स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय (Swami Vivekananda Biography in Hindi)
स्वामी विवेकानंद एक भारतीय हिन्दू संत थे. वो ना केवल आध्यात्मिक गुरु थे बल्कि एक ऐसे विद्वान और देशभक्त भी थे जिन्होंने सदा समाज हित में काम किया था. उनका संदेश सौहार्द, शांति और सद्भावना भरा था. उनके शब्द और प्रेरक वाक्य देश के युवाओं के लिए कई सदियों तक प्रेरणा स्त्रोत रहेंगे.
जन्म और परिवार (Family details, Birth Details )
नाम | विवेकानंद |
वास्तविक नाम | नरेन्द्र नाथ दत्त |
जन्म तिथि | 12 जनवरी 1863 |
जन्म स्थान | कलकता,बंगाल |
पिता | विश्वनाथ दत्त |
माता | भुवनेश्वरी देवी |
गुरु | राम कृष्ण परमहंस |
गुरु माता | शारदा देवी |
विवेकानंद का प्रारम्भिक जीवन, बचपन (Childhood and Early Life of Vivekanada)
नरेंद्र बचपन से ही बहुत शैतान थे,कई बार उनकी माँ के लिए उन्हें सम्भालना ही मुश्किल हो जाता था,ऐसे में उनकी माँ उन पर ठंडा पानी डालती थी और भगवान शिव का जाप करती थी,जिससे वो तुरंत शांत हो जाते थे. वो उन्हें कहती थी कि यदि अब भी तुम शांत नहीं हुए तो शिव तुमसे नाराज हो जाएंगे और तुम्हे कैलाश में प्रवेश नहीं करने देंगे. इस तरह उनके व्यक्तित्व के प्रारम्भिक विकास में उनकी माँ का महत्वपूर्ण योगदान रहा. एक बार स्कूल में किसी बात पर अन्याय को देखकर उनकी माँ ने कहा था कि ये बहुत महत्वपूर्ण हैं कि “तुम सही और सत्य की राह पर चलो, कई बार तुम्हे सत्य की राह पर चलते हुए कडवे अनुभव भी हो सकते हैं और लेकिन तुम्हे किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होना हैं. बहुत वर्षों बाद नरेन्द्रनाथ ने अपने भाषण में माना भी था की मैं अपनी माँ की शिक्षा का आभारी हूँ.
स्वामीजी अपने बचपन में एक मित्र के घर चम्पक के पेड़ पर चढ़ते थे, क्योंकि उन्हें चंपक के फूल बहुत पसंद थे. एक बार उनके दोस्त के दादाजी ने उन्हें टोका और कहा कि वो तुरंत नीचे आ जाए वरना ब्रह्मदैत्य उन्हें खा जाएगा. ये सुनकर वो तुरंत नीचे आ गए,लेकिन जैसे ही वो व्यक्ति वहाँ से गये,नरेंद्र वापिस पेड़ पर चढ़ गए, कारण पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि बुजुर्गों की हर बात पर विशवास नहीं करना चाहिए,यदि इस पेड़ पर कोई दैत्य होता तो वो मुझे कब का खा चूका होता. इस तरह विवेकानंद बचपन से ही अपने नाम को सार्थक करते आये थे, सब कुछ जानकर-समझकर भी वो अपने विवेक से काम करते थे.
अपने पिता से प्रभावित होकर नरेन्द्र ब्रह्म समाज का सदस्य बन गए,जो कि उस समय आधुनिक हिन्दू समाज की वो संस्था थी,जिसके संचालक केशब चन्द्र सेन थे. ब्रह्म समाज ने हिन्दू धर्म के आदर्श और पारंपरिक तथा मूर्ति पूजा के सिद्धांत को खारिज कर दिया था.
स्वामी विवेकानंद की शिक्षा (Education details of Swami Vivekananda)
स्वामी विवेकानंद को बाल्यावस्था से ही जीवन और जीवन से जुड़े रहस्यों को जानने की तीव्र रूचि थी. उन्होंने ईश्वर चन्द्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन इंस्टिट्यूट से पश्चिमी शिक्षा हासिल की थी, और उन्हें पश्चिमी और पूर्वी दर्शनशास्त्र में बहुत ज्ञान हो गया था. उनके शिक्षकों को भी लगता था की वो बहुत विद्वान हैं और उनकी याददाश्त बहुत तीक्ष्ण हैं. उन्होंने अपनी कॉलेज की शिक्षा प्रेजिडेंसी कॉलेज से पूरी की थी. और कॉलेज पूरा करते-करते ही वो बहुत से विषयों में विद्वान बन चुके थे. इसके अलावा वो खेल ,जिम्नास्टिक, रेसलिंग और बॉडी बिल्डिंग में भी एक्सपर्ट थे. अपनी वाक्पटुता से दुनिया भर में पहचान बनाने वाले विवेकानन्द जी ने यूनिवर्सिटी के एंट्रेंस में 47%, एफए में 46% (ये एक्साम बाद में इंटरनेशनल आर्ट्स के नाम से जाना जाने लगा) और 56 % बीए के एग्जाम में स्कोर किया था.
स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस ( Swami Vivekananda and Ramkrishna Paramhans)
1881 में दक्षिणेश्वर के मंदिर में उनका परिचय श्री रामकृष्ण से हुआ था,जो कि एक बहुत बड़े संत और आध्यात्मिक व्यक्ति थे. नरेंद्र को रामकृष्ण ने बहुत प्रभावित किया,और नरेन्द्र वहाँ रोज जाने लगे. हालांकि शुरू में नरेंद्र ने उनके सिद्धांतों और तर्कों को स्वीकार नहीं किया,वास्तव में रामकृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाने की सलाह देते थे. वो माँ काली के भक्त थे, लेकिन समय के साथ नरेंद्र का आध्यात्म झुकाव उनकी तरफ होने लगा और अंतत: उन्होंने रामकृष्ण के भक्ति के तरीके को स्वीकार कर लिया,और ब्रह्म समाज छोड़ दिया.
1884 में इनके पिता का देहांत हो गया,और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई . इससे घर-परिवार की जिम्मेदारी नरेंद्र पर आ गयी. यहाँ तक की कई बार वो भूखे भी रहते थे,इस दौरान भी उनकी काली माँ के प्रति भक्ति कही से कम नहीं हो रही थी. जब नरेंद्र का पूरा ध्यान केवल रोजगार पर होना चाहिए था तब वो हर रोज मंदिर जाते और रामकृष्ण के पास समय बिताते. एक बार रामकृष्ण ने उन्हें कहा कि माँ उन्हें दर्शन देगी और तब वो माँ से वो मांगे जो वो चाहते हैं, वो जब भी माँ के सामने जाते तो उनसे मांगते “माँ मुझे ज्ञान दो, भक्ति दो,वैराग्य दो” इस तरह आखिरी प्रयास तक वो माँ काली से अपने लिए वैभव और अपने परिवार के लिए ऐशो आराम की जिन्दगी नहीं मांग सके. इस तरह रामकृष्ण से मिलने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं को आध्यात्म जीवन में समर्पित कर दिया. वो अपना ज्यादातर समय ध्यान और जप में व्यतीत करने लगे.
स्वामीजी का विश्व सम्मेलन और शिकागो का भाषण (Swami ji’s Vihwa Samellan and chicago’s Speech)
स्वामी जी ने 1893 मेंशिकागो के विश्व स्तरीय सम्मेलन का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया. और मई में बॉम्बे से रवाना हो गए, वो पहले जापान गए फिर वहां से यूनाइटेड स्टेट गए. उनके पास बहुत कम पैसे थे,और विदेश में ज्यादा लोगों से परिचय नही था, लेकिन हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के जॉन राइट ने उनकी मदद की.
विवेकानंद शिकागो में हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुए थे और वहाँ उन्होंने वेदों और उपनिषदों का व्याखायान दिया था,जिससे सारी दुनिया प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी. 11 सितम्बर 1893 को विवेकान्द ने अपने पहले भाषण में स्टेज पर पहुचकर पहले माँ सरस्वती का वंदन किया फिर उन्होंने अपना व्याख्यान शुरू किया. उनके व्याख्यान की प्रथम पंक्ति थी “मेरे अमेरिकन भाइयों और बहिनों” इतना सुनकर पूरा सभागार तालियों के शोर से गूंज उठा. विदेशियों के लिए इतने आत्मीयता से किसी भी धर्म के विद्वान का भाषण की शुरुआत करना पहला अनुभव था, अत: स्वाभाविक था कि वो लोग सम्मोहित होते. और वहाँ भीड में मौजूद लगभग 7000 लोग उनके सम्मान में उठकर खड़े हो गये.
आगे उन्होंने कहा आपके अभिनन्दन से मेरा हृदय प्रसन्नता से भर उठा हैं, मैं आप सबका विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता की तरफ से आभार प्रकट करता हूँ. विवेकानंद जी के उद्बोधन में सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव था. इस सम्मेलन को कवर करने वाली मीडिया ने उन्हें एक सबसे अच्छा वक्ता माना जिसने श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध कर दिया था.
इसके बाद स्वामी जी ने अगले 2 वर्षों तक वहाँ पर वेदान्त पर भाषण देने का काम किया. 1894 में उन्होंने न्यूयॉर्क में वेदान्त सोसायटी की नींव रखी. इसके बाद 1895 में उन्होंने इंग्लैंड का भ्रमण किया. जहां वो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मेक्समुल्लर से मिले और यही पर उनकी भेंट मार्गरेटा नोबेल से भी हुयी जो कालान्तर में भगिनी निवेदिता कहलाई.
रामकृष्ण मठ की स्थापना (Establsihment of Ramkishan misson)
1886 में रामकृष्ण समाधिलीन हो गये,और उन्होंने नरेंद्र को अपना उतराधिकारी चुना. विवेकानंद ने बेलूर में एक मठ स्थापित करने की सोची. श्री राम कृष्ण के देहांत के 15 दिन बाद जब विवेकानंद भारत की यात्रा पर निकले तब उनके साथ रखल चन्द्र घोष,तारक नाथ घोषाल और बाबुराम घोष थे.1888 तक तो उन्होंने मठ छोड़ दिया और घुमन्तु सन्यासी बन गए,और भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण शुरू किया. इसके बारे में उन्होंने अपने कम्पलीटेड वर्क में भी लिखा- मैंने बहुत बार मौत को करीब से देखा, कभी भूखा सोया, कई दिनों तक नंगे पैर चला,मैं पेड़ के नीचे सोता था मैं हमेशा स्वयं को परमात्मा के निकट महसूस करता था, मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं था,ना मैं जन्मा था ना मरने वाला था, ना मुझे भूख थी ना प्यास थी.
स्वामी विवेकानंद और आर्य समाज (Swami Vivekanand and Arya Samajh) / स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद में विभिन्नताए :
स्वामी विवेकानंद का सम्बंध ब्रह्म समाज से था (बहुत कम समय के लिए) जबकि आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने की थी. दोनों के सिद्धांतों और विचारों में काफी अंतर था.विवेकानंद ने जहाँ उपनिषद पढ़े और उन पर व्याख्यान दिया वही दयानंद ने वेदिक संहिताओं को महत्व दिया. स्वामी दयानंद सरस्वती ने निराकार ब्रह्म की उपासना के महत्व को समझाया जबकि विवेकानंदजी माँ काली के भक्त थे .दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंदजी थे जिनके बारे दयानन्द का विचार था कि वो एक संस्कृत के बहुत अच्छे विद्वान हैं लेकिन वो एक सामान्य इन्सान ही हैं जबकि विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस को भगवान माना था. दयानंद किसी भी प्रकार के वेद-विरोधी मत के समर्थक नहीं थे,और सभी अंध-विश्वासों को उन्होंने खारिज कर दिया था. लेकिन विवेकानन्द ने सभी धर्मों,सिद्धांतों और मतों को सम्मान दिया था. दयानन्द किसी अवतार को नहीं मानते थे जबकि विवेकानन्द ने अपने गुरु रामकृष्ण को एक अवतार माना था. दयानन्द सरस्वती भारत में अंग्रेजों के शासन के विरोधी थे,और उन्होंने इस दिशा में बहुत काम किया था लेकिन विवेकानंदजी का कोई भी ठोस कार्य इतिहास में अंकित नहीं हैं. इस तरह आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती जहां वेदों के साथ भगवान,आत्मा और तत्व में मानते थे वही विवेकानन्द अद्वैतवादी थे.
स्वामीजी से जुड़े रोचक तथ्य ( Unknown Facts about Swami ji)
- 1887 में वाराणसी में विवेकानंदजी,स्वामी प्रेमानंद के साथ चल रहे थे,तभी वहाँ पर बंदरों का समूह आ गया,और सभी सन्यासी इधर-उधर भागने लगे,और अव्यवस्था हो गयी.लेकिन एक बुजुर्ग सन्यासी ने चीखकर कहा रुको- और जानवरों के सामने खड़े हो जाओ ,ये सुनकर विवेकानंद और उनके सहयोगी प्रेमानन्दजी उन बंदरों के सामने खड़े हो गये, इस सन्दर्भ में विवेकानंदजी ने न्यूयॉर्क के भाषण में कहा था कि “कभी भी समस्याओं से डरकर ना भागे,हिम्मत के साथ उनका सामना करो,यदि हमें अपना डर मिटाना हैं तो बाधाओं के सामने हमे डटकर खड़ा रहना होगा.
- 1888 में आगरा और वृन्दावन के मध्य मार्ग में उन्हें एक व्यक्ति चिलम फूंकते हुए दिखा,स्वामीजी ने रुककर उससे चिलम मांगी,उसने कहा कि आप साधू हो और मैं वाल्मीकि कुल का हूँ,स्वामीजी उठकर जाने लगे तभी उन्होंने सोचा कि मुझे इसका चिलम काम में क्यों नहीं लेना चाहिए?? उन्होंने कहा-मैंने सन्यास ग्रहण किया है ,मैंने परिवार और जाति के बंधन को तोड़ दिया हैं,ये कहकर वो चिलम पीने लगे. स्वामीजी ने इस सन्दर्भ में कहा था कि भगवान के बनाये सभी इंसान एक समान हैं,इसलिए किसी के लिए भी जाति निर्धारित द्वेष भाव मन में न रखे.
- स्वामीजी का अपने गुरु के प्रति समर्पण भाव का मार्ग भी काफी रोचक था. 1890 में विवेकानंद जी ने एक बार किसी महान पहाड़ी बाबा के बारे में सुना,जो गुफा में रहते थे और बहुत कम खाना खाते थे. विवेकानंद ने उनसे दीक्षा लेने की सोची,लेकिन दीक्षा की एक रात पहले उनके सपने में स्वामी राम कृष्ण परमहंस आये और उनके पलंग के पास उन्हें देखते हुए उदास भाव से खड़े रहे. विवेकानंदजी ने तुरंत दीक्षा का विचार त्याग दिया लेकिन उनके गुरु का उनके सपने में आने का क्रम अगले 15-20 दिन तक चला,इसलिए अंतत: उन्होंने अपने मित्र को लिखा कि अब वो किसी भी बाबा के पास नहीं जायेंगे.
- विवेकानंद जी जब ऋषिकेश में थे तब उन्हें मलेरिया हो गया था,और उनके पास कोई डॉक्टर नहीं था,और उनकी स्थिति इतनी खराब थी कि उन्हें डॉक्टर के पास भी नहीं ले जाया जा सकता था. तब एक बुजुर्ग सन्यासी आया और उसने स्वामीजी को शहद और पीपल का चूर्ण दिया जिससे उनकी तबियत में सुधार हुआ. उन्होंने आँखें खोलते ही कहा कि अर्ध-चेतन की अवस्था में उन्हें आभास होगया था कि उन्हें परमात्मा का कोई महत्वपूर्ण कार्य करना हैं,और जब तक मैं वो कम ना कर लू तब तक मुझे शांति नहीं मिल सकती.
- मेरठ में प्रवास के दौरान विवेकानंद जी सर जॉन लुब्बोक्क (Sir John Lubbock) के संग्रह से एक वोल्यूम लेकर पढ़ते थे,उनके लिए स्वामी अखंडानंद वो किताब सिटी लाइब्रेरी से लाते थे,जिसे स्वामीजी अगले दिन ही लौटा देते थे. लाइब्रेरियन को शक हुआ कि स्वामीजी पढ़ते भी हैं या नहीं? एक दिन स्वामीजी खुद उस लाइब्रेरियन से मिले जिसने उनसे वोल्यूम के सवाल पूछे तब उसे पता चला कि स्वामीजी ने ना केवल वोल्यूम पढ़े हैं बल्कि उन्हें याद भी कर लिया हैं.
- विवेकानंद जी सन्यासी बनने के बाद भी अपने कर्तव्य विमुख नहीं हुए थे. इसका उदाहरण उनका अपने घर की समस्या से अंत तक जूझना था. वास्तव में उनके चाचा तारकनाथ के देहांत के बाद उनकी पत्नी ज्ञानादासुन्दरी ने इनके परिवार को उनके पैतृक घर से बाहर निकाल दिया था. जिसके लिए विवेकानंद ने 14 वर्षों तक केस लड़ा था ,और फिर अपने जीवन के आखिरी शनिवार को 28 जून 1902 के दिन उन्होंने कुछ मुआवजा भरकर ये केस बंद करवाया था.
स्वामी विवेकानन्द की रचनाए (Swami Ji’ written books)
स्वामी विवेकानन्द ने बहुत सी किताबे,आर्टिकल,पत्र जैसी अनुभवों की श्रंखलाये लिखी, जिनमे से कुछ उनके जीवन काल में ही छपी तो कुछ उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित की गयी. इनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार है :
वर्ष | रचना |
1896 | कर्म योग |
1896 (1896 में एडिशन) | राज योग |
1896 | वेदांत फिलोसफी:एन एड्रेस बिफोरदी ग्रेज्युएट फिलोसोफिकल सोसाइटी |
1897 | लेक्चर्स फ्रॉम कोलोंबो टु अल्मोरा |
1902 | वेदांत फिलोसोफी:लेक्टुरेस ऑन जनाना (jnana) योग |
रामकृष्ण परमहंस पर रचना | |
1901 | स्वामी विवेकानंद-माई मास्टर |
महेन्द्रनाथ गुप्ता-दी गोस्पेल ऑफ़ श्री रामकृष्ण (ट्रांसलेटेड बाई स्वामी निखिलानंद) | |
1898 | मूलर,एफमैक्स,रामकृष्ण-हिज लाइफ एंड सेइंग्स |
स्वामी विवेकानंद की मृत्यु (Swami Vivekananda’s Death)
1899 में अमेरिका से लौटते हुए वो बीमार हो गए, और उनकी बिमारी 2-3 वर्षों तक रही इसके बाद 4 जुलाई 1902 को उनका स्वर्गवास हो गया.
स्वामी विवेकानन्द के नाम पर धरोहर ( Monuments in name of Swami Vivekananda)
बेलूर मठ को विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस का अमूल्य धरोहर माना जाता हैं. कन्याकुमारी के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पर स्वामीजी का स्मारक बना हुआ हैं. इन दो सुप्रसिद्ध स्थानों के अलावा देश भर में उनके नाम पर कई हॉस्पिटल, कॉलेज, स्कूल, गली, चौराहे और एयरपोर्ट तक हैं. और अब तक उन पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं और मूवी बन चुकी हैं.
छत्तीसगढ़ में उनके नाम पर एयरपोर्ट हैं,जबकि मध्यप्रदेश के सागर में उनके नाम पर एक निजी विश्वविद्यालय भी हैं. जम्मू,नागपुर जैसे कई शहरों में उनके नाम पर घोषित-अघोषित हॉस्पिटल हैं. साथ ही कुछ संस्थाएं स्वामी विवेकानंद के नाम पर मेडिकल मिशन भी संचालित करती हैं.
स्वामी विवेकानंद का समाज को दिया योगदान (Contribution of Swami Ji towards Society)
- स्वामी विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के दिखाए मार्ग पर चलते हुए प्रेम,सद्भाव और समानता जैसे मूलभूत सिद्धांतों पर विशवास करते थे. स्वामीजी का मानना था कि मानवता का धर्म ही सबसे महत्वपूर्ण धर्म हैं,जिसमें शक्तिहीनों के हितों की रक्षा करना,गरीबों को भोजन उपलब्ध करवाना जैसे आवश्यक कार्य शामिल थे. उन्होंने हिंदुत्व को जिस तरीके से समझाया था,उससे पश्चिमी देशों में भारत और हिंदुत्व का काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ा.
- स्वामीजी का मानना था कि किसी भी देश के विकास के लिए ज्ञान और शिक्षा के विस्तार के साथ संस्कृतिक जड़ें मजबूत होना बहुत महत्वपूर्ण हैं. उन्होंने हिन्दू धर्म में आध्यात्म के साथ आधुनिक विज्ञान की महत्ता को जोड़ने की आवश्यकता भी समझी थी. उनके अनुसार धर्म भी एक प्रकार की समाज सेवा हैं. उन्होंने अंग्रेजों के कारण ईसाई धर्म के बढ़ते प्रचार को देखते हुए इसे रोकने के लिए ही रामकृष्ण मठ की स्थापना की थी.
- अमेरिका में ही विवेकानंदजी ने रामकृष्ण के विचारो का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया था. बाद में उन्होंने अपने अनुयायी सन्यासियों को समाज उत्थान के लिए भी भेजा,जिसमें निर्धनों की मदद करना,अशिक्षित को शिक्षा उपलब्ध करना जैसे आवश्यक कार्य शामिल थे. ये सभी काम किसी भी धार्मिक समुदाय या सन्यासियों द्वारा करना पहली बार था,जो कि समस्त पुरानी परम्पराओं को तोड़ रहा था. विवेकानंद अपने मिशन से दुनिया की भौतिक और आध्यात्मिक दोनों रूप से जरूरतों को पूरा करना चाहते थे.
- 1897 में वो भारत लौट आये,और यहाँ पर उनका भव्य स्वागत किया गया. पश्चिम में उनके सफलता भारत के लिए गौरव का विषय थी. और अब वे यहाँ काफी लोकप्रिय हो चुके थे. वो भारतीय आध्यात्म के बारे में ओजस्वी उद्बोधन देते थे,और साथ ही भारत के गिरती अवस्था की आलोचना भी करते थे. इस तरह के विरोधाभासी मतों का एक साथ समझने का अनुभव किसी भी भारतीय के लिए नया था. यहाँ की जाति व्यवस्था,शिक्षा का अभाव,महिलाओं की पिछड़ी स्थिति और पुराने अंध-विशवास जैसे कुछ मुद्दे थे जिन पर विवेकाकंद खुलकर अपने विचार रखते थे. साथ ही वेदों और उपनिषदों की व्याख्या वो बहुत ही सरल शब्दों में कर देते थे.
- उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा था की उन पुजारियों पर ध्यान मत दो जो भारत की प्रगति में बाधक हैं क्युकी वो कभी नहीं बदलेंगे,उनका हृदय परिवर्तन कभी नहीं होगा. जिससे कभी अंधविशवास में कमी नहीं आएगी. इंसान बनो देखो कैसे देश प्रगति करता हैं.क्या तुम मानवों से प्रेम करते हो? यदि हाँ! तो आओ और बेहतर केलिए लड़ो, पीछे ना देखो आगे देखो.
- विवेकानंदजी ने राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया था,जिनसे प्रेरित होकर ही 19 वी शताब्दी के अंत तक कई क्रांतिकारियों को सही दिशा मिली, फिर चाहे वो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हो या महात्मा गाँधी,विपिनचन्द्र पाल हो या गंगाधर तिलक,सबके लिए विवेकानंद एक आदर्श थे.
विवेकानंदजी के प्रेरक वाक्य (Famous and Inspiraing Quote’s of Swami Ji)
- सत्य को हजार तरीके से बताया जा सकता हैं फिर भी सत्य एक ही होगा.
- जब तक तुम खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक तुम भगवान पर विशवास नहीं कर सकते.
- तुम्हे अन्दर से बाहर की तरफ विकसित होना है. कोई तुम्हे पढ़ा नहीं सकता, कोई तुम्हे आध्यात्मिक नहीं बना सकता. तुम्हारी आत्मा के अलावा कोई और गुरु नहीं है.
- शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है. विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है. प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है.
- बस वही जीते हैं,जो दूसरों के लिए जीते हैं.