसकी विफलता का कारण बन सकती है।
- इसके अतिरिक्त आर.बी.आई. केवल पूर्व में दिये गए ऋण पर ही कोई कार्रवाई कर सकता है अतः इसमें इस तरह के जोखिम को रोक पाने की सम्भावना लगभग न के बराबर है।
- कॉर्पोरेट घराने स्वयं के व्यवसायों के लिये बैंकों को आसानी से धन के एक स्रोत में बदल सकते हैं। साथ ही, सहयोगियों को लाभ पहुँचाने के लिये वे अपने अनुसार धनराशि का इस्तेमाल कर सकते हैं।
- इसके अतिरिक्त, बैंकों को किसी कॉर्पोरेट घराने से जोड़ने से आर्थिक शक्ति के संकेन्द्रण में वृद्धि होगी।
नियामक की साख
- शक्तिशाली कॉर्पोरेट घरानों के खिलाफ नियामक संस्थाओं को खड़ा करने से उनकी छवि को नुकसान हो सकता है। नियामकों पर नियमों से समझौता करने का काफी दबाव होगा और इस प्रक्रिया में इसकी विश्वसनीयता को आघात पहुँचेगा।
- ऐसे कई कॉर्पोरेट घराने हैं जो पहले से ही गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों (NBFC) के माध्यम से बैंकिंग गतिविधियों में संलग्न हैं। वर्तमान नीति के तहत 10 वर्ष के सफल ट्रैक रिकॉर्ड वाले एन.बी.एफ.सी. को बैंकों में बदलने की अनुमति है। यह कॉर्पोरेट घरानों के बैंकिंग में प्रवेश करने का एक आसान मार्ग है।
- कॉर्पोरेट घराने द्वारा किसी बैंक के स्वामित्व और एन.बी.एफ.सी. के स्वामित्व में काफी अंतर होता है। बैंक का स्वामित्व सार्वजनिक सुरक्षा नेट तक पहुँच प्रदान करता है जबकि एन.बी.एफ.सी. के स्वामित्व में ऐसा नहीं है। बैंक स्वामित्व द्वारा प्राप्त पहुँच और शक्ति एन.बी.एफ.सी. की तुलना में काफी अधिक होती है। अत: दोनों के संचालनगत अंतर को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये।
निजीकरण की ओर इशारा
- कॉर्पोरेट घरानों के लिये वास्तविक आकर्षण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के अधिग्रहण की सम्भावना से सम्बंधित है, जिनकी साख हाल के वर्षों में खराब हुई है।
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी की आवश्यकता है जिसे सरकार प्रदान करने में असमर्थ है। इस प्रकार बैंकिंग उद्योग में कॉर्पोरेट घरानों का प्रवेश निजीकरण की सम्भावना में वृद्धि करेगा।
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को कॉर्पोरेट घरानों को बेचने या उसकी हिस्सेदारी में वृद्धि होने से वित्तीय स्थिरता को लेकर गम्भीर चिंताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
निष्कर्ष
- कॉर्पोरेट घरानों को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश देने से पहले आर.बी.आई. से अंत:सम्बद्ध व पारस्परिक ऋणों से निपटने के लिये एक कानूनी ढाँचे से सुसज्जित होना होगा।
- भारत के संदर्भ में इंटरकनेक्टेड लेंडिंग के जोखिमों से निपटने के लिये कानूनी ढाँचे के निर्माण और निगरानी तंत्र के साथ-साथ अतिरिक्त उपायों की भी आवश्यकता है।
- कॉर्पोरेट घरानों के लेन-देन की निगरानी के लिये विभिन्न कानून प्रवर्तन एजेंसियों को और अधिक मज़बूत और एकीकृत किये जाने की आवश्यकता है।
मुख्य परीक्षा, प्रश्नपत्र– 3 : समावेशी विकास
विषय-सतत् विकास लक्ष्य निवेश मानचित्र
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, यू.एन.डी.पी. तथा इंवेस्ट इंडिया (भारत सरकार की निवेश प्रोत्साहन इकाई) द्वारा भारत के लिये सतत् विकास लक्ष्य निवेश मानचित्र (एस.डी.जी. इंवेस्टर मैप) जारी किया गया है।
एस.डी.जी. निवेश मानचित्र
- एस.डी.जी. निवेश मानचित्र में सतत् विकास लक्ष्यों के सबसे महत्त्वपूर्ण निवेश अवसर वाले क्षेत्रों (Investor Opportunity Areas – IOAs) को चिन्हित किया गया है।
एस.डी.जी. निवेश मानचित्र की मुख्य विशेषताएँ
- निवेश मानचित्र में निवेश अवसर वाले कुछ क्षेत्र पहले से ही परिपक्व हैं, जिनकी प्राइवेट इक्विटी और उद्यम पूंजी आधार काफी मज़बूत है। इन क्षेत्रों में संलग्न इकाइयों में निवेश से लाभ की अधिक सम्भावनाएँ हैं।
- निवेश मानचित्र मे निवेशकों के आकर्षण वाले कुछ ऐसे क्षेत्रों को चिन्हित किया गया है जिनमें आगामी 5-6 वर्षों में आई.ओ.ए. बनने की क्षमता है। लेकिन इन क्षेत्रों को वाणिज्यिक रूप से आकर्षक बनाने के लिये नीतिगत समर्थन तथा भागीदारी की आवश्यकता है।
- इस मानचित्र में सार्वजानिक क्षेत्र की प्राथमिकताओं तथा निजी क्षेत्र के हितों के मध्य अंतर के कारणों की चर्चा करते हुए यह भी बताया गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि तथा सम्बद्ध गतिविधियाँ, नवीकरणीय तथा वैकल्पिक ऊर्जा एवं स्थाई पर्यावरण जैसे क्षेत्रों के लिये सार्वजानिक क्षेत्र के समर्थन तथा निजी क्षेत्र के निवेश को किस प्रकार एक साथ लाया जा सकता है।
- निवेश वाले महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में ऑनलाइन एजुकेशन सप्लीमेंट्री फॉर K-12, किसानों के लिये इनपुट/आउटपुट से सम्बंधित आवश्यकताओं एवं उनकी फसल की बाज़ार तक सहज पहुँच के लिये डिजिटल प्लेटफॉर्म और सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों तथा निम्न आय समूहों की आय सृजन एवं ऋण तक पहुँच को सुगम बनाने के लिये डिजिटल प्लेटफॉर्म को शामिल किया गया है।
- निवेश मानचित्र में सतत् विकास लक्ष्यों में से संधारणीय विकास के साथ-साथ वाणिज्यिक लाभ प्राप्ति के लिये निवेश वाले क्षेत्रों में मुख्य रूप से रोज़गार सृजन, औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने, समावेशी बिज़नेस मॉडल तथा डिजिटल प्रौद्योगिकी जैसे व्यापक परिवर्तन लाने वाले क्षेत्रों को चिन्हित किया गया है।
- निवेश मानचित्र में 80% से अधिक निवेश वाले क्षेत्रों में निवेश की समय सीमा का निर्धारण अल्पावधि (5 वर्ष से कम) तथा मध्यम अवधि (5 से 15 वर्ष) के आधार पर किया गया है।
- उपरोक्त सभी क्षेत्रों का चयन एक सघन विश्लेषण प्रक्रिया द्वारा किया गया है। साथ ही, निवेश मानचित्र को और बेहतर बनाने के लिये प्रमुख घरेलू निवेशकों, सरकारी हितधारकों तथा कुछ महत्त्वपूर्ण थिंक टैंक्स के मध्य व्यापक विचार विमर्श किया जा रहा है।
सतत् विकास क्षेत्रों में निवेश की आवश्यकता
- उच्च स्तरीय विकास लक्ष्यों की प्राप्ति तथा वाणिज्यिक लाभ के बीच की खाई को पाटने हेतु सतत् विकास लक्ष्यों के सक्षम क्षेत्रों तथा निवेश अवसर वाले क्षेत्रों में निवेश किये जाने की आवश्यकता है।
- सतत् विकास लक्ष्यों में निवेश पर बल देने से रोज़गार क्षमता में वृद्धि तथा प्रौद्योगिकी के माध्यम से संवेदनशील समुदायों का समावेशन सुनिश्चित हो सकेगा।
महत्त्व
- वैश्विक स्तर पर सतत् विकास लक्ष्यों की सफलता निर्धारित करने में भारत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। निवेश के लिये सक्षम क्षेत्रों का निर्धारण करने से भारत को सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के साथ-साथ आर्थिक लाभ अर्जित करनें में भी सहायता मिलेगी।
- इस निवेश मानचित्र के डाटा समर्थित अनुसंधान तथा अंतर्दृष्टि से सतत् विकास लक्ष्यों के वित्तपोषण के अंतर को कम करने के तरीकों को समझने में मदद मिलेगी।
- इस मानचित्र की सहायता से नीति स्तर में हस्तक्षेप के माध्यम से निजी क्षेत्र के निवेशकों को एस.डी.जी. की प्राप्ति के लिये एक सकारात्मक वातावरण उपलब्ध हो सकेगा।
- एस.डी.जी. के महत्त्वपूर्ण सक्षम क्षेत्रों में निवेश से भारत की अर्थव्यवस्था तथा समाज में और अधिक मज़बूती तथा स्थिरता आएगी।
निष्कर्ष
यह निवेश मानचित्र भारत के लिये एक अनुकूल नीतिगत वातावरण तथा उच्च विकास के व्यावसायिक अवसरों के निर्माण में सराहनीय पहल है। सतत् विकास लक्ष्यों को निजी क्षेत्र की प्रमुख पहल के रूप निर्धारित करने के लिये एक रणनीतिक आंदोलन की आवश्यकता है।
सयुंक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम
- सयुंक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (United Nations Development Programme-UNDP) गरीबी उन्मूलन तथा असमानता को कम करने के लिये 170 देशों में कार्यरत है। इसकी स्थापना वर्ष 1965 में हुई थी तथा इसका मुख्यालय न्यूयॉर्क (अमेरिका) में स्थित है।
- यह संगठन सदस्य देशों को नेतृत्व कौशल, भागीदारी तथा संस्थागत क्षमताएँ एवं आपदा न्यूनीकरण की क्षमताओं को विकसित करने की दिशा में सहायता प्रदान करता है।
- भारत में यू.एन.डी.पी. वर्ष 1951 से लगभग सभी क्षेत्रों में कार्यरत है। इनमें मुख्य रूप से लोकतांत्रिक प्रशासन, गरीबी उन्मूलन, संवहनीय ऊर्जा तथा पर्यावरणीय प्रबंधन शामिल हैं।
- यू.एन.डी.पी. के कार्यक्रम राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप होते हैं तथा प्रत्येक वर्ष समीक्षा करने के बाद इन कार्यक्रमों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जाता है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र–3 : विषय – संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–मियावाकी पद्धति
चर्चा में क्यों?
- जापान की मियावाकी पद्धति से प्रेरणा लेते हुए भारत में भी वनों की नई शृंखलाओं पर विभिन्न राज्यों द्वारा काम किया जा रहा है। इस पद्धति द्वारा निर्मित वनों को मियावाकी वन कहा जाता है।
मियावाकी पद्धति (MIYAWAKI METHOD)
- यह वनरोपण की एक विशेष पद्धति है, जिसकी खोज अकीरा मियावाकी नामक जापान के एक वनस्पतिशास्त्री ने की थी। इसमें छोटे-छोटे स्थानों पर छोटे-छोटे पौधे रोपे जाते हैं, जो साधारण पौधों की तुलना में दस गुनी तेज़ी से बढ़ते हैं।
- वर्ष 2014 में मियावाकी ने इसी पद्धति का प्रयोग करते हुए हिरोशिमा के समुद्री तट के किनारे पेड़ों की एक दीवार खड़ी कर दी थी, जिससे न सिर्फ शहर को सुनामी से होने वाले नुकसान से बचाया जा सका था, बल्कि दुनिया के सामने एक उदाहरण भी पेश किया गया कि किस प्रकार हम इन विशेष तकनीकों के माध्यम से बड़े खतरों को रोक सकते हैं।
- यह पद्धति विश्व-भर में लोकप्रिय है और इसने शहरी वनरोपण की संकल्पना में क्रांति ला दी है। दूसरे शब्दों में, इस पद्धति ने घरों और परिसरों को उपवन में परिवर्तित कर दिया है। चेन्नई में भी यह पद्धति अपनाई जा चुकी है।
क्या है यह तकनीक?
- इस तकनीक में 2 फीट चौड़ी और 30 फीट लम्बी पट्टी में 100 से भी अधिक पौधे रोपे जा सकते हैं।
- पौधे पास-पास लगाने से उन पर मौसम की मार का विशेष असर नहीं पड़ता और गर्मियों के दिनों में भी पौधों के पत्ते हरे बने रहते हैं। पौधों की वृद्धि भी तेज़ गति से होती है।
- कम स्थान में लगे पौधे एक ऑक्सीजन बैंक की तरह काम करते हैं और बारिश को आकर्षित करने में भी सहायक होते हैं।
- एक प्राकृतिक वन को विकसित होने में 100 साल लगते हैं। लेकिन चूँकि मियावाकी पद्धति में, पौधों को सूर्य के प्रकाश के लिये प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है अतः इस पद्धति में पौधे तेज़ी से बढ़ते हैं, और 20-25 वर्षों में ही परिणाम प्राप्त होने लगता है।
- इस तकनीक का इस्तेमाल केवल वन क्षेत्र में ही नहीं बल्कि घरों के गार्डन में भी किया जा सकता है।
भारत में मियावाकी पद्धति के अनुप्रयोग
- विगत कुछ वर्षों में, नगरपालिकाओं की सक्रियता तथा पर्यावरणविदों के अथक प्रयासों से मियावाकी वन परियोजनाएं पूरे देश में प्रसिद्ध हो रही हैं।
- तेलंगाना राज्य सरकार, घने वृक्षारोपण की ‘यादाद्री’ पद्धति (Yadadri’ method) का प्रयोग कर रही है, जिसके कारण वारंगल में सकरात्मक परिणाम सामने आए हैं।
- इस क्रम में तमिलनाडु में, हरित योद्धा (green warriors) भी इस प्रकार के वन मॉडल को विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे न सिर्फ स्थानीय पारिस्थितिकी में सुधार आएगा बल्कि किसानों की आय का एक नया विकल्प भी खुलेगा।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3 : विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ; देशज रूप से प्रौद्योगिकी का विकास और नई प्रौद्योगिकी का विकास
विषय–‘डीप ओशन मिशन‘
- सागरों, महासागरों के जल के नीचे की दुनिया के खनिज, ऊर्जा और समुद्री विविधता की खोज के उद्देश्य से भारत जल्द ही एक महत्वाकांक्षी ‘डीप ओशन मिशन’ की शुरुआत करने वाला है। ध्यातव्य है कि महासागरों के नीचे की दुनिया का एक बड़ा भाग अभी तक गैर-अन्वेषित है, जिसके बारे में व्यापक शोध और अध्ययन किया जाना अभी बाकी है।
डीप ओशन मिशन (DOM)
नोडल एजेंसी: पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES)
- अंडरवाटर रोबोटिक्स (Underwater robotics) और ‘मानवयुक्त’ सबमर्सिबल (manned’ submersibles), डीप ओशन मिशन के प्रमुख घटक हैं जो विभिन्न संसाधनों (जल, खनिज और ऊर्जा) का सीबेड और गहरे पानी से दोहन करने में भारत की मदद करेंगे।
- इस दौरान किये जाने वाले कार्यों में गहरे समुद्र में खनन (deep-sea mining), सर्वेक्षण, ऊर्जा स्रोतों की खोज और अपतटीय विलवणीकरण शामिल हैं।
- इस प्रकार की तकनीकी विकास से जुड़ी अभिक्रियाओं को सरकार की अम्ब्रेला योजना- ओ-स्मार्ट (Ocean Services, Technology, Observations, Resources Modelling and Science) के तहत वित्त पोषित किया जाता है।
पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स (Polymetallic Nodules- PMN)
- मिशन का एक प्रमुख उद्देश्य पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स (PMN) का अन्वेषण और निष्कर्षण (Extraction) करना है।
- पी.एम.एन. संरचना में छोटे आलू के सामान होते हैं और मुख्यतः मैंगनीज़, निकल, कोबाल्ट, कॉपर और आयरन हाइड्रॉक्साइड जैसे खनिजों से बने होते हैं।
- ये हिंद महासागर में लगभग 6000 मीटर की गहराई पर बिखरे हुए हैं और इनका आकार कुछ मिमी. से कुछ सेमी. तक का हो सकता है।
- पी.एम.एन. से प्राप्त धातुओं का प्रयोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, स्मार्टफोन, बैटरी और सौर पैनलों में भी किया जाता है।
समुद्री अन्वेषण और उत्खनन
- अंतर्राष्ट्रीय समुद्रतल अधिकरण (International Seabed Authority – ISA), एक स्वायत्त अंतर्राष्ट्रीय संगठन है, जो वर्ष 1982 में समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र के अभिसमय (United Nations Convention on the Law of the Sea) के तहत स्थापित किया गया था। यह संगठन गहरे समुद्र में खनन के लिये ‘क्षेत्रों’ को आवंटित करता है।
- भारत वर्ष 1987 में ‘पायनियर इंवेस्टर’ का दर्जा प्राप्त करने वाला पहला देश था। नोडल अन्वेषण के लिये भारत को मध्य हिंद महासागर बेसिन (Central Indian Ocean Basin – CIOB) में लगभग 1.5 लाख वर्ग किमी का क्षेत्र दिया गया था।
- वर्ष 2002 में, भारत ने आई.एस.ए. के साथ एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किये और समुद्री क्षेत्र के सम्पूर्ण संसाधनों के अध्ययन के बाद भारत ने 50% क्षेत्र को छोड़ दिया और केवल 75,000 वर्ग किमी. के क्षेत्र को अन्वेषण के लिये रखा।
समुद्री उत्खनन की दौड़ में शामिल अन्य देश
- सी.आई.ओ.बी. के अलावा, केंद्रीय प्रशांत महासागर में भी पॉलीमेट्रिक नोड्यूल्स को पाया गया है। इसे क्लेरियन–क्लिपर्टन ज़ोन (Clarion-Clipperton Zone) के रूप में जाना जाता है।
- आई.एस.ए. की वेबसाइट के अनुसार, आई.एस.ए. ने 29 देशों व द्वीप समूहों के साथ समुद्र में पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स, पॉलीमेटेलिक सल्फाइड और कोबाल्ट–समृद्ध फेरोमैंगनीज़ क्रस्ट्स (cobalt-rich ferromanganese crusts) की खोज के लिये 15 साल का अनुबंध किया है।
- हाल ही में इस अनुबंध को वर्ष 2022 तक के लिये बढ़ा दिया गया था।
- चीन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, दक्षिण कोरिया, रूस और कुछ छोटे द्वीप जैसे कुक आइलैंड, किरिबाती आदि भी समुद्री उत्खनन की दौड़ में शामिल हैं।
- इनमें से अधिकांश देशों ने उथले/छिछले पानी में अपनी प्रौद्योगिकियों का परीक्षण किया है और अभी तक गहरे समुद्र में निष्कर्षण शुरू नहीं किया है।
भारत की तैयारी
- भारत का मुख्य खनन व अन्वेषण क्षेत्र लगभग 5,500 मीटर की गहराई पर स्थित है, जहां दबाव अत्यंत उच्च और तापमान अत्यंत कम है।
- भारत ने अपने अध्ययन के अनुसार मध्य हिंद महासागर बेसिन के खनन क्षेत्र में 6,000 मीटर की गहराई पर सुदूर संचालित वाहन (Remotely Operated Vehicle) और इन-सीटू सॉइल टेस्टर को भी तैनात किया है।
- नोड्यूल्स को सतह पर कैसे लाया जाए, यह समझने के लिये भारत द्वारा और परीक्षण किये जा रहे हैं।
पर्यावरणीय प्रभाव
- आई.यू.सी.एन. के अनुसार, ये गहरे दूरस्थ स्थान कई विशेष समुद्री प्रजातियों के घर भी हो सकते हैं, जो उन क्षेत्रों की विशेष परिस्थितियों के लिये अनुकूलित होंगें और इस प्रकार के खनन कार्यों से उनकी प्रजाति और उनके निवास स्थान पर खतरा उत्पन्न हो सकता है।
- गहरे समुद्र की जैव विविधता और पारिस्थितिकी को अभी तक उचित तरीके से समझा नहीं जा सका है, जिससे पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करना और खनन के लिये ज़रूरी दिशा-निर्देशों को तैयार करना मुश्किल हो जाता है।
- हालाँकि खनन के लिये सख्त दिशा-निर्देशों को तैयार किया गया है लेकिन वे केवल अन्वेषण से जुड़े हैं। समुद्री दोहन से जुड़े सख्त दिशा-निर्देशों पर अभी भी काम किया जाना बाकी है।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-3– सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष, कंप्यूटर, रोबोटिक्स, नैनो–टैक्नोलॉजी, बायो–टैक्नोलॉजी और बौद्धिक संपदा अधिकारों से संबंधित विषयों के संबंध में जागरुकता।
विषय– चंद्र अन्वेंषण यान : ‘चांग’ई-5’
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, चीन ने चंद्र अन्वेंषण मिशन के रूप में ‘चांग’ई-5’ यान को लॉन्च किया है। यह एक ‘लूनर सैम्पल रिटर्न मिशन’ है।
पृष्ठभूमि
- यह विगत चार दशकों में चंद्रमा के अभी तक गैर-अन्वेषित हिस्से से चट्टानों के नमूनों को लाने वाला पहला अन्वेंषण मिशन बन जाएगा।
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2019 के प्रारम्भ में चीन के चंद्र अन्वेंषण मिशन के अंतर्गत ‘चांग’ई-4’ द्वारा चंद्रमा के सुदूर हिस्से या अंधेरे वाले हिस्से की छवियों को सफलतापूर्वक प्रेषित किया था।
- चंद्रमा के इस हिस्से में उतरने वाला यह पहला अन्वेंषण यान था।
चांग‘ई–5 यान
- चांग’ई-5 अंतरिक्ष यान चंद्रमा से चट्टानों के नमूनों को लाने के लिये ‘चीनी राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन’ (CNSA) के अन्वेंषण मिशन का एक हिस्सा है। इस अंतरिक्ष यान को ‘लॉन्ग मार्च-5 वाई5’ (Long March-5 Y5) रॉकेट से चीन के हैनान द्वीप पर स्थित वेनचांग अंतरिक्ष प्रक्षेपण केंद्र से लॉन्च किया गया है।
- इसका नामकरण चीन में प्रसिद्ध चंद्रमा देवी के नाम पर रखा गया है, जो पारम्परिक रूप से एक सफेद खरगोश के साथ होती है।
लक्ष्य
- यह यान चंद्रमा के मॉन्स रुमर क्षेत्र (Mons Rumker Region) में लैंड करेगा, जहाँ यह एक चंद्र दिवस के लिये संचालित होगा। विदित है कि एक चंद्र दिवस की अवधि लगभग दो सप्ताह की होती है।
- इस यान में एक मून ऑर्बिटर, एक लैंडर और एक असेंडर (Ascent Probe) शामिल है, जो चंद्रमा से प्राप्त नमूनों को कक्षा में वापस ले जाएगा और उन्हें पृथ्वी पर भेजेगा।
- चांग’ई-5 एक रोबोटिक आर्म, एक कोरिंग ड्रिल व एक सैम्पल चैम्बर के साथ-साथ एक कैमरा, रडार तथा एक स्पेक्ट्रोमीटर से सुसज्जित है। इस अंतरिक्ष यान के 15 दिसम्बर के आस-पास पृथ्वी पर लौटने की उम्मीद है।
- यह यान चंद्रमा की सतह पर सम्भवतः 2 मीटर गहरी खुदाई करके चंद्रमा की चट्टान का लगभग 2 किलोग्राम नमूना लेकर वापस लौटेगा।
लूनर सैम्पल से प्राप्त होने वाली जानकारी
- नासा के अनुसार, चंद्रमा से प्राप्त नमूने चंद्र विज्ञान और खगोल विज्ञान में महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को सुलझाने तथा उत्तरों को जानने में मदद कर सकते हैं।
- इनमें चंद्रमा की आयु, चंद्रमा का निर्माण व गठन, पृथ्वी तथा चंद्रमा के भूगर्भिक विशेषताओं व इतिहास के बीच समानताएँ एवं असमानताएँ शामिल हैं।
- साथ ही, इसमें इस बात का भी अन्वेंषण किया जाएगा कि क्या चंद्रमा वैज्ञानिकों को सौर मंडल के बारे में जानकारी प्रदान कर सकता है। उदहारणस्वरूप, किसी चट्टान में विशिष्ट कंकड़ों व क्रिस्टलों की आकृति, माप, गठन और संरचना वैज्ञानिकों को इसके इतिहास के बारे में बता सकती है, जबकि रेडियोधर्मी घड़ी चट्टानों की आयु के बारे में जानकारी दे सकती है।
- इसके अतिरिक्त, चट्टानों में छोटी दरारें पिछले 100,000 वर्षों में सूर्य के विकिरण इतिहास के बारे में जानकारी उपलब्ध करवा सकती हैं।
- ‘लूनर एंड प्लानेट्री इंस्टिट्यूट’ के अनुसार, चंद्रमा पर पाई जाने वाली चट्टानें पृथ्वी पर पाई जाने वाली चट्टानों से पुरानी हैं और इसलिये वे पृथ्वी और चंद्रमा के साझा इतिहास के बारे में जानकारी प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण हैं।
पूर्व के प्रयास
- चंद्रमा से चट्टानों का पहला नमूना अपोलो-11 मिशन के दौरान एकत्रित किया गया था।
- वर्ष 1970 में सोवियत संघ का लूना-16 अन्वेंषण मिशन चंद्रमा से लगभग 100 ग्राम वजनी नमूना लेकर लौटा था। इसके बाद अपोलोनियस हाइलैंड्स क्षेत्र से भी मिट्टी का नमूना लाया गया था। इन दोनों ही मामलों में मिट्टी के नमूने चंद्रमा की सतह से कुछ सेंटीमीटर नीचे से ही लिये गए थे।
- वर्ष 1976 में लूना-24 ने चंद्रमा की सतह से 2 मीटर नीचे से 170 ग्राम से अधिक वजन का एक नमूना एकत्र किया था।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-3– आपदा और आपदा प्रबंधन।
विषय-ठोस अपशिष्ट प्रबंधन
संदर्भ
- हाल ही के कुछ वर्षों में शहरी भारत में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन एक व्यापक चुनौती बनकर उभरा है।
- ठोस अपशिष्ट का अनुचित प्रबंधन तथा निपटान के कारण भूक्षरण तथा खतरनाक गैसों के रिसाव से पर्यावरण और सार्वजानिक स्वास्थ्य के लिये गम्भीर खतरा उत्पन्न होता है।
- संविधान की 12वीं अनुसूची के अनुसार शहरों तथा कस्बों की साफ़-सफाई का उत्तरदायित्व शहरी स्थानीय निकाय का होता है।
समस्याएँ
- सम्पूर्ण भारत में, ठोस कचरे के संग्रहण, परिवहन और निपटान हेतु मौजूदा प्रणालियाँ कई समस्याओं का सामना कर रही हैं; यह समस्या भारत के शहरी क्षेत्रों में काफी गम्भीर है। शहरी आबादी द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में तथा तेज़ी से ठोस कचरा उत्पन्न किया जा रहा है, शहरी स्थानीय निकाय इस ठोस कचरे का प्रबंधन तथा निपटान करने में असमर्थ हैं।
- अधिकांश शहरी स्थानीय निकाय बुनयादी ढाँचे की कमी से जूझ रहे हैं, जैसे- अकुशलता तथा संस्थागत क्षमता, वित्तीय समस्याएँ और इच्छाशक्ति की कमी आदि। इस प्रकार ये संस्थाएँ नवीन और उपयुक्त प्रौद्योगिकी को अपनाने में असमर्थ हैं।
- अपशिष्ट निपटान के तरीके को विनियमित करने हेतु विभिन्न कानून पारित किये गए हैं। पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) और आवास तथा शहरी मामलों के मंत्रालय (MoHUA) द्वारा ठोस अपशिष्ट तथा इससे सम्बंधित मुद्दों को हल करने हेतु विभिन्न नीतियाँ और कार्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। लेकिन इनमें से अधिकाँश नीतियों को लेकर हितधारकों के मध्य स्पष्टता तथा जागरूकता का अभाव है। साथ ही, नियामकों के ख़राब प्रदर्शन के कारण नीतियों के उद्देश्य सफलतापूर्वक हासिल नहीं हो पाते हैं।
- भारत में मुख्य रूप से अपशिष्ट निपटान के दो तरीके; अपशिष्ट डम्पिंग और ओपन बर्निंग हैं। इसमें ज़्यादातर शहर और कस्बों के बाहर के इलाकों में अपशिष्ट जमा करके निपटान किया जाता है, इससे स्वास्थ्य तथा पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
सरकार के प्रयास
- पर्यावरण मंत्रालय ने अप्रैल, 2016 में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 को अधिसूचित किया। अपशिष्ट के ये नियम नगरपालिका क्षेत्राधिकार से बाहर भी लागू होते हैं। इसमें अपशिष्ट के पुनः उपयोग तथा पुनः चक्रण हेतु विस्तृत तथा स्पष्ट रूप से प्रावधान किये गए हैं। साथ ही इन नए नियमों में खुले सार्वजानिक स्थानों, बाहरी परिसर, नालियों तथा जल निकायों में कूड़ा फेकने या जलाने पर कार्यवाही का प्रावधान किया गया है।
- पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2016 में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन, 2011 के नियमों को संशोधित किया। नए संशोधनों में ग़ैर पुनर्चक्रण बहुपरती प्लास्टिक, कैरी बैग तथा एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रेस्पोंसिबिलिटी (EPR) से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण प्रावधान किये गए हैं। प्लास्टिक कैरी बैग कूड़े-कचरे का सबसे बड़ा घटक है।
- सरकार द्वारा वर्ष 2014 में पाँच वर्ष की अवधि के लिये स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की गई, जिसका उद्देश्य वर्ष 2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्ति दिलाना था। इस मिशन के परिणाम संतोषजनक रहे हैं। साथ ही, मिशन के अंतर्गत लगातार नए तथा प्रभावशील कदम उठाए जा रहे हैं, जैसे स्वच्छता सर्वेक्षण, कचरा मुक्त शहरों की स्टार रेटिंग, कम्पोस्ट बनाओ-कम्पोस्ट अपनाओ आदि।
सुझाव
- शहरों ने अपनी भौगोलिक सीमा के अन्दर कचरे के विकेंद्रीकृत निपटान तथा उपचार हेतु योजनाओं पर कार्य करना शुरू कर दिया है। थ्री आर (रिड्यूस, रियूज़ तथा रिसाइकिल) और बायोमैथेनेशन प्लांटों के माध्यम से लैंडफिल साईटों पर दबाव कम किया जा सकता है।
- अपशिष्ट कचरे के पुनर्चक्रण हेतु व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली तकनीक वेस्ट टू एनर्जी (WtE) है। इसमें दहन के ज़रिये बिजली का उत्पादन किया जाता है लेकिन अधिकांश डब्ल्यू.टी.ई. सयंत्र परिचालन और डिज़ाइन सम्बंधी समस्याओं का सामना कर रहे हैं। तकनीक तथा निवेश के माध्यम से इन सयंत्रों का कुशल तथा प्रभावी परिचालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
- भारत में अपशिष्ट संग्रहण क्षमता में वृद्धि किये जाने की आवश्यकता है। साथ ही, संग्रहण प्रणाली में एकरूपता लाने तथा दक्षता बढ़ाने हेतु निजी भागीदारी तथा ग़ैर-सरकारी संगठनों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- भारत में समुचित नियोजन तथा परिष्कृत प्रक्रिया सुविधाओं के स्वदेशीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- दक्षिण कोरिया में खाद्य कचरे का अलग से पुनर्चक्रण करने का प्रावधान है। साथ ही, इस देश ने ‘नानजिदो रिकवरी प्रोजेक्ट’ की शुरुआत भी की है, जिसने खतरनाक अपशिष्ट स्थलों को सफलतापूर्वक आकर्षक स्थलों में परिवर्तित किया है।
निष्कर्ष
वर्तमान में तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण तथा औद्योगिकीकरण के कारण शहरों व कस्बों में ठोस अपशिष्ट की समस्या बढ़ती जा रही है, जो मानव स्वास्थ्य तथा पर्यावरण दोनों के लिये ही चुनौती उत्पन्न कर रही है। इस चुनौती से निपटने के लिये आवश्यक है कि ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की ऐसी प्रणाली को अपनाया जाए जो बेहतर ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में सहायक होने के साथ-साथ पर्यावरण के भी अनुकूल हो।
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र-3– संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन।
विषय-राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड : चुनौतियाँ तथा समाधान
संदर्भ
- प्रत्येक वर्ष विभिन्न प्रयासों के बावजूद पूरे देश में (विशेषकर दिल्ली तथा एन.सी.आर. में) प्रदूषण में कमी ना होने के कारण विभिन्न सामाजिक, आर्थिक तथा स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, इसलिये पर्यावरण प्रदूषण रोकथाम तथा नियंत्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली संस्था ‘राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ (SPCB) के कार्यों तथा चुनौतियों का मूल्यांकन करना आवश्यक है।
मूल्यांकन की आवश्यकता
- प्रदूषण संकट एक अत्यधिक जटिल तथा बहु-विषयक समस्या है जिसमें कई कारकों का योगदान है। इस संकट को दूर करने करने के लिये भारत में बहुत अधिक नियम, कानून और विशिष्ट एजेंसियाँ मौजूद हैं, परंतु इनका प्रभाव केवल कागज़ी कार्यवाही तक ही सीमित है।
- केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) का मुख्य कार्य नीति-निर्माण है जबकि इन नीतियों को लागू करने का कार्य एस.पी.सी.बी. द्वारा किया जाता है। हालाँकि एस.पी.सी.बी. को सी.पी.सी.बी. द्वारा पर्याप्त रूप से वित्तपोषित किया जाता है, फिर भी इसे कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की चुनौतियाँ
- वर्तमान में अधिकांश राज्य नियंत्रण बोर्ड कर्मचारियों की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं। उदहारण के लिये हरियाणा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड 70% कर्मचारियों की कमी के साथ कार्य कर रहा है इसलिये राज्य में प्रदूषण से सम्बंधित पर्याप्त निरीक्षण, निगरानी तथा नियंत्रण उपाय कार्यान्वित नहीं हो पाते हैं।
- प्रदूषण फैलाने या इसमें वृद्धि करने वाले व्यक्तियों तथा संस्थाओं पर उपयुक्त कार्यवाही करने के लिये एस.पी.सी.बी. के पास आवश्यक कानूनी कौशल की कमी है। वर्तमान में ज़िला एस.पी.सी.बी. कार्यालयों में इंजीनियरिंग स्नातक कर्मचारियों को आवश्यक कानूनी कागज़ी कार्रवाई हेतु वकीलों की भूमिका निभानी पड़ती है। इसलिये अदालतों में क्लर्क और अधीक्षक अक्सर क़ानूनी खामियों के चलते ऐसे मामलों को दर्ज करने से इनकार कर देते हैं।
- एस.पी.सी.बी. के अधिकारियों को विशेषज्ञता विकसित करने के पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते जिसके कारण इनमें में विशेषज्ञता का अभाव है।
- एस.पी.सी.बी. के समक्ष वित्त की कमी एक बड़ी समस्या है। एस.पी.सी.बी. के पास अधिकांश फंड ‘नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट’ (NOC) तथा ‘कार्यान्वयन सहमति’ के माध्यम से आते हैं अर्थात् बोर्ड के पास फंड सरकार द्वारा बजटीय आवंटन की बजाय उद्योगों तथा परियोजनाओं को अनुमति देने से आते हैं, जिसके कारण एस.पी.सी.बी. प्रशासन महत्त्वपूर्ण कार्यों पर खर्च करने में असमर्थ रहते हैं।
- कई बार एस.पी.सी.बी. के अधिकारियों को अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ सौंपी जाती है जबकि उनके ऊपर पहले से अधिक कार्यभार होता है।
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सशक्तिकरण हेतु सुझाव
- एस.पी.सी.बी. की कार्यप्रणाली का मूल्यांकन प्रमुख रूप से 4 समितियों द्वारा किया गया है-भट्टाचार्य समिति (1984), बेल्लियप्पा समिति (1990), ए.एस.सी.आई. अध्ययन (1994) तथा उप-समूह अध्ययन (1994).
- इन समितियों द्वारा अपने अध्ययनों में एस.पी.सी.बी. तथा सी.पी.सी.बी. के सन्दर्भ में मुख्य रूप से पर्याप्त वित्तीय समर्थन और नियुक्तियों के ज़रिये मानव संसाधन की पूर्ति , उद्योगों को प्रदूषण उत्सर्जन के आधार पर वर्गीकृत करना तथा उन्हें समय-समय पर संशोधित करना, आर्थिक प्रोत्साहन का उपयोग, आम जनता के बीच प्रदूषण रोकथाम से सम्बंधित जागरूकता का प्रसार करना आदि सुझाव दिये गए हैं।
निष्कर्ष
एस.पी.सी.बी. को आवश्यक वित्तीय तथा मानव संसाधन, आधुनिक उपकरण तथा प्रौद्योगिकी प्रदान करने के साथ ही स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अधिकार दिया जाना चाहिये।
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCB) :
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कार्य तथा उद्देश्य
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मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र – 3 : कृषि तथा ऊर्जा
विषय-ऊर्जा दक्षता
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, ऊर्जा दक्षता सेवा लिमिटेड– ई.ई.एस.एल. (विद्युत मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले सार्वजनिक उपक्रमों का एक संयुक्त उद्यम) ने देश की पहली अभिसरण (कन्वर्जेंस) परियोजना को गोवा में लागू करने के लिये नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा विभाग (डी.एन.आर.ई.) गोवा के साथ समझौता ज्ञापन (एम.ओ.यू.) पर हस्ताक्षर किये हैं।
मुख्य बिंदु
- इस परियोजना के तहत किसानों को स्वच्छ ऊर्जा के साथ-साथ कुशल ऊर्जा पम्प सेट भी उपलब्ध करवाए जाएंगे, जिससे बिजली की खपत को कम करने के अतिरिक्त कृषि और ग्रामीण क्षेत्र को बिजली पहुंचाने से जुड़े पारेषण व वितरण घाटे में भी कमी आएगी। इस पहल को कृषि क्षेत्र में सम्भावित नई हरित क्रांति की शुरुआत माना जा रहा है।
- समझौता ज्ञापन के तहत ई.ई.एस.एल. तथा डी.एन.आर.ई. व्यवहार्यता अध्ययन (Feasibility Studies) तथा उसके पश्चात विकेंद्रीकृत सौर ऊर्जा परियोजनाओं के कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करेंगे।
- ई.ई.एस.एल. सभी सौर ऊर्जा परियोजनाओं को कार्यान्वित करेगा। इसके अंतर्गत कृषि पम्पिंग हेतु उपयोग की जाने वाली सरकारी जमीनों पर 100 मेगावॉट वाली विकेंद्रीकृत सौर ऊर्जा परियोजनाओं की स्थापना की जाएगी।
- इसके तहत लगभग 6,300 कृषि पम्पों की जगह ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बी.ई.ई.) द्वारा स्टार रेटेड ऊर्जा दक्ष पम्पों को लगाया जाएगा। साथ ही ग्रामीण घरों हेतु लगभग 16 लाख एल.ई.डी. बल्ब भी वितरित किये जाएंगे।
- ध्यातव्य है कि जलवायु परिवर्तन वित्तपोषण सम्बंधित कार्यों में वर्तमान में ग्राम उजाला, विकेंद्रीकृत सौर और ग्राम पंचायत स्ट्रीट लाइट कार्यक्रम शामिल हैं।
लाभ
- ये परियोजनाएँ कृषि और ग्रामीण बिजली की खपत हेतु अक्षय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग में तेजी लाएंगी। साथ ही ऊर्जा कुशल पम्पिंग तथा उचित प्रकाश व्यवस्था के जरिये ऊर्जा की उच्च माँग को कम करने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देंगी, जिससे ऊर्जा क्षेत्र में समग्र रूप से स्थिरता स्थापित होगी।
- इससे वितरण कम्पनियों को दिन के समय बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करने तथा पारेषण के नुकसान को कम करने में मदद मिलेगी।
- इस मॉडल को अन्य राज्यों द्वारा अपनाए जाने से कृषि क्षेत्र में पानी के खर्च पर होने वाले नुकसान में अत्यधिक कमी आएगी।
- इन परियोजनाओं से सौर ऊर्जा, बैटरी भंडारण तथा कार्बन वित्तपोषण से जुड़े कई लाभों का मार्ग प्रशस्त होगा।
- इस अभिसरण पहल के माध्यम से डीकार्बोनाइजेशन करने और सस्ती ऊर्जा तक सभी की पहुँच सुनिश्चित होगी, जिससे ऊर्जा पारिस्थितिकी तंत्र में कई समस्याओं का समाधान हो सकेगा।
ई.ई.एस.एल.
- ऊर्जा दक्षता परियोजनाओं के कार्यान्वयन हेतु एन.टी.पी.सी. लिमिटेड, पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन, रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉर्पोरेशन और पावरग्रिड द्वारा एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज लिमिटेड (ई.ई.एस.एल.) की स्थापना एक संयुक्त उपक्रम के रूप में की गई।
- ई.ई.एस.एल. भारत में ऊर्जा दक्षता बाजार को उपयुक्त अवसर देने का प्रयास करती है। इसके नवीन अभिनव व्यवसाय और कार्यान्वयन मॉडल के माध्यम से सम्भावित रूप से 20% तक ऊर्जा की बचत हो सकती है।
- राज्य की विद्युत वितरण कम्पनियों (डिस्कॉम), विद्युत नियामक आयोग, आगामी ऊर्जा सेवा कम्पनी और वित्तीय संस्थानों आदि की क्षमता निर्माण हेतु संसाधन केंद्र के रूप में भी कार्य करता है।
ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बी.ई.ई.)
- ऊर्जा दक्षता ब्यूरो की स्थापना वर्ष 2002 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम 2001 के तहत की गई थी।
मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र – 3 –सीमावर्ती क्षेत्रों में सुरक्षा चुनौतियाँ एवं उनका प्रबंधन– संगठित अपराध और आतंकवाद के बीच संबंध।
विषय- चीन द्वारा माइक्रोवेव हथियारों का प्रयोग
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, एक समाचार पत्र ने दावा किया है कि चीनी सेना ने पूर्वी लद्दाख में भारतीय सैनिकों को उनकी जगह से हटाने के लिये ‘माइक्रोवेव हथियारों’ का इस्तेमाल किया था। यद्यपि भारतीय सेना ने इन दावों को ग़लत बताया है।
‘माइक्रोवेव हथियार’ क्या हैं?
- माइक्रोवेव हथियार एक प्रकार के प्रत्यक्ष ऊर्जा हथियार (Direct Energy Weapons- DEWs) होते हैं, जो अपने लक्ष्य को अत्यधिक केंद्रित ऊर्जा के रूपों (ध्वनि, लेज़र या माइक्रोवेव के रूप में) के द्वारा लक्षित करते हैं।
- इसमें उच्च-आवृत्ति के विद्युत चुम्बकीय विकिरण की बीम द्वारा मानव त्वचा को लक्षित किया जाता है, जिससे दर्द और असहजता होती है।
- इनकी तरंगदैर्ध्य एक मिमी. से लेकर एक मीटर तक होती है जबकि इनकी आवृत्ति 300 मेगाहर्ट्ज (100 सेंटीमीटर) और 300 गिगाहर्ट्ज (0.1 सेंटीमीटर) के बीच होती है।
- इन्हें हाई-एनर्जी रेडियो फ्रीक्वेंसी भी कहा जाता है।
- माइक्रोवेव जिस तरह से घर में काम करता है उसी तरह से ये हथियार भी काम करते हैं।
- इसमें एक मैग्नेट्रॉन होता है जो माइक्रोवेव तरंगें भेजता है। ये तरंगें जब किसी खाद्य पदार्थ से होकर गुज़रती हैं तो वो गर्मी पैदा करती हैं। ये हथियार भी इसी सिद्धांत पर काम करते हैं।
- इस तरह के हथियार बेहद घातक होते हैं। हालांकि, इस तरह के हथियारों से किये गए हमलों में शरीर के ऊपर बाहरी चोट के निशान या तो होते नहीं हैं या काफी कम होते हैं लेकिन ये शरीर के अंदरूनी हिस्सों को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं।
- इस तरह के हमलों की एक बेहद खास बात ये होती है कि ये ज़मीन से हवा में, हवा से ज़मीन में या ज़मीन से ज़मीन में किये जा सकते हैं। इस तरह के हमले में उच्च ऊर्जा वाली किरणों को छोड़ा जाता है। ये किरणें इंसान के शरीर में प्रविष्ट कर उनके शरीर के हिस्सों को नुकसान पहुँचा सकती हैं।
मिसाइल रोकने में सक्षम
- माइक्रोवेव हथियार को विभिन्न तरह की बैलिस्टिक मिसाइल, हाइपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल, हाइपरसोनिक ग्लाइडेड मिसाइल को रोकने के लिये भी इस्तेमाल किया जाता है।
- यद्यपि मिसाइल आदि रोकने के मामले में इस तरह के हथियार अभी तक केवल प्रयोग तक ही सीमित हैं। माइक्रोवेव हथियारों के अंदर पार्टिकल बीम वैपन, प्लाज़्मा वेपन, सॉनिक वेपन, लॉन्ग रेंज एकॉस्टिक डिवाइस भी आते हैं।
- पारम्परिक हथियारों के मुकाबले प्रत्यक्ष ऊर्जा हथियार कहीं ज़्यादा असरदार साबित हो सकते हैं।
- इन हथियारों को गुप्त तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है। दृश्य स्पेक्ट्रम के ऊपर और नीचे इनके विकिरण अदृश्य होते हैं और इनसे आवाज़ उत्पन्न नहीं होती है।
- चूँकि, प्रकाश पर गुरुत्वाकर्षण का बेहद कम असर पड़ता है, ऐसे में यह लगभग एक समतल वक्र (फ्लैट ट्रैजेक्टरी) देता है। इसके अलावा लेज़र, प्रकाश की गति से चलते हैं अतः ये स्पेस वॉरफेयर में काफी कारगर साबित होते हैं।
- लेज़र या माइक्रोवेव आधारित हाई-पावर डी.ई.डब्ल्यू. विरोधियों के ड्रोन्स या मिसाइलों को बेकार कर देते हैं।
विभिन्न देशों द्वारा प्रयोग
- 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में डी.ई.डब्ल्यू. को लेकर खोजबीन शुरू हुई थी। वर्ष 1930 में राडार की खोज के साथ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त हुई।
- चीन ने पहली बार वर्ष 2014 में एक एयर शो में पॉली डब्ल्यू.बी.–1 (Poly WB-1) नामक “माइक्रोवेव हथियार” का प्रदर्शन किया था।
- अमेरिका ने भी ‘एक्टिव डेनियल सिस्टम’ नामक एक माइक्रोवेव-शैली के हथियार को विकसित करने का दावा किया है।
- पूर्व में भी अमेरिका ने अफगानिस्तान में इस तरह के हथियारों का प्रयोग किया था किंतु बाद में यह दावा भी किया था कि इसका प्रयोग किसी व्यक्ति पर नहीं किया गया।
- रूस, चीन, भारत, ब्रिटेन भी इस तरह के हथियारों के विकास में लगे हुए हैं। वहीं, तुर्की और ईरान का दावा है कि उनके पास इस तरह के हथियार मौजूद हैं।
- भारत में रक्षा शोध और विकास संस्थान (डी.आर.डी.ओ.) भी डी.ई.डब्ल्यू. पर काम कर रहा है।
(प्रारंभिक परीक्षा : सामान्य विज्ञान ; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3: सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष, कंप्यूटर)
विषय- स्टारलिंक
स्टारलिंक : प्रमुख बिंदु
- ‘स्टारलिंक’ इंटरनेट की सुविधा प्रदान करने के लिये उपग्रहों का एक नेटवर्क है। एलोन मस्क की एयरोस्पेस कम्पनी स्पेस एक्स (SpaceX) द्वारा इसको निर्मित किया जा रहा है।
- उपग्रहों का यह नेटवर्क लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) में पृथ्वी की सतह से 550 किमी. ऊपर संचालित होता है। इसके विपरीत पारम्परिक रूप से इंटरनेट की सुविधा प्रदान करने वाले उपग्रह पृथ्वी की सतह से अधिक दूरी पर 35,000 किमी. की ऊँचाई पर स्थित होते हैं।
- स्पेस एक्स का पहला स्टारलिंक मिशन 24 मई, 2019 को लॉन्च किया गया था, जिसमें 60 उपग्रह शामिल थे। वर्तमान में इस मिशन के 800 से अधिक उपग्रह लो अर्थ ऑर्बिट में संचालित हो रहे हैं।
- प्रत्येक उपग्रह को बारीकी से डिज़ाइन किया गया है, जिसका वजन लगभग 260 किलोग्राम है। यह फोर-फेज्ड ऐरे एंटीना (Four-Phased Array Antennas), एकल सौर ऐरे (Single Solar Array), आयन प्रणोदन प्रणाली (Ion Propulsion System), नेविगेशन सेंसर और मलबा ट्रैकिंग प्रणाली से सुसज्जित है।
कार्य प्रणाली
- जब किसी इंटरनेट सिग्नल को पृथ्वी से भेजा जाता है, तो स्टारलिंक समूह में से एक उपग्रह इसे रिसीव करता है और फिर नेटवर्क में शामिल अन्य उपग्रहों के साथ साझा करता है।
- इसके बाद सिग्नल जब सबसे आदर्श उपग्रह तक पहुँच जाता है, तो इसे एक ग्राउंड रिसीवर तक रिले कर दिया जाता है या भेज दिया जाता है।
- स्टारलिंक उपग्रह लेज़र प्रकाश का उपयोग करते हुए एक दूसरे से संचार करते हैं।
- फोर-फेज्ड ऐरे एंटीना से उपग्रह कम समय में ही बड़ी मात्रा में डाटा का स्थानांतरण कर सकते हैं, जबकि इन-बिल्ट नेविगेशन सेंसर सटीक इंटरनेट डाटा ट्रांसफर के लिये उपग्रहों को ऊँचाई की जानकारी प्रदान करते हैं।
- स्टारलिंक उपग्रह की कक्षा एल.ई.ओ. में स्थित होने के कारण वे सतह पर स्थित रिसीवर के बहुत निकट होते हैं, जो डाटा ट्रांसफर प्रक्रिया के समय को काफी कम कर देता है।
- आयन प्रणोदक, उपग्रहों को कक्षा में ले जाने, संचालित करने और उसके जीवन काल की समाप्ति पर डी-ऑर्बिट करने में मदद करते हैं।
लाभ
- LEO उपग्रहों का नेटवर्क पूरी तरह से अनुपलब्ध या सीमित कनेक्टिविटी वाले सूदूर क्षेत्रों में उच्च गति और तीव्रता के साथ इंटरनेट प्रदान करेगा।
- साथ ही यह हवाई जहाज़ और पोत परिवहन में भी इंटरनेट की सुविधा प्रदान करेगा।
- हालाँकि, इन उपग्रहों को एल.ई.ओ. में स्थापित करने का एक नकारात्मक पहलू यह है कि पृथ्वी के बहुत करीब स्थित होने के कारण ये उपग्रह केवल एक सीमित क्षेत्र को ही कवर कर सकते हैं अत:व्यापक कवरेज के लिये अधिक संख्या में उपग्रहों की आवश्यकता होती है।
आगे की योजना
- कम्पनी को 12,000 स्टारलिंक उपग्रहों को लॉन्च करने की मंज़ूरी प्राप्त है और इसने अमेरिकी संघीय संचार आयोग (FCC) से 30,000 अन्य उपग्रहों के प्रक्षेपण को स्वीकृत करने का अनुरोध किया है।
- विदित है कि इसी प्रकार अमेज़ॅन के ‘प्रोजेक्ट कुइपर’ को भी एफ.सी.सी. द्वारा अनुमोदन दिया जा चुका है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : निवेश मॉडल)
विषय- डिजिटल मीडिया में एफ.डी.आई. नीति के अनुपालन सम्बंधी निर्देश
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने डिजिटल मीडिया में सरकारी अनुमोदन मार्ग के तहत 26% एफ.डी.आई. नीति का एक महीने में अनुपालन करने का अनुरोध किया है।
पृष्ठभूमि
- सरकारी अनुमोदन मार्ग के तहत 26% एफ.डी.आई. की अनुमति का निर्णय 18 सितम्बर, 2019 का है। इस निर्णय का अनुपालन करने हेतु डिजिटल मीडिया के माध्यम से समाचारों और करंट अफेयर्स की अपलोडिंग/स्ट्रीमिंग में सलंग्न योग्य कम्पनियों को सुविधा प्रदान करने के लिये एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया गया है। इस सार्वजनिक सूचना के तहत नियमों का उल्लेख नीचे किया जा रहा है।
26% से कम विदेशी निवेश सम्बंधी नियम
- 26% से कम विदेशी निवेश वाली कम्पनियों को सार्वजनिक नोटिस जारी करने के एक माह के भीतर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को निम्नलिखित जानकारी प्रस्तुत करनी होगी-
- निदेशकों एवं शेयरधारकों के नाम व पते के साथ कम्पनी और संस्था के‘शेयर होल्डिंग पैटर्न’के विवरण के साथ-साथ प्रमोटरों व महत्त्वपूर्ण लाभार्थी मालिकों का नाम व पता
- एफ.डी.आई. नीति, विदेशी मुद्रा प्रबंधन (गैर-ऋण संसाधन) विनियम, 2019 और विदेशी मुद्रा प्रबंधन (भुगतान की विधि और गैर-ऋण साधनों की रिपोर्ट) के तहत महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराना। इसमें मूल्य निर्धारण, प्रलेखन और रिपोर्टिंग आवश्यकताओं के अनुपालन के सम्बंध में पुष्टि के साथ-साथ विगत व मौजूदा विदेशी निवेश तथा डाउनस्ट्रीम निवेश (यदि कोई हो) के समर्थन में प्रासंगिक रिपोर्टिंग फॉर्मों की सम्बंधित प्रतियां। और
III. स्थाई खाता संख्या (PAN) और नवीनतम लेखा परीक्षण व गैर-लेखा परीक्षण किये गए लाभ व हानि का विवरण तथा तुलन पत्र (बैलेंस शीट)।
26% से अधिक विदेशी निवेश का मामला
- जिन कम्पनियों के पास वर्तमान में 26% से अधिक विदेशी निवेश के साथ इक्विटी ढाँचा हैं, वे भी एक माह के भीतर उपर्युक्त के समान ही विवरण प्रस्तुत करेंगी।
- साथ ही 15 अक्टूबर, 2021 तक विदेशी निवेश 26% तक कम करने के लिये आवश्यक कदम उठाना होगा।
नए विदेशी निवेश सम्बंधी नियम
- देश में नया विदेशी निवेश करने की इच्छुक किसी कम्पनी को एफ.डी.आई. नीति और विदेशी मुद्रा प्रबंधन (गैर-ऋण साधन) (संशोधन) नियम, 2019 के अनुसार डी.पी.आई.आई.टी. (DPIIT) के विदेशी निवेश सुविधा पोर्टल के माध्यम से भारत सरकार की पूर्व अनुमति लेनी होगी।
- विदित है कि यहाँ निवेश का अर्थ भारत में रहने वाले किसी व्यक्ति द्वारा जारी किसी प्रतिभूति या इकाई की खरीदारी, अधिग्रहण, धारण या हस्तांतरण से है।
- प्रत्येक कम्पनी को निदेशक मंडल और मुख्य कार्यकारी अधिकारियों की नागरिकता की आवश्यकताओं का भी अनुपालन करना होगा। कम्पनियों में एक वर्ष में 60 दिन से अधिक की नियुक्ति, अनुबंध या परामर्श के लिये तैनात किये जाने वाले विदेशी कर्मियों के बारे में उनकी तैनाती से पूर्व सुरक्षा मंजूरी प्राप्त किये जाने की आवश्यकता है।
- इसके लिये कम्पनियों को कम से कम 60 दिन पूर्व सूचना व प्रसारण मंत्रालय में आवेदन करना होगा और कम्पनी द्वारा प्रस्तावित विदेशी कर्मियों की तैनाती इस मंत्रालय की पूर्व स्वीकृति के बाद ही की जा सकेगी।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय- भारत में दुर्लभ तितलियों की मौजूदगी
प्रमुख बिंदु
- हाल ही में, भारत में दुर्लभ ‘ब्रांडेड रॉयल तितली’ को 130 वर्षों से अधिक अंतराल के बाद नीलगिरी में देखा गया है।
- इसको अंतिम बार वर्ष 1888 में ब्रिटिश कीट–विज्ञानशास्री (Entomologist) जी.एफ. हैम्पसन द्वारा रिकॉर्ड किया गया था।
- इसके अतिरिक्त काले रंग के मखमली पंखों वाली ब्लू मॉर्मन तितली को पटना में देखा गया है, जबकि यह पश्चिमी घाट की एक स्थानिक प्रजाति है।
- स्पॉटेड एंजल तितली नामक एक अन्य दुर्लभ प्रजाति को छत्तीसगढ़ के आरक्षित वनों में देखा गया है। साथ ही लिलिअक सिल्वरलाइन तितली को पहली बार राजस्थान के अरावली रेंज में देखा गया जोकि केवल बेंगलुरु में पाई जाने वाली एक संरक्षित प्रजाति है।
वास स्थान के प्रति विशिष्टता
- तितलियाँ वास स्थान के प्रति अत्यंत विशिष्ट व सम्वेदनशील होती हैं, अत: इनके वास स्थान में बदलाव बहुत कम देखा जाता है अर्थात अनुकूल वास स्थान के आभाव में तितलियाँ उस क्षेत्र को छोड़ देती हैं और इसीलिये इन्हें जैव-संकेतक भी माना जाता है।
- भारत में आमतौर पर तितलियों की उपस्थिति दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत से लेकर मानसून के बाद तक देखी जाती है।
वास स्थान में बदलाव का कारण
- वास स्थान के बाहर तितलियों का पाया जाना इनके आवास स्थल के विस्तार की ओर संकेत करते हैं। इसका दूसरा कारण महामारी के दौरान अधिक लोगों द्वारा गैर-अन्वेषित आवासों तक पहुँच और घरेलू उद्यानों आदि का अधिक अवलोकन हो सकता है।
- इसके अतिरिक्त इन तितलियों का पहाड़ी और ऊँचे स्थानों की जगह मैदानी व अपेक्षाकृत कम ऊँचाई पर मिलना जलवायु परिवर्तन का भी द्योतक है।
- ‘बटरफ्लाई मैन ऑफ़ इंडिया’ के नाम से प्रसिद्ध इसाक केहिमकर के अनुसार, तितलियाँ मौसम व आवास के प्रति सम्वेदनशील होती हैं और जब आवास स्थल प्रदूषित होता है तो वे इसको छोड़ देती हैं।
- इसके अतिरिक्त आवास स्थलों के संकुचन से भी इनकी आबादी बाह्य क्षेत्रों में दिखाई देने लगी हैं।
अन्य तथ्य
- विशाखापत्तनम में पहली बार रिकॉर्ड किये गए मार्बल्ड मैप तितली को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की अनुसूची–II के तहत संरक्षित किया गया है। यह दुर्लभ प्रजाति सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, झारखंड, भूटान और म्यांमार के पहाड़ी जंगलों तक सीमित है।
- ‘भूटान ग्लोरी’ भी एक संकटापन्न प्रजाति है और इसे भी वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षित किया गया है। विदित है कि मालाबार बैंडेड पीकॉक दक्षिण भारत की एक स्थानिक तितली है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : उदारीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव, औद्योगिक नीति में परिवर्तन तथा औद्योगिक विकास पर इनका प्रभाव।
विषय- कोयला उद्योग का घटता वित्तपोषण
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, सरकार द्वारा प्रोत्साहन पैकेज की चौथी किश्त में भारत के कोयला उद्योग को बढ़ावा देने से सम्बंधित उपायों की घोषणा की गई है।
संदर्भ
- भारत का कोयला क्षेत्र समग्र रूप से फंसी हुई परिसम्पत्तियों (स्ट्रेस्ड एसेट्स) का सामना कर रहा है, जिसका मुख्य कारण कोयला आधारित ऊर्जा की नवीकरणीय ऊर्जा से बढ़ती प्रतिस्पर्धा है। साथ ही वैश्विक स्तर पर भी कोयला आधारित विद्युत उत्पादन से सम्बंधित परियोजनाओं को समाप्त किया जा रहा है। यह प्रवृति अब भारत में भी दिख रही है।
मुख्य बिंदु
- खनिज ईंधन (माइन फ़्यूल) के निष्कर्षण हेतु 50,000 करोड़ रुपए का पैकेज दिया गया है। इससे कोयला क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर बनने के साथ ही आयात पर अपनी निर्भरता कम कर सकेगा।
- कैप्टिव (कैप्टिव कोल माइनिंग के अंतर्गत किसी कम्पनी द्वारा कोयला केवल अपने उपयोग के लिये ही निकाला जाता है, जिसे वह बाज़ार में नहीं बेच सकती) और नॉन-कैप्टिव माइनिंग के बीच का अंतर समाप्त कर निजी कम्पनियों के लिये अब कोयले से सम्बंधित अंतिम उपयोग के प्रतिबंध को समाप्त कर दिया गया है। इससे निजी क्षेत्र की भागीदारी में वृद्धि होगी|
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2018 में निजी क्षेत्र को अपने कुल कोयला उत्पादन का 25% बाज़ार में बेचने की अनुमति दी गई थी जो कोयला उद्योग के वाणिज्यीकरण की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम था।
भारत के कोयला उद्योग की वित्तीय स्थिति का अवलोकन - वर्तमान में भारत में लगभग 62 गीगावाट की कोयला परियोजनाएँ निर्माणाधीन हैं तथा इन परियोजनाओं के प्रमुख वित्तपोषक सरकारी क्षेत्र के संस्थान तथा बैंक हैं।
- लोकसभा की स्थाई समिति की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार अध्ययन के लिये चयनित निजी क्षेत्र में कार्यरत 85% से अधिक (लगभग 65000 मेगावाट) कोयला आधारित विद्युत सयंत्र वित्तीय दबाव में हैं जिसके कारण अनुसूचित बैंकों की लगभग 3 लाख करोड़ रुपए की सम्पत्ति जोखिम में है।
- ध्यातव्य है कि बैंकिंग क्षेत्र में ग़ैर-निष्पादित परिसम्पत्तियों की एक बड़ी राशि विद्युत क्षेत्र से सम्बंधित है।
कोयला उद्योग की समस्याएँ
- भारत में कोयला उद्योग की फंसी हुई परिसम्पत्तियों में वृद्धि के प्रमुख कारणों में कोयला परियोजनाओं के लिये भूमि की अनुपलब्धता, अस्पष्ट पॉवर परचेस एग्रीमेंट (पी.पी.ए.), गुणवत्तापूर्ण कोयले की उपलब्धता में कमी तथा नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा (रिन्यूएबल एनर्जी) की बढ़ती माँग और कोयला जलाकर बिजली बनाने की नीतियों में परिवर्तन आदि शामिल हैं।
- कोयला परियोजनाओं के लिये पिछले कुछ समय में अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण में भी भारी कमी आई है। यहाँ तक कि जापान, चीन तथा दक्षिण कोरिया जैसे देश भी कोयला परियोजनाओं को रोकने हेतु अंतर्राष्ट्रीय दबाव का सामना कर रहे हैं।
- भारत में वर्ष 2017 से 2018 के बीच कोयला से चलने वाले संयंत्रों का वित्तपोषण 90% तक कम हो गया तथा वर्ष 2018 में ऐसी परियोजनाओं की संख्या भी 12 से घटकर 5 हो गई है। वर्ष 2018 में 80% से अधिक ऋणों का डायवर्सन नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में हुआ है।
कोयला उद्योग हेतु सुझाव
- कोल इंडिया लिमिटेड (सहायक कम्पनियों के अलावा) से इतर अन्य स्वतंत्र संस्थाओं या कम्पनियों की सहायता से गुणवत्तापूर्ण कोयले के उत्पादन में वृद्धि करने के साथ ही निर्यात पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिये।
- कोयले को खुले बाज़ार में बेचने (वाणिज्यीकरण) की पूर्ण रूप से अनुमति प्रदान की जानी चाहिये।
- कोयले के अंतिम उपयोग के आधार पर ग्रेड प्रणाली का निर्माण किया जाना चाहिये।
- कोयले के सुगम ट्रांसपोर्टेशन हेतु भारतीय रेलवे के पास संसाधनों की कमी है। अतः कोयला खनन वाले क्षेत्रों से अंतिम उपयोग के क्षेत्रों तक एक सुदृढ़ परिवहन क्षमता का निर्माण किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
वर्तमान में भारत का नीतिगत उद्देश्य अधिकांश लोगों तक ऊर्जा की पहुँच सुनिश्चित करना है। इसलिये कोयले के उपयोग को नीतिगत समर्थन मिल रहा है लेकिन जलवायु परिवर्तन के आर्थिक परिणामों को देखते हुए धीरे-धीरे कोयले के उपयोग तथा इसमें निवेश को समाप्त करना होगा। साथ ही इस क्षेत्र में फंसी हुई परिसम्पत्तियों की समस्या से निपटने और बैंक एवं वित्तीय संस्थानों की आर्थिक सुरक्षा हेतु एक व्यावहारिक रोडमैप तैयार किया जाना आवश्यक है।
मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन।
विषय- दिल्ली में वायु प्रदूषण का खतरनाक स्तर
- स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रयासों के बावजूद भारत में, विशेषकर दिल्ली में, वायु प्रदूषण की स्थिति लगातार चिंताजनक होती जा रही है। एक वैश्विक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल प्रदूषण से भारत में लगभग 16 लाख से ज़्यादा लोगों की मौत हुई। मरने वालों में बड़ी संख्या नवजात बच्चों की रही, इनमें से अधिकतर बच्चे 1 महीने की उम्र के थे। इस वर्ष भी प्रदूषण का स्तर बहुत ज़्यादा है।
- पिछले साल बाहरी और घरेलू वायु प्रदूषण के कारण भारत में स्ट्रोक, दिल का दौरा, मधुमेह, फेफड़ों का कैंसर, फेफड़ों की पुरानी बीमारी और नवजात बच्चों के रोगों के कारण बड़ी मौतें हुई। नवजात बच्चों में अधिकतर मौतों का कारण कम वजन और समय से पूर्व जन्म है।
समस्या का निदान सम्भव
- प्रदूषण का हल निश्चित तौर पर निकाला जा सकता है, लेकिन जल्दबाज़ी में नहीं बल्कि धीरे-धीरे निकाला जाना चाहिये क्योंकि वर्तमान में प्रदूषण के कई स्रोत हैं और उन सबको एकबार में रोकना सम्भव भी नहीं है।
- यदि सरकारें वाकई मे प्रदूषण से लड़ना चाहती हैं तो उन्हें इस समस्या के प्रति एक परिपक्व और ईमानदार नज़रिया अपनाना होगा। सरकार को विभिन्न प्रकार की रोक लगाने की जगह समस्या की जड़ को समझ कर उस पर कार्य करना होगा, विभिन्न उपाय करने होंगे, लोगों के सामने हल रखने होंगे और उन्हें विकल्प प्रदान करने होंगे। तात्कालिक उपायों के साथ-साथ दीर्घकालिक लेकिन ठोस उपायों पर ज़ोर देना होगा। जैसे-
- पराली के धुएँ से हवा दूषित होती है तो सरकार को यह बात समझनी चाहिये कि एक गरीब किसान, जो सामान्यतः ज़्यादा पढ़ा लिखा नहीं होता, से यह अपेक्षा करना कि वह प्रदूषण के प्रति जागरूक हो जाए और पराली जलाना बंद कर दे और यदि जलाए तो उससे जुर्माना वसूला जाए, बहुत तार्किक नहीं है। इसके बजाय सरकार द्वारा किसानों को विकल्प सुझाया जाना चाहिये। किसानों को पराली से छुटकारा पाने के बेहतर तरीके बताए जाने चाहियें। सरकार पराली को जैविक खाद में परिवर्तित करने के तरीके बता सकती है। अगर किसानों के पास जगह और समय की समस्या हो, तो सरकार किसानों से पराली खरीद कर जैविक खाद बनाने का संयत्रों को प्रोत्साहित कर सकती है। इस प्रकार जब किसान पराली से कमाएंगे तो जलाएंगे क्यों?
- इसी प्रकार देश की सड़कों पर हर साल वाहनों की बढ़ती संख्या भी प्रदूषण के बढ़ते स्तर के लिये ज़िम्मेदार है। परिवहन विभाग के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार राजधानी दिल्ली में पंजीकृत वाहनों की संख्या एक करोड़ 12 लाख से अधिक है। राजधानी की सड़कों पर हर वर्ष 4 लाख से अधिक नई कारें आ जाती हैं। प्रदूषण में इनका योगदान काफी ज़्यादा होता है। इसके लिये सरकार तत्कालिक उपायों के अलावा दीर्घकालिक उपायों पर भी ज़ोर दे। जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट की संख्या, सुविधाजनक उपलब्धता और उसकी गुणवत्ता में सुधार करे ताकि लोग उनका अधिक से अधिक उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित हों।
- इसके अलावा बैटरी अथवा बिजली से चलने वाले वाहनों के अनुसंधान और निर्माण की दिशा में शीघ्रता से ठोस कदम उठाए और धीरे धीरे पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले वाहनों के निर्माण को बंद करने के लिये कड़े कदम उठाए।
- उद्योगों से होने वाला प्रदूषण भी एक बड़ा कारक है। क्योंकि इनमें ईंधन के रूप में पेट कोक इस्तेमाल होता है जिससे डीज़ल के मुकाबले 65000 गुना अधिक प्रदूषण होता है इसलिये इसे दुनिया का डर्टी फ्यूल यानी सबसे गंदा ईंधन भी कहा जाता है और अमरीका से लेकर चीन तक में प्रतिबंधित है। लेकिन भारत में वर्ष 2018 तक यह ना सिर्फ विश्व के लगभग 45 देशों से आयात होता था, बल्कि व्यापारियों को इसके व्यापार में टैक्स छूट के अलावा जी.एस.टी. में रिफंड भी प्राप्त होता था। लेकिन अब सरकार ने उद्योगों में ईंधन के रूप में इसके उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया है।
नई एवं अद्यतन प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देना
- राष्ट्रीय स्तर पर वायु प्रदूषण के सबसे बड़े स्रोत खाद्य ईंधनों से निकलने वाला धुआं, कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्र, विभिन्न उद्योग, फसल अवशेष जलाना, निर्माणकार्य और सड़क की धूल आदि हैं। वाहनों से होने वाला प्रदूषण इस सूची में नीचे है।
- प्रदूषण के इन सभी स्रोतों से निपटने के लिये मौजूदा प्रौद्योगिकियों को नई प्रौद्योगिकियों द्वारा क्रमिक रूप से प्रतिस्थापित किये जाने की आवश्यकता होगी।
- खाना पकाने के लिये LPG, इंडक्शन स्टोव और अन्य इलेक्ट्रिक उपकरणों के प्रयोग पर ज़ोर दिया जाना चाहिये।
- पुराने कोयला बिजली संयंत्रों को बंद किया जाना चाहिये और उन्हें पवन व सौर ऊर्जा से चलने वाली बैटरियों से बदल दिया जाना चाहिये तथा नए संयंत्रों में प्रदूषण नियंत्रण से जुड़े नए उपकरण स्थापित करने होंगे।
- नए कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के निर्माण पर रोक लगनी चाहिये।
- कोयले का उपयोग करने वाले अन्य उद्योगों को धीरे-धीरे गैस या हाइड्रोजन जैसे स्वच्छ ईंधन स्रोतों पर विचार करना होगा।
- किसानों को फसलों के अवशेष प्रबंधन के वैकल्पिक तरीकों को अपनाना होगा।
- डीज़ल और पेट्रोल वाहनों को धीरे-धीरे इलेक्ट्रिक या हाइड्रोजन ईंधन सेल वाहनों द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिये, जो नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से उत्पन्न बिजली पर चल रहे हैं।
कानूनी उपाय और मुद्दे
- प्रदूषणकारी गतिविधियों पर कर लगाने और स्वच्छ निवेश पर सब्सिडी देकर सरकारें स्वच्छ निवेश को बढ़ावा दे सकती हैं।
- न्यायपालिका निर्णयन के मामले में शक्तिशाली है लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि न्यायपालिका केवल तभी कदम उठाती है जब कोई समस्या सामने आती है और भविष्य की समस्याओं पर ध्यान देने के बजाय पिछली गलतियों पर ही मुख्यतः ध्यान केंद्रित रखती है।
नियामक एजेंसी में सुधार
- हमारे मौजूदा कानून केंद्रीय और राज्य प्रदूषण बोर्ड को प्रदूषण उत्सर्जन पर आधारित प्रदूषण शुल्क या उपकर लगाने की अनुमति नहीं देते हैं। चूँकि किसी उद्योग को बंद करना एक कठोर कदम है अतः यह कभी लागू नहीं हो पाता।
- भारत में एक ऐसी नियामक एजेंसी की सख्त आवश्यकता है जो प्रदूषण शुल्क या उपकर लगा सके। नियामक एजेंसी को स्वायत्तता भी दी जानी चाहिये।
निष्कर्ष
पिछले कुछ वर्षों में, वायु प्रदूषण के स्रोतों की हमें बेहतर वैज्ञानिक जानकारी है। निगरानी स्टेशनों का एक नेटवर्क भी हमारे पास है। वायु प्रदूषण को कम करने के लिये क्या करना चाहिये, इसकी भी बेहतर समझ भी अब विकसित हो रही है। अगर हम इन बिंदुओं पर ध्यान दें तो भारत की हवा को स्वच्छ बनाने की दिशा में हम तेज़ी से आगे बढ़ सकते हैं।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : देशज रूप से प्रौद्योगिकी का विकास, संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण)
विषय- फ्लाई ऐश से जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का विकास
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, एन.टी.पी.सी. (NTPC) लिमिटेड द्वारा फ्लाई ऐश से जियो-पॉलिमर एग्रीगेट को सफलतापूर्वक विकसित किया गया है।
प्रमुख बिंदु
- एन.टी.पी.सी. ने प्राकृतिक एग्रीगेट के प्रतिस्थापन के रूप में जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का विकास किया है।
- एन.टी.पी.सी. की फ्लाई ऐश से जियो-पॉलिमर एग्रीगेट के उत्पादन की अनुसंधान परियोजना भारतीय मानकों के वैधानिक मापदंडों के अनुरूप है। साथ ही इसकी पुष्टि राष्ट्रीय ‘सीमेंट और निर्माण सामग्री परिषद’ (NCCBM), हैदराबाद ने भी की है।
- भारत में इन एग्रीगेट की कुल माँग लगभग 2000 मिलियन मीट्रिक टन प्रति वर्ष है। एन.टी.पी.सी. द्वारा फ्लाई ऐश से विकसित एग्रीगेट इस माँग को पूरा करने में सहायक सिद्ध होगा।
- उल्लेखनीय है कि एन.टी.पी.सी. भारत का सबसे बड़ा बिजली उत्पादक है, जो बिजली मंत्रालय के अधीन एक सार्वजनिक उपक्रम है।
जियो–पॉलिमर एग्रीगेट का उपयोग व महत्त्व
- जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का उपयोग प्राकृतिक एग्रीगेट के स्थान पर किया जा सकेगा। इससे प्राकृतिक एग्रीगेट से होने वाले पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने में मदद मिलेगी।
- निर्माण उद्योग में जियो-पॉलिमर एग्रीगेट का उपयोग व्यापक स्तर पर किया जाता है, जिससे राख को पर्यावरण अनुकूल सामग्री में परिवर्तित कर दिया जाता है। इस प्रकार फ्लाई ऐश से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को कम करके संसाधन के रूप में इसका अधिकतम उपयोग किया जा सकता है।
- इसमें कंक्रीट में मिश्रण के लिये किसी भी स्तर पर सीमेंट की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि फ्लाई ऐश आधारित जियो-पॉलिमर मोर्टार बंधनकारी सामग्री (Binding Agent) के रूप में कार्य करता है।
- जियो-पॉलिमर एग्रीगेट कार्बन उत्सर्जन को कम करने में मदद करेंगे। साथ ही, इसके उपयोग से जल के उपभोग में भी कमी आएगी।
- विदित है कि प्राकृतिक एग्रीगेट प्राप्त करने के लिये पत्थर के उत्खनन की आवश्यकता होती है, जिससे भी पर्यावरण को क्षति पहुँचती है।
फ्लाई ऐश
- ‘फ्लाई ऐश’, कोयला दहन से सूक्ष्मकण के रूप में प्राप्त एक उपोत्पाद है। इसे ‘फ्लू ऐश’ (Flue Ash) या ‘पल्वेरिस्ड फ्यूल ऐश’ (Pulverized Fuel Ash) भी कहा जाता है। ये कोयला आधारित बॉयलरों से फ्लू गैसों के साथ निकलते हैं।
- प्रयोग किये गए कोयले के स्रोत व संघटन के कारण फ्लाई ऐश के अवयवों में भिन्नता हो सकती है। सिलिकॉन डाइऑक्साइड (SiO2), एल्युमिनियम ऑक्साइड (Al2O3) और कैल्शियम ऑक्साइड (CaO) पर्याप्त मात्रा में सभी प्रकार के फ्लाई ऐश में पाए जाते हैं। ध्यातव्य है कि ये सभी कोयले की चट्टानों में पाए जाने वाले प्रमुख खनिज यौगिक हैं।
- फ्लाई ऐश में अल्प मात्रा में आर्सेनिक, बेरिलियम, बोरॉन, कोबाल्ट, कैडमियम व क्रोमियम पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें हेक्सावेलेंट क्रोमियम (Hexavalent Chromium), लेड, मैंगनीज़, पारा तथा मालिब्डेनम के साथ-साथ सेलेनियम, स्ट्रांशियम, थैलियम व वैनेडियम जैसे अवयव सूक्ष्म मात्रा में पाए जाते हैं।
- साथ ही, डायोक्सिंस (Dioxins) तथा पी.ए.एच. (PAH) यौगिक की अत्यंत कम सांद्रता के साथ इसमें अपूर्ण दहन वाले कार्बन भी होते हैं।
फ्लाई ऐश के अनुप्रयोग
- फ्लाई ऐश पोज़ोलेनिक (Pozzolanic) प्रकार के होते हैं, इसमें एलुमिनस व सिलीसियस पदार्थ होते हैं। फ्लाई ऐश में जब चूना व पानी मिलाया जाता है तो पोर्टलैंड सीमेंट के सामान एक यौगिक का निर्माण होता है। इसके अलावा, फ्लाई ऐश से सीमेंट उत्पादन में पोर्टलैंड की अपेक्षा कम पानी तथा ऊर्जा (Low Embodied Energy) की आवश्यकता होती है। अतः यह पोर्टलैंड सीमेंट का एक अच्छा विकल्प है।
- मोज़ैक टाइल्स (Mosaic Tiles) व खोखले व हल्के ब्लॉक्स (Hollow Blocks) तथा कंक्रीट निर्माण में भी इसका प्रयोग किया जाता है। फ्लाई ऐश के कंकणों या गोलियों (Pellets) को कंक्रीट के मिश्रण में वैकल्पिक पदार्थ के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
- तटबंधों के निर्माण व इंटरलॉकिंग ईंटो के निर्माण में भी यह प्रयुक्त होती है। फ्लाई ऐश का प्रयोग मुख्यतः सीमेंट व निर्माण उद्योग के साथ-साथ सड़क निर्माण, कंक्रीट व ईंट विनिर्माण तथा निचले इलाकों व खानों (Mines) के पुनर्भरण में होता है।
- शीत गृह प्रतिरोधक में प्रयोग होने के साथ-साथ फ्लाई ऐश रिसाव, दरार व पारगम्यता को भी कम करता है।
भारत में फ्लाई ऐश
- भारत में कोयले से चलने वाले बिजली कारखानों द्वारा प्रत्येक वर्ष लगभग 258 एम.एम.टी. राख (फ्लाई ऐश) का उत्पादन किया जाता है। इसमें से लगभग 78% राख का उपयोग किया जाता है और शेष राख डाइक में इकठ्ठा रहती है।
- शेष राख का उपयोग करने के लिये एन.टी.पी.सी. वैकल्पिक तरीकों के लिये शोध कर रहा है, जिसमें वर्तमान अनुसंधान परियोजना भी शामिल है। इस अनुसंधान परियोजना में 90% से अधिक राख का उपयोग करके एग्रीगेट का उत्पादन किया जाता है।
- अमेरिकन सोसाइटी फॉर टेस्टिंग एंड मैटेरियल्स (ASTMC) के अनुसार, फ्लाई ऐश ‘क्लास C’ और ‘क्लास F’ प्रकार की होती हैं। भारत में उत्पादित फ्लाई ऐश मुख्यतः ‘क्लास C’ प्रकार की होती है। इसमें कैल्शियम और चूना की अधिकता होती है।
- यूरोपीय देशों में ‘क्लास F’ प्रकार की फ्लाई ऐश पाई जाती है। ‘क्लास F’ में प्रायः 5% से कम कार्बन पाया जाता है।
फ्लाई ऐश का पर्यावरणीय प्रभाव–
1. फ्लाई ऐश में पाई जाने वाली सभी भारी धातुएँ, जैसे- निकेल, कैडमियम, आर्सेनिक, क्रोमियम तथा लेड प्रकृति में विषाक्तता पैदा करती हैं। |
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष)
विषय- पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह (EOS-01)
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, भारत द्वारा लगभग एक वर्ष बाद पहला अंतरिक्ष मिशन प्रक्षेपित किया गया है।
प्रमुख बिंदु
- इसरो द्वारा ई.ओ.एस.-01 (Earth Observation Satellite-01 : EOS-01) नामक उपग्रह को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया है, जो की एक पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह है।
- EOS-01 रडार इमेजिंग सैटेलाइट (RISAT) की ही तरह है जो पिछले वर्ष लॉन्च किये गए RISAT-2B और RISAT-2BR1 के साथ मिलकर कार्य करेगा।
- EOS-01 को विदेशी देशों के नौ उपग्रहों के साथ PSLV रॉकेट द्वारा लॉन्च किया गया है।
- इस मिशन में नौ विदेशी उपग्रहों में से चार-चार उपग्रह अमेरिका और लक्समबर्ग के हैं, जबकि एक अन्य लिथुआनिया का है।
- उल्लेखनीय है कि इसरो ने इस वर्ष जनवरी में संचार उपग्रह जीसैट-30 (GSAT-30) को फ्रेंच गुयाना से प्रक्षेपित किया था, जिसके लिये एक एरियन रॉकेट का उपयोग किया गया था।
पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह (EOS-01) के कार्य
- भूमि व वनों का मानचित्रण तथा निगरानी
- संसाधनों का मानचित्रण, जैसे- जल, खनिज या मछलियाँ
- मौसम एवं जलवायु अवलोकन
- मृदा का आकलन तथा भू-स्थानिक मानचित्रण
नामकरण की नई पहल
- EOS-01 को प्रारम्भ में RISAT-2BR2 नाम दिया गया था। इसका उद्देश्य सभी मौसम में चौबीस घंटे हाई-रिज़ॉल्यूशन वाली छवियों को प्राप्त करना था।
- EOS-01 के नामकरण के साथ इसरो अपने पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रहों के नामकरण हेतु एक नई प्रणाली की ओर बढ़ रहा है। अब तक इनका नामकरण उपग्रह के उद्देश्य व थीम के आधार पर किया जाता है।
- उदाहरणस्वरुप उपग्रहों की कार्टोसैट (Cartosat) श्रृंखला भूमि स्थलाकृति और मानचित्रण के लिये डाटा प्रदान करने से सम्बंधित था, जबकि ओशनसैट (Oceansat) उपग्रह समुद्र के पर्यवेक्षण के लिये था।
- इनसैट श्रृंखला, रिसोर्ससैट श्रृंखला, जी.आई.एस.ए.टी. (GISAT) और स्कैटसैट (Scatsat) भी पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह हैं। इनका नामकरण इनके द्वारा प्रदत्त विशिष्ट सेवाओं या इन सेवाओं के लिये प्रयुक्त अलग-अलग उपकरणों के आधार पर किया गया है।
रडार इमेजिंग
- RISAT-2B और RISAT-2BR1 की तरह EOS-01 भी भूमि की उच्च-रिज़ॉल्यूशन छवियों को प्राप्त करने के लिये एक्स-बैंड सिंथेटिक एपर्चर रडार (Synthetic Aperture Radars) का उपयोग करता है।
- उल्लेखनीय है कि सिंथेटिक एपर्चर रडार (SAR) रडार का एक रूप है, जिसका उपयोग वस्तुओं के दो-आयामी चित्र या त्रि-आयामी संरचना बनाने के लिये किया जाता है।
- रडार इमेजिंग में प्रयुक्त ऑप्टिकल उपकरण अत्यंत लाभकारी है क्योंकि यह मौसम, बादल, कोहरे या सूर्य की कम रोशनी से अप्रभावित रहता है। इससे सभी परिस्थितियों में तथा प्रत्येक समय उच्च-गुणवत्ता वाली छवियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।
- इन रडार द्वारा प्रयोग किये जाने वाले विद्युत चुम्बकीय विकिरण के तरंग दैर्ध्य के आधार पर भूमि के विभिन्न गुणों की छवियों को प्राप्त किया जा सकता है।
- EOS-01 और RISATs, एक्स-बैंड रडार का उपयोग करते हैं जो निम्न तरंग दैर्ध्य पर कार्य करते हैं। ये शहरी भू-दृश्यों की निगरानी और कृषि या वन भूमि की इमेजिंग के लिये सबसे अच्छे माने जाते हैं।
- इसरो के अनुसार EOS-01 कृषि, वानिकी और आपदा प्रबंधन में सहायक सिद्ध होगा।
नए रॉकेट का प्रयोग
- EOS-01 के प्रक्षेपण के लिये ISRO ने अपने PSLV रॉकेट के एक नए संस्करण का उपयोग किया है। इससे पूर्व केवल एक बार ऐसे रॉकेट का प्रयोग पिछले वर्ष जनवरी में माइक्रोसेट-आर उपग्रह के लिये किया गया था।
- पी.एस.एल.वी. के इस संस्करण में उपग्रह को कक्षा में स्थापित करने के बाद रॉकेट का अंतिम चरण व्यर्थ (Waste) नहीं जाता है। रॉकेट का अंतिम चरण अपनी स्वयं की कक्षा प्राप्त (उपार्जित) कर सकता है और अंतरिक्ष में प्रयोग व परीक्षण करने के लिये एक कक्षीय मंच के रूप में उपयोग किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि रॉकेट का अंतिम चरण उपग्रह के अलग होने के बाद शेष रहता है।
- वास्तव में चौथा चरण एक अन्य उपग्रह की तरह कार्य करता है, जिसका जीवन काल लगभग छह महीने का होता है।
कोरोनावायरस का प्रभाव
- इसरो ने वर्ष 2020-21 में 20 से अधिक उपग्रह प्रक्षेपित करने की योजना बनाई थी। इसमें आदित्य एल1 (सूर्य के लिये प्रथम खोजपूर्ण अभियान) जैसे मिशन और मानव रहित गगनयान (भारत के प्रथम मानवयुक्त अंतरिक्ष अभियान का अग्रगामी) शामिल है। इन सब अभियानों में कोरोनावायरस के कारण देरी हुई है।
PSLV की यह 51वीं उड़ान थी। अभी तक इसके केवल दो प्रक्षेपण ही असफल हुए हैं।
माइक्रोसेट-आर उपग्रह का प्रयोग पिछले वर्ष भारत के प्रथम एंटी-सैटेलाइट टेस्ट (A-SAT) में किया गया था।
(मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र– 3 : बुनयादी ढाँचा : बंदरगाह तथा विमानपत्तन)
विषय- तटीय नौवहन विधयेक, 2020 का मसौदा
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, पोत परिवहन मंत्रालय ने शासन व्यवस्था में आम जनता और हितधारकों की भागीदारी सुनिश्चित करने तथा पारदर्शिता बढ़ाने हेतु तटीय नौवहन विधयेक– 2020 का मसौदा जारी किया है।
पृष्ठभूमि
जहाजरानी मंत्रालय द्वारा तटीय नौवहन विधयेक 2020 का मसौदा, मर्चेंट शिपिंग अधिनियम, 1958 के भाग-XIV के स्थान पर लाया गया है। इस विधयेक का मसौदा तैयार करते समय तटीय नौवहन से सम्बंधित सर्वश्रेष्ठ वैश्विक प्रथाओं का अवलोकन किया गया है।
आवश्यकता
- भारत में पोत परिवहन क्षेत्र में अत्यधिक तीव्रता से विकास हो रहा है इसलिये नौपरिवहन श्रृंखला तथा तटीय नौवहन के विकास और उसे विनियमित करने हेतु एक विशेष कानून की आवश्यकता है।
- भारत के जहाजरानी उद्योग की मांगों को पूरा करने तथा सम्बंधित नीतिगत प्राथमिकताओं को सुनिश्चित करने के लिये।
मसौदा विधयेक के मुख्य प्रावधान
- इस मसौदा विधयेक में तटीय नौवहन तथा तटीय जल सीमा की परिभाषाओं में विस्तार किया गया है।
- इसमें भारत के ध्वजवाहक जहाजों के लिये तटीय व्यापार हेतु लाइसेंस की ज़रूरत को समाप्त करने का प्रस्ताव किया गया है साथ ही अन्य क्षेत्रों के लिये लाइसेंस प्रक्रिया को आसान बनाने का प्रावधान भी किया गया है |
- मसौदा विधयेक में अंतर्देशीय जलमार्गों को भारत के तटीय समुद्री परिवहन के साथ एकीकृत किये जाने का प्रस्ताव है।
- मसौदा विधयेक में भारत के तटीय तथा अंतर्देशीय नौवहन के लिये एक राष्ट्रीय रणनीतिक तथा सामरिक योजना के निर्माण का भी प्रावधान किया गया है।
- मसौदा विधयेक में तटीय जहाजों के नौवहन में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिये एक प्रतिस्पर्धी वातावरण का निर्माण तथा परिवहन की लागत को कम करने हेतु एक मज़बूत फ्रेमवर्क बनाने का प्रस्ताव किया गया है।
मसौदा विधयेक से सम्बंधित मुद्दे तथा सुझाव
- विधयेक के मसौदे में ट्रांसशिपमेंट (निर्यात के उद्देश्य से आयात करना) व्यवसाय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। भारत को अपनी विस्तृत तटीय सीमा तथा रणनीतिक भू-स्थिति का लाभ उठाते हुए ट्रांसशिपमेंट व्यवसाय को उद्योग के रूप में प्रोत्साहित करना चाहिये।
- भारत में वस्तुओं के परिवहन हेतु अधिकतर व्यवसाय या उद्योग सड़क या रेलमार्गों पर निर्भर हैं इसमें जल परिवहन की हिस्सेदारी बहुत कम (लगभग 6%) है, जबकि विकसित देशों में जल परिवहन की हिस्सेदारी लगभग 30% है। साथ ही यह उपरोक्त दोनों माध्यमों (सड़क और रेल) से सस्ता, सुगम तथा पर्यावरण हितैषी भी है। जल परिवहन को प्रोत्साहित करने हेतु बंदरगाहों, सड़क तथा रेल परिवहन को एकीकृत कर कनेक्टिविटी को सुदृढ़ किया जाना चाहिये।
- इस मसौदा विधयेक में पोत उद्योग के विनियमन हेतु एक समर्पित संस्था या विनियामक का अभाव है। अतः सुगम तथा पारदर्शी कार्यान्वयन हेतु एक स्वयात्त विशेष एजेंसी का निर्माण किया जाना चाहिये।
- वर्तमान में तटीय नौपरिवहन की अनुपालन लागत (Cost Of Compliance) बहुत अधिक है। सुरक्षा तथा पर्यावरण के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए लागत को कम किया जाना चाहिये।
- मसौदा विधयेक में समग्र तटीय नौपरिवहन के विनियमन का अभाव है। सभी पोत या शिपिंग व्यवसायों को इस विधयेक के दायरे में लाया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
- भारत की आर्थिक वृद्धि तथा व्यापक स्तर पर रोज़गार सृजन में तटीय नौपरिवहन क्षेत्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसलिये समय की माँग है कि इस क्षेत्र के विकास हेतु गम्भीरतापूर्वक विचार विमर्श कर ठोस प्रयास किये जाने चाहिये।
वर्ष 2017 में भारत सरकार ने बंदरगाहों के अवसंरचनात्मक विकास हेतु सागरमाला परियोजना की शुरुआत की थी। इस परियोजना का प्रमुख उद्देश्य बंदरगाहों का आधुनिकीकरण तथा तटरेखा के आस-पास के क्षेत्रों में विकासात्मक गतिविधियों को बढ़ावा देना है।
हाल ही में, भारत सरकार ने पोत परिवहन मंत्रालय का नाम बदलकर पोत परिवहन और जलमार्ग मंत्रालय करने की घोषणा की है।
(मुख्य परीक्षा प्रश्नपत्र – 3 : उदारीकरण तथा औद्योगिक नीति)
विषय-भारत के लिये अनुकरणीय वियतनाम और बांग्लादेश मॉडल
चर्चा में क्यों?
- वर्तमान में बांग्लादेश, चीन के पश्चात दूसरा सबसे बड़ा परिधान निर्यातक देश बन गया है साथ वियतनाम के निर्यात में गत 8 वर्षों में 240% की अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।
वियतनाम की सफलता के कारण
- खुली व्यापार नीति, सस्ता कार्यबल और विदेशी कम्पनियों के लिए एक उदारवादी प्रोत्साहन नीति ने वियतनाम के निर्यात उद्योग की सफलता में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
- मुक्त व्यापार समझौतों (एफ.टी.ए.) के तहत वियतनाम के व्यापार भागीदार देश वियतनाम में बने उत्पादों पर आयात शुल्क आरोपित नहीं करते हैं साथ ही वियतनाम का बाज़ार भी व्यापारिक भागीदार देशों के लिये मुक्त है।
- वियतनाम ने विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने तथा कारोबारी सुगमता के लिये अपने घरेलू व्यावसायिक तथा औद्योगिक कानूनों में व्यापक बदलाव किया है।
- पिछले कुछ वर्षों में वियतनाम की सुगम तथा आकर्षक विदेश व्यापार नीतियों के चलते सैमसंग, कैनन, फॉक्सकॉन, एच एंड एम, नाइकी, एडिडास और आई.के.ई.ए. जैसे बड़े ब्रांडों ने अपने उत्पादों के निर्माण हेतु वियतनाम में अपने वृहत को व्यवसाय स्थापित किया है।
बांग्लादेश की सफलता के कारण
- बांग्लादेश के निर्यात उद्योग की सफलता का मुख्य कारण कपड़ा उद्योग है।बांग्लादेश का कपड़ा मुख्यतः विकसित देशों,यूरोपीय संघ के देशों तथा अमेरिका द्वारा आयात किया जाता है।
- बांग्लादेश ने अपने निर्यात व्यवसाय में विविधता (परम्परागत निर्यात के बजाय नए तथा आधुनिक उत्पाद तथा सेवाओं पर निर्यात निर्भरता बढ़ाना) लाने के लिये बड़े स्तर पर नीतिगत परिवर्तन किये हैं।
- यूरोपीय संघ के देश, चीन, अमेरिका तथा जापान, बांग्लादेश जैसे कम विकसित देशों से कपड़ा तथा अन्य उत्पादों के शुल्क-मुक्त आयात की अनुमति देते हैं। भारत भी एक सहयोगी पड़ोसी राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश के सभी उत्पादों (शराब और तम्बाकू को छोड़कर) के लिये शुल्क-मुक्त आयात की सुविधा देता है।
भारत के लिये सीख
- भारत को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आकर्षित करने हेतु घरेलू कानूनों में बदलाव तथा उनके उचित कार्यान्वयन पर और बल देना चाहिये। हालाँकि भारत ने पिछले कुछ वर्षों में महत्त्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन किये हैं।
- भारत को अपने निर्यात उद्योग हेतु बहुत अधिक क्षेत्रों की बजाय कुछ चुनिंदा क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, जिससे भारत को वैश्विक स्तर पर निर्धारित क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल हो सकेगी।
- भारत को विनिर्माण तथा विनिवेश को बढ़ावा देने हेतु क्षेत्र विशेष के अनुसार व्यवसाय तथा उद्योगों के लिये पूर्व-अनुमोदित औद्योगिक क्षेत्र (Pre-approved factory spaces) निर्धारित करना चाहिये ताकि कपड़ा निर्माण, प्रौद्योगिकी उत्पाद तथा अन्य विशेष उत्पाद व सेवाओं के उत्पादन हेतु इच्छुक उद्यमियों को भूमि की खोज तथा विभिन्न अनुमोदन प्राप्त करने की आवश्यकता ना पड़े।
- भारत को विश्व स्तरीय इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण के साथ-साथ असेम्बलिंग उद्योग को आकर्षित करने पर भी विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
भारत को अपनी आर्थिक संवृद्धि हेतु निर्यात पर सीमित निर्भरता को बनाये रखते हुए नवाचार को प्रोत्साहित करने तथा विदेशी निवेश से सम्बंधित अनुपालन की लागत कम करने के साथ ही आकर्षक तथा सुगम नीति निर्माण की आवश्यकता है।
- इकनोमिक कोम्प्लेक्सिर्टी इंडेक्स (ई.सी.आई.) के अनुसार चीन की रैंक 32, भारत की 43 वियतनाम की 79 तथा बांग्लादेश की 127 है।
- ई.सी.आई. के तहत बड़ी आर्थिक प्रणालियों विशेषकर शहरों, क्षेत्रों तथा देशों की उत्पादक क्षमताओं का समग्र मापन किया जाता है। इससे सम्बंधित आँकड़ों को एम.आई.टी. (अमेरिका) की मीडिया लैब द्वारा विकसित ऑब्जर्वेटरी ऑफ़ इकनोमिक कोम्प्लेक्सिटी ( Observatory of Economic Complexity – OEC) की वेबसाइट पर प्रदर्शित किया जाता है।
- निर्यात-जीडीपी अनुपात (Export to GDP Ratio – EGR) के माध्यम से किसी देश की निर्यात क्षमता का आकलन किया जाता है। उदहारण के लिये वियतनाम का ई.जी.आर. 107% है, जिससे बड़े स्तर पर डॉलर की प्राप्ति तो होती है लेकिन वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता के वातावरण में यह अनुपात देश की अर्थव्यवस्था अत्यधिक असुरक्षित तथा संवेदनशील बनाता है।
- वर्तमान में अमेरिका का ई.जी.आर. 7% है, जापान का 18.5%, भारत का 18.7% तथा चीन का 18.4% है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से सम्बंधित विषय)
विषय–कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम
- हाल ही में, कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय (एम.एस.डी.ई.) द्वारा उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, ओडिशा, मध्य प्रदेश और झारखंड के चिन्हित 116 ज़िलों में 3 लाख प्रवासी श्रमिकों के लिये कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया है।
- इसके तहत केंद्र सरकार द्वारा आगे बढ़कर राज्यों के समग्र विकास के लिये केंद्रीय क्षेत्रक योजनाओं के साथ केंद्र प्रायोजित योजनाओं का संचालन किया जाता है।
- इसका लक्ष्य प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पी.एम.के.वी.वाई.) 2016-2020 के केंद्र प्रायोजित और केंद्र प्रबंधित (सी.एस.सी.एम.) घटक के तहत कोविड महामारी के बाद श्रमिकों और ग्रामीण आबादी को मांग संचालित कौशल और अभिविन्यास प्रदान करना है।
- जिला मजिस्ट्रेटों के सहयोग से मंत्रालय 125 दिनों के भीतर कौशल प्रशिक्षण के लिये चयनित ज़िलों में कार्यक्रम शुरू करेगा।
प्रवासी श्रमिकों के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रम : एक नज़र में
- कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय के तत्वावधान में राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एन.एस.डी.सी.), पी.एम.के.वी.वाई. 2016-20 या राज्य योजनाओं के तहत कार्यरत मौजूदा प्रशिक्षण प्रदाताओं और परियोजना कार्यान्वयन एजेंसियों के माध्यम से प्रशिक्षण कार्यक्रम का संचालन कर रहा है।
- 1.5 लाख प्रवासी कामगारों को लघु अवधि के प्रशिक्षण (एस.टी.टी.) कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षित किया जा रहा है और अन्य 1.5 लाख प्रवासी श्रमिकों को पूर्व अधिगम की मान्यता (Recognition of Prior Learning: RPL) योजना के तहत प्रशिक्षित किये जाने की योजना है।
- इन ज़िलों में स्थानीय नौकरियों के लिये प्रशिक्षण के लिये प्रवासी कामगारों को जुटाने का कार्य ज़िला प्रशासन द्वारा किया जाता है।
ग्रामीण विकास हेतु प्रशिक्षण कार्यक्रम की आवश्यकता
- ग्रामीण विकास, कौशल भारत मिशन का एक मूल तत्व है क्योंकि कुल कार्यबल का 70% ग्रामीण भारत में निवास करता है। उद्योग की बदलती ज़रूरतों के साथ ग्रामीण कार्यबल तैयार करने के लिये कुशल पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न भागीदारों के बीच तालमेल की आवश्यकता होती है।
- महामारी के दौरान कार्यबल के विस्थापन के बाद प्रवासी कुशल श्रमिकों के लिये स्थाई आजीविका के अवसर उपलब्ध कराने हेतु, स्थानीय या क्षेत्रीय माँग के हिसाब से नौकरियों के निर्माण का दबाव लगातार सरकार पर बन रहा था जिसके लिये ऐसे कार्यक्रम की सख्त आवश्यकता थी।
- कौशल मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना 2016-2020 के तहत अब तक 92 लाख से अधिक उम्मीदवारों को प्रशिक्षित किया है। प्रशिक्षण कार्यक्रम की अवधि नौकरी की भूमिकाओं के अनुसार 150 से 300 घंटों के बीच होती है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)
विषय–राष्ट्रीय राजधानी और सम्बद्ध क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन हेतु आयोग
भूमिका
- हाल ही में, राष्ट्रपति ने ‘राष्ट्रीय राजधानी और सम्बद्ध क्षेत्रों मेंवायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग अध्यादेश, 2020’ पर हस्ताक्षर किया। इस प्रकार, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में और उसके आसपास वायु प्रदूषण को ट्रैक करने तथा इस पर नियंत्रण लगाने हेतु एक वैधानिक प्राधिकरण अस्तित्व में आ गया है।
- अध्यादेश के अनुसार, इस आयोग को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जैसे निकायों पर सर्वोच्चता प्राप्त होगी।
इस आयोग की स्थापना का कारण
- दिल्ली एन.सी.आर. क्षेत्र में वायु गुणवत्ता की निगरानी और प्रबंधन का कार्य केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB), राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ-साथ दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्य सरकारों और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण (EPCA) सहित कई निकायों द्वारा किया जाता रहा है।
- इन निकायों की निगरानी केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय तथा उच्चतम न्यायालय द्वारा स्वयं की जाती है। उच्चतम न्यायालय ‘एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ, 1988’ के निर्णय के अनुसार वायु प्रदूषण की निगरानी करता है।
- इस अध्यादेश द्वारा सभी निगरानी निकायों को मज़बूत करने और उन्हें एक मंच पर लाने हेतु आयोग के गठन का प्रयास किया गया है, जिससे वायु गुणवत्ता प्रबंधन अधिक व्यापक, कुशल और समयबद्ध तरीके से किया जा सके।
- साथ ही, इस आयोग द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदूषण के स्तर की लगातार निगरानी करने से राहत देने का प्रयास भी किया गया है।
आयोग की संरचना
- यह आयोग एक स्थाई निकाय होगा। इसमें 20 से अधिक सदस्य होंगे। इसकी अध्यक्षता भारत सरकार के सचिव स्तर के सेवानिवृत्त अधिकारी या किसी राज्य के मुख्य सचिव के द्वारा की जाएगी।
- इसमें केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के सचिव का एक प्रतिनिधि, पांच सचिव स्तर के अधिकारी (पदेन सदस्य) और दो संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी (पूर्णकालिक सदस्य) होंगे।
- साथ ही, इस आयोग में सी.पी.सी.बी, इसरो, वायु प्रदूषण विशेषज्ञों के साथ-साथ गैर-सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) के तीन प्रतिनिधियों का भी प्रतिनिधित्व होगा।
- इस आयोग में सहयोगी सदस्यों के रूप में कृषि, पेट्रोलियम, बिजली, सड़क परिवहन व राजमार्ग, आवास तथा शहरी मामलों के मंत्रालयों तथा वाणिज्य व उद्योग सहित कई अन्य मंत्रालयों के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे।
आयोग की शक्तियाँ
- वायु प्रदूषण और वायु गुणवत्ता प्रबंधन के मामलों में यह आयोग सभी मौजूदा निकायों में सर्वोच्च होगा। इसमें राज्यों को निर्देश जारी करने की शक्तियाँ भी होंगी।
- आयोग वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिये राज्य सरकारों के प्रयासों के मध्य समन्वय स्थापित करेगा और वायु गुणवत्ता मापदंडों को भी निर्धारित करेगा।
- इस आयोग में गम्भीर वायु प्रदुषण वाले क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना को प्रतिबंधित करने की शक्तियाँ होंगी। साथ ही, यह आयोग औद्योगिक इकाइयों के निरीक्षण का भी कार्य कर सकता है।
- यदि आयोग द्वारा दिये गए निर्देशों का उल्लंघन होता है, तो यह आयोग जुर्माना और कारावास का दंड भी दे सकता है।
राज्य के मामले में आयोग की भूमिका
- अध्यादेश में यह स्पष्ट है कि अब राज्य निकायों के साथ केंद्रीय निकायों के पास भी वायु प्रदूषण के मामलों से सम्बंधित अधिकार क्षेत्र नहीं होगा।
- आयोग राज्यों के साथ-साथ नीति के नियोजन व निष्पादन तथा हस्तक्षेप, उद्योगों के संचालन, निरीक्षण, प्रदूषण के कारणों पर शोध आदि के मध्य समन्वय स्थापित करेगा।
- विशेषज्ञों के अनुसार इस अध्यादेश के द्वारा जुर्माना लगाने की शक्ति भी नए आयोग के पास आ सकती है। एक प्रकार से यह आयोग वायु प्रदूषण के मामलें में प्रदूषण नियंत्रण निकायों की प्रासंगिकता को कम या समाप्त कर देगा क्योंकि उनके पास अब कोई स्वायत्त निर्णय लेने की शक्तियां नहीं हैं।
- हालाँकि, इन निकायों की जल तथा ध्वनि प्रदूषण से सम्बंधित शक्तियाँ यथावत् जारी रहेंगी।
- किसी राज्य तथा आयोग द्वारा जारी निर्देशों के मध्य टकराव की स्थिति में आयोग के निर्णय को लागू किया जाएगा।
चुनौतियाँ
- अध्यादेश के अनुसार, समिति का गठन ‘अस्थाई व कामचलाऊ उपायों’ को राज्यों और विशेषज्ञों की ‘कारगर सहभागिता’ द्वारा प्रतिस्थापित करने के लिये किया गया है।
- आयोग में केंद्र सरकार के सदस्यों की संख्या अधिक है, जो राज्यों के निर्णय को प्रभावित कर सकता है। साथ ही, राजनीतिक मतभेद आयोग के कामकाज में एक अहम भूमिका निभा सकता हैं।
- विशेषज्ञों का मानना है कि यह आयोग ज़मीनी स्तर पर स्वत: होने वाली कार्रवाईयों की कोई गारंटी नहीं देता है और एक नया आयोग बनाकर सरकार ने वायु प्रदूषण के मुद्दे को न्यायपालिका के दायरे से बाहर कर दिया है।
- अध्यादेश के अनुसार, आयोग जिन मामलों में शामिल होगा उन मामलों की सुनवाई के लिये केवल एन.जी.टी. ही अधिकृत है सिविल कोर्ट नहीं।
निष्कर्ष
- यह देखना होगा कि नए आयोग के गठन द्वारा वायु प्रदूषण के मुद्दे को न्यायपालिका के दायरे से बाहर कर सम्बंधित मुद्दों पर सरकार क्या सिर्फ स्व-सशक्तिकरण करने और प्रासंगिक बने रहने का प्रयास कर रही है अथवा वास्तव में यह संकट का समाधान करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण रणनीति बना रही है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र– 3 : प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता)
विषय-उर्वरक सब्सिडी की कार्यप्रणाली
चर्चा में क्यों?
- केंद्र सरकार किसी फसली मौसम के दौरान किसी एक किसान द्वारा व्यक्तिगत रूप से खरीदे जा सकने वाले उर्वरक के बोरों (Fertilizer Bags) की संख्या को सीमित करने की योजना पर विचार कर रही है।
उर्वरक सब्सिडी
- किसान अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) पर उर्वरक खरीदते हैं। यह मूल्य उर्वरक की सामान्य आपूर्ति और मांग-आधारित बाज़ार दरों से कम या उनका उत्पादन/आयात करने में होने वाले खर्च से कम होता है।
- उदाहरणस्वरूप, नीम-कोटेड यूरिया के संदर्भ में केंद्र द्वारा उसके मूल्य को निश्चित कर दिया जाता है, जबकि इसके घरेलू निर्माताओं और आयातकों का ‘औसत लागत-सह-मूल्य’ इसके निर्धारित मूल्य से अधिक होता है। इस प्रकार होने वाले अंतर को केंद्र द्वारा सब्सिडी के रूप में प्रदान किया जाता है। संयंत्र-आधारित उत्पादन लागत और आयात मूल्य के अनुसार यह अंतर भिन्न-भिन्न होता है।
- गैर-यूरिया उर्वरकों की एम.आर.पी. कम्पनियों द्वारा विनियंत्रित या तय की जाती है। हालाँकि, केंद्र द्वारा इन पोषक तत्वों पर एक प्रकार से सीधी सब्सिडी (Flat Subsidy) का भुगतान यह सुनिश्चित करने के लिये किया जाता है कि उनकी कीमत ‘उचित स्तर’ पर बनी रहे।
सब्सिडी के भुगतान का तरीका और पात्र
- सब्सिडी उर्वरक कम्पनियों को प्रदान की जाती है, हालाँकि इसका अंतिम लाभार्थी किसान है, जो बाजार निर्धारित दरों से कम एम.आर.पी. का भुगतान करता है।
- हाल के समय तक, कम्पनियों को उनके द्वारा बैग्ड सामग्री (Bagged Material) को किसी ज़िले के रेलहेड पॉइंट या स्वीकृत गोदाम में भेजे जाने के बाद भुगतान किया जाता था।
- मार्च 2018 से ‘प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण’ (डी.बी.टी.) प्रणाली के प्रारंभ के साथ कम्पनियों को सब्सिडी का भुगतान खुदरा विक्रेताओं द्वारा किसानों को वास्तविक बिक्री के बाद ही होगा।
- प्रत्येक रिटेलर के पास अब एक ‘पॉइंट-ऑफ-सेल’ (PoS) मशीन होती है, जिसमें बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण के साथ खरीदार का नाम और उर्वरकों की खरीदी गई मात्रा को दर्ज़ किया जाता है। यह ‘पॉइंट-ऑफ-सेल’ (PoS) मशीन उर्वरक विभाग के ‘ई-उर्वरक DBT पोर्टल’ से जुड़ी होती है।
- सब्सिडाइज्ड उर्वरक खरीदने वाले किसानों को आधार कार्ड या किसान क्रेडिट कार्ड नम्बर की आवश्यकता होती है। ई-उर्वरक प्लेटफॉर्म पर पंजीकृत होने वाली बिक्री पर ही कोई कम्पनी सब्सिडी का दावा कर सकती है।
नई भुगतान प्रणाली का अंतर्निहित उद्देश्य
- इसका मुख्य उद्देश्य व्यपवर्तन (Diversion) पर अंकुश लगाना है। अत्यधिक सब्सिडाइज्ड होने के कारण यूरिया की हमेशा गैर-कृषि उपयोग की सम्भावना बनी रहती है।
- नेपाल और बांग्लादेश में तस्करी किये जाने के अलावा इसका प्रयोग प्लाईवुड/पार्टिकल बोर्ड निर्माताओं द्वारा बाइंडर (ज़िल्द) के रूप में, पशु आहार निर्माताओं द्वारा सस्ते प्रोटीन स्रोत या दूध विक्रेताओं द्वारा मिलावट के लिये किया जाता है।
- पहले की प्रणाली में लीकेज की सम्भावना अधिक थी। हालाँकि, डी.बी.टी, बॉयोमेट्रिक प्रमाणीकरण और ‘पॉइंट-ऑफ-सेल’ मशीनों के प्रयोग के कारण लीकेज में कमी आई है और बहुत कम मामलों में यह केवल खुदरे स्तर पर ही सम्भव है।
अगले प्रस्तावित कदम
- वर्तमान नीति के अनुसार गैर-कृषकों सहित कोई भी किसी भी मात्रा में PoS मशीनों के माध्यम से उर्वरकों की खरीद कर सकता है। इससे अनपेक्षित लाभार्थी भी थोक खरीद कर सकते हैं, जो वास्तविक या पात्र किसान नहीं हैं।
- एक समय में किसी व्यक्ति द्वारा 100 बैग खरीदे जा सकने की एक सीमा निर्धारित है परंतु खरीदारी किये जा सकने की संख्या की कोई ऊपरी सीमा नहीं है।
- वर्तमान में खरीफ या रबी फसल के मौसम के दौरान किसी व्यक्ति द्वारा खरीदे जा सकने वाले बैगों की संख्या को निश्चित किये जाने पर विचार किया जा सकता है।
उर्वरक की आवश्यक मात्रा
- प्राथमिक तौर पर उर्वरक की आवश्यक मात्रा फसल पर निर्भर करती है। सिंचित क्षेत्र में गेहूँ या धान उगाने वाला किसान प्रति एकड़ यूरिया के 45 किग्रा. के लगभग 3 बैग, डी.ए.पी. का 50 किग्रा. का एक बैग और पोटाश लवण (MOP) का आधा बैग (25 किग्रा.) इस्तेमाल कर सकता है।
- इस प्रकार, उर्वरक के 100 बैग (बोरे) 20 एकड़ कृषि भूमि के लिये फसली मौसम की आवश्यकता की पूर्ति करने में सक्षम हो सकते हैं।
- सम्भवतः यह एक उचित सीमा हो सकती है और अतिरिक्त उर्वरक की आवश्यकता की स्थिति में गैर-रियायती दरों का भुगतान करना पड़ सकता है।
कृषि उपकरणों पर कर और किसान
- किसान इनपुट्स पर वस्तु और सेवा कर (जी.एस.टी.) का भुगतान करते हैं, जो ट्रैक्टर, कृषि उपकरणों, पम्पों और ड्रिप/स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणालियों पर 12% से लेकर फसल सुरक्षा रसायनों पर 18% तक है। उर्वरक पर भी 5% कर लगता है।
- चूँकि कृषि उपज पर कोई जी.एस.टी. नहीं है, इसलिये किसान अन्य व्यापारियों की तरह अपनी बिक्री पर कोई इनपुट टैक्स क्रेडिट (ITC) का दावा नहीं कर सकता है।
आगे की राह
- वर्तमान स्थिति के मद्देनज़र किसानों को फ्लैट प्रति-एकड़ नकद सब्सिडी (Flat Per-Acre Cash Subsidy) देने पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिये, जिसका उपयोग वे किसी भी उर्वरक की खरीद के लिये कर सकते हैं।
- उगाई गई फसलों की संख्या और भूमि के सिंचित या असिंचित होने में भिन्नता के आधार पर यह राशि भिन्न हो सकती है।
- यह उर्वरकों के ग़ैर-कृषि उपयोग को रोकने का एकमात्र स्थायी समाधान होने के अतिरिक्त उचित मृदा परीक्षण एवं फसल-विशिष्ट आवश्यकताओं के आधार पर सही पोषक तत्व संयोजन के साथ उर्वरकों के विवेकपूर्ण अनुप्रयोग को भी प्रोत्साहित करता है।
- नीम-कोटेड यूरिया का मूल्य केंद्र द्वारा निश्चित किया जाता है। यूरिया के घरेलू निर्माताओं और आयातकों के ‘औसत लागत-सह-मूल्य’ तथा निर्धारित मूल्य में होने वाले अंतर को केंद्र द्वारा सब्सिडी के रूप में प्रदान किया जाता है।
- गैर-यूरिया उर्वरकों की एम.आर.पी. कम्पनियों द्वारा विनियंत्रित या तय की जाती है। हालांकि, केंद्र इन पर भी सीधी सब्सिडी (Flat Subsidy) का भुगतान करता है।
- प्रत्येक रिटेलर के पास अब एक ‘पॉइंट-ऑफ-सेल’ (PoS) मशीन होती है, जिसमें बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण के साथ खरीदार का नाम और उर्वरकों की खरीदी गई मात्रा को दर्ज़ किया जाता है। यह ‘पॉइंट-ऑफ-सेल’ (PoS) मशीन उर्वरक विभाग के ‘ई-उर्वरक DBT पोर्टल’ से जुड़ी होती है।
- सब्सिडाइज्ड उर्वरक खरीदने वाले किसानों को आधार कार्ड या किसान क्रेडिट कार्ड नम्बर की आवश्यकता होती है। ई-उर्वरक प्लेटफॉर्म पर पंजीकृत होने वाली बिक्री पर ही कोई कम्पनी सब्सिडी का दावा कर सकती है।
- नेपाल और बांग्लादेश में तस्करी किये जाने के अलावा यूरिया का प्रयोग प्लाईवुड/पार्टिकल बोर्ड निर्माताओं द्वारा बाइंडर (ज़िल्द) के रूप में, पशु आहार निर्माताओं द्वारा सस्ते प्रोटीन स्रोत या दूध विक्रेताओं द्वारा मिलावट के लिये भी किया जाता है।
- किसान इनपुट्स पर वस्तु और सेवा कर (जी.एस.टी.) का भुगतान करते हैं, जो ट्रैक्टर, कृषि उपकरणों, पम्पों और ड्रिप/स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणालियों पर 12% से लेकर फसल सुरक्षा रसायनों पर 18% तक है। उर्वरक पर भी 5% कर लगता है।
- चूंकि कृषि उपज पर कोई जी.एस.टी. नहीं है, इसलिये किसान अन्य व्यापारियों की तरह अपनी बिक्री पर कोई इनपुट टैक्स क्रेडिट (ITC) का दावा नहीं कर सकता है।
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 3 : अर्थव्यवस्था, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी)
विषय–डिजिटल भुगतान प्रणाली : आर.बी.आई. के प्रयास तथा चुनौतियाँ
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में, आर.बी.आई. द्वारा रियल टाइम ग्रॉस सेटलमेंट (RTGS) की सुविधा को दिसम्बर, 2020 से 24 घंटे उपलब्ध कराए जाने की घोषणा की गई है। भुगतान प्रणाली में यह महत्त्वपूर्ण सफलता अभी तक चुनिंदा देशों को ही प्राप्त है।
पृष्ठभूमि
- भारत ने अन्य भुगतान माध्यमों की तुलना में डिजिटल भुगतान प्रणाली का मज़बूत आधार विकसित किया है। वर्तमान में देशभर में सभी घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय डिजिटल भुगतान संचालकों को आर.बी.आई. द्वारा विनियमित किया जाता है।
डिजिटल भुगतान के क्षेत्र में आर.बी.आई. के प्रयास
- डिजिटल भुगतान के क्षेत्र में आर.बी.आई. द्वारा महत्त्वपूर्ण प्रयास किये गए हैं, जिनके कारण ही भारतीय भुगतान प्रणाली को आधुनिक और विश्वसनीय बनाने में सफलता प्राप्त हुई है।
- इस दिशा में आर.बी.आई. द्वारा वर्ष 2004 में बड़े भुगतानों के सुगम संचालन हेतु रियल टाइम ग्रॉस सेटलमेंट (RTGS) की शुरुआत की गई थी।
- आर.बी.आई. द्वारा खुदरा भुगतान को प्रोत्साहित करने हेतु वर्ष 2005 में नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फण्ड ट्रांसफर (NEFT) की शुरुआत की गई। वर्तमान में NEFT की सुविधा 24 घंटे उपलब्ध है।
- आर.बी.आई. द्वारा 10 प्रमुख बैंकों की सहायता से नेशनल पेमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड की स्थापना एक अम्ब्रेला संस्थान के रूप में की गई थी। इस संस्था का विचार आर.बी.आई. के वर्ष 2005 के विज़न डॉक्यूमेंट में शामिल था।
- आर.बी.आई. द्वारा यू.पी.आई. के माध्यम से भुगतान प्रणाली में व्यापक परिवर्तन आए हैं, विशेषकर कोविड–19 महामारी के समय में डिजिटल भुगतान के इस माध्यम ने वित्तीय लेन-देन की में अत्यधिक सहायक सिद्ध हुआ है।
- आर.बी.आई. के प्रयासों के कारण ही कॉर्पोरेट और पूँजी बाज़ार के वित्तीय लेन-देन में व्यापक परिवर्तन आए हैं। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) T+1 की व्यवस्था पर विचार कर रहा है, अर्थात ट्रांजेक्शन तथा एक कार्यदिवस में सेटलमेंट की व्यवस्था क्योंकि शेयरों के लेन-देन में बहुत तीव्र तथा दक्ष भुगतान प्रणाली की आवश्यकता होती है।
- वर्ष 2019 में बैंक ऑफ़ इंटरनेशनल सेटलमेंट (BIS) द्वारा भारत के एन.पी.सी.आई. मॉडल की प्रशंसा की गई है।
चुनौतियाँ
- भारतीय भुगतान प्रणाली में सुरक्षा, उन्नयन, तीव्रता तथा दक्षता का अभाव है, जो विदेशी निवेश को आकर्षित करने में बाधक है। उदहारण के लिये हांगकांग में भूमि की खरीद-बिक्री शेयरों की तरह होती है तथा लेन-देन का निपटान भी वास्तविक समय (Real Time) में ही हो जाता है।
- भारतीय समाज में वित्तीय साक्षरता का अभाव।
- तकनीकी सहजता (टेक्नोफ्रेंडलीनेस) की कमी।
- भौतिक मुद्रा से पारम्परिक जुड़ाव।
सुझाव
- एन.पी.सी.आई. को वित्तीय बाज़ार में बढ़ती प्रतिस्पर्धा का कुशलता तथा दक्षता से सामना करने हेतु एक लाभकारी संगठन में परिवर्तित किये जाने की आवश्यकता है।
- भारत में भुगतान प्रणाली को तीव्र तथा उन्नत बनाए जाने के साथ ही लोगों को वित्तीय साक्षरता (Financial Literacy) प्रदान करने हेतु जागरूकता अभियानों (Awareness Campaigns) का नियमित आयोजन किया जाना चाहिये।
- सरकार द्वारा बैंकों तथा फिनटेक कम्पनियों को ग्रामीण तथा सुदूर क्षेत्रों (विशेषकर आदिवासियों के उत्पाद की बिक्री सम्बंधी लेन-देन में सुगमता हेतु) में भुगतान प्रणाली के बुनयादी ढ़ांचे के निर्माण हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- वित्तीय लेन-देन की निपटान प्रणाली में डिजिटल भुगतान प्रणाली के माध्यम से अभूतपूर्व वृद्धि की सम्भावना है, जिसमें बैंकों तथा वित्तीय प्रौद्योगिकी कम्पनियों (Fin-Tech Companies) को प्रोत्साहित किये जाने आवश्यकता है।
निष्कर्ष
- पिछले कुछ वर्षों में डिजिटल भुगतान के क्षेत्र में भारत सरकार डिजिटल इंडिया मिशन के तहत भारत में कार्यरत अंतर्राष्ट्रीय स्तर की भुगतान कम्पनियों के एकाधिकार को समाप्त किया है तथा अपनी घरेलू भुगतान प्रणाली की वैश्विक पहुँच स्थापित की है।
नेशनल पेमेंट कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (एन.पी.सी. आई.) स्थापना वर्ष 2009 में आर.बी.आई. तथा भारतीय बैंक संघ द्वारा एक गैर लाभकारी कम्पनी के रूप में की गई थी।
एन.पी.सी.आई. ने भारत में खुदरा भुगतान प्रणाली के संचालन और निपटान को सुगमता प्रदान की है।
भुगतान और निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007 (पेमेंट एंड सेटलमेंट एक्ट, 2007)
यू.पी.आई. या यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस के माध्यम से कई बैंक अकाउंट से एक ही मोबाइल एप्लीकेशन का उपयोग कर धन हस्तांतरण कर सकते हैं। इसे एन.पी.सी.आई. द्वारा विकसित किया गया है।
यू.पी.आई. में दो तरह से ऑथेंटिकेशन होता है। इसके बाद सिंगल क्लिक से भुगतान किया जा सकता है। यू.पी.आई. में वन टाइम पासवर्ड (OTP) के स्थान पर पिन का उपयोग किया जाता है।