आर्द्र भूमि (नमभूमि) (वेटलैण्ड)

आर्द्र भूमि, पारिस्थितिक तंत्र का जटिल हिस्सा है जिसके अंतर्गत अंतःस्थल, तटीय क्षेत्र एवं समुद्री बांस की एक व्यापक श्रृंखला आती है। इसमें आर्द्र एवं शुष्क दोनों प्रकार के पर्यावरण की विशेषताएं होती हैं एवं अपने उद्गम के आधार पर अत्यधिक विविधता के क्षेत्र होते हैं। रामसर सम्मेलन के अनुसार, नम भूमि क्षेत्र के अंतर्गत दलदली, कच्छ क्षेत्र, जो कृत्रिम या प्राकृतिक, स्थायी या अस्थायी, हो सकते हैं, जिसमें पानी ठहरा हुआ या बहता हुआ हो सकता है। इसमें समुद्री क्षेत्र भी शामिल है जिसकी गहराई 6 मीटर से अधिक नहीं होती। इस तरह इस परिभाषा में मैंग्रेोव, प्रवाल भिति, एश्चुरी, क्रीक, खाड़ी समुद्री घास भूमि एवं झीलें आ जाती हैं।

रामसर सम्मेलन
भारत उन प्रमुख देशों में शामिल है जिन्होंने 1972 में ईरान के रामसर शहर अंतरराष्ट्रीय महत्व के नम भूमि क्षेत्रों के बारे में हुए सम्मेलन में तैयार मसौदे पर हस्ताक्षर किया था। साल 2002 में राजस्थान की चिल्का झील को रामसर पुरस्कार भी दिया गया।
रामसर सम्मेलन के तहत भारत में नमभूमि क्षेत्रों की स्थिति-
नम भूमि का नाम राज्य
अष्टमुडी नमभूमि केरल
भितरकणिका ओडीशा
भोज मध्य प्रदेश
चिल्का झील ओडीशा
डीपोर बील असम
पूर्वी कलकत्ता नमभूमि प. बंगाल
हरिके झील पंजाब
कंजली पंजाब
केवलादेव राष्ट्रीय पार्क राजस्थान
कोलेरू झील आंध्र प्रदेश
लोकटक झील मणिपुर
प्वाइंट केलिमियर सेंक्चुरी तमिलनाडु
पोंग डैम झील हिमाचल प्रदेश
रोपड़ पंजाब
सांभर झील राजस्थान
स्पामकोट्टा झील केरल
सोमोरीरी (Tsomoriri) जम्मू एवं कश्मीर
वेम्बनाद-कोल नमभूमि केरल
वुलर झील जम्मू एवं कश्मीर
चंद्रताल हिमाचल प्रदेश
रेणुका हिमाचल प्रदेश
रुद्रसागर त्रिपुरा
अपर गंगा (ब्रजघाट-नरौरा के मध्य) उत्तर प्रदेश
होकरसर (Hokarsar) जम्मू एवं कश्मीर
सुरनीसर-मानसर जम्मू एवं कश्मीर
नलसरोवर गुजरात
रामसर सम्मेलन
भारत उन प्रमुख देशों में शामिल है जिन्होंने 1972 में ईरान के रामसर शहर अंतरराष्ट्रीय महत्व के नम भूमि क्षेत्रों के बारे में हुए सम्मेलन में तैयार मसौदे पर हस्ताक्षर किया था। साल 2002 में राजस्थान की चिल्का झील को रामसर पुरस्कार भी दिया गया।रामसर सम्मेलन के तहत भारत में नमभूमि क्षेत्रों की स्थिति-
नम भूमि का नाम राज्य
अष्टमुडी नमभूमि केरल
भितरकणिका ओडीशा
भोज मध्य प्रदेश
चिल्का झील ओडीशा
डीपोर बील असम
पूर्वी कलकत्ता नमभूमि प. बंगाल
हरिके झील पंजाब
कंजली पंजाब
केवलादेव राष्ट्रीय पार्क राजस्थान
कोलेरू झील आंध्र प्रदेश
लोकटक झील मणिपुर
प्वाइंट केलिमियर सेंक्चुरी तमिलनाडु
पोंग डैम झील हिमाचल प्रदेश
रोपड़ पंजाब
सांभर झील राजस्थान
स्पामकोट्टा झील केरल
सोमोरीरी (Tsomoriri) जम्मू एवं कश्मीर
वेम्बनाद-कोल नमभूमि केरल
वुलर झील जम्मू एवं कश्मीर
चंद्रताल हिमाचल प्रदेश
रेणुका हिमाचल प्रदेश
रुद्रसागर त्रिपुरा
अपर गंगा (ब्रजघाट-नरौरा के मध्य) उत्तर प्रदेश
होकरसर (Hokarsar) जम्मू एवं कश्मीर
सुरनीसर-मानसर जम्मू एवं कश्मीर
नलसरोवर गुजरात
कच्छ वनस्पति (मैंग्रोव)
कच्छ वनस्पति, क्षार सहिष्णु प्रजाति है जो तटरेखा पर शैल्टर्ड एस्चुअरी, ज्चारीय नदमुख, पश्च जल क्षेत्र, नमकीन दलदली क्षेत्र में पायी जाती है। कच्छ वनस्पतियों की पारिस्थितिक और आर्थिक महत्ता और विभिन्न मानवीय कार्यकलापों के कारण उनके समक्ष आने वाले खतरों को ध्यान में रखते हुए मंत्रालय ने 1986 में कच्छ प्रजाति के संरक्षण और प्रबंधन की एक स्कीम शुरू की। कच्छ वनस्पति और प्रवाल भित्ति राष्ट्रीय समिति की सिफारिशों पर सरकार द्वारा देश में 39 कच्छ वनस्पति क्षेत्रों की पहचान की गई है।

 

भारतीय प्रशांत क्षेत्र अपने प्रवद्धिष्णु मैंग्रोव के लिए जाना जाता है। दुनिया के कुछ उन्नत किस्म के मैंग्रोव गंगा, गोदावरी, कावेरी, कृष्णा नदियों एवं अंडमान निकोबार द्वीप के जलोढ़ डेल्टा में पाए जाते हैं। राज्य वन रिपोर्ट 2009 के अनुसार देश में 4639 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में कच्छ वनस्पतियां हैं जोकि देश के भौगोलिक क्षेत्र का 0.14 प्रतिशत है। कच्छ वनस्पतियों के संरक्षण और उनकी पैदावार बढ़ाने के प्रयासों के बाद से देश में विशेषकर गुजरात, ओडिसा, तमिलनाडु और प. बंगाल में 58 वर्ग किलोमीटर कच्छ वनस्पति क्षेत्र में इजाफा हुआ है। पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में भारत के कुल मैंग्रोव का लगभग आधा हिस्सा पैदा होता है। उसके पश्चात् गुजरात और अण्डमान निकोबार द्वीप समूह का स्थान आता है। तटीय विनियामक क्षेत्र नोटिफिकेशन 1991, जो कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अंतर्गत है, ने मैंग्रोव को पारिस्थितिकीय रूप से काफी संवेदनशील बताया है और इन्हें CRZ-1 में वर्गीकृत किया है जिससे मैंग्रोव क्षेत्रों का उच्च स्तर पर संरक्षण हो सके। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 ने यह माना से संरक्षण प्रदान करते हैं तथा सतत पर्यटन का संसाधन आधार होते हैं। इस दिशा में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने ओडीशा में राष्ट्रीय मैंग्रोव आनुवंशिक संसाधन केंद्र की स्थापना की। इसका उद्देश्य तटवर्ती राज्यों/संघ शासित प्रदेशों को नष्ट हो चुके मैंग्रोव क्षेत्रों के पुनर्वास एवं मैंग्रोव आच्छादित क्षेत्रों में वृद्धि करने हेतु सहायता प्रदान करना है।

भारत सरकार द्वारा एक राष्ट्रीय समन्वय निकाय की स्थापना की गई है जिसने भविष्य में मैंग्रोव की गतिविधि के लिए चार राज्यों- गुजरात, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश एवं ओडीशा का चयन किया है। फरवरी, 2008 में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भारत में मैंग्रीवः जैव-विविधता, संरक्षण एवं पर्यावरणीय सेवाएं विषय पर राष्ट्रीय कार्यशाला इस उद्देश्य से आयोजित की कि अनुसंधान सूचना का वितरण संभव हो तथा शोधकर्ताओं एवं पणधारियों के मध्य संप्रेषण हो सके।

मैंग्रोव वैसे पेड़-पौधों एवं झाड़ियों का समूह है जो तटीय खारे पानी में उगते हैं। यह 25° उत्तर अक्षांशों से 25° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय सागरीय तट पर विकसित होते हैं। यह एश्च्यूरीज, डेल्टा तथा समुद्री तटरेखा के आसपास ज्वारीय क्षेत्रों में बहुतायत में पाए जाते हैं। विश्व में वर्तमान में मैंग्रोव की 110 प्रजातियां ज्ञात हैं।
इंडोनेशिया में विश्व के कुल मैंग्रोव वनों का 21 प्रतिशत पाया जाता है जो विश्व में सर्वाधिक है। ब्राजील, आस्ट्रेलिया, मैक्सिको तथा नाइजीरिया में यह विश्व के कुल क्षेत्रफल का क्रमशः9 प्रतिशत, 7 प्रतिशत, 5 प्रतिशत तथा 4.5 प्रतिशत पाया जाता है।
मैंग्रोव वनस्पति विश्व के लगभग 117 क्षेत्रों में लगभग 1,90,000 से 2,40,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली है।
विश्व में सर्वाधिक सघन मैंग्रोव वन मलेशिया के तटवर्ती क्षेत्रों में पाए जाते हैं। भारत के मैंग्रोव वनों में लगभग 1600 वनस्पतियों एवं 3700 जीवों की पहचान की गई है। पश्चिम बंगाल का सुंदर वन क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है।
विश्व के कुल मैंग्रोव वनों का पांच प्रतिशत भारत में उपलब्ध है।
भारत में 42 वर्गों और 28 समूहों में मैंग्रोव की 69 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से 26 अंडमान और निकोबार क्षेत्र में एवं 18 प्रजातियां पूर्वी तट में पाई जाती हैं।
भारत में मैंग्रोव की दो देशज प्रजातियां हैं, पहली राइजोफोरा एन्नामलायाना जो किपिचवरम तमिलनाडु में और दूसरी ओडीशा के भीतरकनिका क्षेत्र में पाई जाती है

 

कच्छ वनस्पति (मैंग्रोव)
कच्छ वनस्पति, क्षार सहिष्णु प्रजाति है जो तटरेखा पर शैल्टर्ड एस्चुअरी, ज्चारीय नदमुख, पश्च जल क्षेत्र, नमकीन दलदली क्षेत्र में पायी जाती है। कच्छ वनस्पतियों की पारिस्थितिक और आर्थिक महत्ता और विभिन्न मानवीय कार्यकलापों के कारण उनके समक्ष आने वाले खतरों को ध्यान में रखते हुए मंत्रालय ने 1986 में कच्छ प्रजाति के संरक्षण और प्रबंधन की एक स्कीम शुरू की। कच्छ वनस्पति और प्रवाल भित्ति राष्ट्रीय समिति की सिफारिशों पर सरकार द्वारा देश में 39 कच्छ वनस्पति क्षेत्रों की पहचान की गई है।भारतीय प्रशांत क्षेत्र अपने प्रवद्धिष्णु मैंग्रोव के लिए जाना जाता है। दुनिया के कुछ उन्नत किस्म के मैंग्रोव गंगा, गोदावरी, कावेरी, कृष्णा नदियों एवं अंडमान निकोबार द्वीप के जलोढ़ डेल्टा में पाए जाते हैं। राज्य वन रिपोर्ट 2009 के अनुसार देश में 4639 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में कच्छ वनस्पतियां हैं जोकि देश के भौगोलिक क्षेत्र का 0.14 प्रतिशत है। कच्छ वनस्पतियों के संरक्षण और उनकी पैदावार बढ़ाने के प्रयासों के बाद से देश में विशेषकर गुजरात, ओडिसा, तमिलनाडु और प. बंगाल में 58 वर्ग किलोमीटर कच्छ वनस्पति क्षेत्र में इजाफा हुआ है। पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में भारत के कुल मैंग्रोव का लगभग आधा हिस्सा पैदा होता है। उसके पश्चात् गुजरात और अण्डमान निकोबार द्वीप समूह का स्थान आता है। तटीय विनियामक क्षेत्र नोटिफिकेशन 1991, जो कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अंतर्गत है, ने मैंग्रोव को पारिस्थितिकीय रूप से काफी संवेदनशील बताया है और इन्हें CRZ-1 में वर्गीकृत किया है जिससे मैंग्रोव क्षेत्रों का उच्च स्तर पर संरक्षण हो सके। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 ने यह माना से संरक्षण प्रदान करते हैं तथा सतत पर्यटन का संसाधन आधार होते हैं। इस दिशा में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने ओडीशा में राष्ट्रीय मैंग्रोव आनुवंशिक संसाधन केंद्र की स्थापना की। इसका उद्देश्य तटवर्ती राज्यों/संघ शासित प्रदेशों को नष्ट हो चुके मैंग्रोव क्षेत्रों के पुनर्वास एवं मैंग्रोव आच्छादित क्षेत्रों में वृद्धि करने हेतु सहायता प्रदान करना है।

भारत सरकार द्वारा एक राष्ट्रीय समन्वय निकाय की स्थापना की गई है जिसने भविष्य में मैंग्रोव की गतिविधि के लिए चार राज्यों- गुजरात, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश एवं ओडीशा का चयन किया है। फरवरी, 2008 में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भारत में मैंग्रीवः जैव-विविधतासंरक्षण एवं पर्यावरणीय सेवाएं विषय पर राष्ट्रीय कार्यशाला इस उद्देश्य से आयोजित की कि अनुसंधान सूचना का वितरण संभव हो तथा शोधकर्ताओं एवं पणधारियों के मध्य संप्रेषण हो सके।

  • मैंग्रोव वैसे पेड़-पौधों एवं झाड़ियों का समूह है जो तटीय खारे पानी में उगते हैं। यह 25° उत्तर अक्षांशों से 25° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय सागरीय तट पर विकसित होते हैं। यह एश्च्यूरीज, डेल्टा तथा समुद्री तटरेखा के आसपास ज्वारीय क्षेत्रों में बहुतायत में पाए जाते हैं। विश्व में वर्तमान में मैंग्रोव की 110 प्रजातियां ज्ञात हैं।
  • इंडोनेशिया में विश्व के कुल मैंग्रोव वनों का 21 प्रतिशत पाया जाता है जो विश्व में सर्वाधिक है। ब्राजील, आस्ट्रेलिया, मैक्सिको तथा नाइजीरिया में यह विश्व के कुल क्षेत्रफल का क्रमशः9 प्रतिशत, 7 प्रतिशत, 5 प्रतिशत तथा 4.5 प्रतिशत पाया जाता है।
  • मैंग्रोव वनस्पति विश्व के लगभग 117 क्षेत्रों में लगभग 1,90,000 से 2,40,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली है।
  • विश्व में सर्वाधिक सघन मैंग्रोव वन मलेशिया के तटवर्ती क्षेत्रों में पाए जाते हैं। भारत के मैंग्रोव वनों में लगभग 1600 वनस्पतियों एवं 3700 जीवों की पहचान की गई है। पश्चिम बंगाल का सुंदर वन क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है।
  • विश्व के कुल मैंग्रोव वनों का पांच प्रतिशत भारत में उपलब्ध है।
  • भारत में 42 वर्गों और 28 समूहों में मैंग्रोव की 69 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से 26 अंडमान और निकोबार क्षेत्र में एवं 18 प्रजातियां पूर्वी तट में पाई जाती हैं।
  • भारत में मैंग्रोव की दो देशज प्रजातियां हैं, पहली राइजोफोरा एन्नामलायाना जो किपिचवरम तमिलनाडु में और दूसरी ओडीशा के भीतरकनिका क्षेत्र में पाई जाती है।

 

आर्द्रभूमि पक्षियों एवं पशुओं की दुर्लभ जातियों को संरक्षण प्रदान करती हैं। अधिकतर आर्द्रभूमियां प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से नदियों के अपवाह तंत्र से जुड़े होते हैं जैसे- गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदी तंत्र। भारत में आर्द्रभूमियां विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में वितरित हैं। ये एक तरफ लद्दाख के शीत शुष्क क्षेत्र में हैं तो दूसरी ओर राजस्थान के गर्म जलवायु क्षेत्र में भी होते हैं।

आर्द्र भूमि के संरक्षण एवं प्रबंधन संबंधी कार्यक्रम सर्वप्रथम 1987 में, मुख्य आर्द्रभूमि के विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र में अवस्थिति का व्यापक अध्ययन के उद्देश्य से, प्रारंभ किया गया। आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्न गतिविधियां थीं-

  1. नमभूमियों की प्रबंध कार्य योजनाएं तैयार करना और उनका कार्यान्वयन।
  2. उपयुक्त पारिस्थितिकी आधार पर पर्यावरण मुद्दों और नमभूमि के प्रबंधन से सम्बद्ध अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा देना।
  3. भारत में नमभूमि स्रोतों का मूल्यांकन
  4. अंतरराष्ट्रीय सहयोग।

कार्यक्रम की निरंतरता बनाए रखने के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं जिनमें इंजीनियरिंग विकल्पों को अपनाने के स्थान पर संरक्षण की जैविक पद्धति पर मुख्य ध्यान दिया गया है। केचमेंट क्षेत्र उपचार के लिए वाटरशेड प्रबंध पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। विभिन्न उद्देश्यों एवं लक्ष्यों- सर्वेक्षण एवं चिन्हीकरण, संरक्षण, वनीकरण, प्राकृतिक पुनर्उत्पादन, प्रदूषण नियंत्रण, खरपतवार नियंत्रण, वन्यजीव संरक्षण, सतत मत्स्य विकास, पर्यावरणीय शिक्षा एवं विशेष पर्यावरण विकास गतिविधियों को जनसहभागिता द्वारा पूरा करना।

दिसम्बर 2008 तक के आंकड़ों के अनुसार 158 अनुबंधित देशों के कुल 1828 नमभूमि क्षेत्रों को रामसर सूची में शामिल किया जा चुका था जिनका कुल क्षेत्रफल लगभग 16,89,85,680 हैक्टेयर (1,68,985 वर्ग किमी.) है। रामसर स्थलों को मान्यता प्रदान करने का सिलसिला 1974 के बाद ही प्रारंभ हुआ।

 

भारत में अभी तक मात्र 25 नमभूमि स्थलों की रामसर का दर्जा प्राप्त है जिनका कुल क्षेत्रफल लगभग 7 लाख हैक्टेयर है जो क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से विश्व में 39वां है। रामसर श्रेणी में आने वाला अभी देश का सबसे बड़ा नमभूमि क्षेत्र चिल्का झील (1,16,500 हैक्टेयर) व सबसे छोटा रामसर क्षेत्र चंद्रताल (49 हैक्टेयर) है

गौरतलब है कि अभी तक भारत के 24 राज्यों में 94 आर्द्रभूमियां राष्ट्रीय आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रम के तहत चिन्हित की गई हैं।

रामसर (आर्द्रभूमि) संधि

रामसर संधि का उद्देश्य है आर्द्र भूमि का संरक्षण। भारत इसमें 1982 में शामिल हुआ। इसके तहत् भारत के 6 आर्द्र भूमि को महत्वपूर्ण वेटलैंड के रूप में चुना गया है- चिल्का झील, केवला देव राष्ट्रीय उद्यान, बूलर झील, हरिके बैराज झील, लोकटक झील तथा सांभर झील।

आर्द्र भूमि संरक्षण हेतु नवीन दिशा-निर्देश

आर्द्र भूमि के संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाते हुए सरकार ने 2 दिसंबर, 2010 को नए दिशा-निर्देश जारी किए। इसके अंतर्गत पर्यावरणीय दृष्टि से अति-संवेदनशील इस उच्च जैव-विविधता वाले स्थल को क्षति से बचाने के लिए निर्माण, बिना उपचारित कचरे की डम्पिंग तथा औद्योगीकरण भूमि अवक्रमण तथा अन्य मानवीय गतिविधियों से बुरी तरह प्रभावित है।

सरकार द्वारा अधिसूचित आर्द्र भूमि संरक्षण नियम, 2010 में केंद्रीय, राज्य तथा जिला स्तर पर आर्द्र भूमि विनियामक प्राधिकरण के गठन का प्रावधान किया गया है। इस प्राधिकरण में एक अध्यक्ष और 11 सदस्य होंगे। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का सचिव इसका अध्यक्ष होगा। प्राधिकरण पर केंद्र सरकार के अधिनियम में उल्लिखित कानून लागू करना, आर्द्र भूमियों के संरक्षण एवं परिरक्षण हेतु राज्य सरकार की जरूरी सलाह देना, नम भूमि में विनियमित गतिविधियों की प्रक्रिया का निर्धारण करना, स्थानीय प्राधिकारियों के साथ विचार-विमर्श कर आर्द्र भूमि के सीधे प्रभाव क्षेत्र का निश्चय करने, नवीन आर्द्र भूमि की पहचान के प्रस्ताव का आकलन करने, संबंधी जिम्मेदारियां होंगी।

प्राकृतिक वनस्पति

प्राकृतिक वनस्पति का मतलब है वह वनस्पति जो मनुष्य द्वारा विकसित नहीं की गयी है । यह मनुष्यों से मदद की जरूरत नहीं है और जो कुछ भी पोषक तत्व इन्हें चाहिए, प्राकृतिक वातावरण से ले लेते है। जमीन की ऊंचाई और वनस्पति की विशेषता के बीच एक करीबी रिश्ता है। ऊंचाई में परिवर्तन के साथ जलवायु परिवर्तन होता है और जिसके कारण प्राकृतिक वनस्पति का स्वरुप बदलता है। वनस्पति का विकास तापमान और नमी पर निर्भर करता है। यह मिट्टी की मोटाई और ढलान जैसे कारकों पर भी निर्भर करता है। इसे तीन विस्तृत श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है: वन, घास स्थल और झाड़ियां।

उष्णदेशीय सदाबहार वन

इन्हें उष्णकटिबंधीय वर्षावन भी कहा जाता है और ये  भूमध्य रेखा के पास के क्षेत्रों में और कटिबंधों के करीब पाये जाते है। यह क्षेत्र गरम होते हैं और यहाँ साल भर भारी वर्षा होती है। इन जंगलों को सदाबहार कहा जाता है क्योंकि इनके पत्ते कभी नहीं झड़ते हैं। पक्की लकड़ी वाले पेड़ जैसे शीशम, आबनूस और महोगनी यहां काफी मात्रा में पाये जाते हैं। भारत में इनका वर्गीकरण इस प्रकार है – पूर्वोत्तर भारतपश्चिमी घाट के पश्चिमी ढलानअंडमानएवं निकोबार द्वीप समूह।

उष्णदेशीय पतझड़ी वन

ये वर्षाकालिक वन हैं जो भारत के काफी हिस्सों में पाये जाते हैं, जैसे कि पश्चिमी घाट के पूर्वी ढलान पर, हिमालय के तराई क्षेत्र पर, बिहारउत्तर प्रदेशउड़ीसापश्चिम बंगालमहाराष्ट्रआंध्र प्रदेशकर्नाटक और मध्यप्रदेश। ये पेड़ पानी के संरक्षण के लिए शुष्क मौसम में अपने पत्ते गिरा देते हैं। साल, सागौन, नीम और शीशम पक्की लकड़ी वाले  पेड़ हैं जो इन जंगलो में पाये जाते हैं। बाघ, शेर, हाथी, लंगूर और बंदर इन क्षेत्रों में पाये जाने वाले आम जानवर हैं।

उष्णदेशीय शुष्क पतझड़ी वन

यह वनस्पति उन क्षेत्रों में पायी जाती है जहां वार्षिक वर्षा 50 और 100 सेमी के बीच होती है। यह पूर्वी राजस्थानउत्तरीगुजरातपश्चिमी मध्य प्रदेशदक्षिणपश्चिमी उत्तर प्रदेशदक्षिण पंजाबहरियाणा और पश्चिमी घाट के बारिश वाले क्षेत्र में पाये जाते है।

रेगिस्तान और अर्द्ध शुष्क वनस्पति

इस तरह की वनस्पति 50 सेमी से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पायी जाती है। यहां पेड़ छोटी झाड़ियों के रूपों में होते हैं। आम तौर पर उनकी अधिकतम ऊंचाई 6 सेमी तक होती है। इन पेड़ों की जड़ें गहरी, मोटी और पत्तियां कांटेदार होती है। यह वनस्पति पश्चिमी राजस्थानउत्तरी गुजरात और पश्चिमी घाट के बारिश वाले क्षेत्र में पायी जाती  है।

सदाबहार वनस्पति

यह समुद्र-तट और निचले डेल्टा क्षेत्रों में पाया जाता है। इन क्षेत्रों में, उच्च धारा की वजह से खारा पानी फैलता है। यहाँ मिट्टी दलदली होती है। गंगा– ब्रह्मपुत्र डेल्टामहानदीकृष्णागोदावरीकावेरी आदि नदियों के डेल्टा क्षेत्र और पूर्वी और पश्चिमी तट के कुछ हिस्से इस वनस्पति के तहत आते है।

नम उप-उष्णदेशीय पर्वतीय वनस्पति

यह वनस्पति 1070-1500 मीटर की ऊंचाई पर प्रायद्वीपीय भारत में पाया जाता है। यह वनस्पति सदाबहार है। पेड़ों की लकड़ी लगभग नरम होती हैं। यह पश्चिमी घाटपूर्वी घाटनीलगिरीकार्डामम हिल्स और अन्नामलाई कीपहाडी जैसे क्षेत्रों में पाया जाती है।

नम शीतोष्ण पर्वतीय वनस्पति

यह वनस्पति 1500 मीटर की ऊंचाई पर पायी जाती है। यह ज्यादातर प्रायद्वीपीय भारत में पायी जाती है। इसके जंगल बहुत घने नहीं होते। वहाँ सतह पर झाड़ियां होती हैं। यह अन्नामलाई की पहाड़ियोंनीलगिरि औरपालनी में पाया जाता है। इस जंगल के मुख्य पेड़ हैं – मैगनोलियायुकलिप्टुसऔर एल्म।

हिमालयी वनस्पति

ऊंचाई में भिन्नता के अनुसार कई तरह की प्रजातियां इन पहाड़ों में पायी जाती है। ऊंचाई में वृद्धि के साथ, तापमान में गिरावट आती है। 1500 मीटर से लेकर 2500 मीटर तक की ऊंचाई के बीच के पेड़ों का आकार शंकु की तरह होता है। चीड़पाइन और देवदार महत्वपूर्ण शंकुधारी पेड़ हैं जो इन जंगलों में पाए जाते हैं।

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