विदेश नीति : निर्धारण प्रक्रिया

विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया का तात्पर्य किसी देश के वैदेशिक मामलों में भी निर्णय किन के द्वारा लिया जाता है और यह निर्णय किस प्रकार प्रक्रिया के दौर से गुजरता है से है । प्राचीन विश्व के अधिकांश देशों में समस्त शक्तियां राज्य के हाथों में केन्द्रित होती थीं जिससे विदेश नीति के निर्धारण की प्रक्रिया आसान थी ।

राजा अपने चन्द दरबारियों तथा सलाहकारों से परामर्श करके जल्दी ही निर्णय ले लेता था लेकिन आज विश्व बदल गया है । विश्व-राष्ट्रों में अब पहले की तरह न तो सर्व-शक्तिमान राजा रहे और न ही वह पुरानी विश्व राजनीति जिसमें राष्ट्रों के बीच अन्तर्क्रिया एव अन्तर्निर्भरता कम थी ।

विज्ञान एवं टेक्नोलोजी के वर्तमान युग में विश्व के राष्ट्रों में हरेक स्तर पर अन्तर्क्रिया और अन्तर्निर्भरता बढ़ रही है जिस कारण राष्ट्रों की विदेश नीति के निर्धारण की प्रक्रिया अपेक्षाकृत लम्बी एवं अत्यन्त जटिल हो गयी है । उसे विभिन्न चरणों से होकर गुजरना पड़ता है । आज अमरीका या रूस के राष्ट्रपति मनमानी विदेश नीति निर्धारित नहीं कर सकते ।

विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया के दो पहलू हैं: निर्णय तथा उसका कार्यान्वयन । विदेश नीति निर्धारण के दौरान दोनों पहलुओं पर सोचा जाता है कि, क्या निर्णय लिया जाये और उसका कार्यान्वयन कैसे हो ? विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया में दो प्रकार के अभिकरण होते हैं जो उसमें हिस्सा लेते हैं ।

ये हैं- सरकारी अभिकरण और गैर-सरकारी अभिकरण । ये अभिकरण विदेश नीति निर्धारण करते हैं और उसका कार्यान्वयन भी । ध्यान रखने योग्य बात यह है कि अन्तिम निर्णय नीति निर्धारण प्रक्रिया के दौर से गुजरता है जिसमें सरकारी अभिकरण प्रत्यक्ष रूप से भाग लेते हैं ।

इनके बारे में विस्तृत विवेचन निम्नांकित है:

सरकारी अभिकरण:

सरकारी अभिकरण में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका दोनों को सम्मिलित किया जा सकता है । चाहे देश लोकतान्त्रीय हो या साम्यवादी वहां सरकार के ये दोनों अंग जरूर होंगे । कार्यपालिका के अंगों में प्रमुख रूप से प्रधानमन्त्री या/और राष्ट्रपति सम्बन्धित मन्त्रीगण तथा अन्तर्विभागीय संगठन के नाम गिनाये जा सकते हें ।  व्यवस्थापिका के अन्तर्गत संसद के सदस्यों की सम्बन्धित संसदीय समितियों को रखा जा सकता है ।

सरकार के ये अग विदेश नीति निर्धारण की प्रक्रिया में सक्रिय एवं निर्णयात्मक रूप में भाग लेते हैं । प्रधानमन्त्री सरकार का प्रमुख होता है और विदेशमन्त्री विदेश नीति का । इनसे जुड़ा हुआ होता है देश का विदेश मन्त्रालय ।

रक्षा मन्त्रालय से भी इनका सम्बन्ध रहता  है । विदेश नीति निर्धारण के समय कार्यपालिका के सदस्यों की सक्रिय एवं निर्णयात्मक भूमिका का कारण यह है कि ये जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिन पर देश को चलाने का उत्तरदायित्व होता है ।

व्यवस्थापिका में जनता द्वारा चुने हुए वे सभी प्रतिनिधि आते हैं भले ही वे कार्यपालिका के सदस्य हों या नहीं । ये जन प्रतिनिधि सदन में विदेशी मामलों में बहस के द्वारा अपनी राय प्रकट करते हैं और सरकार द्वारा विदेश नीति निर्धारण को प्रभावित करते है । इस प्रकार सरकारी अभिकरणों की विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।

गैर-सरकारी अभिकरण:

विदेश नीति निर्धारण में गैर-सरकारी अभिकरण हालांकि नीति विषयक निर्णय नहीं लेते किन्तु नीति निर्धारण प्रक्रिया को काफी हद तक प्रभावित जरूर करते हैं । सरकार इनके विचारों की एकदम उपेक्षा कदापि नहीं कर सकती ।  गैर-सरकारी अभिकरण के अन्तर्गत राजनीतिक दल हित-समूह जनमत एवं विशेषज्ञों को रखा जा सकता है ।

ये विदेश नीति निर्धारण में सरकारी निर्णय को प्रभावित करते है । लोकतन्त्र के इन गैर-सरकारी अभिकरणों की विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया में अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय भूमिका की गुंजाइश होती है, क्योंकि ऐसी शासन-व्यवस्था में शक्ति का विकेन्द्रीकरण और विरोधी पक्ष को अपनी बात कहने का मौका दिया जाता है ।

मसलन हरेक राजनीतिक दल की अपनी एक विचारधारा होती है, जिसके अनुसार चलकर वह राष्ट्र-निर्माण का कार्य सम्पन्न करना चाहता है । हरेक राजनीतिक दल की विदेश मामलों में भी अपनी एक दृष्टि होती है । विकसित हित समूह भी अपने-अपने हितों के अनुसार किसी विशेष प्रकार की विदेश नीति की वकालत करते हैं । विदेशी मामलों में जनमत भी जाग्रत रहता है ।

विषय-विशेषज्ञ तो विदेशी मामलों पर रेडियो, टेलीविजन और समाचार-पत्रों के माध्यम से अपनी राय तो व्यक्त करते ही हैं । सरकार विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया के दौरान इन गैर-सरकारी अभिकरणों के सभी मतान्तरों को दृष्टिगत रखते हुए ही निर्णय लेती है ताकि सर्वसम्मत विदेश नीति निर्धारण का कार्यान्वयन पूरी ताकत से किया जा  सके ।

हरेक सरकार इन गैर-सरकारी अभिकरणों की आलोचना से बचना चाहती है, जिस कारण वह उनके मत के एकदम विपरीत कम ही मामलों में निर्णय लेती है । इस प्रकार विदेश नीति निर्धारण प्रक्रिया में गैर-सरकारी अभिकरणों की सक्रिय एवं अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।

विदेश नीति के रुझान 

विदेश नीति के रुझान का पता किसी देश द्वारा विश्व के अन्य देशों के प्रति अपनायी गयी नीतियों को विश्वव्यापी राजनीति के सन्दर्भ में रखकर लगाया जा सकता है । विश्व राष्ट्रों की विदेश नीति के रुझान को अनेक श्रेणियों में बांटा जा सकता है किन्तु स्थानाभाव के कारण यहां यही उचित होगा कि हम विदेश नीति ने प्रमुख रुझानों का ही अध्ययन करें ।

मोटे तौर पर आधुनिक विश्व राजनीति में विश्व राष्ट्रों की विदेश नीतियों में तीन प्रकार के रुझान पाये जाते हैं:

(i) अलगाववादी रुझान,

(ii) गुटनिरपेक्ष रुझान और

(iii) अधीनस्थतावादी रुझान ।

इनका संक्षेप में विवेचन निम्नांकित हैं:

(i) अलगाववादी रुझान:

किसी राष्ट्र द्वारा विदेश नीति के अलगाववादी रुझान अपनाने का कतई अर्थ यह नहीं है कि वह राष्ट्र विश्व के अन्य राष्ट्रों से किसी प्रकार के सम्बन्ध रखे ही नहीं असल में इसका अर्थ यह है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की उलझनों से अपने आपको दूर रखता है ।

वह न तो किसी राष्ट्र की तरफदारी करता है और न ही विरोध । वैसे अलगाववादी रुझान अपनाने वाला राष्ट्र ऐसी नीति किन्हीं विशेष कारणों से अपनाता है । अमरीका ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस अलगाववादी रुझान को कुछ वर्षों तक अपनाया  था ।

(ii) गुटनिरपेक्ष रुझान:

गुटनिरपेक्ष रुझान अपनाने वाला राष्ट्र विश्व राजनीति में गुटबाजी की राजनीति से अपने आपको दूर रखता है । गुटनिरपेक्ष राष्ट्र स्वतन्त्र विदेश नीति का पालन करते हैं । वे बड़ी शक्तियों द्वारा प्रवर्तित सैनिक संगठनों में भाग नहीं लेते ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारत सहित अनेक अफ्रो-एशियाई एवं लातीनी अमरीकी देशों ने अपनी विदेश नीति के क्षेत्र में गुटनिरपेक्ष रुझान को अपनाया । क्योंकि वे जहां एक ओर विश्व को गुटों में विभक्त नहीं करना चाहते थे वहीं दूसरी ओर बड़ी शक्तियों के प्रभाव से मुक्त स्वतन्त्र विदेश नीति का क्रियान्वयन करना चाहते थे ।

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