शेरशाह का आरंभिक जीवन (Sher Shah’s Early Iife)

शेरशाह सूरी के बचपन का नाम फरीद था। उसके पिता हसन खाँ तथा पितामह इब्राहिम सूर बहलोल लोदी के समय में पेशावर के निकटवर्ती पहाड़ी प्रदेश रोह से भारत आकर पंजाब के बजवाड़ा में बस गये थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि फरीद का जन्म 1472 ई. में सासाराम में हुआ था, किंतु अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार फरीद का जन्म 1485-86 ई. में बजवाड़ा (हरियाणा) में ही हुआ था। फरीद के जन्म के कुछ दिनों बाद इब्राहिम खाँ सूर ने हिसार फिरोजा के सूबेदार जमाल खाँ और हसन खाँ ने उमर खाँ के यहाँ नौकरी कर ली। इब्राहिम खाँ सूर की मृत्यु के बाद हसन खाँ जमाल खाँ की सेवा में आ गया। जब सिकंदर लोदी ने जमाल खाँ को जौनपुर (बिहार) का सूबेदार नियुक्त किया तो हसन खाँ भी अपने मालिक के साथ जौनपुर चला आया। हसन की सेवा से खुश होकर जमाल खाँ ने उसको सासाराम, खवासपुर और टांडा के परगने जागीर के रूप में दे दिये। सोन नदी के किनारे सासाराम में ही फरीद ने अपनी तरुणावस्था के प्रारंभिक वर्ष व्यतीत किये थे।

पारिवारिक विवाद: फरीद के पिता हसन खाँ ने एक विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त तीन दासियों को भी हरम में रख लिया था जिनसे आठ संतानें थीं। फरीद खाँ और निजाम खाँ एक ही अफगान माता से पैदा हुए थे, किंतु शेष छह पुत्र- अली, यूसुफ, खुर्रम या मुदहिर, शाखी खाँ, सुलेमान और अहमद- इन्हीं दासियों की संतान थे। यद्यपि बजवाड़ा से बिहार पहुँचकर तथा वहाँ बड़ी जागीर पा जाने से हसन खाँ का दर्जा बढ़ गया था, किंतु फरीद और निजाम तथा उनकी माता के प्रति हसन के व्यवहार में अवनति होती गई और कौटुंबिक विवाद खड़ा होने लगा। इस विवाद का प्रमुख कारण यह था कि हसन खाँ अपनी सबसे छोटी पत्नी के प्रति अधिक आसक्त था, इसलिए वह फरीद और निजाम खाँ की माँ की ओर कोई ध्यान नहीं देता था।

जौनपुर में फरीद की शिक्षा : पिता की उदासीनता, विमाता की निष्ठुरता और परिवार के विद्वेषमय वातावरण से तंग आकर 22 वर्षीय फरीद ने सासाराम छोड़कर जौनपुर चला आया। उस समय जौनपुर इस्लामी संस्कृति और विद्या का केंद्र था और ‘भारत का सिराज’ समझा जाता था। जौनपुर में जमाल खाँ ने उसके विद्याध्ययन की व्यवस्था की। यहाँ फरीद ने फारसी, तुर्की, तथा हिंदी आदि भाषाओं का अध्ययन किया। उसने अरबी, व्याकरण पढी और फारसी के सुप्रसिद्ध ग्रंथ-रत्न ‘गुलिस्ताँ’, ‘बोस्ताँ’ और ‘सिकंदरनामा’ को कंठस्थ कर लिया। फरीद की कुशाग्र-बुद्धि और असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर जमाल खाँ ने हसन को अपने पुत्र से सद्व्यवहार करने का निर्देश दिया जिसको स्वीकार कर हसन ने फरीद को अपनी जागीर का प्रबंधक नियुक्त कर दिया।

जागीर के प्रबंधक के रूप में: जौनपुर से अपनी पढ़ाई पूरा करने के बाद फरीद सासाराम वापस आ गया और लगभग 21 वर्षों अर्थात् 1497-1518 ई. तक अपने पिता की जागीर की देख-रेख व प्रबंध किया। कृषकों के कल्याण के लिए उसने लगान-संबंधी एक श्रेष्ठ व्यवस्था स्थापित की जो भूमि की नाप-जोख, उसके वर्गीकरण और उसमें होने वाली पैदावार पर आधारित थी। उसने उदंड जमींदारों का दमन किया और भ्रष्टाचारी लगान अधिकारियों को दंडित किया। फरीद की प्रबंध-कुशलता, परगनों की शांति और समृद्धि से हसन खाँ अत्यधिक प्रभावित था। परंतु पारिवारिक अशांति बनी रही। अंत में विमाता के दुर्व्यवहार और पिता के पक्षपात के कारण फरीद 1518 ई. में घर से छोड़कर आगरा चला गया।

आगरा में फरीद : आगरा में फरीद ने सुल्तान इब्राहीम लोदी से प्रार्थना की कि उसके पिता की जागीर उसे सौंप दी जाए, किंतु सुल्तान ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। संयोगवश इसी वर्ष (1520 ई.) हसन की मृत्यु हो गई और सुल्तान इब्राहीम ने फरीद की प्रार्थना स्वीकार कर सासाराम और खवासपुर-टाँडा की जागीर उसे सौंप दी।

जागीर के उत्तराधिकार का झगड़ा : किंतु सुल्तान द्वारा प्रदान की गई पिता की जागीर से भी उत्तराधिकार का झगड़ा समाप्त नहीं हुआ और उसके सौतेले भाई सुलेमान ने, जो हसन के अंतिम दिनों में जागीर की देखभाल करने लगा था, भागकर चौंद (वर्तमान चौनपुर) के जागीरदार मुहम्मद खाँ सूर के पास चला गया। मुहम्मद खाँ, जो हसन खाँ से द्वेष रखता था, चाहता था कि हसन खाँ की जागीर को फरीद और उसके सौतेले भाइयों में बाँट दिया जाए। किंतु फरीद विभाजन के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि जागीर उसने सुल्तान से प्राप्त किया था।

बहार खाँ नुहानी (मुहम्मदशाहकी सेवा में फरीद :

अब फरीद ने दक्षिण बिहार के लोदी सूबेदार बहार खाँ नुहानी के यहाँ नौकरी कर ली ताकि उसके समर्थन से जागीर वापस मिल जाए। इसी समय पानीपत के युद्ध (1526 ई.) में इब्राहिम लोदी मारा गया। बहार खाँ नुहानी ने सुल्तान मुहम्मदशाह की उपाधि धारण की और अपनी स्वतंत्रता का घोषणा कर दी। सुल्तान मुहम्मदशाह फरीद की योग्यता से बहुत प्रभावित था। एक दिन शिकार के समय फरीद ने एक शेर को तलवार के एक वार से ही मार दिया, जिससे प्रसन्न होकर सुल्तान मुहम्मदशाह ने फरीद को शेर खाँ की उपाधि प्रदान की और अपने अल्पवयस्क पुत्र जलाल खाँ का शिक्षक का नियुक्त कर दिया।

शेर खाँ सुल्तान मुहम्मद (बहार खाँ नुहानी) के दरबार में भी सुरक्षित नहीं रह सका क्योंकि सूर कबीले का सदस्य होने के कारण वह नुहानी अफगानों की आँख में खटकता था। फलतः शेर खाँ ने कड़ा और मानिकपुर के मुग़ल गवर्नर जुन्नैद बरलास से संपर्क स्थापित किया और उसके द्वारा अप्रैल 1527 ई. में मुग़ल सेना में शामिल हो गया।

मुगलों की सेवा में शेर खाँ : शेर खाँ मुगल सेना में लगभग 15 महीने रहा। जब बाबर ने बिहार के अफग़ानों पर चढ़ाई की, तो शेर खाँ की सेवाएँ काफी लाभदायक सिद्ध हुईं। मार्च 1528 ई. में शेरखाँ ने जुनैद बरलास की सहायता से सासाराम, खवासपुर-टाँडा की जागीर पर पुनः अधिकार कर लिया। इस दौरान उसने मुगलों के सैनिक संगठन, सैनिक चालें, तोपखाने के प्रयोग का अध्ययन किया और यह अनुभव किया कि मुगल प्रशासन तथा सैन्य-विधान में अनेक कमियाँ हैं। यदि प्रयत्न किया जाए तो एक बार फिर अफगान साम्राज्य पुनर्स्थापना की जा सकती है। कहा जाता है कि उसने एक बार अफगानों से कहा भी था कि ‘‘यदि ईश्वर ने मेरी सहायता की और भाग्य ने मेरा साथ दिया तो मैं सरलता से मुगलों को भारत से निकाल दूँगा।’’

बाबर को इस महत्वाकांक्षी अफगान पर संदेह हो गया था। उसने अपने पुत्र हुमायूँ को शेर खाँ से सतर्क रहने की सलाह थी: ‘‘शेर खाँ पर नजर रखना, वह चालाक आदमी है और उसके माथे पर राजत्व के लक्षण दिखाई देते हैं।’’ शेर खाँ को भी लगा कि मुगलों के साथ उसका निर्वाह नहीं होगा।

पुनः मुहम्मदशाह (बहार खाँ नुहानी) की सेवा में शेर खाँ : 1528 ई. के अंत में शेर खाँ मुग़लों की नौकरी छोड़कर पुनः बिहार के सुल्तान मुहम्मद (बहार खाँ नुहानी) के पास आ गया। सुल्तान ने भी उसका स्वागत किया और उसे अपने अल्पवयस्क पुत्र जलाल खाँ का शिक्षक नियुक्त कर दिया। कुछ समय बाद ही 1528 ई. में सुल्तान मुहम्मदशाह की मृत्यु हो गई और उसका उत्तराधिकारी जलाल खाँ नाबालिग था। सुल्तान मुहम्मदशाह की विधवा पत्नी दूदू बीबी बालक सुल्तान की संरक्षिका नियुक्त हुई। उसने शेर खाँ को अपना वकील नियुक्त किया। डिप्टी गवर्नर की हैसियत से शेर खाँ ने शासन-व्यवस्था का पुनः संगठन किया, फौजों के अनेक दोषों को दूर किया और जलाल खाँ के प्रति स्वामिभक्ति और सेवा-भाव रखते हुए अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने लगा।

किंतु 1529 ई. में इब्राहिम लोदी का भाई महमूद खाँ लोदी अफगान सरदारों के निमंत्रण पर बिहार आ गया जिससे स्थिति बदल गई। महमूद खाँ लोदी मार्च, 1527 ई. में खानवा की लड़ाई में राणा संग्रामसिंह की ओर से लड़ा था और पराजय के बाद मेवाड़ चला गया था। महमूद खाँ ने जलाल खाँ से समझौता कर सुल्तान की उपाधि धारण की और मुगलों से निर्णायक युद्ध करने का फैसला किया।

 

शेर खाँ का उत्थान : शेर खाँ महमूद लोदी की अयोग्यता और अफगान सरदारों के पारस्परिक द्वेषों से परिचित था। वह बाबर के विरुद्ध लड़ना नहीं चाहता था, इसलिए वह बड़ी अनिच्छा से अफगान सेना में सम्मिलित हुआ। 1529 ई. में घाघरा के युद्ध में अफगान सेना पराजित हुई। चूंकि शेर खाँ ने युद्ध में भाग नहीं लिया था, इसलिए बाबर ने बिहार से आगरा लौटते समय जब जलाल खाँ को बिहार का अधीनस्थ शासक नियुक्त किया तो उसे यह आदेश दिया कि वह शेर खाँ को ही अपना संरक्षक और डिप्टी गवर्नर नियुक्त करे। इसके कुछ समय बाद दूदू बीबी की मृत्यु हो गई और संपूर्ण शासन-सत्ता शेर खाँ के अधीन हो गई। जलाल खाँ अभी नाबालिग और नाममात्र का ही शासक था। शेर खाँ शासन का पुनर्गठन करने और सेना में सूर कबीले के अफगानों को भरती करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के कार्य में लगा रहा।

बिहार तथा बंगाल का शासक शेर खाँ : शेर खाँ की बढ़ती हुई शक्ति तथा सूर कबीले के अफगानों के बढ़ते हुए प्रभाव से नुहानी अफगान अमीर सशंकित हो गये। उन्होंने शेर खाँ को हटाने के लिए बंगाल के शासक नुसरतशाह (1518-32 ई.) से सहायता माँगी। नुसरतशाह भी बिहार को अपने नियंत्रण में करना चाहता था, इसलिए उसने 1529 ई. में दक्षिण बिहार पर आकमण कर दिया। किंतु शेर खाँ ने नुसरतशाह को बुरी तरह पराजित कर किया, जिससे शेर खाँ की प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई।

इसके बाद भी नुहानी अमीर शेर खाँ के विरुद्ध षड्यंत्र करते रहे। शेर खाँ ने अफगान एकता की दृष्टि से नुहानी सरदारों से समझौता करने का बहुत प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। अब वयस्क हो जाने के कारण जलाल खाँ भी शेर खाँ से अपना पीछा छुड़ाना चाहता था, इसलिए उसने भी अफगान सरदारों के साथ बंगाल के शासक नुसरतशाह से सहायता माँगी। शेर खाँ इन घटनाओं से अनजान नहीं था। उसने भी अपनी पूरी सैनिक तैयारी कर ली। फलत: जलाल खाँ और नुहानी सरदार शेर खाँ से भयभीत होकर बंगाल भाग गये। अब बिहार पर शेरखाँ की पूर्ण सत्ता स्थापित हो गई। लेकिन उसने कोई राजसी उपाधि धारण नहीं की, बल्कि ‘हजरते आला’ की उपाधि धारण करके ही राजकार्य का संचालन करता रहा।

शेर खाँ का मुगलों से संघर्ष: बिहार पर अधिकार करके शेर खाँ ने मुगलों के किसी क्षेत्र या अधिकार का अतिक्रमण नहीं किया था। लेकिन चुनारगढ़ के प्रश्न पर शेर खाँ और हुमायूँ का पहली बार आमना-सामना हुआ। चुनारगढ़ के अफगान किलेदार ताज खाँ ने बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 1529 ई में ताज खाँ की मृत्यु के बाद उसकी विधवा लाड मलिका और उसके सौतेले पुत्रों के बीच विवाद हो गया, जिसका लाभ उठाकर शेर खाँ ने लाड मलिका से विवाह करके चुनार का दुर्ग तथा वहाँ पर छिपा हुआ खजाना भी प्राप्त कर लिया था। इससे शेर खाँ की शक्ति और संसाधनों में काफी वृद्धि हो गई थी।

शेर खाँ-हुमायूँ समझौता : अगस्त, 1532 ई. में दोहरिया के युद्ध में महमूद लोदी के नेतृत्ववाली अफगान सेना को पराजित कर हुमायूँ ने पूर्व की ओर बढ़कर शेर खाँ के विरुद्ध कार्यवाही की और ‘पूर्वी भारत का द्वार’ माने जाने वाले चुनार किले का घेरा डाल दिया। चुनारगढ़ की चार महीने की घेरेबंदी के बाद शेर खाँ और हुमायूँ में एक समझौता हो गया जिसके अनुसार शेर खाँ ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली और अपने तीसरे पुत्र कुतुब खाँ को पाँच सौ सैनिकों की एक अफगान सैनिक टुकड़ी के साथ हुमायूँ की सेवा में बंधक के रूप में रख दिया। इसके बदले में शेर खाँ को चुनार का किला मिल गया।

बंगाल पर विजय : जलाल खाँ नुहानी अफगान सरदारों के साथ बंगाल भाग गया था और चुनारगढ़ पर घेरा डालते समय बंगाल के शासक ने बिहार के साथ शत्रुता का व्यवहार किया था। अतः शेर खाँ का बंगाल के सुल्तान से युद्ध होना अपरिहार्य था। इसके लिए शेर खाँ को अवसर भी मिल गया। बंगाल के शासक नुसरतशाह की 1532 ई. में मृत्यु हो गई और बंगाल में अराजकता फैल गई। नुसरतशाह के पुत्र अलाउद्दीन फिरोज की हत्याकर उसका भाई गयासुद्दीन महमूद सुल्तान बन गया था। शेर खाँ ने अपने पुत्र कुतुब खाँ को, जो हुमायूँ के साथ गुजरात अभियान में था, बुला लिया और अलाउद्दीन फिरोज की हत्या का बहाना बनाकर 1533 ई. में बंगाल पर आक्रमण कर दिया। शेर खाँ ने 1534 ई. में ‘सूरजगढ़ की प्रसिद्ध लड़ाई’ में बंगाल की सेना ने पराजित कर दिया। इस विजय से प्रेरित होकर शेर खाँ ने 1535 ई. में फिर बंगाल पर आक्रमण किया और तेलियागढी, जिसे बंगाल का प्रवेश द्वार माना जाता था, तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया।

गयासुद्दीन महमूद ने चिनसुरा के पुर्तगालियों की सहायता से तेलियागढ़ी को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न किया, लेकिन शेर खाँ बड़ी चालाकी से बंगाल की राजधानी गौड़ पहुँच गया। अंत में, 1536 ई. में गयासुद्दीन महमूद ने 13 लाख स्वर्ण-मुद्रा देकर शेर खाँ की अधीनता स्वीकार कर ली।

अगले वर्ष 1537 ई. में खिराज वसूलने के लिए शेर खाँ ने पुनः बंगाल पर आक्रमण किया और बंगाल की राजधानी गौड़ और रोहतासगढ़ के प्रसिद्ध किले अधिकार कर लिया। अब गयासुद्दीन महमूद ने हुमायूँ से सहायता करने की याचना की।

शेर खाँ बिहार का निर्विरोध स्वामी बन चुका था और उसके नेतृत्व में अफगान लड़ाके इकट्ठे हो गये थे। इस समय उसके पास एक कुशल और बृहद सेना थी जिसमें 1200 हाथी भी थे। यद्यपि वह अब भी मुगलों के प्रति वफादारी की बात करता था, लेकिन उसने मुगलों को भारत से निकालने के लिए बड़ी चालाकी से योजना बनाई। उसका गुजरात के बहादुरशाह से गहरा संपर्क था। बहादुरशाह ने हथियार और धन आदि से उसकी बड़ी सहायता भी की थी।

चौसा तथा कन्नौज के युद्ध (Battle of Chausa and Kannauj)

हुमायूँ को स्थिति की गंभीरता का ज्ञान तब हुआ जब गयासुद्दीन महमूद ने उससे सहायता माँगी। किंतु अक्टूबर 1537 ई. से मार्च 1538 ई. तक का बहुमूल्य समय हुमायूँ ने चुनार के घेरे में गँवा दिया। यद्यपि मार्च 1538 ई. में मुगलों ने चुनार दुर्ग को जीत लिया, परंतु इस बीच शेर खाँ ने अपनी बंगाल विजय का कार्य पूरा कर लिया और अपने परिवार तथा कोष को रोहतासगढ़ के सुदृढ़ दुर्ग में भेज दिया।

चुनार की सफलता से उत्साहित हुमायूँ बंगाल की राजधानी गौड़ की ओर बढ़ा, परंतु वह अभी वाराणसी में ही था कि शेर खाँ ने हुमायूँ के पास प्रस्ताव भेजा कि यदि उसके पास बंगाल रहने दिया जाए तो वह बिहार उसे दे देगा और दस लाख सलाना कर भी देगा। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि इस प्रस्ताव में शेर खाँ कितना ईमानदार था, लेकिन हुमायूँ ने शेर खाँ के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और बंगाल पर चढ़ाई करने का निर्णय लिया।

शेर खाँ बंगाल छोडकर दक्षिण बिहार पहुँच चुका था। उसने बिना किसी प्रतिरोध के हुमायूँ को बंगाल की ओर बढ़ने दिया ताकि वह हुमायूँ की रसद और संचार-पंक्ति को तोड़ सके और उसे बंगाल में फँसा सके। हुमायूँ बिना किसी प्रतिरोध के 15 अगस्त, 1538 ई. को बंगाल के गौड़ क्षेत्र में पहुँच गया। गौड़ पहुँचकर उसने इस स्थान का पुनर्निर्माण कर इसका नाम ‘जन्नताबाद’ रखा। इस बीच शेर खाँ को चुनार तथा जौनपुर पर पुनः अधिकार कर लिया और आगरा तथा गौड़ के बीच की हुमायूँ की सप्लाई रेखा को काट दिया। अब हुमायूँ को स्थिति की गंभीरता का आभास हुआ और उसने आगरा की ओर प्रस्थान किया।

चौसा का युद्ध : शेर खाँ की ओर से शांति के एक प्रस्ताव से धोखा खाकर हुमायूँ कर्मनाशा नदी के पूर्वी किनारे पर चौसा आ गया। 26 जून, 1539 ई. को अचानक शेर खाँ ने तीन ओर से मुगल सेनाओं का आक्रमण कर दिया जिसमें लगभग 7,000 मुगल सैनिक और सरदार मारे गये। चौसा के युद्ध में मुगलों की करारी हार हुई और हुमायूँ बड़ी मुश्किल से भागकर निजाम नामक भिश्ती की मदद से अपनी जान बचा सका।

चौसा की विजय के बाद अफगान सरदारों के आग्रह पर शेर खाँ ने अपना राज्याभिषेक कराया, ‘शेरशाह आलम सुल्तान-उल-आदिल’ की उपाधि धारण की और अपने नाम के सिक्के चलाये।

कन्नौज का युद्ध : चौसा की पराजय के बाद हुमायूँ ने आगरा पहुँचकर अपने भाइयों और सरदारों से सहायता की प्रार्थना की। लेकिन कोई भी उसकी सहायता करने को तैयार नहीं हुआ। फलतः हुमायूँ जल्दबाजी में एक सेना एकत्र कर शेरशाह का सामना करने के लिए कन्नौज पहुँच गया। 17 मई, 1740 ई. को शेरशाह और हुमायूँ के बीच कन्नौज का युद्ध हुआ, जिसमें हुमायूँ पराजित हुआ और युद्ध-क्षेत्र से भाग निकला। हुमायूँ पीछा करते हुए शेरशाह आगरा पहुँच गया, जहाँ 10 जून, 1540 ई. को उसका विधिवत् राज्याभिषेक हुआ और वह भारत का सम्राट बन गया।

शेरशाह का शासन और उपलब्धियाँ (Sher Shah’s Rule and Achievements)

पंजाब की विजय : शेरशाह हुमायूँ से दिल्ली तथा आगरा छीन लेने से ही संतुष्ट नहीं हुआ। शेरशाह का उद्देश्य मुगलों को पंजाब से निकाल देना था। वह हुमायूँ का पीछा करते-करते पंजाब की बढ़ा तो कामरान काबुल चला गया और हुमायूँ को बाध्य होकर सिंध की ओर भागना पड़ा। नवंबर 1540 ई. में शेरशाह ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।

गक्खर और बलूच क्षेत्र की विजय : उत्तर-पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए शेरशाह ने गक्खरों तथा बलूचों को नियंत्रण में लाने का प्रयास किया क्योंकि गक्खर लोग मुगलों के मित्र थे। शेरशाह ने गक्खर प्रदेश पर आक्रमण करके इसे बुरी तरह नष्ट कर दिया। फिर भी शेरशाह गक्खर जाति को समाप्त करने के अपने लक्ष्य को तो पूरा नहीं कर सका, लेकिन गक्खरों की शक्ति कम अवश्य हो गई। शेरशाह ने अपनी उत्तरी-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करने और गक्खरों पर प्रभावी नियंत्रण के लिए झेलम के निकट एक विशाल दुर्ग का निर्माण कराया, जिसका नाम उसने ‘रोहतास’ रखा। इस दुर्ग में उसने हैबत खाँ एवं ख्वास खाँ के नेतृत्व में 50 हजार अफगान सैनिकों की एक टुकड़ी को स्थायी रूप से नियुक्त कर दिया।

बंगाल की पुनर्विजय : जब शेरशाह उत्तर-पश्चिम में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर रहा था, उसे सूचना मिली कि बंगाल के सूबेदार खिज्रखाँ ने बंगाल के पूर्व सुल्तान महमूद की पुत्री से विवाह कर लिया है और विद्रोह करके स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहा है। शेरशाह तुरंत गौड़ पहुँचा और खिज्रखाँ को बंदी बना लिया।

भविष्य में बंगाल में इस प्रकार के विद्रोह की पुनरावृत्ति रोकने के लिए शेरशाह ने यहाँ एक नवीन प्रशासनिक व्यवस्था को प्रारंभ किया। उसने सूबेदारी की परंपरा को समाप्त कर संपूर्ण बंगाल प्रांत को कई सरकारों (जिलों) में बाँट दिया। प्रत्येक सरकार में ‘शिकदार’ नियुक्त किये गये, जिसके पास शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक छोटी-सी सेना थी। शिकदारों की नियुक्ति शेरशाह स्वयं करता था और सभी शिकदार व्यक्तिगत रूप से सम्राट के प्रति उत्तरदायी थे। शिकदारों पर नियंत्रण रखने के लिए एक गैर-सैनिक अधिकारी ‘अमीन-ए-बंगला’ की नियुक्ति की गई। सर्वप्रथम यह पद काजी फजीलात को दिया गया था।

मालवा की विजय : बंगाल से आगरा वापस आने के बाद शेरशाह ने 1542 ई. में मालवा पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के कई कारण थे- एक, हुमायूँ ने मालवा की विजय की थी और शेरशाह उन समस्त प्रदेशों को जीतना चाहता था जो मुगल साम्राज्य में रह चुके थे। दूसरे, गुजरात के शासक बहादुरशाह की मृत्यु के बाद मालवा का सूबेदार मल्लू खाँ ‘कादिरशाह’ के नाम से मालवा का स्वतंत्र शासक बन गया था। उसने शेरशाह के पुत्र कुतब खाँ की समय पर सहायता नहीं की थी जिसके कारण हुमायूँ के भाइयों- अस्करी और हिंदाल ने कुतुब खाँ को 1540 ई. में मार दिया था। अतः शेरशाह कादिरशाह से रुष्ट था।

मालवा की ओर जाते हुए शेरशाह ने अप्रैल, 1542 ई. में ग्वालियर के किले पर अधिकार कर लिया और वहाँ के शासक पूरनमल को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद शेरशाह सारंगपुर पहुँचा जहाँ मालवा के सुल्तान कादिरशाह ने उपस्थित होकर शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। शेरशाह ने कादिरशाह के साथ अच्छा व्यवहार किया और उसको लखनौती (कहीं-कहीं कालपी मिलता है) का गवर्नर नियुक्त किया, किंतु कादिरशाह शेरशाह से भयभीत होकर अपने परिवार के साथ गुजरात के सुल्तान महमूद तृतीय की की शरण में चला गया। शेरशाह ने सुजात खाँ को मालवा का गर्वनर नियुक्त कर दिया।

रायसीन की विजय : रायसीन का शासक पूरनमल 1542 ई. में शेरशाह की सेवा में उपस्थित हुआ था और राजसी भेंट प्रदान कर उसका सम्मान किया था। कहा जाता है कि शेरशाह को रायसीन पर इसलिए आक्रमण करना पड़ा था क्योंकि उसे शिकायत मिली थी कि पूरनमल मुसलमानों पर अनुचित तौर पर अत्याचार कर रहा था। सच तो यह है कि अफग़ान बादशाह रायसीन की समृद्धशाली रियासत पर पहले से ही आँखें गड़ाये हुए था। शेरशाह 1543 ई. में आगरा से चलकर मांडू होते हुए रायसीन पहुँचा और किले का घेरा डाल दिया। पूरनमल संभवतः इस संघर्ष के लिए तैयार था क्योंकि किले का घेरा कई महीने तक चलता रहा। अंततः शेरशाह ने चालाकी से पूरनमल को उसके आत्म-सम्मान एवं जीवन की सुरक्षा का वायदा कर आत्म-समर्पण हेतु तैयार कर लिया। परंतु शेरशाह ने एक रात राजपूतों के खेमों पर चारों ओर से आक्रमण कर दिया जिसमें पूरनमल एवं उसके सैनिक बहादुरी से लड़ते हुए मारे गये। ‘पूरनमल के विरुद्ध शेरशाह द्वारा किया गया यह विश्वासघात उसके व्यक्तितत्व पर काला धब्बा है।’

मुल्तान और सिंध की विजय : शेरशाह ने पंजाब के शासन-प्रबंध और गक्खरों की रोकथाम के लिए ख्वास खाँ और हैबत खाँ को छोड़ रखा था। किंतु जब दोनों मिलकर काम नहीं कर सके तो शेरशाह ने ख्वास खाँ को हटाकर हैबत खाँ को इस प्रांत का गवर्नर बना दिया। नये गवर्नर हैबत खाँ ने सरदार फतेह खाँ के केंद्र-स्थान अजोधन (पाकपट्टन) पर अधिकार कर लिया और लाहौर के मार्ग को सुरक्षित किया। इसके बाद हैबत खाँ ने मुल्तान के शासक बख्शू लंगाह को पराजित कर बंदी बना लिया और मुलतान को अफगान साम्राज्य में शामिल कर फतेहजंग खाँ को वहाँ का गवर्नर नियुक्त दिया। शेरशाह ने 1541 ई. में ही सिंध को अपने अधिकार में कर लिया था और इस्लाम खाँ नाम के एक स्थानीय सरदार को यहाँ का शासक बनाया था। इस प्रकार उत्तर-पश्चिम में शेरशाह के राज्य के अंतर्गत पंजाब प्रांत के अतिरिक्त मुल्तान और सिंध भी सम्मिलित थे।

मारवाड़ की विजय : राजस्थान के शक्तिशाली राज्य मारवाड़ पर मालदेव राठौर का शासन था, जिसकी राजधानी जोधपुर थी। पिछले दस वर्षों में उसने निरंतर युद्धों द्वारा अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार कर लिया था। मालदेव की बढ़ती शक्ति को शेरशाह भला कैसे बरदाश्त करता? जब बीकानेर नरेश कल्याणमल तथा मेड़ता के वीरमदेव ने मालदेव के विरुद्ध, जिसने उनके राज्यों को अधिकृत कर लिया था, शेरशाह से सहायता माँगी, तो शेरशाह ने 1544 ई. में जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। राजपूतों ने अफगानों का डटकर मुकाबला किया, लेकिन जब शेरशाह को विजय-प्राप्ति की आशा नहीं दिखी तो उसने चालाकी से मालदेव के सरदारों की ओर से अपने नाम जाली पत्र लिखवाकर मारवाड़ नरेश के खेमे के पास डलवा दिया। इस पत्र को पढ़कर मालदेव को अपने सरदारों के प्रति संदेह हो गया और वह युद्ध का विचार त्यागकर युद्ध-क्षेत्र से भाग गया। इस अपमानजनक स्थिति में भी कुछ राजपूत सरदारों ने शेरशाह पर आक्रमण कर अफगानों के दाँत खट्टे कर दिये। शेरशाह को बरबस कहना पड़ा कि “एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैंने दिल्ली का राज्य लगभग खो दिया था।”

मेवाड़ की विजय : मारवाड़ को जीत लेने के बाद शेरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। राणा सांगा की मृत्यु के बाद से ही मेवाड़ का गौरव लुप्त हो गया था और चित्तौड़ का दरबार षड्यंत्र का केंद्र बन गया था। इस समय यहाँ के अवयस्क प्रशासक का नाम राणा उदयसिंह था। इस स्थिति में जब शेरशाह की सेनाएँ चित्तौड़ पहुँची, तब अवयस्क राजा उदयसिंह ने शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। चित्तौड़ से शेरशाह कछवाहा (आमेर) की ओर गया और रणथम्भौर पर अधिकार कर अपने लड़के आदिल खाँ को यहाँ का गवर्नर नियुक्त कर दिया।

इस प्रकार राजस्थान के अधिकांश क्षेत्रों पर शेरशाह का कब्जा हो गया। किंतु शेरशाह ने बड़ी दूरदर्शिता से राजस्थान के राजपूत राजाओं को विस्थापित करने और उन्हें नितांत परवश बनाने की चेष्टा नहीं की क्योंकि ऐसा करने से राजपूत अफग़ान सत्ता के विरुद्ध संगठित होकर विद्रोह कर सकते थे। शेरशाह ने अजमेर, जोधपुर, माउंट आबू और चित्तौड़ के दुर्गों की किलेबंदी की और प्रमुख महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अपनी चौकियाँ स्थापित कर अफगान सैनिक बलों नियुक्त किया।

कालिंजर विजय और शेरशाह की मृत्यु : राजस्थान की विजय के पश्चात् शेरशाह ने नवंबर, 1544 ई. में बुंदेलखंड के प्रसिद्ध कालिंजर दुर्ग का घेरा डाल दिया, जो उसका अंतिम सैन्य-अभियान साबित हुआ। कालिंजर के राजपूत शासक कीरतसिंह ने शेरशाह के आदेश के विरुद्ध रीवा के शासक वीरभानसिंह बघेला को संरक्षण दिया था। कालिंजर का घेरा एक वर्ष तक चलता रहा। अंत में, 22 मई, 1545 ई. को शेरशाह ने स्वयं आक्रमण का संचालन किया और दुर्ग की दीवारों को बारूद से उड़ाने का आदेश दिया। कहा जाता है कि किले की दीवार से टकराकर लौटे एक गोले के विस्फोट से शरेशाह की 22 मई, 1545 ई. को मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय वह ‘उक्का’ नाम का एक अग्नेयास्त्र चला रहा था। किंतु उसके मरने से पूर्व किले को जीता जा चुका था। ‘इस प्रकार एक महान् राजनीतिज्ञ एवं सैनिक का अंत अपने जीवन की विजयों एवं लोकहितकारी कार्यों के बीच में ही हो गया।’

साम्राज्य विस्तार : शेरशाह सूरी ने अपने पाँच साल के अल्पसमय में एक विशाल साम्राज्य का निर्माण कर लिया था। शेरशाह को इस बात का मलाल रहा कि उसे वृद्धावस्था में राज्य-प्राप्ति हुई। उसका कहना था कि यदि वह युवावस्था में राजा बनता तो शायद उसका साम्राज्य-विस्तार और अधिक होता। फिर भी, 1545 ई. में उसके अधीन एक विशाल साम्राज्य था, जो पूरब में सोनारगाँव से लेकर पश्चिम में गक्खर प्रदेश तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्याचल तक विस्तृत था।

शेरशाह का प्रशासन (Sher Shah’s Administration)

यद्यपि शेरशाह सूरी ने भारत पर केवल पाँच वर्ष राज्य किया, फिर भी, वह वास्तविक अर्थों में एक विजेता होने के साथ ही साथ एक योग्य प्रशासक भी था जिसने अपने विशाल साम्राज्य में एक योग्य तथा कार्य-कुशल प्रशासन लागू किया। वह पहला मुसलमान शासक था जिसने अपने लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए प्रशासनिक ढाँचे में सुधार किया और प्रशासन की कार्यकुशलता को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया।

शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारी (Sher Shah Suri’s Successors)

1540 ई. में हुमायूँ को कन्नौज स्थान पर पराजित करके शेरशाह सूरी ने जिस महान सूर साम्राज्य का निर्माण किया था, वह केवल 16 साल तक ही सुरक्षित रह सका। शेरशाह के उत्तराधिकारी इतने निर्बल और अशक्त थे कि वे उसके द्वारा सुसंगठित साम्राज्य को विघटित होने से बचा नहीं सके और 1556 ई. में पानीपत की दूसरी लड़ाई में मुगलों की विजय से वह छिन्न-भिन्न हो गया।

इस्लामशाह (जलाल खाँ) : यद्यपि मृत्यु से पहले शेरशाह ने अपने बड़े पुत्र आदिल खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियत किया था, किंतु उसकी मृत्यु के तीन दिन बाद अर्थात् 25 मई, 1545 ई. को अफगान सरदारों के सहयोग से उसका छोटा पुत्र जलाल खाँ इस्लामशाह (1545-1553 ई.) की उपाधि धारण कर राजसिंहासन पर बैठा।

राजपद प्राप्त करने से पूर्व जलाल खाँ ने कई अवसरों पर अपनी उत्कृष्ट सैनिक योग्यता का परिचय दिया था। 1531 ई. में उसने चुनारगढ़ की वीरता से रक्षा की थी, 1537 ई. में उसने गौड़ के घेरे में भाग लिया और बंगाल के तेलियागढ़ी में मुग़ल सेना को करारी मात दी थी। 1539 ई. और 1540 ई. में चौसा और कन्नौज के युद्धों में भी उसने अपने अपूर्व पराक्रम और उत्कृष्ट सैनिक योग्यता का परिचय दिया था। रायसीन और जोधपुर के आक्रमणों में भी उसने अपने पिता के साथ सहयोग किया था। इस प्रकार अफगान अमीरों ने एक योग्य उत्तराधिकारी का चुनाव किया था। लेकिन इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि इससे अमीरों को शक्ति में वृद्धि हुई तथा आदिल खाँ और इस्लामशाह के मध्य संघर्ष अनिवार्य हो गया।

निःसंदेह इस्लामशाह शेरशाह की तरह एक योग्य सेनापति एवं कुशल प्रशासक था, किंतु वह संदेही और धोखेबाज था। उसने सशंकित होकर उन सभी अफगान अमीरों की हत्या करवा दी जिन्होंने उससे बचने के लिए विद्रोह किया था। इसमें शेरशाह के प्रमुख अफगान सेनापति हैबतखाँ नियाजी और ख्वासखाँ भी थे।

अपनी योग्यता के बल पर इस्लामशाह 8 वर्ष तक अपने पैतृक साम्राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने में सफल हो सका। 1553 ई. में जब हुमायूँ ने उत्तर-पश्चिम पर आक्रमण किया, इस्लामशाह तुरंत उसका सामना करने के लिए गया और हुमायूँ को वापस जाना पड़ा। लेकिन उसकी संदेही प्रकृति के कारण उसके काल में अफगानों की एकता नष्ट हो गई और अनेक प्रमुख अफगान सरदारों की हत्या से अफगानों की सैनिक शक्ति दुर्बल हो गई।

मुहम्मद आदिलशाह (मुबारिज खाँ) : 1553 ई. में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद उसका अवयस्क पुत्र फिरोज राजगद्दी पर बैठा, परंतु तीन दिन बाद ही उसके मामा मुबारिज खाँ ने उसे मरवा दिया और स्वयं आदिलशाह की उपाधि धारण करके सिंहासन पर बैठ गया। मुबारिज खाँ शेरशाह के छोटे भाई निजाम खाँ का पुत्र था जो अदली के नाम से अधिक प्रसिद्ध था।

आदिलशाह (1553-1555 ई.) एक विलासप्रिय एवं आलसी शासक था। उसने अपना राजकार्य हेमू नाम के एक हिंदू को सौंप रखा था जो कभी रेवाड़ी की सड़कों पर नमक बेचा करता था। आदिलशाह के सिंहासन पर अधिकार कर लेने से सिंहासन के अन्य दावेदार अफगान सरदारों ने उसकी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जिससे सूर साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया तेज हो गई और 1555 ई. तक सूर साम्राज्य तीन भागों में बँट गया। सिंहासन के एक दावेदार इब्राहिमखाँ सूर ने आक्रमण कर दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार कर लिया और इब्राहिमशाह की उपाधि धारण की। फलतः आदिलशाह ने चुनार को अपनी राजधानी बनाया और पूर्व के राज्य से ही संतोष कर लिया। इब्राहिम खाँ कुछ दिन ही शासन कर पाया था कि पंजाब के सूबेदार अहमद खाँ ने उस पर आक्रमण करके दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया तथा सिकंदरशाह की उपाधि धारण की। इब्राहिम खाँ सूर संभल भाग गया। राजस्थान तथा बुंदेलखंड इस्लामशाह के समय में ही सूर साम्राज्य से अलग हो चुके थे और उसकी मृत्यु के पश्चात् बंगाल और मालवा भी स्वतंत्र हो गये। इस प्रकार हुमायूँ को पुनः साम्राज्य प्राप्त करने का अवसर मिल गया। 1554 ई. में हुमायूँ ने सिकंदरशाह की सेना को मच्छीवारा के युद्ध में तथा स्वयं सिकंदरशाह को सरहिंद के युद्ध में 22 जून, 1555 ई. में पराजित कर दिया। इन विजयों से हुमायूँ का पंजाब, दिल्ली और आगरा पर अधिकार हो गया। 1556 ई. में पानीपत की दूसरी लड़ाई में अफगानों की पराजय और अकबर की विजय से सूर साम्राज्य का सदा के लिए अंत हो गया।

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