आधुनिक भारत का इतिहास: असहयोग आंदोलन 1920 (Non Cooperation Movement 1920 in Hindi)
देश की स्वतंत्रता के लिए कई तरह के आंदोलन और सत्याग्रह हुए, उनमे से एक असहयोग आंदोलन भी था.इस आंदोलन की रूपरेखा देश की प्रमुख पार्टी कांग्रेस ने गांधीजी की दिशा-निर्देशों में तय की थी और पूरे देश में व्यापक स्तर पर इस आंदोलन का प्रभाव पड़ा. लोगों ने बहुत ही उत्साह के साथ इसमें हिस्सा लिया,जिसमें 7 साल के बच्चे से लेकर 70 साल तक के बुजुर्ग और सभी वर्गों के लोग शामिल थे. ये आंदोलन इसलिए भी प्रभावी रहा क्योंकि भले ही अंग्रेजों के प्रति लोगों में अलग-अलग स्तर का आक्रोश था लेकिन हर किसी का सपना सिर्फ स्वतंत्रता प्राप्त करना था.
आंदोलन का नाम | असहयोग आंदोलन |
आंदोलन की शुरुआत | 1 अगस्त 1920 |
आंदोलन का नेतृत्व किसने किया | मोहनदास करमचंद गांधी |
आंदोलन का कारण | जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड,मोंतेगु-केल्म्स्फोर्ड सुधार(Montagu-Chelmsford Reforms) के प्रति असंतोष.रोलेट एक्ट,खिलाफत आंदोलन, |
आंदोलन की समाप्ति | 12 फरवरी 1922 |
आंदोलन की समाप्ति का कारण | चौरी-चौरा काण्ड |
असहयोग आंदोलन क्या हैं ? (What is Non Cooperation Movement)
जैसा कि नाम से समझा जा सकता हैं, असहयोग मतलब सहयोग ना देना । इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था अंग्रेज़ो को देश चलाने में सहायता ना करना अपितु असहयोग देना लेकिन इसका सबसे बड़ा नियम था इसमे किसी भी तरह की हिंसा नहीं की जायेगी । अहयोग इस तरह दिखाया जायेगा जैसे ब्रिटिश सरकारों के सानिध्य में बनी शाला में अध्ययन ना करना , सरकारी दफ्तर में काम ना करना, सरकार द्वारा दिये गये औदे एवं पुरस्कारों को लौटना, विदेशी माल का बहिष्कार करना, हिन्दी भाषा बोलना, स्वदेशी कपड़े पहनना आदि जिससे अंग्रेज़ो के कार्यों में बाधा पहुँचे और उनके लिए देश चलाना मुश्किल हो जाये।
असहयोग आंदोलन के क्या कारण हैं ?(Reasons behind Non Coperation Movement)
- जब भारतीय समाज के हर वर्ग में अंग्रेजों के प्रति असंतोष और आक्रोश था तब ऐसे किसी आंदोलन की सख्त आवश्यकता थी जो जन-जागृति के साथ ही अंग्रेजों के शासन की नींव को हिला सके. वैसे तो इस आंदोलन के बहुत से कारण थे लेकिन रोलेट एक्ट, जालियावाला बाग नरसंहार, पंजाब में मार्शल लॉ,खिलाफत आंदोलन, वस्तुओं की उच्च कीमत, सूखा और महामारी इत्यादि कुछ बड़े कारण थे जिनकी वजह से 1920-22 के मध्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और गांधीजी के नेतृत्व में ‘असहयोग आंदोलन’ सम्पन्न हुआ था.
- 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में हुए नर-संहार से पूरे देश में रोष व्याप्त हो गया था,महात्मा गांधी ने इसके विरोध में अपने केसर-ए-हिन्द तो रबिन्द्र नाथ टैगोर ने नाईटहुड की उपाधि लौटा दी थी.
- 1919 में मोंतागु-केल्म्स्फोर्ड के प्रस्ताव पर गवर्मेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट पारित हुआ था,इसमें शासन का द्वि-प्रबंध निर्धारित हुआ था जिसमें विधान सभा के लिए सीधे इलेक्शन करवाना तय किया गया था ,हालांकि विधान सभा का गवर्नर-जनरल पर और एग्जीक्यूटिव काउंसिल पर कोई नियन्त्रण नहीं था. राष्ट्रवादियों को ये बात पसंद नही आई. अगस्त 1918 में बॉम्बे में आयोजित हुए कांग्रेस के स्पेशल सेशन में इस रिफार्म का विरोध किया गया और स्व-शासन की मांग की गयी. इसके अलावा 1919 में ही रौलेट एक्ट भी आया था जिसके अनुसार संदिग्ध गतिविधि दिखने पर बिना किसी ट्रायल के उस व्यक्ति को 2 वर्षों का कारावास की सजा दी जा सकती थी.गांधीजी ने इसका भी विरोध किया था.
असहयोग आंदोलन की शुरुआत कब हुई (Launch of the Non-Cooperation Movement)
ऊपर बताए कारणों से देश की जनता में आक्रोश फ़ैल चूका था और वो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कुछ सख्त राजनीतिक कदम उठाना चाहती थी,ऐसे में आर्थिक समस्याओं में बढ़ोतरी ने आग में घी का काम किया. और अंतत: 1 अगस्त 1920 को औपचारिक रूप से असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुयी,उसी दिन लोकमान्य तिलक ने अपनी आखिरी सांस ली थी.वास्तव में 1920 में नागपुर हुए कांग्रेस के सेशन में असहयोग आंदोलन की रूपरेखा तैयार की गईं थी. उसके बाद इंडियन नेशनल कांग्रेस के संविधान में निम्न परिवर्तन किये गये थे.
- कांग्रेस ने स्वयं की सरकार बनाने के साथ में शांतिपूर्ण और क़ानूनी तरीके से स्वराज प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित किया.
- कांग्रेस ने अपने दैनिक मामलों की देखभाल करने के लिए 15 सदस्यों की कार्यकारी समिति बनाई.भाषाई आधार पर प्रांतीय कांग्रेस समितियों का आयोजन किया गया.गरीबों को सदस्य बनाने के लिए इसकी सदस्यता शुल्क को भी घटा दिया गया था,और अब से जहां तक संभव हो कांग्रेस को हिंदी का उपयोग करना था.
काँग्रेस का आह्वान
इस आंदोलन को समग्र रूप से प्रभावित बनाने में कांग्रेस का महत्वपूर्ण योगदान था,क्योंकि इस पार्टी ने एक ऐसा मंच तैयार किया था जहां से देशवासियों तक अंग्रेजों के विरुद्ध और भविष्य के भारत के लिए राजनेताओं की संकल्पनाओं को पहूँचाया जा सकता था. असहयोग आंदोलन के लिए कांग्रेस ने लोगों से निम्न अपील की:-
- लोकल स्तर से लेकर बड़े-से बड़ा अवार्ड या टाईटल जो अंग्रेजों ने दिया हैं,उसे लौटा दे,इससे ना केवल अंग्रेजों को अपमान महसूस होगा बल्कि प्रत्येक भारतीय के स्वाभिमान के भाव में भी वृद्धि होगी.
- कोई भी प्रकार का सरकारी या अर्ध-सरकारी कार्यक्रम में उपस्थिति ना दे,क्योंकि इस आंदोलन मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों से देश को मुक्त करवाना हैं तो ये जरूरी हैं कि उन्हें ये महसूस करवाया जाए कि वो यहाँ विदेशी हैं,और इस तरह का असहयोग का सामना उनके लिए आसान नही होगा.
- अपने बच्चों को उन स्कूल और कॉलेज से निकलवा ले,जहां अंग्रेजों का शासन हो या जिसे अंग्रेजों ने बनवाई हो. वास्तव में असहयोग आंदोलन कुछ दिनों का उन्माद नही था,ये एक धीमी प्रक्रिया थी जिस कारण इसके दूरगामी परिणामों से बहुत ज्यादा उम्मीदें थी,और ये निश्चित था कि धीरे-धीरे प्रत्येक भारतीय के साथ ब्रिटिश हुकुमत पर भी इसका प्रभाव होना ही था.
- असहयोग आंदोलन के दौरान इस बात का ध्यान भी रखा गया कि अधिकाधिक शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक संस्थाओं का गठन किया जाये,जिसमें भारतीयों का योगदान हो,इससे ब्रिटिशर्स पर निर्भरता कम हो जाए.
- ब्रिटिश कोर्ट और उनके वकीलों का बहिष्कार करना भी असहयोग आंदोलन में शामिल था. इसके अतिरिक्त मेसोपोटोमिया में होने वाली मिलिट्री की या अन्य कोई भी तरह की सेवा से इनकार करना और भाग नही लेना भी असहयोग आंदोलन का ही हिस्सा था.
- इस दौरान देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी विशेष रूप से ध्यान दिया जाने लगा क्योंकि काँग्रेस के बड़े नेता ये बात समझने लगे थे कि अंग्रेजों की नीति फूट डालकर राज करने की हैं. इसलिए देश की सम्प्रभुता को बनाये रखने के लिए ये जरूरी हैं कि दोनों वर्ग मिलकर अंग्रेजों का सामना करे.
- 1921 और 22 में कुछ ऐसे ही उदेश्यों को ध्यान में रखते हुए आंदोलन आगे बढ़ा और कुछ नेशनल इंस्टिट्यूट की स्थापना हुयी जिनमें गुजरात विद्यापीठ,बिहार विद्यापीठ,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ,काशी विद्यापीठ,बंगाल नेशनल यूनिवर्सिटी और दिल्ली का जामिया मिलिया मुख्य संस्थान हैं.
असहयोग आंदोलन का घटनाक्रम
- महात्मा गांधी ने अली बंधुओं के साथ पूरे देश का भ्रमण किया, और कई तरह की रैलियां आयोजित की और छात्रों एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भाषण दिए,जिसका ये परिणाम रहा की हजारों की संख्या में छात्रों ने स्कूल और कॉलेज छोड़ दिए एवं उस दौरान स्थापित कए गये 800 से ज्यादा स्कूल कॉलेज में प्रवेश लिया.
- शैक्षिणक बहिष्कार सबसे ज्यादा बंगाल में सफल रहा था. सीआर दास ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई थी,उन्होंने इस आंदोलन का प्रचार प्रसार किया.सुभाषचंद्र बोस कलकता में नेशनल कांग्रेस के प्रिंसिपल बने. पंजाब में भी शैक्षणिक बहिष्कार काफी सफल रहा,यहाँ पर लाल लाजपत राय ने मुख्य योगदान दिया था.
- कानून और कोर्ट के बहिष्कार में काफी सफलता मिली. सीआर दास,मोतीलाल नेहरु,एमआर जयकर,सैफुद्दीन जैसे वकीलों ने लॉ कोर्ट का बहिष्कार किया.
- असहयोग आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता विदेशी कपड़ों के बहिष्कार की मानी जाती हैं. विदेशी कपड़ों की दुकानों के खिलाफ अभियान चलाए गये. इन सबके अलावा शराब की दुकानों पर धरने भी दिये गए. पूरा देश स्वदेशी शब्द से परिचित हो चूका था,स्वदेशी खाना,पहनना और अन्य वस्तुओं को काम में लेना ही असहयोग आंदोलन का मुख्य घटक बन गया था.
- स्वदेशी कपड़ों के लिए गांधीजी और कांग्रेस ने खादी पर जोर दिया जिसके लिए चरखे को काफी प्रसिद्धि मिली और बड़े पैमाने पर चरखे का उपयोग किया जाने लगा और खादी वस्त्र तो इस अभियान के लिए यूनिफार्म बन गया.
- असहयोग आंदोलन को फंड देने के लिए तिलक स्वराज फंड की स्थापना की गयी,और 6 महीनों के भीतर इसमें लगभग एक करोड़ रूपये एकत्र हो गये, जब वेल्स के राजकुमार ने 1921 में भारत की यात्रा की तो उनके विरोध में हड़ताल की गयी जिसमे इस राशि का काफी सहयोग रहा.
- जुलाई 1921 में मोहम्मद अली ने कराची में आल इंडिया खिलाफत कांग्रेस के आयोजन में ये घोषणा की कि ब्रिटिश आर्मी में काम करना धर्म के खिलाफ हैं. गांधीजी ने भी मोहम्मद अली की बात का समर्थन किया और कहा कि प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक को ब्रिटिश सरकार से इस तरह का कोई सम्बंध नहीं रखना चाहिए.
- बंगाल के मिदनापुर जिले में यूनियन बोर्ड टैक्सेज के खिलाफ अभियान शुरू हो गया.आंध्र के गुंटूर जिले के चिराला-पिराला और पेदानान्दिपादु तालुका में भी नो-टैक्स मूवमेंट का आयोजन किया गया
- यूपी में भी किसान सभा का सशक्त आंदोलन चल रहा था वहाँजवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन को भी दिशा मिली.
- केरल के मालाबार क्षेत्र में असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन ने मुस्लिम किरायेदारो को अपने मकान मालिकों के खिलाफ आवाज़ उठाने में मदद की,इन किरायेदारों को मोपला कहा जाता था,इस अभियान ने बाद में साम्प्रदायिक रंग ले लिया.
- असम में चाय के बागानों में मजदूरों ने हड़ताल कर दी,जबकि आंध्र में वन कानूनों के नियमों की अवज्ञा काफी लोकप्रिय हुयी.
- पंजाबा में असहयोग आंदोलन के अंतर्गत ही भृष्ट महात्माओं और संतों से गुरुद्वारों को मुक्त करवाने के लिए अकाली अभियान चलाया गया.
- इस तरह असहयोग आंदोलन को मुख्यतया 4 चरणों में बांटा जा सकता हैं-जनवरी से मार्च 1921 तक का समय,जिसमें छात्रों और वकीलों को छोड़ने के लिए प्रेरित किया जाना था, दबाव बढ़ने के कारण 28-30 जुलाई को बॉम्बे एआईसी की बैठक ने कुछ आक्रमक रुख अपनाया, गांधीजी ने यहाँ स्वयंसेवकों से जेल जाने का आह्वाहन किया. 1 नवम्बर 1921 से लेकर फरवरी 1922 तक आंदोलन इतना तीव्र हो गया था अंग्रेज सरकार लगभग घुटने टेक चुकी थी लेकिन अचानक से 11 फरवरी 1922 को आंदोलन स्थगित कर दिया गया.
असहयोग आंदोलन की समाप्ति का क्या कारण था ? (Reasons behind finish of this movement)
- 1921 के मध्य तक असहयोग आंदोलन अपनी चरम पर था, पूरा देश और कांग्रेस के सदस्य गांधीजी के अगले कदम की राह देख रही थी.कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं से लेकर बड़े-बड़े राजनेताओं ने महात्मा गाँधी से ये अनुरोध किया कि वो असहयोग आंदोलन के अगले चरण नागरिक अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत करे. गांधीजी ने ये घोषणा की कि नागरिक अवज्ञा की शुरुआत सूरत के बारडोली तालुका से की जाएगी और देश के सभी हिस्से उस समय शांत और अनुशासन में रहेंगे जिससे बारडोली के इस आंदोलन पर पूरा ध्यान लगाया जा सके. हालांकि इससे पहले कि नागरिक अवज्ञा आंदोलन होताचौरी-चौरा काण्ड हो गया जिसने पूरी घटना को ही बदलकर रख दिया.
- 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर में चोरी चौरा नामक जगह के स्टेशन पर क्रांतिकारियों ने हमला कर दिया और पुलिस स्टेशन को आग लगा दी,इस घटना में 22 पुलिसकर्मी मारे गये,इस घटना से नाराज होकर गांधीजी ने तुरंत ही असहयोग आंदोलन को बंद करने का आदेश दे दिया.
असहयोग आंदोलन का परिणाम (Results of Non Cooperation Movement)
हालांकि असहयोग आंदोलन अपने प्राथमिक लक्ष्य स्वराज्य की प्राप्ति तक नहीं पहुँच सका लेकिन इसके कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन और परिणाम सामने आये जो कि निम्न हैं-
- नेशनल कांग्रेस के लिए ये शक्ति प्रदर्शन के जैसे साबित हुआ,इस आंदोलन से ये बात स्पष्ट हुयी कि देश की जनता कांग्रेस के साथ हैं,और स्वराज का विचार रखती हैं,वास्तव में अंग्रेजों के लगातार आर्थिक और सामाजिक शोषण से त्रस्त आम-जनता के लिए असहयोग आंदोलन में भाग लेना पहला राजनीतिक अवसर था जिसमे सीधे सरकार से लड़ा जा सकता था.
- ये पहला आंदोलन था जो पूरे देश में समान रूप से आयोजित हुआ,हालांकि कुछ हिस्से ऐसे थे जहां पर ये ज्यादा प्रभावी नही रहा लेकिन कुछ हिस्से ऐसे भी थे जहां आंदोलन तीव्र था.
- अभियान में पर्याप्त संख्या में मुस्लिमों का योगदान था और हिन्दू-मुस्लिम एकता भी इस अभियान का मुख्य आकर्षण था जो कि इसके बाद हुए नागरिक अवज्ञा आंदोलन में नही देखा गया.
- हालांकि बहुत से नेता गांधीजी के असहयोग आंदोलन को स्थगित करने के निर्णय से बहुत नाराज हुए लेकिन उन्होंने सत्य और अहिंसा का सम्मान करते हुए इस निर्णय को मंजूर कर लिया. लेकिन तब तक असहयोग आंदोलन ने अपना प्रभाव दिखा दिया था,देश का युवा हो या बच्चा या बुजुर्ग कोई भी वर्ग हो कोई भी जाति हर किसी में देश की स्वतंत्रता और अपने अधिकारों के प्रति जागृति आ चुकी थी. इससे भारतियों में गुलामी मानसिकता भी समाप्त होने लगी थी,उन्होंने देश के लिए त्याग और संघर्ष की प्रेरणा मिलने लगी थी. उस समय बिपिन चन्द्र पाल जैसे कई बड़े नेताओं ने कहा कि लड़ाई भले समाप्त हो चुकी हो लेकिन युद्ध ज़ारी रहेगा.
- 1921-22 के असहयोग आंदोलन को 3 स्तरों पर समझा जा सकता हैं –गांधीजी के नेतृत्व और कांग्रेस के दिशा-निर्देश में पूरे भारत में चला अभियान, समाज और विभिन्न वर्गों का योगदान और सबसे रोचक और महत्वपूर्ण धार्मिक एवं सामान्य लोगों का दिया योगदान था.
- ये बात सच थी कि इसमें भाग लेने वाले श्रमिकों और किसानों के वर्ग के लिए सम्मुख और औपचारिक स्तर पर ये पहला राष्ट्रीय आंदोलन था,क्योंकि 1917 तक सारे आंदोलन घोषित और सार्वजनिक तौर पर ऊपरी एवं मध्यम वर्ग के लिए सीमित थे. इस आंदोलन से कांग्रेस को पहली बार जन आधार मिला.आंदोलन को स्थगित करने से कांग्रेस भी दो धड़ों में बंट गयी. 1927 में आया साइमन कमिशन को काले झंडे दिखाए गये. 1929 में वायसराय लार्ड इरविन ने कहा कि भारत को सम्प्रभुता प्रदान की जायेगी. लेकिन उस साल काँग्रेस के लाहौर सेशन में ये बात नहीं स्वीकार की गयी और कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की मांग की.जिसे ना मानने के कारण गांधीजी के नेतृत्व में एक बार फिर से असहयोग आंदोलन जैसे ही आंदोलन की शुरुआत हुयी लेकिन इसका नाम सविनय-अवज्ञा आंदोलन था.