विगत् वर्षों के दौरान भारतीय विदेश नीति
भारत की स्वतंत्रता प्राप्तिसे अबतक के 66 वर्षों में सम्पूर्ण विश्वव्यवस्था ने एक नवीन स्वरूप ग्रहण कर लिया है। विश्व व्यवस्था के नवीन ढांचे में खुद को समायोजित करने की प्रक्रिया के अधीन भारत ने भी अपनी विदेश नीति को पर्याप्त लचीला एवं अनुकूलनशील स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारतीय विदेश नीति के मुख्य सिद्धांतों के रूप में गुटनिरपेक्षता, शांतिपूर्ण सह अस्तित्व, पंचशील, साम्राज्यवाद एवं रंगभेद-विरोध तथा संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन, आदि को अपनाया गया।
भारत अपने चारों ओर शांतिपूर्ण माहौल बनाने के प्रयास करता है और अपने विस्तारित पास-पड़ोस में बेहतर मेल-जोल के लिए काम करता है। भारत की विदेशी नीति में इस बात की अच्छी तरह समझा गया है कि जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा जैसे मुद्दे भारत के रूपांतरण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और उनके समाधान के लिए वैश्विक सहयोग अनिवार्य है।
जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमत्रित्व काल (1947-64) में भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अग्रणी के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। निःशस्त्रीकरण की अपीलों तथा साम्राज्यवाद व रंगभेद विरोधी दृष्टिकोण ने भारत की एक विश्वव्यापी पहचान दी, किंतु, पड़ोसी देशों के संदर्भ में भारत की विदेश नीति असफल सिद्ध हुई तथा भारत को चीन व पाकिस्तान के आक्रमणों का सामना करना पड़ा।
लालबहादुर शास्त्री के काल (1964-66) में पड़ोसी देशों तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से संबंध घनिष्ठ बनाने की पहल की गयी। भारत-पाक युद्ध (1965)में पाकिस्तान को बुरी तरह पराजित किया गया किंतु शांतिपूर्ण एवं मित्रवत संबंध स्थापित करने की सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के कारण ताशकंद समझौते को स्वीकार कर लिया गया। इंदिरा गांधी के कार्यकालों (1966-77 एवं 1980-84) में भारत की विदेश नीति की कुछ नवीन विशेषताएं-लचीलापन, यथार्थ व आदर्श का समन्वय, राष्ट्रीय हितों पर बल, आर्थिक सहयोग का महत्व तथा विशेषज्ञों की मुख्य भूमिका आदि-उभरकर सामने आयीं। भारत-सोवियत संघ मैत्री संधि, शिमला समझौता तथा परमाणु विस्फोट भारतीय विदेश नीति की महत्वपूर्ण सफलताएं थीं।
जनता सरकार (1977-79) द्वारा विदेश नीति के स्वरूप में निरंतरता को बरकरार रखा गया तथा पड़ोसी देशों से आत्मीय संबंध बनाने हेतु गंभीर प्रयास किये गये।
राजीव गांधी के काल (1984-89) में विदेश नीति के चार मुख्य तत्वों-निःशस्त्रीकरण, उपनिवेशवाद-उन्मूलन, विकास तथा शांति की कूटनीति-पर सर्वाधिक जोर दिया गया। क्षेत्रीय सहयोग के उद्देश्य से सार्क का निर्माण किया गया, जिसमें राजीव गांधी की भूमिका महत्वपूर्ण थी। श्रीलंका में शांति सेना भेजना विदेश नीति की असफलता का एक उदाहरण मन जाता है।
वी.पी.सिंह एवं चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली, राजनीतिक समर्थन की दृष्टि से कमजोर सरकारों द्वारा विदेश नीति के क्षेत्र में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं किया गया।
पी.वी. नरसिंहराव के प्रधानमंत्रत्व काल (1991-96)के आरम्भ में ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों एवं कूटनीतिक समीकरणों में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका था। शीतयुद्ध की समाप्ति, सोवियत संघ का विघटन तथा खाड़ी युद्ध में अमेरिका की विजय ने विश्व व्यवस्था के स्वरूप को एक धुवीयता की ओर मोड़ दिया था। तत्कालीन विश्व परिदृश्य में गुटनिरपेक्ष आंदोलन नेतृत्वहीनता की स्थिति में पहुंच चुका था। साथ ही भारत में भी एक गंभीर आर्थिक संकट की स्थिति विद्यमान थी। शुरुआती उलझनों के बाद प्रधानमंत्री द्वारा स्वयं विदेशी नीति के संचालन का उत्तरदायित्व ग्रहण कर लिया गया सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के दावे को मजबूती देने, सार्क के अधीन साप्टा समझौते को सम्पन्न कराने, जी-15 के शिखर सम्मेलन के आयोजन द्वारा उत्तर-दक्षिण वार्ता पर जोर देने तथा भारत के आर्थिक सुधार एवं उदारीकरण कार्यक्रम में विदेशी सहयोग व पूंजी निवेश सुनिश्चित करने जैसे कार्यों द्वारा विदेश नीति को नये परिवेश के अनुकूल ढालने का प्रयास किया गया। इसी काल में विदेश नीति को मूल्यों व नैतिकता की बजाय आर्थिक पहलुओं पर अधिक केंद्रित किया गया।
1996-97 के राजनीतिक अस्थिरता के दौर में एच.डी. देवगौड़ा तथा इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व में दो गठबंधन सरकारें बनी, जो अल्पकालिक कार्यकाल में विदेश नीति की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकीं। हालांकि गुजराल सरकार के समय पड़ोसी देशों के साथ नये सिरे से (पुराने विवादों को भूलकर) संबंधों को सुधारने या स्थापित करने की पहल की गयी। इस प्रक्रिया में राज्य सरकारों का सहयोग भी हासिल किया गया।
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने सत्तारूढ़ होने के कुछ समय बाद ही मई 1998 में परमाणु बम परीक्षण सम्पन्न किये, जिससे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत पूरी तरह अलग-थलग पड़ गया और गुटनिरपेक्षता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं निःशस्त्रीकरण के सिद्धांतों के आधार पर निर्मित विदेश नीति के मूल उद्देश्यों को बिखरा हुआ मान लिया गया।
विश्व के अधिकांश देशों द्वारा भारत की आलोचना की गई तथा भारत को जारी सहायता व अनुदान रोक दिये गये। अमेरिका द्वारा भारत पर कई प्रकार के आर्थिक प्रतिबंध आरोपित किये गये। उक्त परमाणु परीक्षणों ने पड़ोसी देशों को भी भारत को वास्तविक मंशा के प्रति शंकालु बना दिया था। पाकिस्तान ने कुछ दिन बाद ही परमाणु बम परीक्षण सम्पन्न करके भारत के सामने खुली चुनौती प्रस्तुत कर दी। भारतीय राजनयिकों द्वारा चीन को सबसे बड़ा शत्रु घोषित करने सम्बन्धी व्यक्तव्यों पर चीन द्वारा कड़ा रोष प्रकट किया गया तथा प्रतिक्रिया स्वरूप भारत को चीन के एक बड़े भू-भाग पर कब्जा जमाये रखने का दोषी ठहराया गया।
रूस, जापान, जर्मनी, फ्रांस जैसे मित्र देशों ने भी भारत के प्रति नाराजगी प्रकट की। अंतरराष्ट्रीय आलोचना, आर्थिक प्रतिबंधों, पड़ोसी देशों के साथ तनाव के वातावरण में भारतीय विदेश नीति के समक्ष कई चुनौतियां विद्यमान थीं। इन चुनौतियों से निबटने के उद्देश्य से वाजपेयी सरकार द्वारा विदेश नीति का पुनर्मूल्यांकन करते हुए भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को पुनः मुखरित करने के प्रयास आरंभ किये गये। इन प्रयासों को सफलता मिली तथा शनैः शनेः भारत के विश्व की महाशक्तियों के साथ तो अच्छे संबंध बने ही साथ ही अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ भी संबंधों में गुणोत्तर सुधार हुआ। कुछ ही समय पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो गई, जिससे वैश्विक परिदृश्य में भारत का कद और ऊंचा हुआ। इसके अतिरिक्त विश्व के कई राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता हेतु दावेदारी को अपना पुरजोर समर्थन प्रदान करने का आश्वासन भी दिया।