मध्यकालीन भारत में जिन महिलाओं ने दरबारी राजनीति और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया है, उनमें नूरजहाँ सर्वोपरि है। अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा विलक्षण गुणों के कारण यह रूपवती और महत्त्वाकांक्षी महिला लगभग पंद्रह वर्षों तक मुगल दरबार और राजनीति पर छाई रही।
नूरजहाँ का प्रारंभिक जीवन (Nur Jahan’s Early Life)
नूरजहाँ का वास्तविक नाम मेहरुन्निसा था। वह मिर्जा गियासबेग और उसकी पत्नी अस्मतबेगम की दूसरी बेटी और चौथी संतान थी। उसके माता-पिता दोनों प्रतिष्ठित फ़ारसी परिवारों के वंशज थे। 1577 ई. में मिर्जा गियासबेग ने आर्थिक कठिनाइयों के कारण ईरान छोड़कर नौकरी की तलाश भारत आने का फैसला किया। भारत आने के रास्ते में मिर्जा गियासबेग के परिवार को लुटेरों के आक्रमण का सामना करना पड़ा जिससे उनकी बची-खुची संपत्ति भी छिन गई। गियास बेग मुसीबतों से जूझता किसी तरह कंधार पहुँचा जहाँ उसकी पत्नी अस्मत बेगम ने 31 मई, 1577 ई. को दूसरी बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने ‘मेहरुन्निसा’ (महिलाओं के बीच सूर्य) रखा। बाद में एक कुलीन व्यापारी मलिक मसूद की मदद से मिर्जा गियासबेग अकबर के दरबार में उपस्थित हुआ। अकबर ने मिर्जा गियासबेग को एक साधारण पद पर नियुक्त किया। किंतु अपनी बुद्धि, योग्यता एवं परिश्रम के बल पर मिर्जा गियासबेग की पदोन्नति होती गई। 1595 ई. में वह काबुल के दीवान (कोषाध्यक्ष) जैसे उच्च प्रशासनिक पद पर पहुँच गया। सिंहासनारोहण के बाद जहाँगीर ने मिर्जा गियासबेग को ‘एत्मादुद्दौला’ (राज्य का स्तंभ) की पदवी से सम्मानित किया और उसे संयुक्त दीवान पद पर नियुक्त कर दिया।
अपनी सेवा और पदोन्नति के परिणामस्वरूप मिर्जा गियासबेग ने अपनी पुत्री मेहरुन्निसा की शिक्षा का उचित बंदोबस्त किया। शीघ्र ही मेहरुन्निसा अरबी और फारसी भाषाओं, कला, साहित्य, संगीत और नृत्य में पारंगत हो गई। नूरजहाँ और जहाँगीर के संबंध में असंख्य किंवदंतियाँ और कहानियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि शहजादा सलीम पहले ही मेहरुन्निसा के सौंदर्य पर विमुग्ध हो गया था अैर उससे विवाह करने की सोचने लगा था। किंतु अकबर इस विवाह के पक्ष में नहीं था। किंतु ऐसी कहानियों का कोई पुख्ता सबूत नहीं है।
शेर अफगन से विवाह (1594 ई.): गियासबेग ने सत्रहवर्षीय मेहरुन्निसा का विवाह 1594 ई. में अलीकुली इस्तजलू नामक एक ईरानी प्रवासी से कर दिया जो आजीविका की तलाश में भारत आया था और खानखाना के अधीन सेवा कर चुका था। इस दंपति के केवल एक बेटी लाडली बेगम थी, जिसका जन्म 1605 ई. में हुआ था।
अकबर ने 1599 ई. में अलीकुली खाँ को शहजादा सलीम के अधीन मेवाड़ पर आक्रमण के लिए भेजा। संभवतः शहजादा सलीम (जहाँगीर) ने एक क्रुद्ध बाधिन को हाथ से ही मारने के कारण अली कुली को ‘शेर अफगन’ की उपाधि प्रदान की थी। एक मत यह भी है कि उदयपुर के राणा की हार में ‘शेर अफगन’ की महत्वपूर्ण भूमिका के पुरस्कार के रूप में उसे यह उपाधि मिली थी। जब शहजादा सलीम ने अपने पिता अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया, तो शेर अफगन ने सलीम का साथ छोड़कर सम्राट अकबर का साथ दिया।
1605 ई. में बादशाह बनने पर जहाँगीर ने शेर अफगन को क्षमा कर दिया और उसे बंगाल में बर्दवान का फौजदार नियुक्त किया। शेर अफगन अपनी इस नई नियुक्ति से खुश नहीं था क्योंकि वहाँ की जलवायु उपयुक्त नहीं थी। 1606 ई. में जहाँगीर ने कुतुबुद्दीन को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। शेर अफगन के संबंध में जहाँगीर को सूचना थी कि वह साम्राज्य-विरोधी गतिविधियों में संलग्न है और सूबेदार की आज्ञाओं का पालन नहीं कर रहा है। अतः जहाँगीर ने बंगाल के सूबेदार कुतुबुद्दीन को आदेश दिया कि वह शेर अफगन को दरबार में वापस भेज दे। 1607 ई. में जब कुतुबुद्दीन बर्दवान पहुँचा, तो शेर अफगन उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। संभवतः कुतुबुद्दीन ने उसे कैद करने का प्रयास किया जिससे क्रोधित होकर शेर अफगन ने कुतुबुद्दीन की हत्या कर दी। अंत में सूबेदार के पीर खाँ नामक एक अश्वारोही सैनिक और उसके अन्य साथियों के प्रत्याक्रमण में शेर अफगन भी मारा गया।
मेहरुन्निसा का विवाह : शेर अफगन की मृत्यु की सूचना पाकर जहाँगीर ने उसकी विधवा मेहरुन्निसा और उसकी पुत्री लाडली बेगम को आगरा बुलवा लिया और उसे अकबर की विधवा राजमाता ‘रुकैया सुल्तान बेगम’ की सेवा में लगा दिया। रुकैया दिवंगत बादशाह अकबर की प्रमुख पत्नी रही और हरम में सबसे वरिष्ठ और प्रभावशाली महिला होने के नाते नूरजहाँ को मुगल हरम में सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम थीं। वहाँ मेहरुन्निसा ने हरम की स्त्रियों के लिए चोलियाँ, पोलकों, दुपट्टों, लहंगों तथा उनके वस्त्रों की नई-नई डिजाइनों का आविष्कार किया। उसने श्रृंगार तेल और सुगंधित पदार्थों से बने इत्र आदि का निर्माण किया। गुलाब के इत्र की आविष्कृत्री नूरजहाँ ही मानी जाती है।
किंतु मेहरुन्निसा को तो मल्लिका-ए-हिंदुस्तान बनना था। जहाँगीर ने अपने शासन के छठवें वर्ष मार्च, 1611 ई. में ‘नौरोज’ के अवसर पर मीना बाजार (शॅपिंग माल) में पहली बार मेहरुन्निसा को देखा। वह उसके सौंदर्य पर इतना आसक्त हुआ कि 25 मई, 1611 ई. को ही उसने मेहरुन्निसा से विवाह कर लिया। इस प्रकार नूरजहाँ जहाँगीर की बीसवीं और अंतिम बीबी बन गई। विवाह के पश्चात् जहाँगीर ने उसे पहले ‘नूरमहल’ (महल का प्रकाश) और फिर पाँच साल बाद 1616 ई. में ‘नूरजहाँ’ (संसार का प्रकाश) की उपाधि प्रदान की।
शेर अफगन की हत्या में जहाँगीर की भूमिका: कुछ इतिहासकारों ने जहाँगीर पर शेर अफगन की हत्या करने का संदेह किया है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद जैसे विद्वान् मानते हैं कि सलीम मेहरुन्निसा से पहले से प्रेम करता था और अकबर के विरोध के कारण वह उससे विवाह नहीं कर सका था। शहंशाह बनने के बाद उसने शेर अफ़ग़न की हत्या के बाद मेहरुन्निसा में विवाह किया। संभवतः शेर अफगन की हत्या जहाँगीर के इशारे पर ही की गई थी। इस संबंध में डच लेखक डी लेट लिखता है कि ‘‘जहाँगीर मेहरुन्निसा से उस समय से ही प्रेम करने लगा था जब वह कुमारी थी। किंतु उस समय अकबर जीवित था। मेहरुन्निसा की सगाई शेर अफगन नामक एक तुर्क से हो गई थी। इसलिए जहाँगीर के पिता ने उसके साथ विवाह की अनुमति नहीं दी, किंतु जहाँगीर ने उससे प्रेम करना नहीं छोड़ा।’’
किंतु इस अफवाह की सत्यता संदिग्ध है क्योंकि ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं है जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि जहाँगीर उससे पहले से प्रेम करता था या शेर अफगन की हत्या में उसकी कोई भूमिका थी। 1616 ई. में भारत आने वाले टामस रो, जिसने मुगल दरबार में नूरजहाँ के प्रभाव का वर्णन किया है, इस इस प्रेम-संबंध और हत्या के संबंध में मौन है। डॉ. बेनी प्रसाद जैसे इतिहासकार मानते हैं कि जहाँगीर ने मेहरुन्निसा को पहली बार नौरोज के अवसर पर 1611 ई. में ही देखा था और उसी वर्ष उससे विवाह कर लिया। शेर अफगन की हत्या में जहाँगीर की कोई भूमिका नहीं थी।
यह सही है कि शेर अफगन की मृत्यु संदेहपूर्ण परिस्थितियों में हुई थी, लेकिन इसमें सम्राट के अपराधी होने का कोई सबूत नहीं है। यह कुतुबुद्दीन की मूर्खता के कारण हुआ था। अगर वह शेर अफगन को उत्तेजित न करता तो संभवतः शेर अफगन भी उस पर आक्रमण नहीं करता।
नूरजहाँ का राजनीतिक प्रभुत्व (Political Dominance of Nur Jahan)
मल्लिका-ए-हिंदुस्तान बनने के समय नूरजहाँ की आयु 35 वर्ष और जहाँगीर की आयु 43 वर्ष थी। बादशाह जहाँगीर से अपनी शादी के बाद नूरजहाँ के प्रभाव में तेजी से वृद्धि हुई। वह असाधारण सुंदरी होने के साथ-साथ सुसंस्कृत, बुद्धिमती, शीलवान और विवेकसंपन्न भी थी। वह बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न थी और साहित्य, कविता तथा ललित कलाओं में उसकी विशेष रुचि थी। वह अक्सर अपने पति के साथ शिकार के दौरे पर जाती थी, और क्रूर बाघों का शिकार करने में अपनी निशानेबाजी और साहस के लिए जानी जाती थी। उसमें राजनीतिक तथा प्रशासनिक समस्याओं को समझने की सहज बुद्धि थी। उसने जहाँगीर के स्वास्थ्य पर पूरा खयाल किया और अपनी सेवा-सुश्रुषा से भी सम्राट को संतुष्ट रखा।
नूरजहाँ शीघ्र ही प्रशासनिक मामलों में सम्राट का हाथ बँटाने लगी। जहाँगीर ने भी उसकी कार्यकुशलता, प्रतिभा और योग्यता पर विश्वास कर उसे शासन करने तथा बादशात का चिन्ह धारण करने का अधिकार दे दिया। नूरजहाँ को कुछ ऐसे सम्मान और विशेषाधिकार मिले हुए थे, जो इसके पहले या बाद में किसी भी मुगल साम्राज्ञी को नहीं प्राप्त थे। वह एकमात्र मुगल साम्राज्ञी थीं जिसका नाम पर चाँदी के सिक्कों पर खुदा था। वह अक्सर जनता दरबार में उपस्थित होती थी और जनता की समस्याएँ सुनती थी। सम्राट के अस्वस्थ होने या उसकी अनुपस्थिति में वह स्वतंत्र रूप से शाही अदालत का आयोजन करती थी। उसे शाही मुहर को प्रयोग करने का अधिकार था, जिसका अर्थ था कि किसी भी दस्तावेज या आदेश को कानूनी वैधता प्राप्त करने से पहले उसकी अनुमति और सहमति आवश्यक थी। दूसरे शब्दों में, जहाँगीर केवल नाम का बादशाह रह गया था और शासन का वास्तविक संचालन नूरजहाँ द्वारा संपन्न होता था। मुअतमिर खाँ के अनुसार जहाँगीर स्वयं कहा करता था कि ‘‘उसने बादशाहत नूरजहाँ बेगम को सौंप दिया है और उसे अब सेर भर शराब और आधा सेर कबाब चाहिए था।’’ इस प्रकार जब मुगल साम्राज्य अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा के चरमोत्कर्ष पर था, नूरजहाँ साम्राज्य की सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली महिला थी।
नूरजहाँ गुट: 1616 ई. में भारत आने वाले ब्रिटिश अधिकारी सर टामस रो ने मुगल दरबार में नूरजहाँ गुट के प्रभाव का उल्लेख किया है जिसके कारण उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। इस गुट में उसके पिता एतमादुद्दौला, माता अस्मत बेगम, उसका भाई आसफ खाँ, इब्राहीम खाँ और शहजादा खुर्रम सम्मिलित थे। 1612 ई. में ही उसकी भतीजी और भाई आसफखाँ की पुत्री अर्जुमंद बानू बेगम, जो बाद में मुमताज़ के नाम से प्रसिद्ध हुई, का विवाह शहजादा खुर्रम (बाद में शाहजहाँ) से हो गया था। इस नूरजहाँ गुट का उद्देश्य खुर्रम का समर्थन करना था।
नूरजहाँ के प्रभाव के कारण उसके सगे-संबंधियों को महत्वपूर्ण पदों और भारी मनसबों से नवाजा गया। नूरजहाँ का पिता एत्मादुद्दौला का मनसब, जो 1611 ई. में 2000/500 था, 1616 ई. में 7000/5000 कर दिया गया। एत्मादुद्दौला के पुत्र और नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ का मनसब 1611 ई. में 500/100 था, जो 1616 ई. में बढा़कर 5000/3000 कर दिया गया। इब्राहीम खाँ को 1616 ई. 2000 का मनसब दिया गया और उसे बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया। खुर्रम का मनसब 1610 ई. में 10000/5000 था जो 1617 ई. में 30000/20000 किया गया।
नूरजहाँ की सलाह पर ही ख़ुर्रम को बड़ी फौज दी गई और उसे चित्तौड़ तथा दक्कन के अभियानों पर भेजा गया। दक्कन में ख़ुर्रम की कामयाबी से जहाँगीर इतना ख़ुश हुआ था कि उसने दरबार में अपने सिंहासन के बगल में उसका सिंहासन लगवाया और उसे ‘शाहजहाँ’ के खि़ताब से नवाज़ा था। इस प्रकार नूरजहाँ गुट ने शाहजादा खुर्रम को समर्थन देकर उसे गौरव और समृद्धि के शिखर पर पहुँचा दिया। अगले दस वर्षों तक इसी गुट ने साम्राज्य पर शासन किया।
किंतु 1620 ई. के अंत तक नूरजहाँ और ख़ुर्रम (शाहजहाँ) के संबंधों में खटास आने लगी थी, क्योंकि नूरजहाँ को लगने लगा था कि शाहजहाँ के बादशाह बनने पर उसका राजनीतिक प्रभाव कम हो जायेगा। अब नूरजहाँ ने जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरयार को महत्व देना प्रारंभ कर किया। उसने 1620 ई. में शेर अफ़ग़न से उत्पन्न अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह शहरयार से कर दिया और उसे 8000/4000 का मनसब दिलवाया। 1621 ई. में एतमादुदौला और 1622 ई. अस्मत बेगम की भी मृत्यु हो गई जिससे नूरजहाँ पर अपने परिवार का रहा-सहा नैतिक नियंत्रण भी समाप्त हो गया। सम्राट ने एतमादुद्दौला की अमारत और शासन तथा दफ्तर से संबंधित सभी अधिकार नूरजहाँ को दे दिया। इस प्रकार नूरजहाँ को प्रधानमंत्री का भी सम्मान मिल गया, यद्यपि व्यावहारिक रूप से दीवान-ए-कुल का पद ख्वाजा अबुल हसन के पास ही रहा। प्रधानमंत्री पद पर नूरजहाँ की नियुक्ति से न केवल महाबत खाँ जैसे मुगल अमीरों में असंतोष उत्पन्न हुआ, बल्कि शाहजहाँ भी, जो दक्षिण में था, चिंतित हो गया।
नूरजहाँ गुट में दरार : नूरजहाँ गुट में मतभेद उस समय उभर कर सामने आ गये जब 1621 ई. में शाहजहाँ को दक्षिण भेजा गया। वास्तव में 1620 में जब शाहजहाँ लाहौर में था तो दक्कन में पुनः विद्रोह हो गया। इसे कुचलने के लिए नूरजहाँ ने जहाँगीर को शाहजहाँ का नाम सुझाया। शाहजहाँ दोबारा दक्कन नहीं जाना चाहता था, किंतु नूरजहाँ उसे आगरा से दूर युद्धों में उलझाये रखना चाहती थी। इस बार शाहजहाँ अपनी सुरक्षा के लिए अपने साथ बड़े भाई खुसरो को भी दक्षिण ले गया। संभवतः नूरजहाँ भी चाहती थी कि खुसरो शाहजहाँ के साथ दक्षिण जाए ताकि उसके दामाद शहरयार को तख्तनशीं करने में आसानी हो। शाहजहाँ को दक्कन में दोबारा सफलता मिली। किंतु जब शाहजहाँ को प्रधानमंत्री पद पर नूरजहाँ की नियुक्ति की खबर मिली तो वह चिंतित हो उठा और उसने शहजादा खुसरो की हत्या कर दी। इस प्रकार नूरजहाँ तथा खुर्रम में विरोध की शुरूआत हुई।
1621 ई. में शराब और अफ़ीम की लत के चलते जहाँगीर अशक्त हो गया था। इसी दौरान ईरान के शाह अब्बास ने कंधार पर आक्रमण कर दिया। नूरजहाँ के कहने पर जहाँगीर ने फिर खुर्रम (शाहजहाँ) को दक्कन से कंधार कूच करने का आदेश दिया।
शाहजहाँ पिछले 18 महीनों से दक्कन में था, वहाँ उसने अपनी शक्ति काफ़ी सुदृढ़ कर ली थी। फलतः उसने जहाँगीर के आदेश की अवहेलना करते हुए कांधार जाने से इनकार कर दिया। उसने बादशाह के समक्ष ऐसी शर्तें रखीं जिसे स्वीकार करना संभव नहीं था। नूरजहाँ के प्रभाव में आकर जहाँगीर ने शाहजहाँ को खूब डाँटा-फटकारा और उसे यह आदेश दिया कि वह अपनी अधीनस्थ सेना को शीघ्र राजधानी भेज दे। यदि उसने ऐसा नहीं किया तो उसे पछताना पड़ेगा। शाहजहाँ ने इसे अपना अपमान समझा और इस आदेश का भी पालन नहीं किया। उधर, नूरजहाँ धीरे-धीरे शाहजहाँ की जागीरें शहरयार को हस्तांतरित करने लगी थी।
खुर्रम के व्यवहार और राजकीय आदेशों की अवहेलना से रुष्ट होकर सम्राट ने नूरजहाँ की सलाह पर शहरयार की पदोन्नति कर दी और उसे 12000 जात और 8000 सवार का मनसबदार नियुक्त किया तथा पंजाब में शाहजहाँ की हिसार-फिरोज की जागीर भी उसे प्रदान कर दी। यही नहीं, उसने शहरयार को कांधार जाने वाली सेना का सेनापति भी नियुक्त कर दिया।
खुर्रम का विद्रोह (Revolt of Khurram)
नूरजहाँ के षड्यंत्रकारी राजनीति से चिढ़कर खुर्रम (शाहजहाँ) ने 1623 ई. में जहाँगीर के विरूद्ध दक्कन में विद्रोह कर दिया। विद्रोह को दबाने के लिए नूरजहाँ ने बड़ी चालाकी से आसफ़ ख़ाँ को न भेजकर अपने धुर विरोधी मुग़ल सेनापति महाबत खाँ को शहज़ादा परवेज़ के नेतृत्व में दक्षिण भेजा। विद्रोह चार साल तक चलता रहा। शाही सेना ने उसे छोटी-छोटी मुठभेड़ों में कई बार पराजित किया। अंततः शाहजहाँ को लगा कि मुग़लिया फ़ौज से लड़ना आसान नहीं होगा, इसलिए उसने जहाँगीर से क्षमा याचना की। जहाँगीर के आदेश पर खुर्रम ने असीरगढ़ और रोहतास के दुर्ग सम्राट को सौंप दिया। जमानत के तौर पर उसे अपने दो पुत्रों- दाराशिकोह और औरंगज़ेब को, जो क्रमशः दस और आठ वर्ष के थे, बंधक के रूप में आगरा के राजदरबार में रखना पड़ा। इस प्रकार 1625 ई. तक शाहजहाँ का विद्रोह पूर्णतः शांत हो गया और उसे बालाघाट का शासक नियुक्त किया गया।
महाबत ख़ाँ का विद्रोह (Mahabat Khan’s rebellion)
शाहजहाँ के विद्रोह का दमन करने में महाबत खाँ ने सक्रिय योगदान दिया था, जिसके कारण उसके प्रभाव एवं लोकप्रियता में वृद्धि हो गई। जिस समय शाहजहाँ ने जहाँगीर से क्षमा याचना की, उस समय महाबत ख़ाँ शहजादा परवेज के साथ दक्षिण में बुरहानपुर में था। महाबत ख़ाँ एवं शाहज़ादा परवेज की निकटता से नूरजहाँ को ख़तरा हो सकता था क्योंकि परवेज महाबत खाँ को अपनी आशाओं का स्तंभ समझता था और खुर्रम के विद्रोह के बाद वह अपने को मुगलिया सल्तनत का उत्तराधिकारी मानने लगा था। अब नूरजहाँ के लिए आवश्यक हो गया था कि वह महाबत खाँ को राजधानी से दूर भेजकर उसे परवेज से अलग कर दे। वैसे भी महाबत ख़ाँ नूरजहाँ का धुर विरोधी था और नूरजहाँ भी जानती थी कि महाबत ख़ाँ उन लोगों में से है, जिन्हें शासन के कार्यों में स्त्रियों का प्रभुत्व स्वीकार नहीं है।
महाबत खाँ को शहजादा परवेज से अलग कर करने के लिए 1625 ई. में एक राज्यादेश के द्वारा महाबत खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया और गुजरात के सूबेदार खानेजहाँ लोदी को शहजादा परवेज का वकील बनाया गया। महाबत खाँ ने इसे अपना अपमान समझा और शाही आदेश मानने से इनकार कर दिया। एक दूसरा शाही आदेश जारी किया गया और महाबत खाँ को बंगाल जाने अथवा तुरंत दरबार में उपस्थित होने का आदेश मिला। महाबत खाँ ने बंगाल न जाकर अपने चार हजार राजपूत सैनिकों के साथ राजधानी की ओर प्रस्थान किया। इस बीच 28 अक्टूबर, 1626 ई. को जहाँगीर के दूसरे बेटे शहजादा परवेज़ की मौत हो गई।
महाबत खाँ की बढ़ती हुई शक्ति और और मर्यादा को देखकर आसफ खाँ भी ईर्ष्या करता था। वह महाबत खाँ के विरूद्ध नूरजहाँ का सहयोग करने लगा। महाबत खाँ पर कई गंभीर आरोप लगाये गये जिनमें उसकी ईमानदारी पर संदेह किया गया था। उसे युद्ध के समय लूटे गये धन का हिसाब देने को कहा गया। यह अफवाह भी फैली कि आसफ खाँ महाबत खाँ को बंदी बनाना चाहता है। अब महाबत ख़ाँ के पास विद्रोह करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
महाबत ख़ाँ ने 1626 ई. में काबुल जा रहे बादशाह जहाँगीर को नूरजहाँ, आसफ़ ख़ाँ और शहरयार के साथ बंदी बना लिया। किंतु महाबत खाँ सेनापति था, कूटनीतिज्ञ नहीं। अंततः नूरजहाँ ने कूटनीतिक दाँवपेंच से रोहतास के दुर्ग में पहुँचकर जहाँगीर को महाबत ख़ाँ के प्रभाव से मुक्त करवा लिया और महाबत खाँ का पतन हो गया। अब महाबत ख़ाँ ने जहाँगीर के आदेश से खुर्रम के विरूद्ध ‘थट्टा’ की ओर प्रस्थान करना किया। बाद में शाहजहाँ ने कृपापूर्वक महाबत ख़ाँ को क्षमा कर दिया और उसे अपनी सेवा में रख लिया। जहाँगीर स्वास्थ्य सुधार के लिए नूरजहाँ के साथ कश्मीर चला गया।
महाबत खाँ के विद्रोह के लिए नूरजहाँ को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी लिखते हैं कि जब महाबत खाँ दक्षिण में शाहजहाँ को खदेड़ रहा था, आसफ खाँ बहुत चिंतित था, लेकिन वह अपने दामाद को बचाने के लिए कुछ कर नहीं सकता था क्योंकि इससे नूरजहाँ को संदेह हो जाता। लेकिन जब शाहजहाँ को क्षमा कर दिया गया तो उसने उसके पक्ष में कार्य करना आरंभ किया। उसका उद्देश्य महाबत खाँ को परवेज से पृथक् करना था जिससे दोनों निर्बल हो जायें और उसके दामाद का मार्ग-प्रशस्त हो सके। उसने सम्राट और नूरजहाँ को विश्वास दिलाया कि शाहजादा परवेज के साथ इतने शक्तिशाली सेनापति का रहना साम्राज्य के लिए खतरा है। अतः सम्राट ने महाबत खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर दिया और उसे वहाँ जाने का आदेश दिया। इसके बाद आसफ खाँ ने महाबतखाँ से बंगाल की लूट और हाथियों का हिसाब माँगा। दुर्भाग्य से महाबत खाँ यह समझता रहा कि यह सब नूरजहाँ का किया-धरा है जो उसे कुचलना चाहती है। महाबत खाँ के विद्रोह का उद्देश्य केवल सम्राट को अपने नियंत्रण में रखना था। किंतु वह एक योग्य सैनिक मात्र था और राजनीतिक दाँव-पेंच नहीं समझ सका जिन्हें उस समय आसफ खाँ संचालित कर रहा था। इसलिए उसे असफल होकर अंततः शाहजहाँ की सेवा में जाना पड़ा।
1622 ई. से 1627 ई. तक नूरजहाँ भी आसफ खाँ की कुटिलता को समझने में असमर्थ रही। कश्मीर से लौटते समय 29 अक्टूबर 1627 ई. को राजौरी में जहाँगीर की मृत्यु हो गई। खुसरो और परवेज की मृत्यु हो जाने के कारण केवल खुर्रम और शहरयार ही उत्तराधिकार के लिए शेष बचे थे। आगरा दरबार में उस वक्त न शाहजहाँ था और न ही शहरयार। एक दक्कन में था और दूसरा लाहौर में। आसफ खाँ ने खुसरो के पुत्र दावरबख्श को नाममात्र का सम्राट बनाकर शाहजहाँ को शीघ्र आगरा पहुँचने के लिए लिखा। उधर लाहौर में नूरजहाँ ने शहरयार को सम्राट घोषित कर दिया और ख़ज़ाने पर अधिकार कर लिया। किंतु शाही सेना की कमान आसफ़ ख़ाँ के हाथों में थी और अधिकांश सिपहसलार शाहजहाँ के पक्ष में थे। फलतः आसफ खाँ ने लाहौर पर आक्रमण कर शहरयार को कैद कर लिया और उसे अंधा कर दिया। खुर्रम के आगरा पहुँचने पर 4 फरवरी 1628 ई. को शाहजहाँ का मुगल बादशाह के रूप में सिंहासनारोहण हुआ। इस प्रकार आसफ खाँ ने अपनी कूटनीतिक चतुरता से अपनी बहन नूरजहाँ को पराजित कर दिया।
जहाँगीर के जीवनकाल में नूरजहाँ सर्वशक्ति-संपन्न रही, किंतु 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु के साथ ही उसकी राजनीतिक प्रभुता का महल धराशायी हो गया और अपनी बेटी को मल्लिका-ए-हिंदुस्तान बनाने का उसका सपना टूट गया। बादशाह शाहजहाँ ने नूरजहाँ से कोई बदसुलूकी नहीं की और उसे दो लाख रुपया वार्षिक पेंशन देकर लाहौर में जहाँगीर की कब्र के नज़दीक रहने की अनुमति दे दी। लगभगग 18 वर्ष तक वैधव्य का एकाकी जीवन बिताने के उपरांत 8 फरवरी 1645 ई. में नूरजहाँ की मृत्यु हो गई। नूरजहाँ की कलात्मक अभिरुचि का सबसे सबल प्रमाण उसका अपने पिता एत्मादुद्दौला के अस्थि अवशेषों पर आगरा में बनवाया गया आकर्षक मक़बरा है।
नूरजहाँ का मूल्यांकन (Evaluation of Nur Jahan)
नूरजहाँ का चरित्र और व्यक्तित्व प्रभावशाली था और जहाँगीर के शासनकाल में वह सम्राट की प्रमुख सलाहकार थी। राजनीति, प्रशासन के अलावा उसे साहित्य से प्रेम था। उसे वैभव प्रदर्शन में भी रुचि थी। उसने अनेक प्रकार के आकर्षक वस्त्रों तथा आभूषणों का आविष्कार किया। वह साहसी महिला थी और आखेट पर जाती थी। उसकी कुशाग्र बुद्धि और गंभीर ज्ञान से जहाँगीर तथा अन्य पदाधिकारी प्रभावित थे। जहाँगीर के प्रति उसकी निष्ठा और प्रेम अद्वितीय था। उसने अपने पति की सेवा करके उसका विश्वास प्राप्त किया था। यद्यपि उसमें राजनीतिक विवेक था और वह राजनीतिक मामलों में अधिक रुचि लेती थी, किंतु वह आसफखाँ की कुटिलता को समझने में असमर्थ रही। उसने शहरयार जैसे अयोग्य शहजादे का समर्थन किया, यही उसकी असफलता का कारण बना। संभवतः एक स्त्री के प्रभाव में वृद्धि मुगल अमीरों को पसंद नहीं थी और दरबार में नूरजहाँ के विरोध का यही मुख्य कारण था।
नूरजहाँ एक विदुषी महिला थी और प्रधान बेगम तथा सम्राट की विश्वस्त होने के कारण प्रशासन पर उसका प्रभाव होना स्वभाविक था। यद्यपि जहाँगीर को नूरजहाँ कभी-कभी उचित सलाह देती थी जिस पर जहाँगीर अमल भी करता था, किंतु शासन की वास्तविक शक्ति जहाँगीर के ही हाथ में थी। नूरजहाँ के पिता और भाई को जो उच्च मनसब मिले थे, वे उनकी योग्यता के कारण मिले थे, इनमें कोई पक्षपात नहीं था। शाहजहाँ को भी जो उपाधि या मनसब मिले, वे भी उसकी योग्यता के ही परिणाम थे। शाहजहाँ के विद्रोह के बाद नूरजहाँ ने शाहजहाँ को क्षमा करने का कोई विरोध नहीं किया था।
मुगल दरबार में अमीरों के विभिन्न गुट हुआ करते थे, यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन नूरजहाँ ने कोई गुट बनाया था, यह कहना उचित नहीं है। शाहजहाँ का विद्रोह संदेहों पर आधारित था और उसके लिए कोई ठोस आधार नहीं था। इसलिए यह मानना कि जहाँगीर नूरजहाँ के पूर्ण प्रभाव में था, ठीक नहीं है। नूरजहाँ को वास्तविक बादशाह कहना अनैतिहासिक एवं तथ्यहीन है।