मौर्योत्तर कालीन वंश
मौर्य वंश के अंतिम सम्राट बृहद्रथ का वध कर उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य साम्राज्य का तख्ता पलट कर अपना आधिपत्य जमाया और शुंग वंश की नींव रखी। मौर्य वंश के पतन के पश्चात कई ब्राह्मणवंशीय शासकों ने सत्ता की बागडोर संभाली जिनमें शुंग वंश, कण्व वंश, कुषाण वंश तथा सातवाहन वंश मुख्य थे।
शुंग राजवंश –
शुंग वंश की नींव रखने वाला इस वंश का प्रथम राजा पुष्यमित्र शुंग था। पुष्यमित्र को ब्राह्मण धर्म का समर्थकऔर बौद्ध धर्म का शत्रु माना गया है। अपने शासन काल में उसने कई बौद्ध धर्म विरोधी गतिविधियां की और बौद्ध स्तूपों और विहारों का विनाश किया। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यदान के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने यह घोषणा की थी कि “जो व्यक्ति मुझे एक भिक्षु का सिर लाकर देगा उसे में 100 दीनारें दूंगा।”
शुंगों को वैदिक धर्म का अनुयायी माना गया है।
पुष्यमित्र शुंग का कार्यकाल 185 – 149 ईसा पूर्व तक माना जाता है। कालिदास द्वारा रचित ‘मालविकाग्निमित्रम‘ से शुंग काल की राजनितिक गतिविधियों का पता चलता है। अयोध्या से प्राप्त अभिलेखसे ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र शुंग ने अपने शासन काल में अश्वमेध यज्ञ भी करवाया था।
पुष्यमित्र शुंग ने यवन शासक डेमिट्रियस प्रथम को पराजित किया था। डेमिट्रियस भारतीय सीमा में प्रवेश करने वाला प्रथम यवन शासक था।
शुंगवंश का 10 वां व अंतिम शासक देवभूति था। जिसकी हत्या उसके अमात्य वसुदेव ने की थी और शुंग सिंहासन पर अपना आधिपत्य किया था।
कण्व राजवंश –
अमात्य वसुदेव कण्व ने अपने शासक देवभूति की हत्या कर सिंहासन पर कब्ज़ा किया और कण्व वंश की स्थापना की। वसुदेव को पाटलिपुत्र के कण्व वंश का प्रवर्तक माना गया है।
कण्व वंश का अंतिम शासक सम्राट सुशमी कण्व या सिमुक कण्व था जोकि बहुत ही दुर्बल और पद के अयोग्य था। जिस कारण कई राज्यों ने खुद को स्वयं स्वतंत्र घोषित कर दिया और कण्व वंश का पतन हुआ। इस वंश का शासन काल 75 ईसा पूर्व से 30 ईसा पूर्व तक माना जाता है।
कुषाण वंश –
इसके बाद मगध पर कुषाण वंश का आधिपत्य हुआ। कुजुल कडफिसेस को कुषाण वंश का संस्थापक माना जाता है जोकि महान कुषाण सम्राट कनिष्क के परदादा थे। कुषाण वंश का प्रसिद्ध सम्राट कनिष्क को माना जाता है जिसकी पहली राजधानी पुरुषपुर थी तथा दूसरी राजधानी मथुरा को बनाया गया था। कनिष्क को द्वितीय अशोक भी कहा जाता है। कुषाणों ने शुद्ध सोने के सिक्के भी चलाये थे। भारत में सर्वप्रथम सोने के सिक्कों का प्रचलन करने का श्रेय भी कुषाणों को ही जाता है। कुषाण वंश ही वह वंश था जिसकी सीमाएं भारतके बाहर तक फैली हुई थी।
कला की गांधार शैली भी कनिष्क के ही शासन काल में ही पनपी थी। शक सम्वत शुरू करने का श्रेय भी कनिष्क को ही दिया जाता है। कनिष्क ने ही बुद्ध अंकित सिक्कों का प्रचलन भी शुरू किया था। यह भी माना जाता है कि कुषाण काल में ही मूर्ति पूजन की शुरुआत हुई थी।
कुषाण वंश के पतन के पश्चात सातवाहन वंश का उदय हुआ।
सातवाहन वंश –
आंध्रदेशीय सातवाहन वंश या शतकर्णी वंश की नींव 27 ईसा पूर्व सिमुक ने रखी थी। जिसे सिन्धुक, शिशुक या सिप्रक के नाम से भी जाना जाता है। इन्हें आंध्र जाती का बताया गया है। कण्व वंश के बाद सातवाहन वंश का भी मगध पर साम्रज्य था। सातवाहन वंश का महान शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि को माना जाता है। गौतमीपुत्र शातकर्णि को अद्वितीय ब्रह्मण कहा गया है। शातकर्णि ने प्रतिष्ठान नामक नगर को अपनी राजधानी बनाया था। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली सातवाहन साम्रज्य था।
सातवाहन वंश के सत्रहवें शासक हाल ने ‘गाथा सप्तशती’ नमक गीत काव्य की रचना की थी। सातवाहनों ने सीसे (लेड) के सिक्के भी जारी किये थे। सातवाहन वंश का अंतिम शासक ‘यज्ञ श्री शातकर्णि‘ था, जोकि शातकर्णि उपाधि प्राप्त करने वाला पहला शासक था।
इन सबके पश्चात गुप्त वंश का उदय हुआ, जिसने भारत को पुनः एक सूत्र में बांधा। मौर्य वंश के पश्चात कई वर्षों तक भारत में राजनीतिक एकता का अभाव रहा। भारत में ख़त्म हो चुकी राजनीतिक एकता को पुनरस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को जाता है।