अभी हाल तक भारतीय इतिहास में अठारहवीं सदी को एक ‘अंधकार युग’ के रूप चित्रित किया जाता रहा था क्योंकि उस समय भारत में अव्यवस्था एवं अराजकता व्याप्त थी। कहा गया था कि इस सदी में मुगल साम्राज्य अपनी आंतरिक कमजोरियों और विदेशी आक्रांताओं की ठोकर से घराशायी हो गया, क्षेत्रीय शक्तियाँ कोई साम्राज्य स्थापित करने में असफल रहीं और सदी के अंत में ब्रिटिश सर्वोच्चता स्थापित हो जाने के साथ ही स्थायित्व कायम हो सका। इस अंधकार युग के लिए भारत में ब्रिटिश शासन एक वरदान साबित हुआ। दूसरे शब्दों में, 23 जून 1757 ई. को भारत के मध्य युग का अंत हुआ और आधुनिक युग का प्रारंभ हुआ।

किंतु इस प्रकार के विचारों को स्वीकार करना कठिन है। पहली बात यह कि भारतीय उपमहाद्वीप में मुगल साम्राज्य का प्रभाव न तो इतना गहरा था और न ही इतना व्यापक जितना कि बताया जाता है। इस उपमहाद्वीप का एक बहुत बड़ा भाग, विशेषकर उत्तर-पूर्वी तथा दक्षिणी भाग इसके बाहर थे और इसी तरह बहुत से सामाजिक समूह भी मुगलों के प्रभाव से बचे रहे। इसलिए अखिल भारतीय स्तर पर होनेवाले परिवर्तनों का विश्लेषण करने के लिए मुगल साम्राज्य के पतन को आधार बनाया जाना उचित नहीं है। सच बात यह है कि अखिल भारतीय साम्राज्यों के उत्थान तथा पतन की तुलना में क्षेत्रीय राजनैतिक शक्तियों की स्थापना अठारहवीं सदी की ज्यादा महत्वपूर्ण विशेषता थी।

मुगल साम्राज्य का पतन एक लंबी चलनेवाली प्रक्रिया थी, जिसमें बहुत-से कारकों ने योगदान दिया। 1739 ई. में नादिरशाह के आक्रमण ने पहले से जर्जर मुगल साम्राज्य को और कमजोर बनाया, किंतु आर्थिक संकट सहित अन्य कारकों ने भी मुगल-साम्राज्य-के पतन में भूमिका निभाई थी। यद्यपि मुगल साम्राज्य जीवित नहीं रह सका, किंतु इसकी संस्थाएँ एवं परंपराएँ क्षेत्रीय राज्यों और ब्रिटिश क्षेत्रों में निरंतर जारी रहीं। क्षेत्रीय शक्तियों का उदय इस सदी की दूसरी महत्वपूर्ण घटना है। क्षेत्रीय शक्तियों को तीन प्रकार के राज्य-समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है- प्रथम श्रेणी में हैदराबाद, बंगाल तथा अवध के उत्तराधिकारी राज्य थे जो कभी मुगल साम्राज्य के प्रांत थे तथा साम्राज्य से अलग होकर स्वतंत्र राज्य बन गये। दूसरी श्रेणी में जाटों, मराठों, सिखों तथा अफगानों के नये राज्य थे। तीसरे वर्ग में मैसूर, राजपूतों तथा केरल के ‘हिंदू राजनैतिक व्यवस्थावाले’ स्वतंत्र राज्य थे। अठारहवीं सदी की अंतिम और तीसरी महत्वपूर्ण घटना के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी का एक व्यापारिक कंपनी से राजनैतिक शक्ति के रूप में रूपांतरण हुआ।

 

(क) मुगल साम्राज्य का पतन (Fall of Mughal Empire)

मुगल साम्राज्य के पतन के संदर्भ में प्रायः माना जाता है कि मुगल सम्राटों तथा कुलीनों की व्यक्तिगत असफलताएँ, उनका दुराचार एवं विलासिता में लिप्त रहना मुगल साम्राज्य के पतन के मुख्य कारण थे। कुछ इतिहासकार मुगल शासन का चित्रण एक मुस्लिम शासन के रूप में करते हैं और मराठों, सिखों व बुंदेला के विद्रोहों को इस्लामी दमन के विरूद्ध हिंदू प्रतिक्रिया बताते हैं।

इस परंपरागत अवधारणा का विरोध करते हुए सतीशचंद्र तथा हरफान हबीब जैसे इतिहासकारों ने मुगल साम्राज्य के पतन को आर्थिक व्यवस्था के संकट के रूप में चित्रित किया है। सतीशचंद्र का मानना है कि जागीरदारी व्यवस्था के संकट के कारण मुगल साम्राज्य का पतन हुआ और ऐसा इसलिए हुआ कि जागीरदारों की संख्या बहुत अधिक थी, किंतु जागीरों की संख्या कम थी। इरफान हबीब के अनुसार मुगलों के अंतर्गत कृषि व्यवस्था और अधिक शोषणकारी हो गई थी जिसके कारण किसान विद्रोह हुए और साम्राज्य का स्थायित्व नष्ट हो गया। हो सकता है कि आर्थिक संकट और जागीरों के लिए संघर्ष मुगलों के पतन के कारण रहे हों, किंतु कुछ अन्य कारण भी थे जिन्हें का कारण माना जा सकता है- जैसे आंतरिक कमजोरियाँ और बाह्य आक्रमण।

सत्ता के लिए संघर्ष और औरंगजेब की गलत नीतियों ने मुगल साम्राज्य की राजनैतिक व्यवस्था को खोखला कर दिया था। परंतु मुगल साम्राज्य के दो मुख्य स्तंभ सेना और प्रशासन 1707 ई. तक पूर्णतः सक्रिय थे। उत्तराधिकार के युद्धों, मुगल दरबार के षड्यंत्रों, सैयद बंधुओं के उत्थान तथा कमजोर और कठपुतली शासकों के कारण 1707 से 1719 ई. तक साम्राज्य में अव्यवस्था फैली रही।

मुहम्मदशाह का 1719 से 1748 ई. तक का लंबा शासनकाल साम्राज्य को पुनः स्थापित करने के लिये पर्याप्त था, किंतु सम्राट की अयोग्यता और रंगीलेपन ने इस संभावना को भी समाप्त कर दिया। इस सम्राट के शासन के दौरान निजामुल-मुल्क ने वजीर के पद से त्यागपत्र देकर 1724 ई. में हैदराबाद के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। बंगाल, अवध और पंजाब ने भी इस पथ का अनुसरण किया और इस प्रकार साम्राज्य का उत्तराधिकारी राज्यों में विभाजन हो गया। इसका लाभ उठाकर मराठों ने अपने साम्राज्य-निर्माण की कल्पना को साकार करने के लिये पुरजोर प्रयास प्रारंभ कर दिया।

बाह्य चुनौतियाँ

ईरान के सम्राट नादिरशाह ने 1738-39 ई. में भारत पर आक्रमण किया। उसने शीघ्र ही लाहौर पर विजय प्राप्त कर ली तथा 13 फरवरी 1939 ई. को करनाल के युद्ध में मुगल सेना को पराजित कर दिया। मुगल सम्राट मुहम्मदशाह के सामने दिल्ली को बुरी तरह लूटा गया और कत्लेआम किया गया। उसकी लूट में सबसे बहुमूल्य वस्तुएँ मयूर सिहांसन तथा कोहिनूर हीरा थे। नादिरशाह ने मुगल साम्राज्य के सामरिक महत्व के काबुल सहित सिंधु नदी के पश्चिमी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।

नादिरशाह की मृत्यु के पश्चात् उसके सेनापति अहमदशाह अब्दाली ने 1748 से 1767 ई. तक भारत कई बार आक्रमण किये। अब्दाली ने 1761 ई. में सबसे महत्वपूर्ण विजय मुगलों के नहीं, मराठों के विरूद्ध दर्ज की, जिसे पानीपत के तीसरे युद्ध के नाम से जाना जाता है।

मुगल साम्राज्य के तेजी से होते क्षेत्रीय विखंडन के बिल्कुल विपरीत मुगल परंपरा जीवित रही। 1761 ई. के आते-आते मुगल साम्राज्य केवल दिल्ली तक रह गया था। परंतु सम्राट सम्मान इतना अधिक था कि चाहे कोई क्षेत्र प्राप्त करना हो या फिर सिंहासन या साम्राज्य, सबके लिए सम्राट की स्वीकृति लेनी पड़ती थी। यहाँ तक कि मराठों तथा सिखों के विद्रोही सरदारों ने भी कभी-कभी सम्राट को प्रभुत्व का उद्गम या स्रोत माना। 1783 ई. में सिखों ने मुगल बादशाह के दरबार में नजराना भेंट किया, इसके बावजुद कि उनके गुरुओं की मुगलों ने हत्या करवाई थी। अंग्रेजों और मराठों ने भी साम्राज्य पर उत्तराधिकार के अपने दावों को वैध ठहराने के लिए मुगल सम्राट को अधिकार में लेने के लिए संघर्ष किया। बक्सर के युद्ध के बाद कंपनी ने बादशाह शाहआलम द्वितीय को अपना पेंशन-भोगी बना लिया, परंतु दिल्ली पर उसने मराठों के संरक्षण को प्राथमिकता दी। परंतु 1803 ई. में जब अग्रेजों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया तो मुगल बादशाह पुनः अंग्रेजों के संरक्षण में आ गया।

 

मुगल प्रशासन के तौर-तरीकों को क्षेत्रीय राजनैतिक शक्तियों ने भी अपनाया। मुगल साम्राज्य के उत्तराधिकारी राज्यों के लिए तो यह स्वाभाविक भी था, किंतु मराठा जैसे राज्यों ने भी, जहाँ पर साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध लोकप्रिय आंदोलनों का प्रारंभ हुआ था, प्रशासन के मुगल तैर-तरीकों का अनुसरण किया।

किंतु इसका आशय यह नहीं है कि मुगल राजनैतिक व्यवस्था जीवित रही। नवीन राजनैतिक व्यवस्थाओं का चरित्र क्षेत्रीय था और उनमें से कोई भी अखिल भारतीय स्तर का चरित्र ग्रहण नहीं कर सकी। कुछ पुरानी संस्थाओं के साथ नवीन राजनैतिक व्यवस्थाओं को क्षेत्रीय शासकों और बाद में अग्रेजों ने पुनः एकताबद्ध किया। औपनिवेशिक व्यवस्था के अंतर्गत पुरानी मुगलीय संस्थाओं ने भिन्न प्रकार के कार्यों को संपन्न किया गया। भू-राजस्व व्यवस्था लगभग पहले ही के समान थी, परंतु उपनिवेशवाद के अंतर्गत बड़े पैमाने पर भारत की संपदा का निष्कासन हुआ। ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा संस्थाओं की निरंतरता पर बल देने का उद्देश्य मात्र यह साबित करना है कि ब्रिटिश शासक भी उपने परवर्तियों से भिन्न नहीं थे।

(ख) क्षेत्रीय राजनैतिक व्यवस्थाओं का उदय (Rise of Regional Political System)

मुगल साम्राज्य के पतन के साथ-साथ क्षेत्रीय राजनैतिक व्यवस्थाओं का उदय अठारहवीं सदी की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता थी। इस समय साधारणतः तीन प्रकार के राज्यों का उदय हुआ- प्रथम उत्तराधिकारी राज्य, जो मुगल साम्राज्य से टूटकर अलग हो गये। दूसरे नये राज्य, जिनकी स्थापना मुगलों के विरुद्ध विद्रोहियों द्वारा की गई, और तीसरे नये क्षेत्रीय स्वतंत्र राज्य।

उत्तराधिकारी राज्य

हैदराबाद, बंगाल तथा अवध ऐसे तीन राज्य थे जहाँ मुगलों के प्रांतीय गवनर्नरों ने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की थी। इन उत्तराधिकारी क्षेत्रीय राज्यों ने केंद्र के साथ संपर्कों को बनाये रखा तथा मुगल परंपराएँ भी जारी रहीं। जिस समय नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया तो अवध तथा हैदराबाद ने मुगल शासकों की सहायता भी की। इसलिए इस समय में राजनैतिक व्यवस्था में होनेवाले परिवर्तनों को ‘पतनशील’ बताने की अपेक्षा ‘रूपांतरण’ कहना उचित होगा। मुगलों के संस्थात्मक ढाँचे के अंतर्गत एक नवीन राजनैतिक व्यवस्था को निर्मित किया गया।

हैदराबाद

दकन में हैदराबाद के स्वतंत्र राज्य की स्थापना 1724 ई. में एक प्रमुख कुलीन निजामुल-मुल्क ने उस समय की थी जिस समय दिल्ली दरबार पर सैयद बंधुओं का नियंत्रण था। दकन में स्वतंत्र राज्य बनाने का सपना सबसे पहले जुल्फिकार खाँ ने देखा था। 1708 ई. में बहादुरशाह की उदारता के कारण वह दकन का सूबेदार बना था। वह दकन का कार्य अपने नायब दाऊद खाँ के माध्यम से चलाता था। उसके मरने के बाद सैयद बंधुओं के प्रयास से 1715 ई. में चिनकिलिच खाँ को दकन का वायसराय बनाया गया।

निजामुल-मुल्क चिनकिलिच खाँ ने सैयदों को हटाने में मुहम्मदशाह की सहायता की और इसके बदले में उसे दकन की सूबेदारी मिली। 1720 से 1722 ई. तक उसने प्रशासन को पुनर्गठित किया तथा राजस्व व्यवस्था को सुदृढ़ बनाया। 1722 से 1724 ई. तक संक्षिप्त समय के लिए दिल्ली में वजीर रहने के बाद सम्राट और उसके स्वार्थी सरदारों के कारण उसने पुनः दकन लौटने का निर्णय किया। वजीर के रूप में उसने मालवा और गुजरात को दकन की सूबेदारी में सम्मिलित करवा लिया। 1723 ई. के अंत में वह शिकार के बहाने दकन की ओर प्रस्थान कर गया और हैदराबाद राज्य की नींव रखी।

निजाम के इस कार्य से मुहम्मदशाह बहुत क्रोधित हुआ। उसने मुबारिज खाँ को दकन का पूर्णरूपेण सूबेदार नियुक्त कर आदेश दिया कि वह निजमामुल्क को जिंदा या मुर्दा दरबार में उपस्थित करे। निजाम मुबारिज खाँ से अधिक शक्तिशाली था। उसने अक्टूबर, 1724 ई. को शकूर खेड़ा के युद्ध में मुबारिज खाँ को हरा कर मार डाला और दकन का स्वामी बन गया। विवश होकर सम्राट ने निजामुलमुल्क को दकन का सूबेदार बना दिया और उसे ‘आसफजाह’ की उपाधि भी दी।

यद्यपि निजामुल-मुल्क ने मुगल सम्राट के प्रति अपनी राजभक्ति को निरंतर बनाये रखा, लेकिन व्यवहारतः उसने एक स्वतंत्र शासक की तरह युद्ध किया, शांति स्थापित की, उपाधियाँ दी और दिल्ली के संदर्भ के बिना जागीरें बाँटी। राजस्व व्यवस्था में सुधार, जमींदारों पर नियंत्रण, हिंदुओं के प्रति सहिष्णुता ;पूरनचंद जैसों को दीवानद्ध निजाम-उल-मुल्क की प्रशंसनीय नीतियाँ थीं। मराठों के कारण निजाम को कुछ समय कठिनाई हुई। मराठा सेनाएँ अपनी इच्छानुसार राज्य पर आक्रमण करतीं और असहाय राज्य के लोगों से चौथ वसूल करतीं। उसने नादिरशाह के विरुद्ध करनाल के युद्ध में भाग लिया था। परंतु 1748 ई. में उसकी मृत्यु के बाद हैदराबाद की कमजोरियाँ मराठों एवं विदेशी कंपनियों के सामने स्पष्ट हो गईं।

निजाम-उल मुल्क के पुत्र नासिर जंग और पौत्र मुजफ्फर जंग के बीच उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ। डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों ने इस अवसर का लाभ उठाया और मुजफ्फर जंग का समर्थन किया। इस सहायता के बदले मुजफ्फर जंग ने फ्रांसीसियों को काफी मोटी रकम एवं उपहारस्वरूप क्षेत्र दिया।

बंगाल

व्यवहार में स्वतंत्र तथा सिद्धांततः दिल्ली की राजसत्ता के प्रति राजभक्ति बंगाल के नवाबों के शासन की विशेषता थी। 1717 ई. में मुगलों की सत्ता के अधीन मुर्शिदकुली खाँ बंगाल का गवर्नर बना, परंतु 1700 ई. के बाद से ही दिल्ली के साथ उसका रिश्ता नजराना भेजने तक ही सीमित था, जब उसे बंगाल में दीवान नियुक्त किया गया था। औरंगजेब के समय से ही मुर्शिदकुली खाँ को बंगाल की दीवानी और नायब गवर्नरी का पद मिला हुआ था। पहले राजकुमार अजीमुश्शान के अधीन, फिर राजकुमार फर्रुखसियर के अधीन 1713 ई. में मुर्शिदकुली खाँ को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया था।

मुर्शिदकुली खाँ एक कुशल शासक था, उसके अधीन बंगाल ने व्यापार औेर वाणिज्य के क्षेत्र में बहुत उन्नति की। उसने बंगाल को आंतरिक व बाहरी खतरे से मुक्त करके शांति स्थापित की और अपने शासन के दौरान होनेवाले विद्रोहों का सफलतापूर्वक दमन किया।

मुर्शीदकुली खाँ की 1727 ई. में मृत्यु के बाद उसका दामाद शुजाउद्दीन नवाब बना, जिसने 1739 ई. तक शासन किया। 1733 ई. में सम्राट मुहम्मदशाह ने बिहार का कार्यभार भी उसी पर डाल दिया था। 1739 ई. में शुजाउद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सरफराज खाँ नवाब बना, किंतु 1740 ई. में बिहार के नायब सूबेदार अलीवर्दी खाँ ने अप्रैल 1740 ई. में सरफराज खाँ को घेरिया के युद्ध में हराकर मार डाला और बंगाल, बिहार और उड़ीसा का नवाब बन गया। उसने सम्राट को 2 करोड़ रुपया नजराना देकर सम्राट की अनुमति भी प्राप्त कर ली। 1756 ई. में अपने दादा अलीवर्दी खाँ की मुत्यु के बाद सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब हुआ।

बंगाल के नवाबों ने लंबे समय तक बंगाल में शांति और सुव्यवस्था बनाये रखी जिससे कृषि, व्यापार एवं उद्योगों को बढ़ावा मिला। नवाबों ने बिना भेदभाव के हिंदुओं और मुसलमानों को सार्वजनिक सेवाओं में भरती की और कई सैन्य पदों पर बंगालियों की नियुक्ति की, जिनमें ज्यादातर हिंदू थे। बंगाल के नवाबों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बार-बार सैन्य-शक्ति का प्रयोग करने की धमकियों के बावजूद अपनी स्वतंत्रता को कठोरता के साथ बनाये रखने का प्रयास किया और अपने प्रभुत्ववाले इलाकों में विदेशी कंपनियों पर कड़ी नजर रखी। लेकिन अंत में, कंपनी से उत्पन्न होनेवाले खतरों को कम आँकना, उसे मात्र एक व्यापारिक कंपनी समझना और सेना की मजबूती की ओर ध्यान न देना नवाबों को महँगा पड़ा और उन्हें कंपनी के हाथों पराजित होना पड़ा। अंततः 1757 ई. में प्लासी के युद्ध में अग्रेजों की विजय ने भारत के साथ अंग्रेजों के संबंधों के नये युग का सूत्रपात हुआ।

अवध

अवध के स्वतंत्र राज्य का संस्थापक सआदत खाँ बुरहानुल-मुल्क था, जो 1722 ई. में अवध का सूबेदार नियुक्त किया गया था। सआदत खाँ शिया था और निशापुर के सैयदों का वंशज था। 1720 ई. में वह बयाना का फौजदार नियुक्त हुआ। इसने सैयद बंधुओं के विरुद्ध षड्यंत्र में भाग लिया, जिससे खुश होकर सम्राट ने उसे पहले पंचहजारी, फिर सातहजारी मनसब और ‘बुहानुलमुल्क’ की उपाधि दी। 1720-22 ई. तक वह आगरा का गवर्नर भी रहा, जिसका शासन वह नीलकंठ नागर के द्वारा चलाया करता था। बाद में जब उसे अवध का गवर्नर नियुक्त किया गया तो उसने अवध में स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की स्थापना की।

सआदत खाँ एक साहसी, ऊर्जावान, लौह-इच्छाशक्तिवाला बुुद्धिमान शासक था। उसने अवध के उदंड अराजक जमींदारों को अपने अधीन कर एक नई भूमि-व्यवस्था को लागू किया, जिससे किसानों को जमीदारों के शोषण के विरुद्ध संरक्षण मिला। जागीरदारी व्यवस्था में सुधार किया गया और स्थानीय उच्च लोगों को जागीरें देकर उनको प्रशासन एवं सेना में उच्च स्थान दिया गया। 1739 ई. में सआदत खाँ को नादिरशाह के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली बुलाया गया, जहाँ वह बंदी बना लिया गया। उसने नादिरशाह को दिल्ली पर आक्रमण करने का न्यौता दिया, किंतु दाँव उल्टा पड़ा और उसे विष खाकर आत्महत्या करनी पड़ी।

सआदत खाँ की मृत्यु के बाद (1739-1754 ई.) में उसका भतीजा और दामाद सफदरजंग अवध का नवाब बना। सम्राट मुहम्मदशाह ने एक फरमान द्वारा सफदरजंग को अवध का नवाब घोषित कर दिया। सफदर जंग ने सआदत खाँ की नीति का सफलतापूर्वक अनुसरण करते हुए जमींदारों का कठोरता से दमन किया। बाद में, उसने पेशवा के साथ एक समझौता किया, जिसके द्वारा पेशवा को अहमदशाह अब्दाली के खिलाफ मुगल साम्राज्य की मदद करना था और उसे बंगश पठानों और राजपूत राजाओं जैसे आंतरिक विद्रोहियों से बचाना था। करार पूरा हो जाने पर सफदर जंग द्वारा पेशवा को 50 लाख रुपये तथा पंजाब, सिंध और उत्तर भारत के कई जिलों का चौथ दिया जानेवाला था। इसके अलावा, पेशवा को आगरा तथा अजमेर का सूबेदार भी बनाया जाना था। परंतु पेशवा की अदूरदर्शिता से यह समझौता विफल हो गया क्योंकि पेशवा दिल्ली में सफदरजंग के विरोधियों से मिल गया।

बंगाल एवं हैदराबाद के नवाबों की भाँति अवध के नवाब भी अपने दृष्टिकोण में सांप्रदायिक नहीं थे। उन्होंने उच्च पदों पर नियुक्ति में निष्पक्षता की नीति अपनाई और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया। सफदरजंग के समय में सर्वोच्च पद एक हिंदू महाराजा नवाब राय के पास था।

1748 ई. में मुगल सम्राट ने सफदरजंग को अपना वजीर नियुक्त किया और उसके उत्तराधिकारी ‘नवाब वजीर’ कहे जाने लगे। इन नवाबों के काल की शांति और आर्थिक समृद्धि के परिणामस्वरूप अवध दरबार के आसपास एक विशिष्ट ‘लखनऊ संस्कृति’ का विकास हुआ। 1819 ई. में इस वंश के सातवें शासक सआदत खाँ ने अवध के ‘राजा’ की उपाधि धारण की।

नये विद्रोही राज्य

यदि अठारहवीं सदी के इतिहास की दो मुख्य घटनाएँ मुगल शक्ति का पतन एवं औपनिवेशिक शासन की स्थापना थी, तो तीसरी महत्वपूर्ण घटना क्षेत्रीय राज्यों का उदय एवं पतन था। इन क्षेत्रीय राज्यों की स्थापना मराठों, सिखों, जाटों एवं अफगानों ने मुगलों के विरुद्ध विद्रोह करके की थी। संपूर्ण देश को विघटित करनेवाली इन तमाम शक्तियों पर नियंत्रण रखना मुगल शासकों के लिए संभव नहीं रह गया था।

मराठा राज्य

क्षेत्रीय राज्यों में सबसे सबसे महत्वपूर्ण था- मराठा राज्य का उदय। अठारहवीं सदी के बिल्कुल मध्य में भारत का अधिकतर भू-माग मराठों के राजनैतिक शासन के अधीन हो गया था। मराठों में राजनीतिक जागरण एवं संगठन की पृष्ठभूमि का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने किया था। मराठा राज्य व्यवस्था की मुख्य विशेषता पेशवाओं या प्रधानमंत्रियों का आधिपत्य था, जिसका विकास बालाजी विश्वनाथ के शासनकाल के दौरान हुआ था। वह शिवाजी के पौत्र साहू का एक वफादार अघिकारी था। 1707 ई. में साहू मुगलों की जेल से छूटकर मराठा राज्य का राजा बना था। उसके शासन के दौरान पेशवा की शक्ति में तेजी के साथ वृद्धि हुई और मराठा सम्राट नाम मात्र का शासक रह गया। 1702 ई. में बालाजी विश्वनाथ की मुत्यु के बाद उसका पुत्र बाजीराव पेशवा बना।

इस समय तक मराठा क्षेत्रीय शक्ति न रहकर एक विस्तारवादी शक्ति बन गये थे। मराठा सरदारों पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए बाजीराव (1740 से 1761 ई.) ने स्वयं सैनिक अभियानों का नेतृत्व किया और दूसरे क्षेत्रों के साथ-साथ गुजरात और मालवा के उपजाऊ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। दुर्भाग्यवश वह दकन की शक्ति हैदराबाद के शासक निजामुल-मुल्क के साथ उलझ गया।

बाजीराव की सेनाओं ने निजाम की सेनाओं को दो बार निर्णायक रूप से पराजित किया, परंतु दक्षिणी प्रांतों पर अधिकार करने के लिए दोनों के बीच संघर्ष जारी रहा। जब अंग्रेज इस संघर्ष में कूद पड़े तो यह संघर्ष त्रिकोणीय हो गया जो अंग्रेजों के लिए बड़ा ही लाभकारी सिद्ध हुआ।

बालाजी राव के शासन के दौरान मराठा शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर थी। भारत का कोई ऐसा भाग नहीं था जिसने मराठों की विजय के साथ लूट को न देखा हो। दक्षिण भारत को अपने अधीन करना उनके लिये आसान रहा। 1760 ई. में हैदराबाद की पराजय के बाद उसने अपने बहुत से क्षेत्रों को मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूली के लिये छोड़ दिया। मैसूर तथा अन्य राज्यों ने उनको नजराना भेंट किया। पूरब में बंगाल की लगातार विजयों से उनको 1751 ई. में उड़ीसा मिल गया। मध्य भारत में बाजीराव ने मालवा, गुजरात तथा बुंदेलखंड के जिन क्षेत्रों को विजित किया, उनको शेष मराठा साम्राज्य के साथ भलीभाँति मिला लिया गया।

मराठा शासकों ने अपनी विस्तारवादी नीति के क्रम दिल्ली के मुगल शासकों पर भी अपना प्रभाव स्थापित किया और इमाद-उल-मुल्क को साम्राज्य का वजीर घोषित किया, परंतु व्यवहारिक तौर पर सभी प्रकार से शासक मराठे ही थे। किंतु मराठे केवल दिल्ली पर अधिकार करने से ही संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने अपनी लालची आँखों से पंजाब की ओर देखा, जिस पर इस समय अब्दाली का एक सामंत शासन कर रहा था। यही उनकी भयंकर भूल थी। साम्राज्य के इस भाग को विजित करने और इसका प्रशासन चलाने की प्रक्रिया में कई शक्तियाँ मराठों की शत्रु बन गई। इमाद-उन-मुल्क के अतिरिक्त मुगल कुलीनों को सत्ता संघर्ष में मराठों ने पराजित किया था। उनकी विजयों के कारण जाट और राजपूत शासक भी उनसे अलग-थलग हो गये थे। विदेशी आक्रमणों के कारण सिख पहले ही निराश हो चुके थे, इसलिए पंजाब को अपने साम्राज्य में शामिल करने के मराठों के प्रयासों में सहायता करने के लिए कोई भी तैयार नहीं था।

 

पानीपत का तृतीय युद्ध, 1761 ई.

अब्दाली भारत को लूट-खसोट करके वापस लौट गया था, परंतु मराठों की चुनौतियों का सामना करने के लिए उसने भारत लौटने का फैसला किया। रूहेलखंड के सरदार तथा अवध के नवाब अब्दाली के साथ मिल गये क्योंकि मराठा सेनाओं ने उनके क्षेत्रों को भी रौंद डाला था। इन सबका परिणाम यह हुआ कि पानीपत के यद्ध में अब्दाली का सामना अकेले मराठों को करना पड़ा।

पानीपत का तृतीय युद्ध 14 जनवरी 1761 ई. को हुआ। युद्ध के मैदान में 28,000 सैनिकों के साथ-साथ सेनापति तथा पेशवा का छोटा बेटा विश्वासराव और चचेरा भाई सदाशिव राय भाऊ मारे गये। इस दर्दनाक पराजय का समाचार सुनकर पेशवा बालाजी बाजीराव अधिक समय तक जीवित न रह सका।

भारत पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए पानीपत का तीसरा युद्ध निर्णायक साबित हुआ। मराठों की इस पराजय ने उनके मराठा साम्राज्य स्थापित करने की अभिलाषा को मिट्टी में मिला दिया। मराठों की पराजय से अग्रेजों को बंगाल और फिर भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए पर्याप्त अवसर मिल गया।

पेशवा माधवराव (1761-1772 ई.) ने सफलतापूर्णक उत्तर के अपने पुराने शत्रुओं रूहेलों, राजपूतों, जाटों और दक्षिण में मैसूर व हैदराबाद राज्य को रौंद डाला। इससे थोड़ी देर के लिए लगा कि मराठों का भाग्य पुनः उदित हो गया है। परंतु माधवराव की 1772 ई. में 28 वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाने के कारण मराठों का सपना निर्णायक रूप से टूट गया। अंग्रेजों के हाथों प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध में मराठों की पराजय ने शक्ति के लिए होनेवाले मराठा गुटों के बीच होनेवाले षड़यंत्रों एवं संघर्षों को भी स्पष्ट कर दिया।

मराठा राज्य की कमजोरियाँ

मराठों की प्रशासकीय व वित्तीय कमजोरियाँ उनकी पराजय का कारण बनीं। लूट पर निर्भरता मराठा व्यवस्था की एक कमजोरी थी। मराठों ने आमदनी बढ़ाने के लिए लूट को चौथ का संस्थागत रूप दिया और यह मराठा राज्य व्यवस्था का एक वैध हिस्सा बन गई। मराठों ने मुगल प्रशासनिक व्यवस्था के कुछ भाग को अपनाया, परंतु अतिरिक्त उत्पादन की वसूली के लिए अपनी ही तकनीकियों का सहारा लिया जिसमें व्यापक प्रशासनिक ढाँचे का अभाव था। भलीभाँति परिभाषित प्रांतीय प्रभुत्व के अभाव में मराठे अपने प्रभाव को आवश्यक तालमेल के साथ सुसंगठित नहीं कर सके और परिणामस्वरूप उनकी पराजय हुई। इसके अलावा, मराठे सैन्य क्षेत्र में उन्नत तकनीक का प्रयोग करने में भी पीछे रहे और उस समय की नवीन प्रगतियों, जैसे तोपखाना, छोटे हथियार, विशेषकर कठोर बंदूकें और उन्नत अग्नि हथियारों आदि को नहीं अपनाये।

सिख

पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में नये लोकतांत्रिक धर्म सिखवाद का प्रसार सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पंजाब प्रांत में हुआ। अन्य विद्रोहियों की तुलना में सिख विद्रोही मुगलों के साथ समझौता करने के इच्छुक नहीं थे। सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानक थे। आगामी दो सदियों तक यह व्यक्ति विशेष तक सीमित रहा, परंतु दसवें एवं अंतिम गुरु गोविंदसिंह ने इस पंथ के अनुचरों में राजनैतिक अभिलाषाओं तथा संघर्षशीलता को पैदा करके इसको एक सुसंगठित समुदाय में बदल दिया गया। औरंगजेब के विरुद्ध गुरु गोविंदसिंह और औरंगजेब के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध बंदा बहादुर (1708-1716 ई.) के विद्रोह का मुगलों ने पूरी ताकत के साथ दमन किया। बंदाबहादुर को 1715 ई. में फर्रुखसियर के समय में फाँसी दे दी गई।

1715 ई. में बंदा बहादुर के विद्रोह के दमन के बाद, लगभग एक चौथाई शताब्दी तक सिख शांत रहे। परंतु मुगल साम्राज्य के बुरे दिन सिखों के लिए लाभकारी सिद्ध हुए। नादिरशाह और अब्दाली के आक्रमण उत्तरी भारत के लिए विनाशकारी थे, किंतु अब्दाली तथा उसके समर्थकों के वापस लौट जाने के बाद सिखों ने तीव्रता के साथ पंजाब में अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया और 12 मिसलों या संघों ने मिलकर पंजाब प्रांत का गठन किया। इनमें भी पाँच अत्यंत शक्तिशाली मिसलें थीं- भंगी, अहलूवालिया, सुकरचकिया, कन्हाई तथा नक्कई। इसमें भंगी मिसल सर्वाधिक शक्तिशाली थी। इसका अमृतसर, लाहौर और पश्चिमी पंजाब के कुछ इलाकों पर अधिकार था। सुकरचकिया मिसल के प्रधान महासिंह थे। अठारहवीं सदी के अंत में 1792 ई. में महासिंह की मृत्यु के बाद रणजीतसिंह ने एक महत्वपूर्ण सिख साम्राज्य स्थापित किया। किंतु सिख राज्य एक धार्मिक राज्य नहीं था जैसा कि बताया जाता रहा है। यह भी उस समय देश के अन्य भागों की तरह एक धर्म निरपेक्ष राज्य था।

जाट

जाट एक खेतिहर जाति थे जो दिल्ली-आगरा क्षेत्र में बसे थे। 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मुगल आधिपत्य के विरूद्ध दिल्ली, मथुरा तथा आगरा के समीपवर्ती क्षेत्रों मे कृषि-कार्य मे लगे जाट किसानों ने विद्रोह कर मुगल साम्राज्य के लिए संकट उत्पन्न कर दिया था। विद्रोह तो दबा दिया गया, किंतु मुगल शक्ति के पतन के साथ-साथ जाट शक्ति में वुद्धि हुई और एक किसान विद्रोह उपद्रव में परिवर्तित हो गया जो इस क्षेत्र के अन्य गुटों सहित राजपूत जमींदारों के लिए विनाशकारी साबित हुआ। किसान विद्रोह के बवजूद भी जाट राज्य का ढाँचा सामंती बना रहा, जिसके अंतर्गत प्रशासनिक तथा राजस्व शक्तियाँ जमींदारों के पास थीं और सूरजमल के शासन में भू-राजस्व मुगलों से कहीं अधिक था।

चूड़ामन ने थीम के स्थान पर एक सुदृढ़ दुर्ग बना लिया और इस क्षेत्र में मुगल सत्ता को चुनौती दी। 1721 ई. में आगरा के सूबेदार जयसिंह के अधीन मुगल सेना ने इसके विरुद्ध अभियान किया तथा दुर्ग को जीत लिया। चूड़ामन ने आत्महत्या कर ली।

इसके बाद चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह ने जाटों का नेतृत्व सँभाला। नादिरशाह के आक्रमण के बाद पैदा हुई अव्यवस्था का लाभ उठाकर बदनसिंह ने आगरा तथा मथुरा पर भी अधिकार कर लिया और भरतपुर राज्य की नींव डाली। अहमदशाह अब्दाली ने परिस्थिति से समझौता करते हुए बदनसिंह को ‘राजा’ की उपाधि दे दी, जिसमें उसने ‘महेंद्र’ शब्द भी जोड़ दिया।

1755 ई. में सूरजमल इस जाट राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। उसने इस जाट राज्य को चतुराई, सूक्ष्मबुद्धि तथा स्पष्ट दृष्टि दी। उसे ‘जाटों का अफलातून’ कहा जाता था। उसने अपनी सेना को शक्तिशाली बनाकर डींग, कुंबेर, वेद तथा भरतपुर में चार दुर्ग स्थापित कर लिया। परंतु 1763 ई. में सूरजमल की मुत्यु के बाद जाट राज्य का पतन हो गया।

रूहेलखंड

रुहेलखंड तथा फर्रूखाबाद में बंगश पठानों के राज्यों की स्थापना 17वीं सदी में अफगानों के विस्थापन का परिणाम थी। नादिरशाह के आक्रमण के बाद उत्तर मारत में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई। इसका लाभ उठाते हुए मुहम्मद खाँ ने रुहेलखंड के एक छोटे राज्य की स्थापना की। यह क्षेत्र हिमालय की तलहटी में उत्तर में कुमायूँ पहाडि़यों तथा दक्षिण में गंगा नदी के बीच स्थित था। रुहेलों को, जिनको उनके क्षेत्र रहेलखंड के नाम से जाना जाता था, क्षेत्र की अन्य शक्तियों, जैसे- जाटों और अवध के शासकों तथा बाद में मराठों एवं अंग्रेजों के हाथों पराजित होना पड़ा।

फर्रूखाबाद

दिल्ली से पूरब की ओर फर्रूखाबाद में मुहम्मद खाँ बंगश ने, जो एक अफगान सरदार था, एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। राजनैतिक रूप से अफगानों की भूमिका नकारात्मक थी। उन्होंने न केवल मुगल साम्राज्य के पतन की गति को तीव्र किया, बल्कि अवध के नवाब को पराजित करने के लिए अब्दाली की मदद की जो भारत में अंग्रेजों के प्रसार को रोक सकता था।

राजपूत

18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के बिखराव का लाभ उठाकर अन्य शासकों की भांति राजपूत राजाओं ने भी स्वयं को केंद्रीय नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र कर लिया। किंतु राजपूत राजाओं में कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं था कि सर्वोच्च शक्ति की स्थिति को प्राप्त करने के लिए मराठों एवं अंग्रेजों को चुनौती दे सके। प्रायः सभी राजपूत राज्यों ने प्रसारवादी नीति अपनाई और जब भी संभव हुआ अपने पड़ोसी को अपने राज्य में मिला लेने का प्रयास किया।

दिल्ली दरबार में सत्ता के लिए होनेवाले संघर्षों एवं षड्यंत्रों में राजपूतों ने भाग लिया और मुगल शासकों से आकर्षक तथा प्रभावशाली सूबेदारियाँ प्राप्त की। फर्रुखसियर और मुहम्मदशाह के शासनकाल में अंबर और मारवाड़ के शासकों को आगरा, गुजरात और मालवा जैसे महत्वपूर्ण मुगल प्रांतों का राज्यपाल नियुक्त किया गया था।

राजपूत शासकों में अंबर का राजा सवाई जयसिंह (1681-1743 ई.) बहुत लोकप्रिय था जिसने जयपुर शहर की स्थापना की और दिल्ली और जयपुर, उज्जैन, वाराणसी और मथुरा में वेधशालाओं का निर्माण करवाया। उन्होंने खगोलीय अवलोकन के लिए ‘‘जीज मुहम्मदशाही’’ शीर्षक से तालिकाओं का एक सारिणी तैयार किया था।

किंतु अधिकांश राजपूत राज्य पहले की ही तरह लगातार पारस्परिक झगड़े और षड्यंत्रों में शामिल रहे, जैसे- मारवाड़ के अजीतसिंह को उनके बेटे ने ही मार डाला। राजपूतों के आंतरिक झगड़ों के कारण वे अपनी स्थिति सुदृढ़ नहीं कर सके तथा मराठों के हस्तक्षेप का शिकार हो गये।

क्षेत्रीय स्वतंत्र राज्य

तीसरी श्रेणी के इस प्रकार के राज्यों में मैसूर, राजपूत राज्य एवं केरल जैसे स्वतंत्र राज्यों की गणना की जा सकती है-

मैसूर

18वीं सदी के मध्य में दक्षिण भारत में हैदराबाद के बगल में मैसूर राज्य का उदय हुआ। मैसूर राज्य ने विजयनगर साम्राज्य के अंत के बाद से अपनी अनिश्चित स्वतंत्रता को संरक्षित किया था और केवल मुगल साम्राज्य का एक हिस्सा था।

अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में दो मंत्रियों नंजराज (सर्वदिकारी)और देवराज (दुलवाई) ने मैसूर में राजा चिक्का कृष्णराज को मात्र कठपुतली बनाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया था। किंतु मैसूर की शक्ति की आधारशिला हैदरअली के द्वारा रखी गई, जिसको सुसंगठित उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने किया।

हैदरअली यद्यपि मैसूर राज्य की सेना में एक छोटा अधिकारी था, परंतु उसने अपनी योग्यता के बल पर एक सेनापति के पद तक प्रगति की। हैदरअली की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी एक आधुनिक शक्तिशाली सेना का गठन, जिसके फलस्वरूप उसने अपनी सेना को पश्चिमी तरीकों से प्रशिक्षित करने और शस्त्र-भंडारण के लिए फ्रांसीसी विशेषज्ञों को भरती किया। उसने फ्रांसीसी विशेषज्ञों की मदद से 1755 ई. में डिंडीगल में एक आधुनिक शस्त्रागार की स्थापना की। हैदर शीघ्र ही इतना शक्तिशाली हो गया कि 1761 ई. में उसने नंजराज को उखाड़ फेंका और मैसूर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया।

हैदर ने न केवल विद्रोही पोलिगारों और जमींदारों पर पूर्ण नियंत्रण रखा, बल्कि मैसूर राज्य की सीमाओं में मलाबार तथा कर्नाटक के संपन्न तटीय क्षेत्रों को सम्मिलित कर लिया। बिल्कुल मध्य में होने के कारण हैदरअली को इस क्षेत्र की दूसरी शक्तियों जैसे मराठों, हैदराबाद के निजाम तथा नई उभरती शक्ति अंग्रेजों के संघर्ष करना पड़ा। उसने 1769 ई. में मद्रास के निकट अंग्रेजी सेनाओं के हराया। 1782 ई. में दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध के दौरान उसकी मृत्यु हो गई और उसका बेटा टीपू मैसूर का सुल्तान बना। टीपू ने भी अपने पिता द्वारा शुरू की गई नीतियों का अनुसरण किया।

केरल

अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में केरल कई सामंतों और राजाओं में विभाजित था। वर्तमान केरल राज्य का गठन तीन राज्यों कोचीन, त्रावणकोर तथा कालीकट को मिलाकर किया गया है। परंतु मैसूर राज्य का प्रसार केरल की स्थिरता के लिए विनाशकारी साबित हुआ। हैदरअली ने 1766 ई. में केरल पर आक्रमण कर मलाबार तथा कालीकट पर अधिकार कर लिया। त्रावणकोर अब दक्षिण का एक महत्त्वपूर्ण एवं सुरक्षित राज्य था।

त्रावणकोर का राज्य उस समय महत्वपूर्ण हो गया जब 1729 ई. के बाद राजा मार्तंडवर्मा ने मजबूत तथा पश्चिमी तरीकों से प्रशिक्षित एवं आधुनिक हथियारों से लैस आधुनिक सेना की मदद से सामंत सरदारों का दमन किया और डचों को केरल से बाहर कर दिया। मार्तंड वर्मा ने अपने राज्य के विकास के लिए सिंचाई, परिवहन व संपर्क साधनों का विकास किया और विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन दिया।

मार्तंड वर्मा का उत्तराधिकारी रामवर्मा एक महान् रचनाकार एवं विद्वान् था तथा उसे पश्चिम का भी ज्ञान था। उसने व्यक्तिगत रूप से रुचि लेकर अपनी अपनी राजधानी त्रिवेंद्रम को शिक्षा तथा कला का केंद्र बना दिया।

क्षेत्रीय राजनीति की कमजोरियाँ

क्षेत्रीय राज्य मुगल सत्ता को नष्ट करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली साबित हुए, परंतु इनमें से कोई भी मुगल साम्राज्य के स्थान पर अखिल भारतीय स्तर पर एक स्थिर राजनैतिक व्यवस्था देने में सक्षम नहीं हो सका। दरअसल इन क्षेत्रीय राज्यों की राजनैतिक व्यवस्थाओं में ही कमजोरियाँ निहित थीं। यद्यपि इनमें से कुछ ने विशेषकर, मैसूर ने आघुनिकीकरण की ओर प्रयास किया, किंतु कुल मिलाकर ये तकनीकी रूप से पिछडे हुए थे। ये राज्य आर्थिक गतिरोघ की उस प्रक्रिया को भी नहीं बदल सके जिसने मुगल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था को चैपट कर दिया था। जागीरदारी संकट और गहरा हो गया क्योंकि कृषि से होनेवाली आमदनी में गिरावट आई और अतिरिक्त पैदावार पर हक जमानेवालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई।

(ग) ब्रिटिश शक्ति का उदय (Rise of British Power)

अठारहवीं सदी की राजनीति की सबसे निर्णायक तथा दूरगामी विशेषता थी सदी के मध्य में ईस्ट इंडिया कंपनी का एक व्यापारिक कंपनी से राजनैतिक शक्ति के रूप में परिवर्तन। अपनी स्थापना के दिन 31 दिसंबर 1600 ई. से 1744 ई. तक अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में धीरे-धीरे अपने व्यापार एवं प्रभाव का विस्तार करती आ रही थी। इस कंपनी ने युद्ध और मुगल दरबार में घुसपैठ की संयुक्त नीति के द्वारा पुर्तगालियों और डचों के प्रभाव को नष्ट कर दिया।

अठारहवीं सदी के आते-आते केवल फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रमुख विरोधी विदेशी शक्ति के रूप में रह गई थी। यद्यपि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का आरंभ सामान्यतः 1757 ई. से माना जाता है जब अग्रेजों ने प्लासी के मैदान में बंगाल के नवाब को पराजित किया। किंतु 1757 ई. की विजय की पृष्ठभूमि दक्षिण भारत में उस समय तैयार हुई थी जब अंग्रेजों ने फ्रांसीसी कंपनी के साथ संघर्ष में अपनी सैनिक शक्ति एवं कूटनीति का सफलतापूर्वक परीक्षण किया। यह आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्विता 1744 से 1763 ई. तक चलती रही।

व्यापार से आरंभ होकर अंग्रेजी-फ्रांसीसी कंपनियाँ भारत की राजनीति में अपरिहार्य रूप से उलझ गईं। दोनों कंपनियों का उद्देश्य व्यापार से अधिकाधिक मुनाफा कमाना था, इसलिए इसलिए व्यापारिक एकाधिकार को बनाये रखने के लिए एक-दूसरे को हटाने में लग गईं। भारत में मुगल साम्राज्य के पतन ने स्पष्टतः इन कंपनियों के प्रभाव-विस्तार के लिए महान् अवसर प्रदान किया।

निजामुल-मुल्क के अधीन हैदराबाद राज्य केंद्रीय प्रभुत्व से स्वतंत्र हो गया था, किंतु 1748 ई. में उसकी मृत्यु के बाद इस राज्य की अस्थिरता का लाभ उठाकर कर्नाटक के उप-राज्यपाल, जिन्हें कर्नाटक के नवाब के रूप में जाना जाता था, ने खुद को दकन के वायसराय के नियंत्रण से मुक्त कर लिया। इस प्रकार कर्नाटक के नवाब सादुतुल्ला खाँ ने अपने भतीजे दोस्तअली को निजाम की मंजूरी के बिना अपना उत्तराधिकारी बनाया था। 1740 ई. के बाद, उत्तराधिकार के लिए होनेवाले संघर्षों ने विदेशी कंपनियों को हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान किया।

प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-48 ई.)

सत्तरहवीं-अठारहवीं शताब्दी में आंग्ल-फ्रांसीसी शाश्वत शत्रु थे तथा ज्यों ही यूरोप में उनका आपसी युद्ध आरंभ होता, संसार के प्रत्येक कोने में जहाँ ये दोनों कंपनियाँ कार्य करती थीं, आपसी युद्ध आरंभ हो जाते थे। भारत में प्रथम कर्नाटक युद्ध आस्ट्रिया के उत्तराधिकर युद्ध से आरंभ हुआ। पांडिचेरी के पास अंग्रेजी सेना ने फ्रांसीसी जहाजों पर आक्रमण किया, परंत फ्रांसीसियों ने शीघ्र ही मद्रास पर अधिकार कर लिया। जब कर्नाटक के नवाब ने दोनों कंपनियों को शांति बनाये रखने की अपील की तो कैप्टन पैराडाइज के अधीन एक छोटी-सी फ्रांसीसी सेना ने महफूज खाँ के नेतृत्ववाली भारतीय सेना को अडयार नदी के निकट सेंट टोमे के स्थान पर हरा दिया। जब एक्स-ला-शैपल की संधि (1748 ई.) से यूरोप में युद्ध बंद हो गया तो कर्नाटक का प्रथम युद्ध भी समाप्त हो गया। मद्रास फिर अंग्रेजों को मिल गया। इस प्रथम दौर में दोनों बराबर रहे और सर्वोच्चता के प्रश्न का अंतिम रुप से समाधान नहीं हुआ।

कर्नाटक का दूसरा युद्ध (1749-54 ई.)

यह युद्ध पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले के कूटनीतिक प्रयासों का परिणाम था। हैदराबाद तथा कर्नाटक राज्यों में सिंहासन प्राप्त करने के लिए आंतरिक कलह काफी गंभीर रूप धारण कर चुका था। हैदराबाद में निजामत को लेकर नासिरजंग (1748-50 ई.) को मुजफ्फरजंग ने उसको चुनौती दी। दूसरी ओर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा उसके बहनोई चंदासाहिब के बीच विवाद था। इन राज्यों से आकर्षक भेंट पाने की लालसा से डुप्ले ने कर्नाटक में चंदासाहिब और हैदराबाद में मुजफ्फर जंग को समर्थन देने का निश्चय किया। फलतः फ्रांसीसियों और उनके सहयोगियों ने 1749 ई. में अनवरुद्दीन को और दिसंबर 1750 ई. में नासिरजंग को पराजित कर मार डाला। इससे फ्रांसीसियों को क्षेत्रीय व आर्थिक दोनों प्रकार के लाभ प्राप्त हुए। डूप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण के भाग में मुगल प्रदेशों का गवर्नर नियुक्त हो गया। उत्तरी सरकारों के कुछ जिले भी फ्रांसीसियों को मिले। मुजफ्फरजंग की प्रार्थना पर एक फ्रांसीसी सेना भी बुस्सी के नेतृत्व में हैदराबाद में रख दी गई।

अंग्रेजों की स्थिति फ्रांसीसी विजय से डावाँडोल हो गई थी। राबर्ट क्लाइव, जो त्रिचनापल्ली में फ्रांसीसी घेरा को तोड़ने में असफल रहा, ने चालाकीपूर्ण योजना के तहत कर्नाटक की राजधानी अर्काट का घेरा डाल दिया। परिणाम क्लाइव की आशाओं के अनुरूप रहा। 1752 ई. में लारेंस के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने त्रिचनापल्ली और मुहम्मद अली को बचा लिया और उसका घेरा डालनेवाली फ्रांसीसी सेना को आत्म-समर्पण करना पड़ा।

द्वितीय कर्नाटक युद्ध के अंत में 1754 ई. की पांडिचेरी की संधि के अनुसार अंग्रेजी और फ्रांसीसी कंपनियों ने वादा किया कि वे भारतीय शासकों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने एक-दूसरे के विजित भागों को लौटा दिया।

त्रिचनापल्ली में फ्रांसीसी हार से डूप्ले का सत्यानाश हो गया। फ्रांसीसी कंपनी के निदेशकों ने 1754 ई. में डूप्ले को वापस बुला लिया क्योंकि इसमें धन की हानि अधिक हुई थी।

कर्नाटक का तीसरा युद्ध (1756-63 ई.)

पांडिचेरी की संधि अल्पकालिक साबित हुई। यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध के आरंभ होते ही भारत में पुनः 1756 ई. में युद्ध शुरू हो गया। इस बीच अंग्रेज बंगाल में सिराजुद्दौला को हराकर अपना अधिकार स्थापित कर चुके थे। बंगाल से प्राप्त धन के बल पर अंग्रेज 1760 ई. में वांडीबाश के युद्ध में फ्रांसीसियों को निर्णायक रूप से पराजित करने में सफल रहे। इस प्रकार अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों के ऊपर अपनी श्रेष्ठता को साबित कर दिया था।

बंगाल की विजय

बंगाल पहला ऐसा प्रदेश था जिस पर अंग्रेजों ने अपने राजनैतिक नियंत्रण को स्थापित किया। नवाब सिराजुद्दौला को क्लाइव ने षड्यंत्रों के सहारे 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई में बड़ी सरलता से पराजित कर दिया। 1757 ई. में मीरकासिम के द्वारा 24 परगनों की जमींदारी तथा फिर 1760 ई. में बर्दवान, मिदनापुर और चटगाँव की जमीदारियाँ कंपनी को मिल गईं। इससे कंपनी के अधिकारियों को नवाब के अधिकारियों तथा किसानों का दमन करने का अवसर मिल गया। इसी प्रकार व्यापारिक अधिकारों का भी दुरुपयोग कंपनी ने किया। मीरकासिम ने सिराजुद्दौला के उदाहरण का अनुसरण करते हुए अपनी सार्वभौमिकता पर होनेवाले हमलों को मानने से इनकार कर दिया। उसने अवध के नवाब तथा मुगल सम्राट के साथ मिलकर 1764 ई. में बक्सर में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया। बक्सर में कंपनी ने एक आसान-सी विजय प्राप्त की।

 

दोहरी शासन प्रणाली

1765 ई. की संधि के द्वारा बंगाल में दोहरी शासन प्रणाली को लागू किया गया। क्लाइव बंगाल का गवर्नर हो गया तथा कंपनी वास्तविक शासक। नवाब अब नाम मात्र का शासक था और उसकी सेना को नवाब के नाम पर कार्य करना था, परंतु उसको मनोनीत कंपनी के द्वारा किया जाना था। उप-दीवान के माध्यम से राजस्व को एकत्रित करने पर कंपनी का प्रत्यक्ष नियंत्रण हो गया। इससे भी अधिक इसमें लाभ यह था कि उत्तरदायित्व नवाब का या कंपनी के कारिंदे जो लूट तथा दमन करते, और उसका आरोप नवाब पर लगाया जाता। यह अनुमान है कि 1766 से 1768 ई. तक के वर्षों में कंपनी ने केवल बंगाल से ही 57 लाख रूपये वसूल किये। क्लाइव सहित अंग्रेज उच्चाधिकारियों ने यह स्वीकार किया कि कंपनी का शासन अन्यायपूर्ण तथा भ्रष्ट था और परिणामस्वरूप बंगाल की जनता दरिद्र हो गई।

राजनैतिक व्यवस्था का पुनर्गठन

प्रारंभ में अंग्रेजों ने स्वदेशी संस्थाओं के माध्यम से शासन किया, परंतु 1773 ई. से उन्होंने संवैधानिक सुधारों को लागू करना शुरू किया और दोहरी शासन प्रणाली को समाप्त कर दिया। कंपनी मूलतः एक व्यापारिक संगठन थी, राज्य का प्रशासन करने के लिए उसके पास प्रशासनिक ढाँचा नहीं था। राजनैतिक शक्ति को सुव्यवस्थित करने के लिए इसके संविधान में परिवर्तन अपरिहार्य थे। कंपनी के कार्य संचालन के लिए ब्रिटिश सरकार नियम बनाती थी। इसी कारणवश 1773 ई. के रेग्यूलेटिंग एक्ट ने इसके कार्य को प्रभावित किया।

रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का महत्व इस बात में निहित है कि भारत में ब्रिटिश सरकार को चलाने की प्रणाली को लागू किया गया। ब्रिटिश पद्धति पर आधारित संस्थाओं को लागू किया गया। गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् को बंगाल का प्रशासन चलाना पड़ता तथा बंबई व मद्रास के प्रशासन का निरीक्षण करना होता था। कलकत्ता में जजों के एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। परंतु सदी के अंत तक प्रशासन के अंग्रेजी सिद्धांत गहराई तक प्रवेश कर गये। न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया गया। दीवानी न्यायालयों को स्थापित किया गया, जिनकी अध्यक्षता जजों या न्यायाधीशों द्वारा की जाती थी तथा इन न्यायालयों द्वारा 20,000 मामलों का निपटारा प्रति वर्ष किया जाता था।

कार्नवालिस के शासन के दौरान पुलिस व्यवस्था भी कायम हो गई। जैसे कंपनी ने सत्ता की सर्वोच्चता प्राप्त की, वैसे ही नवाब एवं उसके सहायकों की शक्ति समाप्त हो गई। एक शक्तिशाली राज्य व्यवस्था का निर्माण किया गया और जनता से यह आशा की गई कि वह उसकी आशाओं का पालन करे। पुरानी परंपराओं की निरंतरता बनी रही, परंतु जनता को शासित करने के तरीके में मूलभूत परिवर्तन हुआ। यह परिवर्तन तात्कालिक रूप से दिखाई नहीं पड़ता था। कंपनी के कारिंदे स्वयं नवाबों की भांति कार्य करते थे और राजस्व इकट्ठा करने के लिए विभिन्न परंपरागत तरीकों एवं मुगल परंपराओं को अपनाया गया। कंपनी के प्रशासन एवं नीतियों पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण कायम हो गया और ब्रिटेन के हितों को पूरा करने के लिए स्वदेशी सरकार व्यवस्था का स्थान एक साम्राज्यवादी व्यवस्था ने ले लिया।

इस प्रकार 18वीं सदी को अब एक मूलतः अंधकारमय, अराजकतावादी युग नहीं माना जा सकता। मुगल साम्राज्य का पतन ही इस शताब्दी की एक मात्र प्रमुख विशेषता थी। क्षेत्रीय शक्तियों का उदय सदी के मध्य की लगभग उतनी ही महत्वपूर्ण दूसरी घटना थी। ब्रिटिश शक्ति का उदय तीसरी महत्वपूर्ण घटना थी। मुगलों से लेकर क्षेत्रीय व ब्रिटिश राजनैतिक व्यवस्थाओं में परंपराओं की निरंतरता का बने रहना काफी महत्वपूर्ण था। परंतु इन तीनों प्रकार की राजनैतिक व्यवस्थाओं में विभिन्नताएँ भी समान रूप से विद्यमान थीं। एक ही प्रकार की संस्था को अब नई राजनैतिक व्यवस्था के अंतर्गत मिला दिया गया तो उसने भिन्न प्रकार के कार्यों को संपन्न किया।

सर्वोच्चता के लिए फ्रांसीसियों के साथ संघर्ष ब्रिटिश शक्ति के उदय का पहला पड़ाव था। बंगाल की विजय द्वितीय एवं निर्णायक चरण था। ब्रिटिश शासन का मुख्य रूझान औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की ओर था, किंतु औपनिवेशिक संस्थाएँ मुगल और अंग्रेजी संस्थाओं का मिश्रण थीं। भारत में ब्रिटिश शक्ति ब्रिटेन की विश्वव्यापी साम्राज्यवादी व्यवस्था का एक अभिन्न हिस्सा थी।

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