आठवी शताब्दी के प्रारंभ में मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में सिंध पर अरबों के आक्रमण का कोई स्थायी परिणाम नहीं हुआ। अरबों का राज्य सिंध और मुल्तान के पूर्व में नहीं फैल सका और शीघ्र ही उनकी शक्ति क्षीण हो गई। अरबों की विजय के तीन शताब्दी पश्चात् भारत में तुर्कों के आक्रमण हुए।
तुर्क मध्य एशिया की एक बर्बर और लड़ाकू जाति थी जो चीन की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं पर निवास करती थी। कठोर घासस्थलीय पृष्ठभूमि तुर्कों को एक सहज योद्धा बनाती थी। प्रशिक्षण और अनुशासन के द्वारा उन्हें अव्वल दर्जे की जंगी मशीन (योद्धा) बनाया जा सकता था। इसके अलावा, उन्हें किसी और आवश्यक वस्तु की तरह खरीदा भी जा सकता था। ट्रांस ऑक्सियाना में और उसके आसपास के बाजारों में मध्य एशिया के घासस्थलों और मावरा-उन-नहर के उत्तर में पड़नेवाले मैदानों से पकड़कर लाये गये गुलामों की भरमार रहती थी।
तुर्क लोग आठवीं सदी से ही मावरा-उन-नहर (ट्रांस-ऑक्सियाना) नामक क्षेत्र में घुसपैठ कर रहे थे, जो पूर्व एशिया की प्राचीन सभ्यताओं वाले देशों और मध्य एशिया का अंतरवर्ती क्षेत्र था। अरब के उमय्यावंशी शासकों ने मध्य एशिया की ओर इस्लाम धर्म का प्रचार किया, किंतु उमय्यदों (661-750 ई.) के अधीन सेना में भर्ती लगभग पूरी तौर पर अरबों तक ही सीमित थी। 750 ई. में उमय्यदों की जगह पर अब्बासियों ने ले ली।
अब्बासी साम्राज्य नवीं सदी में अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। उस समय उसके अंतर्गत कुस्तुन्तुनिया (कांस्टैटिनोपल) एवं मिस्र से लेकर मध्य एशिया तथा अरबी प्रायद्वीप तक के क्षेत्र शामिल थे। नवीं सदी के अंत में अब्बासी ख़लीफ़ाओं और इस क्षेत्र के ईरानी शासकों ने अपनी सुरक्षा के लिए भाड़े के तुर्की गुलामों को हरम तथा दरबार में प्रहरियों एवं अंगरक्षकों के रूप में नियुक्त करना आरंभ किया जिससे सेना में अरबों का एकाधिकार खत्म होने लगा। ऐसा विशेष तौर पर खलीफा हारून-अल रशीद के शासन के बाद (मृत्यु 809 ई.) के दशकों में हुआ।
खलीफा अल-मुतसिम (833-842 ई.) अपने आसपास तुर्की गुलामों का एक बड़ा लश्कर रखने वाला और उसे अपनी सेनाओं का आधार बनानेवाला पहला शासक था। उसने खुरासानी सैनिकों के विरुद्ध संतुलन स्थापित करने के लिए तुर्क गुलाम सैनिकों की सेना गठित की। अपने लड़ाकूपन के कारण तुर्क सैनिकों ने स्वयं को अरब और ईरानी सैनिकों से श्रेष्ठ सिद्ध किया और शीघ्र ही ईरानी भाषा और संस्कृति को आत्मसात कर लिया। इस प्रकार, तुर्की आप्रवासियों का न केवल इस्लामीकरण एवं फारसीकरण हुआ, बल्कि खिलाफत में तुर्क गुलामों का राजनीतिक महत्त्व बढ़ता गया। इसके बाद तुर्कों ने खलीफाओं को भयभीत करके ऊँचे पदों को प्राप्त कर लिया। खलीफा के अनुकरण पर प्रांतीय गवर्नरों ने भी तुर्क गुलाम सैनिकों की सेना संगठित की थी। इसके फलस्वरूप प्रांतीय राज्यों में भी तुर्कों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
पश्चिमी एवं मध्य एशिया का संक्षिप्त घटनाक्रम (Brief Events in West and Central Asia)
दसवीं शताब्दी में अब्बासी साम्राज्य के विघटन काल में अनेक आक्रामक और विस्तारवादी छोटे-छोटे स्वाधीन राज्यों की स्थापना हुई, जैसे- ताहिरी वंश, सफवी वंश, सामानी वंश और बुदेह वंश। ये सभी राज्य हर प्रकार से स्वतंत्र थे और केवल नाममात्र के लिए ही खलीफ़ा की सत्ता स्वीकार करते थे। दूसरे शब्दों में, ख़लीफ़ा का कार्य केवल उन्हें एक औपचारिक पत्र अथवा ‘मंशूर’ देकर उनकी स्थिति को वैध बनाना था। कालांतर में इन राज्यों के शासक सुल्तान कहलाने लगे। इनमें से अधिकांश सुल्तान तुर्क जाति के थे। इन तुर्क सुल्तानों ने न केवल मध्य एशिया के गैर-मुस्लिम तुर्की कबायलियों से युद्ध किये, बल्कि भारत में भी प्रवेश किये।
मध्य एशिया तथा खुरासान क्षेत्र में सामानी राजवंश (874-999 ई.) की स्थापना बल्ख से आये एक धर्मांतरित ईरानी कुलीन पुरुष ने की थी जो समरकंद, हेरात आदि का अधिकारी था। सामानी शासकों का शासन ट्रांस-आक्सियाना, खुरासान तथा ईरान के कुछ भागों में स्थित था। कुछ समय बाद, एक तुर्की मूल के गुलाम सामानी गवर्नर अल्प तिगिन ने 962 ईस्वी में गजनी में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। अल्प तिगिन के गुलाम और दामाद सुबुक तिगिन ने 977 ई. में गजनी में यामिनी वंश की स्थापना की। सुबुक तिगिन का पुत्र अमीर महमूद (997-1030 ई.) हुआ, जिसने भारत पर अनेक आक्रमण किये।
महमूद की मृत्यु (1030 ई.) के बाद शक्तिशाली सल्जूकों ने ईरान, सीरिया और ट्रांस-ऑक्सियाना पर कब्जा कर लिया। इन घटनाओं से गजनवी ताकत को गहरा धक्का लगा और गजनवी शासन पंजाब के हिस्सों तक सीमित होकर रह गया। बारहवीं शताब्दी में तुर्की कबीलों के एक गुट ने सल्जूकों की ताकत को नष्ट कर दिया। सल्जूकों के नष्ट होने से जो शून्य बना उसने ईरान में ख्वारिज्म साम्राज्य और उत्तर-पश्चिम अफगानिस्तान में गौर शक्ति का उदय हुआ।
ख्वारिज्म शासकों की शक्तिशाली विस्तारवादी नीति के कारण गौर शासकों के साम्राज्य-विस्तार के लिए भारत ही एक संभावी दिशा बची थी और विस्तार की इस प्रक्रिया की शुरुआत बारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में हुई। तुर्कों के आक्रमण के परिणामस्वरूप भारत में तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में दिल्ली सल्तनत नामक एक स्वाधीन राजनीतिक सत्ता का निर्माण हुआ। यह सल्तनत दो सौ वर्षों से अधिक समय (1526 ई.) तक चलती रही।
गजनी का उत्थान : अल्प तिगिन (Raising of Ghazni: Alp Tigin)
सामानी राज्य के तुर्क-गुलाम सैनिक अधिकारी अल्प तिगिन ने गजनी में गजनवी वंश की स्थापना की थी। वर्तमान में गजनी, अफगानिस्तान का एक शहर है जो राजधानी काबुल से 140 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अल्प तिगिन अब्बासी खलीफा के अधीन बुखारा (उज्बेकिस्तान) के सामानी शासक अबुल मलिक का तुर्की दास था। 961 ई. में सामानी शासक अमीर अब्दुल मलिक की मृत्यु हो गई और उत्तराधिकार को लेकर दो दावेदारों के बीच विवाद हो गया। अल्प तिगिन ने अब्दुल मलिक के अल्पवयस्क पुत्र का पक्ष लिया, लेकिन अन्य सरदारों ने अमीर के भाई सालेह को शासक चुना।
महत्वाकांक्षी अल्प तिगिन सामानी राज्य से अपने समर्थक सैनिकों के साथ दक्षिण की ओर चला गया और अफगानिस्तान के गजनी में 962 ईस्वी में एक स्वतंत्र तुर्की राज्य की स्थापना की जिसे गजनवी वंश कहा जाता है। अल्प तिगिन की 963 ई. में मृत्यु हो गई।
अल्प तिगिन के उत्तराधिकारी अबू ईशाक, बिल्क तिगीन, पीरी तिगीन थे। पीरी तिगीन की मृत्यु के पश्चात् अल्प तिगिन के एक तुर्क गुलाम और दामाद सुबुक तिगीन ने 977 ईस्वी में गजनी की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया।
तुर्कों की आक्रामकता के कारण (Due to the Aggression of the Turks)
हाल में ही मुसलमान बने तुर्कों की आक्रामकता में वृद्धि के कई कारण थे- चूंकि पश्चिम और मध्य एशिया के राज्य एक-दूसरे से लड़ते रहते थे और अपना प्रभुत्व कायम करने और उसे बनाये रखने का प्रयास करते रहते थे। इसलिए पश्चिम और मध्य एशिया में सैनिकवाद का विकास हुआ जिसने भारत और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों- जबुलिस्तान एवं अफ़ग़ानिस्तान के लिए ख़तरा पैदा कर दिया। उस समय तक इन क्षेत्रों में इस्लाम धर्म का प्रसार नहीं हुआ था।
तुर्कों की आक्रामकता में वृद्धि का एक कारण यह भी था कि तुर्कों के पास विश्व के सर्वोत्तम घोड़े थे जिन्हें कुशल योद्धाओं एवं निपुण घुड़सवार तुर्कों द्वारा प्रशिक्षित किया जाता था। भारत में प्रशिक्षित घोड़े फुर्ती व गति में मध्य एशियाई घोड़ों की बराबरी नहीं कर सकते थे और न ही भारतीय घुड़सवार कौशल एवं गति दोनों में तुर्की घुड़सवारों के समकक्ष ठहरते थे। जबकि पश्चिम और मध्य एशिया के घटनाक्रमों ने भारत में संभवतः इन घोड़ों के आयात को सीमित कर दिया था।
अफगानिस्तान के क्षेत्र, में विशेषकर गोर के आसपास के पर्वतों में धातुओं और विशेषकर लोहे का बाहुल्य था और उस क्षेत्र के कई अन्य नगरों की तरह वहाँ युद्ध-सामग्रियों के उत्पादन की परंपरा रही थी। इस प्रकार तुर्कों को भारी परिमाण में युद्ध-सामग्री तथा घोड़े उपलब्ध थे व दोनों ही उस काल में युद्ध के महत्वपूर्ण अंग थे।
इसी समय पश्चिम एशिया में गैर-मुस्लिम तुर्कों से ‘गाजी’ की अवधारणा का विकास हुआ। ‘गाज़ी’ नामक स्वयंसेवक इस्लाम की रक्षा और प्रसार करने के जोश से भरे थे। इस गाजी भावना का प्रयोग पहले मावरा-उन-नहर और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में ईरानी एवं तुर्क मुस्लिम शासकों ने करा-खिताई जैसे गैर-मुस्लिम तुर्कों विरूद्ध युद्ध में किया। बाद में यह भारत में काफिरों के विरुद्ध भी प्रयुक्त की गई।
खुरासान और ईरान में तुर्क सैन्य-शक्ति की वृद्धि में ‘इक्ता’ पद्धति ने भी सकारात्मक योगदान दिया। इक्ता एक भू-क्षेत्रीय अनुदान था जो उसके अधिग्राही को किसानों से राज्य को प्राप्त होनेवाले भू-राजस्व एवं अन्य करों की उगाही करने का अधिकार देता था। किंतु इसके कारण इक्तादार को मौजूदा भूमि-अधिकारों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं था। इक्ता के एवज में इक्तादार को एक निश्चित संख्या में सैनिक रखने पड़ते थे और सुल्तान के आदेश पर उन्हें सुल्तान की सेवा में प्रस्तुत करना पड़ता था। यह संस्था तुर्क सुल्तानों के लिए उपयुक्त थी क्योंकि इसका अभिप्राय यह था कि ईरानी भूस्वामियों, जिन्हें ‘दहक़ान’ कहते थे, के मौजूदा अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं होता था और न ही तुर्क सेनानायकों को भूमि में वंशानुगत अधिकार प्राप्त होता था, बल्कि वे पूरी तरह सुल्तान पर निर्भर थे। यह गतिशील सैनिक बल तुर्क सुल्तानों के नेतृत्व में मुस्लिम ताकत के भावी विस्तार का मुख्य उपकरण साबित हुआ।
भारत की ओर तुर्कों का प्रसार : सुबुक तिगीन (Spread of Turks Towards India: Subuk Tigin)
गजनवी वंश का नया शासक सुबुक तिगीन (977-997 ई.) एक शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी शासक था। सुबुक तिगीन, अल्प तिगिन का गुलाम था, लेकिन उसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर अल्प तिगिन ने उसे अपना दामाद बना लिया था। सुबुक तिगीन के शासनकाल से ही गजनी वंश को यामिनी वंश के नाम से भी जाना जाने लगा। उसका राज्य काबुल की निचली घाटी, सिंधु और झेलम का क्षेत्र, पूर्व में भटिंडा तक फैला था।
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण
तुर्कों ने भारत पर पहली बार 977 ई. में सुबुक तिगीन के नेतृत्व में आक्रमण किया। सुबुक तिगीन का समकालीन शासक शाही वंश का जयपाल (हतपाल का पुत्र) था। जयपाल का राज्य लंघमान से कश्मीर तक तथा सरहिंद से मुल्तान तक फैला हुआ था। पेशावर भी उसके शासन के अधीन था। उसकी राजधानी वैहिंद थी जिसे उद्भांडपुर के नाम से भी जाना जाता है। अलबरूनी के अनुसार शाही वंश के शासक कुषाण नरेश कनिष्क के वंशज थे।
सुबुक तिगीन ने पश्चिमी क्षेत्र में बुस्त और फुशदर को जीतकर 986 ई. में शाही जयपाल के सीमावर्ती क्षेत्रों पर आक्रमण किया। भारी वर्षा तथा हिमपात के कारण युद्ध में जयपाल पराजित हुआ और सीमावर्ती क्षेत्रों पर सुबुक तिगीन का अधिकार हो गया। संधि के बाद हर्जाने के रूप में जयपाल को एक लाख दिरहम और 50 हाथी भी देने थे।
परंतु लाहौर पहुँचकर जयपाल ने संधि की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया। फलतः 991 ई. में सुबुक तिगीन ने पुनः जयपाल पर आक्रमण कर दिया। जयपाल ने दिल्ली, अजमेर, कालिंजर तथा अन्य निकटवर्ती हिंदू राजाओं से सुबुक तिगीन के विरुद्ध सहायता माँगी। किंतु जयपाल पराजित हुआ और दर्रा-खैबर तथा पेशावर जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर सुबुक तिगीन का अधिकार हो गया और इस प्रकार भारत पर तुर्क आकमण का रास्ता खुल गया।
997 ई. में सुबुक तिगीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महमूद गजनी का शासक हुआ, जिसे इतिहास में महमूद गजनवी के नाम से जाना जाता है।
महमूद गजनवी, 997-1030 ई.) (Mahmud Ghaznavi, 997-1030 AD)
अमीर महमूद (997-1030 ई.) का जन्म 2 नवंबर 771 ई. में गजनी में हुआ था। उसके राज्यारोहण के समय उसकी अवस्था 27 वर्ष थी। वह सुल्तान की उपाधि धारण करनेवाला पहला मुस्लिम शासक था, यद्यपि उसकी उपाधि अमीर ही मिलती है। महमूद अपने आपको ईरानी काल्पनिक नायक अफरासियाब का वंशज होने का दावा करता था। उसने तुर्कों का पूरी तौर पर इस्लामीकरण और ईरानीकरण किया। महमूद के दरबारी इतिहासकार उत्बी (किताबुलयामिनी) की मानें तो बगदाद के खलीफा अल-कादिर-बिल्लाह से ‘यमीन-उद्दौला’ तथा ‘अमीन-उल-मिल्लाह’ उपाधियों से प्रेरित होकर उसने भारत पर हर वर्ष आक्रमण करने की शपथ ली थी।
महमूद अपने पिता सुबुक तिगीन के साथ अनेकों युद्धों में भाग ले चुका था। वह बचपन से ही भारत की अपार समृद्धि व संपन्नता की बात सुनता आ रहा था। वह अपने पिता सुबुक तिगीन के समय शाही राजा जयपाल के राज्य से लूटकर लाई गई अपार संपत्ति को देख चुका था। इसलिए वह भी भारत से अपार संपत्ति लूटना चाहता था।
अनेक समकालीन और परवर्ती इतिहासकारों, जैसे- उत्बी, गरदीजी, इब्न-उल-असीर, जियाउद्दीन बरनी आदि ने इस्लाम के प्रति महमूद की सेवा की प्रशंसा की है और उसे श्रेष्ठ मुजाहिद (धर्म सैनिक), आदर्श मुस्लिम शासक और गाजी के रूप में प्रस्तुत किया है जिसने भारत में जेहाद किया और मंदिरों तथा मूर्तियों का विनाश किया। किंतु वास्तव में महमूद का मुख्य उद्देश्य भारत में इस्लाम का प्रचार करना नहीं था, वह केवल अधिकाधिक धन प्राप्त करना चाहता था। महमूद ने राज्यारोहण के समय जो भारत पर आक्रमण करने की घोषणा की थी, वह जेहाद या धार्मिक युद्ध की घोषणा नहीं थी। यह सही है कि अपने अभियानों में महमूद ने मंदिरों और मूर्तियों को बड़ी संख्या में नष्ट किया, किंतु इसका कारण मात्र इतना था कि वह अपने सैनिकों में धार्मिक उन्माद पैदा करना चाहता था और अपने अभियानों को इस्लाम की सेवा के रूप में प्रस्तुत करता था।
वास्तव में महमूद मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। इन क्षेत्रों को जीतने और इनकी सुचारु व्यवस्था के लिए एक बड़ी सेना और धन की आवश्यकता थी। अपने राज्यारोहण के तीन वर्ष बाद ही महमूद ने मुख्यतया धन प्राप्त करने और अंशतः इस्लाम के प्रचार के उद्देश्य से भारत पर आक्रमण करना आरंभ कर दिया। शताब्दियों से भारत के मंदिरों में विशाल धन-संपत्ति एकत्र थी, इसलिए हिंदू मंदिर ही महमूद के आक्रमण और लूटपाट के मुख्य निशाना बने। स्मिथ ने भी लिखा है कि ‘‘महमूद गजनवी विस्तृत क्षेत्र में कार्य करनेवाला एक लुटेरा था।’
महमूद गजनवी के समय उत्तर भारत की स्थिति (Status of North India at the time of Mahmud Ghaznavi)
भारत में महमूद गजनवी के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य यहाँ की अपार संपत्ति को लूटना और यहाँ इस्लाम का विस्तार करना था। उसने भारत में तुर्क साम्राज्य स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया। महमूद के आक्रमण के समय उत्तर भारत की स्थिति इस प्रकार थी-
मुल्तान तथा सिंध: मुल्तान तथा सिंध के दोनों प्रदेशों में अरबों ने अपने राज्य स्थापित कर लिये थे। नवीं शताब्दी के अंत में मुल्तान का शासक फतेह दाऊद था। सिंध में अब भी अरब लोग शासन कर रहे थे।
काबुल तथा पंजाब का शाही राज्य: उत्तरी-पश्चिमी भाग में शाही वंश का राज्य चिनाब से लेकर हिंदूकुश तक फैला हुआ था। इस वंश ने दो सदियों तक अरबों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया था। तुर्क आक्रमण के समय यहाँ जयपाल शासन कर रहा था। उसकी राजधानी उदभांडपुर (सिंध के दक्षिण किनारे पर स्थित) में थी। यही राज्य सबसे पहले तुर्क आक्रमण का शिकार हुआ।
कश्मीर का राज्य: नवीं तथा दसवीं शताब्दी में कश्मीर में उत्पल राजवंश का शासन था। इस वंश के शक्तिशाली नरेश शंकरवर्मा ने अपने साम्राज्य को दूर-दूर तक विस्तृत किया। उसकी मृत्यु के बाद 939 ईस्वी में यशस्कर ने ब्राह्मणों की सहायता से राजगद्दी प्राप्त की। यशस्कर का शासनकाल शांति एवं समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है। उसके बाद पर्वगुप्त तथा फिर क्षेमगुप्त राजा हुए। अंतिम शासक के काल में (980 ईस्वी) उसकी पत्नी दिद्दा वास्तविक शासिका थी। अंततोगत्वा दिद्दा ने राजगद्दी हथिया ली तथा 1003 ईस्वी तक शासन किया। दिद्दा की मृत्यु के बाद उसके भतीजे संग्रामराज ने कश्मीर में लोहारवंश की स्थापना की। इस प्रकार मुस्लिम आक्रमण के समय कश्मीर का राज्य अव्यवस्था एवं अराजकता का शिकार था।
कन्नौज का प्रतिहार: नवीं शताब्दी में 836 ईस्वी के लगभग कन्नौज में प्रतिहार राजवंश की स्थापना हुई थी। इस वंश के शक्तिशाली शासक वत्सराज और उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय थे। इस वंश का दक्षिण के राष्ट्रकूट तथा बंगाल के पाल राजवंशों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष चलता रहा। कालांतर में प्रतिहारों की शक्ति क्षीण हो गई। इस वंश के अंतिम शासक राज्यपाल के समय में (1018 ईस्वी) महमूद गजनवी ने कन्नौज के ऊपर आक्रमण किया था।
मालवा का परमार राजवंश: दसवीं शताब्दी (972 ईस्वी) के अंतिम चरण में सीयक नामक व्यक्ति ने मालवा में स्वतंत्र परमार वंश की स्थापना की थी। आरंभ में इस वंश के शासक राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार करते थे। इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा मुंज (973-995 ईस्वी) था। उसके बाद सिंधुराज तथा फिर भोज शासक हुए जो महमूद गजनवी के समकालीन थे।
बुंदेलखंड का चंदेलवंश: दसवीं शताब्दी में बुंदेलखंड एक अत्यंत शक्तिशाली राज्य था जहाँ चंदेलों का शासन था जो आरंभ में गुर्जर-प्रतिहारों के अधीन थे। स्वतंत्र चंदेल राजवंश की स्थापना हर्ष (900-925 ईस्वी) ने की थी। चंदेल वंश के प्रमुख शासक धंग, गंड तथा विद्याधर थे। महमूद गजनवी ने चंदेल विद्याधर (1019-1029 ईस्वी) के समय में आक्रमण किया था। मुस्लिम लेखकों ने उसे तत्कालीन भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बताया है।
त्रिपुरी का कलचुरि-चेदि वंश: चंदेल राज्य के दक्षिण में कलचुरियों का राज्य था जिसकी राजधानी त्रिपुरी (जबलपुर, म.प्र.) में थी। इस वंश की स्थापना कोक्कल ने की थी। उसने प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटो को पराजित किया था। कोक्कल ने दक्षिण-पूर्व की ओर अरबों के प्रसार को भी रोके रखा। उसके उत्तराधिकारियों ने तेरहवी शती के अंत तक महाकोशल क्षेत्र में शासन किया। तुर्क आक्रमण के समय यह मध्य भारत का एक शक्तिशाली राज्य था।
शाकम्भरी का चौहान वंश: चौहान राज्य राजस्थान में अजमेर के उत्तर में स्थित था जिसकी राजधानी सांभर (शाकम्भरी) थी। दसवीं शती के मध्य इस वंश के सिंहराज ने प्रतिहारों के विरुद्ध अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। उसके उत्तराधिकारी विग्रहराज द्वितीय ने गुजरात के चालुक्यों की विजय की तथा अपने राज्य का विस्तार नर्मदा तक किया। दसवीं शती के अंत में यह एक शक्तिशाली राज्य था।
गुजरात का चालुक्य राजवंश: इस वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम (974-995 ईस्वी) था। उसने गुजरात तथा सुराष्ट्र की विजय की। उसका उत्तराधिकारी चामुंडराज (995-1022 ईस्वी) था जिसने धारा के परमार नरेश सिंधुराज को पराजित किया था। महमूद का समकालीन चालुक्य शासक भीम प्रथम (1022-1064 ई.) था। भीम प्रथम के समय में ही महमूद गजनवी ने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को लूटा था।
बंगाल का पाल: आठवीं शती के द्वितीयार्द्ध में बंगाल के पालों ने एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की थी। इस वंश के प्रसिद्ध शासक धर्मपाल तथा देवपाल थे जिनका प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष चला। ग्यारहवीं शती के प्रथम चरण में बंगाल का पालवंशी शासक महीपाल प्रथम था। इसी समय महमूद पश्चिमी भारत के राज्यों को जीतने में संलग्न था।
इसके अतिरिक्त, महमूद के आक्रमण के समय उत्तरी भारत के अलावा विंध्यपर्वत के दक्षिण में भी अनेक राज्य विद्यमान थे जिनमें कल्याणी के चालुक्य तथा तंजौर के चोल शक्तिशाली थे। जिस समय चोल तथा चालुक्य दक्षिण में परस्पर संघर्षरत थे, उसी समय उत्तरी भारत के राज्य महमूद गजनवी के आक्रमणों का शिकार हो रहे थे। विभाजन तथा पारस्परिक संघर्ष की इस स्थिति का तुर्क आक्रमणकारियों ने पूरा लाभ उठाया।
भारत पर महमूद गजनवी के आक्रमण (Mahmud Ghaznavi’s Invasion of India)
महमूद ने भारत पर अपने आक्रमणों का सिलसिला 1000 ई. से प्रारंभ किया। सर हेनरी इलियट के अनुसार महमूद गजनवी ने भारत पर कुल 17 आक्रमण किये थे, जबकि कुछ अन्य इतिहासकार मानते हैं कि महमूद ने भारत पर केवल 12 बार आक्रमण किया था। आक्रमणों की संख्या जो भी रही हो, महमूद को अपने सभी सैनिक अभियानों में प्रायः सफलता ही मिली। महमूद के कुछ प्रमुख सैनिक अभियानों का विवरण इस प्रकार है-
पेशावर क्षेत्र का दृढ़ीकरण: महमूद गजनवी ने भारत पर पहला आक्रमण 1000 ई. में शाही राजा जयपाल के विरुद्ध किया और कुछ सीमांत दुर्गों पर अधिकार किया। संभवतः सुबुक तिगीन की मृत्यु के बाद जयपाल ने पेशावर क्षेत्र को पुनः जीतने का प्रयास किया था। इसलिए महमूद को अपने पहले अभियान में इस क्षेत्र में आकर अपनी स्थिति सुदृढ़ करनी पड़ी।
महमूद का दूसरा अभियान: महमूद ने 1001 ई. में अपने दूसरे सैनिक अभियान में पेशावर के निकट जयपाल को पराजित कर बंदी बना लिया। महमूद उसकी राजधानी उदभांडपुर को लूटने के बाद अतुल संपत्ति लेकर गजनी वापस लौट गया। जयपाल को भारी हर्जाना और 50 हाथी देकर मुक्त कराया गया। अपमानित जयपाल ने शासन का भार अपने पुत्र आनंदपाल को सौंपकर आत्मदाह कर लिया।
भटिंडा (भेरा) पर अधिकार: महमूद का तीसरा अभियान तीन वर्ष बाद 1004 ई. में हुआ। इस बार उसका उद्देश्य झेलम नदी पर स्थित भटिंडा (भेरा) नामक व्यापारिक केंद्र पर अधिकार करना था। दरअसल भटिंडा का सुदृढ़ दुर्ग पश्चिमोत्तर भारत से गंगा की उपजाऊ घाटी तक पहुँचने के मार्ग में पड़ता था। भटिंडा के शासक विजयराय को पराजित कर उसकी हत्या कर दी गई और महमूद ने उस पर अधिकार कर लिया।
मुल्तान पर अधिकार: अगले वर्ष 1005 ई. में महमूद ने मुल्तान पर आक्रमण किया। उत्बी के अनुसार, मुल्तान का शासक अबुलफतह शिया मतावलंबी था, इसलिए सुल्तान ने अधर्म को नष्ट करने के लिए उस पर आक्रमण किया। अबुलफतह भाग गया और महमूद ने अपनी ओर से सुखपाल को वहाँ का राजा बनाया।
सुखपाल जयपाल की पुत्री का पुत्र था जो महमूद द्वारा बंदी बनाकर गजनी ले जाया गया था जहाँ उसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। वास्तविकता यह है कि मुल्तान अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र था और महमूद उस पर अधिकार करना चाहता था।
वैहिंद का युद्ध: 1008 ई. में महमूद ने शाही जयपाल के उत्तराधिकारी आनंदपाल पर आक्रमण किया। मुल्तान पर आक्रमण के दौरान आनंदपाल ने महमूद को अपने राज्य से नहीं गुजरने दिया था। दोनों सेनाओं के मध्य वैहिंद के निकट युद्ध हुआ। फरिश्ता के अनुसार आनंदपाल ने महमूद के विरुद्ध अनेक राजपूत राजाओं से सहायता भी प्राप्त की, लेकिन आनंदपाल पराजित हुआ और शिवालिक पहाड़ियों में भाग कर नंदना को अपनी राजधानी बनाया। महमूद ने नगरकोट के प्रसिद्ध मंदिर को लूटा।
नरायणपुर पर आक्रमण: अगले वर्ष 1009 ई. में महमूद ने अलवर स्थित एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र नारायणपुर पर आक्रमण कर लुटपाट किया तथा उस पर अधिकार कर लिया।
मुल्तान पर आक्रमण: मुल्तान का शासक सुखपाल इस्लाम का धर्म को त्यागकर स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहा था। फलस्वरूप 1008 ई. में महमूद ने मुल्तान पर पुनः आक्रमण कर उसे बंदी बना लिया तथा उस पर अपना अधिकार कर लिया।
त्रिलोचनपाल पर आक्रमण: 1013 ई. में महमूद ने आनंदपाल के उत्तराधिकारी त्रिलोचनपाल पर आक्रमण किया। शाही शासक पराजित हुआ और कश्मीर भाग गया।
थानेश्वर पर आक्रमण: 1014 ई. में महमूद ने थानेश्वर के विरुद्ध अभियान किया। थानेश्वर का शासक डरकर भाग गया तथा महमूद ने मनमाने ढंग से नगर की लूट-पाट की और प्राचीन चक्रस्वामी मंदिर को लूटकर चक्रस्वामी की मूर्ति को गजनी भेज दिया।
कश्मीर पर आक्रमण: 1015 ई महमूद ने कश्मीर पर आक्रमण किया जहाँ त्रिलोचनपाल ने शरण ले रखी थी। कश्मीरी सैनिकों ने घाटी में डटकर महमूद का मुकाबला किया, किंतु अंत में महमूद को असफल होकर वापस लौटना पड़ा।
मथुरा और कनौज पर आक्रमण: 1018 ई. में महमूद ने शाही राजवंश के शासक त्रिलोचनपाल (आनन्दपाल का पुत्र) को पराजित किया। उसने मथुरा नगर पर आक्रमण कर अनेक भव्य एवं प्रसिद्ध मंदिरों को लूटकर अतुल संपत्ति प्राप्त की। यहाँ से वह कन्नौज की ओर बढ़ा। कन्नौज का प्रतिहार शासक राज्यपाल भाग खड़ा हुआ और उसने बड़ी आसानी से नगर पर अधिकार कर लिया। उसकी सेना ने नगर में भारी लूट-पाट एवं कत्लेआम किया। यहाँ से भी उसे बड़ी संपत्ति हाथ लगी। मथुरा तथा कनौज से अतुल संपत्ति लेकर महमूद गजनी लौट गया।
कन्नौज नरेश राज्यपाल के कायरतापूर्ण व्यवहार से क्षुब्ध होकर राजपूत राजाओं ने कालिंजर (बुंदेलखंड) के चंदेल नरेश विद्याधर (गंड का पुत्र) की अध्यक्षता में एक संघ बनाया। इस संघ ने कन्नौज के भगोड़े शासक राज्यपाल पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी। इस संघ को भंग करने के उद्देश्य से 1019 ईस्वी के अंत में महमूद ने पुनः गजनी से भारत की ओर प्रस्थान किया।
कालिंजर पर आक्रमण: महमूद ने चंदेल राजा विद्याधर के नेतृत्व में बने संघ को नष्ट करने के लिए 1020 ई. में विद्याधर पर आक्रमण किया। दरअसल चंदेल विद्याधर की आज्ञा से ही उसके सामंत अर्जुन ने प्रतिहार नरेश राज्यपाल की हत्या की थी। कुछ विद्वानों का मत है कि उस समय चंदेल शासक गंड था। महमूद ने ग्वालियर होते हुए कालिंजर पर आक्रमण किया। कालिंजर चंदेल राज्य का दुर्भेद किला था। महमूद कालिंजर को जीतने में असफल रहा और उसे असफल वापस लौटना पड़ा।
पंजाब पर आक्रमण: महमूद ने 1020 ई. में पंजाब पर अधिकार कर अपना प्रशासन स्थापित किया ताकि पंजाब उसके लिए आधार का कार्य कर सके। शाही शक्ति नष्ट हो जाने से महमूद का कोई प्रतिरोध नहीं हुआ।
कालिंजर पर आक्रमण: चंदेलों को पूरी तरह कुचलने के उद्देश्य से महमूद ने 1022 ई. में पुनः कालिंजर पर आक्रमण किया और दुर्ग का घेरा डाल दिया। दीर्घकालीन घेरे के बाद भी वह फिर असफल रहा और चंदेल राजा से 300 हाथी एवं कुछ भेंटें लेकर गजनी लौट गया।
सोमनाथ पर आक्रमण: महमूद का अंतिम महत्वपूर्ण अभियान सोमनाथ मंदिर के विरुद्ध 1025-26 ई. में हुआ। इस समय गुजरात का शासक भीमदेव प्रथम (1022-1064 ई.) था। सौराष्ट्र में समुद्रतट पर स्थित सोमनाथ का मंदिर अपनी पवित्रता, गौरव एवं अपार संपत्ति के लिए प्रसिद्ध था। महमूद का उद्देश्य इस मंदिर में एकत्रित अपार संपत्ति को लूटना था। मुल्तान के रास्ते 1025 ई. में महमूद गजनवी काठियावाड़ पहुँचा और राजधानी अन्हिलवाड़ा में जमकर लूटपाट की। कठियावाड़ के शासक भीमदेव प्रथम ने भयभीत होकर एक किले में शरण ली। महमूद ने मंदिर में भीषण लूटपाट की और 50 हजार पंडे, पुजारियों का वध करवा दिया। सोमनाथ की मूर्ति टुकड़े-टुकड़े कर दी गई तथा उसे गजनी, मक्का और मदीना की मस्जिदों की सीढ़ियों में चिनाई के लिए भेज दिया गया। यहाँ महमूद को लगभग 20 लाख दीनार की धनराशि मिली जिसे लेकर वह कच्छ के रन के दुर्गम रेगिस्तानी रास्ते से मुल्तान होता हुआ गजनी लौटा। इस बीच मार्ग में जाटों ने उसकी सेना पर आक्रमण कर कुछ संपत्ति लूट लिया, किंतु महमूद सकुशल गजनी पहुँच गया।
महमूद के आक्रमण से भीमदेव के राज्य पर कोई प्रतिकल प्रभाव नहीं पड़ा और उसने आक्रमणकारी से अपनी रक्षा की। फरिश्ता लिखता है कि भीमदेव ने तीन हजार मुसलमानों की हत्या कर दी थी, इसलिए महमूद को भयवश अपना रास्ता बदलना पड़ा था। महमूद के भीमदेव ने सोमनाथ मंदिर पुनः निर्माण करवा दिया।
जाटों के विरुद्ध अभियान: जाटों से बदला लेने के लिए महमूद ने 1027 ईस्वी में पुनः सिंध पर आक्रमण किया जिसमें हजारों जाट मौत के घाट उतार दिये गये। यह महमूद गजनवी का भारत पर अंतिम आक्रमण था। 30 अप्रैल 1030 ई. में टीबी से उसकी मौत हो गई।
महमूद के आक्रमणों का प्रभाव (Effect of Mahmud’s Attacks)
महमूद ने अपने 33 वर्षों के शासनकाल में भारत के विरुद्ध अनेक अभियान किये। यद्यपि इलियट ने इन अभियानों की संख्या सत्रह बताई है, यद्यपि इस गणना का कोई महत्व नहीं है। फिर भी, महमूद के अभियानों ने उसकी सैनिक कुशलता और राजपूत राजाओं की दुर्बलता प्रमाणित कर दिया।
महमूद के अभियानों के भारत पर प्रभाव के संबंध में प्रो. हबीब का मानना है कि महमूद ने जो विनाश और लूटपाट की उसका प्रभाव अस्थायी रहा। थोड़े समय बाद भारत की उर्वरा भूमि ने उन लूटे हुए प्रदेशों को पुनः समृद्ध बना दिया। महमूद की धन-लोलुपता ने जो घाव किये थे, वे भर गये, लेकिन उसने इस्लाम का जो विनाशकारी रूप प्रस्तुत किया उससे इस्लाम की अत्यधिक हानि हुई।
राजनीतिक रूप से महमूद का स्थायी कार्य पंजाब और सीमांत क्षेत्रों पर अधिकार करना था। शाही वंश नष्ट हो गया और पंजाब को राजपूत फिर कभी मुक्त नहीं करा सके जिसको आधार बनाकर तुर्कों ने आगामी वर्षों में आक्रमण किये। महमूद के अभियानों ने भारत में आगामी तुर्क आक्रमणों के लिए रास्ता खोल दिया दिया।
महमूद ने समृद्धशाली नगरों की अपरिमित संपत्ति को लूटा और नगरों का विनाश दिया। भारतीय धन के प्रयोग से उसने मध्य और पश्चिम एशिया में अपने साम्राज्य विस्तार में किया। महमूद मंदिरों को नष्ट करके इस्लाम की सेवा करने का प्रचार किया और मुस्लिम विश्व में ‘गाजी’ के रूप में प्रसिद्धि पाई। पंजाब में अनेक मुस्लिम विद्वान और संत आये और लाहौर मुस्लिम विद्या व धर्म का केंद्र बन गया। महमूद के आक्रमणों से राजपूतों की राजनीतिक, सैन्य संगठन और युद्ध प्रणाली के दोष स्पष्ट हो गये जिसका लाभ महमूद और बाद के आक्रमणकारियों ने उठाया।
महमूद का मूल्यांकन (Evaluation of Mahmud)
महमूद निःसंदेह सैनिक प्रतिभा-संपन्न एक महान सेनानायक था। उसने भारत, मध्य एशिया, ईरान, इराक में अनेक युद्ध लड़े और प्रायः सभी में विजय पाई। उसने अपनी योग्यता के बल पर एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया जिसमें पंजाब, सिंध, अफगानिस्तान, बल्ख, मध्य एशिया, ईरान, खुरासान, इराक के प्रदेश सम्मिलित थे। वह पहला सुल्तान था जिसने ‘सुल्तान’ की उपाधि धारण की। यद्यपि महमूद ने खलीफा की सत्ता को कभी मान्यता नहीं दी, फिर भी खलीफा अल-कादिर बिल्लाह ने उसे ‘अमीन-उल-मिल्लत’ और यामिन-उद-दौला की उपाधियाँ प्रदान की थीं।
योग्यता की दृष्टि से महमूद एक महान सुल्तान था। अपने समकालीन लोगों में वह चरित्रबल से नहीं, बल्कि योग्यता के कारण ही इतना उच्च पद प्राप्त कर सका था। वह एक महान विजेता तथा उच्च कोटि का सेनानायक था जिसने गजनी के छोटे से राज्य को विशाल साम्राज्य में बदल दिया।
भारतीय धन तथा कलाकारों से गजनी के वैभव में वृद्धि हुई और वह एक भव्य नगर बन गया। महमूद ने गजनी को कला और संस्कृति का केंद्र बना दिया। उसने गजनी को भव्य भवनों से अलंकृत कर दिया जिनमें एक मस्जिद, जिसे स्वर्ग की वधू कहा जाता। उसने अपने दरबार में अनेक विद्वानों, साहित्यकारों को राज्याश्रय प्रदान किया। उसकी राजसभा में फिरदौसी, अंसूरी, फारुखी जैसे विद्वान रहते थे। उसने गजनी में विश्वविद्यालय की स्थापना की और विद्वानों को निमंत्रित किया।
महमूद के चरित्र का सबसे बड़ा दोष धन-लोलुपता थी। धन का असीम लालच उसके जीवन का सबसे बड़ा कलंक था। इससे उसकी कार्यक्षमता और ख्याति दोनों को काफी धक्का लगा।’’ उसमें रचनात्मक प्रतिभा का भी अभाव था। उसने प्रशासन को सुसंगठित नहीं किया और स्थायी संस्थाओं का निर्माण नहीं किया। अतः स्वाभाविक है कि उसकी मृत्यु के बाद सारा साम्राज्य लड़खड़ा कर धराशायी हो गया।
महमूद एक धर्मनिष्ठ मुसलमान था और उसने सदैव यही घोषित किया कि वह गाजी है और एक धर्मनिष्ठ मुजाहिद है। तत्कालीन सभी मुस्लिम इतिहासकार भी उसे एक आदर्श मुस्लिम शासक मानते हैं। महमूद ने अपनी सत्ता पर किसी अंकुश को स्वीकार नहीं किया और धर्म का उपयोग उसने अपनी सत्ता की वृद्धि में ही किया था। लेकिन हिंदुओं की दृष्टि में वह एक लुटेरा और विनाशकर्ता था।