उच्चतम न्यायालय (Supreme court)

भारत में एकल न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है जिसमें शीर्ष स्थान पर सर्वोच्च न्यायालय (S.C) व उसके अधीन 24 उच्च न्यायालय है। भारतीय संविधान के भाग – 5 में अनु०- 124 से 147 तक उच्चतम न्यायालय के गठन , स्वतंत्रता , न्यायक्षेत्र , शक्तियां प्रक्रिया आदि का उल्लेख किया गया है।

उच्चतम न्यायालय का गठन 

संविधान के अनु०- 124 के अंतर्गत वर्ष 1950 में उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई , उस समय उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों की संख्या 8 (मुख्य न्यायधीश + 7 अन्य न्यायधीश) थी  वर्तमान समय में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 31 (मुख्य न्यायधीश + 30 अन्य न्यायधीश) है  इसे फरवरी (February) 2009 में संविधान संसोधन 2008 के अंतर्गत इनकी संख्या 26 से बढ़ाकर 31 कर दी गई। इस संदर्भ में अन्य न्यायाधीशों की संख्या   बढाकर 1956 में 10 , 1960 में 13 , 1977 में 18 , 1986 में 26 व 2009 में बढ़ाकर 31 कर दी गई।

न्यायधीशों की नियुक्ति 

  • संविधान के अनु०-124 के अनुसार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथाउच्चतम न्यायालय के सभी न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति कॉलेजियम (collegium) की सलाह से करता है  
  • मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति अन्य न्यायधीश (उच्चतम न्यायालय) एवं उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की सलाह से करता है और उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायधीश का परामर्श आवश्यक है

न्यायाधीशों के नियुक्ति संबंधी परामर्श पर विवाद 

न्यायाधीशों के नियुक्ति संबंधी परामर्श पर न्यायालय द्वारा निम्नलिखित व्याख्या दी गई है

  • प्रथम न्यायधीश मामलें (1982)में न्यायालय ने निर्णय दिया की परामर्श का मतलब सहमति नहीं केवल विचारों का आदान-प्रदान है
  • द्वितीय न्यायधीश मामलें (1993)में न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णय को बदलते हुए यह निर्णय दिया कि न्यायाधीशों के नियुक्ति संबंधी सलाह मानने की राष्ट्रपति को बाध्यता होगी किंतु मुख्य न्यायधीश यह सलाह उच्चतम न्यायालय के 2वरिष्टतम न्यायाधीशों से विचार विमर्श कर करेगा
  • तृतीय न्यायधीश मामलें (1998)में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया की न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामलें में मुख्य न्यायधीश को 4 वरिष्टतम न्यायधीशों से सलाह लेनी होगी, यदि इसमें से 2 भी न्यायधीश नियुक्ति के पक्ष में नहीं है तो मुख्य न्यायधीश द्वारा राष्ट्रपति को सिफारिश नहीं भेजी जाती है

99 वें संविधान संसोधन अधिनियम 2014 तथा न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 2014 ने सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायधीशों की नियुक्ति लिए बने कॉलेजियम प्रणाली (Collegium System) को एक नये निकाय राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointment Commission – NJAC) में परिवर्तित कर दिया , पुन: वर्ष 2015 में उच्चतम न्यायालय ने 99 वें संविधान संसोधन अधिनियम को असंवैधानिक करार दिया

योग्यता 

  • भारत का नागरिक होना चाहिए
  • उच्च न्यायालय में कम से कमवर्ष के लिए न्यायधीश के पद पर कार्य कर चुका हो 
  • उच्च न्यायालय या विभन्न न्यायालयों में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता के रूप में कार्य कर चुका हो

कार्यकाल 

  • अधिकतम65 वर्ष तक उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायधीश के पद पर रह सकता है।
  • राष्ट्रपति को लिखित त्यागपत्र देकर अपने पद से मुक्त हो सकता है
  • सिद्ध कदाचार व असमर्थता के आधार पर संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित विशेष बहुमत से राष्ट्रपति के द्वारा उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश को उसके पद से हटाया जा सकता है

पेंशन व भत्ते

भारत के मुख्य न्यायधीश (Cheif Justice of India) तथा अन्य न्यायधीशों के वेतन व भत्ते संसद द्वारा निर्धारित होते है जो कि भारत की संचित निधि (Consolidated fund of India) पर भारित होते है तथा सदन में इस पर मतदान नहीं किया जा सकता है

न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया 

संसद के दोनों सदनों से पारित विशेष बहुमत द्वारा राष्ट्रपति के आदेश से उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश को उसके पद से हटाया जा सकता है , किंतु न्यायधीश को हटाने का आधार उसका सिद्ध कदाचार व असमर्थता होनी चाहिए  न्यायधीश जाँच अधिनियम न्यायधीश को हटाने के लिए महाभियोग की प्रक्रिया का उपबंध करता है जो निम्न है –

  • न्यायधीश को हटाने हेतु सदन में प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए कम से कम लोकसभा में100 सदस्यों व राज्यसभा में 50 सदस्यों के हस्ताक्षर अनिवार्य है 
  • लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति द्वारा इस प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है
  • प्रस्ताव को स्वीकार करने की स्थिति में इसकी जाँच के लिए3 सदस्यीय समिति का गठन किया जाता है , जिसमें उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायधीश या  अन्य  न्यायधीश  , उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायधीश , प्रतिष्ठित न्यायवादी शामिल होते है
  • यदि समिति द्वारा न्यायधीश को आरोपों का दोषी पाया जाता है तो सदन इस प्रस्ताव पर विचार कर सकता है। 
  • विशेष बहुमत से दोनों सदनों में प्रस्ताव पारित कर इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तथा अंत में राष्ट्रपति द्वारा न्यायधीश को हटाने का प्रस्ताव पारित कर उसे पद से हटाया जा सकता है

तदर्थ न्यायधीश (Adhoc judges)

यदि किसी समय कोरम (गणपूर्ति) पूर्ण होने में स्थायी न्यायधीशों की संख्या कम हो तो भारत का मुख्य न्यायधीश उच्च न्यायालय के किसी न्यायधीश को अस्थायी काल के लिए उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायधीश नियुक्त कर सकता है किंतु ऐसा वह संबंधित उच्च न्यायालय के न्यायधीश व राष्ट्रपति की पूर्ण सहमति के बाद ही कर सकता है

सेवानिवृत न्यायधीश (Retired judge)

भारत का मुख्य न्यायधीश किसी भी समय उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय के न्यायधीश को अल्पकाल के लिए नियुक्त कर सकता है , किंतु ऐसा वह संबंधित व्यक्ति व राष्ट्रपति की सहमति से ही करेगा

उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता 

  • सर्वोच्च न्यायालय(Supreme Court) के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह से करता है|
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को सिद्ध कदाचार व दुर्व्यवहार के आधार पर हटाया जा सकता है|
  • सदन में न्यायधीशों के आचरण पर चर्चा नहीं की जा सकती है |
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन , भत्ते व प्रशासनिक खर्च भारत की संचित निधि (Consolidated funds of India) है| सदन में इस पर मतदान नहीं किया जा सकता है |
  • न्यायालय को अपनी अवमानना पर दंड देने की शक्ति है|
  • भारत के मुख्य न्यायधीश को अपने अधीन अधिकारी व कर्मचारी नियुक्त करने की स्वतंत्रता प्राप्त है|
  • सेवानिवृति के बाद उच्चतम न्यायालय का न्यायधीश किसी भी न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में कार्य नहीं कर सकता है|

न्यायालय की अवमानना (Contempt of Court)

न्यायालय की अवमानना सिविल या अपराधिक दोनों प्रकार की हो सकती है , जो निम्न है –

सिविल अवमानना (Civil contempt) – सिविल अवमानना का तात्पर्य किसी व्यक्ति द्वारा स्वेच्छा से न्यायालय के किसी फैसले , आदेश , न्यायादेश की अवहेलना करने से है |

अपराधिक अवमानना (Criminal contempt) – इससे तात्पर्य किसी ऐसे सामग्री का प्रकाशन व कार्य करना है , जिसमें न्यायालय की स्थिति को कमतर आंकना या न्यायिक प्रक्रिया में बढ़ा पहुँचाना शामिल है, किंतु किसी मामले में निर्दोष प्रकाशन और उसका वितरण न्यायिक कार्यवाही रिपोर्ट की निष्पक्ष व उचित आलोचना को न्यायालय की अवमानना नहीं माना जाएगा|

सर्वोच्च न्यायालय को अपनी अवमानना पर दंडित करने का अधिकार है, इसके लिए न्यायालय द्वारा लगभग 6 माह तक सामान्य कारावास या 2000 रू० आर्थिक अर्थदंड या दोनों शामिल है | वर्ष 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि यह शक्ति उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) व उच्च न्यायालय (High Court) दोनों को प्राप्त है|

 

उच्चतम न्यायालय की शक्तियां व क्षेत्राधिकार

  • भारतीय संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय को व्यापक शक्तियां व क्षेत्राधिकार प्रदान किए गए है ब्रिटेन के उच्च सदन (House of Lords) की तरह भारत में उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्राप्त है जिसे निम्न वर्गों में वर्गीकृत किया गया है — मूल / आरंभिक क्षेत्राधिकार
  • अपीलीय क्षेत्राधिकार
  • परामर्शी / सलाहकारी क्षेत्राधिकार
  • न्यायिक समीक्षा

मूल क्षेत्राधिकार (Original jurisdiction)

इसके अंतर्गत कुछ मामलों की सुनवाई सीधे उच्चतम न्यायालय कर सकता है तथा ऐसे मामलों में निचली अदालत में सुनवाई आवश्यक नहीं है , उच्चतम न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार उसे संघीय मामलों से  संबंधित सभी विवादों में निर्णायक की भूमिका प्रदान करता है| उच्चतम न्यायालय के मूल क्षेत्राधिकार में आने वाले मामलें  निम्न है —

  • केंद्र व राज्यों के मध्य विवाद
  • दो या दो से अधिक राज्यों के मध्य विवाद
  • मूल अधिकारों से संबंधित मामलें
  • राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति संबंधी विवाद

अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate jurisdiction)

उच्चतम न्यायालय को अपने अधीनस्थ उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार है , इसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति द्वारा उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है किंतु उच्च न्यायालय को यह प्रमाण पत्र देना होता है कि वह मुक़दमा उच्चतम न्यायालय में अपील करने योग्य है| अपीलीय क्षेत्राधिकार को 4 वर्गों में विभाजित किया गया है —

  • संवैधानिक मामलें
  • दीवानी मामलें
  • फौजदारी मामलें
  • विशिष्ट मामलें

संवैधानिक मामलें 

इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकती है बशर्ते उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि उस मामलें का संबंध संविधान की व्याख्या से जुड़े किसी वास्तविक प्रसंग  से है अत: संविधान की व्याख्या की आवश्यकता है | यदि ऐसा उच्च न्यायालय द्वारा प्रमाणित न किया जाए तो भी उच्चतम न्यायालय किसी महत्वपूर्ण मामलें पर अपील कर सकता है |

दीवानी मामलें 

दीवानी मामलों में उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है , किंतु उच्चतम न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि –

  • मामलें का संबंध सार्वजनिक महत्व से है|
  • मामलें का निर्णय उच्चतम न्यायालय में किया जाना आवश्यक है|

फ़ौजदारी मामलें 

फ़ौजदारी मामलों में भी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है –

  • जब किसी अपराधी को अधीनस्थ न्यायालय ने छोड़ दिया हो लेकिन उच्च न्यायालय में अपील होने पर उसे मृत्यु दंड दिया गया हो|
  • किसी मामलें को उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय से लेकर अपने पास हस्तांतरित कर लिया हो तथा अपराधी कोमृत्यु दंड दिया गया हो |

विशिष्ट मामलें 

इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय भारत के न्यायक्षेत्र में  किसी न्यायालय अथवा अधिग्रहण द्वारा किसी वाद या मामलों में दिए गए किसी निर्णय में डिक्री (Order) , अवधारणा , दंडादेश  की विशेष अनुमति दे सकता है किंतु सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिग्रहण द्वारा दिए गए किसी निर्णय के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त नहीं होगी|

परामर्शी क्षेत्राधिकार  (Advisory jurisdiction)

अनु० – 143 के अनुसार राष्ट्रपति को दो मामलों में उच्चतम न्यायालय से सलाह लेने का अधिकार प्राप्त है –

  • सार्वजनिक महत्व के किसी मामलें पर जो विधि से संबंधित हो|
  • किसी पूर्व संवैधानिक संधि , समझौते , सनद आदि मामलों पर किसी विवाद के उत्पन्न होने की स्थिति में

प्रथम मामलें में उच्चतम न्यायालय अपना  मत दे भी सकता है और नहीं भी किंतु दूसरे मामलें में उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को अपना मत देना अनिवार्य है|

अभिलेख न्यायालय   (Record court)

अनु० – 129 के अनुसार उच्चतम न्यायालय को अभिलेखों के न्यायालय के रूप में दो शक्तियां प्राप्त है –

  • उच्चतम न्यायालय के फैसले सर्वकालिक अभिलेख व साक्ष्य के रूप में रखे जाते है तथा उन्हें आधार मानकर न्यायालयों के निर्णय दिए जाते है|
  • उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी सकती है तथा उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार भी है की वह अपनी अवमानना के लिए दंडित कर सके , इसके लिए लगभग 6 माह तक सामान्य जेल या 2000 रू० अर्थदंड या दोनों हो सकते है|

न्यायिक समीक्षा (Judicial review)

उच्चतम न्यायालय को अपने निर्णयों की समीक्षा करने का अधिकार प्राप्त है यदि उच्चतम न्यायालय को यह प्रतीत हो कि उसके द्वारा दिए गए निर्णय में किसी पक्ष के प्रति न्याय नहीं हुआ है , तो वह अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर सकता है तथा उसमे आवश्यक परिवर्तन कर सकता है|

अन्य शक्तियां 

संवैधानिक न्यायपीठ की स्थापना 

उच्चतम न्यायालय ने सामाजिक मामलों से जुड़े मामलों को शीघ्रता से निपटाने के लिए 2014 में सामाजिक न्यायपीठ का गठन किया गया जिसके प्रथम अध्यक्ष (H.L Dattu) थेसंवैधानिक न्यायपीठ को  2 न्यायधीशों की बेंच बनाया गया है यह पीठ प्रत्येक शनिवार को सुनवाई कर सकते है|

मौलिक अधिकारों की रक्षा की शक्ति 

उच्चतम न्यायालय को किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन होने पर 5 रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है —

  • बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas corpus)
  • परमादेश (Mandamus)
  • उत्प्रेषण
  • प्रतिषेध
  • अधिकारपृच्छा (Quo Warranto)

 

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