अधीनस्थ न्यायालय
भारतीय संविधान के भाग-6 में अनु० – 233 से 237 तक अधीनस्थ न्यायालयों से संबंधित है जो उच्च न्यायालय के अधीन होते है तथा इनका गठन राज्य अधिनियम कानून के द्वारा होता है |
जिला न्यायाधीश की नियुक्ति
जिला न्यायाधीश की नियुक्ति व पदोन्नति राज्यपाल द्वारा राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है, जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए निम्न योग्यता होनी चाहिए –
- कम से कम 7 वर्ष तक किसी न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो |
- केंद्र अथवा राज्य के अधीन लाभ के पद पर ना हो |
- उच्च न्यायालय ने उसकी नियुक्ति की सिफारिश की हो |
राज्यपाल जिला न्यायाधीश से भिन्न किसी व्यक्ति को न्यायिक सेवा में नियुक्त कर सकता है किन्तु ऐसे व्यक्ति को राज्य लोकसेवा आयोग व उच्च न्यायालयों के परामर्श के बाद ही नियुक्त किया जाएगा |
संरचना व क्षेत्राधिकार
राज्य कानून अधिनियम द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों के क्षेत्राधिकार व् शर्तों का निर्धारण किया जाता है किन्तु राज्यों में इसकी प्रकृति भिन्न – भिन्न हो सकती है-
- जिले का सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी जिला न्यायाधीश होता है जिसे दीवानी व फौजदारी मामलों में मूल व अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त है |
- जिला न्यायाधीश जब दीवानी मामलों की सुनवाई करता है तो उसे जिला न्यायाधीश कहते है तथा जब फौजदारी मामलों की सुनवाई करता है तो उसे सत्र न्यायाधीश कहते है |
- जिला न्यायाधीश को न्यायिक व प्रशासनिक दोनों शक्तियां प्राप्त है , वह अपने अधीनस्थ न्यायालयों का निरीक्षण भी करता है तथा किसी भी दोषी को उम्रकैद व मृत्यु दंडदेने की अधिकारिता प्राप्त है , किंतु मृत्यु दंडदेने के मामलें में उच्च न्यायालय का अनुमोदन आवश्यक है तथा इस निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है |
- जिला न्यायालय से नीचे दीवानी मामलों के लिए अधीनस्थ न्यायधीश का न्यायालय तथा सत्र न्यायधीश से नीचे फौजदारी मामलों के लिए मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी का न्यायालय होता है | अधीनस्थ न्यायालय को दीवानी मामलों के संदर्भ में व्यापक शक्ति प्राप्त है तथा मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी फ़ौजदारी मामलों में अधिकतम 7 वर्ष की सजा दे सकता है |
- दीवानी मामलों के लिए सबसे निचले स्तर पर मुंसिफ न्यायाधीश का न्यायालय जिसका सीमित कार्य क्षेत्र होता है तथा वह छोटे दीवानी मामलों पर निर्णय देता है जबकि फ़ौजदारी मामलों पर सबसे निचले स्तर पर न्यायिक दंडाधिकारी का न्यायालय होता है , जो फौजदारी मामलों में अधिकतम 3 वर्ष की सजा दे सकता है |
लोक अदालत
लोक अदालत का गठन शीघ्र अथवा निशुल्क न्याय व्यवस्था की अवधारणा के अंतर्गत स्थापित किया गया , यदि किसी व्यक्ति द्वारा फ़ीस का भुगतान कर दिया गया है तो लोक अदालत में मामला निपटने के बाद फ़ीस लौटा दी जाएगी | लोक अदालत न्याय व्यवस्था का एक पुराना स्वरुप है जो की प्राचीन भारत में भी प्रचलित था और उसकी वैधता आधुनिक युग में भी समाप्त नही हुई |
ग्राम न्यायालय
न्याय को विकेंद्रीकृत कर जिससे गाँव तक न्याय व्यवस्था आसानी तक पहुँच सके , केंद्र सरकार द्वारा ग्राम न्यायालय अधिनियम – 2008 को मंजूरी प्रदान करके न्याय के विकेन्द्रीकरण की और सकारात्मक प्रयास किए | राज्य सरकारों द्वारा संबंधित उच्च न्यायालय से सलाह के बाद अपने यहाँ ग्राम न्यायालय का गठन कर सकती है , इसका उद्देश्य ग्राम स्तर के छोटे विवादों (दीवानी मामलों) को ग्राम स्तर पर ही सुलझाना है |
ग्राम न्यायालय के अंतर्गत प्रथम श्रेणी के न्यायाधीश नियुक्त किए जाएंगे , इनकी स्थापना जिला व् खंड स्तर पर की गयी है जिससे न्यायाधीश ग्राम में ही अपनी कार्यवाही करेंगे जिसका खर्च केंद्र सरकार वहन करेगीं | ग्राम न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति को उम्रकैद , मृत्यु दंड या दो वर्ष से अधिक की सजा नहीं दी जा सकती है
भारतीय संविधान के भाग-6 में अनु० – 233 से 237 तक अधीनस्थ न्यायालयों से संबंधित है जो उच्च न्यायालय के अधीन होते है तथा इनका गठन राज्य अधिनियम कानून के द्वारा होता है |
Note: प्रथम ग्राम न्यायालय – 2010 में बस्ती गाँव जयपुर (राजस्थान) में स्थापित किया गया |
राष्ट्रीय विधिक (क़ानूनी) सेवा प्राधिकरण
भारतीय संविधान के अनु० – 39 A के अंतर्गत प्रत्येक राज्य का यह दायित्व है कि सभी नागरिकों को सामान अवसर के आधार पर न्याय प्राप्त हो जिसकें लिए राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण स्थापित किए गए , जो अनुसूचित जाति (SC) व अनुसूचित जनजाति (ST) ,महिलाओं , बच्चों , दिव्यांगों , देह व्यापार व प्राकृतिक आपदा से पीड़ित आदि किसी व्यक्ति को निशुल्क विधिक सहायता प्रदान करता है , किंतु इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिए वार्षिक वेतन 50,000 से कम तथा उच्च न्यायालय में अपील करने के लिए वार्षिक वेतन 25,000 से कम होना चाहिए |