आपूर्ति किसी वस्तु की उन मात्राओं को दर्शाती है जिनका उत्पादक विभिन्न कीमतों पर, प्रति समय इकाई, उत्पादन कर बिक्री करने को तैयार होते हैं। ‘आपूर्ति’ शब्द के ये अभिलक्षण होते हैं :

  1. आपूर्ति को ‘‘परिमाण’’ द्वारा व्यक्त किया जाता है, अर्थात् वह परिमाण या मात्रा जो विक्रय हेतु प्रस्तुत की जाती है।
  2. वस्तु की आपूर्ति सदैव ‘किसी कीमत विशेष पर प्रस्तुत की जा रही मात्रा’ द्वारा इंगित की जाती है। उदाहरणार्थ, यह कह देना कि उत्पादक एक हजार कम्बल देने को तैयार है पर्याप्त नहीं होगा। उसका कोई आर्थिक अर्थ नहीं होगा। किंतु यदि कहा जाता है कि वे रु. 500/- प्रति कम्बल की दर पर 1000 कम्बल की आपूर्ति को तैयार हैं तो फिर ‘आपूर्ति’ शब्द में कुछ आर्थिक अर्थ भी समाहित हो जाएगा।
  3. आपूर्ति के मापन में समय की इकाई का भी महत्व होता है। यह प्रतिदिन, सप्ताह, मास, वर्ष या कोई भी अन्य कालावधि हो सकती है।
आइए, एक उदाहरण पर विचार करें : इस कथन पर ध्यान दें- ‘‘उत्पादकों ने जनवरी, 2017 में रु. 500/- प्रति कम्बल की दर से 1000 कम्बलों की आपूर्ति की।’’ इस कथन में आपूर्ति की गई मात्रा, उसकी प्रति इकाई कीमत तथा आपूर्ति के समय की अवधि, तीनों बातें सम्मिलित हैं। इसलिए इसे हम उस वस्तु की आपूर्ति के विषय में एक ‘संपूर्ण कथन’ कहेंगे।

औपचारिक रूप से, आपूर्ति उन मात्राओं से संबंधित है जिन्हें कोई उत्पादक विभिन्न कीमतों पर बेचने को तैयार होता है।

आपूर्ति के निर्धारक

वस्तु की आपूर्ति को प्रभावित करने वाले अनेक कारक होते हैं। हम आपूर्ति या आपूर्ति की मात्रा को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करने वाले कुछ मुख्य कारकों की इस प्रकार पहचान कर सकते हैं :

1) आपूर्ति की जा रही वस्तु की कीमत : किसी भी वस्तु की बाज़ार कीमत का निर्धारण मांग और आपूर्ति की शक्तियों द्वारा होता है। वस्तु की कीमत में हुए प्रत्येक परिवर्तन का उसकी आपूर्ति की जा रही मात्रा पर प्रभाव पड़ता है। सामान्यत: कीमत जितनी अधिक होती है अन्य बातें स्थिर रहने पर वस्तु का उत्पादन कर उसे बाज़ार में लाना उतना ही अधिक लाभप्रद रहता है। वस्तु की कीमत और उसकी आपूर्ति की मात्रा में यह सीधा संबंध ‘आपूर्ति का नियम’ भी कहलाता है।

2) उत्पादक संसाधनों की कीमतें या उत्पादन की लागत : उत्पादन के साधनों की कीमतों में वृद्धि से वस्तु की उत्पादन लागत में वृद्धि हो जाती है। परिणामस्वरूप विक्रय से प्राप्तियाँ अपरिवर्तित रहने पर तो फर्म के लाभ कम रह जाएंगे। अत: वस्तु की उत्पादन लागत में वृद्धि से उसकी उत्पादक फर्म आपूर्ति का सिद्धांत एवं आपूर्ति की लोच हतोत्साहित होती है। इसके विपरीत उत्पादन लागत में कमी फर्म को उत्पादन और आपूर्ति बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करती है। केवल एक कारक की कीमत में परिवर्तन से विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन की सापेक्ष लाभप्रदता में परिवर्तन हो जाते हैं। यह उत्पादकों को एक वस्तु को छोड़ किसी अन्य का उत्पादन करने को प्रेरित कर सकता है। परिणामस्वरूप विभिन्न वस्तुओं की आपूर्ति में परिवर्तन होंगे। उदाहरण के लिए, भूमि की कीमत में कमी से कृशि पदार्थों की उत्पादन लागत में बड़ी कमी होगी किंतु टेलीविज़न की उत्पादन लागत तो बहुत कम प्रभावित हो पाएगी।

3) अन्य वस्तुओं की कीमतें : अन्य बातें पूर्ववत् रहने पर अन्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि से संदर्भित वस्तु के उत्पादन और आपूर्ति में कमी होगी (अन्य वस्तुओं की कीमत में कमी का प्रभाव विपरीत होगा)। इसका मुख्य कारण यही है कि उत्पादक उसी वस्तु का निर्माण करना चाहता है जिससे उसे सर्वाधिक लाभ होता है।

4) प्रौद्योगिकी की अवस्था : हमारे ज्ञान के स्तर में परिवर्तन के साथ.साथ किसी भी वस्तु के उत्पादन के लिए प्रयुक्त विधियाँ भी बदल जाती है। उत्पादन साधनों और विधियों विशयक ज्ञान के स्तर में सुधार से वर्तमान उत्पादों की उत्पादन लागतों में कमी आती है तथा अनेक अन्य नई वस्तुओं का उत्पादन भी होने लगता है।

5) उत्पादक के लक्ष्य : उत्पादक के ध्येयों का भी वस्तु की आपूर्ति पर प्रभाव रहता है। संभव है कि उत्पादक का लक्ष्य लाभ को अधिकतम करना हो या बिक्री को या फिर दीर्घकाल में पूरे बाज़ार पर अधिकार करने का ध्येय रखकर वह आपूर्ति बढ़ा रहा हो।

6) अन्य कारक : अन्य अनेक कारक आपूर्ति को प्रभावित कर सकते हैं। इनमें से कुछ हैं : सरकारी नीतियों में परिवर्तन की आशाएं, युद्ध की आशंका, अप्रत्याशित मौसमी परिवर्तन, कीमतों में अपेक्षित परिवर्तन आदि। आय की विशमताओं में वृद्धि से कुछ चीज़ों की मांग में उछाल आने से उनका उत्पादन अधिक लाभदायक प्रतीत होने लगता है।

हमारे लिए सभी निर्धारक कारकों में एक साथ आए परिवर्तनों के किसी वस्तु की आपूर्ति पर प्रभावों का आकलन विश्लेशण बहुत कठिन होगा। इसीलिए हम सामान्यत: ऐसी स्थिति की कल्पना करते हैं जहाँ एक कारक में परिवर्तन होते समय अन्य सभी कारक पूर्ववत् ही रहते हैं। इस मान्यता के आधार पर हम किसी उत्पादक या उत्पादक समूह द्वारा की गई किसी वस्तु की आपूर्ति पर उस परिवर्तित कारक के प्रभाव का विश्लेशण कर पाते हैं।

आपूर्ति का नियम

हम मान लेते हैं कि उत्पादक का मुख्य उद्देश्य अपने लाभ को अधिकतम करना है और वह लाभ उसके सकल आगम तथा सकल लागत के बीच अंतर है। सकल या कुल आगम (TR) वस्तु की कीमत और विक्रित मात्रा का गुणनफल ही है। कुल लागत वस्तु की औसत उत्पादन लागत (AC) तथा उत्पादित मात्रा का गुणनफल है। अत:

लाभ = TR–TC
TR = Q.P और
TC = Q.AC

यदि आपूर्ति को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों में कोई परिवर्तन नहीं हो तो उच्चतर कीमत का अर्थ होगा उच्चतर लाभ। अत: यदि उत्पाद को किसी वस्तु की उच्चतर कीमत प्राप्त होने की आशा होगी तो वह उसकी आपूर्ति में वृद्धि करने को अधिक उत्सुक भी होगा। इसी प्रकार, कीमत में कमी की आशंका से ग्रस्त उत्पादक उसकी कम मात्रा की आपूर्ति करना चाहेगा। अत: हम पाते हैं कि किसी भी वस्तु की कीमत और उसकी आपूर्ति की मात्रा के बीच एक सीधा संबंध रहता है। इसी प्रत्यक्ष संबंध को हम ‘आपूर्ति का नियम’ कहते हैं।

इस नियम के अनुसार जब किसी वस्तु की कीमत में वृद्धि होती है तो उसकी आपूर्ति की मात्रा में भी वृद्धि हो जाती है (कीमत में कमी पर मात्रा में कमी होगी), शर्त यही है कि आपूर्ति को प्रभावित करने वाले अन्य सभी कारक अपरिवर्तित रहें।

एक बार फिर, ध्यान रहे कि यह नियम तभी व्यवहार्य होता है जब अन्य सभी कारक अपरिवर्तित रहते हैं।

इस कीमत और आपूर्ति के प्रत्यक्ष संबंध की एक और विलक्षणता है। आपूर्ति की मात्रा में परिवर्तन कीमत में परिवर्तन के कारण आता है। मात्रा में परिवर्तन यहाँ प्रभाव है और कीमत में परिवर्तन उसका कारण है। हम इस संबंध को एक फलन के रूप में निरूपित कर सकते हैं। यहां आपूर्ति की मात्रा एक निर्भर चर है और कीमत ‘स्वतंत्र‘ चर है। अर्थात्

S = f (P)
यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ‘‘कीमत में वृद्धि से आपूर्ति की मात्रा में वृद्धि’’ एक सटीक कथन होगा, जबकि आपूर्ति की मात्रा में वृद्धि के कारण कीमत में वृद्धि की बात गलत होगी। यहां कीमत की वृद्धि एक स्वतंत्र चर है तथा आपूर्ति की मात्रा एक निर्भर चर है।

आपूर्ति के नियम के अपवाद

सामान्यत: कीमत के साथ आपूर्ति का सीधा संबंध होता है। किंतु यहां हम कुछ ऐसी अपवाद स्वरूप स्थितियों की भी चर्चा कर रहे हैं जहां आपूर्ति का यह नियम लागू नहीं हो पाता।

यदि लाभ अधिकतम करना उत्पादक का लक्ष्य नहीं हो तो वह कीमत में वृद्धि नहीं होने पर भी अधिक माल बाज़ार में बिक्री के लिए पेश कर सकता है। उदाहरण के लिए, फर्म का लक्ष्य अपनी बिक्री को ही अधिकतम करना हो सकता है। वह कीमत अपरिवर्तित रहने पर भी अधिक माल ला सकती है। यह बिक्री की मात्रा को बढ़ाकर भी अपनी कुल आगम में वृद्धि करने का निर्णय ले सकती है।

इसी प्रकार, यदि किसी फर्म का कई कंपनियों के समूह पर नियंत्रण हो तो वह अलग अलग वस्तुएं नहीं केवल समूचे समूह के लाभ को अधिकतम करने का लक्ष्य रखकर काम कर सकती है। ऐसी दशा में प्रत्येक उत्पाद पर आपूर्ति का नियम लागू नहीं हो पाएगा।

कीमत से इतर कारक स्थिर नहीं रह पाने की दशा में भी हमारे आपूर्ति के नियम की एक आधारभूत मान्यता का उल्लंघन हो जाता है। वास्तव में ऐसा कई बार हो सकता है कि अन्य कारकों के मान स्थिर नहीं रह पाते। यदि अन्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो रही हो और विचाराधीन वस्तु की कीमत स्थिर रहे तो इसकी आपूर्ति में कमी हो सकती है। दूसरी ओर, प्रौद्योगिकी के परिवर्तन वस्तु की आपूर्ति की मात्रा में बदलाव का कारण बन सकते हैं, भले ही उस वस्तु की कीमत स्थिर रहे।

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