दिल्ली सल्तनत – गुलाम वंश
कुतुबुदीन ऐबक, मुहम्मद गौरी का गुलाम था। उसने भारत में जिस राजवंश की स्थापना की उसे गुलाम वंश (Slave Dynasty) कहते है। इस वंश ने 1206 से 1290 ई. तक 84 साल तक राज किया। इस वंश के शासक या संस्थापक ग़ुलाम (दास) थे न कि राजा। इस लिए इसे राजवंश की बजाय सिर्फ़ वंश कहा जाता है।
इस वंश के शासक निम्नलिखित थे : –
- कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 – 1210)
- आरामशाह (1210)
- इल्तुतमिश (1210 – 1236)
- रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह (1236)
- रजिया सुल्तन (1236 – 1240)
- मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 – 1242)
- अलाऊद्दीन मसूदशाह (1242 – 1246)
- नासिरूद्दीन महमूद (1246 – 1266)
- गयासुद्दीन बलबन (1266 – 1286)
- कैकुबाद (1286 – 1290)
- शमशुद्दीन क्यूम़र्श (1290)
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कुतुबुद्दीन ऐबक – Qutubuddin Aibak (1206 – 1210 ई.)
कुतुबुदीन ऐबक दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था। इसी को ही दिल्ली गुलाम वंश का संस्थापक कहा जाता है, कुतुबुदीन ऐबक मुहमंद गौरी का गुलाम था। जब मुहमंद गौरी ने भारत में लूटपाट कर के वापिस अफगान गया तो उसने भारत में अपने दासों को नियुक्त किया जो भारत में उसके नाम से शासन करे।
शासनकाल – 1206 – 1210 ई.
राज्यारोहण – मुहमंद गौरी की मृत्यु के बाद 25 जून 1206 ई. को कुतुबुदीन ऐबक का अनोपचारिक राज्यारोहण लाहोर में हुआ। उसने लाहोर को अपनी राजधानी बनाया था।
गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका।
प्रमुख योगदान
- दिल्ली सल्तनत की स्थापना की।
- दानवीर और उदार होने के कारण ‘लाखबख्श’ के नाम से भी जाना जाता था।
- साहित्य और कला का संरक्षक था।
- फर्रुखमुद्दार एवं हसन निजामी उसके दरवार के प्रसिद्ध विद्वान थे।
निर्माण कार्य
- दो प्रसिद्ध मस्जिद दिल्ली का कुबत-उल-इस्लाम और अजमेर का ढाई दिन का झोंपड़ा बनवाया।
- अपने गुरु ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका के स्मृति में कुतुबमीनार का एक मंजिल का निर्माण कराया (इसके मृत्यु के कारण यह अधुरा ही बन पाया)। इसे इल्तुतमिश ने पूरा किया था।
दामाद – इल्तुतमिश ।
पुत्र – आरामशाह (कई इतिहासकार इसे कुतुबुदीन ऐबक का पुत्र नहीं मानते है)।
मृत्यु – नवम्बर 1210 ई. में लाहोर में चोगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिर जाने के कारण मृत्यु हो गई।
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आरामशाह – Aramshah (1210 ई.)
कुतुबुदीन ऐबक के आकस्मिक मृत्यु के बाद तुर्की सरदारों ने उनके पुत्र आरामशाह को 1210 ई. में लाहौर ने सुल्तान बना दिया। उसी बीच कुबाचा और खिलजियों के आक्रमण को आरामशाह नियंत्रण नही कर सका। जिसके फलस्वरूप बदायूं के गवर्नर, इल्तुतमिश को, जो कुतुबुदीन ऐबक का दामाद था तुर्की सरदारों ने सुल्तान बनाना चाहा, जिसका विरोध आरामशाह ने किया। इल्तुतमिश ने आरामशाह को मारकर सत्ता पर अधिकार कर लिया।
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इल्तुतमिश – (1210 – 1236 ई.)
इल्तुतमिश तुर्किस्तान की इल्बरी काबिले का था। इसका असली नाम ‘अलतमश’ था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद ग़ोरी ने उसे ‘अमीरूल उमरा’ नामक महत्त्वपूर्ण पद दिया था। इसने 1210 ई. से 1236 ई. तक शासन किया। राज्याभिषेक समय से ही अनेक तुर्क अमीरउसका विरोध कर रहे थे।
सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है।
शासनकाल – 1210 – 1236 ई.
राज्यारोहण – ऐबक ने सेनापति अमीद अली इस्माइल के अनुमति से आरामशाह को मारकर 1210 ई. में दिल्ली में ऐबक वंश की जगह इलबरी वंश की स्थापना की।
गुरु – ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका।
पुत्री – रजिया सुल्तान।
प्रमुख योगदान
- लाहौर से अपनी राजधानी को दिल्ली ले आया।
- सल्तनत के तीन महत्वपूर्ण अंग इक्त्ता, सेना और मुद्रा प्रणाली का गठन किया।
- इक्ता – धन के स्थान पर वेतन के रूप में भूमि प्रदान करना।
- नए सिक्के चाँदी का टंका तथा तांबे के सिक्के जातल का प्रचलन इल्तुतमिश ने ही किया।
- इल्तुमिश ने विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है।
निर्माण कार्य
- ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काका की स्मृति में 1231 – 32 ई. में कुतुबमीनार को पूरा बनवाया था।
- भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है।
- इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया।
- ‘अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था।
- उसने 1230 में महरौली के हौज-ए-शम्शी (शम्सी ईदगाह) जलाशय का निर्माण किया ।
विद्वानों का संरक्षण
- तत्कालीन विद्वान दरबारी लेखक मिनहाज उस सिराज थे, जिसने प्रसिध्द ग्रंथ तबकाते-नासिरी की रचना की एवं मलिक ताजूद्दीन को संरक्षण प्रदान किया।
महत्वपूर्ण युद्ध
- इल्तुतमिश ने 1226 ई. में बंगाल पर विजय पाकर बंगाल को दिल्ली सल्तनत का इक्ता (सूबा) बनाया।
- इल्तुतमिश ने 1226 ई. में रणथम्भौर जीता तथा परमारों की राजधानी मंदौर पर अधिकार कर लिया।
- इल्तुतमिश के काल मे 1221 ई. मंगोलों ने चंगेज खाँ के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया।
मृत्यु
- खोखरो के अभियान को दबाने के दौरान 1236 ई. में मृत्यु हो गई।
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रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह (1236 ई.)
रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का शासक था। सन् 1236 में इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद वो एक साल से भी कम समय के लिए सत्तासीन रहा। यह इल्तुतमिश का सबसे छोटा बेटा था।
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रजिया सुल्तन – Razia Sultan (1236 – 1240 ई.)
रज़िया अल-दिन, शाही नाम “जलॉलात उद-दिन रज़ियॉ” जिसे सामान्यतः “रज़िया सुल्तान” या “रज़िया सुल्ताना” के नाम से जाना जाता है, दिल्ली सल्तनत की सुल्तान थी। वह इल्तुतमिश की पुत्री थी। रज़िया सुल्ताना मुस्लिम एवं तुर्की इतिहास कि पहली महिला शासक थीं।
शासनकाल – 1236 – 1240 ई.
राज्यारोहण – जनता के समर्थन से नवंबर 1236 ई. में राज्यारोहण किया गया।
- रजिया सुलतान दिल्ली सल्तनत की पहली और अंतिम महिला सुल्तान थी।
- रजिया पुरुषों की तरह चोगा (काबा) कुलाह (टोपी) पहनकर राजदरबार में शासन करती थी।
- रज़िया अपनी राजनीतिक समझदारी और नीतियों से सेना तथा जनसाधारण का ध्यान रखती थी।
मृत्यु
- रजिया ने लाहौर का विद्रोह सफलतापूर्वक दबा दिया। मगर जब भटिंडा के प्रशासन अल्तुनिया से युद्ध कर वह याकृत के साथ दिल्ली आ रही थी, तो 14 अक्तुबर, 1240 को मार्ग में उसका वध कर दिया गया।
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मुईज़ुद्दीन बहरामशाह – Muiz ud din Bahramshah (1240 – 1242 ई.)
1240 ई. में रजिया सुल्तान के हत्या कर उसके भाई मुईज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 ई.) ने सल्तनत पर अधिकार कर लिया। इसे तुर्की अमीरों ने नायब-ए-मुमलकत (संरक्षक) का पद बनाया था। वह नाममात्र का शासक था, वास्तव में चालीसा ही शासन संभाला रहे थे। तुर्क अमीरों ने 1242 ई. में बहरामशाह की हत्या कर दी।
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अलाऊद्दीन मसूदशाह – Ala ud-Din Masudshah (1242 – 1246 ई.)
अलाउद्दीन मसूद शाह तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का सातवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। वह रुकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह का पौत्र तथा मुइज़ुद्दीन बहरामशाह का पुत्र था। उसके समय में नाइब का पद ग़ैर तुर्की सरदारों के दल के नेता मलिक कुतुबुद्दीन हसन को मिला क्योंकि अन्य पदों पर तुर्की सरदारों के गुट के लोगों का प्रभुत्व था, इसलिए नाइब के पद का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह गया था। शासन का वास्तविक अधिकार वज़ीर मुहाजबुद्दीन के पास था, जो जाति से ताजिक (ग़ैर तुर्क) था। तुर्की सरदारों के विरोध के परिणामस्वरूप यह पद नजुमुद्दीन अबू बक्र को प्राप्त हुआ। इसी के समय में बलबन को हाँसी का अक्ता प्राप्त हुआ। ‘अमीरे हाजिब’ का पद इल्तुतमिश के ‘चालीस तुर्कों के दल’ के सदस्य ग़यासुद्दीन बलबन को प्राप्त हुआ। 1245 में मंगोलों ने उच्छ पर अधिकार कर लिया, परन्तु बलबन ने मंगोलों को उच्छ से खदेड़ दिया, इससे बलबन की प्रतिष्ठा बढ़ गयी। अमीरे हाजिब के पद पर बने रह कर बलबन ने शासन का वास्तविक अधिकार अपने हाथ में ले लिया। अन्ततः बलबन ने नसीरूद्दीन महमूद एवं उसकी माँ से मिलकर अलाउद्दीन मसूद को सिंहासन से हटाने का षडयंत्र रचा। जून, 1246 में उसे इसमें सफलता मिली। बलबन ने अलाउद्दीन मसूद के स्थान पर इल्तुतमिश के प्रपौत्र नसीरूद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया।
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नासिरूद्दीन महमूद – Nasir ud din Mahmud (1246 – 1266 ई.)
नासिरूद्दीन महमूद तुर्की शासक था, जो दिल्ली सल्तनत का आठवां सुल्तान बना। यह भी गुलाम वंश से था। बलबन ने षड़यंत्र के द्वारा 1246 ई. में सुल्तान मसूद शाह को हटाकर नाशिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया। बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नाशिरुद्दीन महमूद से करवाया था। नसिरुद्दीन मधुर एवं धार्मिक स्वभाव का व्यक्ति था। शासक के रूप में नसिरुद्दीन में तत्कालीन पेचीदी परिस्थिति का सामना करने लायक आवश्यक गुणों का काफी अभाव था। नसिरुद्दीन की 12 फरवरी 1266 ई. को मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका कोई भी पुरुष उत्तराधिकारी नहीं बचा। इस प्रकार इल्तुतमिश के वंश का अन्त हो गया। तब बलबन, जिसकी योग्यता सिद्ध हो चुकी थी तथा जो स्वर्गीय सुल्तान द्वारा उसका उत्तराधिकारी मनोनीत किया गया, कहा जाता है कि सरदारों एवं पदाधिकारियों की मौन स्वीकृति से सिंहासन पर बैठा।
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गयासुद्दीन बलबन – Ghiyas ud din Balban (1266 – 1286 ई.)
गयासुद्दीन बलबन इसका वास्तविक नाम बहाउदीन था। उसने सन् 1266 से 1286 तक राज्य किया। गयासुद्दीन बलबन, जाति से इलबारी तुर्क था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में दास के रूप में बेच दिया। ख्वाजा जमालुद्दीन अपने अन्य दासों के साथ उसे 1232 ई. में दिल्ली ले आया। इन सबको सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीद लिया। इस प्रकार बलबन इल्तुतमिश के चेहलागान नामक तुर्की दासों के प्रसिद्ध दल का था।
उपाधि – जिल्ला-इलाही।
कार्य
- सुल्तान के पद पर बैठते ही चालीसा का परभाव समाप्त कर दिया।
- अपनी स्थिति को मजबूत करने के किये इल्तुतमिश के परिवार के शेष लोगो को मरवा दिया।
- बंगाल से सूबेदार तुगरिल खां ने 1276 ई. में विद्रोह किया, जिससे क्रुद्ध होकर मरवा दिया।
बलवत का सिद्धांत
- बलबन सुल्तान को पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधित्व मानता था।
- उसेक अनुसार सुल्तान जिल्ले अल्लाह है अर्थात ईश्वर की परछाई है।
बलवत के द्वारा प्रचलित नियम
- सामान्य लोगो से सुल्तान नही मिल सकता था।
- सिक्को पर अपना नाम खुदवाया तथा खुतबा में खलीफा का नाम पढ़वाया था।
- उच्चवंशाय लोगों को पदाधिकारी बनाया जाता था।
- वह एकांत में रहता था, हर्ष या शोक से विचलित नही होता था। शराब पीना एवं मनोरंजन कार्य बंद कर दिए थे।
- उसने राजदरबार में सिजदा एवं पेबोस की प्रथा प्रारम्भ की।
- कोई भी होठो पर मुस्कुराहट नही ला सकता था।
समकालीन कवि
- अमीर खुसरो (तुतिए-हिन्द)
- अमीर हसन
मृत्यु
- 1286 ई. में (मंगोली संघर्ष में अपने जेष्ठ पुत्र के मारे जाने के शोक में)
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कैकुबाद – Qaiqabad (1286 – 1290 ई.)
बलबन ने अपनी मृत्यु के पूर्व अपने जेष्ठ पुत्र के पुत्र अर्थात पौत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। लेकिन दिल्ली के कोतवाल फ़ख़रुद्दीन मुहम्मद ने बलबन की मृत्यु के बाद कूटनीति के द्वारा कैखुसरो को मुल्तान की सूबेदारी देकर कैकुबाद को दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा दिया। कैकुबाद अथवा ‘कैकोबाद’ (1286-1290 ई.) को 17-18 वर्ष की अवस्था में दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया था। कैकुबाद ने ग़ैर तुर्क सरदार जलालुद्दीन ख़िलजी को अपना सेनापति बनाया, जिसका तुर्क सरदारों पर बुरा प्रभाव पड़ा। तुर्क सरदार बदला लेने की बात को सोच ही रहे थे कि, कैकुबाद को लकवा मार गया। लकवे का रोगी बन जाने के कारण कैकुबाद प्रशासन के कार्यों में अक्षम हो गया।
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शमशुद्दीन क्यूम़र्श – Shamsuddin Kayumars (1290 ई.)
शमशुद्दीन क्यूम़र्श भारत में गुलाम वंश का अतिम शासक था। कैकुबाद को लकवा मार जाने के कारण वह प्रशासन के कार्यों में पूरी तरह से अक्षम हो चुका था। प्रशासन के कार्यों में उसे अक्षम देखकर तुर्क सरदारों ने उसके तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन क्यूम़र्श को सुल्तान घोषित कर दिया। कालान्तर में जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने उचित अवसर देखकर शम्सुद्दीन का वध कर दिया। शम्सुद्दीन की हत्या के बाद जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी ने दिल्ली के तख्त पर स्वंय अधिकार कर लिया। इस प्रकार से बाद में दिल्ली की राजगद्दी पर ख़िलजी वंश की स्थापना हुई।