भारत में अपने कार्यकाल के दौरान रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल में अंग्रेजों की स्थिति में सुधार किया और ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूती प्रदान की। 23 जून, 1757 ई. को प्लासी के युद्ध के बाद 1764 ई. में बक्सर के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय, इन तीनों को अपनी सूझबूझ, चालाकी और कूटनीति से पराजित कर क्लाइव ने बंगाल में ब्रिटिश हुकूमत के विरोध को पूर्णतया समाप्त कर दिया था।

1757 से 1760 ई. तक बंगाल का गर्वनर रहने के बाद क्लाइव 1760 ई. में इंग्लैंड लौट गया। उसके पश्चात् बंगाल का स्थानापन्न गर्वनर हॉलवेल बना। तत्पश्चात् वेन्सिटार्ट बंगाल का गर्वनर बना।

बक्सर की विजय का समाचार जब इंग्लैंड पहुँचा तो सब का मत था कि जिसने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव रखी है उसे ही उस साम्राज्य को सुदृढ़ करने के लिए भारत भेजा जाए। इस प्रकार क्लाइव को पुनः भारत में अंग्रेजी प्रदेशों का मुख्य सेनापति तथा गर्वनर बनाकर भेजा गया था। 10 अप्रैल, 1765 ई. को क्लाइव ने दूसरी बार मद्रास की धरती पर पैर रखा था और 3 मई, 1765 ई. को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में कार्यभार ग्रहण किया।

क्लाइव का दूसरा कार्यकाल, 1765-1767 ई. (Clive’s Second Term)

क्लाइव ने भारत में पहुँचकर देखा कि उत्तर भारत की समस्त राजनैतिक प्रणाली अनिर्णायक अवस्था में है। बंगाल का प्रशासन पूर्णतया गड़बड़ था। कंपनी के कार्यकर्त्ता धन के लोभ तथा उससे उत्पन्न हुए अवगुणों में इतने जकड़े हुए थे कि कंपनी का प्रशासन ठप हो रहा था तथा जनता पर अत्याचार हो रहा था। कंपनी के असैनिक और सैनिक प्रशासन में अनेक सुधार किये। उन्होंने कर्मचारी वर्ग को निजी व्यापार करने तथा उपहार आदि लेने के लिए मना कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेज सैनिक अधिकारियों का भत्ता कम कर दिया तथा रिश्वत और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी आवश्यक कदम उठाए।

इलाहाबाद की संधियाँ (Allahabad Treaties)

क्लाइव का प्रथम कार्य पराजित शक्तियों के साथ संबंधों को निश्चित करना था। क्लाइव ने 1765 ई. में मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया और उससे इलाहाबाद एक संधि की, जिसके अनुसार कंपनी ने सम्राट शाहआलम को इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले अवध के नवाब से लेकर दे दिया।

शाहआलम ने अपने 12 अगस्त के फरमान द्वारा कंपनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी स्थायी रूप से दे दी जिसके बदले कंपनी ने सम्राट को प्रति वर्ष 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन तथा निजामत के व्यय के लिए 53 लाख रुपया देना स्वीकार किया। इसे ‘इलाहाबाद की पहली संधि’ के नाम से जाना जाता है।

वह अवध गया और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ 16 अगस्त, 1765 को एक संधि की, जिसे ‘इलाहाबाद की दूसरी संधि’ के रूप में जाना जाता है। संधि की शर्तों के अनुसार नवाब ने इलाहाबाद व कड़ा के जिले शाहआलम द्वितीय को देने का वादा किया और युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए उसने कंपनी को 50 लाख रुपये भी देने का वचन दिया। वह बनारस के जागीरदार बलवंतसिंह को उसकी जागीर में प्रतिस्थापित कर दे।

इसके अतिरिक्त, उसने कंपनी से आक्रमण तथा रक्षात्मक संधि की जिसके अनुसार उसे कंपनी की आवश्यकतानुसार निःशुल्क सहायता करनी होगी तथा कंपनी नवाब की सीमाओं की रक्षा के लिए उसे सैनिक सहायता देगी जिसके लिए नवाब को धन देना होगा। इन दोनों संधियों के संपन्न हो जाने पर ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति अत्यन्त ही मजबूत हो गई।

वास्तव में क्लाइव ने दोनों संधियों के द्वारा अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। यदि वह अवध को अपने अधिकार में लेता तो उसे अहमदशाह अब्दाली और मराठों जैसी शक्तियों से निपटना पड़ता। इस निर्णय से अवध का नवाब उसका मित्र हो गया और अवध एक मध्यवर्ती राज्य बन गया। इसी प्रकार शाहआलम से संधि करके क्लाइव ने उसे कंपनी का पेंशनर बना लिया और वह कंपनी की रबर की मुहर बन गया। सम्राट के फरमान से कंपनी को राजनैतिक लाभों को कानूनी रूप मिल गया।

बंगाल में द्वैध शासन (Diarchy in Bengal)

क्लाइव ने बंगाल की समस्या को कुख्यात दोहरी प्रणाली द्वारा सुलझाने का प्रयास किया, जिसमें दीवानी अर्थात् भू-राजस्व वसूलने की शक्ति कंपनी के पास थी, पर प्रशासन का भार नवाब के कंधों पर था। इस प्रशासनिक व्यवस्था की विशेषता थी- उत्तरदायित्वरहित अधिकार और अधिकार रहित उत्तरदायित्व। पहले प्रांतों में दो प्रकार के अधिकारी होते थे- सूबेदार और दीवान। सूबेदार का कार्य निजामत अर्थात् सैनिक संरक्षण, पुलिस तथा फौजदारी कानून लागू कराना था जबकि दीवान का कार्य कर-व्यवस्था तथा दीवानी कानूनों को लागू करना था। दोनों अधिकारी एक-दूसरे पर नियंत्रण का कार्य भी करते थे और सीधे केंद्रीय सरकार के प्रति उत्तरदायी थे। मुगल सत्ता क्षीण होने पर बंगाल का नवाब मुर्शिदकुली खाँ दीवानी तथा निजामत दोनों कार्य देखता था।

12 अगस्त, 1765 ई. के फरमान के अनुसार शाहआलम ने 26 लाख रुपये वार्षिक के बदले कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हो गई। कंपनी को 53 लाख रुपये निजामत के कार्य के लिए देने थे। परंतु बंगाल का निजामत (प्रांतीय सैन्य-प्रबंध तथा फौजदारी मामलों पर निर्णय देने का अधिकार) अब भी मुस्लिम सूबेदारों के हाथों में ही था।

1765 ई. में मीरजाफर की मृत्यु हो गई और उसके अल्पवयस्क पुत्र नज्मुद्दौला को बंगाल का नवाब बनाया और उस पर एक नई संधि थोप दी। संधि के अनुसार निजामत का लगभग समस्त अधिकार अर्थात् सैनिक संरक्षण, शांति-व्यवस्था, बाह्य आक्रमणों से रक्षा, विदेशी मामले, फौज तथा फौजदारी मामलों में न्याय देने का अधिकार कंपनी को प्राप्त हो गया था। दीवानी मामलों के लिए डिप्टी सूबेदार, जिसकी नियुक्ति कंपनी करेगी और बिना कंपनी की अनुमति के हटाया जाना संभव नहीं था, को दे दिया गया।

नवाब द्वारा निजामत के अधिकार त्यागना वस्तुतः बंगाल में ब्रिटिश राज्य की स्थापना की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम था। इस प्रकार कंपनी ने राजस्व वसूलने का अधिकार तथा नवाब ने शासन चलाने की जिम्मेदारी ग्रहण की। क्लाइव की इस शासन व्यवस्था को दोहरा शासन इसलिए कहते हैं कि फौजदारी अधिकार तो नवाब के पास थे, जबकि दीवानी अधिकार अंग्रेजों के पास।

क्लाइव शासन का प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व कंपनी के हाथों में नहीं लेना चाहता था। उसने भारतीय अधिकारियों के माध्यम से दीवानी का काम चलाने का निश्चय किया और दो नायब दीवानों की नियुक्ति की- बंगाल में मुहम्मद रजा खाँ तथा बिहार में सिताबराय। रजा खाँ का केंद्र मुर्शिदाबाद और शिताबराय का केंद्र पटना में था। इस प्रकार समस्त दीवानी तथा निजामत का काम भारतीयों द्वारा ही चलता था, यद्यपि उत्तरदायित्व कंपनी का था। अब कंपनी लगभग पूर्णरूप से बंगाल की स्वामी बन गई। ‘कंपनी के द्वारा इस दोहरे शासन का जाल अपने यूरोपियन प्रतिद्वंद्वियों, देशी राजाओं और ब्रिटिश सरकार को वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ बनाये रखने के लिए रचा गया था।’ क्लाइव की यह दोहरी व्यवस्था आगामी सात वर्ष (1765-1772 ई.) तक प्रचलित रही।

द्वैध शासन व्यवस्था का औचित्य (Justification of Diarchy)

क्लाइव द्वारा स्थापित दोहरी शासन प्रणाली बड़ी जटिल तथा विचित्र थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत बंगाल के शासन का समस्त कार्य नवाब के नाम पर चलता था, किन्तु वास्तव में उसकी शक्ति नाममात्र की थी और वह एक प्रकार से कंपनी का पेंशनर था, क्योंकि कंपनी शासन के खर्च के लिए नवाब को एक निश्चित राशि देती थी। दूसरी ओर वास्तविक शक्ति कंपनी के हाथों में थी। वह शासन-कार्य में नवाब का निर्देशन करती थी। इसके अतिरिक्त दीवानी अधिकारों की प्राप्ति से बंगाल की आय पर कंपनी का पूर्ण नियंत्रण था, किंतु वह बंगाल के शासन के लिए जिम्मेदार नहीं थी और नवाब के अधीन होने का दिखावा भी करती थी।

इस प्रकार, बंगाल में एक ही साथ दो सरकारें काम करती थीं-कंपनी की सरकार और नवाब की सरकार। इस प्रकार सूबों में दो सत्ताओं (एक नवाब की और दूसरी कंपनी की सत्ता) की स्थापना हुई। कंपनी की सत्ता वास्तविक थी, जबकि नवाब की सत्ता उसकी परछाई मात्र थी। क्लाइव की इस शासन प्रणाली को ‘द्वैध शासन’ कहते हैं।

द्वैध शासन व्यवस्था से कंपनी को लाभ (The Company Benefits from Diarchy)

क्लाइव की द्वैध शासन की व्यवस्था उसकी बुद्धिमत्ता और राजनीतिज्ञता का प्रमाण थी। यह प्रणाली उस समय कंपनी के हितों के दृष्टिकोण से सर्वोत्तम थी। क्लाइव जानता था कि समस्त शक्ति कंपनी के पास है, नवाब के पास सत्ता की केवल छाया है। उसने प्रवर समिति को लिखा था कि यह छाया आवश्यक है तथा हमें इसको स्वीकार करना चाहिए। उसकी दोहरी शासन-व्यवस्था से कंपनी को अनेक लाभ हुए-

  1. कंपनी के पास ऐसे अंग्रेज कर्मचारियों की कमी थी, जो भारतीय भाषाओं तथा रीति-रिवाजों से अच्छी प्रकार परिचित हों। क्लाइव ने कंपनी के अधिकारियों को लिखा था कि यदि हमारे पास तीन गुना भी प्रशासनिक सेवा करने वाले लोग हों तो भी वे इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। जो थोड़े लोग कंपनी के पास थे भी, वे भारतीय रीति-रिवाजों और भाषा से अनभिज्ञ थे। यदि कंपनी अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करती, तो शासन में अव्यवस्था फैल जाती। ऐसी स्थिति में कंपनी ने शासन का समस्त उत्तरदायित्व भारतीयों पर डाल दिया।
  2. इंग्लैंड में कंपनी को अभी भी मूलतः एक व्यापारिक कंपनी समझा जाता था। यदि क्लाइव इस समय वह बंगाल का शासन प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में ले लेता तो ब्रिटिश संसद कंपनी के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती थी।
  3. यदि कंपनी बंगाल के नवाब को गद्दी से हटाकर प्रांतीय शासन प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में ले लेती, तो उसे निश्चित रूप से अन्य यूरोपीय शक्तियों, पुर्तगालियों एवं फ्रांसीसियों आदि के साथ संघर्ष करना पड़ता क्योंकि ये लोग उस समय भारत के साथ व्यापार करते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी के कट्टर विरोधी थी। पी. ई. रॉबर्ट्स ने लिखा है कि ‘ब्रितानियों द्वारा खुलेआम बंगाल के शासन की बागडोर सँभाल लेने का अर्थ होता, दूसरी यूरोपीय शक्तियों के साथ झगड़ा मोल लेना। क्लाइव ने बड़ी चालाकी से इन विदेशियों की आँखों में धूल झोंक दी।’ क्लाइव ने यह धोखा इसलिए बनाये रखा, ताकि ब्रिटिश जनता, यूरोपीय शक्तियों तथा भारतीय देशी शासकों को वास्तविक स्थिति का पता न चल सके।
  4. यदि कंपनी स्पष्ट रूप से राजनैतिक सत्ता अपने हाथ मे लेती तो उसका वास्तविक स्वरूप लोगों के सम्मुख आ जाता और सारे भारतीय इसके विरुद्ध एकजुट हो जाते। इससे मराठे भी भड़क सकते थे और अब कंपनी मराठों की संयुक्त-शक्ति का सामना करने की स्थिति में नहीं थी।
  5. द्वैध शासन की स्थापना से कंपनी और नवाबों के बीच चलने वाला संघर्ष सदैव के लिए समाप्त हो गया और बंगाल में राजनीतिक क्रान्तियों का भय नहीं रहा। विशेषतः इसलिए कि नवाब को केवल 53 लाख रुपये प्रतिवर्ष दिये जाने थे। यह धनराशि शासन-कार्य चलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसलिए वह कभी कंपनी से टक्कर नहीं ले सकता था।
  6. यद्यपि 1765 ई. तक बंगाल पर अंग्रेजों का पूर्णरूप से अधिकार हो गया, किंतु क्लाइव ने बंगाल की जनता को अंधेरे में रखने के लिए नवाब को प्रांतीय शासन-प्रबंध का मुखिया बनाये रखा और वास्तविक शक्ति कंपनी के हाथों में रहने दी। इस प्रकार, क्लाइव ने 1765 की क्रांति को सफलतापूर्वक छिपा लिया और भारतीयों तथा देशी राजाओं के मन में किसी प्रकार का संदेह उत्पन्न नहीं होने दिया।

द्वैध शासन व्यवस्था की कमियां (Drawbacks of Diarchy)

क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन प्रणाली दोषपूर्ण और अव्यावहारिक थी। इसके कारण बंगाल में अव्यवस्था और अराजकता फैली तथा जन-साधारण को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आरंभ से ही यह व्यवस्था असफल रही। 24 मई, 1769 ई. को नवाब ने द्वैध शासन व्यवस्था की आलोचना करते हुए अंग्रेज रेजीडेंट को लिखा था: ‘बंगाल का सुंदर देश, जब तक भारतीयों के अधीन था, तब तक प्रगतिशील और महत्त्वपूर्ण था। अंग्रेजों की अधीनता में आने के कारण उसका अधःपतन अंतिम सीमा पर पहुँच गया।’

प्रशासनिक अराजकता: दोहरे शासन का सबसे बड़ा दोष यह था कि कंपनी के पास वास्तविक सत्ता थी, किंतु वह शासन-प्रबंध के लिए उत्तरदायी नहीं थी। इसके विपरीत बंगाल के नवाब को प्रांतीय शासन-प्रबंध सौंप दिया था, किंतु उसके पास शासन-कार्य के लिए आवश्यक शक्ति नहीं थी। ऐसी शासन-व्यवस्था कभी भी सफल नहीं हो सकती थी। द्वैध शासन व्यवस्था की इस मौलिक त्रुटि के कारण बंगाल में शीघ्र ही अव्यवस्था फैल गई। कहते हैं कि इस व्यवस्था के दौरान चारों ओर अराजकता, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई। नवाब में कानून लागू करने तथा न्याय देने की सामर्थ्य नहीं थी। न्याय व्यवस्था बिल्कुल ही पंगु हो गई। कंपनी के कर्मचारी बार-बार न्यायिक प्रशासन में हस्तक्षेप करते थे। इतना ही नहीं, अनुचित रूप से लाभ उठाने के लिए नवाब के कर्मचारियों को डराते-धमकाते भी थे। 1858 ई. में ब्रिटिश संसद में जार्ज कार्नवाल ने हाउस ऑफ कामंस में कहा था: ‘मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि 1765-84 ई. तक ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार से अधिक भ्रष्ट, झूठी तथा बुरी सरकार ससार के किसी सभ्य देश में नहीं थी।’

अंग्रेजों ने राजस्व के समस्त साधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। वे नवाब को शासन चलाने के लिए बहुत कम धन देते थे, जिससे शासन का संचालन संभव नहीं था। इस व्यवस्था के अंतर्गत कंपनी ने बंगाल की रक्षा का कार्य अपने हाथ में ले लिया। नवाब को सेना रखने का अधिकार नहीं था। वह केवल उतने ही सैनिक रख सकता था, जितने कि उसे शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए आवश्यक थे। इस प्रशासनिक व्यवस्था से नवाब की सैन्य-शक्ति को गहरा आघात पहुँचा।

कृषि का ह्रास: द्वैध शासन व्यवस्था के अधीन कृषि का भी सत्यानाश हो गया। भूमि-कर वसूली का अधिकार अधिक से अधिक बोली लगाने वाले ठेकेदार को दिया जाता था जिसकी भूमि में स्थायी रूप से कोई रुचि नहीं होती थी। ठेकेदार उस भूमि से अधिक से अधिक लगान वसूल करना चाहते थे, ताकि उनको अधिक से अधिक मुनाफा प्राप्त हो सके। कंपनी अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए ठेकेदारों से अधिक से अधिक माँग करती थी। कंपनी और ठेकेदारों को बढ़ती हुई लगान की माँग के कारण किसानों का शोषण बढ़ गया। स्थिति यह थी कि कभी-कभी निर्धन लोगों को अपने बच्चे तक बेचने पड़ते थे तथा भूमि छोड़कर भाग जाना पड़ता था। कंपनी और ठेकेदारों दोनों की ही भूमि की उन्नति में रुचि नहीं थी। अतः किसानों की स्थिति दयनीय हो गई। अनेक किसान खेती छोड़कर भाग गये और डाकू बन गये तथा खेती की योग्य भूमि जंगल में परिवर्तित हो गई। कंपनी रेजीडेंट बेचर ने कृषकों की दयनीय स्थिति पर दुःख व्यक्त करते हुए 1769 ई. में कंपनी के डायरेक्टरों को लिखा था: ‘जब से कंपनी ने बंगाल की दीवानी को सँभाला है, इस प्रदेश के लोगों की दशा पहले से भी खराब हो गई है। वह देश जो स्वेच्छारी शासकों के अधीन भी समृद्धशाली था, अब विनाश की ओर जा रहा है।’ वस्तुतः क्लाइव ने जो द्वैध शासन व्यवस्था लागू की थी, वह एक दूषित शासकीय यंत्र था। इसके कारण बंगाल में पहले से भी अधिक अव्यवस्था फैली और जनता पर ऐसे अत्याचार ढाये गये, जिसका उदाहरण बंगाल के इतिहास में कभी नहीं मिलता।

इसके पश्चात् 1770 ई. में बंगाल में अकाल पड़ा जिसने कृषकों की कमर ही तोड़ दी। इसमें बंगाल की एक तिहाई जनता समाप्त हो गई। कंपनी के कार्यकर्ताओं ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाकर लाभ कमाया। इस आपत्तिकाल में भी सरकारी कर्मचारियों ने लगान माफ करने के बजाय दुगुना कर दिया। यही नहीं, किसानों के घरों का सामान नीलाम करवा दिया, जिससे वे बेघर-बार हो गये। मिस्टर डे सेन्डरसन ने लिखा है, ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर हुआ, जब वह विजित प्रदेशों में राजस्व-संग्रह के लिए लगा। बंगाल का प्रांत अंग्रेजों के आगमन तक बड़ा समृद्ध था।….ब्रिटिश साम्राज्यवाद को केवल 13 वर्ष इस समृद्ध प्रांत में बर्बादी, मृत्यु और अकाल लाने में लगे।’ के.एम. पन्निकर के अनुसार ‘भारतीय इतिहास के किसी काल में भी, यहाँ तक कि तोरमाण और मुहम्मद तुगलक के समय में भी, भारतीयों को ऐसी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ा जो कि बंगाल के निवासियों को इस द्वैध शासनकाल में झेलनी पड़ी।’

व्यापार-वाणिज्य का विनाश: द्वैध शासन की व्यवस्था की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए कंपनी के कर्मचारी राजनीतिक सत्ता का दुरुपयोग कर व्यक्तिगत व्यापार के द्वारा धनवान होते चले गये और कंपनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई। मैकाले ने लिखा है: ‘जिस तरह से इन कर्मचारियों ने धन कमाया और खर्च किया, उसको देखकर मानव-चित्त आतंकित हो उठता है।’ कर्मचारियों की धन-लोलुप प्रवृत्ति के कारण व्यभिचार और बेईमानी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई, क्योंकि अब उन पर कोई नियंत्रण नहीं था। उन्होंने अपने दस्तकों का इतना अधिक दुरुपयोग किया कि भारतीय व्यापारियों का अंग्रेजों के मुकाबले में व्यापार करना असंभव हो गया। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार हो गया और उसके कार्यकत्ताओं ने भारतीय व्यापारियों से कम मूल्य पर माल खरीद कर उन्हें अत्यधिक हानि पहुँचाई। भारतीय व्यापारियों को अपना पैतृक धंधा छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। स्वयं क्लाइव ने कॉमंस सभा में कहा था: ‘कंपनी के कार्यकर्त्ता एक व्यापारी की भाँति व्यापार न करके, सम्प्रभु के समान व्यवहार करते हैं और उन्होंने हजारों व्यापारियों के मुँह से रोटी छीन ली है तथा उन्हें भिखारी बना दिया है।’

उद्योग-धंधों का नाश: द्वैध शासन व्यवस्था से भारतीय उद्योगों को बहुत हानि पहुँची। कंपनी की अपनी शोषण नीति के कारण बंगाल का रेशमी और सूती वस्त्र उद्योग चौपट हो गया। कंपनी ने बंगाल के रेशम उद्योग को निरुत्साहित करने के लिए प्रयत्न किया क्योंकि इससे इंग्लैंड के रेशम उद्योग को क्षति पहुँचती थी। 1769 ई. में कंपनी के डायरेक्टरों ने कार्यकत्ताओं को आदेश दिये थे कि कच्चे सिल्क के उत्पादन को प्रोत्साहित करो तथा रेशमी कपड़ा बुनने को निरुत्साहित करो। रेशम का धागा लपेटने वालों को कंपनी के लिए काम करने पर बाध्य किया जाता था। कंपनी के अधिकारी तथा उनके प्रतिनिधि भारतीय जुलाहों को एक निश्चित समय में एक निश्चित प्रकार का कपड़ा बनाने के लिए बाध्य करते थे और अपनी इच्छानुसार उनको कम मूल्य देते थे। जो कारीगर निश्चित समय पर अंग्रेजों की माँग की पूर्ति नहीं करता अथवा उनकी कम कीमत को लेने से इनकार कर देता था, तो उनके अंगूठे तक काट लिये जाते थे। कंपनी के शोषण ओैर उत्पीड़न के कारण वस्त्र-उद्योग में लगे हुए कारीगर बंगाल को छोड़कर भागने लगे। इस प्रकार अंग्रेजों ने अपनी बेईमानी और अत्याचार से बंगाल के कपड़ा उद्योग को नष्ट कर दिया।

आर्थिक शोषण: बंगाल के आर्थिक शोषण में इंग्लैंड की सरकार भी पीछे नहीं रही। 1767 ई. में उसने कंपनी से 4 लाख पौंड का ऋण माँगा, जिसके कारण कंपनी की आर्थिक स्थिति पहले से भी अधिक दयनीय हो गई। कंपनी ने इस रकम को एकत्रित करने के लिए भारतीय सूबों को ही चुना। बोल्ट्स के शब्दों में, ‘जब राष्ट्र फल के पीछे पड़ा हुआ था, कंपनी और उसके सहयोगी पेड़ ही उखाड़ने में जुटे थे।’

द्वैध शासन व्यवस्था के कारण बंगाली समाज का पतन आरंभ हो गया। कृषकों ने अनुभव किया कि उसे अधिक उत्पादन करने पर अधिक कर देना देना पड़ता है तो उसने केवल उतना ही उत्पादन करने का विचार किया जिससे कि उसका निर्वाह हो सके। इसी प्रकार जुलाहे जो अपने परिश्रम का लाभ स्वयं नहीं भोग पाते पाते थे, अब उत्तम कोटि का उत्पादन करने को तैयार नहीं थे। कार्य की प्रेरणा समाप्त हो गई जिससे समाज निर्जीव हो गया।

स्पष्ट है कि द्वैध शासन व्यवस्था में कई दोष विद्यमान थे। क्लाइव का उत्तराधिकारी वेरेल्स्ट (1767-1769 ई.) हुआ, और वेरेल्स्ट का उत्तराधिकारी कर्टियर (1769-72 ई.)। इनके कमजोर शासन में क्लाइव की दोहरी सरकार के दुर्गुण पूर्णरूपेण स्पष्ट हो गये। राज्य अत्याचार, भ्रष्टाचार और कष्ट के बोझ से कराहने लगा। वारेन हेस्टिंग्स 1772 ई. में गवर्नर नियुक्त हुआ और उसने द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त कर दिया। इस प्रकार दूषित द्वैध व्यवस्था का 1772 ई. में अंत हो गया।

क्लाइव के प्रशासनिक सुधार (Clive’s Administrative Reforms)

क्लाइव संकल्प का धनी तथा साहसी व्यक्ति था। उसके संकल्प में उसके सैनिक गुणों की झलक दिखाई देती है।

क्लाइव के असैनिक सुधार (Clive’s Civilian Reforms)

कंपनी अब एक राजनैतिक संसथा बन चुकी थी, इसलिए प्रशासनिक सुधार की बड़ी आवश्यकता थी। बंगाल के तीनों युद्धों के कारण गवर्नर, पार्षद तथा कंपनी के अन्य कार्यकर्त्ता पूर्णतया भ्रष्ट हो चुके थे। घूस, बेइमानी और अन्य उपहार लेने की परंपरा बन चुकी थी। कंपनी के कार्यकर्त्ता अपने निजी व्यापार में लगे थे और आंतरिक करों से बचने के लिए दस्तक का प्रयोग करते थे। किसी को कंपनी के हितों की चिंता नहीं थी। क्लाइव ने निजी व्यापार तथा उपहार लेने पर प्रतिबंध लगा दिा। आंतरिक कर देना अनिवार्य कर दिया। इन प्रतिबंधों से जो हानि हुई उसकी क्षतिपूर्ति के लिए उसने (सोसायटी फॉर ट्रेड) एक व्यापार समिति का निर्माण किया, जिसको नमक, सुपारी एवं तंबाकू के व्यापार का एकाधिकार दे दिया गया। यह निकाय उत्पादकों के समस्त माल नकद में लेकर निश्चित केंद्र्रों पर फुटकर व्यापारियों को बेच देता था। इस व्यापार के लाभ को कंपनी के अधिकधिकारियों के बीच पद के क्रमानुसार बाँट दिया जाता था, जैसे गवर्नर को 17,500 पौंड, सेना के कर्नल को 7,000 पौंड, मेजर को 2,000 पौंड तथा तथा अन्य कार्यकत्ताओं को कम धन मिलता था।

इस व्यवस्था के कारण सभी आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ गये तथा बंगाल के लोगों को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। 1766 ई. में कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया और 1768 ई. में यह व्यवस्था समाप्त हो गई।

क्लाइव के सैनिक सुधार (Clive’s Military Reforms)

1763 ई. में कोर्ट ऑफ डायरेक्टसे ने सैनिकों का दोहरा बंद कर दिया था, किंतु किन्हीं कारणों से अभी तक इस पर अमल नहीं हुआ था। क्लाइव ने कंपनी के सैनिकों के दोहरे भत्ते, जो शांतिकाल में मिलते थे, पर रोक लगा दी। जनवरी, 1766 ई. से यह भत्ता केवल बंगाल के सैनिकों को दिया जाने लगा, जो बंगाल एवं बिहार की सीमा से बाहर कार्य करते थे

श्वेत विद्रोह (White Rebellion)

मुंगेर तथा इलाहाबाद में कार्यरत श्वेत सैनिक अधिकारियों ने इस व्यवस्था का विरोध किया और सामूहिक रूप से सैनिक कमीशनों से त्यागपत्र देने की धमकी दी। इसे ‘श्वेत विद्रोह’ के नाम से जाना गया। सैनिक अधिकारियों को आशा थी कि मराठों के संभावित आक्रमण के कारण क्लाइव डर जायेगा। एक अधिकारी ने तो क्लाइव की हत्या की योजना भी बनाई। क्लाइव ने दृढ़तापूर्वक अधिकारियों के त्यागपत्र को स्वीकार कर लिया और नेताओं को बंदी बनाने और मुकदमा चलाने का आदेश दे दिया। छोटे पदाधिकारियों को, जिन्हें कमीशन नहीं मिले थे, उन्हें कमीशन दे दिया गया। मद्रास से भी कुछ अधिकारी बुला लिये गये। इस प्रकार क्लाइव ने विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया।

क्लाइव का मूल्यांकन (Clive’s Evaluation)

रॉबर्ट क्लाइव ब्रिटिश सेना में एक सैनिक के पद पर तैनात हुआ था और उसे मुख्य रूप से गवर्नर को पत्र आदि लिखने के कार्य के लिए रखा गया था, किंतु अपनी सूझबूझ, समझदारी और बुद्धि से उसने एक बहुत ऊँचा पद प्राप्त कर लिया था। उसका जन्म 29 सितंबर, 1725 ई. में हुआ था। वह सदैव अपने साथ तलवार, बंदूक और एक घोड़ा रखता था। वह पहली बार वह 1757-1760 ई. और फिर दूसरी बार 1765-1767 ई. तक वह बंगाल का गवर्नर रहा था।

रॉबर्ट क्लाइव को भारत में ब्रिटिश राज्य का संस्थापक माना जाता है जो पूर्णतया उचित ही है। उसने समय की गति को पहचाना और ठीक दिशा मे अपना कदम बढ़ाया। उसने अपने प्रतिद्वंद्वी डूप्ले को शिकस्त दी और अधिक स्थायी परिणाम प्राप्त किया। अर्काट का घेरा डालना उसकी सबसे बड़ी कूटनीतिक चाल थी जिसने कर्नाटक में फ्रांसीसियों का पासा पलट दिया।

अपने कार्यकाल के दौरान रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल में अंग्रेजों की स्थिति में सुधार किया और ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत किया। पहले प्लासी (1757 ई.) और फिर बक्सर (1764 ई.) के युद्धों को जीतकर क्लाइव ने मुगलों का वर्चस्व समाप्त किया। उसने बंगाल के संसाधनों का उपयोग कर दक्षिण भारत से अपने प्रबल प्रतिद्वंद्वी फ्रांसीसियों को भारत से बाहर निकाल दिया। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उसने कंपनी को एक व्यापारिक सत्ता बना दिया। बंगाल में इसकी भूमिका सम्राट निर्माता की थी। जब 1765 ई. में वह बंगाल आया तो उसने कंपनी की नींव को सुदृढ़ कर दिया। शायद इसीलिए बर्क ने उसे ‘बड़ी-बड़ी नीवें रखने वाला’ कहा है।

एक अध्ययन में पर्सीवल स्पीयर ने कहा है कि ‘भारत में अंग्रेजी राज्य तो बन ही जाता, किंतु उसका स्वरूप भिन्न होता तथा उसमें समय भी अधिक लगता। उसके अनुसार क्लाइव भारत में अंग्रेजी राज्य का संस्थापक ही नहीं, अपितु भविष्य का अग्रदूत था। वह साम्राज्य का संयोजक नहीं, अपितु उसमें नये-नये प्रयोग करने वाला था जिसने नई संभावनाओं का पता लगाया। क्लाइव भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का अग्रगामी था।’

क्लाइव की धनलोलुपता और कुटिलता के आलोचक भी थे। अंग्रेजी संसद में उस पर बहुत से आरोप लगाये गये कि उसने अवैध ढ़ंग से उपहार प्राप्त किये और एक अशुद्ध परंपरा स्थापित की, जिसके परिणामस्वरूप बंगाल में 1760 तथा 1764 ई. की क्रांतियाँ हुई। उसने ‘सोसायटी फॉर ट्रेड’ बनाकर बंगाल को लूटने की योजना बनाई। उसकी दोहरी शासन प्रणाली का उद्देश्य अंग्रेजी शाक्ति की स्थापना करना था, न कि जनता का हित। उसने बंगाल को ईस्ट इंडिया कंपनी की जागीर बना दिया। के.एम. पणिक्कर ने लिखा है कि ‘1765 से 1772 ई. तक कंपनी ने बंगाल में डाकुओं का राज्य स्थापित कर दिया तथा बंगाल को बड़ी बेरहमी से लूटा। इस समय बंगाल में कंपनी का सबसे निकृष्टतम् रूप देखने को मिला और जनता को अपार कष्ट सहना पड़ा।

किंतु क्लाइव कुशल राजनीतिज्ञ नहीं था। वह अंतर्दर्शी तो था, दूरदर्शी नहीं था। उसके प्रशासनिक सुधारों के करण उसके उत्तराधिकारियों को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। प्रायः कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थाना का मुख्य उद्देश्य शांति एवं व्यवस्था बनाना था, किंतु इस कार्य में क्लाइव का कोई योगदान नहीं था। सच तो यह है कि उसके कार्यों से अव्यवस्था ही फैली, व्यवस्था नहीं। जो पद्धति उसने बनाई और जो प्रणाली उसने अपनाई, उसका मुख्य तत्त्व उसकी अल्पदृष्टि तथा कामचलाऊ नीतियाँ थीं, जो उसकी असफलताओं की द्योतक हैं तथा उसके राजनीतिज्ञ कहलाने में बाधक हैं।’

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