मराठा राज्य का निर्माण एक क्रांतिकारी घटना है। भारतीय इतिहास के पूर्व मध्यकाल में मराठों की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में उज्जवल परंपराएँ थीं। उस समय उन्होंने देवगिरी के यादवों के अधीन राष्ट्रीय पक्ष का समर्थन किया था। अलाउद्दीन के समय में यादव रामचंद्रदेव के पतन के साथ उनकी स्वतंत्रता नष्ट हो गई, परंतु चालीस वर्षों में वे पुनः बहमनी राज्य में तथा आगे चलकर उत्तरगामी सल्तनतों में महत्त्वपूर्ण भाग लेने लगे। सत्रहवीं सदी में छत्रपति शिवाजी राजे भोसले द्ध1630-1680 ई.) ने पश्चिम भारत में राष्ट्रीय राज्य के रूप में मराठा साम्राज्य की नींव रखी।
मराठों के उत्कर्ष के कारण (Due to Maratha’s Height)
भौगोलिक प्रभाव
प्रथमतः महाराष्ट्र के लोगों के चरित्र तथा इतिहास को ढ़ालने में वहाँ के भूगोल का गहरा प्रभाव पड़ा। मराठा देश दो तरफ से पहाड़ की श्रेणियों से घिरा है- सह्यद्रि उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ है तथा सतपुड़ा एवं विंध्य पूर्व से पश्चिम तक फैले हुए हैं। यह नर्मदा एवं ताप्ती नदियों द्वारा रक्षित है। इसमें आसानी से प्रतिरक्षित हो सकनेवाले बहुत से पहाड़ी दुर्ग थे। यही कारण था कि मराठा देश अश्वारोहियों के एक धक्के से अथवा यहाँ तक कि एक वर्ष तक आक्रमण करने पर भी नहीं जीता जा सकता था। देश की ऊबड़-खाबड़ एवं अनुर्वर भूमि, इसकी अनिश्चित एवं कम वर्षा और कृषि-संबंधी इसके अल्प-साधनों के कारण मराठे विषय-सुख एवं आलस्य के दोषों से बचे रहे तथा उन्हें अपने में आत्म-निर्भरता, साहस, अध्यवसाय, कठोर सरलता, रुक्ष खरापन, सामाजिक समानता की भावना एवं इसके फलस्वरूप मनुष्य के रूप में मनुष्य की प्रतिष्ठा में गर्व का विकास करने में सहायता मिली।
धर्म-सुधारकों का प्रभाव
मराठा धर्म-सुधारकों जैसे एकनाथ, तुकाराम, रामदास और वामन पंडित ने इस क्षेत्र में ईश्वर-भक्ति, मानव समता और कार्य की प्रतिष्ठा जैसे सिद्धांतों का प्रचार कर पुनर्जागरण अथवा आत्म-जागरण के बीजों का रोपण कर दिया था, जो सामान्यतया किसी राजनैतिक क्रांति की पृष्ठभूमि प्रस्तुत कर उसके आगमन का पूर्वाभास प्रस्तुत करते हैं। शिवाजी के गुरु रामदास समर्थ ने स्वदेशवासियों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला था। उन्होंने मठों के अपने शिष्यों एवं अपनी प्रसिद्ध कृति ‘दासबोध’ के द्वारा समाज-सुधार तथा राष्ट्रीय पुनर्जीवन के आदर्शों से प्रेरित किया।
साहित्य एवं भाषागत एकता
साहित्य एवं भाषा से महाराष्ट्र के लालों को एकता का एक अन्य बंधन मिला। धर्म-सुधारकों के भक्ति-गीत मराठी भाषा में लिखे गये। फलस्वरूप पंद्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों में एक सबल मराठी साहित्य का विकास हुआ, जिससे देशवासियों को श्रेष्ठ आकांक्षाओं के लिए प्रेरणा मिली। इस प्रकार सत्रहवीं सदी में महाराष्ट्र में, शिवाजी द्वारा राजनैतिक एकता प्रदान किये जाने के पहले ही, भाषा, धर्म एवं जीवन की एक विलक्षण एकता स्थापित हो गई थी। लोगों के ऐक्य भाव में जो थोडी कमी थी, वह शिवाजी के द्वारा एक राष्ट्रीय राज्य की स्थापना, दिल्ली के आक्रमणकारियों के साथ उनके (शिवाजी के( पुत्रों के अधीन दीर्घकालीन संघर्ष एवं पेशवाओं के अधीन उस जाति के साम्राज्य के प्रसार से पूरी हो गई।
राजनैतिक स्थिति
जिस समय बहमनी सल्तनत का पतन हो रहा था, उस समय मुगल साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था। यह विशाल साम्राज्य बगावतों से दूर और विलासिता में डूबा हुआ था। उस समय शाहजहाँ का शासन था और शहजादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। बहमनी के सबसे शक्तिशाली परवर्ती राज्यों में बीजापुर तथा गोलकुंडा के राज्य थे। शाहजी ने अहमदनगर के सुल्तान की सेवा में एक अश्वारोही के रूप में अपना जीवन आरंभ किया था। धीरे-धीरे उसने उस राज्य में बहुत-से क्षेत्र प्राप्त कर लिये तथा निजामशाही शासन के अंतिम वर्षों में वह राजा बनानेवाला बन गया। परंतु शाहजहाँ के द्वारा अहमदनगर मिला लिये जाने के बाद 1636 ई. में शाहजी ने बीजापुर राज्य में नौकरी कर ली और पूना की उनकी पुरानी जागीर के अतिरिक्त, जिस पर अहमदनगर राज्य के सेवक के रूप में उसका अधिकार था, उन्हें कर्नाटक में एक विस्तृत जागीर मिली। इस प्रकार दक्कन की सल्तनतों में काम करने के कारण मराठों ने राजनैतिक एवं सैनिक शासन का कुछ पूर्व-अनुभव भी प्राप्त कर लिया था।
शिवाजी का आरंभिक जीवन (Early Life of Shivaji)
शिवाजी का जन्म शाहजी भोसले की प्रथम पत्नी जीजाबाई (राजमाता जिजाऊ) की कोख से 19 फरवरी, 1630 ई. को जुन्नार के निकट शिवनेर के पहाड़ी दुर्ग में हुआ था। शिवाजी तथा उसकी माँ जीजाबाई को दादाजी कोणदेव नामक एक ब्राह्मण की संरक्षकता में छोड़कर शाहजी अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते के साथ अपनी जागीर में चले गये। उनका बचपन राजाराम, गोपाल, संतों तथा रामायण, महाभारत की कहानियों और सत्संग मे बीता। जीजाबाई अपने पति द्वारा उपेक्षित रहीं, किंतु शिवाजी के जीवन-निर्माण में उनका प्रभाव अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने प्राचीन युग की वीरता, परमार्थ निष्ठा एवं शूरता अपने बच्चे के मस्तिष्क में भर दिये। यह मालूम नहीं है कि शिवाजी को विधिवत् कोई साहित्यिक शिक्षा मिली थी अथवा नहीं, परंतु वह एक वीर एवं साहसी सैनिक थे। उनका विवाह 14 मई, 1640 ई. में सइबाई निम्बालकर के साथ लालमहल, पूना में संपन्न हुआ था।
अपनी माँ की ओर से वह देवगिरि के यादवों तथा पिता की ओर से वह मेवाड़ के वीर सिसोदियों का वंशज होने का दावा करते थे। इस प्रकार गौरवपूर्ण वंश के होने की भावना तथा प्रारंभिक प्रशिक्षण एवं प्रतिवेश के प्रभाव ने मिलकर उस युवक मराठा सैनिक में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने की आकांक्षाएँ जगा दी। उसने अपने लिए स्वतंत्रता का जीवन चुना। यह जीवन जोखिम से भरा हुआ था। उन्होंने अपने संरक्षक कोणदेव की सलाह पर बीजापुर के सुल्तान की सेवा करना अस्वीकार कर दिया। उस समय बीजापुर का राज्य आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमणों के दौर से गुजर रहा था। ऐसे साम्राज्य के सुल्तान की सेवा करने के बदले वे मावलों को बीजापुर के खिलाफ संगठित करने लगे। उन्होंने मावल प्रदेश सभी जाति के लोगों को लेकर उन्हें मावला नाम देकर संगठित किया। मावलों का सहयोग शिवाजी के लिए बाद में उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ, जितना शेरशाह सूरी के लिए अफगानों का साथ।
दक्कन की सल्तनतों की बढ़ती हुई दुर्बलता तथा उत्तर में शाही दल के लंबी अवधि तक युद्ध करते रहने के कारण, मराठा शक्ति के उत्थान में बड़ी सहायता मिली। उस समय बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुगलों के आक्रमण से परेशान था। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों या सामंतों के हाथ सौंप दिया था। जब आदिलशाह बीमार पड़ा, तो बीजापुर में अराजकता फैल गई और शिवाजी ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश का निर्णय लिया।
दुर्गों पर नियंत्रण
1646 ई. में शिवाजी ने तोरण के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। तोरण का दुर्ग पूना के दक्षिण पश्चिम में 30 किलोमीटर की दूरी पर था। इसके बाद शिवाजी ने पुश्तैनी मालिकों अथवा बीजापुर के स्थानीय अफसरों से बल, रिश्वत या छल के द्वारा बहुत-से किलों पर अधिकार किया। उन्होंने सुल्तान आदिलशाह के पास खबर भिजवाई कि वे पहले किलेदार की तुलना में बेहतर रकम देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें सौंप दिया जाए। अपने दरबारियों की सलाह से आदिलशाह ने शिवाजी को उस दुर्ग का अधिपति बना दिया। उस दुर्ग में मिली संपत्ति से शिवाजी ने किले को सुदृढ़ करवाया और इससे 10 किलोमीटर दूर राजगढ़ के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।
शिवाजी की इस साम्राज्य-विस्तार की नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली, तो उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने की सलाह दी। शिवाजी ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबंध अपने हाथों में ले लिया और नियमित लगान देना बंद कर दिया। राजगढ़ के बाद उन्होंने चाकन और कोंडना के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। कोंडना (कोंढाणा) पर अधिकार करते समय उन्हें घूस देनी पड़ी। कोंडना पर अधिकार करके उसका नाम सिंहगढ़ रखा गया। शाहजी राजे को पूना और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा का दुर्ग उनके संबंधी बाजी मोहिते के हाथ में थी। शिवाजी महाराज ने रात के समय सूपा के दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और बाजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया।
इसी समय पुरंदर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई। दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी पुरंदर पहुँचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने सभी भाइयों को बंदी बना लिया। इस तरह पुरंदर के किले पर भी उनका अधिकार स्थापित हो गया। अब तक की घटना में शिवाजी को कोई युद्ध नहीं करना पड़ा था। 1647 ई. तक वे चाकन से लेकर नीरा तक के भू-भाग के भी अधिपति बन चुके थे। उन्होंने कुछ नये किले भी बनवाये। इस प्रकार उनके अधिकार में काफी अचल संपति हो गई, जो पहाड़ी दुर्गों की एक लंबी श्रृंखला से सुरक्षित थी। अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ शिवाजी ने मैदानी इलाकों में प्रवेश करने की योजना बनाई।
एक अश्वारोही सेना का गठनकर शिवाजी ने आबाजी सोंदेर के नेतृत्व में कोंकण के विरुद्ध एक सेना भेजी। आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया। इसके अलावा ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी के अधीन आ गये। लूट की सारी संपत्ति रायगढ़ में सुरक्षित रखी गई। कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी ने कोलाबा की ओर रुख किया और यहाँ के प्रमुखों को विदेशियों के खिलाफ युद्ध के लिए उकसाया ।
बीजापुर का सुल्तान शिवाजी की हरकतों से पहले ही आक्रोश में था। उसने शिवाजी के पिता को विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े की सहायता से बंदी बना लिया। बीजापुर के दो सरदारों की मध्यस्थता के बाद शाहजी को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी पर लगाम कसेंगे। शिवाजी को कुछ वर्षों के लिए (1649-1655 ई.) बीजापुर के विरुद्ध आक्रमणकारी कार्य स्थगित कर देने पड़े। इस समय का उपयोग उन्होंने अपनी सेना संगठित किया और अपने जीते हुए प्रदेशों के दृढ़ीकरण में किया।
शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी ने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया, पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। इस क्रम में जावली का राज्य बाधक बन रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। जावली का राजा चंद्रराव मोरे ने बीजापुर के सुल्तान के साथ साठगाँठ कर ली थी। जनवरी, 1656 ई. में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहीत आठ वर्षों की संपत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गये। इस समय तक शिवाजी की विरासत का विस्तार एवं राजस्व दूने से भी अधिक हो गया।
मुगलों से पहली मुठभेड़, 1657 ई.
मुगलों के साथ उसकी सबसे पहली मुठभेड 1657 ई. में हुई। उस समय शहजादा औरंगजेब इस समय औरंगजेब तथा उसकी सेना बीजापुर पर आक्रमण करने में लगी हुई थी। इससे लाभ उठाकर शिवाजी ने अहमदनगर एवं जुन्नार के मुगल जिलों पर हमला कर दिया तथा जुन्नार नगर को लूट लिया। इससे औरंगजेब शिवाजी से रुष्ट हो गया और शाहजहाँ के आदेश पर उसने बीजापुर के साथ संधि कर ली। समय विपरीत देखकर शिवाजी ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। औरंगजेब ने शिवाजी पर कभी विश्वास नहीं किया, किंतु उसने संधि कर ली क्योंकि इसी समय शाहजहाँ बीमार पड़ गया था और उत्तर में उसकी उपस्थिति आवश्यक हो गई थी।
कोंकण पर अधिकार
दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डावाँडोल राजनैतिक स्थिति का लाभ उठाकर शिवाजी ने जंजीरा पर आक्रमण दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। उन्होंने कल्याण, भिवाणी तथा माहुली पर अधिकार वहाँ नौसैनिक अड्डा स्थापित किया और दक्षिण में माहद तक पहुँच गये। इस समय तक शिवाजी 40 दुर्गों के मालिक बन चुके थे।
बीजापुर से संघर्ष
बीजापुर का सुल्तान आंतरिक-कलह एवं तात्कालिक मुगल आक्रमण से कुछ समय के लिए मुक्त हो गया था। उसने शिवाजी की शक्ति का नाश करने के लिए योजना बनाई और 1659 ई. के प्रारंभ में एक प्रमुख सरदार एवं सेनापति अब्दुल्लाह भटारी (अफजल खाँ) के अधीन एक विशाल सेना शिवाजी के विरुद्ध भेजी। अफजल खाँ तुलजापुर के मंदिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया, पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खाँ ने अपने एक दूत मराठा ब्राहमण कृष्णजीभास्कर कुलकर्णी को संधि-वार्ता के लिए भेजा। शिवाजी ने कृष्णजीभास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनीथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खाँ के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजीभास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि संधि का षड्यंत्र रचकर अफजल खाँ शिवाजी को बंदी बनाना चाहता है। इससे शिवाजी सावधान हो गये। उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खाँ को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खाँ को संधि-वार्ता के लिए राजी किया। संधि-स्थल पर जब दोनों मिले तो अफजल खाँ ने अपने कटार से शिवाजी पर वार कर दिया, बचाव मे शिवाजी ने अफजल खाँ को अपने वस्त्रों में छिपाये झिलम (बाघनख) से मार डाला। अपनी सेना की मदद से, जो छिपकर बैठी थी, उन्होंने बीजापुर की नेतृत्वविहीन सेना को हरा दिया तथा उसके पड़ाव को लूट लिया।
खाफी खाँ तथा डफ शिवाजी पर अफजल की हत्या करने का अभियोग लगते हैं। उनके विचार में अफजल ने पहले शिवाजी पर आघात करने की कोशिश नहीं की थी। परंतु मराठा लेखकों ने अफजल के प्रति किये गये शिवाजी के व्यवहार को न्यायोचित ठहराया है। उनके विचार में यह बीजापुर के सेनापिति के आक्रमण के विरुद्ध आत्मरक्षा का कार्य था। समकालीन कारखानों (फैक्टरियों) के प्रमाण मराठा इतिहासकारों के कथन से मेल खाते हैं।
इसके बाद शिवाजी दक्षिण कोंकण तथा कोल्हापुर जिले में घुस गये। किंतु जुलाई, 1660 ई. में पनहाला दुर्ग में उसे बीजापुर की एक सेना ने घेर लिया। शिवाजी संकट में फँस चुके थे, किंतु रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी की मध्यस्थता से, जो अब भी बीजापुर राज्य में एक महत्त्वपूर्ण पद पर था, शिवाजी के साथ 1662 ई. में एक अल्पकालीन संधि कर ली। इस संधि के अनुसार उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोंडा तक का और पूर्व में इंदापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक का भूभाग शिवाजी के नियंत्रण में आ गया और बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी को स्वतंत्र शासक की मान्यता दी।
मुगलों के साथ संघर्ष
बादशाह बनने के बाद औरंगजेब ने शिवाजी पर नियंत्रण रखने के उद्येश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। शाइस्ता खाँ ने पूना जीता, चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा मराठों को कल्याण जिले से मार भगाया। लगभग दो वर्षों के अनियमित युद्ध के पश्चात् शिवाजी 15 अप्रैल, 1663 ई. को 350 मावलों के साथ मुगल सूबेदार शाइस्ता खाँ के कमरे में घुसकर हमला कर दिया। शाइस्ता तो खिड़की के रास्ते बच निकला, किंतु उसके हाथ का अँगूठा कट गया और उसके पुत्र एवं रक्षकों का कत्ल कर दिया गया। शिवाजी सकुशल सिंहगढ़ के पार्श्ववर्ती दुर्ग में चले गये। इस साहसपूर्ण एवं अद्भुत कार्य से शिवाजी की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई। औरंगजेब ने शाइस्ता की जगह शाहजादा मुअज्जम को दकन का सूबेदार बना दिया और शाइस्ता को बंगाल की सूबेदारी दे दी।
सूरत की लूट (1664 ई.)
इस जीत से उत्साहित शिवाजी ने शीघ्र ही एक दूसरा वीरतापूर्ण कार्य किया। 16 से लेकर 20 जनवरी, 1664 ई. के बीच उन्होंने पश्चिमी समुद्रतट के सबसे समृद्ध बंदरगाह सूरत पर आक्रमण कर उसे छः दिनों तक लूटा। इसमें कोई बाधा नहीं हुई क्योंकि वहाँ का शासक उसका विरोध करने के बदले अपने पैर सिर पर रखकर भाग गया था। सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ था और हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए हज पर जाने का द्वार। मराठा नायक को लगभग एक करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति मिली। स्थानीय अंग्रेजी और डच फैक्टरियों ने सफलतापूर्वक उनका प्रतिरोध किया तथा लूटे जाने से बच गईं। इस घटना का जिक्र डच तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है।
सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने शिवाजी को दंड देने के लिए 1665 ई. के प्रारंभ में अंबर के राजा जयसिंह तथा दिलेर खाँ की एक भारी फौज के साथ दक्कन भेजा। जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियों तथा छोटे सामंतों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण किया। शिवाजी के चारों ओर शत्रुओं का एक घेरा बनाकर उसने पुरंदर के गढ़ पर घेरा डाल दिया। गढ़ के अंदर की घिरी हुई सेना ने कुछ काल तक वीरतापूर्ण प्रतिरोध किया। इसमें इनका प्रमुख सेनापति माहद का मुनरवाजी देशपांडे सौ मावलियों के साथ लड़ता रहा। मुगलों ने शिवाजी की राजधानी राजगढ़ भी घेर लिया। युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी, इसलिए उन्होंने 22 जून, 1665 ई. को जयसिंह के साथ पुरंदर की संधि कर ली।
पुरंदर की संधि, 22 जून, 1665 ई.
पुरंदर की संधि की शर्तों के अनुसार शिवाजी को अपने तेईस किले मुगलों को देने पड़े, जिनकी आमदनी चार लाख हूण वार्षिक थी। अब उनके पास केवल 12 दुर्ग ही रह गये। बालाघाट और कोंकण के क्षेत्र शिवाजी को मिले, किंतु इसके बदले में उन्हें 40 लाख हूण 13 किस्तों में देना था। इसके अलावा शिवाजी ने प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व और दक्कन में मुगल सेना का सहयोग करने के लिए पाँच हजार घुड़सवार देने का भी वादा किया। राज्य के घाटे की पूर्ति के लिए शिवाजी को बीजापुर राज्य के कुछ जिलों में चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल करने की अनुमति मिल गई।
औरंगजेब के दरबार में उपस्थित होने को राजी करने के लिए जयसिंह ने शिवाजी से पुरस्कार एवं प्रतिष्ठा की प्रतिज्ञा की, आगरे में उसकी सुरक्षा के उत्तरदायित्व की शपथ खाई और इस प्रकार उन्हें आगरा चलने के लिए राजी किया। शिवाजी को शाही दरबार में भेजने का अभिप्राय था, उन्हें दक्कन के उपद्रवपूर्ण प्रदेश से हटाना, किंतु यह समझना बहुत कठिन है कि शिवाजी ने जयसिंह के प्रस्ताव को क्यों स्वीकार कर लिया। दरअसल शिवाजी मुगल बादशाह और उसके दरबार का पर्यवेक्षण करके यह ज्ञात करना चाहते थे कि मुगल शक्ति के स्रोत क्या हैं, कहाँ उसका संवेदनशील मर्म है और कहाँ एवं किस प्रकार चोट करना या न करना उपयुक्त होगा। मराठा नायक का एक यह ध्येय यह भी रहा होगा कि बादशाह से मिलकर जंजीरा द्वीप पर, जो उस समय सीदी नामक एक शाही नौकर के अधीन था, अधिकार कर लेने के लिए उसकी स्वीकृति ले ली जाए। ज्योतिषियों के आश्वासन तथा अपने निकटस्थ पदाधिकारियों की सहमति लेकर वह अपने पुत्र शंभाजी के साथ 9 मई, 1666 ई. को आगरा पहुँच गये।
शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में उपस्थित होने से मुक्त कर दिये गये, किंतु उनके पुत्र शंभाजी को मुगल दरबार में बंधक रख दिया गया। औरंगजेब ने शिवाजी को ‘राजा’ की उपाधि दी।
शिवाजी आगरा गये, किंतु वहाँ उन्हें उसे पाँच हजारी मनसब की श्रेणी दी गई। इसके विरुद्ध उन्होंने अपना रोष भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया। औरंगजेब ने क्षुब्ध होकर शिवाजी को नजरबंद करवा दिया। इस प्रकार शिवाजी की ऊँची आशाएँ चकनाचूर हो गईं। अपने असाधारण साहस और युक्ति के बल पर शिवाजी और शंभाजी दोनों 17 अगस्त, 1666 को आगरा से भागने में सफल हो गये। शंभाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़कर शिवाजी भिखारी के वेश में इलाहाबाद, बनारस, गया एवं तेलगाना के रास्ते 30 नवंबर, 1666 ई. को राजगढ़ पहुँचे। इससे मराठों को नवजीवन-सा मिल गया। औरंगजेब ने संदेह के आधार पर विष देकर जयसिंह की हत्या करवा दी।
इसके बाद तीन वर्षों तक शिवाजी मुगलों के साथ शांतिपूर्वक रहे। इस समय का उपयोग उन्होंने अपने आंतरिक शासन का संगठन करने में किया। जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद 1668 ई. में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार संधि की। औरंगजेब ने उसे राजा की उपाधि और बरार में एक जागीर दी तथा उसके पुत्र शंभाजी को पाँच हजारी सरदार के पद पर नियुक्त कर लिया और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया। परंतु सिंहगढ़ और पुरंदर पर मुगलों का अधिपत्य बना रहा।
परंतु 1670 ई. में युद्ध पुनः आरंभ हो गया। मुगल सूबेदार शाहआलम तथा उसके सहायक दिलेर खाँ के बीच भारी झगड़ा था। इससे शाही दल की स्थिति पहले की अपेक्षा अधिक कमजोर हो गई। अक्टूबर, 1670 ई. में उन्होंने सूरत को दूसरी बार लूटा। इसमें नगद एवं असबाब के रूप में उसे बहुत-सा माल हाथ लगा। तब वह मुगल प्रांतों पर साहसपूर्ण आक्रमण करने लगे तथा खुले युद्ध में कई बार मुगल सेनापतियों को पराजित किये। 1672 ई. में उन्होंने सूरत से चौथ की माँग की।
इस समय औरंगजेब का ध्यान सबसे अधिक उत्तर-पश्चिम के कबायली विद्रोहों में लगा था। मुगल सेना के एक भाग को दक्कन से उस प्रदेश में भेज दिया गया। इस समय मराठा वीर अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर थे। फलतः शिवाजी ने करीब-करीब उन सभी दुर्गों पर पुनः अधिकार कर लिया, जिनको उन्होंने 1665 ई. में मुगलों को समर्पित किया था।
पश्चिमी महाराष्ट्र में अपने स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा। शिवाजी जाति से कुर्मी थे, जिसे शूद्र माना जाता था। इसी कारण उनके राज्याभिषेक में भी कई समस्याएँ आईं। प्रथम पेशवा, जो कि स्वयं ब्राह्मण था, ने शिवाजी के क्षत्रिय होने का सार्वजनिक रूप से विरोध किया। ब्राह्मणों ने शिवाजी के द्वारा किये गये जाने-अनजाने पापों की सूची बनाई, जिसमें भूलवश युद्ध के दौरान गोवध भी शामिल था। इसके आधार पर दंड-निर्धारण किया गया और 11,000 ब्राह्मणों को परिवार सहित भोजन, वस्त्र और अन्य सामग्री चार महीने तक देना पड़ा।
शिवाजी का राज्याभिषेक, 16 जून, 1674 ई.
शिवाजी के निजी सचिव बालाजी रावजी के प्रयास से बनारस के गंगाभट्ट नामक ब्राह्मण ने एक लाख रुपये घूस लेकर 16 जून, 1674 ई. को रायगढ़ में विधिवत् शिवाजी का राज्याभिषेक किया। राजतिलक के समय पर शिवाजी को स्वर्ण मुकुट पहनाया गया और बहुमूल्य रत्नों और स्वर्ण पुष्पों की वर्षा की गई। विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया था। सूरत में अंग्रेजी फैक्ट्री के मुख्य हेनरी ओक्सेंडेंग ने अपनी आँखों से देखा था। इसी दौरान शिवाजी ने अपना हिरण्यगर्भ संस्कार कराया और ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण की। इस प्रकार शक्तिशाली योद्धा भी जातिवाद का शिकार होकर क्षत्रियत्व को प्राप्त करने को प्रलोभित किया गया। बहुत-सा धन देकर असंतुष्ट ब्राह्मणों को प्रसन्न करने का प्रयास किया गया, किंतु पुणे के ब्राह्मणों ने तब भी शिवाजी को राजा मानने से इंकार कर दिया।
राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया, इसलिए 4 अक्टूबर, 1674 ई. को उनका दुबारा राज्याभिषेक हुआ। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम के सिक्के चलवाये। इस बीच बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनापतियों को भेजा, किंतु वे असफल रहे।
दक्षिण में दिग्विजय
मुगलों के उत्तर-पश्चिम में उलझे रहने के कारण शिवाजी दबाव से मुक्त हो गये थे। उन्होंने गोलकुंडा के सुल्तान से मित्रता कर 1677-78 ई. में जिंजी, वेलोर तथापार्श्ववर्ती जिले जीत लिया। इनसे उसकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई। उन्हें मद्रास, कर्नाटक एवं मैसूर के पठार में एक विस्तृत प्रदेश मिल गया। इसमें सौ किले थे और उन्हें बीस लाख हूण का वार्षिक राजस्व प्राप्त होता था। उनके सफल जीवन का अंत तीन सप्ताह की बीमारी के बाद 4 अप्रैल, 1680 ई. को हो गया।
शिवाजी का राज्य उत्तर में रामनगर (सूरत एजेंसी में आधुनिक धरमपुर राज्य) से लेकर दक्षिण में कारवार तक मोटे तौर पर संपूर्ण समुद्रतट के किनारे-किनारे फैला हुआ था। उनकी विजयों से उनके राज्य की सीमा के भीतर पश्चिम कर्नाटक आ गया, जो बेलगाँव से लेकर तुंगभद्रा नदी के किनारे तक फैला हुआ था। इन विजयों से आधुनिक मैसूर राज्य का एक बड़ा भाग भी इनके अंतर्गत आ गया।
शिवाजी का प्रशासन (Shivaji’s Administration)
शिवाजी एक योग्य व साहसी सेनापति और सफल विजेता थे ही, एक सफल संगठनकर्ता एवं कुशल राजनीतिज्ञ थे। यद्यपि उन्हें अपने बचपन में पारंपरिक शिक्षा कुछ खास नहीं मिली थी, पर वह भारतीय इतिहास और राजनीति से परिचित थे। उन्होंने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कई अवसरों पर कूटनीति का सहारा लेना उचित समझा था। बनारस के गंगाभट्ट ब्राह्मण ने उन्हें सूर्यवंशी क्षत्रिय घोषित किया था। शिवाजी ने स्वयं ‘क्षत्रिय कुलवतमसां’ (क्षत्रिय परिवार के आभूषण) की उपाधि धारण की थी। इनकी दूसरी उपाधि ‘हैंदवधर्मोंधारक’ थी।
शिवाजी का प्रशासन मूलतः दक्षिणी व्यवस्था पर आधारित था, परंतु इसमें कुछ मुगल तत्त्व भी शामिल थे। मराठा राज्य के अंतर्गत दो प्रकार के क्षेत्र थे- एक तो स्वराज क्षेत्र, जो प्रत्यक्षतः मराठों के प्रत्यक्ष नियंत्रण में थे, जिन्हें ‘स्वराज क्षेत्र’ कहा जाता था। दूसरे मुघतई (मुल्क-ए-कदीम) क्षेत्र, जिसमें मराठे चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल करते थे। स्वराज क्षेत्र तीन भागों में विभाजित थे- पूना से लेकर सल्हेर तक का क्षेत्र, जिसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था, पेशवा मोरोपंत पिंगले के अधीन था। दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र अन्नाजी दत्तो के अधीन था। दक्षिण देश के जिले, जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ एवं कोयल तक के क्षेत्र सम्मिलित थे, दत्तोजी पंत के नियंत्रण में था। इनके अतिरिक्त हाल में जीते गये जिंजी, वेल्लोर और अन्य क्षेत्र ‘अधिग्रहण सेना’ के अंतर्गत थे।
भारत के मुगलों शासकों की तरह शिवाजी की शासन-प्रणाली एकतंत्री थी अर्थात् प्रशासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी। किंतु उनके प्रशासकीय कार्यों में सहायता के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद् थी जिन्हें ‘अष्टप्रधान’ कहा जाता था।
अष्ट-प्रधान (Ashta-Pradhan)
मराठा शासक शिवाजी के सलाहकार परिषद् को अष्ट-प्रधान कहा जाता था। इसमें मंत्रियों के प्रधान को ‘पेशवा’ कहते थे जो राजा के बाद सबसे प्रमुख पद था। अमात्य, वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था, तो मंत्री, राजा की व्यक्तिगत दैनंदिनी का खयाल रखता था। सचिव, दफ्तरी का काम करते थे जिसमें शाही मुहर लगाना और संधि-पत्रों का आलेख तैयार करना आदि शामिल होते थे। सुमंत, विदेशमंत्री था। सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे। दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को पंडितराव कहते थे। न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था।
- पेशवा या प्रधानमंत्री- यह राज्य की सामान्य भलाई और हितों को देखता था।
- अमात्य या वित्तमंत्री– यह राजस्व संबंधी मुद्दों के प्रति उत्तरदायी था। इसकी तुलना मौर्यकालीन राजा अशोक के महामात्य से की जा सकती है।
- मंत्री या वाकयानवीस- यह राजा के कामों तथा उसके दरबार की कार्रवाइयों का प्रतिदिन का विवरण रखता था।
- सचिव अथवा सुरनवीस– यह पत्र-व्यवहार करता था तथा जो महालों एवं परगनों के हिसाब की जाँच भी करता था।
- सुमंत या दबीर- यह विदेश मंत्री था।
- सेनापति या सर-ए-नौबत– यह प्रधान सेनापति होता था।
- न्यायाधीश– यह कानूनी मामलों का निर्णय करता था।
- पंडितराव एवं दानाध्यक्ष– यह राजपुरोहित एवं दान विभाग का अध्यक्ष होता था।
न्यायाधीश एवं पंडितराव के अतिरिक्त सभी मंत्रियों को असैनिक कर्तव्यों के साथ सैनिक सैनिक कार्य भी करना होता था। मंत्रियों के अधीन राज्य के विभिन्न विभाग थे, जिनकी संख्या तीस से कम नहीं थी।
प्रांतीय प्रशासन
राजस्व-संग्रह तथा प्रशासन के लिए शिवाजी का राज्य कई प्रांतों में बँटा था। प्रत्येक प्रांत में एक सूबेदार था जिसे प्रांतपति कहा जाता था। कुछ प्रांत केवल करदाता थे और प्रशासन के मामले में स्वतंत्र थे। कर्नाटक के राजप्रतिनिधि का स्थान प्रादेशिक शासकों के स्थान से कुछ भिन्न था तथा उसे अधिक शक्ति एव स्वतंत्रता प्राप्त थी। प्रत्येक सूबेदार के पास भी एक अष्ट-प्रधान समिति होती थी। इस अष्ठ-प्रधान की सहायता के लिए प्रत्येक विभाग में आठ सहायक अधिकारी होते थेे-दीवान, मजुमदार, फड़नवीस, सबनवीस, कारखानी, चिटनिस, जमादार एवं पतनीस।
प्रत्येक प्रांत परगनों तथा तरफों में विभक्त था। गाँव सबसे छोटी इकाई था। राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था। शिवाजी ने भूमि-राजस्व को ठेके पर देने की, उस समय की फैली हुई प्रथा को छोड़ दिया। इसके बदले उन्होंने सरकारी अफसरों द्वारा सीधे रैयतों से कर वसूलने की प्रथा चलाई। शिवाजी ने 1679 ई. में अन्नाजी दत्तो द्वारा व्यापक भूमि सर्वेक्षण कराया। भूमि की सावधानी से जाँचकर का निर्धारण होता था। इसके लिए माप की एक पद्धति अपनाई गई, जो राज्य भर में एक समान व्यवहार में लाई गई।
शिवाजी की भूमि राजस्व व्यवस्था को मलिक अंबर की व्यवस्था से भी प्रेरणा मिली थी, किंतु मलिक अंबर माप की इकाई का मानकीकरण में असफल रहा था। मलिक अंबर ने भूमि की माप की इकाई के रूप में जरीब को अपनाया था, किंतु शिवाजी ने रस्सी के बदले काठी या मानक छड़ी को अपनाया। 20 काठी का बिस्वा (बीघा) होता था और 120 बीघा का एक चावर होता था।
भूमिकर
भ़ूमिकर संभावित उपज का 30 प्रतिशत राज्य लेता था, किंतु कुछ समय के बाद, अन्य प्रकार के करों या चुगियों के उठा देने के पश्चात्, इसे बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया गया। कृषक निश्चित रूप से जानते थे कि उन्हें कितना कर देना है। भू-राजस्व नकद और अनाज दोनों में लिया जाता था।
राज्य रैयतों को बीज तथा मवेशी खरीदने के लिए खजाने से अग्रिम ऋण देकर खेती को प्रोत्साहन देता था। रैयतें इन्हें आसान वार्षिक किश्तों में चुका देती थीं। फ्रायर का यह कहना गलत है कि अपने राज्य को पुष्ट बनाने के अभिप्राय से शिवाजी राजस्व-संग्रह के मामले में कठोर थे। आधुनिक अनुसंधानों ने यह पूर्णतः सिद्ध कर दिया है कि शिवाजी का राजस्व शासन मानवतापूर्ण, कार्यक्षम तथा उसकी प्रजा के लिए हितकर था। कहा जाता है कि शिवाजी ने जागीरदारी प्रथा एवं जमींदारी प्रथा को पूरी तरह समाप्तकर किसानों के साथ सीधा संपर्क स्थापित किया। इस तरह उसने उन्हें शोषण से मुक्त कर दिया। किंतु लगता है कि वह इस प्रथा को पूरी तरह नहीं समाप्त कर सके। उन्होंने बस इतना किया की देशमुखों की ताकत कम कर दी, गलत प्रथाओं को सुधार दिया और आवश्यक निरीक्षण की व्यवस्था की।
चौथ और सरदेशमुखी
महाराष्ट्र के पहाडी प्रदेशों से अधिक भूमिकर नहीं आता था। इस कारण शिवाजी बहुधा पड़ोस के प्रदेशों, मुगल सूबों एवं बीजापुर राज्य के कुछ जिलों पर भी चौथ तथा सरदेशमुखी कर लगा दिया करते थे। चौथ लगाने की प्रथा पश्चिमी भारत में पहले से ही प्रचलित थी, क्योंकि रामनगर के राजा ने दमन की पुर्तगाली प्रजा से यह वसूल किया था। चौथ में 25 प्रतिशत भू-राजस्व देना पड़ता था।
चौथ के स्वरूप के विषय में विद्वानों में मतभेद है। सरदेसाई के अनुसार यह वैसा कर था, जो विरोधी अथवा विजित राज्यों से वसूल किया जाता था। रानाडे इसकी तुलना वेलेजली की सहायक-संधि से करते हैं, और कहते हैं कि यह पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिया जानेवाला कर था। सर यदुनाथ सरकार का मानना है कि चौथ एक लुटेरे को घूस देकर उससे बचने का उपाय मात्र था, यह सभी शत्रुओं के विरुद्ध शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए सहायक प्रबंध नहीं था। इसलिए चैथ के अधीन जो भूमि थी, उसे औचित्य आधारित प्रभाव-क्षेत्र नहीं कहा जा सकता। चौथ का सैद्धांतिक आधार जो भी रहा हो, व्यवहार में यह सैनिक चंदा छोड़कर और कुछ भी नहीं था। सरदेशमुखी दस प्रतिशत का एक अतिरिक्त कर था, जिसकी माँग शिवाजी अपने इस दावे के आधार पर करते थे कि वह महाराष्ट्र के पुश्तैनी सरदेशमुख हैं।
सैन्य-संगठन
शिवाजी के द्वारा मराठी सेना को एक नये ढंग से संगठित करना उसकी सैनिक प्रतिभा का एक ज्वलंत प्रमाण है। पहले मराठों की लड़नेवाली फौज में अधिकतर अश्वारोही होते थे, जो आधे साल तक अपने खेतों में काम करते थे तथा सूखे मौसम में सक्रिय सेवा करते थे। किंतु शिवाजी ने एक नियमित तथा स्थायी सेना का गठन किया। उनके सैनिकों को कर्तव्य के लिए सदैव तैयार रहना पड़ता था तथा वर्षा ऋतु में उन्हें वेतन और रहने का स्थान मिलता था। उनकी सेना में चालीस हजार घुड़सवार और दस हजार पैदल सैनिक थे।
शिवाजी ने एक बड़ा जहाजी बेड़ा बनाया तथा बंबई के किनारे की छोटी-छोटी जातियों के हिंदुओं को नाविकों के रूप में भरती किया। यद्यपि शिवाजी के समय में मराठी जल-सेना ने कोई अधिक विलक्षण कार्य नहीं किया, फिर भी बाद में अंग्रियों के अधीन मराठा बेड़े ने अंग्रेजों, पुर्तगालियों तथा डचों को बहुत तंग किया। नौसेना में शिवाजी ने कुछ मुसलमानों को भी नियुक्त किया था। सभासद बखर के अनुसार शिवाजी की सेना में लगभग बारह सौ साठ हाथियों तथा डेढ़ से तीन हजार ऊँटों का दल भी था। उसके गोलंदाज फौज की संख्या ज्ञात नहीं है, किंतु उसने सूरत के फ्रांसीसी निर्देशक से अस्सी तोपें एवं अपनी तोड़ेदार बंदूकों के लिए काफी सीसा खरीदा था।
घुड़सवार तथा पैदल दोनों में अधिकारियों की नियमित श्रेणियाँ बनी हुई थीं। घुड़सवार की दो शाखाएँ थीं- बर्गी और सिलाहदार। बर्गी वे सिपाही थे, जिन्हें राज्य की ओर से वेतन एवं साज-समान मिलते थे। सिलाहदार अपना साज-समान अपनेे खर्च से जुटाते थे। मैदान में काम करने का खर्च चलाने के लिए राज्य की ओर से एक निश्चित रकम मिलती थी। अश्वारोहियों के दल में 25 अश्वारोहियों की एक इकाई बनती थी। 25 आदमियों पर एक हवलदार होता था, 5 हवलदारों पर एक जुमलादार तथा दस जुमलादारों पर एक हजारी होता था, जिसे एक हजार हूण प्रतिवर्ष मिलता था।
हजारियों से ऊँचे पद पंचहजारियों तथा सनोबर्त के थे। सनोबर्त अश्वारोहियों का सर्वोच्च सेनापति था। पैदल सेना में सबसे छोटी इकाई 9 पायकों की थी, जो एक नायक के अधीन थे। 5 नायकों पर एक हवलदार, दो या तीन हवलदारों पर एक जुमलादार तथा दस जुमलादारों पर एक हजारी होता था। अश्वारोहियों में सनोबर्त के अधीन पाँच हजारी थे, किंतु पदाति में सात हजारियों पर एक सनोबर्त होता था।
यद्यपि अधिकतर शिवाजी स्वंय अपनी सेना का नेतृत्व करते थे, तथापि नाम के लिए यह एक सेनापति के अधीन थी। सेनापति अष्ट-प्रधान (मंत्रिमंडल) का सदस्य होता था। शिवाजी अपने अभियानों का आरंभ अक्सर दशहरा के मौके पर करते थे।
मराठों के इतिहास में किलों का महत्त्वपूर्ण भाग होने के कारण उनमें कार्यक्षम सेना रखी जाती थी। प्रत्येक किला समान दर्जे के तीन अधिकारियों के अधीन रहता था- हवलदार, सबनीस और सनोबर्त। तीनों एक साथ मिलकर कार्य करते थे तथा एक दूसरे पर अंकुश रखते थे। और भी, दुर्ग के अफसरों में विश्वासघात को रोकने के लिए शिवाजी ने ऐसा प्रबंध कर रखा था कि प्रत्येक सेना में भिन्न-भिन्न जातियों का संमिश्रण हो।
यद्यपि शिवाजी नियमित रूप से तथा उदारतापूर्वक सैनिकों को वेतन और पुरस्कार देते थे, परंतु उनमें कठोर अनुशासन रखना वह नहीं भूलते थे। उन्होंने सैनिकों के आचरण के लिए कुछ नियम बनाये थे, जिससे उनका नैतिक स्तर नीचा न हो। किसी स्त्री, दासी या नर्तकी को सेना के साथ जाने की आज्ञा नहीं थी। ऐसा करने पर सर काट लिया जाता था। गायें जब्ती से मुक्त़ थीं, किंतु बैलों को केवल बोझ ढोने के लिए ले जाया जा सकता था। ब्राह्मणों को सताया नहीं जा सकता था और न ही उन्हें निस्तार के रूप में बंधक रखा जा सकता था। कोई सिपाही (आक्रमण के समय) बुरा आचरण नहीं कर सकता था। युद्ध में लूटे हुए माल के संबंध में शिवाजी की आज्ञा थी कि जब कभी किसी स्थान को लूटा जाए, तो निर्धन लोगों का माल पुलसिया (ताँबे का सिक्का तथा ताँबे एवं पीतल के बर्तन) उस आदमी के हो जायें, जो उन्हें पाये, किंतु अन्य वस्तुएँ, जैसे सोना, चाँदी (मुद्रा के रूप में अथवा ऐसे ही), रत्न, मूल्यवान चीजें अथवा जवाहरात पानेवाले के नहीं हो सकते थे। पानेवाला उन्हें अफसरों को दे देता था तथा वे शिवाजी की सरकार को दे देते थे।
न्याय-प्रशासन
न्याय-व्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी। शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिंदू धर्मशास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था। ग्राम स्तर पर पाटिल या पंचायत के द्वारा न्याय कार्य किया जाता था। आपराधिक मामलों को पाटिल देखता था। सर्वोच्च न्यायालय को ‘हाजिर मजलिस’ कहा जाता था।
धार्मिक नीति
शिवाजी धार्मिक सहिष्णुता के पक्षधर थे। उनके साम्राज्य में मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी और मुसलमानों को धर्म-परिवर्तन के लिए विवश नहीं किया जाता था। हिंदू पंडितों की तरह मुसलमान संतों और फकीरों को भी सम्मान होता था। उन्होंने कई मस्जिदों के निर्माण के लिए अनुदान दिया था और उनकी सेना में मुसलमानों की संख्या अधिक थी।
शिवाजी का मूल्याँकन (Evaluation of Shivaji)
शासक एवं व्यक्ति दोनों रूपों में शिवाजी का भारत के इतिहास में एक प्रतिष्ठित स्थान है। उन्हें अपने पिता से स्वराज की शिक्षा मिली थी। जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी को बंदी बना लिया, तो एक आदर्श पुत्र की तरह उन्होंने बीजापुर के शाह से संधिकर शाहजी को छुड़वा लिया। उन्होंने शाहजी की मृत्यु के बाद ही अपना राज्याभिषेक करवाया। उनके नेतृत्व को सभी स्वीकार करते थे, यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आंतरिक विद्रोह जैसी घटना नहीं हुई।
शिवाजी एक अच्छे सेनानायक के साथ-साथ कुशल कूटनीतिज्ञ भी थे। अपनी असाधारण वीरता एवं कूटनीति के बल से वह एक जागीरदार के पद से उठकर छत्रपति बन बैठे तथा शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के अप्रतिरोध्य शत्राु हो गये। उन्होंने ‘गनिमीकावा’ नामक कूटनीति को अपनाया,जिसमें शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है। उन्होंने दक्कन में अणुओं की तरह बिखरी हुई मराठा जाति को एकता के सूत्र में बाँधा और मुगल साम्राज्य, बीजापुर, पुर्तगालियों, तथा जंजीरा के अबीसीनियनों के जैसी चार बड़ी शक्तियों के विरोध के बावजूद स्वराज का निर्माण किया।
अपनी मृत्यु के समय शिवाजी एक विस्तृत राज्य छोड़ गये। किंतु, शिवाजी के द्वारा अर्जित प्रदेश अथवा कोष मुगलों के लिए उतने खतरनाक नहीं थे, जितना उनके द्वारा दिया हुआ दृष्टांत, उनके द्वारा चलाई हुई प्रथा और आदतें तथा मराठा जाति में उनके द्वारा भारी गई भावना। उनके द्वारा निर्मित मराठा राष्ट्र ने मुगल साम्राज्य की अवहेलना की तथा अठारहवीं सदी में भारत में प्रबल शक्ति बना रहा, जिसके परिणामस्वरूप औरंगजेब का एक वंशज महादजी सिंधिया नामक एक मराठा सरदार के हाथों में वस्तुतः कठपुतली बन गया। मराठा शक्ति ने भारत में प्रभुता स्थापित करने के लिए अंग्रेजों से भी प्रतिद्वंद्विता की।
शिवाजी महान् रचनात्मक प्रतिभा के धनी थे। उनमें उन सभी गुणों का समावेश था, जिनकी किसी देश के राष्ट्रीय पुनर्जीवन के लिए आवश्यकता होती है। उन्होंने अपने शासन में कोई विदेशी सहायता नहीं ली। उसकी सेना की कवायद तथा कमान उसके अपने आदमियों के ही अधीन थी, न कि फ्रांसीसियों के। उन्होंने जो बनाया, वह लंबे समय तक टिका, यहाँ तक कि एक शताब्दी बाद पेशवाओं के शासन के समृद्धिशाली दिनों में भी उसकी संस्थाएँ प्रशंसा एवं प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से देखी जाती थीं। वह अनावश्यक निष्ठुरता एवं केवल लूट के लिए ही लूट करनेवाले निर्दयी विजेता नहीं थे। उनके आक्रमणों में स्त्रियों तथा बच्चों के प्रति, जिनमें मुसलमानों की स्त्रियाँ और बच्चे भी सम्मिलित थे, उनके शूरतापूर्ण आचरण की प्रशंसा खाफी खाँ जैसे कटु आलोचक तक ने की है: शिवाजी ने सदैव अपने राज्य के लोगों के सम्मान की रक्षा करने का प्रयत्न किया था। वह अपने हाथों में आई हुई मुसलमान स्त्रिायों तथा बच्चों के सम्मान की रक्षा सावधानी से करता था। इस संबंध में उसके आदेश बडे कठोर थे तथा जो कोई भी इनका उल्लंघन करता था, उसे दंड मिलता था। रालिंसन ने ठीक ही कहा है कि ‘वह कभी भी जानबूझकर अथवा उद्देश्यहीन होकर क्रूरता नहीं करते थे। स्त्रियों, मस्जिदों एवं लड़ाई न लड़नेवालों का आदर करना, युद्ध के बाद कत्लेआम या सामूहिक हत्या बंद कर देना, बंदी अफसरों एवं लोगों को सम्मान सहित मुक्त करना- ये निश्चय ही साधारण गुण नहीं हैं।’
अपने व्यक्तिगत जीवन में शिवाजी उस समय के प्रचलित दोषों से बचे रह गये। उसके नैतिक गुण अत्यन्त उच्चकोटि के थे। अपने प्रारंभिक जीवन से ही सच्ची धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण वह राजनैतिक एवं सैनिक कर्तव्यों के बीच भी उन उच्च आदर्शों को नहीं भूले।
शिवाजी के उत्तराधिकारी (Shivaji’s Successor)
शंभाजी
शिवाजी का उत्तराधिकार शंभाजी को मिला। शंभाजी शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र थे और दूसरी पत्नी से एक दूसरा पुत्र राजाराम था। उस समय राजाराम की उम्र मात्र 10 वर्ष थी, अतः मराठों ने शंभाजी को राजा मान लिया। विषय-सुख का प्रेमी होने पर भी वह वीर था। उसका प्रमुख परामर्शदाता उत्तर भारत का एक ब्राह्मण था, जिसका नाम कवि कलश था। कवि कलश का आचरण निंदा से परे नहीं था। नये राजा ;शंभूजीद्ध के अधीन मराठा शक्ति दुर्बल हो गई, परंतु बिल्कुल मंदगति नहीं हुई। औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह कर दिया। शंभाजी ने उसको अपने यहाँ शरण दी। औरंगजेब ने अब एक बार फिर जोरदार तरीके से शंभाजी के खिलाफ आक्रमण करना शुरु किया। अंततः 1689 में मुकर्रब खाँ नामक एक साहसी मुगल अफसर ने 11 फरवरी, 1689 ई. को उसको रत्नागिरि से बाईस मील दूर संगमेश्वर नामक स्थान पर पकड़ लिया। उसका मंत्री कवि कलश तथा उसके पच्चीस प्रमुख अनुगामी भी शंभाजी के साथ कैद कर लिये गये। शाही दल ने शीघ्र बहुत-से मराठा दुर्गों पर अधिकार कर लिया, यहाँ तक मराठा राजधानी रायगढ़ पर भी घेरा डाल लिया। दोनों प्रमुख कैदियों को बहादुरगढ़ के शाही पड़ाव में लाकर 11 मार्च, 1689 ई. को मार डाला गया।
राजाराम
बहादुरगढ़ के शाही पड़ाव की घटना से मराठों का क्रोधित होना स्वाभाविक था। महाराष्ट्र में रामचंद्र, शांकरजी मल्हार तथा परशुराम त्रयंबक जैसे नेताओं ने मराठों को पुनर्जीवित किया। उन्होंने राजाराम के नेतृत्व में शक्ति संचयकर अपनी पूरी ताकत से मुगलों के साथ राष्ट्रीय प्रतिरोध का युद्ध पुनः आरंभ कर दिया। शाही दल ने दिसंबर, 1699 ई. में सतारा के दुर्ग पर घेरा डाल दिया, परंतु रक्षक सेना ने वीरतापवूक इसकी प्रतिरक्षा की। अब बादशाह स्वयं मराठों के एक के बाद दूसरे किले पर अधिकार करने लगा, किंतु मराठे जो आज खोते थे, उसे कल पुनः प्राप्त कर लेते थे, इस प्रकार युद्ध अंतहीन रूप में जारी रहा। अंत में राजाराम की मृत्यु (12 मार्च, 1700 ई.) के पश्चात् उसके मंत्री परशुराम ने कुछ शर्तों पर इसे समर्पित कर दिया।
ताराबाई और शिवाजी तृतीय
राजाराम की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा ताराबाई ने इस संकटपूर्ण समय में अपने अल्पवयस्क पुत्र शिवाजी तृतीय की संरक्षिका के रूप में मराठा राष्ट्र की बागडोर सँभाली। खाफी खाँ जैसे कटु आलोचक तक ने स्वीकार किया है कि वह एक चतुर तथा बुद्धिमत्ती स्त्री थी तथा दीवानी एवं फौजदारी मामलों की अपनी जानकारी के लिए अपने पति के जीवनकाल में ही ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। अब मराठा सरदार अपने आप विभिन्न दिशाओं में मारकाट मचाने लगे। संतजी घोरपड़े तथा धनाजी जाधव नामक दो योग्य एवं सक्रिय मराठा सेनापतियों ने एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक रौंद डाला तथा मुगलों को बहुत हानि पहुँचाई। मराठा इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने बादशाह के पड़ाव तक अपने साहसपूर्ण आक्रमण किये। मुगल दक्कन के बहुत-से अफसरों ने मराठों को चैथ देकर अपनी रक्षा की तथा उनमें से कुछ ने तो बादशाह के लोगों को लूटने में शत्रु का साथ तक दिया। 3 मार्च, 1707 ई. को औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य निरंतर कमजोर होता चला गया और उत्तराधिकार-विवाद के बावजूद मराठे शक्तिशाली होते चले गये।
उत्तराधिकार-विवाद के कारण मराठाओं की शक्ति पेशवाओं (प्रधानमंत्री) के हाथ में आ गई और पेशवाओं के अंदर मराठा शक्ति का और भी विकास हुआ और वे दिल्ली तक पहुँच गये। 1761 ई. में नादिरशाह के सेनापति अहमदशाह अब्दाली ने मराठाओं को पानीपत की तीसरी लड़ाई में हरा दिया।
पानीपत के तीसरे युद्ध के बाद मराठा शक्ति का विघटन होता चला गया। उत्तर में सिखों का उदय हुआ और दक्षिण में मैसूर स्वायत्त होता गया। अंग्रेजों ने भी इस दुर्बल राजनैतिक स्थिति का लाभ उठाकर अपना प्रभुत्व स्थापित करना आरंभ कर दिया और 1770 ई. तक बंगाल और अवध पर उनका नियंत्रण स्थापित हो गया था।
अब मराठों की निगाहें मैसूर पर टिक गई थीं। राज्य के शासन को संगठितकर शाही राज्य को रौंदने के लिए सशक्त उपाय किये गये। मराठे मालवा पर आक्रमण कर बरार में घुस गये। 1706 ई. में मराठों ने गुजरात पर आक्रमण किया तथा बड़ौदा को लूटा। अप्रैल अथवा मई, 1706 ई. में एक विशाल मराठा सेना अहमदनगर में बादशाह की छावनी पर हमला किया, जिसे कठिन संघर्ष के बाद ही पीछे हटाया जा सका। इन आक्रमणों के कारण मराठों के साधन बहुत बढ़ गये। भीमसेन नामक एक प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा है कि मराठे संपूर्ण राज्य पर पूर्णतया छा गये तथा उन्होंने सड़कों को बंद कर दिया। अब मराठों की सैनिक कार्य-प्रणाली में भी परिवर्तन हुआ, जिसका तात्कालिक परिणाम उनके लिए अच्छा हुआ। मराठा राष्ट्रीयता विजयिनी शक्ति के रूप में उसके बाद भी जीवित रही, जिसका प्रतिरोध करने में मुगल राजवंश के दुर्बल उत्तराधिकारी असफल रहे।