मुद्रास्फीति के प्रकार

1. खुली मुद्रास्फीति – खुली मुद्रास्फीति वह स्थिति है जिसमें कीमतों में होने वाली वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिये कोई उपाय नहीं अपनाए जाते। मिल्टन फ्रीडमैन के अनुसार, ‘‘खुली मुद्रास्फीति वह प्रक्रिया है जिसमें कीमतों को बिना सरकारी नियन्त्रणों के या इसी प्रकार की तकनीकों के, बढ़ने दिया जाता है।’’ खुली मुद्रास्फीति में कीमत संयंत्रा वस्तुओं के वितरण का कार्य करता है। जर्मनी में प्रथम महायुद्ध के पश्चात होने वाली, मुद्रास्फीति, खुली मुद्रास्फीति का महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।
2. दबी मुद्रास्फीति – जब बढ़ती हुई कीमतों को प्रशासनिक उपायों जैसे-राशनिंग, कीमत नियन्त्रण इत्यादि द्वारा सरकार दबा देती है अर्थात् कीमतों को नहीं बढ़ने देती तो इसे दबी मुद्रास्फीति कहते हैं। अतएव दबी हुई मुद्रास्फीति वह स्फीति है जिसमें वर्तमान समय में कीमतों में होने वाली वृद्धि को सरकार ने दबा दिया है। परन्तु भविष्य में जैसे ही सरकारी नियंत्रण समाप्त हो जाते हैं कीमतें तेजी से बढ़ने लगती हैं। दबी मुद्रास्फीति में, मूल्य नियंत्रण व राशनिंग प्रशासकों के भ्रष्ट तथा अनुभवहीन होने के कारण काले बाजार को प्रोत्साहन मिलता है। दबी स्फीति में कीमत संयंत्रा अपना कार्य नहीं कर पाती। इसका कारण यह है कि दबी मुद्रास्फीति में राशनिंग और कीमत नियंत्रण के फलस्वरूप चोर बाजारी, भ्रष्टाचार तथा रिश्वत में वृद्धि होती है और साधनों का अनुचित बंटवारा होता है।
3. युद्धकालीन मुद्रास्फीति – युद्ध के खर्चों को पूरा करने के लिए सरकार मुद्रा की पूर्ति में बहुत अधिक वृद्धि कर देती है। इस प्रकार आम जनता के उपभोग के लिये बहुत कम वस्तुयें उपलब्ध होती हैं। इसके कारण कीमतें बढ़ जाती हैं। इस कारण युद्ध के समय जो मुद्रास्फीति होती है उसे युद्धकालीन मुद्रास्फीति कहते हैं।
4. युद्धोत्तर मुद्रास्फीति – युद्ध के पश्चात भी मुख्य रूप से दो कारणों से मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति जारी रह सकती है। युठ्ठ के दौरान लगाए गए कर इत्यादि युद्ध के पश्चात हटाए जाने के कारण तथा सरकारी ऋणों की वापसी के फलस्वरूप लोगोंं के पास भी मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है। परंतु वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन इसकी तुलना में कम बढ़ता है।
5. शांतिकालीन मुद्रास्फीति – अविकसित देशों को आर्थिक नियोजन तथा विकास कार्यक्रमों के लिये अत्याधिक साधनों की आवश्यकता होती है। इसके लिए सरकार को घाटे की वित्त व्यवस्था अपनानी पड़ती है। इसके फलस्वरूप कीमतों में जो वृद्धि होती है, उसे शांतिकालीन स्फीति कहा जाता है।
6. रेंगती मुद्रास्फीति – रेंगती मुद्रास्फीति उस समय होती है जबकि कीमतों में वृद्धि धीरे-धीरे हो। इस प्रकार की स्फीति आर्थिक विकास के लिये उपयुक्त तथा किसी सीमा तक आवश्यक समझी जाती है। कुछ अर्थशािस्त्रायों के अनुसार कीमत स्तर में तीन प्रतिशत वृद्धि तक को रेंगती हुई मुद्रास्फीति कहा जाता है। इसके विपरीत कई अर्थशािस्त्रायों के अनुसार रेंगती मुद्रास्फीति भी हानिकारक हो सकती है। क्योंकि यह मुद्रास्फीति धीरे-धीरे भयंकर रूप धारण कर सकती है।
7. चलती मुद्रास्फीति – जब कीमतों में वृद्धि की गति बढ़ने लगती है और मुद्रास्फीति की मात्रा में कुछ तेजी आ जाती है तो इसे चलती मुद्रास्फीति कहा जाता है। जब किसी दशक में कीमतों में होने वाली वृद्धि 30 : से 40: हो जाती है तो उसे चलती मुद्रास्फीति कहते हैं।
8. दौड़ती मुद्रास्फीति – जब कीमतों में वृद्धि की गति अत्याधिक तीव्र हो जाती है और थोड़े ही समय में कीमतों में पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हो जाती है तो उसे दौड़ती हुई मुद्रास्फीति कहा जाता है। इस अवस्था में मुद्रास्फीति 80 से 100 प्रतिशत हो सकती है। यह स्थिति बचत को भी हतोत्साहित करती है।
9. सरपट दौड़ती मुद्रास्फीति या अति मुद्रास्फीति – मुद्रास्फीति की यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें कीमतों में अप्रत्याशित तीव्र गति से वृद्धि होती है। इस अवस्था को मुद्रास्फीति का ‘भयंकर राक्षस’ कहते हैं। जर्मनी में 1923 के पश्चात इसी प्रकार की मुद्रास्फीति ने लोगों का जर्मनी की करेन्सी में विश्वास बिल्कुल समाप्त कर दिया था। जर्मनी में तो कीमतें एक दफा एक साल की अवधि में दस लाख गुणा अधिक हो गई थीं। समाज का निश्चित आय वाला वर्ग तथा निर्धन वर्ग बिल्कुल तबाह हो जाता हैं।
10. क्षेत्रीय या विकीर्ण मुद्रास्फीति – जब मुद्रास्फीति का चुनाव देश के किसी एक भाग में या किन्हीं एक या दो प्रकार की वस्तुओं जैसे – दालें, पैट्रोल इत्यादि पर हो तो इसे विकीर्ण मुद्रास्फीति कहा जाता है।

11. व्यापक मुद्रास्फीति – मुद्रास्फीति का प्रभाव जब केवल एक क्षेत्र में तथा वस्तुओं पर न रहकर सारे देश में तथा सभी वस्तुओं पर दिखाई देता है तो उसे व्यापक मुद्रास्फीति कहते हैं।
12. मजदूरी प्रेरित मुद्रास्फीति – श्रमिकों के संगठन शक्तिशाली होने के कारण उनकी सौदा करने की शक्ति बढ़ जाती है और श्रमिक अधिक मजदूरी की मांग करते हैं।
13. लाभ प्रेरित या ‘मार्क अप’ मुद्रास्फीति – विकसित देशों में बड़ी-बड़ी कम्पनियां अपनी वस्तुओं की कीमत निर्धारित करते समय उनकी लागत के ऊपर एक निश्चित प्रतिशत लाभ के रूप में बढ़ा देती है। ये कम्पनियाँ ‘मार्क अप’ को काफी ऊंचा रखती है। इस प्रकार की मुद्रास्फीति को ‘मार्क अप’ स्फीति कहा जाता है।
14. घाटा प्रेरित मुद्रास्फीति – सरकार की धाटे की वित्त व्यवस्था के फलस्वरूप जो मुद्रास्फीति होती है, उसे घाटा जवित मुद्रास्फीति कहते हैं। यह स्थिति उस समय होती है, जब घाटे की वित्त व्यवस्था के फलस्वरूप मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है परन्तु वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति उस अनुपात में नहीं बढ़ती।
 
15. अवरोध गति मुद्रास्फीति – सन् 1970 के पश्चात संसार के विकसित देशों में एक नई प्रकार की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। साधारणतया मुद्रास्फीति की स्थिति में एक ओर कीमतें बढ़ती हैं तो दूसरी ओर उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि होती है परन्तु इस नई स्थिति में एक ओर कीमतें तो बढ़ रही थीं परंतु दूसरी ओर उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि नहीं हो पा रही थी।
प्रो. सैम्यूअलसन के अनुसार, ‘‘गतिरोध स्फीति एक ऐसी स्फीति है, जहां कीमतों तथा मजदूरी में वृद्धि होने पर भी अधिकतर व्यक्ति रोजगार पाने में असमर्थ होते हैं तथा फर्मे अपने कारखानों में उत्पन्न माल को बेचने में असमर्थ होती हैं।’’

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