तैमूरलंग, जिसे तिमुर (1336–1405 ई.) के नाम से भी जाना जाता है, 14वीं शताब्दी का एक सैनिक शासक था जिसने महान् तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी। 18वीं शताब्दी के इतिहासकार एडवर्ड गिब्बन ने तैमूरलंग के संबंध में लिखा है कि ‘जिन देशों पर तैमूर ने अपनी विजय-पताका फहराई, वहाँ भी जाने-अनजाने में तैमूरलंग के जन्म, उसके चरित्र, व्यक्तित्व और यहाँ तक कि उसके नाम तैमूरलंग के बारे में भी झूठी कहानियाँ प्रचारित हुईं।’ गिब्बन ने आगे लिखा है कि, ‘लेकिन वास्तविकता में वह एक योद्धा था, जो एक किसान परिवार का होकर एशिया के सिंहासन पर बैठा। विकलांगता ने उसके रवैये और हौसले को प्रभावित नहीं किया। उसने अपनी दुर्बलताओं पर भी विजय प्राप्त कर ली थी।’

वस्तुतः तैमूर की शारीरिक विकलांगता कभी उसके आड़े नहीं आई। उसके कट्टर आलोचक भी मानते हैं कि तैमूरलंग में ताकत और साहस कूट-कूट कर भरा हुआ था। वह 35 साल तक युद्ध के मैदान में लगातार जीत हासिल करता रहा। अपनी शारीरिक दुर्बलताओं से पार पाकर विश्व-विजेता बनने का ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में नहीं है।

तैमूरलंग का आरंभिक जीवन

Timur
तैमूरलंग

अमीर तैमूर का जन्म 8 अप्रैल, सन् 1336 ई. में ट्रांस-आक्सियाना में में कैश या ‘शहर-ए-सब्ज’ नामक स्थान में हुआ था। जन्म के समय उसका नाम तैमूर रखा गया था और तैमूर का अर्थ होता है ‘लोहा’। तैमूर का पिता अमीर तुर्गे बरलास तुर्कों की गुरगन या चगताई शाखा के तुर्कों का प्रधान था। आरंभ में तैमूर को सैनिक शिक्षा दी गई थी, इसलिए वह युद्ध-विद्या में निपुण था। उसके पिता अमीर तुर्गे ने इस्लाम कबूल कर लिया था, इसलिए तैमूर भी इस्लाम का कट्टर अनुयायी था। भारत में मुगल साम्राज्य का संस्थापक जहीरुद्दीन बाबर इसी तैमूर का वंशज था।

तैमूरलंग जीवन की मुश्किलों से पार पाने में सफल रहा। पंद्रहवीं शताब्दी के सीरियाई इतिहासकार इब्ने अरबशाह के अनुसार तैमूर भेड़ चुराते हुए एक चरवाहे के तीर से घायल हुआ था। स्पेनिश राजदूत क्लेविजो के अनुसार वह सिस्तान के घुड़सवारों का सामना करते हुए उसका दाहिना पैर जख्मी हुआ था जिसके कारण वह जीवनभर लँगड़ाता रहा, बाद में उसका दाहिना हाथ भी जख्मी हो गया। वस्तुतः 1363 ई. में जब वह भाड़े के मजदूर के तौर पर खुरासान में पड़नेवाले खानों में काम कर रहा था, तो उसी समय उसके शरीर का दाहिना हिस्सा विकलांग हो गया था। उसका दाहिना पैर बाँयें पैर की अपेक्षा छोटा था। चलते समय उसे अपना दाहिना पाँव घसीटना पड़ता था। यही कारण है कि लोग उसे फारसी में तैमूर-ए-लंग (लंगड़ा तैमूर) कहने लगे थे। बाद में यही नाम बिगड़ते-बिगड़ते तैमूरलंग हो गया।

समरकंद पर अधिकार

तैमूरलंग एक बहुत ही प्रतिभावान और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह चंगेज का वंशज होने का दावा करता था, जबकि वह तुर्क था। 1369 ई. में समरकंद के मंगोल शासक के मर जाने पर उसने समरकंद की सत्ता पर अधिकार कर लिया। वह चंगेज खाँ की तरह समस्त संसार को अपनी शक्ति से रौंद डालना चाहता था और सिकंदर की तरह विश्व-विजय की अभिलाषा रखता था। उसने चंगेज खाँ की पद्धति पर अपनी सैनिक व्यवस्था को स्थापित किया और अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की। उसका राज्य पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया होते हुए भारत तक फैला हुआ था। 1380 और 1387 ई. के बीच उसने खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान और कुर्दीस्तान आदि पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन किया। 1393 ई. में उसने मेसोपोटामिया पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। इन विजयों से उत्साहित होकर उसने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

तैमूर के आक्रमण का उद्देश्य

प्रारंभ में तैमूर के अमीर और सरदार भारत जैसे दूरस्थ देश पर आक्रमण के लिए तैयार नहीं थे, किंतु जब उसने इस्लाम धर्म के प्रचार के हेतु भारत में प्रचलित मूर्तिपूजा का विध्वंस करना अपना पवित्र ध्येय घोषित किया, तो वे तैयार हो गये। अपनी जीवनी ‘तुजुक-ए-तैमूरी’ में भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है कि ‘हिंदुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिंदुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है (जिससे) इस्लाम की सेना को भी हिंदुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जायें।’

मूर्तिपूजा का विध्वंस तो आक्रमण का बहाना मात्र था। तैमूर ने भारत की समृद्धि और वैभव के बारे में बहुत कहानियाँ सुन रखी थीं, इसलिए उसने भारत की धन-संपत्ति को लूटने के लिए ही आक्रमण की योजना बनाई। दिल्ली सल्तनत की इस राजनीतिक दुर्बलता ने तैमूरलंग को भारत पर आक्रमण करने का अवसर प्रदान दिया।

दिल्ली सल्तनत की स्थिति

तैमूर के भारत पर आक्रमण के समय दिल्ली का राज्य विघटित एवं अस्त-व्यस्त अवस्था में था। फिरोजशाह के निर्बल उत्तराधिकारियों के कारण दिल्ली सल्तनत की स्थिति बड़ी शोचनीय थी। 1388 से 1394 ई. तक तीन सुल्तान सिंहासन पर आये और गये। सिद्धांत-शून्य सरदारों ने अपनी स्वार्थ-साधना में राजनैतिक अराजकता को बढ़ावा दिया। नसरतशाह फिरोजाबाद में रहकर दिल्ली पर अधिकार करने की योजनाएँ बनाता रहता था, दिल्ली में दुर्बल महमूद तुगलक अपने सरदारों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गया था। प्रायः सभी मुस्लिम सूबेदार एवं हिंदू नायक सुल्तान की प्रभुता की अवहेलना कर अपनी स्वतंत्र सत्ता की स्थापना करने में लगे थे।

भारत पर तैमूर का आक्रमण

तैमूरलंग ने 1398 ई. के प्रारंभ में अपने एक पोते पीर मोहम्मद को भारत पर आक्रमण के लिए रवाना किया। उसने सिंधु नदी को पारकर उच्छ प्रदेश पर अधिकार कर लिया। उसने मुलतान पर घेरा डाल दिया और छः महीने के बाद इसे भी जीत लिया।

तैमूरलंग का आक्रमण
भारत पर तैमूर का आक्रमण

मुल्तान विजय के बाद अप्रैल, 1398 ई. में तैमूरलंग समरकंद से स्वयं एक भारी सेना लेकर भारत पर आक्रमण के लिए चला और सितंबर में उसने सिंधु, झेलम तथा रावी नदी को पार कर लिया। 13 अक्टूबर को वह मुलतान से 70 मील उत्तर-पूरब में स्थित तुलुंबा नगर पहुँच गया। उसने इस नगर को लूटकर भीषण कत्लेआम किया और बहुतों को गुलाम बना लिया। उसने कश्मीर की सीमा पर कटोरनामी दुर्ग पर आक्रमण किया और काफिरों के कटे सिरों की मीनार बनाने का आदेश दिया। इसके बाद वह दीपालपुर जीतता हुआ भटनेर पहुँच गया।

भटनेर के राजपूतों ने कुछ युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया, किंतु उनके असावधान होते ही तैमूर ने उन पर आक्रमण कर दिया गया। तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि ‘थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में 10,000 (दस हजार) लोगों के सिर काट दिये गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्ठा किया गया था, मेरे सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगाकर राख कर दिया गया। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात् कर दिया गया। दूसरा नगर सरसुती था, जिस पर आक्रमण हुआ। सभी काफिर हिंदू कत्ल कर दिये गये। उनके स्त्री, बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई।’

दिल्ली की ओर बढ़ते हुए तैमूर ने जाटों के प्रदेश में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि ‘जो भी मिल जाए, कत्ल कर दिया जाये।’ सेना के सामने आनेवाले सभी ग्राम या नगर बेरहमी से लूटे गये। पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और कुछ लोगों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया। वहाँ हिंदुओं के अनेक मंदिर नष्ट कर डाले गये। इस प्रकार सिरसा और कैथल को लूटता-खसोटता और निवासियों को कत्ल तथा कैद करता हुआ तैमूर दिसंबर के प्रथम सप्ताह के अंत में दिल्ली के निकट पहुँच गया।

दिल्ली पर आक्रमण

दिल्ली पहुँचने पर तैमूरलंग ने आदेश दिया कि मुसलमान बंदियों को छोड़कर शेष सभी बंदी इस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे, उसे भी कत्ल कर दिया जाए और उसकी संपत्ति सूचना देनेवाले को दे दी जाये। यहाँ लगभग एक लाख हिंदू बंदी बनाकर कत्ल किये गये। 17 दिसंबर, 1398 ई. को दिल्ली के निर्बल तुगलक सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद ने अपने वजीर मल्लू इकबाल के साथ चालीस हजार पैदल सिपाही, दस हजार घुड़सवार और एक सौ बीस हाथियों की एक विशाल सेना लेकर पानीपत के पास तैमूर का सामना करने का प्रयत्न किया, किंतु वह बुरी तरह पराजित हुआ और भयभीत होकर गुजरात की ओर भाग गया। उसका वजीर मल्लू इकबाल भी भागकर बरन में जाकर छिप गया।

दूसरे दिन तैमूर ने दिल्ली में बड़ी धूमधाम से प्रवेश किया। उसे पता चला कि आस-पास के देहातों से भागकर हिंदुओं ने बड़ी संख्या में अपने स्त्री-बच्चों तथा मूल्यवान् वस्तुओं के साथ दिल्ली में शरण ली है। उसने सिपाहियों कोे दिल्ली को लूटने की आज्ञा दी। ‘जफरनामा’ के लेखक यजदी ने इस आक्रमण के संबंध में लिखा है कि ‘यहाँ भारत के सैनिकों ने अपने जीवन की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक युद्ध किया, किंतु दुर्बल कीड़ा आँधी के सामने नहीं टिक सकता और न दुर्बल हिरन भयंकर सिंह के सामने, इसलिए वे भी भागने के लिए मजबूर हुए।’ दिल्ली के सुल्तानों की राजधानी पर दुर्भाग्य छा गया।

इस भाग्यहीन नगर के बहुत से निवासियों को भयंकर निर्दयता से कत्ल कर दिया गया अथवा बंदी बना लिया गया। ‘तफरनामा’ का लेखक लिखता है कि ‘नगर को नष्ट करना और उसके निवासियों को दंड देना ईश्वरीय इच्छा थी……हिंदुओं के सिरों को काटकर ऊँचे ढेर बना दिये गये तथा उनके धड़ों को हिंसक पशुओं तथा पक्षियों के लिए छोड़ दिया गया। जो निवासी किसी प्रकार बच गये, वे बंदी बना लिये गये।’ किसी विजेता द्वारा किसी एक आक्रमण में भारत को अभी तक इतना अधिक कष्ट नहीं मिला था। इस संकटपूर्ण परिस्थिति में प्रकृति ने भी दिल्ली के लोगों के साथ निष्ठुरता दिखाई तथा रक्तमय युद्धों एवं विनाश के द्वारा हुए उनके कष्ट को और बढ़ा दिया। बदायूँनी लिखता है कि ‘इस समय दिल्ली में ऐसी महामारी फैली कि नगर पूर्णतः नष्ट हो गया तथा जो निवासी बचे, वे भी मर गये और दो महीनों तक तो एक पक्षी ने भी दिल्ली में पंख नहीं फड़फड़ाया।’

तैमूर को दिल्ली की लूट में अतुल संपत्ति मिली, जिसमें लाल, हीरे, मोती, जवाहरात, अशर्फियाँ, सोन-चाँदी के सिक्के, कीमती बर्तन, रेशम और जरीदार कपड़े आदि थे। स्त्रियों के सोने-चाँदी के गहनों की कोई गिनती संभव नहीं थी। इसके साथ वह अनेक स्त्रियों और शिल्पियों को भी बंदी बनाकर ले गया। इन कारीगरों ने समरकंद में अनेक इमारतें बनाईं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध तैमूर की स्वनियोजित मस्जिद भी है। तैमूर का भारत में रहने का इरादा नहीं था। दिल्ली में पंद्रह दिनों तक ठहरने के बाद वह 1 जनवरी, 1399 ई. को फिरोजाबाद होते हुए स्वदेश के लिए रवाना हो गया।

मेरठ और हरिद्वार की लूट

दिल्ली से लौटते हुए राह में तैमूरलंग ने 9 जनवरी, 1399 ई. को मेरठ पर धावा बोल दिया और नगर की लूटपाट और हत्या का तांडव करने के बाद उत्तर में बढ़कर हरिद्वार के पाश्र्व में दो हिंदू सेनाओं को पराजित किया।

जम्मू पर आक्रमण

शिवालिक पहाडि़यों के किनारे से बढ़ता हुआ तैमूर 16 जनवरी, 1399 को काँगड़ा पहुँचा और उस पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने जम्मू पर चढ़ाई की। इन स्थानों को भी लूटा-खसोटा गया और असंख्य निवासियों का कत्ल किया गया। उसने अपने एक प्रतिनिधि खिज्र खाँ को मुल्तान, लाहौर और दीपालपुर का शासक नियुक्त किया। 19 मार्च, 1399 ई. को सिंधु नदी को पारकर तैमूर अपने देश समरकंद लौट गया।

भारत से लौटने के बाद तैमूर से 1400 ई. में अनातोलिया पर आक्रमण किया और 1402 ई. में अंगोरा के युद्ध में आटोमान तुर्कों को पराजित किया। 1405 ई. में जब वह चीन के राजा मिंग के खिलाफ युद्ध के लिए रास्ते में था, तभी उसकी मृत्यु हो गई।

तैमूर के आक्रमण का प्रभाव

तैमूरलंग के आक्रमण ने तुगलक साम्राज्य के विघटन को पूरा कर दिया। राजनीतिक अस्थिरता के कारण दिल्ली के प्रांत एक-एक कर स्वतन्त्र होने लगे। नसरतशाह को, जो अब तक दोआब में छिपा था, 1399 ई. में दिल्ली पर अधिकार जमाने की कोशिश की, किंतु वह मल्लू इकबाल द्वारा पराजितकर नगर से भगा दिया गया। 1401 ई. में दिल्ली लौटने पर मल्लू इकबाल ने सुल्तान महमूद के आमंत्रण पर धार से लौट आया। 12 नवंबर, 1405 ई. को खिज्र खाँ से युद्ध करते समय मल्लू इकबाल की मृत्यु हो गई। दुर्बल सुल्तान लगभग बीस वर्षों तक नाममात्र का शासन करता रहा। फरवरी, 1413 ई. में कैथल में उसकी मृत्यु के साथ ही तुगलक वंश का अंत हो गया।

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