शेरशाह सूरी (1540-45 ई०)

शेरशाह सूरी का जन्म 1472 ई० में हुआ था और इसके बचपन का नाम फरीद था। शेरशाह सूरी [1] के पिता का नाम हसन खाँ था जौनपुर के एक छोटे से जागीरदार थे। ये मूल से अफगानी थे। दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खाँ लोहानी ने शेरशाह सूरी को शेर खाँ की उपाधि से नवाजा था। यह उपाधि शेरशाह सूरी द्वारा शेर को मार गिराने के कारण दी गयी थी। साथ ही बहार खाँ लोहानी ने शेरशाह सूरी को अपने पुत्र जलाल खाँ का संरक्षक भी नियुक्त किया। बहार खाँ लोहानी की मृत्यु के पश्चात शेर खां ने बहार खाँ की विधवा दूदू बेगम से विवाह कर लिया था।

शेरशाह सूरी ने 1529 ई० में बंगाल के शासक नुसरत शाह को युद्ध में हराकर ‘हजरत अली‘ की उपाधि धारण की थी। 1530 ई० में चुनार के किले पर कब्ज़ा किया और ताज खाँ की विधवा लड़मलिका से विवाह किया। साथ ही किले से काफी दौलत भी प्राप्त की।

1539 ई० मुग़ल साम्राज्य के शासक हुमायूँ  और शेरशाह सूरी के बीच चौसा का युद्ध हुआ जिसमें हुमायूँ को पराजित होना पड़ा, जिससे हुमायूँ को काफी आघात पंहुचा, वहीं दूसरी तरफ शेर खाँ ने अल-सुल्तान-आदिल या शेरशाह की उपाधि धारण की और अपने नाम के सिक्के जारी किये और खुतबा (प्रसंशा का भाषण) भी पढ़वाया।

1540 ई० को बिलग्राम (कन्नौज) में हुमायूँ और शेरशाह के बीच युद्ध हुआ था, जिसमें हुमायूँ को हार का सामना करना पड़ा और दिल्ली पर फिर से अफगानों का शासन स्थापित हुआ। दिल्ली पर कब्ज़ा करने के बाद शेरशाह ने दूसरे अफगान साम्रज्य या कहा जाये कि सूर वंश की स्थापना की।

शेरशाह सूरी ने 1542 ई० में मालवा पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया। 1543 ई० में रायसीन पर आक्रमण कर विश्वासघात द्वारा वहां के राजपूत शासक का वध करवा दिया। इस आक्रमण ने राजपूत स्त्रियों को अपना जौहर दिखाने पर मजबूर कर दिया। यह घटना शेरशाह सूरी के चरित्र पर एक कलंक की तरह याद की जाती है।

इसके बाद शेरशाह सूरी ने 1544 ई० में मारवाड़ पर आक्रमण किया उस समय वहां का राजा मालदेव था। इस युद्ध में राजपूत गयता और कुप्पा ने शेरशाह सूरी की अफगानी सेना के पसीने छुड़ा दिये। इस घटना ने शेरशाह सूरी को काफी प्रभावित किया।

इस युद्ध के कुछ समय बाद शेरशाह सूरी ने कालिंजर के किले पर आक्रमण किया जो उस समय राजा किरात सिंह के अधिकार में था। इसी समय ‘उक्का‘ नाम की तोप चला रहा था कि तभी एक गोला आकर पास पड़े बारूद के ढेर पर जा गिरा और विस्फोट के कारण शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गयी। शेरशाह को सासाराम, बिहार में दफनाया गया जहाँ शेरशाह का मकबरा बनवाया गया, यह मकबरा मध्यकालीन कला का एक उत्कृष्ट नमूना है।

शेरशाह सूरी की मृत्यु के पश्चात लगभग 1555 ई० तक दिल्ली पर सुर वंश के शासकों का अधिकार रहा। हुमायूँ ने 15 मई को मच्छीवाड़ा और 22 जून, 1555 को सरहिन्द के युद्ध में सिकंदर शाह सूरी[2] को पराजित कर फिर एक बार दिल्ली पर अपना अधिपत्य कर लिया और मुग़ल साम्राज्य को आगे बढ़ाया। परन्तु हुमायूँ ज्यादा वक्त तक राज न कर सका उसके बाद अकबर ने मुग़ल साम्राज्य को संभाला और एक महान साम्राज्य की नींव रखी।

भारतीय इतिहास में शेरशाह सूरी अपने कुशल शासन प्रबंध के लिये विख्यात है। उसने भू-राजस्व सुधार के लिए अच्छी व्यवस्था का निर्माण किया और कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। शेरशाह के भू-राजस्व सुधार में टोडरमल ने विशेष योगदान दिया था। शेरशाह सूरी ने भूमि को दुबारा नपवाया और राजस्व के प्रबंधन में जमींदरों और बिचौलियों को जगह नहीं दी। साथ ही किसानों को मालिकाना हक़ देने के लिए पट्टा बांटा जाता था, जिसे ‘इकरारनामा‘ या ‘कबूलियत‘ कहा जाता था। यह भूमि राजस्व सुधार इतने उत्कृष्ट थे की अगले मुग़ल सम्राट अकबर ने भी इनका उपयोग अपने शासन में किया।

शेरशाह सूरी ने शुद्ध चाँदी के सिक्के भी जारी किये जिन्हें रुपया कहा गया। साथ ही शेरशाह ने हिन्दुओं पर एक कर वसूलना भी शुरू किया जिसे जजिया[3] कहा गया।

शेरशाह सूरी ने सैनिकों के लिये कई छावनी और सरायों का निर्माण भी करवाया। साथ ही यातायात हेतु सड़कों का निर्माण भी करवाया जिनमें 4 सड़के प्रसिद्ध हैं। ग्रैंड ट्रंक रोड[4] (जी.टी. रोड) जोकि कलकत्ता से पेशावर तक जाती है उसका पुर्ननिर्माण करवाया तत्कालीन समय में इसे सड़क-ए-आजम[5] कहा जाता था। साथ ही दूसरी सड़क आगरा से चित्तोड़ तक,तीसरी सड़क आगरा से बुरहानपुर तक और चौथी सड़क मुल्तान से लाहौर तक बनवायी। शेरशाह सूरी ने अपने राज्य की उत्तरी सीमा को सुरक्षित करने के लिये रोहतासगढ़ नामक एक किला भी बनवाया था।

1. शेरशाह सूरी – शेर खाँ के नाम से भी जाना जाता था।
2. सिकंदर शाह सूरी – शेर खाँ (शेर शाह सूरी) का वंशज था।
3. जजिया – इस्लामी कानून के तहत, गैर मुस्लिम लोगों पर लगाया जाने वाला कर।
4. ग्रैंड ट्रंक रोड – इस रोड का अस्तित्व मौर्य साम्राज्य में भी था , उस समय इस रोड को ‘उत्तर पथ’ कहा जाता था।
5. सड़क-ए-आजम – इस शब्द का साहित्यिक अर्थ है- ‘प्रधान सड़क’।

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