स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में महिलाओं की भूमिका ( Role of Women in India’s Struggle for Freedom)

भारत संबंधी उपनिवेशवादी संवाद (discourse) बहुत पहले से ही लैंगिक रंग में रँगे हुए रहे, क्योंकि उपनिवेशी समाज को स्त्री-समान बतलाया गया और ”उपनिवेशक के पुरुषत्व” के मुकाबले भारतीय समाज के ”स्त्रैण” चरित्र को उसकी स्वाधीनता की समाप्ति के लिए जिम्मेवार ठहराया गया ।

इन संवादों में ”स्त्री-प्रश्न” प्रमुखता से उठाए गए जैसा कि जेम्स मिल जैसे पश्चिमी प्रेक्षकों ने ”भारत की एक सभ्यता-केंद्रित समालोचना” प्रस्तुत करने के क्रम में किया है जिसमें, ”स्त्रियों की पतित दशा को सभ्यताओं के श्रेष्ठता-क्रम में भारत की हीन स्थिति का सूचक” माना गया है ।

इसलिए आश्चर्य नहीं कि स्त्रियों की स्थिति उन्नीसवीं सदी के आधुनिकता-समर्थक भारतीय बुद्धिजीवियों के सुधार के एजेंडे का प्रमुख बिंदु बन गया । पश्चिम की निंदामूलक समालोचना के जवाब में उन्होंने एक स्वर्णिम अतीत की कल्पना की, जिसमें स्त्रियों को आदर और सम्मान दिया जाता था; उन्होंने उन प्रथाओं में सुधार का आग्रह किया, जिनको वे विकृतियाँ या भटकाव मानते थे ।

इस तरह कन्या शिशु की हत्या पर प्रतिबंध लगाया गया सती का उन्मूलन किया गया और विधवाओं के पुनर्विवाह को कानूनी बनाया गया । इन सभी उदाहरणों में शास्त्रों का नाम लेकर सुधारों को वैध ठहराया गया और सुधार आंदोलनों में स्त्रियों को कभी शामिल नहीं किया गया ।

यह कहना भ्रामक होगा कि ये पुरुष सुधारक स्त्री-जाति के प्रति सहानुभूति या करुणा से वंचित थे । पर वे उनको अपने आधुनिकीकरण के कार्यक्रम का विषय समझते थे और उन्हें अपने बराबर की, चेतना-संपन्न प्राणी नहीं समझते थे जो अपनी स्वयं की मुक्ति के साधन बन सकें ।

इस सुधारवाद पर उस समय हिंदुओं की उग्र प्रतिक्रिया सामने आई, जब 1891 में विवाह-आयु संबंधी विधेयक (एज ऑफ कंसेंट बिल) ने लड़कियों के लिए विवाह परिणति (consummation) की आयु को 10 से बढ़ाकर 12 साल करने की कोशिश की ।

पत्नी पर उसके पति के दांपत्य-अधिकारों पर सीमा लगाने का प्रयास करके इस प्रस्तावित सुधार ने उस क्षेत्र का अतिक्रमण किया, जिसे अभी तक ”देशी पुरुषत्व” के लिए अकेला शेष बचा स्वायत्त क्षेत्र माना जा रहा था । इसलिए बालिका वधू हिंदू गरिमा का प्रतीक बन गई; उस पर नियंत्रण रखना देशी पुरुष का ऐसा विशेषाधिकार था जिससे छेड़-छाड़ की अनुमति एक विजातीय (विदेशी) राजसत्ता को नहीं दी जा सकती

थी ।

इस तरह उन्नीसवीं सदी का समापन आधुनिकीकरण की इस योजना की जगह स्त्रियों के संसार पर पुरुषों के नियंत्रण के बारे में एक रूढ़िवादी हिंदू घोषणा के साथ हुआ; यह दावा अब राष्ट्रवाद के एजेंडे का एक बुनियादी अग बनाया गया । इस स्वदेशवादी (indigenist) तर्क का समर्थन कर सकना कठिन है कि उपनिवेश-पूर्व भारत में स्त्रियों की दशा बेहतर थी ।

वास्तव में प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति कभी भी जड़ या एकरस नहीं रही: रोमिला थापर के शब्दों में, ”पर्याप्त अधिकार और स्वतंत्रता की स्थिति से लेकर उतनी ही अधिक अधीनता की स्थिति” तक उसमें व्यापक परिवर्तन आते रहे । कृषक समाजों के विकास और राज्यों के जन्म के साथ उनकी हालत में निर्णायक गिरावट आने लगी ।

हिंदू समाज में जाति-सोपान नाम का केंद्रीय संगठनकारी सिद्धांत पुरुष प्रधानता की विचारधारा से अभिन्न रूप से जुड़ गया; शूद्रों और स्त्रियों दोनों को वैदिक अनुष्ठानों से वंचित कर दिया गया । सार्वजनिक जीवन जब पुरुषों का कर्मक्षेत्र बन गया तो स्त्रियाँ घरों तक सीमित होकर रह गईं ।

प्राचीन हिंदू विधिनिर्माता मनु ने स्त्रियों के लिए स्थायी निर्भरता की स्थिति का विधान किया कि वह जीवन के विभिन्न चरणों में अपने पिता, पति और पुत्र से संरक्षण पाती है । और भी निकट के उपनिवेश-पूर्व काल तक आएँ तो अठारहवीं सदी का एक ग्रंथ यह संकेत देता है कि स्त्रियों को अच्छी पत्नियाँ बनने के लिए, अपने पतियों की सेवा अपने सबसे बड़े देवता के रूप में करने के लिए तैयार किया जाता है और उनसे संतान उत्पन्न करने की अपेक्षा की जाती है ।

अगर वे विधवा हो जाएँ, तो उनको चाहिए कि शेष जीवन अपने मृत पति की यादों के सहारे कठोर अनुशासन और सादगी के साथ व्यतीत करें । लेकिन अगर यह जीवन का एक सच था, तो दूसरी ओर यह बात भी सच थी कि स्त्रियों का अलगाव कोई निरपवाद सार्वभौम प्रथा न था, क्योंकि अठारहवीं सदी में कुछ क्षेत्रों में धनी और निर्धन दोनों वर्गों की स्त्रियों की अत्यधिक सार्वजनिक सक्रियता के प्रमाण भी मिलते हैं ।

मुगल साम्राज्य के उत्तराधिकारी राज्यों के शाही दरबार महत्त्वाकांक्षी और शक्तिशाली स्त्रियों के लिए कोई अजनबी स्थान न थे और उनमें से कुछ ने तो पर्याप्त राजनीतिक प्रभाव छोड़ा । एकांतक स्त्रीत्व का आदर्श केवल उन्नीसवीं सदी में ही सार्वभौम बना  ।  स्त्रियों पर ऐसे ही प्रतिबंध मुस्लिम समाज ने भी लगाए ।

उन्नीसवीं सदी में भारतीय मुसलमानों में दो सुधार आंदोलन चले: एक तो इस्लामी पुनरुत्थानवाद का आंदोलन था जिसका नेतृत्व उल्मा कर रहे थे और दूसरा था एक आधुनिकीकरण का अभियान जिसका नेतृत्व शिक्षित मध्यमवर्ग कर रहा था ।

जैसा कि अजरा असगर अली का तर्क है इन दोनों आंदोलनों ने ”लगभग एक निजी व्यवस्था के रूप में शरीफ संस्कृति का निर्माण किया, ” जिसमें पूरे मुस्लिम समाज की ”प्रगति” के सूचक के रूप में स्त्रियों की स्थिति केंद्रीय तत्त्व थी ।

इसलिए आश्चर्य नहीं कि बंगाल के शरीफ मुसलमान अपनी स्त्रियों द्वारा पर्दे के नियमों के अतिक्रमण की बात सोचकर ही काँप उठते थे । (पर्दा एक फारसी शब्द है जिसका अर्थ छिपाव है ।) हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मो की स्त्रियों के लिए पर्दे के इस रूपक का अर्थ केवल बुरक या जनानखाना की दीवारो के पीछे का भौतिक अलगाव ही नहीं था ।

एक विद्वान के अनुसार इसका अर्थ ”ऐसी जटिल सामाजिक व्यवस्थाओं की बहुलता” है, जो (तब) ”लिंगों ( स्त्री-पुरुषों) के बीच केवल भौतिक ही नहीं सामाजिक दूरी भी बनाए रखती ।” इससे ”जुड़ी होती हैं एक सर्व-समावेशी विचारधारा और स्त्री की निर्बलता पर आधारित एक आचार-संहिता जो (तब) स्त्रियों के जीवन का, वे कहीं भी जाएँ, निर्धारण करती ।”

दूसरे शब्दों, में वे जब अपने घरों से निकलती भी थीं जैसा कि उन्नीसवीं सदी के मध्य के बाद उन्होंने अधिकाधिक किया, तो उनके चाल-चलन का इन्हीं नैतिक नियमों के अधीन होना आवश्यक था । उन्नीसवीं सदी तक हिंदू और मुस्लिम स्त्री, दोनों के लिए तथा कुलीन (शरीफ़, बहुवचन: अशराफ़) और साधारण जन (अजलाफ़) दोनों के लिए पर्दे का आदर्श सार्वभौम बन चुका था , हालांकि विभिन्न समूहों के लिए उसके व्यावहारिक निहितार्थ अलग-अलग थे ।

उन्नीसवीं सदी में जब स्त्री-प्रश्न प्रगति और आधुनिकता-विषयक संवादों का अंग बन गया, तो उपनिवेशित पुरुषों की ”नई स्त्री” के लिए तलाश के अंग रूप में स्त्री-शिक्षा का एक आंदोलन शुरू हुआ । जैसा कि गेराल्डाइन फोर्ब्स का वर्गीकरण कहता है, तीन समूह शिक्षा के प्रसार के निमित्त बने: ”अंग्रेज शासक, भारतीय पुरुष सुधारक और शिक्षित भारतीय स्त्रियाँ ।

कलकत्ता में पहल राधाकांत देव जैसे व्यक्तियों और स्कूल बुक सोसायटी ने और आगे चलकर केशवचंद्र सेन और ब्रह्मसमाज ने; पश्चिम भारत में महादेव गोविंद रानाडे और प्रार्थना समाज ने; उत्तर भारत में स्वामी दयानंद और आर्यसमाज ने तथा मद्रास में एनी बेसेंट और थियोसोफिकल सोसायटी ने की ।

रहा सवाल शिक्षित भारतीय स्त्रियों का तो हम पश्चिम भारत में पंडिता रमाबाई, मद्रास में सिस्टर सुब्बालक्ष्मी तथा बंगाल की मुस्लिम स्त्रियों में बेगम रुकैया सखावत हुसैन के प्रयासों का उल्लेख कर सकते हैं । जहाँ तक देश के दूसरे भागों में मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा का प्रश्न है, तो हैदराबाद के बिलग्रामी या बंबई के तैयबजी परिवार ने, लाहौर के मियाँ परिवार ने, अंजुमने- हिमायते-इस्लाम और अंजुमने-इस्लाम जैसे संगठनों ने या हैदराबाद में निजाम की सरकार ने महत्त्वपूर्ण पहलें कीं ।

लॉर्ड डलहौजी के प्रशासन (1848-56) के बाद उपनिवेशी सरकार ने स्त्री-शिक्षा में खास दिलचस्पी  ली । गवर्नर जनरल की काउंसिल के विधि सदस्य जे. ई. ड्रिंकवॉटर बेथ्यून ने 1849 में वह स्कूल खोला, जो आखिरकार कलकत्ता का सबसे प्रसिद्ध बालिका विद्यालय बन गया ।

तब से लेकर 1882 तक हंटर आयोग के गठन तक भारतीय शिक्षा की प्रगति बहुत मामूली रही क्योंकि विद्यालयगामी आयु की 98 प्रतिशत लड़कियाँ अशिक्षित रहीं । इसलिए इस आयोग ने स्त्री-शिक्षा के लिए उदारता से सहायता-अनुदान और विशेष छात्रवृत्तियाँ दिए जाने की सिफारिश की । अगले दो दशकों में विश्वविद्यालयों में और माध्यमिक स्कूलों में भी लड़कियों के नामांकन में सार्थक सुधार आए हालांकि देश की कुल स्त्री जनसंख्या के अनुपात में ये संख्या अभी भी बहुत मामूली थीं ।

प्रगति की गति चाहे जितनी कम रही हो, तथ्य यह है कि सदी के परिवर्तन तक मध्यवर्गीय भारतीय घरानों की अनेक स्त्रियाँ औपचारिक या अनौपचारिक ढंग से शिक्षित हो चुकी थी । पर इससे उनके सामाजिक अस्तित्व की दशाओं में कोई बहुत उल्लेखनीय सुधार नहीं आया ।

इस पहेली का जवाब हम शिक्षा के आंदोलन की प्रेरणाओं पर नजर दौड़ाकर पा सकते हैं; स्त्रियों की मुक्ति कभी इस शिक्षा का उद्देश्य नहीं रही । उपनिवेशी सरकार इसलिए स्त्री-शिक्षा के पक्ष में थी, क्योंकि वह चाहती थी कि भारतीय असैनिक कर्मचारियों की पत्नियाँ शिक्षित हों, ताकि उनको एक खंडित परिवार का मनोवैज्ञानिक आघात न झेलना पड़े ।

इसके अलावा अंग्रेजी पढ़ी-लिखी माताओं से वफादार प्रजा पैदा करने की अपेक्षा की जाती थी । दूसरी ओर, भारत के मध्यवर्गीय पुरुष विक्टोरियाई आदर्शवाली सहचरी के सपने देखते थे । बंगाल में शिक्षित भद्रमहिला प्रबुद्ध हिंदू भद्रलोक पुरुष की आदर्श सहचरी समझी जाती थी ।

स्त्रीत्व की यह नई धारणा आत्मविसर्जन करनेवाली हिंदू पत्नी और विक्टोरियाई सहायिका का एक सुंदर समन्वय थी । इस तरह मुक्तिदायी बनना तो दूर, शिक्षा ने स्त्रियों को सुपत्नी और सुमाता की आदर्शमंडित घरेलू भूमिकाओं में सीमाबद्ध कर दिया ।

अगर गंवार और अनपढ़ स्त्रियों को प्रगति और आधुनिकीकरण में बाधक या परिवार संतान समुदाय और राष्ट्र के कल्याण के लिए  बुरा माना जाता था तो घरेलू कामकाज की उपेक्षा करनेवाली ”गलत शिक्षा-प्राप्त या अति-शिक्षाप्राप्त” स्त्रियों को, या और भी सटीक कहें तो पश्चिमी रंग में रँगी स्त्रियों को वांछित नैतिक व्यवस्था के लिए खतरा समझा जाता था ।

और कुछेक अंतर भले ही रहे हों, मुस्लिम भद्रमहिला और उसकी समकक्ष हिंदू भद्रमहिला के बीच कुछ विशेषताएँ साझी थीं । जैसा कि गेल मिनॉल्ट का तर्क है, मुस्लिम स्त्रियों के शिक्षकों का उद्देश्य उनको ”बेहतर पत्नियाँ, बेहतर माताएँ और बेहतर मुसलमान” बनाना था । ऐसी रूढ़ सार्वजनिक छवियों के निर्माण के विरुद्ध भारतीय स्त्रियों के बीच से विरोध की आवाजें कभी-कभार ही उठीं पर वे एक सिरे से गायब नहीं थीं ।

1882 में बरार की मराठी स्त्री ताराबाई शिंदे ने ए कम्पेरिजन बिट्‌वीन  वुमेन एंड मैन (A Comparison Between Women and Men) शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित कराई । इसमें उन्होने इस बात का विरोध किया कि एक नए उपनिवेशी समाज में पुरुषों को सारे अधिकार अवसर और परिवर्तन के लाभ प्राप्य थे, पर स्त्रियों को सभी बुराइयों के लिए दोषी ठहराया जाता था और वे अभी भी पातिव्रत्य के पुराने आदेशों से बंधी हुई थीं ।

लेकिन ताराबाई भी कोई विद्रोहिणी नहीं थीं; उन्होंने भारतीय स्त्रियों के लिए कोई दावा किया तो एक सुखी परिवार में और अधिक सम्मान व आदर का, तथा उस प्रबोध का जिसका उपनिवेशी राजसत्ता ने कथित रूप से वादा किया था । पर दूसरी विद्रोहिणी स्त्रियाँ भी थीं जैसे, पंडिता रमाबाई जिन्होंने शिक्षित मगर आज्ञाकारिणी पत्नी की नई आदर्श भूमिका को और भी प्रत्यक्ष ढंग से चुनौती दी ।

वे एक ब्राह्मण कन्या थीं जो लंबे समय तक अविवाहित रहीं, वे प्राचीन शास्त्रों में पारंगत थी अनुलाम विवाह संबंधी नियमों का उल्लंघन करके उन्होंने एक शूद्र पुरुष से विवाह किया, फिर विधवा हुई जिसकी एक छोटी-सी बेटी थी उन्होंने सार्वजनिक जीवन का त्याग करने से इनकार कर दिया आयुर्विज्ञान पढ़ने के लिए इंग्लैंड गई, वहाँ वे ईसाई बन गईं, अमेरिका गई और उन्होंने बंबई में एक विधवा सदन के लिए धन जमा किया, जिसे बाद में पूना स्थानांतरित कर दिया गया ।

जब उन्होंने अपने स्वतंत्र चुनाव का दावा किया और उन सीमाओं को लाँघा, जो भारत के पुरुष-प्रधान समाज ने स्त्रियों की स्वतंत्रता पर लगा रखी थीं, तो रूढ़िवादियों ने जितनी उनकी निंदा की, सुधारकों ने भी उनकी उतनी ही आलोचना की, क्योंकि दोनों उनको समाज के लिए एक खतरा समझते थे ।

लेकिन शिंदे और रमाबाई अपवाद ही थीं; अधिकांश शिक्षित स्त्रियाँ अपनी सीमाओं को अच्छी तरह जानती और उनका ध्यान रखती थीं । कारण कि अगर विक्टोरियाई इंग्लैंड की मध्यवर्गीय लैंगिक विचारधारा से जुड़े देशी कुलीन पुरुषवर्ग स्त्रियों के कर्मक्षेत्र को सीमाबद्ध कर रहे थे, तो उपनिवेशी राजसत्ता भी स्त्रियों को घरेलू संसार तक सीमित रखना चाहती थी ।

इसका कारण था कि वे तभी जाकर अपने आप के लिए भी सुरक्षित होतीं और राजसत्ता के लिए भी । अदालतों ने जिन परंपरागत हिंदू और मुस्लिम विधानों को मान्यता दी थी और राज्य ने जो नए कानून जारी किए थे, दोनों ही पितृसत्तावादी परिवार के अधिकारों को मान्यता देते थे और स्त्रियों के लिए चयन की स्वतंत्रता को सीमित करते थे ।

जैसा कि रोज़ालिंड ओ’ हैनलन का तर्क है, उपनिवेशी राजसत्ता और राष्ट्रवादी कुलीन पुरुषों के बीच ”एक व्यापक आधार वाली सहमति” इसी क्षेत्र में बनी । भारतीय स्त्रीत्व के इस ‘घरेलूपन’ के इस महिमा-गान ने किसान परिवारों की स्त्रियों तथा शहरी- औद्योगिक परिवेशों में निम्नवर्गीय स्त्रियों की दशा को भी प्रभावित किया ।

अकसर ऐसा माना जाता है कि निचले वर्गों की श्रम करने वाली स्त्रियों की स्वतंत्रता पर कम अंकुश लगे होते हैं । लेकिन उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो से यह स्वतंत्रता ”संस्कृतीकरण” के प्रभाव के अंतर्गत कम होने लगी, जब निचली जातियों ने स्त्री-पुरुष संबंधों के ‘सम्मानजनक’ मानदंडों को अपनाना शुरू कर दिया ।

स्त्रियों की शुद्धता किसी जाति की स्थिति का एक सूचक बन गई; इसलिए स्त्रियों का पर्दा हमेशा एक व्यावहारिक लक्ष्य भले न रहा हो, एक अनुकरणीय आदर्श बन गया । उदाहरण के लिए, निचली और मझोली जातियों की अधिकाधिक संख्या अपनी स्त्रियों पर संन्यासिन समान वैधव्य लादने लगी, क्योंकि यह बात बंगाल और महाराष्ट्र दोनों में ऊँची स्थिति का प्रतीक बल्कि सामाजिक गतिशीलता का साधन बन गई ।

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों के अनेक किसान आंदोलनों में स्त्रियों की ”अनुपस्थिति स्पष्ट नजर आती रही ।” सांस्कृतिक क्षेत्र में सतीत्व और सुधारमय स्त्रीत्व के आदर्श ने स्त्रियों की लोक-संस्कृति के उन देसी रूपों को-उनके गीतों, प्रहसनों और नाटक-अभिनय को-धीरे-धीरे हाशिये पर डाल दिया और फिर निकाल बाहर किया, जो उनको स्वायतत्ता का एक क्षेत्र प्रदान करते थे ।

देर से ही सही, निचले वर्ग की स्त्रियों को भी ”एक परिवर्तित सामाजिक जगत के तर्कशास्त्र को समझना” और ऊपर से लादे गए आदर्श को अपनाना पड़ा । जहाँ तक स्त्रियों के काम का प्रश्न है तो हालाँकि वे खेतिहर कार्यकलापों  में भाग लेती थी फिर भी उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों से ही सामाजिक स्तर पर गतिशील अधिकाधिक किसान परिवार अपनी स्त्रियों को घरेलू कामों तक सीमित करने लगे ।

जब उनको पत्नियों और माताओं के रूप में महिमांमडित किया गया तो उनकी घरेलू जिम्मेदारियों को पवित्र कार्य माना जाने लगा, और इस तरह आर्थिक महत्त्व से रहित कर दिया गया । जो स्त्रियाँ विभिन्न दस्तकारियों में लगी हुई थी, उनमें से भी अनेक स्त्रियाँ बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों से मशीनीकरण के आरंभ के साथ अपने रोजगार से वंचित होने लगीं ।

उदाहरण के लिए, बंगाल  में धान से भूसी अलग करनेवाली अनेक स्त्रियाँ धान-मिलों के आने पर बेरोजगार होने लगीं और यह काम मुख्यत पुरुष-प्रधान बन गया । पुरुष जब कारखानों के रोजगार की तलाश में शहरों की ओर बड़े तो अपने परिवार पीछे छोड़ गए ।

स्त्रियाँ अगर प्रवास करती थीं तो अकसर घोर गरीबी के कारण करती थी, जब ग्रामीण संसाधन उनको सहारा देने में असफल हो जाते थे । बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो  में सूती और जूट मिलों, चाय बागानों और कोयला खदानों में भारी संख्या में स्त्रियाँ कार्यरत थीं ।

लेकिन यहाँ भी घरेलूपन की प्रभुत्वशाली विचारधारा ने उनकी दशा को प्रभावित किया । उनकी संतानोत्पत्ति की भूमिका को उजरती मजदूरी (wage labour) से अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा । उनकी आय को परिवार की आय का ”पूरक” और इसलिए कम महत्वपूर्ण समझा जाता था ।

घरेलूपन के इस तर्क को राज्य और सुधारकों ने उजागर किया तथा बंबई के सूती मिलों और कलकत्ता के जूट मिलों के पूँजीपतियों ने कामगार स्त्रियों को कुशलताओं से और प्रतिबद्धता से रहित रूप में पेश करने के लिए इसका उपयोग किया ।

अब इन प्रस्तुतियों (constructs) का उपयोग स्त्रियों के कम वेतन का औचित्य पेश करने या युक्तीकरण के समय सबसे पहले उन्हीं की छँटनी करने के लिए किया जा सकता था । पूर्वी भारत के खदानों और बागानों में भी स्त्रियों को पुरुषों से कम मजदूरी दी जाती थी और हमेशा उन्हें पारिवारिक इकाइयों का भाग समझा जाता था ।

अधिकारों के इस हनन और इस असमानता का कामगार स्त्रियों ने जोरदार विरोध किया । लेकिन कोई बदलाव नहीं आया, क्योंकि ट्रेड यूनियनें भी उनके आर्थिक अधिकारों व स्वतंत्रता से अधिक महत्त्व उनके मातृत्व को देती थीं । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब आधुनिक राष्ट्रवाद का विकास हुआ तो इसने भी स्त्रियों का प्रश्न घरेलूपन की इन्हीं संकुचित सीमाओं के अंदर उठाया ।

सुधारवाद की जगह जब राष्ट्र की विभिन्न मूर्ति रूपी प्रस्तुतियों (iconic representations) ने ली, तो हिंदू स्त्री उस नैतिक व्यवस्था की आदर्श मूर्ति बन गई, जो भारत की आत्मा की प्रतीक थी और माना जाने लगा कि वह पश्चिम के प्रदूषक प्रभाव से मुक्त थी । पार्थ चटर्जी का तर्क है कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की राष्ट्रवादी प्रस्तुति ने उनको भौतिक/ आध्यात्मिक द्विभाजन के समकक्ष बना दिया ।

”संसार” अर्थात् सार्वजनिक क्षेत्र, जो खास तौर पर पुरुषों का क्षेत्र था, आधुनिकता ला रही उपनिवेशी राजसत्ता से टकराव और वार्ता का क्षेत्र था जबकि ”घर” प्रभुसत्ता का आंतरिक क्षेत्र था, जो उपनिवेशीकरण से परे था और जहाँ स्त्रियों को भारत की राष्ट्रीय पहचान के आध्यात्मिक तत्त्व की रक्षक और पोषक समझा जाता था ।

आधुनिकीकरण के इन लिंग-विशिष्ट मॉडलों में भिन्नता की इस राष्ट्रवादी प्रस्तुति ने सुधारवाद की पिछली दुविधाओं को दूर तो कर दिया पर स्त्री-प्रश्न का ”समाधान” नहीं किया जिसकी पार्थ चटर्जी को आशा      थी ।

उसने वास्तव में स्त्रियों के लिए विवाद और वार्ता के नए क्षेत्र पैदा किए क्योंकि उनमें से अनेकों ने निष्क्रियता की भूमिका को स्वीकार नहीं किया और वे बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक परियोजना द्वारा निर्धारित सीमाओं का खुलकर उल्लंघन किए बिना ही सही अपने एक स्वतंत्र कर्मक्षेत्र की रचना के लिए निमित्त बनने के दावे करने लगीं ।

बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो के राष्ट्रवादी संवाद में अगर स्त्रियों के मुद्दे नहीं उठे, तो कारण यही था कि मुक्ति के दूसरे सभी रूपों को राष्ट्रीय मुक्ति पर आधारित समझा जाता था । कांग्रेस ने स्त्री-प्रश्न को 1917 तक सीधे-सीधे नहीं उठाया-वैसे ही जैसे उसने छुआछूत के मुद्दे को नहीं छुआ-क्योंकि उसे स्वयं पर विश्वास नहीं था और वह एक नवजात राष्ट्र की नाजुक दशा के बारे में अति-संवेदनशील थी ।

लेकिन जब बंगाल में उसे गरमपंथ की शक्ति मिली, तो राष्ट्रवादियों ने वहाँ पहले से महत्त्व पा चुकी ”मातृत्व” की धारणा को देसी संस्कृति की विशिष्टता के एक शक्तिदायी और प्रामाणिक प्रतीक के रूप में अपना लिया ।

यूरोप की पितृभूमि की धारणा के विपरीत राष्ट्रवादियों ने देश की कल्पना ”मातृभूमि” के रूप में की; इसका आरंभ 1875 में हुआ, जब विख्यात बंगाली बुद्धिजीवी बंकिमचंद्र चटर्जी ने वंदे मातरम् गीत लिखा, जिसे बाद में उनके उपन्यास आनंदमठ (1882) में शामिल करके उसे एक संदर्भ दे दिया गया ।

इस उपन्यास में उन्होंने देवी माँ की तीन छवियाँ प्रस्तुत की हैं ”माँ जो वह थी” ”माँ जो वह है” और ”माँ जो वह बनेगी ।” ये तीन छवियाँ इस देवी के राष्ट्रवादी भक्तों की कल्पना और उनकी समर्पण-भावना को पंख लगाने के लिए पर्याप्त थीं और इन्होंने भारतीय राष्ट्रवादी संवाद में देवी-माँ के रूप को हमेशा के लिए अंकित कर दिया ।

इस गीत को सबसे पहले रवींद्रनाथ ठाकुर ने 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया था । कुछ साल बाद स्वदेशी आंदोलन के दौरान बंगाल के गरमपंथी नेता अरविंद घोष ने इस बिंब की शक्ति का एहसास किया जो देशप्रेम और राष्ट्रीय जागरण का जन्मदाता बन सकता था ।

उसके बाद तो विपिनचंद्र पाल से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक लगभग हर राष्ट्रवादी नेता ने देश और राष्ट्र के लिए मातृत्व के इस रूपक का प्रयोग किया । देवी माँ की आरंभिक राष्ट्रवादी प्रस्तुति में एक पालन-पोषण करनेवाली स्नेहमयी बंगाली माँ की सुपरिचित छवि को शक्ति की धारणा के साथ जोड़ दिया गया, जिसे हिंदू ब्रह्मांड-ज्ञान में असुरों का विनाश और मासूमों की रक्षा करनेवाली देवी, दुर्गा या काली के रूप में पेश किया जाता था ।

लेकिन इस हमलावर पहलू को धीरे-धीरे थोड़ा नरम बनाया गया और माता की कल्पना भारतीय अध्यात्मवाद के सांस्कृतिक उत्स के साकार रूप में की जाने लगी । राष्ट्रवादी चित्रकला में अवनींद्रनाथ ठाकुर का चित्र भारत माता (लगभग 1904-05 का) इस नई छवि का प्रतीक बन गया ।

यहाँ देवी-माँ अधिक सौम्य और शांत हैं तथा सुरक्षा और सुख समृद्धि देनेवाली हैं; यह ”ऐसी छवि (है) जो मानवीय और दैवी दोनों” है, जो परिचित भी है और पारलौकिक भी । मातृत्व का यह बिंब जुझारू राष्ट्रवाद की एक ”सांस्कृतिक प्रस्तुति में’ मात्र थी या माता और प्रकृति के समीकरण में सच्ची आस्था से पैदा हुई थी, यह बहस का विषय है ।

लेकिन अहम बात भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति के इस रूपक का निहितार्थ है । जसोधरा बागची का तर्क है कि मातृत्व की इस विचारधारा ने ”इसकी शक्ति और सामर्थ्य के बारे में एक मिथक गढ़कर” स्त्रियों से उनकी ”वास्तविक शक्ति” छीन ली उनको केवल संतानोत्पत्ति वाली भूमिका तक सीमित कर दिया और इस तरह उनको शिक्षा व व्यवसाय से या दूसरे शब्दों में उनको वास्तविक शक्ति पाने की सभी संभावनाओं से वंचित कर दिया ।

स्वदेशी आंदोलन में स्त्रियों की जो भी भागीदारी रही, वह वास्तव में इसी सुस्वीकृत लैंगिक विचारधारा के दायरे में रही, जो घर को स्त्रियों के कार्यकलाप के वैध क्षेत्र के रूप में पेश करती थी । उन्होंने ब्रिटिश मालों का बहिष्कार किया और स्वदेशी का उपयोग किया अपनी काँच की चूड़ियाँ तोड़ी और प्रतिरोध के अनुष्ठान के रूप में रसोईबंदी दिवस मनाए ।

दिलचस्प बात यह है कि उन दिनों बंगाल में स्त्रियों का समर्थन पाने के लिए जिस सबसे शक्तिशाली बिंब का उपयोग किया गया वह धन-दौलत की देवी लक्ष्मी का बिंब था जिसने कहा गया कि बंगाल-विभाजन के कारण अपना घर छोड दिया और जिसे वापस लाने सुरक्षा देने और देखभाल करने की जरूरत है व निश्चित ही कुछ उल्लेखनीय अपवाद भी थे जैसे सरला देवी चौधरानी थीं जिन्होंने बंगाली युवकों के एक अखाड़ा आंदोलन में भाग लिया या कुछ ऐसी स्त्रियाँ थीं जिन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लिया ।

लेकिन इस बाद वाली स्थिति में उनकी भूमिका मुख्यत: सहायक की या ”अप्रत्यक्ष” प्रकृति वाली थी, जैसे फरार क्रांतिकारियों को आश्रय देना या संदेश व हथियार लाने, ले जाने के काम करना । इस तरह उनकी भागीदारी की प्रकृति ने स्त्रियोचित व्यवहार के सुस्वीकृत मानदंडों को नहीं तोड़ा न उनके शक्तिमान बनने का संकेत दिया ।

पहले विश्वयुद्ध के बाद के काल में भारतीय राजनीति  में दो यशस्वी स्त्रियां का उदय हुआ । थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा और होमरूल लीग की संस्थापिका एनी बेंसेंट को 1917 में कांग्रेस की अध्यक्षा चुना गया ।

उसी साल इंग्लैंड में पड़ी कवयित्री सरोजिनी नायडू जो 1906 से ही कांग्रेस के अधिवेशनों में देशप्रेम भरे भाषण देती आ रही थीं, स्त्रियों के लिए मताधिकार की माँग करने के लिए लंदन में भारत सचिव मांटेग्यू के पास एक प्रतिनिधिमंडल लेकर गईं । अगले साल उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन में, स्त्री-पुरुष दोनों के लिए मताधिकार की समान पात्रता की माँग करते हुए एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया ।

1925 में उनको भी कांग्रेस की अध्यक्षा चुना गया । लेकिन ”प्रेरणादायी चरित्र” होने के बावजूद ये दोनों महिलाएँ न तो स्त्री-मुक्ति की एक विचारधारा विकसित कर सकीं और न ही राष्ट्रवादी राजनीति में उनको कोई स्थान दिला सकीं । इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों की भागीदारी की इस कथा में एक बड़ा मोड़ हम गांधी के आगमन के बाद ही देखते हैं ।

आदर्श भारतीय नारी की धारणा पेश करते हुए गांधी ने स्त्रियों की यौन-वृत्ति को नकारकर मातृत्व की बजाय बहनत्व (sister-hood) को ध्यान का केंद्र बनाया । स्त्रियाँ जो स्वार्थहीन बलिदान दे सकती थीं उसकी शक्ति का अनुभव उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में ही कर लिया था और उसे राष्ट्र की सेवा में लगाने का निर्णय किया था ।

लेकिन स्त्रियों के लिए उनका आह्वान रूपकों से भरी एक भाषा में था, जो स्त्रीत्व संबंधी परंपरागत जीवनमूल्यों के लिए विध्वंसक तो नहीं ही लगती थी । सीता, दमयंती और द्रौपदी उनकी राय में भारतीय स्त्रियों के लिए आदर्श पात्र थीं ।

भारतीय पुराण ग्रंथों से लिए जाने के बावजूद इन प्रतीकों की पुनर्रचना करके उनको नए अर्थ दिए गए । इन स्त्रियों को अपने-पतियों की दासियाँ न बतादार अत्यंत पुण्यात्माएँ और अपने परिवार, राज्य और समाज के लिए सर्वोच्च बलिदान दे सकने में समर्थ कहा गया ।

खास तौर पर महत्वपूर्ण था सीता का उदाहरण क्योंकि तब अंग्रेजों को आसानी के साथ असुर राज रावण का पर्याय बतलाया जा सकता था । लेकिन मुस्लिम स्त्रियों को संबोधित करते हुए गांधी सावधानी के साथ रामायण के ऐसे उल्लेख से बचते रहते थे और उनसे सिर्फ अपने देश और इस्लाम के लिए बलिदान देने का आग्रह करते थे ।

उन्होंने उस चीज को स्वीकार किया, जिसे वे स्त्री-पुरुष के बीच ”स्वाभाविक श्रम-विभाजन” कहते थे और समझते थे कि घर-बार देखना स्त्रियों का कर्तव्य है । लेकिन वे अपने लिए निर्दिष्ट क्षेत्रों से भी कताई करके, विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों पर धरने देकर और पुरुषों को शर्म दिलाकर कर्म के लिए तैयार करके राष्ट्र की सेवा कर सकती थीं ।

उनकी दृष्टि में स्त्री और पुरुष बराबर थे पर उनकी भूमिकाएँ अलग-अलग थीं और इस सिलसिले में गांधी, जैसा कि सुजाता पटेल का जोरदार तर्क है स्त्रीत्व की धारणा की भारतीय मध्यवर्गीय परंपरा के अंदर ही रहे ।

उन्होंने स्त्रियों की शारीरिक दुर्बलता को स्वीकार किया पर उनकी आत्मा की शक्ति का गुणगान करके उस दुर्बलता को शक्ति में बदल दिया । उन्होंने निजी और सार्वजनिक, दो ”अलग-अलग क्षेत्रों” के विचार को पलटने की कोशिश नहीं की, मगर घर में राजनीति की संभावना पैदा करके राजनीतिक भागीदारी का नए सिरे से निरूपण किया ।

दूसरे शब्दों में, गांधी ने जो कुछ किया वह ”ग्रहण किए गए सामाजिक विचारों का नैतिक शब्दावली में निचोड़ पेश करना और पुनर्निरूपण करना” था । गांधी ने स्त्रियों को दक्षिण अफ्रीका में सर्वप्रथम 1913 में सार्वजनिक प्रदर्शनों में उतारा था और भारतीय स्त्रीत्व की भारी राजनीतिक क्षमता का एहसास किया था ।

भारत-वापसी के बाद 1919 के रौलट सत्याग्रह में उन्होंने औरतों को राष्ट्रीय अभियान में भाग लेने को फिर आमंत्रित किया; लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक पहल हो इससे पहले ही उसे वापस ले लिया गया । 1921 में जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो गांधी ने स्त्रियों के लिए शुरू-शुरू में एक सीमित भूमिका बताई, अर्थात् बहिष्कार और स्वदेशी के अभियान में ।

लेकिन स्त्रियों ने अपने लिए और भी सक्रिय भूमिका का दावा किया । नवंबर 1921 में एक हजार स्त्रियों के प्रदर्शन ने बंबई में प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत किया । फिर बंगाल के कांग्रेसी नेता चितरंजन दास की पत्नी बसंती देवी उनकी बहन उर्मिला देवी और भतीजी सुनीति देवी ने दिसंबर में कलकत्ता की सड़कों पर खुले-आम प्रदर्शन में भाग लेकर और गिरफ्तारी देकर देश को स्तब्ध कर दिया ।

गांधी को उनकी शारीरिक सुरक्षा और मर्यादा की चिंता थी पर उन्होंने इस कदम का अनुमोदन किया, क्योंकि इसका एक असीमित प्रदर्शन-प्रभाव था । देश के दूसरे भागों में भी ऐसे ही प्रदर्शन हुए और उनमें केवल सम्मानित मध्यवर्गीय परिवारों की स्त्रियों ने ही भाग नहीं लिया ।

देखने में लगता था कि गांधी का आह्वान अब हाशिये पर पड़ी स्त्रियों तक, जैसे वेश्याओं और देवदासियों तक, भी पहुँच रहा था, हालांकि स्वयं गांधी उनको शामिल करने के प्रति बहुत उत्सुक नहीं थे । इसके दरवाजे वास्तव में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान ही खुले । तब भी गांधी दांडी मार्च के लिए स्वयंसेवकों के मूल दल में स्त्रियों को शामिल करना नहीं चाहते थे ।

लेकिन रास्ते में उन्होंने जिन सभाओं को संबोधित किया उनमें हजारों स्त्रियाँ शामिल हुई और आंदोलन ने जब सचमुच जोर पकड़ा तो दूसरी हजारों स्त्रियों ने भी नमक के गैर-कानूनी उत्पादन में विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों पर धरनों में और जुलूसों में भाग लिया ।

जहाँ तक स्त्रियों की भागीदारी का प्रश्न है आंदोलन सबसे अधिक संगठित बंबई में था सबसे अधिक उग्र बंगाल में था और मद्रास में सीमित था । उत्तर भारत में इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली और लाहौर जैसे शहरों में राष्ट्रवादी प्रदर्शनों में खुले-आम भाग लेकर सम्मानित परिवारों की सैकड़ों स्त्रियों ने अपने रूढ़िवादी पुरुष स्वजनों को स्तब्ध कर दिया ।

बंगाल में कुछ स्त्रियाँ हिंसक क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हुई और उस समय स्वदेशी के काल के विपरीत उनकी मात्र सहायक भूमिकाएँ नहीं थीं; वे अब मजिस्टेरर्टो और गवर्नरों पर पिस्तौलों से गोलियाँ चला रही थीं ।

जो प्रवृत्ति 1930 के दशक में शुरू हुई थी, वह 1940 के दशक में भी जारी रही, जब सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की सक्रिय भूमिका को समाज में स्वीकृति मिली । यह समझना कठिन नहीं है कि स्त्रियों ने गांधी की अपील का प्रत्युत्तर क्यों दिया, जिसने राष्ट्र के प्रति स्त्रियों की सेवा को उनके धार्मिक कर्त्तव्य का अंग बना दिया ।

उनके अहिंसा संबंधी आग्रह और स्त्री सत्याग्रहियों की एक सम्मानित छवि की रक्षा पर  उनके जोर ने स्त्री-सुलभ व्यवहार के प्रति सुस्वीकृत मापदंडों का हनन नहीं किया और इसलिए पुरुष इस भरोसे से भरे हुए रहे कि उनकी स्त्रियाँ गांधी के हाथों में सुरक्षित रहेंगी ।

प्रतिरोध कम रहा तो आखिरी विश्लेषण में इसका कारण यही था कि स्त्रियों ने भाग तभी लिया, जब उनके संरक्षक पुरुष यह चाहते थे कि वे इसमें भाग लें । अधिकांश मामलों में राष्ट्रीय आंदोलन में उन्हीं परिवारों की स्त्रियों ने भाग लिया जिनके पुरुष गांधी के आंदोलनों में पहले से सक्रिय थे ।

इसलिए उनकी सार्वजनिक भूमिका पत्नियों माताओं बहनों और बेटियों के रूप में उनकी घरेलू भूमिकाओं का ही विस्तार थी । इसलिए उनका राजनीतीकरण उनके घरेलू या पारिवारिक संबंधों में किसी सार्थक परिवर्तन का कारण नहीं बना । इनमें से अधिकांश स्त्रियों हिंदू मध्यवर्ग के सम्मानित परिवारों की थीं ।

हालांकि कुछ क्षेत्रों में ग्रामीण स्त्रियों ने भी आंदोलनों में भाग लिया, पर स्त्रियों की भागीदारी फिर भी प्रमुखत: शहरी संवृत्ति ही रही और इस बारे में भी सम्मानित छवि पर दिए जाने वाले बल ने निम्नवर्गीय स्त्रियों या वेश्याओं जैसी हाशिए पर पड़ी स्त्रियों को बाहर ही रखा ।

जहाँ तक मुस्लिम स्त्रियों का प्रश्न था, 1921 में खिलाफत-असहयोग आंदोलन में अनेकों ने भाग लिया था । लेकिन इससे अगर पर्दे की सीमा के कम होने में मदद मिली, तो भी उसके पूरे-पूरे उन्मूलन का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था, क्योंकि मुसलमानों के लिए वह उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता का प्रतीक था ।

दूसरी ओर अगर हिंसक क्रांतिकारी कार्रवाइयों में भाग लेकर कुछ स्त्रियों ने स्त्री-सुलभ विनम्रता की समाज द्वारा निर्धारित सीमारेखा का अतिक्रमण किया तो, भर्त्सना करनेवाले समाज ने उनकी जमकर  निंदा की । तनिका सरकार का तर्क है कि ”परंपरा में ऐसी मजबूत जड़ों” से स्पष्ट होता है कि क्यों यह राजनीतीकरण संभव हुआ और क्यों यह भारत में स्त्रियों की सामाजिक मुक्ति को किसी सार्थक सीमा तक बढ़ावा देने में असफल रहा ।

स्त्री-प्रश्न में कांग्रेस और उसके नेताओं की दिलचस्पी थी ही नहीं और थोड़ी बहुत प्रतीकात्मक उपस्थिति की अनुमति देने के अलावा उन्होंने किसी निर्णय प्रक्रिया में कभी स्त्रियों को शामिल नहीं किया । इसी कारण कुंठित होकर सरला देवी चौधरानी ने अफसोस व्यक्त किया था कि कांग्रेस उनको ”केवल कानून-तोड़क बनाना चाहती थी न कि कानून-निर्माता ।”

फिर भी, इन सबके बावजूद हमें यह भी मानना ही होगा कि सम्मानित परिवारों की सैकड़ों स्त्रियों ने भारत की सड़कों पर कतार बनाकर जुलूस निकाले, जेल गई वहाँ अपमान का सामना किया और कलंकित हुए बिना अपने परिवारों में वापस आई, तो यह भारतीय सामाजिक रवैयों में एक उल्लेखनीय परिवर्तन का सूचक था ।

रहा सवाल निमित्त बनने का तो जैसा कि सुजाता पटेल ने सूत्र रूप में सामने रखा है, ”विश्लेषण के स्तर पर यह कह सकना कठिन है कि पहले क्या बात सामने आई: स्त्रियों की मुक्ति या उस पर गांधी का      जोर ।”  यह बात भी कही जा सकती है कि खुली चुनौती दिए बिना कुछ स्त्रियों ने उपलब्ध सांस्कृतिक रूपकों में उदाहरण के लिए ”विस्तारित परिवार” के रूपक में, फेरबदल करके धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता की सीमाओं को आगे बढ़ाया ।

शौकत अली और मुहम्मद अली की बुजुर्ग माता बी अम्मन ने पूरी जिंदगी पर्दे में गुजारने के बाद खिलाफत-असहयोग आंदोलन में भाग लिया । पंजाब की एक आम सभा में उन्होंने अपना बुरका उठाया और श्रोताओं को अपने बच्चे कहकर संबोधित किया । एक माँ को अपने बच्चों के सामने पर्दे की जरूरत नहीं होती, इस तरह निहितार्थ रूप में पूरा देश उनके ”परिकल्पित विस्तारित परिवार” का  अंग बन गया ।

उनकी इस भाषा ने पर्दे की विचारधारा को निश्चित ही चोट पहुँचाई; उनके कर्म ने उसकी सीमा को प्रभावी ढंग से फैला दिया । दूसरी ओर यह बात काफी असंभव लगती है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन में सचमुच भाग लेनेवाली हजारों स्त्रियों ने पहले से अपने संरक्षकों की अनुमति ली होगी ।

और अगर ली भी होगी तो इस बात के अनेक ऐतिहासिक उदाहरण हैं कि ”एक बार लामबंद होने के बाद स्त्रियाँ अपनी इच्छा से आगे बढ़ती रहीं ।” उन्होंने बार-बार गांधी के उन आदेशों का उल्लंघन किया जो उनकी सक्रियता पर बंधन लगाते थे ।

प्रश्न है कि क्या स्त्रियों की इस सक्रियता और राजनीतिकरण ने उपनिवेशी भारत में एक नारीवादी (feminist) चेतना को बढ़ावा दिया ? जहाँ तक व्यापकतर समाज का सवाल है, स्पष्ट तौर पर जवाब होगा: ”नहीं” । लेकिन जिन स्त्रियों ने राष्ट्रीय आंदोलन में सचमुच भाग लिया उनके लिए और उनकी अधिक प्रबुद्ध मध्यवर्गीय नेत्रियों के लिए जीवन अब संभवत: पहले जैसा रह भी नहीं सकता था ।

उस काल का स्त्री-साहित्य यह संकेत देता है कि उनकी चेतना में सार्वजनिक-निजी का द्विभाजन अधिकाधिक धुँधला रहा था और वे अपने समाज में उपस्थित लैंगिक असमानता पर चिढ़ती थीं । लेकिन, जैसा कि जानकी नायर का कथन है, ”ऐसे विरोध और ‘वांछित’ नियमों के ऐसे हनन” के बावजूद ये मध्यवर्ग या उच्च जाति की स्त्रियाँ मोटे तौर पर राष्ट्रवादी पुरुष-प्रधानता की ”वर्चस्ववादी आकांक्षाओं … से सहमत” थीं ।

मुस्लिम स्त्रियों में भी बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में एक नए ”नारीवादी” उर्दू साहित्य का उदय हुआ, जिसने लैंगिक संबंधों की परंपरागत सीमाओं और विचारधाराओं को चुनौती दी । पर उसने भी ”नाटकीय परिवर्तन” की वकालत से इनकार कर दिया और ”मुस्लिम समुदाय” की छवि को हर बात से अधिक महत्त्व दिया ।

उन दिनों अधिकाधिक संख्या में उभर रहे स्त्री संगठनों ने जो स्थान पैदा किया, उसमें ऐसे अंतर्विरोध और भी स्पष्ट तौर पर देखे जा सकते थे । आरंभ से ही राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी अनेक विशुद्ध रूप से स्त्री संगठनों के मंच से होती रही, जो गेल पियर्सन की शब्दावली में एक ”विस्तारित नारी क्षेत्र” का निर्माण कर रहे थे, और वह क्षेत्र अलग-थलग परिवार और व्यापकतर सामाजिक क्षेत्र के बीच में कहीं स्थित    था ।

इन संगठनों में विभिन्न स्थानीय सामाजिक संगठनों से लेकर लड़कियों की शिक्षा संस्थाओं तक शामिल थे, और राष्ट्रीय स्त्री संघ या देश सेविका संघ जैसे अनेक राजनीतिक संगठन भी शामिल थे, जो कांग्रेस के सहायक संगठनों का काम करते थे ।

उसके बाद बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में अनेक ऐसे स्त्री-संगठन अस्तित्व में आए, जो सार्वजनिक क्षेत्र में अधिक सक्रिय थे तथा स्त्रियो के राजनीतिक और कानूनी अधिकारों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते थे । अखिल भारतीय स्तर पर सबसे पहले मद्रास में 1917 में विमेंस इंडियन एसोसिएशन का जन्म हुआ, जिसका आरंभ प्रबुद्ध यूरोपीय और भारतीय महिलाओं ने किया था ।

इनमें सबसे प्रमुख थीं एक आयरिश नारीवादी मार्गरेट   कजिंस और एनी बेसेंट । 1925 में इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ विमेन की शाखा के रूप में नेशनल काउंसिल ऑफ विमेन इन इंडिया का गठन हुआ और आरंभिक वर्षो में उसकी प्रमुख प्रेरणा-स्रोत लेडी मेहरीबाई टाटा थीं ।

फिर 1927 में ऑल इंडिया विमेंस कांग्रेस का जन्म हुआ, जो इन संगठनों में सबसे महत्त्वपूर्ण था । आरंभ में यह स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देनेवाला एक गैर-राजनीतिक संगठन था, जिसकी प्रमुख प्रेरणा-स्रोत मार्गरेट कजिंस थी ।

लेकिन वह संगठन आखिरकार राष्ट्रवादी राजनीति में भाग लेने लगा तथा मताधिकार से लेकर विवाह संबंधी सुधार और कामगार स्त्रियों के अधिकारों तक स्त्रियों के लिए हर प्रकार के अधिकारों का समर्थन करने लगा । प्रांतीय स्तर पर उन्हीं दिनों स्त्रियों के अनेक मुद्दों पर विभिन्न संगठन काम करने लगे ।

सरला देवी चौधरानी के भारत स्त्री महामंडल ने, जिसकी पहली बैठक 1910 में इलाहाबाद में हुई थी स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए पूरे भारत में अपनी शाखाएँ खोलीं । बंगाल में 1920 के दशक के दौरान, जैसा कि बार्बरा सदर्ड (1995) ने दिखाया है, बंगीय नारी समाज ने स्त्रियों के मताधिकारों के लिए अभियान आरंभ किया बंगाल विमेंस एजुकेशन लीग ने स्त्रियों के लिए अनिवार्य प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा की माँग की और ऑल बंगाल विमेंस यूनियन ने स्त्रियों के गैर-कानूनी व्यापार (trafficking) के विरुद्ध कानून बनवाने के लिए एक अभियान चलाया ।

फिर भी, इन मुद्दों पर जन-आंदोलन खड़े करने की बजाय इन स्त्री संगठनों ने सरकार को ज्ञापन दिए और राष्ट्रवादियों से समर्थन की प्रार्थना की । सरकार ने हस्तक्षेप भी किए तो हिचकते हुए और वह अकसर समझौते के सूत्रों को महत्त्व देती रही क्योंकि उसका विश्वास था कि अधिकांश भारतीय स्त्रियाँ अभी भी अपने अधिकारों के समुचित उपयोग में समर्थ नहीं थीं ।

उदाहरण के लिए 1919 के मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार ने स्त्रियों के मताधिकार का सवाल अनिर्णीत छोड़ दिया और इसका निर्णय बाद में प्रांतीय विधायिकाओं द्वारा किया गया । दूसरी ओर, राष्ट्रवादी 1920 के दशक से स्त्री-प्रश्न के प्रति अधिक सहानुभूति दिखाने लगे क्योंकि उनको राष्ट्र-निर्माण के कार्य में स्त्रियों की भागीदारी की आवश्यकता थी ।

राष्ट्रवाद को स्त्री-प्रश्नों से अधिक महत्त्व देकर स्त्रियों ने भी इस ”सार्वभौमिकरण (universalisation) की प्रक्रिया” को महत्त्व दिया । पुरस्कारस्वरूप 1921 और 1930 के बीच सभी प्रांतीय विधायिकाओं ने स्त्रियों को मताधिकार दिया, हालांकि उससे संपत्ति और शैक्षिक योग्यता संबंधी शर्तें निश्चित ही जुड़ी हुई थीं ।

1935 के भारत सरकार अधिनियम (गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट) ने मतदाता स्त्रियों का अनुपात बढ़ाकर 1:5 कर दिया और विधायिकाओं में उनके लिए सीटें भी आरक्षित कीं । कांग्रेस और स्त्री-संगठनों को आरक्षण का विचार पसंद नहीं था और उन्होंने सार्वभौम वयस्क मताधिकार को प्राथमिकता दी ।

लेकिन इस प्रावधान के पारित हो जाने पर उन्होंने इसे स्वीकार किया और इसके कारण 1937 के चुनाव के बाद अनेक स्त्रियों को एक विधायी कार्य आरंभ करने में मदद मिली । दूसरी ओर, विवाह-आयु सबंधी 1891 के विधेयक (एज ऑफ कंसेंट बिल) के विपरीत, 1929 का बाल-विवाह प्रतिबंध कानून (चाइल्ड मैरिज रिस्ट्रेन ऐक्ट) या शारदा कानून राष्ट्रवादियों के भारी समर्थन से पारित हो गया; इसमें स्त्रियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 14 और पुरुषों के लिए 18 साल रखी गई थी ।

इसके अलावा, 1930 के दशक के दौरान केंद्रीय और प्रांतीय विधायिकाओं में अनेक ऐसे विधेयक पारित हुए जो संपत्ति विरासत और तलाक के बारे में स्त्रियों के अधिकारों को निरूपित करते थे, दहेज पर सीमा और वेश्यावृत्ति पर नियंत्रण लगाते थे ।

लेकिन क्या इन सभी कानूनों के कारण भारत में लैंगिक संबंधों में या स्त्रियों के जीवन में कोई सुधार आया ? अगर हम शारदा कानून को परखें तो पाएँगे कि राष्ट्रवादियों और सरकार दोनों को शीघ्र ही इसे लागू करना कठिन लगने लगा; बहुत समय नहीं बीता कि शारदा कानून सभी व्यावहारिक दृष्टियों से मृतप्राय हो चुका था ।

बीसवीं सदी के आरंभ के विकासक्रमों ने-एक नई चेतना के जन्म नए संगठनों के उदय और स्त्रियों के राजनीतिकरण ने-कुछ स्त्रियों के लिए, कुछ उल्लेखनीय परिवर्तन अवश्य पैदा किए: अधिक प्रबुद्ध, मध्यवर्गीय और शहरी स्त्रियों के लिए जिन्होंने अपने लिए कारगर ढंग से सार्वजनिक क्षेत्र में एक स्थान बनाया ।

उपनिवेश-काल के अंतिम वर्षो में इनमें से अनेक तो चिकित्सा और वकालत जैसे ऊँचे व्यवसायों में थीं, अच्छे वेतन पाती थीं और उनको सामाजिक सम्मान मिलता था । पर अपनी नई सामाजिक भूमिकाओं और गृहिणी-वृत्ति के और बच्चों की देखभाल की कठोर माँगों के बीच, कुछ विशेष मुखर प्रतिरोध किए बिना, वे भी बराबर डोलती रहती थीं ।

रहा प्रयन बाकी भारतीय स्त्रियों का, तो परिवर्तन और भी कम नाटकीय रहे । कारण यह था कि स्त्री-संगठनों और कार्यकर्त्रियों के प्रयास उस चीज से बाधित होते रहे, जिसे गेराल्डाइन फ़ोर्ब्स ने अपने अत्यंत पारखी वृत्तांत वुमेन इन मॉडर्न इंडिया (Women in Modern India) (1998) में ”एक सामाजिक नारीवादी विचारधारा का ढाँचा (framework)” कहा है ।

इस ढाँचे में स्त्रियों की एक खास सार्वजनिक भूमिका को मान्यता तो दी गई थी, पर साथ ही स्त्री-पुरुष के बीच सामाजिक शारीरिक और मानसिक अंतर को भी स्वीकार किया गया था । मूलभूत भारतीय स्त्रीत्व की राष्ट्रवादी प्रयोजनवादी (teleological) प्रस्तुति को उनकी कार्यसूची में प्रमुखता मिलती रही और यह कार्यसूची स्वयं ही राष्ट्रवाद की कार्यसूची का एक गौण अंग बनी रही ।

फिर भी, जैसा कि फोर्ब्स ने आगे कहा है, इस सीमा बाँधनेवाली सामाजिक विचारधारा को और उसे स्वीकार करनेवाले स्त्री संगठनों के प्रभुत्व को 1940 के दशक के दौरान गंभीर चुनौती मिली, जब वर्गीय और धार्मिक सीमारेखाओं के आरपार स्त्रियों ने सार्वजनिक क्षेत्र में अपने लिए और भी सक्रिय भूमिका की माँग की और स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम चरण में अपने साथ के पुरुषों की सहयोगियों के रूप में लड़ती रहीं ।

स्त्रियों की यह सक्रियता 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सबसे अधिक स्पष्ट रही, जिसके लगभग आरंभ में ही पहली पंक्ति के सभी पुरुष कांग्रेसी नेता जेलों में बंद कर दिए गए । इस तरह की आकस्मिक परिस्थिति में अभूतपूर्व पुलिस दमन के सामने आंदोलन के समन्वय की जिम्मेदारी कुछ प्रमुख नेत्रियों ने अपने सर पर ले ली ।

सुचेता कृपलानी ने अहिंसक प्रतिरोध का समन्वय किया, जबकि भूमिगत क्रांतिकारी गतिविधियों को नेतृत्व अरुणा आसफ अली ने दिया और यह काम उन्होंने गांधी की आत्मसमर्पण करने की सलाह को नरमी से ठुकराकर किया ।

लेकिन इस आंदोलन का सबसे अहम पहलू बड़ी संख्या में ग्रामीण स्त्रियों की भागीदारी था, जिन्होंने अपने देश को मुक्त कराने के लिए स्वयं पहल की । 1942 में कम्युनिस्ट पार्टी पर से प्रतिबंध हटने पर ग्रामीण स्त्रियों की यह संलग्नता और बड़ी ।

इससे पहले 1920 और 1930 के दशकों में अनेक मध्यवर्गीय शिक्षित स्त्रियाँ कम्युनिस्ट आंदोलन में आई थीं और उन्होंने मजदूर वर्ग को लामबंद करने, औद्योगिक कार्रवाइयों का आयोजन करने और राजनीतिक बंदियों की रिहाई के अभियान में भाग लिया था ।

1941 तक ऑल इंडिया स्टूडेंट्‌स फेडरेशन की छात्राओं की शाखा में लगभग 50,000 सदस्याएं थीं । 1942 में बंगाल की कुछ वामपंथी नेत्रियों ने एक महिला आत्मरक्षा समिति (वीमेंस सेत्क-डिफेंस लीग) का गठन किया, उसके द्वारा ग्रामीण स्त्रियों को लामबंद किया और बंगाल में 1943 के अकाल के दौरान राहत के कार्य किए ।

साम्यवादी आंदोलन में स्त्रियों की यह भागीदारी उस समय बढकर स्तर तक पहुँची, जब बंगाल में कम्युनिस्ट नेतृत्व वाली किसान सभा के अंतर्गत 1946 में तेभागा आंदोलन उपज में बटाईदारों के लिए दो-तिहाई हिस्से की माँग करते हुए शुरू हुआ ।

इसमें दलित और आदिवासी समुदायों की ”सर्वहारा और अर्ध-सर्वहारा स्त्रियों” ने व्यापक स्तर पर स्वतंत्र कार्रवाइयाँ कीं । अपनी पहल पर उन्होंने नारीवाहिनी बनाई और जो भी हथियार हाथ लगा उसी के बल पर उपनिवेशी पुलिस का मुकाबला किया ।

उसके बाद हुए असमान टकराव में अनेक स्त्रियाँ शहीद हुई । इसी तरह आंध्र में, जहाँ निजाम हैदराबाद और सामंती दमन के विरुद्ध 1946 से 1951 तक तेलंगाना संघर्ष चला, बेहतर मजदूरी, सही लगान और अधिक सम्मान के लिए स्त्रियाँ पुरुषों से कंधे मिलाकर लड़ रही थीं ।

कुछ लिंग-विशिष्ट प्रश्न उठाकर कम्युनिस्ट पार्टी ने स्त्रियों को लामबंद करने के विशेष प्रयास किए, क्योंकि उनके बिना संघर्ष इतने लंबे समय तक जारी नहीं रह सकता था । लेकिन अधिकांश मामलों में वे स्वयं आंदोलन में शामिल हुई, गुप्त संदेशों के वाहकों के काम किए, छिपने की जगहों के प्रबंध किए और कुछ तो बंदूक लेकर दलम (क्रांतिकारी दलों) की सक्रिय सदस्य भी बनीं ।

लेकिन इस संघर्ष ने भले ही किसान स्त्रियों के लिए जुझारू कार्रवाई का एक नया क्षेत्र पैदा किया, साम्यवादी नेता भी उनको बराबर का दर्जा नहीं देते थे । पार्टी नेतृत्व अपने बंगाली समकक्षों की ही तरह उनके लिए केवल सहायक और गौण भूमिकाओं को प्राथमिकता देता था; वह लैंगिक सबंधों के परंपरागत ढाँचों से बाहर अर्थात् विवाह और परिवार से बाहर स्त्रियों के बारे में  सोच ही नहीं सका और उन पर इतना भरोसा नहीं कर सका कि वास्तविक युद्ध क्षेत्र के लिए उन्हैं बंदूकें थमा दे ।

इससे भी अहम बात यह है कि विद्रोहियों की पंक्तियों मैं जब भी यौन नैतिकता और अनुशासन बनाए रखने का सवाल उठा स्त्रियों को ही समस्या की जड़ समझा गया । लगभग उन्हीं दिनों देश से बाहर वास्तविक फ़ौजी कार्रवाई में स्त्रियों को शामिल करने का एक प्रयोग सुभाषचंद्र बोस ने किया । बहुत पहले, 1928 में उन्होंने ”कर्नल” लतिका घोष के नेतृत्व में कांग्रेस का एक महिला स्वयंसेवक दल तैयार किया था, जिसने पूरी वर्दी पहनकर कलकत्ता की सड़कों पर मार्च किया था ।

1943 में जब उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रवासी भारतीयों की एक सेना बनाई, जिसे आजाद हिंद फौज कहा गया, तो उन्होंने उसकी एक महिला रेजिमेंट भी बनाने का निर्णय किया, जिसका नाम 1857 के विद्रोह की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के नाम पर रानी झाँसी रेजिमेंट रखा गया ।

इस नए रेजिमेंट के लिए प्रशिक्षण शिविर अक्टूबर 1943 में खोला गया और इसमें लगभग 1500 स्त्रियाँ शामिल हुई, जिनका संबंध दक्षिण-पूर्व एशिया में रह रहे, सभी धर्मों और जातियों के, कुलीन और मजदूरवर्गीय दोनों प्रकार के भारतीय परिवारों से था ।

उनको पूरा-पूरा सैन्य प्रशिक्षण दिया गया और लड़ने के लिए तैयार किया गया । आरंभिक चरण में उनको जब असैनिक भूमिकाएँ दी गई, तो उन्होंने अपनी नेता से विरोध व्यक्त किया और आगे चलकर 1945 में इंफाल की मुहिम में उन्हें वास्तविक युद्ध कार्य में शामिल किया गया ।

लेकिन इस मुहिम में गंभीर गलतियाँ हुई और पूरा प्रयोग ठप हो गया, क्योंकि आजाद हिंद फौज को आगे बढ़ती अंग्रेज सेना के सामने पीछे हटना पड़ा । वैचारिक स्तर पर स्त्रियों को हथियारबंद करने का यह प्रयोग संभवत: कोई अतिवादी कदम न था, क्योंकि बोस स्वयं भी भारत की ”माताओं और बहनों की आध्यात्मिक शक्ति” में विश्वास रखते और उसे जगाना चाहते थे ।

लेकिन यह राष्ट्रवादी राजनीति में स्त्रियों की भूमिका का एक सार्थक प्रसार अवश्य था कि उनको पौराणिक सीता की निष्क्रिय आदर्श भूमिका की जगह पुरुष सिपाहियों से कंधे मिलाकर लड़ रही स्त्रियों के लिए ऐतिहासिक रानी झाँसी की सक्रिय और शौर्यमयी भूमिका दी गई ।

एक और सतह पर देखें तो 1940 के दशक के दौरान पाकिस्तान आंदोलन के उदय ने उपमहाद्वीप की मुस्लिम स्त्रियों के लिए राजनीतिक कार्रवाई का एक नया क्षेत्र पैदा किया । 1930 के दशक के दौरान वे मताधिकार जैसे अधिकारों की माँग करने के लिए अपनी हिंदू बहनों के साथ एक संयुक्त मोर्चे में भाग ले रही थीं ।

लेकिन महिलाओं कं लिए सांप्रदायिक आधार पर सीटों के आरक्षण को लेकर 1935 में वे बँट गई ।  जैसा कि बेगम शाहनवाज ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ऑल इंडिया विमंस कॉन्फ्रेंस की मुस्लिम नेत्रियों ने ”संयुक्त निर्वाचकमंडल को इसलिए स्वीकार करने से मना कर दिया, क्योंकि उनके पुरुष इसके लिए तैयार न थे ।”

इस तरह व्यापकतर राजनीतिक कतारबंदिया ने यानी पुरुषों की राजनीति ने स्त्रियों के आंदोलनों को भी प्रभावित किया । मुस्लिम लीग ने भी अपनी राजनीति को सर्वभौम बनाने की कोशिश की और मुस्लिम स्त्रियों को शामिल करने के लिए 1938 में एक महिला उपसमिति का गठन किया ।

जब पाकिस्तान के आंदोलन ने जोर पकड़ा, तो अधिकाधिक महिलाएँ उसमें चुनावी उम्मीदवारों, मतदाताओं और सड़कों की राजनीति की सक्रिय प्रदर्शनकारियों के रूप में खिंच आई, खासकर पंजाब और पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में । उनमें से अनेक तो साधारण स्त्रियाँ थीं जिनके लिए यह राजनीतिक भागीदारी अपने आप में एक ”मुक्तिदायी अनुभव” थी ।

यह सही है कि मुक्ति का यह पल इतना छोटा रहा कि उनके रोजमर्रा के जीवन में शायद ही कोई वास्तविक परिवर्तन ला सका । मगर फिर भी यह मुस्लिम समाज में स्त्रियों के लिए एक सार्वजनिक भूमिका की स्वीकृति का सूचक था । इस तरह 1940 के दशक में, वर्ग, जाति और धर्म की सीमाओं से परे, अधिकाधिक भारतीय स्त्रियों ने साम्राज्य विरोधी और लोकतांत्रिक आंदोलनों में भागीदारी करके अपने लिए सक्रिय भूमिका के दावे किए ।

लेकिन, जैसा कि कुमारी जयवर्धना कहती हैं उन्होंने, ”इन अवसरों का उपयोग ऐसे मुद्दे उठाने के लिए, नहीं किया जो उनके स्त्री रूप को प्रभावित करते थे ।” उनके अपने लक्ष्य राष्ट्रीय स्वतंत्रता, समुदाय के सम्मान या वर्ग संघर्ष के लक्ष्यों के अधीन रहे ।

नारीवाद की धारणा ने स्वयं भी भारी भ्रम पैदा किया: इसे या तो पश्चिम से आयातित और भारतीय राष्ट्रीयता के सांस्कृतिक उत्स के लिए हानिकारक समझा जाता था या फिर स्वतंत्रता संग्राम के अधिक महत्त्वपूर्ण ध्येय से एक अवांछित भटकाव माना जाता था ।

जवाहरलाल नेहरू जैसे कुछ अग्रणी राष्ट्रवादियों का विश्वास था कि राजनीतिक स्वतंत्रता बस मिल जाए, फिर तो स्त्री-प्रश्न का समाधान अपने आप निकल आएगा । पितृसत्तात्मक सरोकार साम्यवादी नेतृत्व के लिए भी एक भारी दुविधा के विषय बने रहे ।

तेभागा आंदोलन में महिलाओं का नेतृत्व तभी सामने आ सका, जब कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने ”परहेज” किया । ट्रेड यूनियनें भी, हालांकि मजदूरवर्गीय स्त्रियों को लामबंद करती थीं, पर आम तौर पर उन्होंने भी स्त्रियों के मुद्दों की उपेक्षा की, क्योंकि उनको ”पुरुषों के या आम मजदूरवर्गीय हितों के अधीन” समझा जाता था ।

जुझारू कार्रवाइयों के दौरान अगर सीमाएँ टूटीं, तो बाद में तेजी से बिना किसी अपवाद के दोबारा कायम हो गईं । क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि मल्लू स्वराज्यम् जैसी एक स्त्री, जिसे ”तेलंगाना की मशहूर वीरांगना” कहा गया था, आंदोलन की वापसी के कुछ साल बाद क्या कर रही थी ? उसके पति के शब्दों में ”पका रही है और खा रही है । और क्या ?”

तेलंगाना  की स्त्रियाँ अगर अपने घरों से बाहर आई, क्योंकि आंदोलन ने उनमें समानता दिलाने की उम्मीद जगाई थी, तो उसके बाद शीघ्र ही उन्होंने पाया कि परिवार के रूपक पर वह साम्यवादी नेतृत्व बराबर जोर दे रहा था, जो हमेशा स्त्रियों को उसी परंपरागत सीमा के अंदर रखने को प्राथमिकता देता था ।

दूसरी ओर पाकिस्तान के आंदोलन ने कुछ मुस्लिम स्त्रियों को सार्वजनिक कार्रवाई में जरूर खींचा, पर विभाजन के अनुभव ने एक बार फिर मुस्लिम स्त्रीत्व के परंपरागत अशराफ़ आदर्श को बल पहुँचाया कि इस स्त्रीत्व की रक्षा घरेलू क्षेत्र में ही संभव है ।

इस सीमारेखा के किसी भी उल्लंघन को अनैतिकता, अधार्मिकता और समुदाय के लिए असम्मान का कारण समझा जाता था । वास्तव में, विभाजन से जुड़ी हिंसा उप-महाद्वीप की स्त्रियों, हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए अत्यंत घृणित पल थी, क्योंकि वे समुदाय के सम्मान के बारे में पुरुषों की समझ के निशाने बनने लगीं ।

स्त्रियों का सतीत्व-मर्दन वह क्षेत्र बन गया जिसे या तो जीतो या नष्ट करो, ताकि दुश्मन को उसे जीतने का सम्मान न मिल सके । रितु मेनन और कमला भसीन के शब्दों में, ये स्त्रियाँ एक ”हिंसा के सातत्य” की कैदी बन गई; इसमें उनके सामने विकल्प यह था कि या तो ‘दूसरे’ समुदाय के पुरुषों के हाथों बलात्कार, अंग-भंग और अपमान की शिकार हों या फिर अपने समुदाय के सम्मान को दुश्मन के हाथों नष्ट होने से बचाने के लिए आत्महत्या कर लें, जिसके लिए उनको उनके अपने बंधु-बांधव भी उकसाते रहते थे ।

ऐसी सामूहिक आत्महत्याओं की मिसालें चिंताजनक सीमा तक अधिक थीं । जबकि, दूसरी ओर, विभाजन से जुड़े पागलपन के कुछ ही महीनों के अंदर पचहत्तर हजार से लेकर एक लाख स्त्रियाँ या तो अपहरण या बलात्कार की शिकार हुई । जो जीवित बचीं वे इस शर्मिदगी की अमिट यादों को समेटे जीती रहीं, जिसे उन्होंने अपने परिवार और समुदाय के सम्मान की रक्षा के लिए खामोशी के साथ झेला था ।

इस तरह ऐसा लगता है कि उपनिवेशी भारत में स्त्री-प्रश्नों को वह प्राथमिकता शायद मिली जो उसे मिलनी चाहिए थी । हालाकिं कुछ स्त्रियों में समझदारी आई, उन्होंने राजनीतिक संघर्षों में सक्रिय रूप से भाग लिया और अपने आपको अनेक प्रकार से उदीयमान राष्ट्र (राष्ट्रों) के साथ भी जोड़ा, पर मुक्ति की प्रचलित विचारधाराओं में अभी भी नारीवाद का समावेश नहीं हुआ था ।

समुदाय और राष्ट्र के सम्मान को उनके हितों को अभी भी स्त्रियों के अधिकारों पर प्रमुखता प्राप्त थी । लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं कि राष्ट्रवादी नेताओं, समुदायों के बुजुर्गो या पार्टी के चौधरियों ने जिस प्रभुत्वशाली पुरुष-प्रधान परंपरा का समर्थन किया था, उसके उलटे जाकर कभी किसी स्त्री ने ‘स्वतंत्रता’ की कल्पना ही नहीं की ।

 

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