प्रस्तावना गैर-न्यायिक है: क्या यह सच है? (The premise is non-judgmental: is it true?) : सरल भाषा में : राजव्यवस्था नोट्स (Polity Notes Hindi Medium) (Polity Notes in Hindi Medium) (Arora IAS)
प्रस्तावना गैर-न्यायिक है: क्या यह सच है? (The premise is non-judgmental: is it true?)
राजव्यवस्था नोट्स
(Polity Notes in Hindi)
भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो भारत के मूल्यों, आदर्शों और लक्ष्यों को स्थापित करती है। यह अक्सर कहा जाता है कि प्रस्तावना “गैर-न्यायिक” है, जिसका अर्थ है कि यह न्यायालयों द्वारा लागू करने योग्य नहीं है।
लेकिन क्या यह सच है? क्या प्रस्तावना का कोई कानूनी प्रभाव नहीं है?
प्रस्तावना का महत्व
प्रस्तावना, हालांकि संविधान का एक हिस्सा है, संविधान के “अनुच्छेद” के रूप में वर्गीकृत नहीं है। इसका मतलब यह है कि इसमें सीधे लागू करने योग्य प्रावधान नहीं हैं।
फिर भी, प्रस्तावना का भारतीय संविधान की व्याख्या और लागू करने में महत्वपूर्ण महत्व है। यह न्यायालयों को संविधान के मूल्यों और उद्देश्यों को समझने में मदद करता है।
प्रस्तावना में निहित शब्दों और वाक्यांशों का अक्सर न्यायालयों द्वारा संविधान की व्याख्या करते समय उल्लेख किया जाता है। वे संविधान के मूल्यों और उद्देश्यों को समझने में मदद करते हैं।
उदाहरण के लिए, प्रस्तावना में “न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व” जैसे शब्दों का उल्लेख है। इन मूल्यों का उपयोग न्यायालयों द्वारा यह निर्धारित करने के लिए किया जाता है कि क्या कोई कानून संविधान के अनुरूप है।
प्रस्तावना और न्यायिक समीक्षा
यह सच है कि प्रस्तावना में सीधे लागू करने योग्य प्रावधान नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि न्यायालय किसी कानून को केवल इसलिए रद्द नहीं कर सकते क्योंकि यह प्रस्तावना के विपरीत है।
हालांकि, प्रस्तावना का उपयोग न्यायिक समीक्षा की शक्ति में सहायता के लिए किया जा सकता है। न्यायिक समीक्षा की शक्ति न्यायालयों को यह निर्धारित करने की अनुमति देती है कि क्या कोई कानून संविधान के अनुरूप है।
यदि कोई कानून प्रस्तावना में निहित मूल्यों और सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, तो न्यायालय उस कानून को रद्द कर सकते हैं।
उदाहरण
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान का एक “मूल ढांचा” है जिसे संसद संशोधित नहीं कर सकती।
अदालत ने यह निर्धारित करने के लिए प्रस्तावना का उपयोग किया कि संविधान के “मूल ढांचे” में क्या शामिल है। अदालत ने कहा कि मूल ढांचे में संप्रभुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और गणतंत्र जैसे मूल्य शामिल हैं।
निष्कर्ष
यह कहना गलत होगा कि प्रस्तावना “गैर-न्यायिक” है। प्रस्तावना का भारतीय संविधान की व्याख्या और लागू करने में महत्वपूर्ण महत्व है।
यह न्यायालयों को संविधान के मूल्यों और उद्देश्यों को समझने में मदद करता है। प्रस्तावना का उपयोग न्यायिक समीक्षा की शक्ति में सहायता के लिए भी किया जा सकता है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रस्तावना की व्याख्या जटिल है और इस पर विद्वानों के बीच बहस होती रहती है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि प्रस्तावना में केवल राजनीतिक महत्व है और इसका कोई कानूनी प्रभाव नहीं है।
अन्य विद्वानों का मानना है कि प्रस्तावना का न्यायिक समीक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की क्षमता है।
अंततः, प्रस्तावना की भूमिका और महत्व का निर्धारण न्यायालयों द्वारा किया जाता है।