नगर-योजना एवं स्थापत्य कला: सिंधु घाटी सभ्यता Town-Planning and Architecture: Indus Valley
उत्कृष्ट नगर नियोजन एवं स्थापत्य कला सिन्धु सभ्यता की प्रमुख विशेषता थी। सैन्धव लोगों का सौन्दर्य बोध उनकी शिल्प कला में सर्वाधिक स्पष्ट रूप से मुखरित हुआ है। इस सभ्यता के अधिक स्पष्ट एवं विपुल रूप में अवशेष मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, चाँहुदड़ो एवं लोथल आदि से प्राप्त हुए हैं। सैन्धव लोग सभ्य, उच्च कोटि के अभियन्ता एवं वास्तुशिल्पज्ञ थे। प्रमुख नगरों का निर्माण उन्होंने नियोजित योजना के आधार पर किया था। सैन्धव जनों ने अपने नगरों के निर्माण में शतरंज पद्धति (चेशबोर्ड) को अपनाया जिसमें सड़के सीधी एवं नगर सामान्य रूप से चौकोर होते थे। सड़कें बिछाने की समस्या मकानों के निर्माण से पहले ही हल कर दी जाती थी। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण जाता था एवं दूसरा मार्ग पूरब से पश्चिम उसे समकोण पर काटता था। मोहनजोदड़ो में राजपथ की चौड़ाई दस मीटर थी। सड़क कच्ची थीं। महत्त्वपूर्ण स्थलों का विभाजन था। पश्चिमी भाग में गढ़ी होती थी और पूर्वी भाग में निम्न शहर होता था। सड़कों के जाल बिछे थे। मुख्य मार्ग एक दूसरे को समकोण पर काटता था। सड़के कच्ची होती थीं। एक सड़क को पक्की बनाने की कोशिश केवल मोहनजोदड़ों में की गई थी। सिन्धु सभ्यता के लोग आडम्बर के विशेष प्रेमी नहीं थे। उन्होंने सुन्दरता से अधिक उपयोगिता पर बल दिया था। कालीबंगा का एक फर्श का उदाहरण अपवाद है जिसके निर्माण में अलंकृत ईंटों का प्रयोग किया गया है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के भवनों में स्तम्भों का कम प्रयोग हुआ है। उनके स्तंभ चतुर्भुजाकार या वर्गाकार होते थे, गोलाकार नहीं। कालीबंगा और हड़प्पा में गढ़ी और निचले नगर के बीच खाली जगह होती थी, ऐसा ही मोहनजोदड़ो, गनेरीवाला (बहावलपुर), हड़प्पा (पंजाब), धौलावीरा, राखीगढ़ी में भी देखने को मिलती हैं। सिंधु सभ्यता के क्षेत्रीय विस्तार को ध्यान में रखते हुए जे.पी. जोशी ने तीन आर्थिक क्षेत्र (केन्द्र) निर्धारित किए हैं।
मनसा क्षेत्र (भटिण्डा)बहावलपुर क्षेत्र (N.W. Frontier)कच्छ क्षेत्र (गुजरात)।
मोहनजोदड़ो में गढ़ी और निचले नगर के बीच सिंधु नदी की एक शाखा बहती थी। लोथल और सुरकोतड़ा में यह विभाजन नहीं था। एक ही सुरक्षा दीवार से वहाँ गढी एवं निचला नगर घिरे थे। धोलावीरा एक ऐसा शहर है, जिसमें नगर तीन भागों में विभाजित था। बनवाली में नाली नहीं पायी गयी है। एक कुषाणकालीन स्तूप मोहनजोदड़ो के टीले पर मिला है। मकानों का औसत आकार 30 फीट है। ईंटो का आकार 4:2:1 है। लोथल आयताकार चबूतरे पर बसा था। सुत्कोगेडोर में एक विशाल दुर्ग एवं परकोटों से घिरे एक छोटे आवास स्थल का पता चला है। सुक्कुर में पत्थर का औजार बनाने वाली फैक्ट्री मिली है। सुक्कुर से ही चूना पत्थर के कारखाने का साक्ष्य मिला है। मकानों के अलावा सैन्धव के कुएं, अपनी ईंटों की सुदृढ़ चिनाई के लिए प्रसिद्ध हैं। सभ्यता के अन्तिम काल में सम्भवत: पूर्व निर्मित कुओं की मरम्मत करके ही उनका उपयोग किया गया।
उस युग के प्रत्येक कुँए प्रायः अंडाकार होते थे एवं उनके उपरी भाग पर चतुर्दिक दीवार बनी रहती थी। पानी रस्सी से निकाला जाता था, रस्सी के घर्षण के चिह्न कुओं की मुण्डेर पर देखे गये हैं। कुओं के अन्दर सीढ़ियां बनी होती थीं जिनकी सहायता से अन्दर प्रवेश करके सफाई आदि की जाती रही होगी। कुओं के निर्माण में षड्जाकार ईंटें प्रयुक्त की गई थीं। कुओं के पास छोटे-छोटे गड्ढे पाये गये, सम्भवत: घडे रखने हेतु इनका उपयोग किया जाता रहा होगा। इसके अलावा कुछ स्थापत्य कला के प्रसिद्ध उदहारण हैं-
सार्वजनिक भवन- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा एवं लोथल आदि में दुर्ग या प्राचीर के अवशेष पाये गये हैं। शहर दुर्गीकृत थे अर्थात् सुरक्षा की दृष्टि से प्राचीर से घिरे हुए थे। रावी नदी के निकट हड़प्पा के अवशेष पाये गये हैं। हड़प्पा का पश्चिमी टीला गढी एवं पूर्वी टीला निचला नगर था। गढ़ी आकार में लगभग समानान्तर चतुर्भुज है जो उत्तर से दक्षिण दिशा में 420 मीटर एवं पूर्व से पश्चिम 196 मीटर है। इसकी सर्वाधिक ऊंचाई लगभग 12 से 15 मीटर के बीच है और इसके निर्माण में मिट्टी और कच्ची ईंटों का प्रयोग हुआ है। सर्वप्रथम सुरक्षा के लिए एक सुदृढ़ दीवार बनाई जाती थी। यह दीवार निम्नस्तर पर 12.19 मीटर चौड़ी एवं ऊंचाई पर 10.66 मीटर थी जिसमें क्रमश: ढाल दृष्टिगत होता है। इसका निर्माण कच्ची ईंटों और मिट्टी से किया गया था, किन्तु बाह्य भाग पर पक्की ईंटें लगाई गई। प्रारम्भ में ईंटों की दीवार को सीधे बढ़ाया गया परन्तु बाद में उसे तिर्यक बना दिया गया था। गढ़ी की बाहरी दीवार पर कुछ दूरी से बुर्ज बने थे। उनमें से कुछ दीवार से अधिक ऊंचे थे। गढ़ी का भीतरी मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर की ओर था और पश्चिमी द्वार घुमाव लिए था जिसके साथ ही सीढ़ियाँ भी थीं।
भण्डारण व्यवस्था- हड़प्पा की एक इमारत, जिसे विद्वानों ने अन्नागार की संज्ञा दी है, परिमाण में बड़ी है। इस विशाल अन्नागार का निर्माण खण्डों में किया गया था। ऐसे बारह खण्ड हैं जो छ: छ: की दो पंक्तियों में विभक्त हैं। इन दो पंक्तियों के मध्य सात मीटर की दूरी है। प्रत्येक खण्ड का क्षेत्रफल लगभग 15.24 × 6.10 मीटर है। इन भण्डारगृहों का प्रमुख प्रवेश द्वार रावी नदी की ओर खुलता था, नदी मार्ग से भण्डारों में संग्रहित किया जाने वाला अनाज आता जाता रहा होगा। उक्त भण्डारों के तल तक पहुँचने हेतु एक ढाल युक्त मार्ग बनाया हुआ था। ऐसा भण्डारों में रखी जाने वाली सामग्री के निकालने एवं पहुँचाने में सुगमता की दृष्टि से किया जाता होगा। भण्डारों के फर्श में लकड़ी के शहतीर का उपयोग किया जाता था और इनके बीच में जगह छोड़ी जाती थी जिससे हवा का प्रवेश हो सके एवं जमीन की नमी से अनाज सुरक्षित रहे। फर्श की दरारों में पाया गया गेहूँ एवं जौ का भूसा यह सिद्ध करता है कि इसका उपयोग अनाज को सुरक्षित रखने हेतु किया जाता था। हड़प्पा का यह विशाल भण्डार 168 मीटर लम्बा तथा 134 फीट चौड़ा था। अन्नागार की छत के लिए लकड़ी की लट्ठों (टॉइल्स) का प्रयोग किया जाता था।
चार फीट ऊंचे भाग (चबूतरे) पर मोहनजोदड़ो में हड़प्पा के सदृश अन्नागार के अवशेष मिले हैं। स्नानागार के पश्चिम में पक्की ईंटों से निर्मित यह भवन पूर्व से पश्चिमी 45.72 मीटर लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण 22.86 मीटर चौड़ा है। सम्भवत: इसमें 27 खण्ड (ब्लॉक) थे जिनके मध्य रिक्त स्थान छोड़ा गया, जिससे वायु का सुगम संचरण होता रहे। इस भवन का मलवा 1950 ई. में व्हीलर ने हटवाया था, उन्होंने इसे अन्नागार की संज्ञा दी है। इसका ऊपरी भाग लकड़ी से बनाया गया था। दीवारें तिरछी बनाई गई थीं। उत्तर दिशा में चबूतरे की दीवार भी तिरछी थी सम्भवत: भारी अन्न को (बोरे आदि) ऊपर चढ़ाने में ढाल की सुविधा की दृष्टि से ऐसा किया होगा।
वृहत स्नानागार- मोहनजोदड़ो की सबसे महत्त्वपूर्ण इमारत महास्नानागार है। यह बौद्ध स्तूप के लगभग 57.9 मीटर दूर स्थित है। मार्शल के अनुसार, मध्य प्रकाल में उसका निर्माण हुआ। गढ़ी टीले पर स्थित यह वास्तु अवशेष सम्पूर्ण रूप में 180 फीट उत्तर-दक्षिण तथा 108 फीट पूर्व से पश्चिम के विस्तार में फैला हुआ है। पूर्णतः पक्की ईंटों से निर्मित वृहत् स्नानागार मध्य भाग में 39 फीट 3 इंच लम्बा, 23 फीट 2 इंच चौड़ा तथा 8 फीट गहरा है। प्रवेश की सीढ़ियाँ 9 इंच चौडी तथा 8 इंच ऊंची हैं, प्रत्येक सीढ़ी के ऊपर लकड़ी के पटिये आबद्ध किये गये थे। सीढ़ियों की समाप्ति पर 39″ × 16″ क्रमश: चौड़ी एवं ऊंची एक पीठिका है और इसके दोनों ओर सीढ़ियां हैं।
इसका फर्श पूरी तरह समतल नहीं है अर्थात् दक्षिण-पश्चिम की ओर ढाल लिए हुए है। इसी ओर कोने में एक वर्गाकार मोरी (छेद) पानी के निकास हेतु बनाई गई है, सम्भवत: समय-समय पर इसकी सफाई की जाती रही होगी। सीढ़ी के अन्तिम भाग में नीचे नाली 23.5 × 8.26 सेमी. क्रमश: चौड़ी एवं गहरी है। इसके फर्श को जल निरोधक बनाये जाने हेतु बिटुमिन एवं जिप्सम का प्रयोग किया गया। दो इंटों के बीच बहुत कम दूरी पाई गयी। इसकी दीवार में भी तराशी गई ईंटों का प्रयोग किया है एवं इस तरह की एक मीटर मोटी दीवार का निर्माण देखा गया है। इसमें प्रयुक्त ईंटें 25.78 × 12.95 × 5.95 सेमी. या 27.94 × 13.1 × 5.65 से.मी. आकार की हैं। इस दीवार के पिछले भाग में 2.54 से.मी. मोटा बिटुमिन लगाया गया और उसे गिरने से बचाने के लिए उसके पीछे भी पक्की ईंटों की दीवार बनाई गई। मार्शल का कथन है कि उस समय उपलब्ध निर्माण सामग्री से, इससे सुन्दर और मजबूत निर्माण की कल्पना करना कठिन है।
स्नानागार के पूर्व में निर्मित 6-7 कमरों के मध्य एक कक्ष में अण्डाकार कुआ है जिसके पानी से स्नानागार भरा जाता था। इसके तीन ओर कई प्रकोष्ठ या कमरे (दरीचियाँ) बने हुए हैं तथा दक्षिण की ओर एक लम्बा प्रकोष्ठ है जिसके दोनों ओर कमरे हैं। उत्तर की ओर बड़े-बड़े आकार के आठ कक्ष इसी प्रकार हैं। दरीचियों या प्रकोष्ठों के ऊपर एक मंजिल और रही होगी क्योंकि उत्तरी भाग के कमरों के पूर्व में कुछ सीढ़ियों के अवशेष पाये गये हैं। प्रत्येक कक्ष 9.5 फीट लम्बा तथा 6 फीट चौड़ा था। ये कमरे भी पक्की ईंटों से बनाये गये, जिनमें छोटी-छोटी नालियां भी बनी थीं। विद्वानों की मान्यता है कि ऊपर के भाग में सम्भवत: पुजारी वर्ग रहा करता होगा। स्नानागार से सम्बद्ध कक्षों के द्वार बिल्कुल सामने न होकर दायें या बायें की ओर हैं, जिससे आन्तरिक भाग दृष्टिगोचर नहीं हो पाता। सम्भवत: इन कमरों का उपयोग, वस्त्र आदि बदलने के लिए किया जाता होगा।
उक्त स्नानागार में लम्बवत ईंटों की चिनाई जिप्सम एवं बिटुमिन के प्लास्टर के रूप में प्रयोग आदि सैन्धव लोगों के अनुपम वास्तु शिल्प के एक नवीन प्रयोग का द्योतक है। सम्भव है कि महास्नानागार सैन्धव जनों की किसी धार्मिक प्रवृत्ति का परिचायक हो क्योंकि वर्तमान में भी मन्दिरों के साथ या स्वतन्त्र रूप में इस प्रकार के कुण्डों का महत्त्व बना हुआ है।
सभा भवन- मोहनजोदड़ो में स्तूप टीले से कुछ दूर दक्षिण में एल एरिया में एक विशाल भवन था। मैके की धारणा है कि यह शहर के आर्थिक जीवन से सम्बद्ध था। इसे कुछ विद्वानों ने सभा मण्डप अथवा विद्यालय भवन माना है। गढ़ी टीले पर स्थित 27.43 मीटर का यह वर्गाकार भवन जो मूलत: बीस स्तम्भों पर आधारित था, ये स्तम्भ चार पंक्तियों में विभक्त है और प्रत्येक पंक्ति में पांच स्तम्भ हैं इमारत तक पहुँचने के लिए उत्तरी छोर के मध्य से रास्ता था। इसकी फर्श भली-भाँति बिछाई गई ईंटों द्वारा निर्मित की गयी, जो कई भागों में विभक्त थी। इनका उपयोग सम्भवत: बैठने के लिए किया जाता होगा। इस तरह के निर्माण की तुलना मार्शल ने बौद्ध गुहा मन्दिरों से की है जिनमें बौद्ध भिक्षु लम्बी पंक्ति में आसीन होते थे। मैके, इसे शहर के आर्थिक जीवन से जोड़ते हुए बाजार भवन (हाल) मानते हैं, जहाँ पर दुकानें लगाने के लिए स्थायी रूप से स्थान (स्टाल) बनाये गये थे। व्हीलर ने इसके फारसी दरबारे आम जैसी इमारत होने की ओर संकेत किया है। दीक्षित इसे वाद-विवाद स्थल मानते हैं।
लोथल डॉकयार्ड- सैन्धव सभ्यता का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थल लोथल सौराष्ट्र (गुजरात) क्षेत्र में है। यह नगर भी हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो के समान सुनियोजित था, सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं। सामान्यतः नगर को दो भागों-गढ़ी एवं निचले नगर के रूप में विभक्त किया जा सकता है। साधारणतया भवन कच्ची ईंटों से निर्मित किये गये परन्तु गोदी (डॉकयार्ड) एवं कुछ महत्त्वपूर्ण भवनों का निर्माण पकाई हुई ईंटों से किया गया। इसके अतिरिक्त स्नानागार एवं नालियाँ आदि के लिए भी पक्की ईंटें उपयोग में लाई गई। लोथल गढ़ी 117 मीटर पूर्व और पश्चिम में तथा 136 मीटर उत्तर तथा 111 मीटर दक्षिण की ओर है। इसमें एक भवन 126×30 मीटर का, ऐसे स्थान पर स्थित था जहाँ से नौकाघाट, भण्डारगृह तथा नावों के गमनागमन पर भली भाँति नियन्त्रण रखा जा सकता था। एस.आर. राव को नगर उत्खनन के दौरान नगर के बाहरी भाग में एक डॉकयार्ड मिला है जो भोगावों एवं साबरमती नदी के तट पर स्थित सैन्धव सभ्यता का प्राचीन बन्दरगाह था।