दल बदल कानून

51 वा संविधान संशोधन 1985 के द्वारा दल बदल कानून लाया गया |  दल बदल कानून के द्वारा सांसदों तथा विधायकों द्वारा एक राजनीतिक दल से दूसरे राजनीतिक दल मैं परिवर्तन के आधार पर उनकी निर्योग्यता का प्रावधान किया गया है  |इस हेतु दल बदल कानून के द्वारा संविधान में 4 अनुच्छेद में परिवर्तन किया गया तथा एक नई  दसवीं अनुसूची जोड़ी गई|

दल बदल कानून निम्नलिखित परिस्थितियों में लागू होता है

राजनीतिक दलों के सदस्य कोई भी सांसद या विधायक जिस दल की टिकट से चुनाव लड़ा हो  अ – यदि वह अपनी स्वेच्छा से उस दल की सदस्यता छोड़ देता है

ब – सदन में अपने राजनीतिक दल के निर्देश के विपरीत मतदान करता है या अनुपस्थित रहता है और राजनीतिक दल उसके इस कृत्य को 15 दिन के भीतर क्षमा नहीं करता है तो उपरोक्त परिस्थिति में उस दल की सदस्यता उस सदस्य की सदस्यता खत्म हो जाती है|

नामनिर्देशित सदस्य  – यदि नामनिर्देशित सदस्य अपने सदन शपथ ग्रहण करने के 6 महीने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण करता है तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है|

निर्दलीय सदस्य –  यदि कोई निर्दलीय सदस्य चुनाव जीतने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता धारण करता है तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है|

किसी दल में टूट के कारण यदि कोई उसका सदस्य अपने दल की सदस्यता का त्यागपत्र करता है तो भी उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है|

 

 दल परिवर्तन कानून निम्नलिखित परिस्थितियों में लागू नहीं होता

. यदि किसी दल में विभाजन हो जाए और कम से कम एक तिहाई सदस्य  मिलकर कोई नया दल बनाए तो उसी स्थिति में दल परिवर्तन कानून लागू नहीं होता |

. किसी भी राजनीतिक दल का सदस्य यदि पीठासीन अधिकारी चुना जाता है तो स्वैच्छिक रूप से अपने दल से बाहर चला जाएगा और कार्यकाल के समाप्ति के बाद वह फिर अपने दल का सदस्य बन जाएगा और यह उन पर दल परिवर्तन नियम लागू नहीं होगा |

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

. दल परिवर्तन से उत्पन्न निर्हरता संबंधी प्रश्न पर अंतिम निर्णय उस सदन का अध्यक्ष करता है |  प्रारंभ में इस कानून के अनुसार अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता था और इस पर किसी न्यायालय में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता|  परंतु किहोतो होलोहन  मामला 1993 में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह असंवैधानिक है | क्योंकि जब अध्यक्ष निर्णय देता है तो उस समय वह अधिकरण की तरह काम करता है और हो सकता है उसका निर्णय दुर्भावना ,प्रतिकूलता आदि से प्रभावित हो | इसीलिए उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है | परंतु अध्यक्ष के निर्णय करने के अधिकार के विवाद को प्रश्नगत नहीं किया जा सकता |

. दसवीं अनुसूची के तहत दसवीं अनुसूची के उपबंध को प्रभावी करने के लिए नियम बनाने की शक्ति सदन  के अध्यक्ष को होती है | सदन का अध्यक्ष ऐसे नियम को संसद के समक्ष 30 दिनों के लिए रख पाता है और सदन इस नियमों को स्वीकृति और अस्वीकृत कर सकता है|

. जिस सदस्य पर दल परिवर्तन नियम के उल्लंघन का आरोप लगता है उसे अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाता है|

.  सदन के अध्यक्ष दल परिवर्तन पर संज्ञान तभी लेंगे जब सदन के किसी सदस्य के द्वारा उन्हें शिकायत प्राप्त होगी|

.  91 वां संविधान संशोधन अधिनियम 2003 इसके तहत दसवीं अनुसूची में एक उपबंध में परिवर्तन किया गया कि  अब विभाजन के मामले में दल बदल के आधार पर अयोग्यता नहीं मानी जाएगी |

.  किसी दल में टूट के आधार पर पहले सदस्य उस दल की सदस्यता छोड़ सकते थे  इस प्रावधान को हटा दिया गया है

. प्रधानमंत्री सहित संपूर्ण मंत्रिपरिषद परिषद का आकार लोकसभा के कुल सदस्य संख्या  15% से अधिक नहीं होगा

. मुख्यमंत्री सहित संपूर्ण मंत्रिपरिषद का आकार राज्य विधानमंडल की कुल कुल सदस्य संख्या से 15% से अधिक नहीं होगा लेकिन यह 12 से कम भी नहीं होना चाहिए

.  संसद या विधानमंडल के कोई भी सदस्य जिन्हें दल परिवर्तन के आधार पर निर्योग्य ठहराया गया है वह किसी भी मंत्री पद पर नहीं रहेंगे|

. यदि किसी दल में विभाजन होता है और उस दल का एक तिहाई सदस्य दुसरे  दल में शामिल हो जाता है तो वहां पर दल परिवर्तन अधिनियम लागू नही होगा

 

दल परिवर्तन नियम के लाभ

. बार-बार होने वाली राजनीतिक अस्थिरता समाप्त हो गई

. राजनीति के  स्तर पर  भ्रष्टाचार को इतने कम किया और निर्वाचन के खर्चे को नियंत्रित किया

. विभिन्न राजनीतिक दलों को एक संवैधानिक पहचान दी

दल परिवर्तन कानून की कमियां

 

. व्यक्तिगत विचार रखने से रोक सार्वजनिक रूप से असहमति प्रकट करने पर रोक

.  निर्दलीय तथा नामनिर्देशित सदस्यों के बीच भेदभाव अतार्किक

. बड़े पैमाने पर होने वाले दल परिवर्तन को कानूनी रूप दिया

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