भारतीय संविधान: न्यायिक सर्वोच्चता 

भारतीय संविधान संसदीय संप्रभुता के सिद्धांत का पालन करता है, जिसका अर्थ है कि संसद सर्वोच्च विधायिका है। हालांकि, भारत में न्यायपालिका एक मजबूत संस्था है जो न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग करती है। इसका मतलब है कि यह तय कर सकती है कि कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं.

कुछ लोग मानते हैं कि यह न्यायपालिका को अत्यधिक शक्तिशाली बना देता है, यही कारण है कि कभी-कभी न्यायिक सर्वोच्चता की अवधारणा पर बहस होती है.

आइए देखें कि भारतीय संविधान में न्यायपालिका की क्या भूमिका है और यह कैसे काम करती है:

न्यायिक समीक्षा की शक्ति:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय को भारत के पूरे क्षेत्र में सभी न्यायालयों और अधिकरणों पर न्यायिक सर्वोच्चता प्राप्त है।
  • इसका मतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय यह तय कर सकता है कि संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं.
  • यदि कोई कानून असंवैधानिक पाया जाता है, तो उसे रद्द कर दिया जाता है।

उदाहरण:

  • 2010 में, सर्वोच्च न्यायालय ने 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में फैसला सुनाया कि सरकार द्वारा दूरसंचार कंपनियों को मोबाइल फोन स्पेक्ट्रम आवंटित करने की प्रक्रिया मनमानी और अपारदर्शी थी।
  • अदालत ने आवंटन प्रक्रिया को रद्द कर दिया और सरकार को नई प्रक्रिया अपनाने का निर्देश दिया।

न्यायिक व्याख्या:

  • न्यायालय न केवल यह तय करते हैं कि कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं, बल्कि वे यह भी व्याख्या करते हैं कि उनका क्या मतलब है।
  • कभी-कभी, कानून अस्पष्ट हो सकते हैं। न्यायालय इन कानूनों की व्याख्या करते हैं ताकि यह स्पष्ट हो सके कि उनका वास्तव में क्या अर्थ है और उन्हें कैसे लागू किया जाना चाहिए।

उदाहरण:

  • भारतीय संविधान अनुच्छेद 19(1)(a) वाणी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
  • हालांकि, यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है। उदाहरण के लिए, आप किसी को जान से मारने की धमकी नहीं दे सकते।
  • अदालतों ने यह व्याख्या की है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में उग्रवादी भाषण या राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने वाला भाषण शामिल नहीं है।

न्यायिक समीक्षा का दायरा और सीमाएं:

  • न्यायिक समीक्षा की भूमिका: न्यायिक समीक्षा का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कानून संविधान के अनुरूप हों और मनमाने ढंग से लागू न किए जाएं। यह मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी महत्वपूर्ण है।
  • सीमाएं:
    • संविधान संशोधन: जैसा कि बताया गया है, संसद के पास संविधान संशोधन की शक्ति है। हालांकि, अदालतें यह तय नहीं कर सकती कि संविधान संशोधन का आधार वैध है या नहीं, बल्कि सिर्फ यह देख सकती हैं कि प्रक्रिया का सही तरीके से पालन किया गया है या नहीं।
    • न्यायिक संयम: भारतीय न्यायपालिका “न्यायिक संयम” के सिद्धांत का पालन करती है। इसका मतलब है कि अदालतें आम तौर पर विधायिका या कार्यपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप करने से बचती हैं। वे केवल उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप करती हैं जहां कानून स्पष्ट रूप से असंवैधानिक है या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। अदालतें यह स्वीकार करती हैं कि विधायिका और कार्यपालिका कानून बनाने और उन्हें लागू करने के लिए बेहतर स्थिति में हो सकती हैं।

न्यायिक सक्रियता और इसकी आलोचनाएं:

  • हाल के वर्षों में, कुछ मामलों में भारतीय न्यायपालिका अधिक सक्रिय हो गई है। इसने सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर कई महत्वपूर्ण फैसले सुनाए हैं, जैसे कि जेल सुधार और पर्यावरण संरक्षण।
  • हालांकि, न्यायिक सक्रियता की भी आलोचना की गई है। कुछ लोगों का तर्क है कि अदालतें अपनी सीमा लांघ रही हैं और कार्यपालिका के काम में दखल दे रही हैं।

निष्कर्ष:

न्यायिक समीक्षा की शक्ति भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह मनमाने कानून को रोकने और मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में मदद करती है। हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि न्यायपालिका संयम का प्रयोग करे और विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारों का सम्मान करे।

भारतीय संविधान संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत स्थापित करता है। न्यायिक सर्वोच्चता का सिद्धांत इस संतुलन को बनाए रखने में मदद करता है।

 

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