नीति निर्देशक सिद्धांतों की उत्पत्ति कराची प्रस्ताव के बाद हुई थी और 1920 में भारत में सामाजिक एवं राष्ट्रीय विचारों के प्रादुर्भाव के कारण हुई थी। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का विचार आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है। ये प्रावधान लोगों के सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक विकास के लिये महत्वपूर्ण थे। 

राज्य के नीति निर्देशक तत्व

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का उद्देश्य

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक अवस्था का निर्माण करना है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार – ‘‘राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का पालन करके भारत की भूमि को स्वर्ग बनाया जा सकता है।’’  एम. सी. छागला के अनुसार – भारतीय संविधान का लक्ष्य न केवल राजनीतिक प्रजातन्त की स्थापना है, अपितु जनता को सामाजिक-आर्थिक न्याय प्रदान कर कल्याण कारी राज्य स्थापित करना भी है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए हमारा संविधान भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक वांछित नीति निर्देशों का वर्णन करता है। ये प्रावधान राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत के रूप में जाने जाते हैं।

राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत केन्द्रीय एवं राज्य की सरकारों को दिए गए निर्देश हैं। ये देश के प्रशासन में मूल भूमिका निभाते हैं। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का विचार आयरलैण्ड के संविधान से लिया गया है। आर्थिक न्याय की स्थापना एवं कुछ लोगों के हाथों में धन के संचय को रोकने के लिए इन्हें संविधान में शामिल किया गया है। इसलिए को सरकार इसकी अवहेलना नहीं कर सकती। दरअसल ये निर्देश भावी सरकारों को इस बात को ध्यान में रख कर दिए गए हैं कि विभिन्न निर्णयों एवं नीति-निर्धारण में इसका समावेश हो। ‘‘राज्य नीति के निर्देशक तत्वों का उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। जिसमें न्याय स्वतंत्रता व समानता प्रदान की जाती है। एवं लोग प्रसन्न एवं समृद्धिशाली होते हैं।’’

राज्य नीति के निर्देशक तत्व का वर्गीकरण 

1. आर्थिक सुरक्षा संबंधी तत्व – 

भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करने के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नीति निर्देशक तत्वों द्वारा आर्थिक सुरक्षा एवं आर्थिक न्याय की व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 39 में राज्य से कहा गया है कि वह ऐसी नीति अपनाये जिससे-

  1. स्त्री और पुरुष के लिये आजीविका का पर्याप्त साधन जुटाना। 
  2. आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार की हो कि धन एवं उत्पाद के साधनों का अहितकारी केन्द्रीयकरण न हो।
  3. प्रत्येक नागरिक को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जा सके। 
  4. देश के भौतिक साधनों का स्वामित्व और नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था करें कि उससे अधिकाधिक सार्वजनिक हित हो सके। 
  5. श्रमिक-पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो तथा आर्थिक विवशता में उन्हें उन कार्यों को न करना पड़े, जो उनकी आयु और शक्ति के अनुकूल न हों। 
  6. शैशव व किशोरावस्था की शोषण से मुक्ति तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से संरक्षण प्राप्त हो सकें। 
  7. आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को निशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त हो सकें। 
  8. बेकारी, बीमारी, वृद्धावस्था और विकलांग होने के कारण जीविका कमाने में असमर्थ नागरिकों को राज्य की ओर से सहायता मिल सकें। 
  9. ग्रामीण क्षेत्रों में वैयक्तिक या सहयोग के अनुसार या कुटीर उद्योगों की स्थापना हो सकें। 
  10. कृषि उद्योग के क्षेत्र में लगे सभी श्रमिकों को जीवन-निर्वाह हेतु आवश्यक वेतन, अच्छा जीवन स्तर, अवकाश व आराम तथा सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति के अवसर सुलभ हो सकें। 
  11. कार्य करने की यथोचित एवं मानवोचित दशाएं सुनिश्चित हों और स्त्रियों को प्रसूति सहायता और प्रसूतावास्था में कार्य न करने की व्यवस्था हो सकें। 
  12. औद्योगिक संस्थानों के प्रबंध में श्रमिकों की भागीदारी की व्यवस्था हो सके। 
  13. विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के समुदायों के समुदायों के मध्य विद्यमान आय, सामाजिक स्तर, सुविधाओं तथा अवसरों की असमानता को कम-से-कम करने की व्यवस्था हो सकें। 
  14. कृषि एवं पशुपालन आधुनिक व वैज्ञानिक आधार पर संगठित हों, पशुओं की नस्ल में सुधार हो तथा पशु-वध बन्द हो सकें। 

2. सामाजिक हित और शिक्षा संबंधी तत्व – 

सामाजिक हित और शिक्षा के क्षेत्र में राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह-

  1. संविधान लागू होने के 10 वर्ष की अवधि के भीतर 14 वर्ष तक के सभी बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करें। 
  2. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचितजन जातियों की शिक्षा तथा उनके आर्थिक हितों का सावधानी से विकास करें और सामाजिक अन्याय तथ सब प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करें। 
  3. अपनी लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखने का प्रयत्न करें। 

3. शासन और न्याय संबंधी तत्व – 

शासन और न्याय के क्षेत्र में राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह अधिकार प्रदान करे कि वे स्थानीय स्वायत-शासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सकें – 
  1. लोकतांत्रिक भावना के विकास के लिए गांवों में ग्राम पंचायतों का संगठन करे और उन्हें इस प्रकार के अधिकार प्रदान करे कि वे स्थानीय स्वायत-शासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सकें। 
  2. भारत के संपूर्ण राज्य-क्षेत्र में नागरिकों को एकसमान आचार संिहता बनाने का प्रयन्न करें। 
  3. अपनी लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखने का पय्र त्न करें। 

4. राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों, स्थानों एवं वस्तुओं की सुरक्षा संबंधी तत्व – 

संविधान के अनुच्छेद 49 में राज्य को निर्देश दिया गया है कि वह संसद द्वारा धोषित राष्ट्रीय महत्व के कलात्मक या ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रत्येक स्मारक, स्थान या वस्तु को कुरूप होने, नष्ट होने, क्रय-विक्रय किये जाने से राज्य को बचाये – 

5. पर्यावरण तथा वन और वन्य जीवों की सुरक्षा संबंधी तत्व – 

सन् 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा पर्यावरण तथा वन्य जीवों की सुरक्षा को भी निर्देशक तत्वों में स्थान दिया गया है। इस संविधान संशोधन में कहा गया है कि राज्य पर्यावरण की सुरक्षा और उसके संवर्द्धन तथा वनों और वन्य जीवन की रक्षा का भी प्रयास करेगा। 

6. अन्तर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा संबंधी तत्व – 

हमारा देश सदैव से शांति का पुजारी रहा है तथा ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ हमारा आदर्श और ‘‘जियो और जीने दो’’ हमारा सिद्धांत रहा है। अपने इस आदर्श ओर सिद्धांत के अनुसार ही संविधान के अनुच्छेद 51 में राज्य को यह आदेश दिया गया है कि वह- 
  1. अन्तर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा को प्रोत्साहन देगा। 
  2. राष्ट्रों के मध्य न्याय पर आधारित सम्मानपूर्ण संबंध स्थापित रखेगा। 
  3. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा सुलक्षाने की व्यवस्था को प्रोत्साहन देगा। 

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की आलोचना

आलोचकों ने राज्य की नीति-निर्देशक सिद्धांतों को बेहतर नहीं माना है। इन उच्च आदर्शों को संविधान में शामिल करने के औचित्य पर भी सवाल उठाया गया है। माना जाता है कि ये निर्देश मात्र शुभकामनाएं हैं जिनके पीछे को कानूनी मान्यता नहीं है। सरकार इन्हें लागू करने के लिए बाध्य नहीं है। आलोचकों का मानना है कि इन सिद्धांतों को व्यवहारिक धरातल पर नहीं उतारा जा सकता है। 
इन सबके बावजूद ये नहीं कहा जा सकता है कि ये सिद्धांत पूणरूपेण अर्थहीन हैं। इसकी अपनी उपयोगिता और महत्व है। नीति-निर्देशक सिद्धांत धु्रवतारा की तरह है जो हमें दिशा दिखलाते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य सीमित संसाधनों के बावजूद जीवन के हर पहलू में यथाशीध्र सरकार द्वारा सामाजिक आर्थिक न्याय की स्थापना करना है। 
कुछ सिद्धांतों को तो सफलतापूर्वक लागू भी किया गया है। वास्तव में को भी सरकार इन निर्देशों की अवहेलना नहीं कर सकती है क्योंकि वे जनमत का दर्पण हैं, साथ ही ये संविधान की प्रस्तावना की भी आत्मा है। इन्हें लागू करने की दिशा में उठाए गए कुछ कदम इस प्रकार है- 
  1. भूमि सुधार लागू किये गये हैं तथा जागीदारी एवं जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया है। 
  2. बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण हुआ है एवं हरित क्रांति द्वारा कृषि उत्पादन में काफी बढ़ोतरी हु है।
  3. महिलाओं के कल्याण के लिए राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की गयी है। 
  4. व्यक्ति की भूसंपत्ति की सीमा तय करने के लिए भू-हदबंदी लागू की गयी है। 
  5. रजवाड़ों को दिए जाने वाले प्रिवी पर्स का उन्मूलन किया गया है। 
  6. जीवन बीमा, साधारण बीमा एवं अधिकांश बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है। 
  7. आर्थिक विषमता कम करने के लिए संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से िनकल दिया गया है। 
  8. निर्धनों की सहायता के लिए सरकार द्वारा जन-वितरण प्रणाली के माध्यम से सहायता दी जाती है। 
  9. स्त्री और पुरूष दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन के लिए नियम बनाये गये हैं। 
  10. छुआछूत का उन्मूलन किया गया है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वगोर्ं के उत्थान के लिए कारगर प्रयास किए गये हैं। 
  11. 73वें और 74वें संविधान संशोधन (1991एवं 1992क्रमश:) के द्वारा पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देते हुए और अधिक सशक्त बनाया गया है। 
  12. ग्रामीण क्षेत्र में समृद्धि लाने के लिए लघु उद्योग एवं ग्रामीण उद्योग तथा खादी ग्रामोद्योग को प्रोत्साहित किया गया है। 
  13. भारत अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए संक्रिय रूप से संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग करता है। 

केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा लिए गए उपरोक्त कदम यह दर्शाते हैं कि भारत में एक पक्षनिरपेक्ष समाजवादी एवं लोककल्याणकारी राज्य की नीव डालने के लिए क नीति-निर्देशक सिद्धांतों को लागू किया गया है। यह सच है कि सभी नीति-निर्देशक सिद्धांतों को पूर्णतया लागू करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है। नीति-निर्देशक सिद्धांतों को लागू किये जाने के रास्ते में को बाधाएं हैं। इनमें से मुख्य है:- 

  1. राज्यों में राजनीतिक इच्छा शक्ति का आभाव, 
  2. लागों में जागरूकता एवं सगठन का आभाव, 
  3. सीमित संसाधन।

मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अंतर

मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अंतर

 

मौलिक अधिकार नीति-निदेशक तत्व
1. मौलिक अधिकारों को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है, यदि नागरिक के किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है तो वह न्यायालय की शरण ले सकता है।इस प्रकार मौलिक अधिकारों को न्यायालय नीति निदेशक तत्वद्वारा लागू कराया जा सकाता है। 1. नीति-निदेशक तत्वों को लागू करवाने के लिए न्यायालय की शरण नहीं ली जा सकती और न ही न्यायपालिका सरकार को उन्हें लागू करने के आदेश दे सकती है।
2. मौलिक अधिकारों की प्रकृति नकारात्मक है ये राज्य के अधिकारों पर प्रतिबध लगाते हैं, अनुच्छेद 13 में कहा है कि राज्य ऐसा को कानून नहीं बनायेगा जो मौलिक अधिकारों द्वारा दिये गये अधिकारों को छीनता है।  2. नीति निदेशक सिद्धांतों की प्रकृति को सकारात्मक कहा गया है, जो राज्य को कुछ करने के आदेश व निर्देश देते है।
3. मौलिक अधिकारों का विषय व्यक्ति है, अर्थात् मौलिक अधिकार व्यक्तियों को प्राप्त है, इन्हें प्राप्त करने के लिए न्यायपालिका में भी अपील की जा सकती है। 3. नीति-निर्देशक सिद्धांतों का विषय राज्य है अर्थात् ये राज्य के लिए निर्देश है न किसी व्यक्ति के लिये। 
4. मौलिक अधिकारों का क्षेत्र राज्य में निवास करने वाले नागरिकों तक ही सीमित है।  4. नीति-निर्देशक सिद्धांतों का क्षेत्र मौलिक अधिकारों से व्यापक है। नीति-निदेशक सिद्धांतों का क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय है। 
5. मौलिक अधिकारों को सीमित अथवा स्थगित किया जा सकता है। 5. नीति-निदेशक सिद्धांतों को कभी-कभी किसी अवस्था में सीमित नहीं किया जा सकता है।
6. मौलिक अधिकार नागरिकों के व्यक्तिगत व्यक्तित्व का विकास करने के अधिकार है। 6. नीति-निदेशक सिद्धांत समाज के विकास पर बल देते है।
 7. मौलिक अधिकार मुख्यत: विभिन्न स्वतंत्रताओं पर बल देते है।  7. नीति-निदेशक तत्व समाजिक व आर्थिक अधिकारों पर बल देता है। 
8. मौलिक अधिकारों की सरकार द्वारा अवहेलना की जा सकती है। 8. नीति-निदेशक सिद्धांत मूलत: जनमत पर आधारित होने के कारण को भी सरकार इनकी अवहेलना नहीं करती है। अन्यथा आगामी निर्वाचन में जनता का विश्वास खोने का भय बना रहता है।
9. मौलिक अधिकारों का कानूनी महत्व है। 9. निर्देशक सिद्धांत नैतिक आदेश माना है। 

 

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