शीतयुद्ध की अवधारणा का जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1945 में हुआ, यह अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की एक सच्चाई है जो अमेरिका तथा सोवियत संघ के पारस्परिक सम्बन्धों को उजागर करती है। यह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का एक नया अध्याय है। इसे एक नया अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक विकास का नाम भी दिया जा सकता है।
शीतयुद्ध का अर्थ
जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह अस्त्र-शस्त्रों का युद्ध न होकर धमकियों तक ही सीमित युद्ध है। इस युद्ध में कोई वास्तविक युद्ध नहीं लगा गया। यह केवल परोक्ष युद्ध तक ही सीमित रहा। इस युद्ध में दोनों महाश्ािक्तयां अपने वैचारिक मतभेद ही प्रमुख रहे। यह एक प्रकार का कूटनीतिक युद्ध था जो महाशक्तियों के संकीर्ण स्वार्थ सिद्धियों के प्रयासों पर ही आधारित रहा।
“शीत युद्ध एक प्रकार का वाक् युद्ध था जो कागज के गोलों, पत्र-पत्रिकाओं; रेडियो तथा प्रचार साधनों तक ही लड़ा गया।” इस युद्ध में न तो कोई गोली चली और न कोई घायल हुआ। इसमें दोनों महाशक्तियों ने अपना सर्वस्व कायम रखने के लिए विश्व के अधिकांश हिस्सों में परोक्ष युद्ध लड़े। युद्ध को शस्त्रयुद्ध में बदलने से रोकने के सभी उपायों का भी प्रयोग किया गया, यह केवल कूटनीतिक उपयों द्वारा लगा जाने वाला युद्ध था जिसमें दोनों महाशक्तियां एक दूसरे को नीचा दिखाने के सभी उपायों का सहारा लेती रही। इस युद्ध का उद्देश्य अपने-अपने गुटों में मित्र राष्ट्रों को शामिल करके अपनी स्थिति मजबूत बनाना था ताकि भविष्य में प्रत्येक अपने अपने विरोधी गुट की चालों को आसानी से काट सके। यह युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सावियत संघ के मध्य पैदा हुआ अविश्वास व शंका की अन्तिम परिणति था।
के.पी.एस. मैनन के अनुसार – “शीत युद्ध दो विरोधी विचारधाराओं – पूंजीवाद और साम्राज्यवाद (Capitalism and Communism)] दो व्यवस्थाओं – बुर्जुआ लोकतन्त्र तथा सर्वहारा तानाशाही (Bourgeoise Democracy and Proletarian Dictatorship), दो गुटों – नाटो और वार्सा समझौता, दो राज्यों – अमेरिका और सोवियत संघ तथा दो नेताओं – जॉन फॉस्टर इल्लास तथा स्टालिन के बीच युद्ध था जिसका प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा।”
जवाहर लाल नेहरू ने शीत युद्ध को परिभाषित करते हुए कहा है कि “यह युद्ध निलम्बित मृत्युदंड के वातावरण का युद्ध था जो गरम युद्ध से भी अधिक भयानक था।”
इस प्रकार कहा जा सकता है कि शीतयुद्ध दो महाशक्तियों के मध्य एक वाक् युद्ध था जो कूटनीतिक उपायों पर आधारित था। यह दोनों महाशक्तियों के मध्य द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न तनाव की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति था। यह वैचारिक युद्ध होने के कारण वास्तविक युद्ध से भी अधिक भयानक था।
शीतयुद्ध की उत्पत्ति
शीतयुद्ध के लक्षण द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही प्रकट होने लगे थे। दोनों महाशक्तियां अपने-अपने संकीर्ण स्वार्थों को ही ध्यान में रखकर युद्ध लड़ रही थी और परस्पर सहयोग की भावना का दिखावा कर रही थी। जो सहयोग की भावना युद्ध के दौरान दिखाई दे रही थी, वह युद्ध के बाद समाप्त होने लगी थी और शीतयुद्ध के लक्षण स्पष्ट तौर पर उभरने लग गए थे, दोनों गुटों में ही एक दूसरे की शिकायत करने की भावना बलवती हो गई थी। इन शिकायतों के कुछ सुदृढ़ आधार थे। ये पारस्परिक मतभेद ही शीतयुद्ध के प्रमुख कारण थे, शीतयुद्ध की उत्पत्ति के प्रमुख कारण हैं-
- सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते का पालन न किया जाना- याल्टा सम्मेलन 1945 में रूजवेल्ट, चर्चित और स्टालिन के बीच में हुआ था, इस सम्मेलन में पोलैंड में प्रतिनिधि शासन व्यवस्था को मान्यता देने की बात पर सहमति हुई थी। लेकिन युद्ध की समाप्ति के समय स्टालिन ने वायदे से मुकरते हुए वहां पर अपनी लुबनिन सरकार को ही सहायता देना शुरू कर दिया। उसने वहां पर अमेरिका तथा ब्रिटेन के पर्यवेक्षकों को प्रवेश की अनुमति देने से इंकार कर दिया और पोलैंड की जनवादी नेताओं को गिरफ्तार करना आरम्भ कर दिया। उसने समझौते की शर्तों के विपरीत हंगरी, रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया तथा बुल्गारिया में भी अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया, उसने धुरी शक्तियों के विरुद्ध पश्चिमी राष्ट्रों की मदद करने में भी हिचकिचाहट दिखाई। उसने चीन के साम्यवादी दल को भी अप्रत्यक्ष रूप से सहायता पहुंचाने का प्रयास किया। उसने मंचूरिया संकट के समय अपना समझौता विरोधी रुख प्रकट किया। इस तरह याल्टा समझौते के विपरीत कार्य करके सोवियत संघ ने आपसी अविश्वास व वैमनस्य की भावना को ही जन्म दिया जो आगे चलकर शीत युद्ध का आधार बनी।
- सोवियत संघ और अमेरिका के वैचारिक मतभेद- युद्ध के समय ही इन दोनों महाशक्तियों में वैचारिक मतभेद उभरने लगे थे। सोवियत संघ साम्राज्यवाद को बढ़ावा देना चाहता था जबकि अमेरिका पूंजीवाद का प्रबल समर्थक था, सोवियत संघ ने समाजवादी आन्दोलनों को बढ़ावा देने की जो नीति अपनाई उसने अमेरिका के मन में अविश्वास की भावना को जन्म दे दिया। सोवियत संघ ने अपनी इस नीति को न्यायपूर्ण और आवश्यक बताया। इससे पूंजीवाद को गहरा आघात पहुंचाया और अनेक पूंजीवादी राष्ट्र अमेरिका के पक्ष में होकर सोवियत संघ की समाजवादी नीतियों की निंदा करने लगे। इस प्रकार पूंजीवाद बनाम समाजवादी विचारधारा में तालमेल के अभाव के कारण दोनों महाशक्तियों के बीच शीतयुद्ध का जन्म हुआ।
- सोवियत संघ का एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरना- सोवियत संघ ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही अपने राष्ट्रीय हितों में वृद्धि करने के लिए प्रयास शुरू कर दिये थे। 1917 की समाजवादी क्रान्ति का प्रभाव दूसरे राष्ट्रों पर भी पड़ने की सम्भावना बढ़ गई थी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान उसके शक्ति प्रदर्शन ने पश्चिमी राष्ट्रों के मन में ईर्ष्या की भावना पैदा कर दी थी और पश्चिमी शक्तियों को भय लगने लगा था कि सोवियत संघ इसी ताकत के बल पर पूरे विश्व में अपना साम्यवादी कार्यक्रम फैलाने का प्रयास करेगा। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान तो वे चुप रहे लेकिन युद्ध के बाद उन्होंने सोवियत संघ की बढ़ती शक्ति पर चिन्ता जताई। उन्होंने सोवियत संघ विरोधी नीतियां अमल में लानी शुरू कर दी। उन्होंने पश्चिमी राष्ट्रों को सोवियत संघ के विरुद्ध एकजुट करने के प्रयास तेज कर दिए। इससे शीत-युद्ध को बढ़ावा मिलना स्वाभाविक ही था।
- इरान में सोवियत हस्तक्षेपे – सोवियत संघ तथा पश्चिमी शक्तियों ने द्वितीय विश्वयद्धु के दौरान ही जर्मनी के आत्मसमर्पण के बाद 6 महीने के अन्दर ही ईरान से अपनी सेनाएं वापिस बुलाने का समझौता किया था। युद्ध की समाप्ति पर पश्चिमी राष्ट्रों ने तो वायदे के मुताबिक दक्षिणी ईरान से अपनी सेनाएं हटाने का वायदा पूरा कर दिया लेकिन सोवियत संघ ने ऐसा नहीं किया। उसने ईरान पर दबाव बनाकर उसके साथ एक दीर्घकालीन तेल समझौता कर लिया। इससे पश्चिमी राष्ट्रों के मन में द्वेष की भावना पैदा हो गई। बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव पर ही उसने उत्तरी ईरान से सेनाएं हटाई। सोवियत संघ की इस समझौता विरोधी नीति ने शीत युद्ध को जन्म दिया।
- टर्की में सोवियत हस्तक्षेप- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ ने टर्की में अपना दबाव बनाना आरम्भ कर दिया। उसने टर्की पर कुछ प्रदेश और वास्फोरस में एक सैनिक अड्डा बनाने के लिए दबाव डाला। अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी राष्ट्र इसके विरुद्ध थे। इस दौरान अमेरिका ने टू्रमैन सिद्धान्त (Truman Theory) का प्रतिपादन करके टर्की को हर सम्भव सहायता देने का प्रयास किया ताकि वहां पर साम्यवादी प्रभाव को कम किया जा सके। इन परस्पर विरोधी कार्यवाहियों ने शीत युद्ध को बढ़ावा दिया।
- यूनान में साम्यवादी प्रसार- 1944 के समझौते के तहत यूनान पर ब्रिटेन का अधिकार उचित ठहराया गया था। लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन ने अपने आर्थिक विकास के दृष्टिगत वहां से अपने सैनिक ठिकाने वापिस हटा लिये। सोवियत संघ ने यूनान में गृहयुद्ध छिड़ने पर वहां के साम्यवादियों मी मदद करनी शुरू कर दी। पश्चिमी शक्तियों परम्परागत सरकार का समर्थन करने के लिए आगे आई। अमेरिका ने मार्शल योजना और ट्रूमैन सिद्वान्त के तहत यूनान में अपनी पूरी ताकत लगा दी। इससे साम्यवादी कार्यक्रम को यूनान में गहरा धक्का लगा और सोवियत संघ का सपना चकनाचूर हो गया अत: इस वातावरण में शीतयुद्ध को बढ़ावा मिलना स्वाभाविक ही था।
- द्वितीय मोर्चे सम्बन्धी विवाद- द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर के नेतृत्व में जब जर्मन सेनाएं तेजी से सोवियत संघ की तरफ बढ़ रही थी तो सोवियत संघ ने अपनी भारी जान-माल के नुकसान को रोकने के लिए पश्चिमी राष्ट्रों से सहायता की मांग की। सोवियत संघ ने कहा कि पश्चिमी शक्तियों को जर्मनी का वेग कम करने के लिए सोवियत संघ में जल्दी ही दूसरा मोर्चा खोला चाहिए ताकि रूसी सेना पर जर्मनी का दबाव कम हो सके। लेकिन पश्चिमी शक्तियों ने जान बूझकर दूसरा मोर्चा खोलने में बहुत देर की। इससे जर्मन सेनाओं को रूस में भयानक तबाही करने का मौका मिल गया। इससे सोवियत संघ के मन पश्चिमी शक्तियों के विरुद्ध नफरत की भावना पैदा हो गई जो आगे चलकर शीत-युद्ध के रूप में प्रकट हुई।
- तुष्टिकरण की नीति- द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पश्चिमी शक्तियों ने धुरी शक्तियों (जापान, जर्मनी व इटली) के आक्रमणों के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों की रक्षा करने की बजाय तुष्टिकरण की नीति अपनाई। उन्होंने जानबूझकर अपने मित्र राष्ट्रों को सहायता नहीं पहुंचाई और अपने मित्र राष्ट्रों को धुरी शक्तियों के हाथों पराजित और अपने मित्र राष्ट्रों को धुरी शक्तियों के हाथों पराजित होने देने के लिए बाध्य किया। इससे युद्ध पूर्व किए गए सन्धियों व समझौतों के प्रति अनेक मन में अविश्वास की भावना पैदा हुई जिससे आगे चलकर शीत युद्ध के रूप में परिणति हुई।
- सोवियत संघ द्वारा बाल्कान समझौते की उपेक्षा– बाल्कान समझौते के तहत 1944 में पूर्वी यूरोप का विभाजन करने पर सोवियत संघ तथा ब्रिटेन में सहमति हुई थी। इसके तहत बुल्गारिया तथा रूमानिया पर सोवियत संघ का तथा यूनान पर ब्रिटेन का प्रभाव स्वीकार करने पर सहमति हुई थी। हंगरी तथा यूगोस्लाविया में दोनों का बराबर प्रभाव मानने की बात कही गई थी। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर सोवियत संघ ने ब्रिटेन के प्रभाव की अपेक्षा करके अपने साम्यवादी प्रसार को तेज कर दिया और उन देशों में साम्यवादी सरकारों की स्थापना करा दी। इससे पश्चिमी राष्ट्रों ने गैर-समझौतावादी कार्य कहा। इससे सोवियत संघ तथा पश्चिमी शक्तियों में दूरियां बढ़ने लगी और शीत युद्ध का वातावरण तैयार हो गया।
- अमेरिका का परमाणु कार्यक्रम- द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने गुप्त तरीके से अपना परमाणु कार्यक्रम विकसित किया और सोवियत संघ की सहमति के बिना ही उसने जापान के दो शहरों पर परमाणु बम गिरा दिए। अमेरिका ने अपनी युद्ध तकनीक की जानकारी सोवियत संघ को न देकर एक अविश्वास की भावना को जन्म दिया। इससे सोवियत संघ व पश्चिमी शक्तियों के बीच सहयोग के कार्यक्रमों को गहरा आघात पहुंचा। सोवियत संघ अमेरिका के परमाणु कार्यक्रम पर एकाधिकार को सहन नहीं कर सकता था। इससे उसके मन में यह शंका पैदा हो गई कि पश्चिमी राष्ट्रों को उससे घृणा है। इसी भावना ने शीतयुद्ध को जन्म दिया।
- परस्पर विरोधी प्रचार- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दोनों महाशक्तियों एक दूसरे के खिलाफ प्रचार अभियान में जुट गई। 1946 में सोवियत रूस ने ‘कैनेडियन रॉयल कमीशन’ की रिपोर्ट में कहा कि कनाडा का साम्यवादी दल ‘सोवियत संघ की एक भुजा’ है। इससे सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों में सोवियत संघ के साम्यवादी प्रचार की जोरदार निन्दा हुई। इससे सोवियत संघ भी सतर्क हो गया और उसने अमेरिका की जोरदार आलोचना करना शुरू कर दिया, मुनरो सिद्धान्त इसका स्पष्ट उदाहरण है जिसमें साम्यवादी ताकतों को पश्चिमी गोलार्द्ध में अपना प्रभाव बढ़ाने के प्रति सचेत रहने को कहा गया। इसी तरह ट्रूमैन सिद्धान्त तथा अमेरिकन सीनेट द्वारा खुले रूप में सोवियत विदेश नीति की आलोचना की जाने लगी। इसके बाद सोवियत संघ ने अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी राष्ट्रों के विरुद्ध साम्यवादी ताकतों को इकट्ठा करने के लिए जोरदार प्रचार अभियान चलाया। इस प्रचार अभियान ने परस्पर वैमनस्य की शंका की भावना को जन्म दिया जो आगे चलकर शीतयुद्ध के रूप में दुनिया के सामने आया।
- लैैंड-लीज समझौते का समापन- द्वितीय विश्व के दौरान अमेरिका तथा सोवियत संघ में जो समझौता हुआ था उसके तहत सोवियत संघ को जो, अपर्याप्त सहायता मिल रही थी, पर भी अमेरिका ने किसी पूर्व सूचना के बिना ही बन्द कर दी। इस निर्णय से सोवियत संघ का नाराज होना स्वाभाविक ही था। सोवियत संघ ने इसे अमेरिका की सोची समझी चाल मानकर उसके विरुद्ध अपना रवैया कड़ा कर दिया। इससे दोनो महाशक्तियों में आपसी अविश्वास की भावना अधिक बलवती हुई और इससे शीतयुद्ध का वातावरण तैयार हो गया।
- फासीवादी ताकतों को अमेरिकन सहयोग – द्वितीय विश्वयद्धु के बाद ही अमरिका तथा अन्य पश्चिमी देश इटली से अपने सम्बन्ध बढ़ाने के प्रयास करने लग गए। इससे सोवियत संघ को शक हुआ कि इटली में फासीवाद को बढ़ावा देने तथा साम्यवाद को कमजोर करने में इन्हीं ताकतों का हाथ है। इससे सोवियत संघ को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में अपनी भूमिका सिमटती नजर आई। इस सोच ने दोनों के मध्य दूरियां बढ़ा दी।
- बर्लिन विवाद- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही सोवियत संघ का पूर्वी बर्लिन पर तथा अमेरिका तथा ब्रिटेन का पश्चिमी बर्लिन पर अधिकार हो गया था। युद्ध के बाद पश्चिमी ताकतों ने अपने श्रेत्राधिन बर्लिन प्रदेश में नई मुद्रा का प्रचलन शुरू करने का फैसला किया । इस फैसलें के विरुद्ध जून 1948 में बर्लिन की नाकेबन्दी सोवियत संघ ने कर दी। इसके परिणामस्वरूप सोवियत संघ व अमेरिका या ब्रिटेन के बीच हुए प्रोटोकोल का उल्लंघन हो गया। इसके लिए सोवियत संघ को पूर्ण रूप से दोषी माना गया। सोवियत संघ अपना दोष स्वीकार करने को तैयार नही था। इससे मामला सुरक्षा परिषद् में पहुंच गया और दोनों महाश्ािक्तयों के मध्य शीतयुद्ध के बादल मंडराने लग गए।
- सोवियत संघ द्वारा वीटो पावर का बार बार प्रयोग किया जाना- द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई। इस संस्था में पांच देशों को वीटो पावर प्राप्त हुई। सोवियत संघ ने बार-बार अपनी इस शक्ति का प्रयोग करके पश्चिमी राष्ट्रों के प्रत्येक सुझाव को मानने से इंकार कर दिया, इस तरह अमेरिका तथा पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में लाए गए प्रत्येक प्रस्ताव को हार का सामना करना पड़ा। इससे अमेरिका तथा पश्चिमी राष्ट्र सोवियत संघ की आलोचना करने लगे और उनसे परस्पर तनाव का माहौल पैदा हो गया जिसने शीत युद्ध को जन्म दिया।
- संकीर्ण राष्ट्रववाद पर आधारित संकीर्ण राष्ट्रीय हित- द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका तथा सोवियत संघ अपने अपने स्वार्थों को साधने में लग गए। वे लगातार एक दूसरे के हितों की अनदेखी करते रहे। इससे शक्ति राजनीति का जन्म हुआ। इससे प्रत्येक राष्ट्र एक दूसरे का शत्रु बन गया। दोनों महाशक्तियां अपना अपना प्रभुत्व बढ़ाने के प्रयास में अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष का अखाड़ा बन गई। उनके स्वार्थमयी हितों ने धीरे धीरे पूरे विश्व में तनाव का वातावरण पैदा कर दिया।
शीत युद्ध के कारण
द्वितीय विश्व युद्ध में, सोवियत संघ, अमेरिका , इग्लैण्ड एवं फ्रांस, धुरी राष्ट्रों- जर्मनी, इटली एवं जापान के विरूद्ध, एक साथ थे। परंतु सोवियत सघ एवं इन तीन राष्ट्रों में वैचारिक मतभेद था- साम्यवाद एवं पूंजीवाद। अत: ये चार राष्ट्र, मजबूर होकर एक साथ थे, पर अन्दर ही अन्दर, वैचारिक मतभेद के कारण, सोवियत संघ एवं तीनों पूंजीवादी राष्ट्र एक दूसरे के विरोधी थे। अत: ये तीनों पूंजीवादी राष्ट्र, युद्ध के दौरान, ऐसी कूटनीतिक चालें चलते रहे, कि हिटलर और सोवियत संघ, दोनों आपस में लड़कर एक दूसरे का विनाश कर दें। लेकिन, द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर का, मानवता के विनाश का अभियान इतना खतरनाक था कि, उसने इन दो विरोधी विचारधाराओं को मानवता को बचाने के खातिर, एकजुट होने के लिए मजबूर किया था।
परिणाम स्वरूप 26 मई, 1942 को सोवियत संघ तथा ब्रिटेन ने जर्मनी के विरूद्ध एक आपसी सहयोग की बीस वष्रीय संधि पर हस्ताक्षर किए। सोवियत संघ ने, पश्चिमी देशों का विश्वास जीतने के लिए 22 मई, 1944 को पूंजीवादी विरोधी संस्था ‘कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल’ संस्था को भंग कर दिया। सोवियत संघ, हिटलर की बढ़ती ताकत और कम्युनिस्टों के प्रति नफरत से चिन्तित था, अत: उसने वैचारिक मतभेदों को दरकिनार कर, पश्चिमी राष्ट्रों के साथ मिलकर, स्वयं एवं मानवता को बचाने के लिए, सहयोग का प्रयास किया। हिटलर ने 1941 में, सोवियत संघ पर, पूरी सैनिक शक्ति के साथ, पूरे पश्चिमी मोर्चे से, एक साथ आक्रमण कर, तवाही मचा दी। अत: 1942 और 1945 के बीच मित्र राष्ट्रों में कई सम्मेलन हुए, जिसमें मुख्य थे – हॉट िस्प्रंग, मॉस्को, काहिरा, तेहरान, ब्रिटेन बुड्स, डाम्बर्टन ओक्स, माल्टा तथा सेनफ्रांसिस्कों। लेकिन, इन वार्ताओं में, पर्दे के पीछे बोय जाने वाले, शीत युद्ध के बीच स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। अत: शीत युद्ध की धीमी शुरूआत, 1942 में ही हो चुकी थी। वचन देने के बाद भी, पश्चिमी राष्ट्रों, अमेरिका और ब्रिटेन ने (फ्रांस हिटलर के कब्जे में था), सोवियत संघ की शुरूआती तबाही की आग में अपनी रोटियां सेंकीं। द्वितीय मोर्चा, इन देशों ने, जानबूझकर नहीं खोला एवं इसे लम्बे समय तक टालते गए।
सोवियत संघ ने स्वयं को ठगा समझा एवं स्वयं के संसाधनों को एकत्रित कर, हिटलर की भारी तबाही के बाद, जो मॉस्को-राजधानी तक पहुंच चुका था, पीछे धकेलना शुरू किया और जर्मनी की राजधानी बर्लिन जा कर उसका अन्त किया। सोवियत बढ़ती शक्ति को देख, ये दोनों राष्ट्र स्तब्ध रह गए एवं इस डर से कि, अब सोवियत संघ पूरे यूरोप पर कब्जा कर, समाजवाद फैला देगा, अन्तत: 5 जून, 1944 को द्वितीय मोर्चा खोल, फ्रांस के नारमंडी क्षेत्र में अपनी सेनाएं जर्मनी के िरूद्ध उतरी।
‘द्वितीय मोर्चे का प्रश्न –
जैसा कि हमने ऊपर देखा, शीत युद्ध का कारण एक दूसरे के प्रति बढ़ता हुआ सन्देह और अविश्वास था। 1942 से ही सोवियत संघ और इग्लैण्ड-अमेरिका में वैचारिक वैमनस्यता के चलते, मतभेद शुरू हो गया था। इसका कारण इग्लैण्ड-अमेरिका द्वारा ‘द्वितीय मोर्चे’ का न खोला जाना था। जब 1941 में, हिटलर ने सोवियत संघ पर पूरे पश्चिमी मोर्चे से, अपनी पूरी ताकत के साथ आक्रमण किया, उस समय स्टालिन ने वादे के अनुसार, इग्लैण्ड-अमेरिका से पश्चिम में हिटलर के विरूद्ध, द्वितीय मोर्चा खोलने का बार-बार आग्रह किया, ताकि सोवियत संघ पर जर्मनी के प्रहार में कमी आ सके और सोवियत संघ को, इस अचानक हुए भारी प्रहार से, संभलने का मौका मिल सके। लकिन अमेरिका और इग्लैण्ड इस आग्रह को बार-बार टालते रहे। ऐसा वे जानबूझकर इस लिए कर रहे थे, ताकि नाजी-जर्मनी उनके वैचारिक दुश्मन, सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था का काम तमाम कर दे, जो वे पिछले बीस वर्षों से करना चाहते थे।
1944 में, सोवियत संघ ने अपनी संपूर्ण समाजवादी व्यवस्था की शक्ति को एकत्रित कर, हिटलर को मॉस्कों से पीछे धकेलना शुरू किया, तब पश्चिमी खेमे में हड़कम्प मच गया कि, अब सोवियत संघ हिटलर से अकेला ही निपटने में सक्षम है। एवं अब उन्हें संदेह होने लगा कि, यदि उन्होंने जल्दी दूसरा मोर्चा नहीं खोला तो, सोवियत संघ पूरे यूरोप पर कब्जा कर, साम्यवादी सरकारें स्थापित कर देगा और पूंजीवाद का अन्त ज्यादा दूर नहीं होगा। अन्तत: इग्लैण्ड-अमेरिका ने पांच जून, 1944 को फ्रांस के नारमण्डी प्रान्त में, जर्मनी के विरूद्ध अपनी सेनाएं उतारी।
स्टालिन ने फिर भी इसका स्वागत किया। अभी भी हिटलर की नब्बे प्रतिशत शक्ति का सामना सोवियत सेनाएं कर रही थीं। मात्र, दस प्रतिशत ही, पश्चिम की ओर भेजी गयी, जिसमें, शुरू में, प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, आंग्ल-अमेरिकन ‘सैनिक टिड्डी-दल की तरह, हिटलर के प्रहार से इधर-उधर भाग रहे थे। लेकिन अब देर हो चुकी थी, स्टालिन का विश्वास इन देशों से ऊठ चुका था।
एक-दूसरे के विरूद्ध प्रचार अभियान –
युद्ध के तुरन्त बाद, सोवियत संघ ने अपने मिडिया में पश्चिमी राष्ट्रों के विरूद्ध, उनकी विश्व में साम्राज्यवादी नीतियों का खुलकर खुलासा किया एवं उन पर, संयुक्त राष्ट्र संघ के एवं अन्य अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर खुलकर प्रहार किया। एटम बम से हुए विनाश एवं उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विरूद्ध प्रचार अभियान, पूरे विश्व में तेज कर दिया। इससे पश्चिमी राष्ट्रों की प्रतिक्रिया भी ऐसी ही थी और उन्होंने भी अमेरिका के नेतृत्व में, सोवियत विरोधी प्रचार अभियान अपने मीडिया व अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर तेज कर दिया। साम्यवाद का नकली खतरा जन-मानस के दिमाग में भरने का प्रयास किया, जो सत्य नहीं था। यह सिलसिला ‘पूरे शीत युद्ध’ काल में जारी रहा। अत: इस, एक-दूसरे के विरूद्ध, कुप्राचार से भी शीत युद्ध की आग को हवा मिली।
एटम बम का अविष्कार –
अमेरिका द्वारा अणु बम्ब हासिल करना भी शीत युद्ध का एक प्रमुख कारण था। ऐसा माना जाता है कि, अणुबम ने नागासाकी और हिरोशिमा का ही विध्वंस नहीं किया, बल्कि युद्धकालीन मित्रता का भी अन्त कर दिया। जब अमेरिका में अणुबम पर अनुसंधान चल रहा था, तो इसकी प्रगति से, इंग्लैण्ड को पूरी तरह परिचित रखा था, लेकिन, सोवियत संघ से यह राज छुपाकर रखा गया। इससे सोवियत संघ बेहद नाराज हुआ और इसे एक धोर विश्वासघात माना। उधर अमेरिका को यह अभिमान हो गया कि, उसके पास अणुबम होने से वह विश्व की सर्वोच्च शक्ति बन गया है एवं सोवियत संघ उससे दब कर रहेगा। पर जल्द ही, उसकी इन आशाओं पर पानी फिर गया, जब 1949 में, सोवियत संघ ने भी अणुबम अपने यहां बना लिया। अत: एक-दूसरे के विरूद्ध अविश्वास और भी गहरा होता चला गया। इसने, एक अनवरत शस्त्रीकरण की होड़ को जन्म दिया एवं पूरे विश्व को, ‘तीसरे विश्व युद्ध’ के भय से आन्तकित रखा। खासकर प्रमाणु युद्ध के खतरे से, जो सन् 1990 तक, इतना एकत्रित कर लिया था कि, पूरे पृथ्वी के गोले और उस पर रहने वाले प्रत्येक मानव व जीवों को पच्चास से सौ बार खत्म किया जा सकता है। अत: इससे भी दोनों राष्ट्रों में मनमुटाव बढ़ा।
पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सरकारों की स्थापना –
जब 1944 में, सोवियत संघ ने अपने देश को हिटलर से पूर्ण रूप से आजाद कर लिया तो, उन्होंने युद्ध नहीं रोका, बल्कि सोवियत सेनाएं अब यूरोप के अन्य राष्ट्र, जो हिटलर के कब्जे में थे, एवं घोर यातनाएं सह रहे थे, उनको आजाद करने आगे बढ़ी, जहां जनता ने उन्हें अपनी आजादी का मसीहा समझा, एवं उनका भव्य स्वागत हुआ। यह समाजवादी सेनाओं का, इन देशों की एवं मानव जाती को हिटलर के चंगुल से निकालने का, अभियान था। सोवियत सेनाओं ने, अब पीछे मुड़कर नहीं देखा एवं पूर्वी यूरोप के एक के बाद एक देश को हिटलर के चंगुल से आजाद कर, वहां जनता को अपनी पसन्द की साम्यवादी सरकारों को सत्ता में आने का अवसर दिया। ये देश थे – पोलैण्ड, हंगरी, बल्गारिया, रोमानिया, अल्बानियां, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया और अन्तत:, मित्र राष्ट्रों द्वारा जर्मनी पर कब्जे के बाद, सोवियत हिस्से में – पूर्वी जर्मनी। इन सब देशों में, साम्यवादी दलों द्वारा सरकारें बनाई गर्इं एवं अब समाजवाद एक विश्व व्यवस्था बन गई। इससे, पश्चिमी राष्ट्र काफी बौखला उठे और सोवियत संघ पर याल्टा संधि के उलंघन का आरोप लगाया पर, जैसा कि हमने देखा, इस वातावरण में इन समझौतों के कोई विशेष मायने नहीं थे।
ईरान से सोवियत सेनाएं न हटाना –
युद्ध के समय मित्र राष्ट्रों की सहमति से, सोवियत संघ ने उत्तरी ईरान पर कब्जा कर लिया था, ताकि दक्षिण की ओर से, उनका देश सुरक्षित रह सके। और दक्षिण ईरान में आंग्ल-अमेरिकन कब्जा था। युद्ध समाप्त होते ही आंग्ल-अमेरिकन सेनाएं हटा ली गयीं, पर सुरक्षा की दृष्टि से सोवियत संघ ने, अपनी सेनाएं कुछ समय के बाद हटार्इं। इससे भी दोनों खेमों में अनबन रहीं एवं इस युद्ध का एक कारण बना। इस युद्ध के और भी कई छोटे-मोटे कारण साहित्य में देखने को मिलते हैं। यहां हमने मात्र कुछ-प्रमुख कारणों की ही सारगर्भित चर्चा की है, ताकि पाठकों को इन्हें समझने में विशेष कठिनाई न हो।
शीत युद्ध के प्रभाव
- विश्व का दाे गुटो में विभाजित होना
- आणविक युद्ध की सम्भावना का भय
- आतंक और अविश्वास के दायरे में विस्तार
- सैनिक संधियों व सैनिक गठबंधन का बाहुल्य
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का यान्त्रिकीकरण
- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकोण का पोषण
- संयुक्त राष्ट्रसंघ का शक्तिहीन होना
- मानवीय कल्याण के कार्यक्रमाें की उपेक्षा
विश्व का दाे गुटो में विभाजित होना –
शीत युद्ध के परिणामस्वरूप, विश्व दाे गुटो में विभाजित हो गया था। एक गुट पूंजीवादी देशों का था, जिसका नेतृत्व अमेरिका करता था, दूसरा गुट समाजवादियों का था जिसका नेतृत्व सोवियत संघ करता था। अब विश्व की समस्याओं को इसी गुटबन्दी के आधार पर देखा जाने लगा था। इसी कारण अनेक अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं उलझी पड़ी थी। द्वितीय महायुद्ध के बाद विकसित, द्वि-ध्रुवीय राजनीति के परिणामस्वरूप, इन गुटो में शामिल राष्ट्रों को अपनी स्वतंत्रता के साथ समझौता करना पड़ा। रूमानिया, बुलगारिया जैसे राष्ट्रों को सोवियत दृष्टिकोण से सोचने के लिए मजबूर होना पड़ा और फ्रांस व ब्रिटेन को अमेरिका नजरिये से दुनिया देखने को विवश होना पड़ा। शीत युद्ध की बदौलत अपनी द्विगुटीय विश्व राजनीति ने मध्यम मार्ग की गुजाइश को समाप्त कर दिया और इस भावना को जन्म दिया कि, जो हमारे साथ नहीं, वह हमारा शत्रु है।
आणविक युद्ध की सम्भावना का भय –
शीत यद्धु के परिणामस्वरूप, आणविक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया गया। अमेरिका ने सन् 1945 में एटम बम का पहली बार प्रयोग जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी पर किया। शीतयुद्ध के वातावरण में यह अनुभव किया जाता है कि, अगला विश्व युद्ध भयंकर और विनाशकारी, आणविक युद्ध होगा। क्यूबा संकट के समय, आणविक युद्ध की सम्भावना बढ़ गयी थी। इसी प्रकार जनवरी, फरवरी, 1991 में खाड़ी युद्ध के समय भी आणविक युद्ध का खतरा पैदा हो गया। खाड़ी युद्ध की जो स्थिति थी, उसके सन्दर्भ में अधिकांश देश आणविक युद्ध के खतरे से भयभीत थे। आणविक शस्त्रों के परिप्रेक्ष्य में, परम्परागत अन्र्तराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था की संरचना ही बदल गयी है।
आतंक और अविश्वास के दायरे में विस्तार –
शीत यद्धु ने राष्ट्राें काे भयभीत किया, आतंक और अविश्वास का दायरा बढ़ाया। अमेरिका और सोवियत संघ के मतभेदों के कारण अन्र्तराष्ट्रीय संबंधों में गहरे तनाव, वैमनस्य, मनोमालिन्य, प्रतिस्पर्धा और अविश्वास की स्थिति आ गयी। विभिन्न राष्ट्र और जनमानस इस बात से भयभीत रहने लगे कि, कब एक छोटी सी चिनगारी तीसरे विश्व-युद्ध का कारण बन जाये ? शीत यद्धु ने ‘युद्ध के वातावरण’ काे बनाये रखा। नहे रू ने ठीक ही कहा था कि, हम लागे ‘निलम्बित मृत्ृत्यु दण्ड’ के यगु में रह रहै है।
सैनिक संधियों व सैनिक गठबंधन का बाहुल्य –
शीतयद्धु ने विश्व में सैि नक सन्धियों एवं सैनिक गठबन्धनों को जन्म दिया। नाटो, सीटो, सैण्टो तथा वार्सा पैकट जैसे गठबन्धनों का प्रादुर्भाव, शीत युद्ध का ही परिणाम था। इसके कारण शीत युद्ध में उग्रता आयी, उन्होंने नि:शस्त्रीकरण की समस्या को और अधिक जटिल बना दिया। वस्ततु : इन सैनिक संगठनो ने प्रत्येक राज्य को द्वितीय विश्व-यद्धु के बाद ‘निरन्तर युद्ध की स्थिति’ में रख दिया।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का यान्त्रिकीकरण –
शीत यद्धु का स्पष्ट अथर् लिया जाता है कि, दुनिया दो भागों में विभक्त है – एक खेमा देवताओं का है तो, दूसरा दानवों का; एक तरफ काली भेड़ें हैं तो, दूसरी तरफ सभी सफेद भेड़ें हैं। इसके मध्य कुछ भी नहीं है। इससे जहाँ इस दृष्टिकोण का विकास हुआ कि, जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा विरोधी है, वहीं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का एकदम यान्त्रिकीकरण हो गया।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकाण का पोषण –
शीत यद्धु से अन्तरार्ष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकोण का पोषण हुआ। अब शान्ति की बात करना भी सन्दहेास्पद लगता था। अब ‘शान्ति’ का अथर् ‘युद्ध’ के सन्दभर् में लिया जाने लगा। ऐसी स्थिति में शान्तिकालीन युग के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में संचालन दुष्कर कार्य समझा जाने लगा।
संयुक्त राष्ट्रसंघ का शक्तिहीन होना –
शीत यद्धु के कारण संयुक्त राष्ट्रसघ के कार्य संचालन में अवरोध उत्पन्न हुआ है। महाशक्तियों के पारस्परिक तनाव, हित के कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ पाँच महाशक्तियों की राजनीति का अखाड़ा बन गया। इसकी बैठकों में कोरे वाद-विवाद होते रहे किन्तु, उनको मानता कोई नहीं था।
मानवीय कल्याण के कार्यक्रमाें की उपेक्षा –
शीत यद्धु के कारण, विश्व राजनीति का केन्द्रीय बिन्दु सुरक्षा की व्यवस्था तक ही सीमित रह गया। इससे मानवीय कल्याण के कार्यक्रमों की उपेक्षा हुई। शीत युद्ध के कारण ही तीसरी दुनिया के अविकसित और अर्द्ध-विकसित देशों की भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आर्थिक पिछड़ापन, राजनीतिक अस्थिरता आदि अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं का उचित निदान यथासमय सम्भव नही हो सका, क्यों की महाशक्तियों का दृष्टिकोण मुख्यतः ‘शक्ति की राजनीति’ तक ही सीमित रहा।
उपर्युक्त सभी परिणाम शीत युद्ध के नकारात्मक परिणाम कहे जा सकते हैं।
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