विदेश नीति के उपकरण
कोई भी देश अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक उपकरणों का सहारा लेता है । ये उपकरण वे साधन हैं जिनकी सहायता से सम्बन्धित देश राष्ट्रहितों की पूर्ति करते हैं । भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न उपकरणों का सहारा लिया जाता है । अनेक बार एक साथ कई उपकरणों को प्रयोग में लाया जाता है ।
विदेश नीति के निर्धारण और क्रियान्वयन के दौरान प्रयुक्त किये जाने वाले प्रमुख उपकरण निम्न हैं:
(1) सन्धि-वार्ता:
जब दो या उससे ज्यादा राष्ट्रों के बीच विवाद हो तो उसका समाधान खोजने के लिए सम्बन्धित पक्ष सन्धि-वार्ता आयोजित करते हैं । इन सन्धि-वार्ताओं में सम्बन्धित देशों के प्रतिनिधि विचार-विमर्श करते हैं ताकि किन्हीं निर्णयों पर पहुंचकर विवाद के समाधान के रूप में सन्धि की जा सके ।
ये वार्ताएं कभी-कभी कई दिनों व महीनों तक चलती हैं और अनेक बार तो विभिन्न चरणों में होती हैं । इन वार्ताओं के बाद जरूरी नहीं कि विवाद के समाधान के रूप में सन्धि हो ही जाये । अनेक बार वार्ताएं असफल भी हो जाती हैं ।
कुछ सन्धि वार्ताएं गुप्त होती हैं और कुछ बाकायदा खुले रूप में जिसके अन्तर्गत सम्बन्धित सन्धि वार्ता के प्रवक्ता विश्व को जनप्रचार के साधनों के माध्यम से समय-समय पर वार्ता की प्रगति के बारे में जानकारी देते हैं । अत: सन्धि वार्ता विदेश नीति का एक ऐसा उपकरण है जिसके द्वारा विवाद में उलझे राष्ट्र समाधान खोजने के लिए विचारों का आदान-प्रदान कर किन्हीं निर्णयों तक पहुंचने का प्रयास करते हैं ।
(2) सन्धि:
सन्धि वार्ता के दौरान यदि विवाद के बारे में किन्हीं निश्चित निर्णय पर सहमति हो जाती है तो सम्बन्धित पक्ष सन्धि पर हस्ताक्षर कर लेते है । सन्धि एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें समझौते की शर्तों का स्पष्ट उल्लेख किया जाता है ।
अच्छी सन्धि का सर्वप्रथम गुण उसकी स्पष्टता होता है ताकि हस्ताक्षरकर्ता देशों में उसके विश्लेषण के बारे में मतभेदों की गुंजाइश न रहे । प्राचीन काल से ही विभिन्न राष्ट्र सन्धि करते आये हैं । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की गयी वार्साय की सन्धि विदेश नीति के एक उपकरण के रूप में एक अच्छा उदाहरण है ।
(3) क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि:
अनेक बार विश्व के किसी कोने के देश क्षेत्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से सन्धि करते हैं । यह सन्धि उनकी विदेश नीतियों के उपकरण का कार्य करती है । इस क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि के द्वारा क्षेत्र विशेष के देश जहां एक ओर आपस में सहयोग करते हैं वहीं दूसरी ओर बाहरी खतरे के समय एकजुट होकर उनका सामना करते हैं ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका ने पश्चिमी यूरोप के देशों को अपने गठजोड़ के अन्तर्गत लेकर साम्यवादी खतरे का मुकाबला करने के लिए क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धि करके ‘नाटो’ नामक सैनिक संगठन की स्थापना की । इसी प्रकार सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के देशों को अपने साथ लेकर पूंजीवादी खतरे का मुकाबला करने के लिए ‘वारसा’ सन्धि की । ‘सेण्टो’ और ‘सीटो’ संगठनों की स्थापना भी क्षेत्रीय सुरक्षा सन्धियों के द्वारा हुई ।
(4) आर्थिक सहयोग संगठनों की स्थापन:
विदेश नीति के उपकरण के रूप में आर्थिक सहयोग संगठन का प्रयोग भी किया जाता है । किन्हीं समान हितों से प्रेरित होकर कुछ देश ऐसा आर्थिक संगठन बना लेते हैं । ऐसे संगठन के माध्यम से सदस्य देश अपनी विदेश नीतियों के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए आपसी आर्थिक सहयोग करते हैं । यूरोपीय आर्थिक समुदाय कॉमन फार्म और ग्रुप-8 को ऐसे आर्थिक सहयोग संगठनों की श्रेणी में रखा जाता है ।
(5) युद्ध:
अनेक देश युद्ध को अपनी विदेश नीति के उपकरण के रूप में उपयोग करते हैं । इसके अन्तर्गत युद्ध की धमकी देना, युद्ध लड़ना और शत्रु देश द्वारा आक्रमण करने पर उसके साथ युद्ध लड़ना सम्मिलित है । युद्ध के द्वारा सम्बन्धित पक्ष अपनी विदेश नीति के लक्ष्यों को पूरा करने के प्रयास में लगे रहते हैं । युद्ध की दृष्टि से सदैव तैयार रहने के लिए राष्ट्र सैनिक तैयारियां करते हैं और असीमित व्यय करते हैं ।
कुछ राष्ट्र तो विवादों के समाधान के लिए अन्य शान्तिपूर्ण उपायों के बजाय युद्ध को ही प्राथमिकता देते हैं । मसलन भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान जो अपनी विदेश नीति की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारत पर 1947,1965 और 1971 में तीन बार सैनिक आक्रमण कर चुका है ।
शान्तिप्रिय भारत को भी इस हमले का मुकाबला तथा स्कूल राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए मजबूरीवश युद्ध का सहारा लेना पड़ा । इस प्रकार युद्ध विदेश नीति के उपकरण के रूप में उपयोग किया जाता है । आज स्थिति यह है कि, युद्ध लड़ना पड़े या नहीं किन्तु विश्व के समस्त राष्ट्र युद्ध के सम्भावित खतरे से आशंकित रहते हैं और सैनिक तैयारी अवश्य करते हैं ।
(6) दौत्य कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना:
दौत्य सम्बन्धों का अर्थ दो राष्ट्रों के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना से है । इसके अन्तर्गत राष्ट्र एक-दूसरे की राजधानियों में अपने राजदूतावास खोलते हैं । इन दूतावासों में राजदूत और अनेक अन्य कूटनीतिक अधिकारी रहते हैं ।
दोनों देशों के बीच चहुंमुखी सम्बन्धों की स्थापना में ये कूटनीतिक अधिकारी सहायक एवं माध्यम की भूमिका अदा करते हैं । आधुनिक विश्व की अन्तर्निर्भरता को देखते हुए विदेश नीति के उपकरण के रूप में अन्य राष्ट्रों के बीच दौत्य कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना का महत्व दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है ।
(7) नयी सरकारों और नवोदित देशों को मान्यता देना:
नयी सरकारों और नवोदित देशों को मान्यता देना भी विदेश नीति का एक प्रमुख उपकरण है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अनेक अफ्रो-एशियाई और लैटिन अमरीकी देशों का औपनिवेशिक शासन की दासता के पंजे से स्वतन्त्र होकर नवोदित देश के रूप में उदय हुआ ।
तत्कालीन स्वतन्त्र देशों ने उन नवोदित देशों की नयी सरकारों को मान्यता दी । इस मान्यता के बाद ही मान्यता देने वाले तथा तथा मान्यता प्राप्त करने वाले देश के बीच कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं । कभी-कभी मान्यता का प्रश्न नवोदित देश और नयी सरकारों के लिए विदेश नीति में अत्यन्त ही जटिल परिस्थिति पैदा कर देता है ।
1949 में चीन में साम्यवादी क्रान्ति के उपरान्त अमरीका ने पीकिंग स्थित साम्यवादी सरकार को मान्यता प्रदान नहीं की । इसके विपरीत, फार्मोसा वाली च्यांग-काई-शेक की सरकार को उसने चीन की असली सरकार के रूप में मान्यता प्रदान की ।
बहुत लम्बे समय तक अमरीका ने साम्यवादी चीन की सरकार को विश्व समुदाय में अकेला छोड़ देने के लक्ष्य के रूप में इस मान्यता के प्रश्न को विदेश नीति के उपकरण के रूप में प्रयोग किया । बाद में अमरीका ने पीकिंग स्थित साम्यवादी सरकार को चीन की असली सरकार के रूप में मान्यता दे दी ।
यह भी उसने तब किया जब अमरीका को लगा की चीन की साम्यवादी सरकार को मान्यता देने से उसकी सोवियत संघ के साथ सौदेबाजी की स्थिति मजबूत हो जायेगी । इस प्रकार मान्यता को विदेश नीति के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है ।
(8) कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करना:
कूट नीतिक सम्बन्धों को भंग या विच्छिन्न करना भी विदेश नीति का प्रमुख उपकरण है । कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करने का कदम अत्यन्त नाजुक और सीमित परिस्थितियों में ही उठाया जाता है । इस कदम को उठाने वाला देश इसके द्वारा दूसरे देश के प्रति अपनी नाराजगी और विरोध प्रकट करता है ।
कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करने के अन्तर्गत दोनों देश एक-दूसरे की राजधानियों से अपने राजदूत वापस बुला लेते हैं और राजदूतावास हटा लेते हैं । इसका प्रभाव यह पड़ता है कि, दोनों देशों के बीच बातचीत का एक प्रमुख माध्यम नहीं रहता है ।
इसके अभाव में मजबूरीवश सम्बन्धित राष्ट्र किसी तीसरे देश की मध्यस्थता का आश्रय लेते है । स्पष्ट है कि, कूटनीतिक सम्बन्धों के अभाव में दोनों देशों को बातचीत प्रारम्भ करने के लिए अनेक अड़चनें उठानी पड़ती हैं । एक बार कूटनीतिक सम्बन्ध विच्छिन्न कर पुन: स्थापित तभी होते है जब सम्बद्ध देशों में विवाद के प्रति थोड़ी सहमति हो जाये ।
सोवियत संघ ने इजरायल के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध-विच्छेद इसलिए किये ताकि अरब देशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करके वह अपने ज्यूल राष्ट्रीय हितों की पूर्ति कर सके । अर्थात् सोवियत संघ ने इजराइल के साथ कूटनीतिक सम्बन्धों को तोड़कर उसका विदेश नीति के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया ।
जब 1962 में चीन ने भारत पर सैनिक हमला किया तो दोनों देशों ने अपने राजदूत स्वदेश बुला लिये अर्थात् इस कदम के द्वारा दोनों ने एक-दूसरे के प्रति नाराजगी और विरोध जाहिर किया । फरवरी, 1976 में भारत और चीन ने पुन: कूटनीतिक सम्बन्ध तब स्थापित किये जब दोनों में यह आम सहमति हो गयी कि उनके मतभेदों को शान्तिपूर्ण उपायों से सुलझाया जा सकता है । इस प्रकार कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करना विदेश नीति का प्रमुख उपकरण है ।
(9) विरोध-पत्र या चेतावनी देना:
किसी एक देश द्वारा दूसरे देश को विरोध-पत्र लिखना या चेतावनी देना भी विदेश नीति का महत्वपूर्ण उपकरण है । हालांकि यह कूटनीतिक सम्बन्धों को भंग करने से हल्का कदम अवश्य है किन्तु इसका इस्तेमाल विश्व के राष्ट्र आये-दिन करते रहते हैं ।
विरोध-पत्रों या चेतावनियों के जरिये देश अपने खिलाफ चल रहे देश के प्रति नाराजगी एवं विरोध अत्यन्त ही परिष्कृत तरीके से व्यक्त करता है भद्दे व्यवहार या गन्दे शब्दों में नहीं । विरोध-पत्रों या चेतावनियों की भाषा अत्यन्त संयत परिष्कृत एवं कभी-कभी अस्पष्ट और दो अर्थ वाली होती है ।
अगस्त, 1980 में भारत के अनेक शहरों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए तो पाकिस्तान के शासक वर्ग ने भारत सरकार पर इन दंगों का दोष मढ़ दिया । इसकी प्रतिक्रिया में भारत ने पाकिस्तानी सरकार को संयत भाषा में एक विरोध-पत्र लिखा जिसमें कहा गया कि यह भारत का आन्तरिक मामला है और इसमें किसी अन्य देश का हस्तक्षेप सहन नहीं किया जायेगा ।
अगस्त, 1980 में पोलैण्ड में सोवियत समर्थक श्रमिकों ने सरकार के खिलाफ हड़ताल कर अपनी मांगें स्वीकार करवा लीं । अमरीका तथा अनेक पश्चिम यूरोपीय देशों ने पोलैण्ड के श्रमिकों का समर्थन किया तथा इस घटना को साम्यवादी व्यवस्था की हार करार दिया ।
इसके विरुद्ध सोवियत संघ ने अमरीका सहित पश्चिमी देशों की सरकारों को सार्वजनिक चेतावनी जारी की कि पोलैण्ड में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करें । चेतावनी में यह भी कहा कि सोवियत संघ पोलैण्ड में पश्चिमी देशों के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप और दुष्प्रचार को सहन नहीं करेगा । इसका प्रभाव यह पड़ा कि पश्चिमी खेमा अपनी प्रतिक्रिया में थोड़ा सजग और संयत हो गया । इस प्रकार विरोध-पत्र एवं चेतावनियां विदेश नीति के प्रभावशाली उपकरण के रूप में प्रयोग में लायी जाती हैं ।
(10) अन्य देशों से आर्थिक सम्बन्ध:
विदेश नीति के अन्य देशों से आर्थिक सम्बन्ध कायम करने के उपकरण के रूप में किसी देश द्वारा अन्य देश में पूंजी न्यस्त करना उसके बौण्ड खरीदना प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता प्रदान करना, औद्योगीकरण एवं पुनर्निर्माण में सहयोग देना महत्वपूर्ण रूप से उल्लेखनीय हैं ।
वस्तुत: आज की विश्व राजनीति में ‘अर्थ’ विदेश नीति का एक आधारभूत तथ्य की तरह स्थापित हो गया है । आज विश्व राजनीति अर्थकेन्द्रित हो गयी है । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् यूरोपीय देशों की ध्वस्त अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए अमरीका ने मार्शल योजना तैयार की जो लोक-कल्याण के उद्देश्य से कम और अमरीकी विदेश नीति के राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के दृष्टिकोण से ज्यादा प्रेरित थी ।
आज विश्व की बड़ी शक्तियां तीसरी दुनिया के गरीब देशों में पूंजी निवेश करने के साथ-साथ अपने राजनीतिक तथा अन्य उद्देश्य भी पूरा करती हैं । बड़ी शक्तियों द्वारा छोटे देशों को आर्थिक सहायता भी राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित होती है । अर्थात् इस प्रकार के आर्थिक सम्बन्ध विदेश नीति के उपकरण के रूप में कार्य करते हैं ।
(11) अन्य देशों के साथ सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक आदि सम्बन्ध:
आधुनिक युग के बारे में कहा जाता है कि, दुनिया धीरे-धीरे बहुत छोटी होती जा रही है । इसका अर्थ यही है कि विश्व के देश एक-दूसरे के साथ चहुंमुखी स्तर पर ही सम्बन्ध स्थापित करने में लगे हुए हैं । पहले राष्ट्र में सरकारी स्तर पर ही सम्बन्ध हुआ करते थे किन्तु आजकल एक देश की जनता भी दूसरे देशों की जनता के साथ राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक आदि तमाम क्षेत्रों में घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने में लगी रहती है और विश्व की आधुनिक सरकारें सम्बन्धों के इस आदान-प्रदान की इजाजत ही नहीं देतीं बल्कि इसे अनेक बार प्रोत्साहित भी करती हैं ।
जीवन के चहुंमुखी क्षेत्रों में सम्बन्धों की स्थापना विदेश नीति के एक प्रमुख उपकरण की भूमिका अदा करती है । चहुंमुखी क्षेत्रों में सम्बन्ध सरकारों के राजनीतिक सम्बन्धों को मैत्रीपूर्ण बनाने में मदद करते हैं । इस सन्दर्भ में चीन की ‘पिंग पोंग कूटनीति’ का उदाहरण दिलचस्प है ।
चीन ने पिंग पोंग खेल प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए अमरीकी खिलाड़ियों को आमन्त्रित कर अमरीका-चीन सम्बन्ध सुधारने का एक नया युग प्रारम्भ किया । इस प्रकार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दो देशों के बीच सम्बन्धों की स्थापना को विदेश नीति के उपकरण के रूप में प्रयुक्त किया जाता है ।
(12) विश्व संगठन का उपयोग:
विश्व समुदाय आमतौर पर शान्ति और सुरक्षा के वातावरण में रहना चाहता है । इसके लिए जब भी किसी विश्व संगठन के निर्माण का प्रस्ताव आता है तो एक बहुत बड़ी संख्या में राष्ट्र उसके सदस्य बनने को तैयार हो जाते हैं । विश्व संगठन विश्वशान्ति और सुरक्षा बनाये रखने के साथ-साथ सदस्य राष्ट्रों में आपसी विवादों का हल भी छूने का प्रयास करता है ।
सदस्य राष्ट्र स्वयं विवाद की स्थिति में विश्व संगठन के माध्यम से संगठन का इस्तेमाल करते हैं । जब 1947 में पाकिस्तान ने भारत के कश्मीर राज्य पर अपना दावा पेश किया तो भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे विशाल संगठन को इस विवाद का हल छूने के लिए कहा ।
इसी प्रकार अरब देश इजराइल अधिकृत भूमि को उससे खाली करवाने के लिए अनेक बार संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में इसके लिए प्रस्ताव पारित करवा चुके हैं । अर्थात् अरब देश संयुक्त राष्ट्र संघ के समर्थन से इजरायल पर दबाव डलवा कर अपनी भूमि पर से उसका कब्जा हटवाना चाहते हैं । इस प्रकार राष्ट्र विश्व संगठन का विदेश नीति के उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते हैं ।
(13) गुप्तचर विभाग:
विज्ञान और टेक्नोलोजी के बढ़ते चरणों के इस आधुनिक युग में ‘ज्ञान’ का महत्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है । किसी भी देश का गुप्तचर विभाग अन्य देशों में हो रहे घटनाक्रम की जानकारी रखता है तथा संकटकालीन स्थिति में गुप्तचर विभाग अपनी सरकार को उस संकट के बारे में प्रामाणिक एवं विश्वसनीय जानकारी देता है । इसके आधार पर वह देश उस संकट विशेष के बारे में विदेश नीति का निर्धारण करता है ।
अमरीका की सी. आई. ए. और सोवियत संघ की के. जी. बी. विश्व के प्रमुख गुप्तचर संगठन कहे जा सकते हैं । ये खुफिया संगठन कभी-कभी अन्य देशों में षडयन्त्र कर विरोधी शासन का तख्ता तक पलट देते हैं । गुप्तचर विभाग अत्यन्त सजग रहता है, क्योंकि उस पर अपने देश के राष्ट्रीय हितों की हर कीमत पर पूर्ति करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है । इसी कारण गुप्तचर विभाग का विदेश नीति निर्धारकों के लिए आंख और कान जैसा महत्व है । इस प्रकार गुप्तचर विभाग विदेश नीति का एक प्रमुख उपकरण है ।