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केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला, 1973: एक विस्तृत विश्लेषण (Kesavananda Bharati vs State of Kerala case, 1973)

राजव्यवस्था नोट्स

(Polity Notes in Hindi)

परिचय

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला, 1973 भारत के इतिहास में एक ऐतिहासिक फैसला था। इसने भारतीय संविधान की संशोधन शक्ति की सीमाओं को परिभाषित किया और यह स्थापित किया कि संविधान का “मूल ढांचा” संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।

मामले की पृष्ठभूमि

1970 के दशक की शुरुआत में, भारत सरकार ने 25 वें संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया, जिसमें संविधान में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए थे। इनमें संसद की संशोधन शक्ति का विस्तार करना और राष्ट्रपति की शक्तियों को कम करना शामिल था।

कई लोगों ने 25 वें संशोधन अधिनियम को संविधान की मूल भावना के खिलाफ माना। उन्होंने तर्क दिया कि संसद को संविधान के बुनियादी ढांचे को बदलने का अधिकार नहीं है।

इस मुद्दे को लेकर कई याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गईं। इन याचिकाओं में सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया गया था कि वह 25 वें संशोधन अधिनियम को रद्द कर दे और यह घोषित कर दे कि संसद संविधान के “मूल ढांचे” को संशोधित नहीं कर सकती।

विवादित मुद्दे

इस मामले में मुख्य विवादित मुद्दा यह था कि क्या संसद के पास संविधान के “मूल ढांचे” को संशोधित करने की शक्ति है।

न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने 7:2 के बहुमत से याचिकाकर्ताओं के पक्ष में फैसला सुनाया। न्यायालय ने कहा कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की व्यापक शक्ति है, लेकिन यह शक्ति असीमित नहीं है। न्यायालय ने यह भी कहा कि संविधान का “मूल ढांचा” संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।

मूल ढांचे का सिद्धांत

न्यायालय ने “मूल ढांचे” की अवधारणा को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि इसमें संविधान के कुछ बुनियादी सिद्धांत शामिल हैं, जैसे कि संप्रभुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और गणतंत्र।

निर्णय का महत्व

केशवानंद भारती मामला भारतीय संवैधानिक कानून में एक मील का पत्थर था। इसने संविधान की संशोधन शक्ति की सीमाओं को परिभाषित किया और यह स्थापित किया कि संविधान का “मूल ढांचा” संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।

इस फैसले का भारतीय राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इसने न्यायालय को संविधान के संरक्षक के रूप में स्थापित किया है और यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी है कि संसद संविधान के बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन न करे।

निष्कर्ष

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मामला है। इसने संविधान की संशोधन शक्ति की सीमाओं को परिभाषित किया और यह स्थापित किया कि संविधान का “मूल ढांचा” संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता। यह फैसला आज भी प्रासंगिक है और भारतीय लोकतंत्र की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित बिंदु भी ध्यान देने योग्य हैं:

  • केशवानंद भारती मामले ने भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और शक्ति को मजबूत किया।
  • इसने न्यायालय को संविधान की व्याख्या करने और यह तय करने में अंतिम अधिकार दिया कि कौन से कानून संविधान के अनुरूप हैं।

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