दिल्ली सल्तनत और खिलाफत (Delhi Sultanate and Khilafat)
इस्लाम में एक इस्लामी राज्य, एक ग्रंथ कुरान, एक धर्म इस्लाम और एक जाति मुसलमान की अवधारणा है। पैगम्बर हज़रत मुहम्मद की मृत्यु के बाद खिलाफत नामक संस्था अस्तित्व में आई। हज़रत अबू बक्र मुस्लिम समुदाय के पहले खलीफा थे। खलीफा इस्लामिक संसार का पैगम्बर के बाद राज्य का सर्वोच्च धार्मिक और राजनीतिक नेता माना जाता था। प्रारंभ में एक ही इस्लाम राज्य था, किंतु नवीं सदी के मध्य में जब अब्बासी खलीफाओं के समय विभिन्न क्षेत्रों के गवर्नर स्वतंत्र होने लगे तो इस्लामी एकता को बनाये रखने के लिए खलीफा ने तुर्क गवर्नरों को शासन करने का सनद (अधिकार–पत्र) देना शुरू किया। खलीफा से सनद पानेवाले गवर्नर ‘सुल्तान’ कहे जाने लगे। महमूद गजनवी पहला स्वतंत्र शासक था जिसने अपने आपको ‘सुल्तान’ की उपाधि से विभूषित किया था।
सैद्धांतिक रूप से खलीफा ही भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रधान होता था और सुल्तान उसका नायब होता था। चूंकि दिल्ली सल्तनत इस्लामी राज्य का एक भाग थी, इसलिए दिल्ली के अधिकांश सुल्तान अपने को खलीफा का नायब मानते थे और अपने खुत्बों और सिक्कों पर खलीफा को स्थान देते थे। यह एक ऐसा कार्य था जो इस्लामी विश्व-व्यवस्था को स्वीकार करना या उससे संबंध बनाये रखने का प्रतीक था। इल्तुतमिश दिल्ली का प्रथम वैधानिक सुल्तान था। उसे फ़रवरी, 1229 ई. में बग़दाद के ख़लीफ़ा से सम्मान में ‘खिलअत’ एवं प्रमाणपत्र के साथ ‘सुल्तान-ए-आजम’ (महान शासक) की उपाधि मिली थी। यद्यपि अलाउद्दीन ने ख़लीफ़ा की सत्ता को मान्यता प्रदान करते हुए ‘यामिन-उल-ख़िलाफ़त-नासिरी-अमीर-उल-मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की थी, किंतु उसने ख़लीफ़ा से अपने पद की स्वीकृति लेनी आवश्यक नहीं समझी। मुबारकशाह खिलजी दिल्ली का एक मात्र सुल्तान था जिसने स्वयं को ही ‘खलीफा’ घोषित किया था। मुहम्मद बिन तुगलक ने 1347 ई. में खलीफा से सनद (अधिकार-पत्र) प्राप्त की थी। फिरोज तुगलक मुस्लिम भारत का पहला सुल्तान था, जिसने अपने सिक्कों पर अपनी उपाधि ‘खलीफा का नायब’ खुदवाया था। फिरोज तुगलक ने अपने शासन के अंतिम 6 वर्षों में खलीफा से दो बार सनद (अधिकार-पत्र) प्राप्त की थी। इस प्रकार दिल्ली के सुल्तानों ने खलीफा के प्रति नाममात्र की औपचारिक निष्ठा का प्रदर्शन कर खिलाफत की महत्ता के भ्रम को बनाये रखा। वास्तविकता यह थी कि एक संस्था के रूप में खिलाफत कमज़ोर हो चुकी थी और खलीफा दिल्ली सल्तनत में कोई हस्तक्षेप या भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं था।
दिल्ली सल्तनत की प्रकृति (Nature of Delhi Sultanate)
सल्तनतकालीन भारत में जिस प्रशासन तंत्र का विकास हुआ, वह अब्बासी और उसके बाद गजनवी एवं सल्जूकी प्रशासन तंत्रों पर आधारित था। यद्यपि सैद्धांतिक और औपचारिक रूप से दिल्ली सल्तनत एक इस्लामी राज्य था, किंतु व्यवहारिक रूप में इस पर ईरानी प्रशासन तंत्र और भारतीय परिस्थितियों एवं भारतीय परंपराओं का भी प्रभाव पडा था। वास्तव में दिल्ली के सुल्तानों ने नवस्थापित राज्य की ज़रूरतों के अनुसार कुछ धर्म-निरपेक्ष राजकीय कानून (ज़वाबित) भी बनाये, जो मूलभूत इस्लामी परंपराओं के अनुकूल नहीं थे।
समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने भी दिल्ली सल्तनत को इस्लामी राज्य न मानकर व्यावहारिक और धर्मनिरपेक्ष (जहाँदारी) माना है। दरअसल दिल्ली सल्तनत के तुर्क-अफगान शासक अपने साथ ऐसे राजनैतिक सिद्धांत लाये थे जिसमें राज्य के राजनैतिक प्रमुख और धार्मिक प्रमुख में कोई भेद नहीं समझा जाता था और दिल्ली के सुल्तान को सीजर (राजनैतिक क्षेत्र में सर्वप्रधान) और पोप (धार्मिक क्षेत्र में सर्वप्रधान) का मिश्रित रूप माना जाता था। इस प्रकार व्यवहार में दिल्ली का तुर्की राज्य एक धर्म-आधारित या धर्मकेंद्रित राज्य नहीं था। यद्यपि शासक वर्ग इस्लाम धर्म का अनुयायी था, फिर भी, राज्य की नीतियों का निर्धारण अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों के अनुसार होता था।
केंद्रीय शासन (Central Government)
सुल्तान
सल्तनतकालीन केंद्रीय प्रशासन का मुखिया सुल्तान होता था। वह प्रशासन की धुरी, सशस्त्र बल का प्रधान सेनानायक एवं सभी न्यायिक मामलों में अपील की अतिम अदालत ही नहीं था, अपितु समाज और राजनीति का केंद्र-बिंदु भी था। दूसरे शब्दों में, सुल्तान राज्य की संपूर्ण शक्ति का केंद्र था जिसके चारों ओर सल्तनत की समस्त प्रशासनिक संरचना घूमती थी।
अनेक विचारकों के अनुसार राजतंत्र कोई इस्लामी संस्था नहीं था, बल्कि परिस्थितियों के कारण और उनके अनुरूप उसका धीरे-धीरे उद्भव हुआ। इस्लाम में शासन की मूल इस्लामी संकल्पना खलीफा या इमाम की थी जो राजनीतिक और धार्मिक दोनों प्रकार की सत्ता का प्रधान होता था। किंतु नवीं सदी के मध्य में अब्बासी खलीफाओं के पतन के कारण सुल्तानों का उदय हुआ जो केवल गैर-धार्मिक नेता थे। आगे चलकर सुल्तान पद को अधिकाधिक गरिमा प्राप्त होने लगी।
सुल्तान की दैवी प्रकृति: सुल्तान का एक भव्य दरबार होता था जिसमें विद्वानों, संगीतकारों, कवियों, धार्मिक संतों आदि का जमघट लगा रहता था। सत्ता और प्रतिष्ठा के इस प्रभामंडल के कारण विचारकों ने सुल्तान में दिव्य लक्षणों की प्रतिस्थापना करनी शुरू कर दी। हिंदू विचारधाराओं के अनुसार, राजा ‘मानव रूप में ईश्वर’ होता है। ईरानी मतों ने भी, जिन्होंने इस संदर्भ में इस्लामी चिंतन पर गहरा प्रभाव डाला, सुल्तान के पद को ‘दैवी प्रकृति’ का घोषित किया। बरनी के अनुसार, सुल्तान का हृदय ईश्वर (खुदा) का दर्पण होता है अर्थात् यह ईश्वर की इच्छाओं को प्रतिबिंबित करता है; अतः सुल्तान के कृत्यों पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती है। सुल्तान के इसी दैवी पक्ष पर जोर देने के लिए बलबन ने ‘जिल्ल–अल्लाह’ (ईश्वर की छाया) की उपाधि धारण की थी तथा ‘सिजदा’ और ‘पाबोस’ जैसे दस्तूर शुरू किये जो ‘शरीयत’ के अनुसार केवल अल्लाह के निमित्त थे।
धार्मिक नियंत्रण: सल्तनतकालीन सुल्तान कोई स्वेच्छाचारी शासक नहीं था क्योंकि हिंदू और मुस्लिम दोनों ही विचारधाराओं के अनुसार किसी शासक द्वारा सत्ता के दुरुपयोग पर धर्म एक प्रमुख संस्थात्मक नियंत्रण था। कुछ विचारकों के अनुसार किसी भी शासक को धार्मिक मर्यादाओं का उल्लंघन करने पर धार्मिक नेताओं के समर्थन और सहायता से लोगों द्वारा सत्ता से हटाया जा सकता है। लेकिन इस विषय में पूर्ण सहमति नहीं थी, क्योंकि कुछ विचारकों ने इसे ईश्वर के हाथों में छोड़ दिया था। सिद्धांततः सुल्तान को धर्म अथवा ‘शरीयत’ द्वारा निर्धारित व्यापक प्रयोजनों को पूरा करना होता था और इसके द्वारा निर्धारित नैतिक और आचरण-संबंधी मर्यादाओं के मुताबिक चलना पड़ता था। किंतु व्यवहारतः दिल्ली के सुल्तानों को अपने राजनीतिक गतिविधियों के संपादन के संबंध में काफी स्वतंत्रता मिली हुई थी।
दासता प्रथा: आरंभिक चरण में कुछ समय के लिए ही सही, दासता प्रथा दिल्ली के सुल्तानों की शक्ति और प्राधिकार में वृद्धि करने वाली एक प्रभावशील संस्था थी। किंतु इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद तुर्काने चहलगानी के दास अधिकारियों एवं अन्यों के बीच होने वाले संघर्षों ने एक राजनीतिक संस्था के तौर पर दासता प्रथा को कमजोर कर दिया और धीरे-धीरे इसका महत्व समाप्त हो गया।
दास प्रथा को फ़िरोज़ तुगलक ने पुनः प्रचलित किया और दासों से संबंधित एक विभाग ‘दीवान–ए–बंदगान’ की स्थापना की। इस विभाग के अंतर्गत ‘अर्ज–ए–बंदगान’, ‘मजमुआदार’ व ‘दीवान’ आदि अधिकारी होते थे। इस समय दास विभाग का कार्य दासों को विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षित कर उन्हें शाही कारखानों और अन्य सेवाओं में नियोजित करना था। समकालीन इतिहासकार अफीफ के अनुसार फीरोज़ के लगभग 12,000 दास कासिब (कारीगर) के रूप में कार्य करते थे। इससे स्पष्ट है कि दास प्रथा की राजनीतिक भूमिका नगण्य हो गई थी, किंतु वैयक्तिक स्तर पर दासता जारी रही। बर्नी ने भी दिल्ली के पास गुलामों के एक बड़े बाजार का वर्णन किया है।
उत्तराधिकार की समस्या: इस्लाम के शासकों के बीच उत्तराधिकार का कोई सर्वस्वीकृत आधार नहीं था। प्रायः दिल्ली के सुल्तान अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करते थे, किंतु मनोनीत व्यक्ति का सुल्तान बनना उसकी सैनिक सामर्थ्य और अमीरों पर निर्भर होता था। सुल्तान द्वारा चुना गया उत्तराधिकारी यदि अयोग्य है तो ऐसी स्थिति में अमीर नये सुल्तान का चुनाव करते थे, किंतु यह चुनाव प्रायः मृत सुल्तान के परिवार के जीवित बचे सदस्यों तक ही सीमित रहता था। चूंकि ज्येष्ठाधिकार (ज्येष्ठतम पुत्र को उत्तराधिकारी बनाया जाना) की कोई स्थापित प्रथा नहीं थी, इसलिए मनोनयन के बावजूद प्रतिद्वंद्वी दावेदारों के बीच संघर्ष की गुंजाइश बनी रहती थी। कभी-कभी सभी दावेदारों को दरकिनार करके शक्ति के बल पर कोई अमीर भी राजगद्दी पर आसीन हो जाता था। इस प्रकार अपनी तमाम समस्याओं के बावजूद सुल्तान सल्तनत काल के दौरान सत्ता और शासन की धुरी बना रहा।
केंद्रीय प्रशासनिक विभाग और अधिकारी (Central Administrative Department and Officers)
यद्यपि सल्तनत काल में सुल्तान केंद्रीय शासन का संवैधानिक एवं व्यावहारिक प्रधान था। किंतु प्रशासन में सुल्तान की सहायता करने के लिए अनेक मंत्री व अधिकारी होते थे, जिन्हें ‘मजलिस–ए–खलवत’ कहा जाता था। किंतु मंत्रियों की कोई परिषद् नहीं होती थी क्योंकि सामूहिक जिम्मेदारी की अवधारणा उस काल में अज्ञात थी। प्रत्येक मंत्री व अधिकारी सुल्तान द्वारा चुना जाता था और सुल्तान की मर्जी तक उस पद पर बना रहता था। मजलिस-ए-खलबत और खास लोगों की बैठक ‘मजलिस–ए–खास’ में होती थी। सुल्तान अपने दरबारियों, खानों, अमीरों, मालिकों और अन्य रईसों से ‘बर्र–ए–खास’ में मिलता था। सुल्तान अपने राजकीय कार्यों का संपादन ‘बर्र–ए–आजम’ में करता था।
सल्तनतकालीन मंत्रियों अथवा उनके अधीन सरकारी विभागों की संख्या भी निश्चित नहीं रहती थी। यद्यपि बरनी ने चार विभागों का उल्लेख करते हुए चार प्रमुख सलाहकारों का उल्लेख किया है, किंतु चार की संख्या केवल प्रतीकात्मक थी क्योंकि विभागों की संख्या बदलती रहती थी और व्यवहार में सुल्तान ऐसे किसी भी व्यक्ति से सलाह ले सकता था जिस पर उसे विश्वास हो। बरनी द्वारा उल्लिखित चार प्रमुख विभाग थे- दीवान-ए-विजारत, दीवान-ए-आरिज, दीवान-ए-इंशा और दीवान-ए-रिसालत।
दीवान–ए–विजारत
केंद्रीय प्रशासन का प्रमुख कार्यालय ‘दीवान–ए–विजारत’ कहलाता था। इसके प्रमुख ‘वजीर’ को सुल्तान का प्रधान सलाहकार माना जाता था और वह अक्सर समस्त शासन-तंत्र पर एक व्यापक नियंत्रण रखता था, किंतु वह विशेष रूप से वित्त-प्रबंधन के लिए जिम्मेदार होता था।
दीवान-ए-विजारत अथवा वजीर के विभाग की आंतरिक संरचना धीरे-धीरे विकसित हुई। अब्बासी युग में भी ‘मुशरिफ’, ‘मुस्तौफी’ और ‘खजीन’ जैसे अधिकारी होते थे। मुशरिफ (लेखाकार) नामक अधिकारी प्रांतों एवं अन्य विभागों से होने वाली आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता था और सरकार द्वारा दिये गये ऋणों के कागजात सुरक्षित रखता था। इसकी सहायता के लिए ‘नाजिर’ नामक अधिकारी होता था। इसके अलावा, मुस्तौफी (लेखा परीक्षक) राज्य के खर्चों की जाँच करता था, जबकि खजीन (कोषाध्यक्ष) के रूप में कार्य करता था। इल्तुतमिश ने वजीर को उसके भारी कार्यों में राहत पहुँचाने के लिए उसका एक नायब भी नियुक्त किया था। नायब, वजीर के स्थान पर उसके सहयोगी के रूप में कार्य करता था।
अलाउद्दीन खिलजी द्वारा दोआब को प्रत्यक्ष प्रशासन (ख़ालिसा) के तहत लाये जाने के बाद राजस्व विभाग का तेज़ी से विस्तार हुआ और सैकड़ों आमिल व मुतसर्रिफ़ आदि नियुक्त किये गये। उन्हें नियंत्रित करने ओर बकाया राजस्व को वसूल करने के लिए ‘दीवान–ए–मुस्तख़राज’ नामक एक नया विभाग बनाया गया। किंतु अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद इसका अंत कर दिया गया, लेकिन आमिलों का अस्तित्व बना रहा और मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में उन्हें कृषि विकास के साथ संबद्ध कर दिया गया। एक पृथक अमीर की अध्यक्षता में ‘दीवान–ए–कोही’ नामक एक नया विभाग गठित किया गया। किंतु यह विभाग भी असफल रहा और उसे समाप्त कर दिया गया।
फ़िरोज तुग़लक़ के शासनकाल में राजस्व विभाग की संरचना पूर्ण विकसित हुई। मुशरिफ़ एवं मुस्तौफ़ी के कार्यों को स्पष्ट रूप से अलग-अलग कर दिया गया। मुशरिफ को मुख्य रूप से आय का प्रभारी बना दिया गया, जबकि मुस्तौफी को व्यय का। मुख्य मुशरिफ़ एवं मुख्य मुस्तौफ़ी उच्चाधिकारी थे जो सीधे सुल्तान द्वारा नियुक्त होते थे, यद्यपि वे वज़ीर के तहत कार्य करते थे।
शक्तिशाली वजीर न केवल समस्त प्रशासन की देख-रेख करते थे बल्कि सैनिक अभियानों का भी नेतृत्व करते थे। वस्तुतः जब तक सरकार के सैनिक स्वरूप पर जोर दिया जाता रहा तब तक ऐसा होना अपरिहार्य ही था। किंतु ‘एक शक्तिशाली शासक के अंतर्गत वजीर उतनी ही शक्ति का प्रयोग करता था जितनी सुल्तान उसे अनुमति देता था।’ वास्तव में सुल्तान एक ऐसा वज़ीर चाहता था जो इतना प्रभावशाली हो कि सुल्तान शासन के दैनिक दायित्वों से मुक्त रहे, किंतु इतना शक्तिशाली भी न हो कि सुल्तान को विस्थापित या महत्वहीन ही कर दे। इस समस्या को सुलझाने के लिए कभी-कभी किसी भी व्यक्ति को वज़ीर पद पर नियुक्त नहीं किया गया अथवा उसके कर्तव्यों और अधिकारों को दो व्यक्तियों के बीच बाँट दिया गया अथवा उसकी प्रतिस्पर्धा के लिए नये पदों का गठन किया गया अथवा उसे बहुत कम महत्व दिया गया।
इल्तुतमिश का वजीर फ़खरुद्दीन इसामी था जिसने बगदाद में 30 वर्षों तक उच्च पदों पर कार्य किया था। उसके बाद शीघ्र ही वजीर पद पर मुहम्मद जुनैदी बैठा जिसे ‘निज़ामुल मुल्क’ की उपाधि दी गई। मुहम्मद जुनैदी को रज़िया का विरोध करने के कारण अपने पद और जीवन दोनों ही से हाथ धोना पड़ा। रजिया की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए मुहज्जब गनवी सुल्तान-निर्माता के रूप में उभरा। किंतु बलबन के हाथों में शक्ति आने के बाद गनवी का सितारा गर्दिश में चला गया। सर्वाधिक शक्तिशाली अमीर के रूप में बलबन जब ‘नायब–उस–सल्तनत’ अथवा सुल्तान का प्रतिशासक नियुक्त हुआ तो वजीर उसके सामने महत्वहीन हो गया। जब नासिरूद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद बलबन स्वयं सुल्तान बना तो उसने नायब-उस-सल्तनत का पद समाप्त कर दिया। बलबन इतना प्रभावशाली था कि उसने किसी भी शक्तिशाली वजीर को उभरने नहीं दिया। उसका वजीर ख्वाजा हसन नाम मात्र का ही वजीर था। जब बलबन ने अहमद अयाज को ‘अरीज–ए–मुमालिक’ और एक राजस्व विशेषज्ञ ख्वाजा खतीर को उप–वजीर नियुक्त किया तो वज़ीर की शक्ति को और भी घट गई। अलाउद्दीन खि़लजी के शासनकाल के अंत तक वज़ीर का पद महत्वहीन बना रहा क्योंकि उसने ‘दीवान–ए–मुस्तखराज’ नामक अधिकारी को राजस्व का बकाया वसूल करने का कार्य दे दिया था। तुग़लक़ों के उदय तक वज़ीर राजस्व प्रशासन का प्रधान नहीं था।
तुग़लक़ों का शासनकाल भारत में विजारत की संस्था के लिए चरमोत्कर्ष का काल था। गियासुद्दीन तुगलक द्वारा किये गये कुछ प्रयोगों के बाद मुहम्मद बिन तुगलक ने अहमद अयाज़ को ‘ख़ान-ए-जहाँ’ की उपाधि के साथ वज़ीर नियुक्त किया था। फिरोज तुगलक ने इस्लाम कबूल कर चुके एक तैलंग ब्राह्मण खान-ए-जहाँ मकबूल को वजीर नियुक्त किया जो पूर्ववर्ती वजीर का नायब रह चुका था। तुगलकों के शासनकाल में वज़ीरों को न केवल अत्यधिक प्रतिष्ठा मिली, अपितु उन्हें बहुत अधिक वेतन भी दिये गये। मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में जब सल्तनत के सबसे बड़े सरदार यानी ख़ान को वेतन के रूप में प्रति वर्ष कई लाख टंके मिलते थे, खान-ए-जहाँ का वेतन इराक की वार्षिक आय के बराबर था। फ़िरोज तुगलक के शासनकाल में खान-ए-जहाँ मकबूल को वेतन के रूप में 13 लाख टंके मिलते थे और उसकी सेना और सेवकों के खर्च के लिए अलग से रकम दी जाती थी। सैय्यदों के समय में विजारत की शक्ति घटने लगी और अफगानों के अधीन वजीर का पद महत्वहीन हो गया।
दीवान–ए–अरीज
यह एक प्रकार से सैनिक विभाग था जिसकी स्थापना बलबन ने की थी। इस विभाग के अध्यक्ष अरीज–ए–मुमालिक का विशेष दायित्व सैनिकों की भर्ती करना, उन्हें सुसज्जित करना एवं उन्हें वेतन देना था। सेना का प्रधान अरीज-ए-मुमालिक नहीं, बल्कि स्वयं सुल्तान होता था। किंतु अरीज निश्चित रूप से एक अग्रणी अमीर एवं एक योद्धा होता था। अरीज़ का पद अब्बासी शासनकाल में था और ‘सियासतनामा’ में इसका उल्लेख है। संभवतः इल्तुतमिश के शासनकाल में भी इसका अस्तित्व था क्योंकि बरनी ने लिखा है कि अहमद अयाज़ ‘रावत–ए–अर्ज’ था, जिसे बलबन ने ‘अरीज–ए–मुमालिक’ नियुक्त किया था।
फिर भी, दीवान-ए-अरीज विभाग की कार्य-विधि को अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में घोड़े दागने की प्रथा की शुरुआत के समय से ही व्यवस्थित किया गया। ‘दाग प्रथा’ के द्वारा यह सुनिश्चित करने की व्यवस्था हुई कि घटिया दर्जे के घोड़े पेश न किये जायें क्योंकि एक कुशल घुड़सवार सेना पर ही तुर्क शासकों का अस्तित्व टिका था। उसने सैनिकों का ‘विवरण–पत्र’ (हुलिया) रखने की प्रथा भी शुरू की। यह प्रथा फ़िरोज़ के काल तक चलती रही, किंतु यह सभी प्रकार के छल-प्रपंच के विरुद्ध गारंटी नहीं थी क्योंकि फ़िरोज़ को स्वयं अपने एक सैनिक को एक स्वर्ण टंका देना पड़ा था ताकि वह अपने घटिया घोड़े को पास कराने के लिए संबद्ध ‘मुहर्रिर’ (लिपिक) को रिश्वत दे सके। अंतिम तुगलक शासक नासिरुद्दीन महमूद ने अरीज-ए-मुमालिक की सहायता के लिए ‘वकील–ए–सुल्तान’ का पद सृजित किया था जो कुछ समय बाद ही अस्तित्वहीन हो गया। इस प्रकार अरीज़ एक बहुत महत्वपूर्ण अधिकारी था जिसके कारण वजीर की शक्तियों में कमी आई।
‘अमीर–ए–आखुर’ अथवा शाही अस्तबल का अधीक्षक (रज़िया के शासन में इस पद पर मलिक याकूत था) एवं ‘दारोगा–ए–पील’ (अथवा शाही हाथियों का प्रभारी) अरीज पद के निर्माण के समय तक महत्वपूर्ण अधिकारी माने जाते थे। उसके बाद इन पदों के अधिकारी अमीरों के विषय में कोई विवरण नहीं मिलता।
सल्तनत की एक केंद्रीय सेना भी होती थी, जिसका एक भाग शाही अंगरक्षक सेना थी। इस सेना की शक्ति के बारे में कुछ स्पष्ट सूचना नहीं है। इल्तुतमिश के शासनकाल में घुड़सवार सेना की संख्या लगभग तीन हज़ार थी। कहते हैं कि अलाउद्दीन खिलजी की सेना में तीन लाख सैनिक थे। मुहम्मद बिन तुगलक की सेना उससे भी बड़ी थी। ऐसा संभव नहीं लगता नहीं कि यह पूरी सेना दिल्ली में ही रहती रही होगी। बड़े-बड़े क्षेत्रों को प्रशासित करने वाले इक्तादार स्पष्टतः अपने लिए अलग से सेना रखते थे। सरदारों की अपनी अलग सेनाएँ होती थीं। आवश्यकता पड़ने पर इन दोनों प्रकार की सेनाओं को शाही प्रचालन के तले लाया जा सकता था। जब बलबन ने बंगाल के विरुद्ध सैनिक अभियान किया था तो पूर्वी भागों के हिंदू सरदारों को अपनी-अपनी सेनाओं के साथ सुल्तान के साथ चलने को कहा गया था। इस प्रकार बलबन ने इस इलाके से 2,00,000 लोगों को भर्ती कर अतिरिक्त सेना तैयार की थी।
मंगोलों के उदय के बाद पश्चिम एशिया से संबंध विच्छेद हो जाने के कारण तुर्की शासकों को अपनी सेनाओं के लिए भारतीय मुसलमानों और अफ़गानों पर अधिकाधिक निर्भर होना पड़ा। इस प्रकार तुर्क शासकों की सेना का चरित्र मिश्रित था जिसमें मूल तुर्क सैनिकों के वंशज, अफ़गान, हिंदुस्तानी (भारतीय मुसलमान) एवं हिंदू सरदारों के सैनिक शामिल थे।
सल्तनतकालीन सैन्य-व्यवस्था का आधार मंगोल सेना के वर्गीकरण की दशमलव प्रणाली थी। दस अश्वारोही पर एक सर-ए-खेल, दस सर-ए-खेल पर एक सिपहसालार, दस सिपहसालार के ऊपर एक अमीर, दस अमीर के ऊपर एक मलिक और दस मलिक के ऊपर एक खान होता था। स्पष्टतया इस केंद्रीय बल की क्षमता, कुशलता एवं वफादारी ने दिल्ली सल्तनत को स्थायित्व प्रदान करने में प्रमुख भूमिका निभाई।
यद्यपि सेना में भर्ती तथा सैनिकों के प्रशिक्षण के संबंध में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है, किंतु मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासनकाल में भारत आने वाले इब्नबतूता के अनुसार जब कोई व्यक्ति मुल्तान के हाकिम की सेना में एक तीरंदाज़ के रूप में शामिल होना चाहता तो उसे विभिन्न प्रकार के कठोर धनुष देकर उसकी ताकत की जाँच की जाती थी। यदि वह एक घुड़सवार सिपाही के रूप में शामिल होना चाहता तो उसे अपने भाले से एक निर्धारित लक्ष्य को साधना होता था एवं सरपट दौड़ते हुए घोड़े की पीठ पर बैठे हुए अपने भाले से जमीन पर पड़े एक कंदुक (गेंद) पर निशाना लगाना होता था। निश्चय ही आमतौर पर प्रशिक्षण में यही तरीका अपनाया जाता रहा होगा और यह भर्ती के बाद भी प्रशिक्षण जारी रहता रहा होगा।
अपनी विशाल सेना को वेतन देना दिल्ली के सुल्तानों के लिए अत्यंत कठिन दायित्व था। किसानों से भू-राजस्व वसूलने के अलावा निकटवर्ती राज्यों को लूटना एक काल-परीक्षित दस्तूर था। अलाउद्दीन खिलजी के समय से सैनिकों के वेतन का नगद भुगतान किया जाने लगा। एक घोड़े वाले सैनिक के लिए अलाउद्दीन के समय में 238 टंके का वेतन दिया जाता था और जो सैनिक एक अतिरिक्त घोड़ा रखते थे उन्हें 78 टंका और मिलते थे। किंतु बाद में वेतन की राशि के संबंध में कोई जानकारी नहीं है। फीरोज़ तुगलक ने शाही घुड़सवारों को नकद वेतन देने की व्यवस्था समाप्त कर दी और वेतन के स्थान पर एक पत्र दिया जाता था जिसे ‘इतलाक’ (धनादेश) कहा जाता था। यह एक प्रकार का धनादेश था।
दीवान–ए–इंशा
दीवान-ए-इंशा कोई विदेश कार्यालय या विभाग नहीं था क्योंकि उन दिनों राज्यों के बीच इतने स्थायी संबंध नहीं होते थे कि विदेश मामलों के लिए एक पृथक कार्यालय मंत्री की आवश्यकता पड़े। यह विभाग राजकीय सचिवालय की तरह कार्य करता था और इसके प्रधान को ‘दबीर–ए–खास’ कहा जाता था। कभी-कभी सिंहासन पर नये व्यक्ति के बैठने की सूचना देने अथवा जीत जैसी किसी बड़ी घटना की घोषणा करने के लिए निकटवर्ती शासकों को औपचारिक संदेश-पत्र प्रेषित किये जाते थे। ये पत्र, जो अकसर अत्यंत अलंकृत शैली में लिखे जाते थे, दीवान–ए–इंशा द्वारा तैयार किये जाते थे, लिपिबद्ध किये जाते थे एवं प्रेषित किये जाते। इस प्रकार दबीर महत्वपूर्ण इक्वादारों और पड़ोसी राजाओं के नाम आदेश एवं अनुज्ञा तैयार करने के लिए उत्तरदायी होता था। यह पद महत्वपूर्ण और उत्तरदायित्वपूर्ण था, इसलिए इस पद पर नियुक्त व्यक्ति सुल्तान का विश्वस्त होता था। कभी-कभी दबीर-ए-खास का पद वज़ीर पद पर पहुँचने का सोपान होता था।
दीवान–ए–रिसालत
बरनी द्वारा उल्लिखित चार प्रमुख मंत्रालयों में से एक ‘दीवान-ए-रिसालत’ भी एक था। किंतु बरनी ने इस विभाग के कार्यों का उल्लेख नहीं किया है, इसलिए इस विभाग के कार्यों के संबंध में इतिहासकारों के बीच मतभेद है। कुछ लोग इसे ‘विदेश मामलों का मंत्रालय’ मानते हैं, कुछ लोग ‘मूल्य-नियंत्रण एवं लोक-नैतिकता का विभाग’ मानते हैं, जबकि अनेक लोग इसे ‘लोक शिकायत विभाग’ मानते हैं।
इस विभाग का नाम ‘रिसालत’ रसूल अथवा पैगंबर से व्युत्पन्न हुआ लगता है। इसलिए लगता है कि इसका धार्मिक चरित्र रहा होगा। मध्यकालीन राज्यों का एक कार्य मुस्लिम विद्वानों एवं संतों आदि को कर–मुक्त भूमि (इमलाक) प्रदान कर उनकी आजीविका का प्रबंध करना था। इस धार्मिक विभाग का प्रधान ‘सद्र–ए–जहाँ’ अथवा ‘वकील–ए–दर’ होता था, जिसे ‘रसूल–ए–दर’ भी कहा जाता था। आजीविका एवं राजस्व मुक्त भूमि प्रदान करने के अलावा सद्र का विभाग मुहतसिबों (नागरिक नियंत्रक) की नियुक्ति के लिए भी उत्तरदायी था। ‘मुहतसिब’ लोगों के आचरण, बाजार तथा नाप-तौल पर कड़ी नजर रखता था।
सद्र-ए-जहाँ के अलावा एक अन्य महत्वपूर्ण पद ‘काजी–ए–मुमालिक’ अथवा ‘काजी उल–कुजात’ (प्रधान काजी) का होता था जो ‘दीवान–ए–कजा’ (न्यायिक विभाग) का प्रधान होता था। सुल्तान के बाद न्याय का सर्वोच्च अधिकारी यही था। कभी-कभी एक ही व्यक्ति को सद्र–ए–जहाँ एवं काजी उल–कुजात दोनों पद दे दिये जाते थे।
दीवान-ए-रिसालत के कार्यों में वृद्धि की जा सकती थी अथवा अलग-अलग कार्यालय बनाये जा सकते थे। मुइजुद्दीन बहरामशाह के शासनकाल में अमीरों ने सुल्तान की शक्ति को कम करने के लिए दीवान-ए-रसालत विभाग के अंतर्गत एक नवीन पद ‘नायब–ए–मुमालिकत’ के पद का सृजन किया था जो संपूर्ण अधिकारों का स्वामी था। इख्तियारुद्दीन ऐतिगीन प्रथम नायब-ए-मुमालिकत था। किंतु बलबन के सुल्तान बनते ही यह पद महत्वहीन हो गया और मुबारकशाह के बाद यह पद समाप्त हो गया। खुसरो अंतिम नायब-ए-मुमालिकत था।
जब अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार नियंत्रण नीति के अंतर्गत विभिन्न बाजारों को नियंत्रित करने के लिए ‘शहना–ए–मंडी’ (बाजार का अधीक्षक) नियुक्त किया था, तो उसने शहना के कार्य पर नज़र रखने के लिए एक प्रमुख अमीर को मुस्तैद किया था, जिसे ‘दीवान–ए–रिसालत’ कहते थे।
फ़िरोज़ तुग़लक़ ने सद्र एवं प्रधान काज़ी के पदों को अलग–अलग कर दिया और लोक शिकायतों के लिए एक अलग विभाग गठित किया, जिसको ‘दीवान–ए–रिसालत’ की संज्ञा दी गई। इसका प्रधान एक प्रमुख अमीर (संभवतः वकील–ए–दर) होता था। वज़ीर और शाहज़ादे भी अपनी शिकायतों के निदान के लिए इस विभाग में आवेदन कर सकते थे।
इस प्रकार, विभिन्न सुल्तानों के शासनकाल में दीवान-ए-रिसालत के भिन्न-भिन्न रूप रहे, किंतु ज़रूरतमंदों एवं उचित पात्रों को वज़ीफ़ा (आजीविका) एवं राजस्व-मुक्त भूमि आवंटित करने का इसका मूल कार्य सदैव चलता रहा।
जलालुद्दीन खिलजी ने ‘दीवान–ए–वक्फ’ विभाग की स्थापना की थी जो राजकीय व्यय का ब्यौरा रखता था। फिरोजशाह तुगलक ने गरीबों के कल्याण और असहाय लोगों की पुत्रियों के विवाह हेतु अनुदान के लिए ‘दीवान–ए–खैरात’ या दान विभाग तथा ‘दीवान–इस्तिहक’ नामक पेंशन विभाग विभाग की स्थापना की थी।
राजदरबार एवं शाही परिवार
चूंकि सुल्तान सत्ता का केंद्र था, इसलिए राजदरबार और शाही परिवार (हरम) का संगठन एक महत्वपूर्ण विषय था। किंतु मुगल काल के विपरीत सल्तनत काल में राजदरबार और शाही परिवार का कोई एक प्रभारी अधिकारी नहीं था।
शाही परिवार से संबद्ध सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकारी ‘वकील–ए–दर’ था। वह समस्त शाही परिवार पर नियंत्रण रखता था और शाही रसोईघर से लेकर शाही अस्तबलों सहित सुल्तान के निजी कर्मचारियों के वेतन और भत्तों का भुगतान करता था। वह शाहजादों की शिक्षा के लिए भी उत्तरदायी था। दरबारी गण, शाहजादे, सुल्तान के निजी सेवक एवं यहाँ तक कि बेगमें भी विभिन्न प्रकार की सहायता पाने के लिए उससे पैरवी करती थीं। इस प्रकार वकील-ए-दर एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील पद था, इसलिए यह पद केवल उच्च श्रेणी के प्रतिष्ठित अमीर को ही प्रदान किया जाता था।
राजदरबार एवं शाही परिवार से संबद्ध एक अन्य अत्यंत महत्वपूर्ण अधिकारी था ‘अमीर–ए–हाजिब’। उसे ‘बारबक’ भी कहा जाता था। वह राजदरबार की शान-ओ-शौकत और समारोहों का प्रभारी था। वह अमीरों को उनके दर्जे और अग्रता-क्रम के अनुसार राजदरबार में क्रमबद्ध करता था और सुल्तान से मिलने वालों की जाँच पड़ताल करता था। वही सुल्तान के समक्ष सभी आवेदन और याचिकाएँ भी प्रस्तुत करता था। उसके अधीनस्थ अधिकारियों को ‘हाजिब’ कहा जाता था। अमीर-ए-हाजिब का पद इतना महत्वपूर्ण था कि कभी-कभी शाहजादों को ही इस पद पर नियुक्त कर दिया जाता था।
दीवान–ए–बरीद: शाही परिवार से संबद्ध एक अन्य महत्वपूर्ण विभाग था ‘दीवान–ए–बरीद’ या गुप्तचर विभाग, जो सल्तनत में होने वाली घटनाओं का लेखा-जोखा रखता था। इस विभाग का प्रधान ‘बरीद–ए–ख़ास’ (बरीद–ए–मुमालिक) कहलाता था। बरीद-ए-ख़ास के अधीन सल्तनत के विभिन्न क्षेत्रों में एक-एक बरीद अथवा गुप्तचर अधिकारी नियुक्त किये जाते थे, जो संबंधित क्षेत्र की घटनाओं और समाचारों की सूचना भेजते रहते थे। अलाउद्दीन खिलजी ने बरीद के अतिरिक्त एक अन्य कर्मचारी ‘मुनहियान’ की भी नियुक्ति की थी, जो सूचनाएँ भेजने का कार्य करता था। अमीरों पर नियंत्रण रखने के लिए बलबन एवं अलाउद्दीन खिलजी ने इसी को अपना मुख्य हथियार बनाया था।
इनके अलावा, कई अन्य छोटे पदाधिकारी और विभाग भी थे, जैसे- ‘अमीर–ए–मजलिस’ शाही जलसों (मजलिसों) का प्रबंध करता था, ‘सर–ए–जानदार’ सुल्तान की व्यक्तिगत सुरक्षा का प्रभारी अधिकारी था और ‘अमीर–ए–शिकार’ सुल्तान के लिए शिकार खेलने का प्रबंध करता था। ‘बख्शी–ए–फौज’ सेना को वेतन देता था। ‘अमीरे–बहर’ नावों का नियंत्रणकर्ता था।शाही कारखानें
सल्तनतकालीन प्रशासनिक व्यवस्था में कारखानें बहुत महत्वपूर्ण थे। सुल्तान एवं शाही हरम की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कारखानों द्वारा की जाती थी। यहाँ तक कि ‘शाही ग्रंथालय’ का विवरण भी एक कारखाने के रूप में मिलता है। दिल्ली के सुल्तानों ने कारखाने स्थापित करने के सिद्धांत को संभवतः फारस से ग्रहण किया था। मुहम्मद तुगलक ने अपने शासनकाल में एक ‘वस्त्र निर्माणशाला’ की स्थापना की थी। वह वर्ष में दो बार अमीरों के बीच रेशमी और ऊनी पोशाकें वितरित करता था जो शाही कारख़ानों में ही निर्मित होती थीं। फिरोज तुगलक के शासनकाल में 36 शाही कारखाने थे। समकालीन इतिहासकार अफीफ के अनुसार फीरोज़ के काल बड़ी संख्या (लगभग 12,000) में दासों को कासिब (कारीगर) के रूप में प्रशिक्षित किया गया था। अमीर या कुलीन भी निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने कारखाने स्थापित करते थे। शाही कारखाने आज की तरह कोई व्यवसायिक संगठन नहीं थे।
प्रत्येक कारखाने का प्रमुख उच्च दर्जे का एक अमीर होता था, जिसका पद ‘मलिक’ या ‘खान’ के बराबर होता था। कारखाने की देखभाल, नियंत्रण और हिसाब का लेखा रखने के लिए एक प्रमुख अधिकारी ‘मुतसर्रिफ’ होता था। कारखानों के हिसाब आदि के निरीक्षण के लिए एक पृथक दीवान या लेखा विभाग भी होता था। उसकी सहायता के लिए बहुत से लेखपाल एवं निरीक्षक आदि कर्मचारी होते थे।
दीवान–ए–इमारत: यद्यपि अलाउद्दीन खिलजी के समय से ही लोक-निर्माण विभाग को महत्त्व मिलने लगा था। लेकिन भवन-निर्माताओं का सुल्तान फ़िरोज तुगलक ही था जिसने न केवल ‘दीवान–ए–इमारत’ विभाग की स्थापना की, बल्कि अनेक सरायों, मकबरों सहित अनेक पुरानी इमारतों की मरम्मत कराई और कई नहरें एवं अनेक नये शहर भी बसाये।
इक्ता और प्रांतीय प्रशासन (Iqta and Provincial Administration)
सल्तनतकालीन सूबों की संरचना के संबंध में बहुत कम जानकारी है। सुल्तान का प्रत्यक्ष प्रभाव उसके अत्यंत निकटस्थ दुर्गों तथा चौकियोंवाले क्षेत्र तक ही सीमित होता था और शेष सल्तनत ‘इक्ता’ के रूप में बँटा हुआ था। कई इक्ताओं के समूह को एक ‘सूबा’ कहा जा सकता था जिसे ‘खिता’ या ‘विलायत’ कहा जाता था। इस प्रकार आरंभ में सल्तनत सैनिकों द्वारा नियंत्रित क्षेत्रों से निर्मित एक ढीली संरचना थी। सल्तनत के सेनानायक विभिन्न हिंदू सरदारों को अधीनस्थ बनाने में और सेना के भरण-पोषण हेतु उनसे धन लूटने में लगे हुए थे। ऐसी स्थिति में सल्तनत के सभी भागों में एक समान प्रशासन का सवाल ही नहीं था।
इक्ता प्रथा: ‘इक्ता’ एक अरबी शब्द है और इस प्रथा की शुरुआत भारत से बाहर फारस (ईरान) क्षेत्र तथा पश्चिमी एशिया में हुई थी। इक्ता का अर्थ है- सैनिक एवं प्रशासनिक भू–क्षेत्र, जो नगद वेतन के बदले प्रदान किया जाता था। खिलाफत के समय यह प्रथा धन की व्यवस्था करने और असैनिक तथा सैनिक अधिकारियों को वेतन देने के लिए प्रचलित थी। भारत में मुहम्मद गोरी द्वारा कुतुबुद्दीन ऐबक को हाँसी (हरियाणा) का क्षेत्र इक्ता के रूप में दिया गया पहला इक्ता था। इसके कुछ समय बाद मुहम्मद गोरी ने नसीरुद्दीन कुबाचा को उच्छ (सिंध) का क्षेत्र इक्ता के रूप में दिया था। लेकिन प्रशासनिक रूप से ‘इक्ता’ प्रणाली का आरंभ इल्तुतमिश ने 1226 ई. में किया था। उसने अपने शासनकाल में मुल्तान से लेकर लखनौती तक की सल्तनत को छोटे व बड़े इक्ताओं में बाँट दिया था।
‘इक्ता’ के प्रशासक को ‘मुफ्ती’ या ‘वली’ कहा जाता था। मुफ्ती या वली की नियुक्ति, स्थानांतरण एवं अपदस्थीकरण सुल्तान द्वारा ही किया जा सकता था। आरंभ में मुफ्ती पर अपने इक्ता के प्रशासन का पूरा दायित्व था। उसे पैदल और घुड़सवारों से युक्त एक सेना रखनी होती थी और आवश्यकता पड़ने पर सुल्तान को सैनिक सहायता देनी पड़ती थी। इक्तादार को अपने इक्ता से उचित कर (माल–ए–हक) वसूल कर अपना और अपनी सेना के व्यय का हिस्सा अलग करने के बाद शेष आय (फवाजिल) को सुल्तान के पास पहुँचाना पड़ता था। जैसे जैसे केंद्रीय नियंत्रण बढ़ा, वैसे-वैसे मुफ़्ती के प्रशासन पर भी नियंत्रण बढ़ता गया। बलबन के समय मुक्ती पर नियंत्रण रखने के लिए ‘नायब दीवान’ को राजस्व प्रशासन का प्रभारी बनाया गया, जिसे ‘ख्वाजा’ भी कहा जाता था। यह प्रक्रिया अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में और अधिक सख्त हो गई और मुफ्तियों से राजस्व निर्धारण प्रणाली के अनुरूप चलने को कहा गया। उसने मुफ्ती के स्थानांतरण पर भी बल दिया और तीन वर्ष से अधिक समय तक किसी मुफ्ती को एक इक्ता में नहीं रहने दिया।
मुहम्मद बिन तुगलक ने मुफ्तियों पर नियंत्रण के लिए ‘आमिल’ नामक अधिकारी नियुक्त किया और राजस्व-वसूली का अधिकार ‘वली–उल–खराज’ को दे दिया। उसने मुफ्ती के अधीन सैनिकों को केंद्रीय खजाने से नकद वेतन देने की घोषणा की जिसके कारण मुहम्मद बिन तुगलक को अनेक इक्तादारों के विद्रोहों का सामना करना पड़ा। फिरोज तुगलक के काल में इक्तादारों का पद वंशानुगत कर दिया गया। लोदियों के काल में इक्तेदार को ‘वजहदार’ कहा जाता था।
बरनी के अनुसार, सल्तनत में कुल बीस प्रांत थे जबकि इसमें दक्षिण भारत शामिल नहीं था। अकबर के काल के प्रांतों (सूबों) की तुलना में सल्तनत के प्रांत छोटे थे। वास्तव में मुग़ल अर्थ में प्रांतों की शुरुआत मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में हुई। एक अरब लेखक शिहाबुद्दीन अल उमर के अनुसार उसके शासनकाल में मलाबार तक समूचे देश में प्रांतों की संख्या चौबीस थी।
स्थानीय प्रशासन (Local Administration)
अफगान इतिहासकारों के ग्रंथों से ‘शिक’ एवं ‘सरकार’ जैसी स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों की सूचना मिलती है। लगता है कि प्रांत या सूबे कई छोटे-छोटे भागों में बँटे थे, जिन्हें ‘शिक’ (जिला) कहा जाता था। संभवतः 1279 ई. में बलबन ने पहली बार ‘शिक’ की स्थापना की थी। शिक के प्रशासन के लिए ‘शिकदार’ नामक अधिकारी नियुक्त किये जाते थे। लोदी काल में ‘शिक’ शब्द का प्रयोग कम हो गया और उसके स्थान पर ‘सरकार’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा था।
‘शिक’ का विभाजन परगनों में किया गया था और इसका प्रमुख अधिकारी ‘आमिल’ कहा जाता था। आमिल का प्रमुख कार्य परगने में शांति व्यवस्था स्थापित करना था। फिरोज तुगलक के समय में 55 परगनों की जानकारी मिलती है।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी। प्रत्येक परगना में अनेक गाँव होते थे। ‘सदी’ एवं ‘चौरासी’ गाँवों की समूहवाची इकाई थे। इब्नबतूता भी बताता है कि एक शहर या 100 गाँव की एक इकाई को ‘सदी’ कहा जाता था जिसकी देखरेख ‘अमीर–ए–सदा’ नामक अधिकारी करता था। प्रायः एक ‘सदी’ में 100 गाँव तथा एक ‘चौरासी’ में 84 गाँव होते थे। सदियों एवं चौरासियों में संभवतः एक चौधरी (जो एक आनुवंशिक भूस्वामी होता था) एवं एक आमिल नियुक्त किये जाते थे। एक या अधिक गाँवों का जमींदार ‘खूत’ कहलाता था, जबकि ‘मुक़द्दम’ गाँव का प्रधान होता था। पटवारी भी एक ग्राम अधिकारी होता था जिसका मुख्य कार्य गाँव में शांति व्यवस्था स्थापित करना एवं लगान वसूली में सहायता करना था।
न्यायिक व्यवस्था (Judicial System)
न्याय विभाग दिल्ली के सुल्तानों का एक असंगठित विभाग था। यद्यपि सभी मामलों में सुल्तान ही सर्वोच्च एवं अंतिम न्यायाधीश था, किंतु ‘दीवान–ए–कजा’ (न्याय विभाग) का प्रधान ‘काजी–ए–मुमालिक’ अथवा ‘काजी उल–कुजात’ (प्रधान काजी) होता था। सुल्तान के बाद न्याय का सर्वोच्च अधिकारी यही था। अकसर काज़ी-उल-कुजात और सद्र-उस-जहाँ के पद पर एक ही व्यक्ति को नियुक्त किया जाता था।
प्रांतों या अन्य प्रशासनिक इकाइयों में न्याय-व्यवस्था का स्वरूप केंद्रीय ढाँचे के अनुरूप था। इक्तों या सूबों में ‘मुफ्ती’ या ‘वली’ मुकदमों का निपटारा करने के लिए ‘काजी–ए–सूबा’ की सहायता लेते थे। काजी-ए-सूबा की नियुक्ति सद्र-ए-जहाँ की सलाह पर सुल्तान द्वारा की जाती थी। काजी-ए-सूबा की सिफारिश पर ही सूबे या परगने के अन्य काजियों की नियुक्ति होती थी। स्थानीय स्तर पर मामले प्रायः काजी, फौजदार, आमिल, कोतवाल तथा गाँव की पंचायतों द्वारा सुलझाये जाते थे। सल्तनत काल में दंड-विधान कठोर था। अपराधानुसार अंग-भंग, मुत्युदंड तथा संपत्ति-जब्ती की सजाएँ दी जाती थीं।