मध्यकालीन भारत के इतिहास में शेरशाह का शासनकाल उत्कृष्ट शासन-प्रबंध के लिए प्रसिद्ध है। शेरशाह को व्यवस्था सुधारक के रूप में माना जाता है, व्यवस्था प्रवर्तक के रूप में नहीं, क्योंकि उसने सल्तनतकाल से चली आ रही प्रशासकीय इकाइयों में कोई परिवर्तन नहीं किया। फिर भी, वह पहला मुसलमान शासक था जिसने अपनी प्रजा की इच्छाओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए उनकी भलाई के लिए कार्य किया। वास्तव में शेरशाह एक कुशल प्रशासक था जिसने प्रशासन के क्षेत्र में कई ऐसे सुधारों को लागू किया जिससे प्रशासन की कार्यकुशलता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई।
केंद्रीय प्रशासन (Central Administration)
शेरशाह का प्रशासन पूर्ववर्ती सुल्तानों के समान निरंकुश और एकतंत्रीय था जिसके अंतर्गत प्रशासन की समस्त शक्तियाँ उसके हाथों में केंद्रित थीं। लेकिन उसका दृष्टिकोण प्रबुद्ध तथा प्रजा के कल्याण की भावना से प्रेरित था। शेरशाह की राजत्व की धारणा लोदी सुल्तानों से भिन्न थी। उसने यह स्पष्ट रूप से समझ लिया था कि अफगान राजत्व का कबाइली और पंचायती स्वरूप हिंदुस्तान में व्यावहारिक नहीं है क्योंकि इसमें शासक की स्थिति दुर्बल रहती है। इसलिए अफगान परंपराओं की उपेक्षा करते हुए उसने तुर्कों की निरंकुश सत्ता के सिद्धांत को अपनाया। साम्राज्य की सभी कार्यकारी शक्तियाँ सम्राट के व्यक्तित्व में ही निहित थीं और वही शासन-तंत्र का प्रधान संचालक था। सभी प्रकार के अधिकरियों-कर्मचारियों की नियुक्ति वह स्वयं करता था और सभी अधिकारी एवं कर्मचारी केवल उसके प्रति ही उत्तरदायी होते थे। वह विधान का स्रोत था और उसके निर्णय के विरुद्ध कोई सुनवाई नहीं हो सकती थी। इस प्रकार सिद्धांत के तौर पर राज्य की समस्त शक्तियाँ शेरशाह में ही निहित थीं।
शेरशाह ने अपने पिता की सासाराम, खवासपुर तथा टांडा की जागीर का प्रबंध करते हुए जो प्रशासनिक अनुभव प्राप्त किया था, उसने उसे सम्राट बनने पर समस्त साम्राज्य में लागू किया। यही कारण है कि उसका प्रशासनिक सुधार मुख्य रूप से परगना तथा सरकारों के स्तर तक हुआ था और केंद्रीय तथा प्रांतीय प्रशासन के स्वरूप लगभग पहले जैसे ही बने रहे।
शेरशाह की प्रशासनिक सफलता का दूसरा कारण उसका अत्यधिक परिश्रम था। वह सुबह से देर रात तक राज्य के कार्यों में व्यस्त रहता था और अपना अधिकाधिक समय सूचनाओं को प्राप्त करने, आदेशों अथवा निर्देशों को लिखाने आदि में व्यतीत करता था। वह प्रत्येक विभाग के कार्यों का स्वयं निरीक्षण करता था और छोटी से छोटी रिपोर्ट को भी स्वयं पढ़ता था। जो आज्ञाएँ वह जारी करता था, वे तुरंत लिखी जाती थीं जिससे उनका समय से क्रियान्वयन हो जाता था। इससे प्रशासन में एकरूपता तथा कुशलता स्थापित हुई।
मंत्रिपरिषद् (Council of Ministers)
कोई सम्राट चाहे कितना भी परिश्रमी क्यों न हो, वह अकेला सारे साम्राज्य के प्रशासन को नहीं चला सकता। इसलिए शेरशाह सूरी ने भी प्रशासनिक सुविधा के लिए दिल्ली के सुल्तानों की तरह चार मंत्रियों की एक मंत्रिपरिषद् का गठन किया था। यद्यपि ये मंत्री अपने-अपने विभाग के अध्यक्ष होते थे, किंतु सभी महत्वपूर्ण निर्णय शेरशाह स्वयं करता था और उसके मंत्री केवल उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे। वास्तव में, उसके मंत्रियों को स्थिति सचिवों के समान थी। वे शेरशाह को केवल परामर्श दे सकते थे और उसे मानना या न मानना शेरशाह को इच्छा पर था।
दीवान-ए-वजारत: इस विभाग के अध्यक्ष को वजीर कहा जाता था, जिसे प्रधानमंत्री तथा वित्त-मंत्री कहा जा सकता है। वजीर जहाँ वित्त अर्थात् आय तथा व्यय का प्रबंध करता था, वहीं अन्य विभागाध्यक्षों पर भी नियंत्रण भी रखता था। मालगुजारी की व्यवस्था ठीक करने के लिए शेरशाह इस विभाग में विशेष रुचि रखता था
दीवान-ए-आरिज: इस विभाग का प्रमुख आरिज कहलाता था जो प्रतिरक्षा मंत्री होता था। इसका कार्य सैनिकों की भर्ती, अनुशासन तथा वेतन वितरण आदि का प्रबंध करना था। यद्यपि वह एक सेनानायक होता था, परंतु वह सेनापति नहीं होता था। सैनिकों की भर्ती और उनके वंतन-निर्धारण का कार्य प्रायः शेरशाह स्वयं करता था।
दीवान-ए-रसालत: इस विभाग का प्रमुख एक प्रकार का विदेशमंत्री होता था जो विदेशों में आये राजदूतों की देखभाल अथवा उनसे वार्ता करता था। विदेशों को भेजे जाने वाले निर्देशों अथवा प्रार्थना-पत्रों को लिखने तथा भेजने का कार्य भी यही करता था।
दीवान-ए-इंशा: यह एक प्रकार से शाही सचिवालय था और इसका अध्यक्ष दबीर-ए-खास कहलाता था। इसका कार्य साम्राज्य के अंदर राजकीय निर्देशों अथवा आदेशों को लिखवाकर भेजना होता था। सूबेदारों तथा अन्य अधिकारियों से वह उन पत्रों को प्राप्त करता था जो सम्राट के लिए भेजे जाते थे।
इन चार मंत्रियों के अतिरिक्त शेरशाह ने केंद्रीय सरकार में दो अन्य प्रमुख अधिकारी भी नियुक्त किये थे जिनका सम्मान और अधिकार मंत्रियों के ही समान थे। इनमें से एक ‘दीवान-ए-कजा’ विभाग था, जिसका प्रमुख अधिकारी मुख्य काजी होता था। न्याय प्रशासन में सम्राट के बाद उसका दूसरा स्थान था। दूसरा विभाग ‘बरीद-ए-मुमालिक’ था जिसका मुखिया ‘दीवान-ए-बरीद’ गुप्तचर विभाग का प्रमुख होता था। इसका कार्य साम्राज्य के विभिन्न भागों से गुप्तचरों की रिपोर्ट को प्राप्त करना था। डाक का प्रबंध भी यही विभाग करता था। संभवतः इसी प्रकार का एक अन्य कर्मचारी राजमहल के कार्यों के निरीक्षण और प्रबंधन के लिए भी नियुक्त किया जाता था।
प्रांतीय प्रशासन (Provincial Administration)
प्रशासनिक सुविधा के लिए शेरशाह का संपूर्ण साम्राज्य सरकार, परगने तथा गाँव में बँटा था। डॉ. कानूनगो का मानना है कि शेरशाह के प्रशासन में ‘सरकार’ से ऊँची कोई प्रशासनिक इकाई नहीं थी। परमात्माशरण के अनुसार शेरशाह के शासनकाल में फौजी गवर्नरों की प्रथा थी और अकबर से पहले प्रांतों का अस्तित्व था। लगता है कि शेरशाह ने अपने साम्राज्य को 47 प्रांतों अथवा इक्ताओं में बाँट रखा था, लेकिन इनका स्वरूप और आकार एक-सा नहीं था। इक्ता के प्रशासन को चलाने के लिए उसने सैनिक गवर्नर नियुक्त किये थे, जैसे लाहौर, अजमेर अथवा मालवा आदि के सैनिक गवर्नर। प्रांतों में फौजी गवर्नरों की नियुक्तियों में शेरशाह ने एक और परीक्षण किया। उसने पंजाब के फौजी गवर्नर हैबत खाँ के नीचे दो डिप्टी गवर्नर नियुक्त किये थे। राजसथान के गवर्नर ख्वास खाँ के नीचे भी उसने एक डिप्टी गवर्नर सरहिंद में नियुक्त किया था। संभव है कि इन प्रांतों की विशेष स्थिति और समस्याओं के कारण ही डिप्टी गवर्नर नियुक्त किये गये रहे हों।
शेरशाह ने 1542 ई. में बंगाल में एक नवीन प्रशासन व्यवस्था स्थापित की और पूरे प्रांत को कई सरकारों (जिलों) में विभाजित कर दिया। प्रत्येक सरकार में एक सैनिक अधिकारी ‘शिकदार’ होता थे। इन शिकदारों के ऊपर उसने एक ‘अमीन-ए-बंगाल’ नामक नागरिक गवर्नर नियुक्त किया ताकि इस प्रांत में फिर विद्रोह न होने पाये।
सरकार और परगना (Sarkar and Pargana)
जिस प्रकार से शेरशाह ने अपने साम्राज्य को कई इक्ताओं में बाँटा हुआ था, उसी प्रकार प्रत्येक इक्ता को कई सरकारों में बाँटा गया था और सरकारें परगनों में विभाजित थीं। सरकार और परगना के संबंध में विस्तृत जानकारी अब्बास खाँ की रचना ‘तारीखे शेरशाही’ से मिलती है।
सरकार प्रशासन: प्रत्येक सरकार में दो प्रधान अधिकारी थे जो सरकार का शासन-संचालन करते थे। पहला, शिकदार-ए-शिकदारान और दूसरा, मुंसिफ-ए-मुंसिफान। मुख्य शिकदार सरकार का सैनिक अधिकारी था जिसके पास पर्याप्त सेना और पुलिस होती थी। उसका कार्य सरकार या जिला में शांति बनाये रखना, परगनों शिकदारों के कार्य का निरीक्षण करना तथा मालगुजारी व अन्य करों की वसूली में सहायता करना था। वह परगना के शिकदारों के फैसलों के विरुद्ध अपीलें भी सुनता था। शिकदार-ए-शिकदारान के पद पर नियुक्ति शेरशाह स्वयं प्रमुख अमीरों में से करता था।
मुंसिफ-ए-मुंसिफान मुख्यतया न्याय से संबंधित था और वह परगना के मुंसिफों तथा अमीनों के कार्य का भी निरीक्षण करता था। इसके अधीन भी, शिकादार-ए-शिकदारान की भाँति बहुत से लेखक, लिपिक आदि होते थे जो सरकार के प्रशासन में उसकी सहायता किया करते थे।
परगना प्रशासन-प्रत्येक सरकार कई परगनों में विभक्त था। प्रत्येक परगना में शिकदार (सैनिक अधिकारी) और मुंसिफ या अमीन (नागरिक अधिकारी) होते थे जो शिकदार-ए-शिकादारान तथा मुंसिफ-ए-मुंसिफान के अधीन रहकर परगने के प्रशासन को संचालित करते थे। परगने में एक शिकदार के अलावा एक मुंसिफ, एक फोतदार (खजांची) और दो कारकुन (लेखक) होते थे। परगने में मुंसिफ शिकदार का का समकक्षी होता था। उसका कार्य भूमि की पैमाइश कराना तथा भूमिकर की वसूली करना था। वह दीवानी तथा माल के मुकदमे भी सुनता था। परगने का तीसरा अधिकारी फोतदार था जो परगने की आय-व्यय का ब्यौरा रखता था।परगने का खजाना भी उसी के अधीन रहता था। परगने में दो कारकुनों की भी व्यवस्था थी जिसमें फारसी का लेखक होता था और दूसरा हिंदी का। एक अर्द्ध-सरकारी अधिकारी कानूनगो भी होता था। शिकदार का कार्य शांति बनाये रखना और अमीन का कार्य भूमि की पैमाइश कराना तथा मालगुजारी वसूल करना था। परगना आजकल की तहसील की तरह ही एक प्रशासनिक इकाई थी।
परगना प्रशासन में शेरशाह ने महत्वपूर्ण सुधार किये थे। उसने परगना स्तर पर न्याय व्यवस्था को प्रभावशाली बनाया, जनता की सुख-सुविधा का ध्यान रखा और दो समान अधिकार-संपन्न अधिकारियों को नियुक्त करके स्थानीय विद्रोहों की संभावना को समाप्त कर दिया। परगना अधिकारियों की नियुक्ति भी शेरशाह स्वयं करता था, इससे परगनों पर केंद्रीय नियंत्रण बढ़ गया था।
गाँव प्रशासन (Village Administration)
शेरशाह के कार्यकाल में प्रशासन की सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई गाँव थे। प्रत्येक परगना कई गाँवों में विभाजित था। गाँव का प्रमुख अधिकारी मुकद्दम (मुखिया) होता था जिसका काम किसानों से भूमिकर इकट्ठा करके राजकीय कोष में जमा करवाना था। मुकद्दम (मुखिया) ही गाँव में शांति एवं व्यवस्था के लिए उत्तरदायी होता था। गाँव में चोरी, डकैती, हत्या आदि अपराधों को रोकना उसी का कार्य था। यदि मुकद्दम अपराधी का पता लगाने में असमर्थ होता था तो उसे स्वयं दंड भुगतना पड़ता था। इसके अलावा, पटवारी नामक एक कर्मचारी गाँव से संबंधित सभी कार्यों का हिसाब-किताब रखता था। शेरशाह ने पंचायतों के कार्यों में किसी प्रकार का भी हस्तक्षेप नहीं किया और ग्राम प्रशासन को स्थानीय लोगों के हाथों में ही छोड़ दिया था।
सैनिक व्यवस्था (Military System
शेरशाह के राज्य की शक्ति तथा सुरक्षा का आधार सेना थी। उसने अपने विशाल साम्राज्य की सुरक्षा के लिए अपनी सेना को शक्तिशाली बनाने के सैनिक संगठन में महत्त्वपूर्ण सुधार किये थे। शेरशाह ने प्राचीन सैन्य-पद्धति को छोड़कर एक स्थायी सेना का गठन किया, जिसके सैनिकों को राजकीय कोष से वेतन दिया जाता था और जो पूर्ण रूप से सम्राट् के प्रति उत्तरदायी होती थी।
शेरशाह की सेना में चार अंग थे, जिसमें घुड़सवार सैनिकों की संख्या 25,000 थी, पदाति सैनिकों की संख्या 1,50,000, हस्तिसेना में 5,000 हाथी और 50,000 बंदूकचियों के साथ एक तोपखाना शामिल था। उसने साम्राज्य के विभिन्न भागों में दुर्ग और चौकियाँ स्थापित कर प्रत्येक में एक मजबूत सैनिक टुकड़ी को तैनात किया था।
शेरशाह ने अपने सैन्य-विधान में घुड़सवार सेना को अधिक महत्त्व दिया। उसकी घुड़सवार सेना में मुख्य रूप से अफगान थे, लेकिन उसने अन्य जातियों के लोगों तथा हिंदुओं को भी सेना में भर्ती किया। प्रांतों के गवर्नरों के पास भी सेनाएँ थीं, लेकिन वे इतनी कम थी कि कभी शेरशाह के लिए संकट नहीं बन सकती थीं।
शेरशाह ने घोड़ों पर शाही निशान से दागने की प्रथा पुनः प्रचलित की ताकि घटिया नस्ल के घोड़ों से उसे बदला न जा सके और उनकी गणना में कोई गड़बड़ी न हो सके। घोड़ों की ही तरह शेरशाह ने प्रत्येक सैनिक का ‘हुलिया’ जैसे-नाम, पिता का नाम, आयु, कद को एक रजिस्टर में लिखवाने की नई प्रथा आरंभ की जिससे सैनिकों की गणना में कोई हेरा-फेरी न की जा सके। संभवतः घोड़ों को दागने और सैनिकों के हुलिया लिखने की प्रथा को शेरशाह ने अलाउद्दीन खिलजी ने ग्रहण किया था।
कुछ एक इतिहासकारों का मानना है कि सम्राट स्वयं सैनिकों को भर्ती किया करता था, स्वयं उनको वेतन दिया करता था तथा सेना में अनुशासन बनाये रखने के लिए व्यक्तिगत तौर पर विशेष रुचि रखा करता था। यह अक्षरशः भले ही सत्य न हों, किंतु इतना निश्चित है कि शेरशाह अपने सैन्य-सुधारों में व्यक्तिगत तौर पर रुचि लेता था और वेतन तथा पदोन्नति जैसे मामलों का निपटारा स्वयं करता था। इसी कारण सैनिक तथा अधिकारी उसके स्वामिभक्त होते थे और उसको सेना की ओर से कभी विद्रोह का सामना नहीं करना पड़ा।
न्याय व्यवस्था (Judicial System)
शेरशाह ने न्याय-संबंधी सुधार करके अपराधों की संख्या तथा प्रकार को निश्चित रूप से कम कर दिया था। शेरशाह न्याय प्रदान करते समय अपने-पराये का ध्यान नहीं रखता था और प्रायः “जैसे को तैसा’’ के सिद्धांत के अनुसार न्याय प्रदान करता था। ‘मीर अदल’ नामक न्यायिक अधिकारी का कार्य यह देखना होता था कि न्यायालय के निर्णय को उचित प्रकार से क्रियान्वित किया गया है या नहीं।
यद्यपि न्याय तथा कानून का स्रोत स्वयं सम्राट ही था और साम्राज्य के न्याय-विभाग का अध्यक्ष मुख्य काजी होता था। किंतु न्याय व्यवस्था को सर्वसुलभ बनाये रखने के लिए शेरशाह ने सरकार में काजियों और परगनों में अमीनों की नियुक्ति की थी। गाँवों में मुकदमों का फैसला प्रायः पंचायतें किया करती थीं।
पुलिस व्यवस्था (Police System)
शेरशाह ने अपने साम्राज्य में शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए कोई अलग पुलिस विभाग तो नहीं बनाया था, परंतु इक्ता में शिकदार-ए-शिकदारान, परगनों में शिकदार तथा गाँव में मुकद्दम शांति-व्यवस्था और सुरक्षा के लिए नियुक्त किये गये थे। शेरशाह ने अपराधों के मामलों में स्थानीय उत्तरदायित्व के सिद्धांत को लागू किया था। गाँवों में यदि कोई चोरी या डाका पड़ता था तो इसके लिए मुकद्दम ही उत्तरदायी होता था। यदि मुकद्दम चोर या डाकू का पता नहीं लगा पाता था तो उसको सजा दी जाती थी और उसे नुकसान की भरपाई करनी पड़ती थी।
गुप्तचर व्यवस्था (Detective System)
पुलिस विभाग के कार्य को सुचारू ढंग से चलाने और अपनी अधिकारियों की मनमानी पर अंकुश रखने के लिए शेरशाह ने एक स्वस्थ गुप्तचर विभाग की स्थापना की थी और सभी प्रमुख नगरों तथा केंद्रों में गुप्तचरों को नियुक्त किया था। शेरशाह को अपने विश्वसनीय गुप्तचरों के माध्यम से राजस्व, न्याय, सामान्य प्रशासन, बाजार की कीमतों आदि बारे में सारी सूचनाएँ गुप्त रूप से मिलती रहती थीं। सूचनाओं को शीघ्रतापूर्वक भेजने के लिए सरायों में डाक-चौकियों की व्यवस्था थी जहाँ दो घोड़े सदैव उपलब्ध रहते थे।
वित्त एवं भू-राजस्व व्यवस्था (Finance and Land Revenue System)
शेरशाह की वित्त-व्यवस्था के अंतर्गत सरकारी आय का सबसे बड़ा स्रोत जमीन पर लगनेवाला कर था, जिसे ‘लगान’ या ‘मालगुजारी’ कहते थे। अपने पिता की जागीर का काम दो दशकों तक सँभालने और फिर बिहार के शासन की देखभाल करने के कारण शेरशाह भू-राजस्व प्रणाली के प्रत्येक स्तर के कार्य से भली-भाँति परिचित था। उसने भू-विशेषज्ञ टोडरमल खत्री, जिसने आगे चलकर अकबर के साथ भी कार्य किया, जैसे योग्य प्रशासकों की मदद से भूमि-कर-संबंधी बंदोबस्त में कई मूलभूत परिवर्तन तथा सुधार किये, इसलिए उसकी भूराजस्व-व्यवस्था को ‘टोडरमल का बंदोबस्त’ भी कहा जाता है।
भूमि की पैमाइश: शेरशाह ने मालगुजारी को खेतों की पैमाइश के आधार पर निर्धारित किया। उसने अहमदखाँ के निरीक्षण में राज्य की कृषि-योग्य भूमि की पैमाइश कराई। संभवतः मुल्तान सूबे में पैमाइश नहीं कराई गई थी क्योंकि यह सीमावर्ती क्षेत्र था और सुरक्षा कारणों से इस क्षेत्र को छोड़ दिया गया था।
पट्टा एवं कबूलियत: शेरशाह ने कृषकों को भूमि का पट्टा दिया जिसमें भूमि का क्षेत्रफल, स्थिति, प्रकार और किसान द्वारा देय मालगुजारी दर्ज रहती थी। इस पट्टे पर किसानों से मालगुजारी की ‘कबूलियत’ (स्वीकृति-पत्र) ले ली जाती थी, जिससे किसान को पता रहता था कि उसे कितनी मालगुजारी देनी है। पट्टा एवं कबूलियत एक प्रकार से राज्य और किसान के बीच समझौता था। वास्तव में शेरशाह का सिद्धांत था कि मालगुजारी निर्धारित करते समय कृषकों से उदारता से व्यवहार किया जाए, लेकिन कर-संग्रह में किसी प्रकार की उदारता न की जाए।
भूमि का वर्गीकरण और लगान की दर: मालगुजारी के निर्धारण के लिए ऊर्वरापन के आधार पर भूमि को तीन श्रेणियों- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट में वर्गीकृत किया गया। शेरशाह ने ‘रई’ या फसल-दरों की सूची बनवाई और उसके आधार पर विभिन्न फसलों के लिए मालगुजारी निश्चित की थी। पैदावार का लगभग एक तिहाई भाग सरकारी लगान के रूप में लिया जाता था। शेरशाह ने केवल मुल्तान में राजस्व-निर्धारण और संग्रह के लिए पहले से चली आ रही बटाई (हिस्सेदारी) व्यवस्था को ही प्रचलन में रहने दिया और वहाँ उपज का 1/4 भाग लगान के रूप में लिया जाता था।
भूमिकर की वसूली : भूराजस्व की वसूली प्रायः मुकद्दम द्वारा की जाती थी, किंतु शेरशाह ने किसानों को प्रोत्साहित किया कि वे स्वयं राजकोष में भूमिकर जमा करें ताकि किसानों और राज्य के बीच सीधा संपर्क स्थापित हो सके। शेरशाह ने जहाँ तक संभव हुआ मालगुजारी को नकदी के रूप में अदा करने के लिए कृषकों को प्रोत्साहित किया। नष्ट होने वाले उत्पाद जैसे तरकारी आदि पर मालगुजारी केवल नकदी में ली जाती थी। जकात, खम्स तथा विदेशी माल पर चुंगी आदि राज्य की आय के अन्य स्रोत थे।
जरीबाना और मुहासिलाना: शेरशाह के शासनकाल में किसानों से ‘जरीबाना’ या भूमि की पैमाइश का शुल्क एवं ‘मुहासिलाना’ या कर संग्रह-शुल्क भी लिया जा़ता था, जिनकी दरें क्रमशः भूराजस्व की 2.5 प्रतिशत एवं 5 प्रतिशत थी। कोई भी राजस्व अधिकारी इसके अलावा किसी प्रकार का कोई अनुलाभ किसान से नहीं ले सकता था।
जरीब का प्रयोग: शेरशाह ने भूमि की पैमाइश के लिए एक ही नाप की ‘जरीब’ का प्रयोग किया जो ‘गज-ए-सिकंदरी’ पर आधारित थी। 60 गज के जरीब में 32 कड़ियाँ होती थीं। एक जरीब को बीघा कहा जाता था। शेरशाह ने कुशल और ईमानदार राजस्व अधिकारियों को पुरस्कृत करने के नियम भी बनाये।
खेती एवं किसानों की सुरक्षा: शेरशाह ने खेती और किसानों की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा। वह कहा करता था: ‘‘किसान निर्दोष हैं, वे अधिकारियों के आगे झुक जाते हैं, और अगर मैं उन पर जुल्म करूँ तो वे अपने गाँव छोड़कर चले जायेंगे, देश बर्बाद और वीरान हो जायेगा और दोबारा समृद्ध होने में बहुत लंबा समय लगेगा।’’ अब्बास खाँ लिखता है कि सेना को विशेष आदेश था कि वह खेतों को हानि न पहुँचाये। अगर कोई सैनिक खेतों को हानि पहुँचाता था तो शेरशाह दोषी सैनिक को कठोर दंड देता था और किसान की क्षतिपूर्ति की जाती थी। शेरशाह के समय कुल मालगुजारी के अलावा किसानों से 2.5 प्रतिशत अतिरिक्त कर अनाज के रूप में वसूल कर गोदामों में सुरक्षित रखा जाता था। इस अनाज का प्रयोग प्राकृतिक आपदा के समय कृषकों की सहायता के लिए किया जाता था। दुर्भिक्ष, अनावृष्टि और अतिवृष्टि आदि के समय सरकार की ओर से किसानों को ऋण दिये जाते थे। इन ऋणों पर किसी प्रकार का सूद नहीं लिया जाता था और ऋण की रकम का भुगतान किसान आसान किश्तों में करते थे।
बंदोबस्त की खामियाँ: शेरशाह पहला मुस्लिम सम्राट था जिसने भूमि-कर व्यवस्था को वैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न किया था, अतः उसमें स्वाभावतः कुछ खामियाँ थीं, जैसे-औसत उत्पादन की प्रक्रिया दोषपूर्ण थी और मध्यम तथा निम्न भूमियों पर कर-भार अधिक था। मालगुजारी के अलावा जरीबाना, मुहासिलाना आदि कर देने से किसानों पर कर भार बढ़ गया था। वार्षिक बंदोबस्त के कारण भी किसानों को असुविधा होती थी। मालगुजारी के नकद भुगतान की व्यवस्था से भी किसानों को असुविधा होती थी। विभिन्न मंडियों में अनाज के मूल्यों में अंतर होने से भी किसानों का नुकसान होता था। जागीरदारी प्रथा अभी भी प्रचलित थी, इसलिए जागीरदारी वाले क्षेत्रों के किसानों को राजस्व सुधार का लाभ प्राप्त नहीं मिल सका।
फिर भी, शेरशाह द्वारा आरंभ की गई लगान-व्यवस्था उसकी बुद्धिमत्ता, कड़े परिश्रम तथा उसके मन में किसानों की भलाई की भावना का परिचायक थी जिससे अंततः राज्य और किसान दोनों का कल्याण हुआ। बंदोबस्त से राज्य की आमदनी बढ़ गई जिसके कारण शेरशाह जन-कल्याण के कार्यों को संपन्न कर सका था। यह बंदोबसत किसानों के लिए भी कल्याणकारी रहा जिससे राज्य में समृद्धि आई।
मुद्रा सुधार (Currency Improvement)
शेरशाह ने मुद्रा-व्यवस्था के सुधार पर भी विशेष ध्यान दिया था। उसने पुरानी और खोटी मुद्राओं को प्रचलन से हटा दिया और उनके स्थान पर नवीन सोने, चाँदी और ताँबे की मुद्राओं का प्रचलन किया। उसके दो प्रकार के सिक्के मुख्य थे-चाँदी का ‘रुपया’, जिसका भार 178 ग्रेन था और ताँबे का ‘दाम’, जिसका भार 380 ग्रेन था। शेरशाह का चाँदी का रुपया इतना प्रमाणिक था कि वह शताब्दियों बाद तक मानक सिक्के के रूप में प्रचलित रहा। उसके सोने की मुद्रा या ‘अशर्फी’ का भार भिन्न-भिन्न था- 166.4 ग्रेन, 167 ग्रेन और 168.5 ग्रेन। शेरशाह ने इन मुद्राओं का पारस्परिक अनुपात भी निश्चित किया था। एक चाँदी का रुपया 64 दाम के बराबर था। रुपये के 1/2, 1/4, 1/8, 1/16 भाग भी थे।
शेरशाह की मुद्राएँ चौकोर और वृत्ताकार दोनों प्रकार की थीं। सिक्कों पर अरबी लिपि में शेरशाह का नाम, पदवी और टकसाल का नाम अंकित रहता था। कुछ मुद्राओं पर शेरशाह का नाम देवनागरी लिपि में भी टंकित मिलता है। शेरशाह के कुछ सिक्कों पर उसका नाम चारों खलीफाओं के नाम के साथ अंकित है। टकसालों की संख्या 23 थी, किंतु मुख्य टकसालें आगरा, ग्वालियर, उज्जैन, लखनऊ, सासाराम, आबू और सख्खर में थीं। शेरशाह का मुद्रा-सुधार स्थायी सिद्ध हुआ जिसे मुगलों ने भी अपनाया था।
व्यापार-वाणिज्य का विकास (Development of Trade and Commerce)
व्यापार की उन्नति के लिए शेरशाह ने आदेश दिया था कि व्यापारिक चुंगी केवल दो स्थानों पर ली जायेगी-एक, साम्राज्य में प्रवेश करते समय और दूसरी बार वस्तु के विक्रय के समय। साम्राज्य में प्रवेश करते समय बंगाल-बिहार सीमा पर सीकरी गली और पश्चिम में रोहतासगढ़ चुंगी के प्रमुख केंद्र थे। इससे पहले प्रत्येक जिले, परगने अथवा राज्य की सीमा पर व्यापारियों को चुंगी देनी पड़ती थी। इसके अलावा, शेरशाह के मुद्रा-सुधारों, सड़कों व सरायों के निर्माण तथा मार्गों की सुरक्षा-व्यवस्था से भी व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला। उसने मुकद्दमों को आदेश दिया था कि वे व्यापारियों को समस्त सुविधाएँ प्रदान करेंगे तथा उनके जान-माल रक्षा करेंगे। अगर किसी व्यापारी का माल चोरी हो जाता था तो स्थानीय अधिकारियों को क्षतिपूर्ति करनी पड़ती थी। इस प्रकार शेरशाह की व्यवस्था व्यापार-वाणिज्य की उन्नति में सहायक हुई।
सड़कों का निर्माण (Construction of Roads)
शेरशाह के प्रशासन की एक महान उपलब्धि सड़कों तथा सरायों का निर्माण करना था। सड़कें किसी भी राष्ट्र के विकास व्यवस्था की धुरी मानी जाती हैं। शेरशाह सूरी ने राजधानी तथा मुख्य नगरों को जोड़ने वाली सड़कों का निर्माण कराया जिससे साम्राज्य के दृढ़ीकरण के साथ-साथ व्यापार तथा आवागमन की भी उन्नति हुई। उसने मुख्य रूप से चार सड़कों का निर्माण करवाया जिनमें पहली सड़क बंगाल के सोनारगाँव से सिंध नदी तक दो हजार मील लंबी थी, जिसे ‘सड़क-ए-आजम’ के नाम से जाना जाता था। दूसरी सड़क आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ होते हुए गुजरात के बंदरगाहों तक जाती थी। तीसरी सड़क आगरा से बुरहानपुर तक जाती थी। उसने लाहौर से मुल्तान तक चौथी सड़क का निर्माण करवाया क्योंकि मुल्तान उस समय व्यापार का मुख्य केंद्र था और मध्य एशिया के व्यापारिक काफिले यहाँ रुकते थे। उसने यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये और जगह-जगह पर सरायों, मस्जिदों और कुंओं का निर्माण करवाया था
सरायों का निर्माण (Building Inns)
यात्रियों एवं व्यापारियों की सुविधा और सुरक्षा के लिए शेरशाह ने सड़कों पर प्रत्येक दो कोस (लगभग आठ) किलोमीटर पर सरायों का निर्माण कराया। इन सरायों में हिंदू और मुसलमान दोनों धमो्रं के यात्रियों के लिए रहने-खाने तथा सामान सुरक्षित रखने की अलग-अलग व्यवस्था होती थी। हिंदू यात्रियों को भोजन और बिस्तर देने के लिए ब्राह्मण नियुक्त किये जाते थे। अब्बास खाँ लिखता है कि जो भी इन सरायों में ठहरते थे, उन्हें उनके पद के अनुसार सरकार की ओर से सारी सुविधाएँ दी जाती थीं। सरायों की व्यवस्था के लिए आसपास गाँव की कुछ जमीन अलग से दी गई थी। प्रत्येक सराय में एक शहना (सुरक्षा अधिकारी) के अधीन कुछ चौकीदार होते थे।
शेरशाह के समय में सरायों का प्रयोग डाक-चौकियों के रूप में किया जाता था। प्रत्येक सराय में डाक को लाने-ले जाने के लिए दो घोड़े सदैव तैयार रहते थे जिनके माध्यम से संदेश-वाहक एक स्थान से दूसरे स्थान एवं सुलतान तक संवाद पहुँचाया करते थे। कालिकारंजन कानूनगो ने इन सरायों को शेरशाह के ‘साम्राज्य की धमनियाँ’ कहा है।
यात्रियों और व्यापारियों की सुरक्षा: शेरशाह पहला मुस्लिम शासक था, जिसने यातायात की उत्तम व्यवस्था के साथ-साथ यात्रियों एवं व्यापारियों की सुरक्षा का भी संतोषजनक प्रबंध किया था। किसी यात्री या व्यापारी के साथ कोई वारदात होने पर संबंधित क्षेत्र के मुकद्दम या जमींदार को उत्तरदायी माना जाता था और उसे संपूर्ण नुकसान की भरपाई करनी पड़ती थी। अब्बास सरवानी की चित्रमय भाषा में एक जर्जर बूढ़ी औरत भी अपने सिर पर जेवरात की टोकरी रखकर यात्रा पर जा सकती थी, और शेरशाह की सजा के डर से कोई चोर या लुटेरा उसके नजदीक नहीं आ सकता था।
सार्वजनिक निर्माण (Public Constructions)
इसमें कोई संदेह नहीं है कि शेरशाह का व्यक्तित्व असाधारण था। उसने पाँच साल के शासन की छोटी-सी अवधि में चार प्रमुख सड़कों तथा 1700 सरायों के अतिरिक्त अनेक ऐतिहासिक दुर्गों एवं भवनों का भी निर्माण कराया। उसने झेलम नदी के तट पर रोहतासगढ़ किले का निर्माण करवाया एवं कन्नौज के स्थान पर ‘शेरसूर’ नामक नगर बसाया। 1541 ई. में शेरशाह ने ही पाटलिपुत्र को ‘पटना’ के नाम से पुनः स्थापित किया। उसने हुमायूँ द्वारा निर्मित ‘दीनपनाह’ को तुड़वाकर उसके ध्वंशावशेषों से दिल्ली में ‘पुराने किले’ का निर्माण करवाया। किले के अंदर उसने ‘किला-ए-कुहना’ मस्जिद का निर्माण करवाया, जो इंडो-इस्लामिक शैली का अच्छा उदाहरण है। यही नहीं, सासाराम में झील के अंदर ऊँचे टीले पर शेरशाह द्वारा बनवाया गया अपना स्वयं का मकबरा उसके महान व्यक्तित्व का प्रतीक है। लाल बलुआ पत्थर के इस मकबरे का डिजाइन वास्तुकार मीर मुहम्मद अलीवाल खाँ ने तैयार किया था। कनिंघम ने इस मकबरे को ताजमहल से भी श्रेष्ठ बताया है।
शेरशाह स्वयं विद्वान था और सिकंदरनामा, गुलिस्ताँ और बोस्ताँ आदि ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया था। उसने शिक्षा के प्रसार के लिए अनेक मदरसों का निर्माण कराया और विद्वानों को संरक्षण दिया। मलिक मुहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ जैसी हिंदी की कुछ श्रेष्ठ रचनाएँ उसी के शासनकाल में लिखी गई थीं।
धार्मिक सहिष्णुता (Religious Tolerance)
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि शेरशाह कट्टर सुन्नी मुसलमान था जो न केवल दिन में पाँच बार नमाज ही पढ़ता था, बल्कि रमजान में रोजे भी रखता था। उसने रायसीन शासक पूरनमल के विरूद्ध जिस प्रकार धार्मिक आधार पर आक्रमण कर नृशंसतापूर्ण अत्याचार किया था, उस आधार पर उसे धर्म-सहिष्णु शासक नहीं माना जा सकता है। किंतु डॉ. कानूनगो जैसे इतिहासविद् शेरशाह को एक धर्म-सहिष्णु शासक मानते हैं। यद्यपि उसने कभी-कभार युद्ध को जीतने के लिए धर्म का आश्रय लिया था, किंतु शांतिकाल में उसने धर्म को राजनीति से जोड़ने का कभी प्रयास नहीं किया। उसने हिंदुओं के साथ कोई भेदभाव नहीं किया और योग्यता के अनुसार महत्त्वपूर्ण नौकरियाँ हिंदुओं को दी थीं। उसकी सेना में हिंदू सैनिकों की अच्छी-खासी संख्या थी। राजा टोडरमल खत्री ने भूमि-कर संबंधी अपना प्रारंभिक अनुभव शेरशाह के अधीन काम करते हुए ही प्राप्त किया था। भूमि-कर संबंधी पत्र-व्यवहार फारसी भाषा के साथ-साथ देवनागरी लिपि में भी होते थे। उसने अपने सिक्कों पर अपना नाम हिंदी में भी लिखवाया था।
शेरशाह का महत्त्व (Importance of Sher Shah)
शेरशाह का एक मुख्य योगदान यह है कि उसने अपने संपूर्ण साम्राज्य में कानून और व्यवस्था को फिर से स्थापित किया। यद्यपि उसने किसी नवीन व्यवस्था का निर्माण नहीं किया, फिर भी उसने पूर्ववर्ती प्रशासन को नवीन उद्देश्य और प्रेरणा प्रदान की। वह जमीनी स्तर से उठकर सम्राट बना था, इसलिए उसने अपने अल्प शासनकाल में प्रजा के हित से जुड़े अधिकांश मुद्दों को हल करने का प्रयास किया। उसने राजस्व, प्रशासन, कृषि, परिवहन, संचार-व्यवस्था के लिए जो काम किया, वह आज के शासकों के लिए भी अनुकरणीय है। धार्मिक कट्टरता के उस युग में शेरशाह ने एक धर्म सहिष्णु सम्राट के रूप में अकबर की उदार नीति के लिए मार्ग प्रशस्त किया तथा उसका पथ-प्रदर्शक था।