भारतीय दर्शन अध्यात्म विद्या है। भारत में दर्शनशास्त्र मूल रूप से आध्यात्मिक है। ‘दर्शन’ शब्द दर्शनार्थक दृश् धातु से बनता है जिसका अर्थ है देखना या अवलोकन करना। अत: इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ किया जाता है ‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्’ अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाय और क्या देखा जाय ? साधारणत: हम आँखों से देखते हैं तथा रूपादि को देखते हैं। परन्तु आँखों से रूप का ज्ञान देखना है, दर्शन नहीं।
अत: स्पष्ट है कि ‘देखना’ दर्शन का साधारण अर्थ है। दर्शनशास्त्र में दर्शन का एक विशेष अर्थ है: तत्त्व के प्रकृत स्वरूप का अवलोकन। तत्त्व का यथार्थ स्वरूप साधारण-दृष्टि से गम्य नहीं। – ‘‘तद् इति सर्वनां सर्व च ब्रह्म तस्यनाम् तत् इति तदभाव: तत्वं ब्रह्मणो यथात्म्यम्’’ अर्थात् तत् सर्वनाम है और सर्व ब्रºम है। अत: ब्रºम का नाम ‘तत्’ है, उसके भाव को, अर्थात् ब्रह्मम के यथार्थ स्वरूप को तत्त्व कहते हैं। इसी तत्व का अर्थात् ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का सम्यक् ज्ञान ही दर्शन है। ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप ब्रह्म दृष्टि से गम्य नहीं। ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है:-
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्व पूषन्नपावणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
अर्थात् आदित्यमण्डल में स्थित ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढ़का है। हे पूषन्! मुझ सत्यधर्मी की आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे उघाड़ दे, अर्थात् उस पात्र को सामने से हटा दे। स्पष्ट है कि दर्शन का मुख्य कार्य सत्य के स्वरूप का अनावरण करना है। परम सत्य या परम तत्त्व भारतीय दर्शन में एक मात्र ब्रह्म या आत्मा को ही माना गया है। अत: आत्मा या ब्रह्म की उपलब्धि ही दर्शन का प्रयोजन बतलाया गया है। आत्म दर्शन या ब्रह्म-दर्शन का एक मात्र फल है।: अमरतत्त्व की प्राप्ति-’’विद्ययाSमृतमश्नुते’’। सभी श्रुतियों में इस सत्य की आवृत्ति की गयी है। उदाहराणार्थ श्वेता उपनिषद में कहा गया है कि-
यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्वं
दीपोपमेनेह युक्त: प्रपश्येत्।
अजं ध्रुवं सर्वतत्वैर्विशुद्धं
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशै:।।
अर्थात् ‘‘जिस समय योगी दीपक के समान प्रकाश स्वरूप आत्मभाव से ब्रह्ममतत्त्व का साक्षात्कार करता है उस समय उस अजन्मा, निश्चल और समस्त तत्त्वों से विशुद्ध देव को जानकर वह सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाता है। इस अमृत- मार्ग का दिग्दर्शन कराने के कारण ही स्मृति में दर्शन को सम्यग्दर्शन कहते हैं। मनुस्मृति में कहा गया: सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने पर मनुष्य कर्म के बन्धन में नहीं पड़ता, जिनको सम्यग्दृष्टि नहीं है। वे ही संसार के जाल में फँस जाते हैं।
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन अध्यात्म विद्या है। इस अध्यात्म विद्या का मुख्य विषय आत्मदर्शन है। आत्म-तत्त्व का ज्ञान सबसे कठिन है। इसका रहस्य केवल सच्चे साधक और दार्शनिक की ही समझ में आ सकता है। इसको समझने वाला ही मोक्ष का अधिकारी है। इस मोक्ष का विवेचन भारतीय दर्शन का मूल-भूत सिद्धान्त है। इसलिए भारतीय दर्शन को मोक्ष-शास्त्र भी कहते हैं। मोक्ष को भारतीय दर्शन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार पुरूषार्थों में परम पुरूषार्थ माना गया है। इसको प्राप्त करने के बाद मनुष्य को कुछ पाना नहीं रह जाता। इसे नि:श्रेयस भी कहते हैं।
मोक्ष आध्यात्मिक परम तत्त्व है। इसे ही ब्रह्म-तत्त्व या आत्म-तत्त्व भी कहते हैं। मोक्ष-प्राप्ति के लिए हमें पारमार्थिक या आध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता है। यह ज्ञान वैज्ञानिक या सांसारिक ज्ञान से भिन्न है। यह मनुष्य की रक्षा करने वाला ज्ञान है। इसे ज्ञान या विद्या कहते हैं जो अविद्या, कर्म और कर्म जन्य सांसरिक बंधन का अन्त कर देती है। उपनिषदों में इसे परा विद्या कहा गया है जो अपरा विद्या (सांसारिक ज्ञान) से भिन्न है। उपनिषद् में इसी परा विद्या को मोक्ष के साधन की मान्यता प्राप्त है।
भारतीय दार्शनिकों के लिए यद्यपि मोक्ष ही परम तत्त्व है तथा उसे पाना ही परम पुरूषार्थ है, परन्तु भारतीय दार्शनिक सांसारिक यथार्थ सुख की अवहेलना नहीं करते। सांसारिक गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के लिए भी हमारे दर्शन में उपाय बतलाये गये हैं। संसार और परमार्थ दोनों के लिए उचित उपाय बतलाना भारतीय दार्शनिकों का ध्येय है। महात्मा मनु ने गृहस्थ जीवन को सुखी व्यतीत करने पर बल दिया है। अत: सांसारिक सुख और पारमार्थिक मोक्ष दोनों मार्ग बतलाना भारतीय दर्शन का सही प्रयोजन है।
यद् आभ्युदयिकं चैव नैश्रेयसिकमेव च ।
सुखं साधयितुं मार्ग दर्शयेत् तद्धि दर्शनम् ।।
क्योंकि यह शासन करता है। इसलिए भारतीय-दर्शन शास्त्र कहलाता है- ‘‘शासनात् शंसनात् शास्त्रं शास्त्रमित्यभिधीयते’’। शासन विधि और निषेधरूप होता है: यह करो, यह न करो इत्यादि। श्रुतिस्मृति सभी शासन से परिपूर्ण हैं। वेद में कहा गया है : ज्योतिष्टोम यज्ञ इष्ट स्वर्ग का साधन है तथा कलंज भक्षण अनिष्ट का साधन है। भारतीय दर्शन शास्त्र का मूल स्रोत, बीजस्वरूप वेद की वाणी सदा विधि और निषेधपूर्वक है। वेद सभी धर्मों का मूल है : ‘‘वेदोSखिलो धर्ममूलम्’’। इस प्रकार स्पष्ट है कि दर्शनशास्त्र होने के कारण धर्म से इसका अटूट सम्बन्ध है । धर्म से ही कर्त्तव्य का निर्णय होता है, और कर्म-अकर्म के निर्णय करने के कारण ही शास्त्र को प्रमाण मानते हैं। भारतीय दर्शन में शास्त्र को ईश्वर से भी अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। श्री कृष्ण ने अपने श्रीमुख से कहा है: कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणंते ‘‘कार्याकार्य व्यवस्थितौ’’- श्रीमद्भगवद् गीता 16/24
शास्त्र की मर्यादा दिखलाने के लिए ही भगवान् ने अपने को प्रमाण न बतलाकर शास्त्र को ही प्रमाण बतलाया है, क्योंकि शोक-मोह में निमग्न एक अर्जुन को श्री कृष्ण उपदेश दे सकते हैं, परन्तु करोड़ों शोकान्ध और मोहान्ध व्यक्तियों को शास्त्र ही कर्त्तव्याकर्त्तव्य की शिक्षा दे सकता है। इसी कारण शास्त्र ईश्वर से भी अधिक महत्वपूर्ण है। भारतीय-दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अंग मीमांसा है जो ईश्वर को नहीं मानता, परन्तु वेद को प्रमाण मानता है। ज्ञातव्य है कि वस्तुत: ईश्वर को नहीं मानने वाला नास्तिक नहीं, वरन् वेद-शास्त्र को प्रमाण न मानने वाला ही वास्तविक रूप में नास्तिक कहलाता है ।
भारतीय दर्शन का विभाजन
भारतीय दर्शन के दो प्रमुख विभाग है : आस्तिक और नास्तिक। साधारणत: हम ईश्वरवादी को आस्तिक और अनीश्वरवादी को नास्तिक कहते हैं, अर्थात् ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखने वाला ही आस्तिक है और जो इसके विपरीत ही वही नास्तिक है। परन्तु दार्शनिक दृष्टि से आस्तिक-नास्तिक का अर्थ दूसरा है। ‘अस्ति नास्ति दिष्टं मति:’ अर्थात् परलोक है, ऐसी मति (विचार) जिसकी है वह आस्तिक है और परलोक नहीं है, ऐसी मति जिसकी है वह नास्तिक है। इस प्रकार पुनर्जन्म आदि में विश्वास रखने वाला ही आस्तिक कहा गया है और इसके विपरीत नास्तिक। इसमें एक विसंगति यह है कि जैन और बौद्ध पुनर्जन्म में बिल्कुल विश्वास रखते हैं फिर भी वे नास्तिक कहे गये हैं। अत: पुनर्जन्म में विश्वास ही आस्तिक नास्तिक का निर्णायक नहीं कहा जा सकता। आस्तिक- नास्तिक की एक दूसरी परिभाषा महात्मा मनु ने दी है। जो प्राय: मान्य है। मनु के अनुसार वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक हैं तथा वेद को प्रमाण न मानने वाले नास्तिक है :
योSवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्रनयाद् द्विज: ।
स साधुभिर्बहि: कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक: ।।
इस प्रकार वेद-निन्दक ही नास्तिक है। इसी दृष्टि से जैन और बौद्ध नास्तिक हैं; क्योंकि इन दोनों दर्शनों में वेद की निन्दा की गयी है। अत: ईश्वर को नहीं माननेवाला नास्तिक नहीं, वेद को नहीं मानने वाला नास्तिक है। यदि ईश्वर को नहीं मानना ही नास्तिकता का परिचायक हो तो परम आस्तिक मीमांसा-दर्शन नास्तिक माना जायेगा, क्योंकि मीमांसा में ईश्वर की मान्यता नहीं । यदि पुनर्जन्म में विश्वास करना ही आस्तिकता है तो नास्तिक जैन और बौद्ध भी आस्तिक कहे जायेंगे, क्योंकि इन दर्शनों में पुनर्जन्म की मान्यता है ।
षड्दर्शन समुच्चय- उक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि भारतीय दर्शन के मुख्य दो वर्ग हैं, आस्तिक और नास्तिक। इन दोनों वर्गों की संख्या कितनी है, इस प्रश्न पर बहुत विचार किया गया है। परन्तु सामान्यत: आस्तिक दर्शन छह माने गये हैं और नास्तिक दर्शन भी छह माने गये हैं। इन्हें षड्दर्शन कहते हैं। आस्तिक षड्दर्शन है : सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, कर्ममीमांसा और ब्रºममीमांसा (वेदान्त)। नास्तिक षड्दर्शन है : चार्वाक, जैन और बौद्ध। बौद्धदर्शन में चार सम्प्रदाय हैं: वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार और माध्यमिक। अत: मिलकर ये भी छह हो गये। अत: यह भारतीय षड्दर्शन समुच्चय भी कहा जाता है। यह विभाजन आस्तिक और नास्तिक रूप में वेद को (वैदिक प्रामाण्य को) अंगीकार करके किया गया है। अत: इसे वैदिक और अवैदिक की संज्ञा भी प्राप्त है।