कृषक आन्दोलन: इतिहास और प्रकार 

Peasant Movement: History and Types

कृषक आन्दोलन का इतिहास:

सन् 1918 के पूर्व विभिन्न वर्षों में पड़ने वाले अकालों के परिणामस्वरूप किसानों और कृषि-श्रमिकों को आर्थिक दृष्टि से काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था । समय-समय पर आने वाली आर्थिक मन्दी ने भी इन लोगों की स्थिति को बिगाड़ने में योग दिया ।

अस्तु कृषि-श्रमिकों तथा किसानों ने जमींदारों, साहूकारों तथा सरकार के विरुद्ध समय-समय पर आन्दोलन छेड़े । बंगाल तथा सन्थाल ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न हुई । महाराष्ट्र, पंजाब तथा देश के अन्य भागों में भी समय-समय पर कृषक असन्तोष बढ़ने के कारण आन्दोलन हुए ।

सन् 1905 से 1930 तक:

सन् 1905 से 1911 की अवधि में किसानों व कृषि-श्रमिकों के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वारा कोई विशेष प्रयास नहीं किये गये । 1917-18 से महात्मा गांधी के द्वारा इन लोगों के लिए सत्याग्रह किया गया । अहिंसात्मक संघर्ष का मार्ग अपनाया गया ।

अनेक स्थानों पर गांधी जी ने फसल नष्ट हो जाने की स्थिति में भूमि-कर वसूल किये जाने के विरुद्ध आन्दोलन किये । उन्होंने असहयोग आन्दोलन चलाया जिसमें प्रथम बार किसानों व कृषि-श्रमिकों ने यह समझ कर भाग लिया कि इससे भूमि-कर कम हो सकेगा और उनकी आर्थिक स्थिति सुधर सकेगी । सर्वप्रथम सन् 1923 में किसान संगठनों व कृषक श्रम-संघों का निर्माण हुआ ।

1926-27 में पंजाब बंगाल तथा संयुक्त प्रान्त के कुछ भागों में किसान सभाएँ बनायी गयीं । प्रथम 1928-29 में तथा द्वितीय, 1930-31 में गुजरात में बारदोली जिले में किसानों व कृषि श्रमिकों के दो संघर्ष हुए प्रथम संघर्ष का नेतृत्व सरदार बल्लभ भाई पटेल के द्वारा किया गया और इस संघर्ष के परिणामस्वरूप सरकार को इन लोगों की अनेक मांगों को मानना पड़ा । इससे इन लोगों के आन्दोलन को काफी बल मिला ।

सन् 1930 से 1940 तक:

सन् 1929 में विश्वव्यापी कृषक तथा सामान्य आर्थिक संकट ने भारतीय किसानों व कृषि-श्रमिकों की आर्थिक स्थिति को शोचनीय बना दिया । वे कुछ कर-गुजरने के लिए आतुर थे । उनमें से कई लोगों ने कांग्रेस द्वारा संचालित प्रदर्शनों तथा सभाओं में भाग लिया ।

इस समय संयुक्त प्रान्त आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, मैसूर तथा देश के अन्य भागों में इन लोगों के कई आन्दोलन हुए । किसानों व कृषि-श्रमिकों में यह चेतना जाग्रत होने लगी कि यदि अपनी स्थिति को सुधारने के लिए कुछ करना है तो उन्हें स्वयं का संगठन बनाना होगा, स्वयं का नेतृत्व विकसित करना होगा ।

विभिन्न राजनीतिक संगठनों जैसे कांग्रेस समाजवादी दल आदि ने देश में किसान व कृषि-श्रमिक संगठनों के निर्माण की आवश्यकता पर जोर दिया । सन् 1930 से 1940 की अवधि में देश के किसान आन्दोलन जोर पकड़ते गये 1927 में बिहार किसान सभा की स्थापना हुई, 1934 के पश्चात् वह आकार में काफी विस्तृत और मजबूत होती गयी । सन् 1935 में संयुक्त प्रान्त में प्रदेश किसान सभा का निर्माण किया गया जिसने जमींदारी-प्रथा के उन्मूलन की मांग रखी ।

सन् 1935 में प्रथम अखिल भारतवर्षीय किसान कांग्रेस का लखनऊ में सम्मेलन हुआ जिसमें यह निश्चय किया गया कि देश के सर्वोच्च किसान संगठन के रूप में किसान कांग्रेस की स्थापना की जानी चाहिए इस प्रकार एक ऐसे संगठन की स्थापना की गयी जिसने किसानों व भूमिहीन श्रमिकों की आकांक्षाओं को मूर्त रूप देने का प्रयास किया । परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में और अधिक जागृति आयी ।

सन् 1937 में देश के विभिन्न भागों में कांग्रेस सरकारों की स्थापना हुई परन्तु ये कृषि-क्षेत्र में कार्यरत निचले स्तर के लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकीं । छोटे किसानों व भूमिहीन श्रमिकों में असन्तोष बढ़ता गया तथा उन्होंने विरोध-सभाओं सम्मेलनों तथा प्रदर्शनों के माध्यम से अपना रोष व्यक्त किया ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद:

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् समाजवादियों ने हिन्द किसान पंचायत को स्थापना की । क्रान्तिकारी समाजवादी पार्टी ने प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्री जोगेश चन्द्र चटर्जी की अध्यक्षता में संख्या किसान सभा की स्थापना की । अखिल भारतवर्षीय किसान सभा की शक्ति स्वतन्त्र भारत में बढ़ती जा रही थी । 1946 से 1950 के बीच कुछ बहुत बड़े किसान व कृषि-श्रमिक संघर्ष हुए ।

ट्रावनकोर में किसानों व श्रमिकों में सेना से अलग हुए व्यक्ति भी सम्मिलित हो गये इन सब लोगों ने मिल कर. भूस्वामी वर्ग के विरुद्ध संघर्ष-छेड़ दिया । उन्होंने महाराजा की सेना के साथ सशस्त्र झड़पें कीं परिणामस्वरूप असंख्य व्यक्तियों की मृत्यु हुई । मालाबार में भी किसान संगठन शक्तिशाली हो गया तथा कई किसान संघर्ष हुए ।

जिनमें सर्वाधिक हिंसात्मक संघर्ष तेलंगाना त्रिपुरा तथा मणिपुर में हुए । तेलंगाना में किसानों ने रजाकारों के विरुद्ध और तत्पश्चात् भारत सरकार की सेना के विरुद्ध गुरिल्ला संघर्ष किया । इन्होंने करीब 2500 गांवों में अपनी सरकार बना ली । करीब 10 लाख एकड़ भूमि भूस्वामी वर्ग से छीन ली गयी और उसे कृषक-श्रमिकों और गरीब किसानों में बांट दिया गया ।

कृषक आन्दोलन के प्रकार:

साम्यवादी आन्दोलन:

साम्यवादी सदैव इस पक्ष में रहे कि कृषकों एवं कृषक-श्रमिकों का अपना एक पृथक संगठन होना चाहिए । उन्होंने किसान सभाओं में गरीब किसानों के संगठन बनाये जाने पर विशेष जोर दिया । साम्यवादियों ने अनुभव किया कि शोषित और वास्तव में अभावग्रस्त गरीब किसान अपने स्वामियों से इतने दबे हुए हैं कि वे एक स्वतन्त्र शक्ति के रूप में नहीं उभर सकते हैं ।

अत: साम्यवादी दलों ने भी किसानों के स्वयं के द्वारा आन्दोलन चलाये जाने के बजाय किसानों से सम्बन्धित सरकारी नीति को प्रभावित करने का प्रयत्न किया । साम्यवादियों के प्रयासों से स्थानीय स्तर पर किसानों व कृषि-श्रमिकों के अपने स्वामियों के साथ काफी संघर्ष हुए ।

द्वितीय महायुद्ध के पश्चात्:

युद्ध की समाप्ति के पश्चात् दो प्रमुख कृषक आन्दोलन हुए जिनका नेतृत्व साम्यवादियों ने किया । इन दोनों ही आन्दोलनों में गरीब किसानों व कृषि-श्रमिकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ।

(I) प्रथम आन्दोलन:

यह तिभागा आन्दोलन के नाम से जाना जाता है । यह उस क्षेत्र में हुआ जो आजकल पाकिस्तान में है । तिभागा का तात्पर्य भूस्वामियों को फसल का आधा भाग देने के बजाय घटा कर एक-तिहाई भाग देने से है । भूस्वामियों या जोतदारों की जमीन को बटाईदारी में खेती करने वाले छोटे किसान जोतते थे ।

बटाईदारी में खेती करने वाले और कृषि-श्रमिकों की आर्थिक दशा अत्यन्त दयनीय थी । इनमें दृढ़ता एवं एकता के भाव जाग्रत हुए । सन् 1945 के आसपास तिभागा आन्दोलन कुछ जोर पकड़ रहा था । स्थानीय साम्यवादी तथा किसान सभा के लोगों ने इस आन्दोलन में भाग लिया । वास्तव में यह आन्दोलन 1946 के पहले प्रारम्भ नहीं हुआ ।

समय-समय पर पड़ने वाले अकालों में विद्यार्थियों ने सेवा कार्य किया । इसके परिणामस्वरूप छोटे किसान और कृषक-श्रमिक इनके सम्पर्क में आये । इस सम्पर्क ने भी आन्दोलन को तीव्रता प्रदान करने में योग दिया । अकाल के परिणामस्वरूप लाखों कृषि श्रमिकों की मृत्यु हो चुकी थी और बहुत से कृषि श्रमिक और छोटे किसान काम की तलाश में नगरों को जा चुके थे ।

इनमें से थोड़े बहुत जो गांवों में बच गये थे उनकी शक्ति में वृद्धि हुई तथा उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार हुआ । सन् 1947 की गर्मियों में यह आन्दोलन समाप्त हो गया । इस आन्दोलन के नेता भोवानी सैन ने किसानों को कहा कि अब उन्हें इस आन्दोलन को चलाने की दृष्टि से कोई प्रत्यक्ष क्रिया इस वर्ष नहीं करनी चाहिए क्योंकि हाल ही में स्वतन्त्र हुए देश की नवीन सरकार को शासन चलाने का समुचित अवसर दिया जाना चाहिए ।

उनकी इस बात को ध्यान में रखते हुए इस सबसे बड़े जन-आन्दोलन को समाप्त कर दिया गया । यह आन्दोलन इसलिए असफल रहा क्योंकि इसे मध्यम वर्ग और श्रमिक वर्ग का सही अर्थों में समर्थन नहीं मिला ।

(II) द्वितीय आन्दोलन:

इस समय चलने वाला दूसरा प्रमुख आन्दोलन तेलंगाना आन्दोलन था । राजनीतिक उद्देश्यों की दृष्टि से यह एक क्रान्तिकारी कृषक आन्दोलन था । यह आन्दोलन सन् 1946 में हैदराबाद के नालगोण्डा जिले में प्रारम्भ हुआ । इसके पश्चात् यह आन्दोलन वारंगल तथा बीदर जिलों में भी फैल गया । इस समय हैदराबाद राज्य पर पिछड़े हुए और आततायी लोगों का शासन था ।

यह तेलंगाना आन्दोलन सम्पूर्ण कृषक समाज की मांगों के समर्थन में था जिसे नवाब तथा उसके लोगों ने दबा रखा था । इस आन्दोलन का एक प्रमुख नारा यह था कि किसानों व कृषि श्रमिकों के कर्जों को पूर्णतया माफ किया जाये । जागीरदारों, जमींदारों, नवाबों और उनकी सरकारों का कृषक समाज के लोगों ने दृढ़ता से मुकाबला किया और उनके विरुद्ध हथियार भी उठाये ।

स्थानीय साम्यवादियों ने भी इस आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया । सन् 1947 में तेलंगाना आन्दोलन के पास करीब पांच हजार लोगों की गुरिल्ला सेना थी । किसानों ने भूस्वामियों को या तो मार दिया या भूमि से खदेड़ दिया तथा उनकी जमीन छीन कर गरीबों में बांट दी । उन्होंने स्थान-स्थान पर कृषकों की सरकारों की स्थापना की और उन सबका एक समन्वित संगठन बनाया ।

करीब डेढ़ लाख वर्ग मील जमीन पर रहने वाले 40 लाख लोगों पर कृषक राज्य की स्थापना की गयी । कृषकों का यह आन्दोलन और उनकी सरकार 1950 तक चली । इस प्रकार छोटे किसानों और कृषि श्रमिकों का यह क्रान्तिकारी आन्दोलन देश के विभिन्न भागों में सफल नहीं हो सका ।

यद्यपि स्वतन्त्र भारत में सरकार के द्वारा भी छोटे किसानों और कृषि श्रमिकों की दशा को सुधारने के काफी प्रयास किये गये फिर भी उन प्रयासों से उनकी स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुए । इसका मूल कारण यह है कि जो लोग सत्ता में हैं उनमें से अधिकांश के पास राजनीतिक शक्ति के साथ-साथ आर्थिक शक्ति भी है, उनमें से कई भूस्वामी भी हैं और बहुत से भूस्वामियों से निकट रूप से सम्बन्धित हैं ।

ऐसी स्थिति में किसानों और कृषि श्रमिकों की दशा को सुधारने में वे कोई अहम भूमिका नहीं निभा सकते । निहित स्वार्थ उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं । वर्तमान सन्दर्भ में आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति अपने शुद्ध स्वार्थों से ऊपर उठकर छोटे किसानों सीमान्त किसानों तथा कृषि श्रमिकों के लिए सही दृष्टिकोण अपनाते हुए काम करें ।

कृषि श्रमिकों की समस्या का मूल कारण उनका असंगठित होना है । सरकार द्वारा 20 सूत्री कार्यक्रमों के अन्तर्गत किसानों के लिए न्यूनतम कृषि मजदूरी अथवा फसल में जमींदार के अधिकतम हिस्से की सीमा निर्धारित करके या भूमिहीनों को भूमि का वितरण करने के नियम बनाकर विधान सभाएँ और संसद कृषि-श्रमिकों एवं किसानों के प्रति अपनी उदारता का परिचय देती हैं ।

किन्तु उन्हें सच्चे अर्थों में कभी लागू नहीं किया जाता । मिर्डल कहते हैं कि- “सारी राजनीतिक, कानूनी और प्रशासकीय प्रणाली गरीब लोगों के व्यापक जनसमुदाय के विरुद्ध इस प्रकार खड़ी दिखायी देती है कि ऐसे कानूनों को व्यावहारिक रूप से लागू ही नहीं कर सकते ।”

कृषक आन्दोलन एवं सामाजिक परिवर्तन:

कृषिक आन्दोलनों के फलस्वरूप कृषकों, श्रमिकों एवं भूस्वामियों के सामाजिक जीवन में अनेक परिवर्तन हुए ।

(1) चेतना:

सबसे पहला परिवर्तन तो इन लोगों में यह आया कि इनमें अपने अधिकारों के प्रति चेतना जाग्रत हुई । जहाँ सदियों से ये लोग अपनी गिरी हुई स्थिति के लिए अपने भाग्य या कर्म को कोसते रहे, वहाँ अब वे यह समझने लगे की इस स्थिति के लिए समाज व्यवस्था, जागीरदार जमींदार, सेठ-साहूकार आदि उत्तरदायी हैं ।

(2) संगठन:

इस चेतना के परिणामस्वरूप कृषि श्रमिकों सीमान्त किसानों छोटे भूस्वामियों आदि के अपने-अपने संगठन बनने लगे । इन संगठनों में नगरों में काम करने वाले राजनीति में सक्रिय लोग तथा राजनीतिक दल भी काम करने लगे ।

धीरे-धीरे ये संगठन दबाव-समूहों के रूप में अपनी भूमिका निभाने लगे । इन्होंने समय-समय पर अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन किये और परिणामस्वरूप सरकारों को भी इनके हितों की तरफ ध्यान देने के लिए बाध्य होना पड़ा ।

(3) कृषि अधिनियम:

सरकार ने कृषकों के हितों के रक्षण के लिए अनेक अधिनियम बनाये । प्रारम्भ में इन अधिनियमों का कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा । जब कृषक आन्दोलनों में और तीव्रता आती गयी और सदस्यों में वर्ग चेतना जाग्रत होने लगी तो ऐसी स्थिति में सरकार ने कुछ कारगर कदम उठाने का निश्चय किया । अलग-अलग राज्यों में भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारित की गई ।

सीलिंग एक्ट के परिणामस्वरूप सरकार ने एक निर्धारित सीमा से अधिक भूमि को भूस्वामियों से छीन लिया तथा उसका वितरण भूमिहीनों एवं छोटे किसानों में कर दिया । इसके फलस्वरूप अनेक अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को भी पहली बार भूस्वामी की स्थिति प्राप्त करने का अवसर मिला । यह सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था । क्योंकि अब सामाजिक संरचना में उनकी स्थिति पहले की तुलना में कुछ ऊपर उठी ।

(4) विभिन्न कार्यक्रम:

सरकार ने ग्रामों के सर्वागीण विकास की ओर विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से ध्यान दिया, जैसे सामुदायिक विकास कार्यक्रम, बीस-सूत्री कार्यक्रम, समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, पंचायती राज एवं लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण तथा जवाहर रोजगार कार्यक्रम आदि ।

यद्यपि इन विकास कार्यक्रमों का लाभ अधिकांशतः बड़े भूस्वामियों को मिला है लेकिन इन लाभों से निम्न वर्ग के लोग जैसे भूमिहीन श्रमिक, सीमान्त किसान, बटाईदारी में खेती करने वाले पूर्णत: अप्रभावित नहीं रहे ।

(5) असंतोष:

परन्तु भूमि पर जनसंख्या का दबाव निरन्तर बढ़ता जा रहा था तथा उत्तराधिकार सम्बन्धी नियमों के परिणामस्वरूप भूमि का विभाजन और अपखण्डन होता रहा था । परिणामस्वरूप खेत अनार्थिक होते जा रहे थे । इसके अतिरिक्त सिंचाई के अपर्याप्त साधनों एवं वर्षा की कमी के कारण समय-समय पर अकाल भी पड़ते रहे ।

छोटे किसानों को बाध्य होकर अपनी जमीनें सेठ-साहूकारों के यहाँ गिरवीं भी रखनी पड़ी और ब्याज के भार के बढ़ जाने से उन जमीनों के मालिक वे ही बन गये और कृषक पुन: मजदूरों की श्रेणी में आ गये । यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रही और कृषि क्षेत्र में असन्तोष बढ़ता गया ।

स्वतन्त्र भारत में लोगों की आकांक्षाओं का स्तर अनेक कारणों से काफी ऊँचा हो गया था किन्तु समाज व्यवस्था ने उन आकांक्षाओं की पूर्ति का लोगों को समुचित अवसर नहीं दिया । परिणामस्वरूप यदा कदा कृषकों के क्रान्तिकारी आन्दोलन भी होने लगे, रक्तपात और हिंसा का सहारा भी लिया गया । इसके अलावा ग्रामीणों में साक्षरता बढ़ती जा रही है ।

(6) वोट की राजनीति:

देश की प्रजातन्त्रीय प्रणाली ने लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सजग बनाया । कृषक लोग भी वोट की राजनीति को समझने लगे । अब धीरे-धीरे शक्ति संरचना में परिवर्तन आने लगा । आरक्षण के परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों को पंचायतों ग्राम पंचायतों जिला परिषदों, विधान मण्डलों एवं लोक सभा तक में पहुँचने का अवसर मिला ।

(7) कृषक आन्दोलन:

इसके परिणामस्वरूप इन जातियों के भूमिहीन श्रमिक या छोटे किसान आन्दोलन व क्रान्ति के लिए उतावले होने लगे । फलस्वरूप देश के विभिन्न भागों में अनेक कृषक आन्दोलन हुए । इन आन्दोलनों के कारण कई लोगों को भूस्वामित्व के अधिकार प्राप्त हुए हैं । बटाईदारी में खेती करने वाले लोगों की स्थिति में सुधार हुआ है । कृषि को उद्योग का दर्जा देने की दृष्टि से सरकार सोच रही है ये सभी परिवर्तन मूलत: कृषक आन्दोलनों का ही परिणाम है ।

(8) सामाजिक स्तरीकरण में परिवर्तन:

इन आन्दोलनों के परिणामस्वरूप एक ओर गांवों की वर्ग संरचना में परिवर्तन आया है तो दूसरी ओर प्रदत्त के स्थान पर अर्जित प्रस्थिति का महत्व बढ़ा है । साथ ही यद्यपि व्यक्ति की जाति तो नहीं बदली है किन्तु जाति सम्बन्धी नियमों में शिथिलता आयी है । आज निम्न जातियों के लोग भी अपने पद के कारण समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगे हैं । ये सभी परिवर्तन स्वत: ही नहीं हुए है वरन् कृषकों के आन्दोलनों के दबाव के फलस्वरूप भी हुए हैं ।

 

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