आर्थिक प्रणाली किसी भी देश में आर्थिक क्रियाओं के संगठन पर प्रकाश डालती है। उत्पादन के साधनों का स्वामित्व निजी व्यक्तियों के हाथों में, सरकार के पास या फिर दोनों के हाथों में होता है। अब स्वामित्व अधिकतर निजी 62 व्यक्तियों के हाथों में हो तो ऐसी आर्थिक व्यवस्था को पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था कहते है। यदि सरकार के हाथ में हो तो इसे समाजवादी अर्थव्यवस्था कहते हे। इंग्लैण्ड, संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी फ्रांस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उदाहरण कहे जा सकते है। चीन, दक्षिणकोरिया आदि समाजवादी अर्थव्यवस्था के उदाहरण कहे जाते है। जब निजी व्यक्तियों और सरकार दोनो बड़ी मात्रा में साधनों के स्वामी हो तो इसे मिश्रित आर्थिक प्रणाली कहते है। 

 

वास्तव में, एक मिश्रित अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों का अनुपात अधिकतर निजी क्षेत्र के पास रहता है जबकि कम लेकिन काफी महत्वपूर्ण, भाग सरकार के हाथ में रहता है। इसीलिये मिश्रित अर्थव्यवस्था को मिश्रित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था भी कहते है। एशिया के अधिकतर देश एवं विश्व के अन्य देश भी इसी वर्ग में आते है। भारत ने भी मिश्रित आर्थिक प्रणाली अपनाई है।

आर्थिक प्रणाली का अर्थ एवं परिभाषा 

आर्थिक प्रणाली समाज की आर्थिक क्रियाओं के संगठन पर प्रकाश डालती है तथा इसमें उपभोग, उत्पादन, वितरण एवं विनिमय के तरीकों का अध्ययन किया जाता है। निजी व्यवसाय का क्षेत्र तथा आर्थिक क्रियाओं में सरकार के हस्तक्षेप की सीमा प्रमुख रूप से आर्थिक प्रणाली की प्रकृति पर निर्भर करती है। आर्थिक प्रणाली के अन्तर्गत वे संस्थाएँ सम्मिलित की जा सकती है, जिन्हें देश या देश का समूह, अपने निवासियों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न साधनों के प्रयोग हेतु अपनाता है। 

 

दूसरे शब्दों में, आर्थिक प्रणाली का अर्थ वैधानिक तथा संस्थागत ढांचे  से हैं, जिसके अन्तर्गत आर्थिक क्रियाएँ संचालित की जाती है। प्रत्येक देश में मानव के आर्थिक जीवन में कम या अधिक राज्य हस्तक्षेप भी पाया जाता है। इसलिए आर्थिक प्रणाली का रूप राज्य के हस्तक्षेप की मात्रा या सीमा पर निर्भर करता है। आर्थिक प्रणाली की एक उचित परिभाषा निम्न प्रकार से दी जा सकती है- “आर्थिक प्रणाली संस्थाओं का एक ढाँचा है, जिसके द्वारा उत्पत्ति के साधनों तथा उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के प्रयोग पर सामाजिक नियन्त्रण किया जाता है।”

आर्थिक प्रणाली के मूल तत्व 

किसी भी देश की आर्थिक प्रणाली देश के सम्पूर्ण घटकों द्वारा निर्धारित होती है, जिसमें तत्त्व शामिल होते हैं-

  1. व्यक्ति  – इसमें देश के भीतर लोगो की विभिन्न भूि मकाओं जैसे- ऋणदाता, ग्राहक, नियोक्ता, कर्मचारी, स्वामी, पूर्तिकर्ता आदि के सहयोग एवं सम्बन्धों से आर्थिक प्रणाली का निर्माण होता है, परन्तु यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि कौन-कौन से व्यक्ति विद्यमान आर्थिक प्रणाली में शामिल हैं।
  2. संसाधन – आर्थिक प्रणाली का संचालन उत्पादन एवं वितरण के विभिन्न साधनों जैसे- भूमि, श्रम, पूँजी, साहस, संगठन तथा बाजार आदि से होता है। ये साधन किसी देश की दशा एवं दिशानिर्धारित करने में महत्वपूर्ण तत्व के रूप में शामिल होते हैं।
  3. प्रतिफल – उत्पादन एवं वितरण के साधन किस प्रेरणा से कार्य करते हैं? साहसी इन्हें कार्य पर क्यों लगाता है? प्रतिफल प्राप्त करने की आशा में ही उत्पादन के समस्त साधन अपने प्रयासों का योगदान करते हैं। इस प्रकार लाभ एवं सामाजिक कल्याण समस्त आर्थिक प्रणालियों का प्रमुख आधार है।
  4. नियमन – समस्त आर्थिक प्रणाली कुछ व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा घटकों से नियमित एवं नियन्त्रित होती है। व्यावसायिक एवं औद्योगिक क्रियाओं का नियमन करने वाले प्रमुख घटक प्रतिस्पध्र्ाी , माँग एवं पूर्ति सरकार आदि हैं।

आर्थिक प्रणाली के महत्वपूर्ण कार्य 

 किसी भी राष्ट्र की आर्थिक प्रणाली द्वारा महत्वपूर्ण निर्णय या कार्य के माध्यम से मानवीय एवं प्राकृतिक संसाधनों का राष्ट्रहित में प्रयोग किया जाता है। इनके द्वारा राष्ट्र की उत्पादन एवं उपभोग की क्रियाओं से सम्बन्धित निर्णय लिये जाते हैं-

  1. कौन सी वस्तु उत्पादित की जाय तथा उत्पादन कितनी मात्रा में हो – किसी देश का सर्वप्रथम कार्य इस बात का निर्धारण करना है कि कौन सी वस्तु का उत्पादन किया जाय ताकि समाज में व्यक्तियों की आवश्यकताएँ पूरी हो सकें, अर्थात प्रत्येक अर्थव्यवस्था को उत्पादन की संरचना का निर्धारण करना पड़ता है। जिन वस्तुओं के उत्पादन का निर्णय लिया जाता है, उसके अनुसार ही अर्थव्यवस्था में सीमित साधनों का वितरण करना होता है, तत्पश्चात् यह निश्चित करना होता है कि उपभोक्ता या पूँजीगत वस्तुओं की कितनी मात्राओं का उत्पादन किया जाय, ताकि माँग एवं पूर्ति में उचित सामंजस्य बना रहे।
  2. वस्तु का उत्पादन कैसे किया जाय –  आर्थिक प्रणाली का दूसरा प्रमुख कार्य है कि, “निर्धारित वस्तुओं का उत्पादन कैसे किया जाय? अर्थात् किन विधियों द्वारा उत्पादन किया जाय? दूसरे शब्दों में, उत्पादन का संगठन कैसे किया जाय? इस कार्य से अभिप्राय है कि विभिन्न उद्योगों में किन फर्मों को उत्पादन करना है तथा वे आवश्यक साधनों को कैसे प्राप्त करेंगी। उत्पादन के लिए सर्वोत्तम तकनीक कौन सी है? आदि का निर्धारण किया जाता है।”
  3. वस्तुओं का वितरण कैसे किया जाय – उत्पादन प्राप्त कर लेने के पश्चात यह प्रश्न उठता है कि उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं को उत्पादकों तथा व्यापारियों, उत्पादकों, सरकार, उपभोक्ताओं तथा परिवारों में किस प्रकार वितरित किया जाय। अर्थात उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं का समाज के विभिन्न जरूरतमन्द वर्गों में वितरण कैसे किया जाय। उपरोक्त तीनों प्रश्नों का हल निकालने के लिए आर्थिक प्रणाली महत्वपूर्ण निर्णय लेती है तथा इस सम्बन्ध में आवश्यक कार्य करती हैं।

आर्थिक प्रणाली के प्रकार 

स्वामित्व के आधार पर आर्थिक प्रणालियों को मोटे तौर पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली 
  2. समाजवादी आर्थिक प्रणाली 
  3. मिश्रित आर्थिक प्रणाली 

पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली 

  1. लूक्स एवं हूट- “पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था है जिसमें प्राकृतिक एवं मनुष्यगत पूँजी पर व्यक्तियों का निजी अधिकार होता है तथा इनका उपयोग वे अपने लाभ के लिए करते हैं।” 
  2. 0सी0 पीगू : ‘‘पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अथवा पूँजीवादी व्यवस्था वह है जिसमें उत्पत्ति के संसाधनों का मुख्य भाग पूँजीवादी उद्योगों में लगा होता है- एक पूँजीवादी उद्योग वह है जिसमें उत्पादन के भौतिक साधन निजी व्यक्ति के अधिकार में होते हैं अथवा वे उनको किराये के रूप में ले लेते हैं तथा उनका उपयोग उनकी आज्ञानुसार इस भाँति होता है कि उनकी सहायता से उत्पन्न वस्तुयें या सेवायें लाभ पर बेची जायें।

पूँजीवादी के दो प्रकार हो सकते हैं-

  1. प्राचीन, स्वतंत्र पूँजीवाद जिसमें सरकार का हस्तक्षेप नगण्य होता है अथवा अनुपस्थित रहता है, तथा
  2. नवीन नियमित या मिश्रित पूँजीवाद जिसमें सरकारी हस्तक्षेप पर्याप्त मात्रा में होता है।

पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषताएं 

  1. निजी स्वामित्व (Private ownership)- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रत्यके व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का स्वयं मालिक होता है। उसे उत्पादन के विभिन्न साधनों को अपने पास रखने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। प्रत्येक व्यक्ति सम्पत्ति रख सकता है, बेच सकता है या अपनी इच्छानुसार उपयोग कर सकता है।
  2. उपभोक्ता की प्रभुसत्ता (Consumers’ Sovereignty)-पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। उत्पादक उपभोक्ता की माँग व रूचि के अनुसार उत्पादन करता है। उपभोक्ता की स्वतंत्रता में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती है, इसीलिए बेन्हम  ने पूँजीवाद अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता की तुलना राजा से की है।
  3. उत्तराधिकार (Inheritance)- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की एक महत्वपण्ूर् ा विशेषता इसमें उत्तराधिकार के अधिकार का पाया जाना है। इस अर्थव्यवस्था में पिता की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति का स्वामी उसका पुत्र हो जाता है। पूँजीवाद को जीवित रखने हेतु उत्तराधिकार का अत्तिाकार बनाये रखना आवश्यक होता है।
  4. बचत एवं विनियोग की स्वतंत्रता (Freedom to save and invest)- उत्तराधिकार का अधिकार लोगों में बचत करने तथा पूँजी संचय को प्रोत्साहन देता है। अपने परिवार की सुख-सुविधा के लिए लोग बचत करते हैं तथा यही बचत पूँजी संचय में वृद्धि करती है। इस पूँजी को अपनी इच्छानुसार विनियोग करने की स्वतंत्रता होती है।
  5. मूल्य यंत्र (Price Mechanism)- मूल्य-यत्रं सम्पूर्ण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का संचालन करता है। इसकी सहायता से ही एक उत्पादक यह निध्र्थारित करता है कि किस वस्तु का कितना उत्पादन किया जाय। दूसरी ओर उपभोक्ता भी इस यंत्र को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लेता है कि किस वस्तु के कहाँ से और कितनी मात्रा में खरीदा जाय।
  6. प्रतियोगिता (Competition)- प्रतियोगिता पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण विशेषता है। जो उत्पादक अन्य उत्पादकों की तुलना में अद्धिाक कुशल, अनुभवी एवं शक्तिशाली होता है, वह प्रतियोगिता में सफल होता है। अकुशल उत्पादकों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की उत्पादन लागत अधिक होती है। कुशल उत्पादकों द्वारा निर्मित वस्तुओं की लागत कम आती है। अत: वे सस्ते मूल्य पर उपभोक्ताओं को वस्तुएं उपलब्ध करा पाने में सफल रहते हैं जिससे उनकी मांग बढ़ती है।
  7. आर्थिक कार्य की स्वतंत्रता (Freedom of Economic Activities)- पूँजीवाद में प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है। वह अपनी इच्छानुसार उत्पादन प्रारम्भ एवं बंद कर सकता है। अपना लाभ बढ़ाने के लिए वह उत्पादन प्रणाली में भी परिवर्तन कर सकता है।
  8. साहसी की महत्वपूर्ण भूमिका (Important Role of Entrepreneur)- पूँजीवाद में साहसी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। साहसी द्वारा उत्पादन के साधनों को संगठित करके वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन को सम्भव बनाया जाता है। वह सदैव ऐसा निर्णय लेने की कोशिश करता है ताकि उसके लाभ में वृद्धि हो सके।
  9. व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता (Freedom of Choice of Occupation)- एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार व्यवसाय चुनने के लिए स्वतंत्र होता है। इस स्वतंत्रता से कर्मचारी अपने श्रम के लिए सौदेबाजी करने योग्य बनता है।
  10. आय की असमानता (Inequality of Income)- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सदैव आय की असमानता पायी जाती है। इस अर्थव्यवस्था में समाज दो वर्गों-पूँजीपति तथा श्रमिक में बँट जाता है जिनमें सदैव आपसी संघर्ष चलता रहता है। नियोक्ता अपने श्रमिकों को न्यूनतम भुगतान करके अपने लाभ को अधिकतम करना चाहते हैं। दूसरी ओर, श्रमिक अधिक से अधिक मजदूरी प्राप्त करने की चेष्टा करता है। इस प्रकार दोनो वर्गों में संघर्ष होता है।
  11. केन्द्रीय नियोजन का अभाव (Absence of Central Planning)- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक स्वतंत्र अर्थव्यवस्था है, अत: इसमें केन्द्रीय नियोजन का अभाव रहता है। दूसरे शब्दों में, पूँजीवादी प्रणाली की विभिन्न आर्थिक इकाइयाँ किसी केन्द्रीय योजना से निर्देशित समन्वित अथवा नियंत्रित नहीं होती हैं। इसमें समस्त कार्य स्वतंत्रतापूर्वक मूल्य-यंत्र की सहायता द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। यह एक स्वत:शासित अर्थव्यवस्था है।
  12. सरकार की सीमित भूमिका (Limited Role of Government)- केन्द्रीय नियोजन के अभाव से यह तात्पर्य नहीं है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सरकार की बिल्कुल भूमिका नहीं होती है। पूँजीवादी प्रणाली को सुव्यवस्थित रूप से संचालित करने हेतु कहीं-कहीं सरकारी हस्तक्षेप की नितान्त आवश्यकता पड़ती है। उदाहरणार्थ-सम्पत्ति के अधिकारों को परिभाषित करना, समुदाय विशेष की आवश्यकताओं की संतुष्टि को सुनिश्चित करना, इत्यादि। इसके बावजूद सरकारी हस्तक्षेप अत्यन्त सीमित होता है। 

व्यवहार में विशुद्ध पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का कोई उदाहरण नहीं मिलता है। वर्तमान में पायी जाने वाली पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में पर्याप्त मात्रा में सरकारी हस्तक्षेप होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्टे्रलिया, कनाडा, स्विटजरलैण्ड, न्यूजीलैण्ड, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, स्वीडन, डेन्मार्क, बेल्जियम, इत्यादि ऐसे राष्ट्र हैं जहां आधुनिक पूँजीवाद अथवा मिश्रित प्रणाली पायी जाती है। अनियमित अथवा विशुद्ध पूँजीवाद में निम्नलिखित महत्वपूर्ण दोष हैं जिनकी वजह से पूँजीवाद का आधुनिक स्वरूप सामने आया है।

  1. विनियोग सदैव लाभ को ध्यान में रखकर किया जाता है। उच्च वर्ग हेतु उत्पादित वस्तुओं में लाभ का मार्जिन अधिक होता है। अत: उद्योगपति उन्हीं वस्तुओं का उत्पान करेंगे। इस प्रकार विशुद्ध पूँजीवाद में उत्पादन के संसाधनों का आवंटन सर्वश्रेष्ठ विधि से नहीं हो पाता है। 
  2. स्वतंत्र प्रतियोगिता होने के कारण बड़ी फर्मों द्वारा एकाधिकार प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार एकाधिकार के समस्त दोष इसमें आ जाते हैं। 
  3. सम्पत्ति रखने के अधिकार तथा व्यवसाय की स्वतंत्रता से आय तथा धन के केन्द्रीयकरण का संकट उत्पन्न हो जाता है तथा अमीरों तथा श्रमिकों के बीच की खाई और चौड़ी हो जाती है। 

समाजवादी आर्थिक प्रणाली 

समाजवाद के बारे में इतना अधिक लिखा तथा कहा गया है कि इसकी एक उपयुक्त परिभाषा देना अत्यन्त कठिन कार्य है। लूक्स एवं हूट (Loucks and Hoot) ने सही कहा है कि ‘बहुत सी वस्तुओं को समाजवाद कहा गया है तथा समाजवाद के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा गया है।’सरल शब्दों में, समाजवाद से तात्पर्य ऐसी आर्थिक प्रणाली से है जिसमें उत्पादन के साधनों पर सरकार का या तो अधिकार रहता है या उसके नियंत्रण में रहते हैं। इसमें विनियोग, संसाधनों को आवंटन, उत्पादन, वितरण, उपभोग, आय, इत्यादि सरकार द्वारा निर्देशित एवं नियमित किये जाते हैं। लूक्स एवं हूट ने सही लिखा है, ‘‘समाजवाद एक आन्दोलन है जिसका उद्देश्य सभी प्रकार के प्राकृतिक एवं मनुष्यकृत उत्पादन की वस्तुओं का जो कि बड़े पैमाने के उत्पादन में प्रयोग की जाती है, स्वामित्व एवं प्रबंध व्यक्तियों के स्थान पर सम्पूर्ण समाज के हाथ में देना होता है और उद्देश्य यह होता है कि राष्ट्रीय आय में हुई वृद्धि का इस प्रकार समान वितरण किया जाय कि व्यक्ति के आर्थिक उत्साह, आर्थिक स्वतंत्रता एवं उपभोग के चुनाव में कोई विशेष हानि न होने पाये।’’

समाजवादी आर्थिक प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषताएँ 

  1. सरकार का स्वामित्व एवं नियंत्रण (Government Ownership and Control)- समाजवादी व्यवस्था में उत्पत्ति के प्रमुख साधनों पर सरकार का अधिकार होता है, अर्थात् इस अर्थव्यवस्था में सम्पत्ति किसी व्यक्ति की न होकर सम्पूर्ण समाज की होती है। कुछ समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं में निजी क्षेत्र की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन उस अवस्था में राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए सरकार विनियोग का आवंटन एवं उत्पादन-संरचना का निर्देशन एवं नियमन करती है।
  2. आर्थिक नियोजन (Economic Planning)- समाजवादी व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता आर्थिक नियोजन होती है जो इसे पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से एकदम अलग करती है। समाजवाद में मूल्य-यंत्र नहीं पाया जाता है। इसमें अर्थव्यवस्था में स्थायित्व लाने के लिए, आर्थिक विकास के लिए आर्थिक नियोजन का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। इसमें उत्पादन, वितरण आदि से सम्बन्धित निर्णय एक केन्द्रीय योजना के अन्तर्गत किये जाते हैं।
  3. आय का समान वितरण (Equal Distribution of Income)- समाजवाद का उदय समाज में धन के असमान वितरण को दूर करने हेतु हुआ। धनी एवं निर्धन के मध्य व्याप्त आर्थिक असमानता समाप्त करना ही समाजवाद का प्रमुख लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मजदूरी दर का निर्धारण, प्रशुल्क नीति, विभिन्न आर्थिक उपायों इत्यादि कदमों को सरकार द्वारा उठाया जाता है। समाजवादी अर्थव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यतानुसार कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है। आर्थिक दृष्टि से इसमें वैसा भेद-भाव नहीं होता जैसा कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में होता है।
  4. प्रतियोगिता का अभाव (Lack of Competition) चँूकि इसमें उत्पादन, वितरण आदि से सम्बन्धित निर्णय एक केन्द्रीय संस्था द्वारा लिये जाते हैं इसलिए इसमें विक्रेताओं एवं उत्पादकों की अधिक संख्या नहीं होती। इसके परिणामस्वरूप समाजवाद में प्रतियोगिता की अनुपस्थिति रहती है। प्रतियोगिता न होने से साधनों का अपव्यय, विज्ञापन एवं प्रचार-प्रसार पर होने वाले व्यय इत्यादि में महत्वपूर्ण कमी आती है तथा पूँजी के दुरूपयोग पर अंकुश लगता है।
  5. व्यवसाय की स्वतंत्रता की अनुपस्थित (Freedom of Occupation is absent)- इसमें व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती है अथवा सरकार द्वारा प्रतिबन्धित होती है। एक व्यक्तिगत व्यवसायिक इकाई अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करने के लिए स्वतंत्र नहीं होती है।
  6. शोषण न होना (No Explotitation)- समाजवादी अर्थव्यवस्था में पूँजीपति एवं श्रमिकों के वर्ग-भेद को मिटा दिया जाता है। श्रमिकों का शोषण समाप्त हो जाता है। इस अर्थव्यवस्था में लाभ-उद्देश्य के स्थान पर समाज कल्याण या सेवा उद्देश्य से कार्य सम्पादित किये जाते हैं।

समाजवाद की महत्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख ऊपर किया गया है। व्यवहार में आज कई प्रकार के समाजवाद पाये जाते हैं- जैसे वैज्ञानिक समाजवाद, राजकीय समाजवाद, साम्यवाद इत्यादि। किन्तु इन विभिन्न प्रकार के समाजवाद में एक विशेषता समान रूप से सभी में पायी जाती है- पूंजीवादी व्यवस्था की तुलना में उत्पादन के साधनों पर सरकार का कहीं अधिक नियंत्रण होना। उपरोक्त विशेषताओं के बावजूद समाजवादी अर्थव्यवस्था अनेक दोषों से ग्रसित है। कुछ प्रमुख दोष हैं:

  1. समाजवाद में उपभोक्ताओं को वस्तुएँ चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती है। राज्य द्वारा जिन वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, उपभोक्ता द्वारा उन्हीं वस्तुओं का उपयोग किया जाता है।
  2. समाजवादी अर्थव्यवस्था में पूँजीवाद की तरह ऐसा कोई यंत्र नहीं होता है जिससे यह ज्ञात हो सके कि उपभोक्ता किस वस्तु की अधिक मांग कर रहे हैं तथा किन साधनों का अनुकूलतम उपयोग हो रहा है। पूँजीवाद में जो लाभ मूल्य-यंत्र प्रणाली से प्राप्त किये जा सकते हैं, वे लाभ समाजवाद की केन्द्रीय नियोजन प्रणाली से प्राप्त नहीं किये जा सकते हैं। 
  3. चूँकि समाजवाद में निजी व्यवसाय की स्वतंत्रता नहीं होती है, इसलिए योग्य व अनुभवी लोगों की सेवाओं से राष्ट्र वंचित रहता है। 
  4. समाजवादी व्यवस्था में लाभ भावना एवं प्रतियोगिता का अभाव, उत्तराक्तिाकार की समाप्ति, आदि के कारण व्यक्ति को कार्य करने की आर्थिक प्रेरणा नहीं मिलती है। समाजवाद के प्रत्येक श्रमिक एक सरकारी कर्मचारी होता है, इसलिए उसे अधिक कार्य करने हेतु प्रोत्साहन नहीं मिलता है। 
  5. समाजवादी अर्थव्यवस्था में नौकरशाही का प्रभुत्व होता है जिसमें अक्सर महत्वपूर्ण निर्णयों को टाल दिया जाता है। कभी-कभी किसी कार्य हेतु उच्च अधिकारियों की स्वीकृति की आवश्यकता होती है, इसमें काफी समय लग जाता है, जिससे समस्या समाप्त होने के स्थान पर ज्यों-कि-त्यों बनी रहती है। 
  6. समाजवाद की प्रकृति केन्द्रीयकरण की होती है। इसमें सभी शक्ति व अधिकार राज्य में केन्द्रित हो जाते हैं। शक्ति का केन्द्रीयकरण धन के केन्द्रीयकरण से कम खतरनाक नहीं होता है। 

मिश्रित आर्थिक प्रणाली 

पूँजीवादी की कमियों को दूर करने के लिए समाजवाद का जन्म हुआ। समाजवादी अर्थव्यव्था पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के विपरीत कार्य करती है। लेकिन इसमें पूँजीवाद के लाभों से भी वंचित रहना पड़ता है। इस प्रकार हमारे समक्ष दो अर्थव्यव्स्थाओं में से एक चुनाव करना होता है। दोनों की ही अपनी-अपनी विशेषताएं एवं लाभ-हानि हैं। इन दोनों अर्थव्यवस्थाओं को सबसे बड़ा दोष यह है कि एक के लाभ-दूसरे से प्राप्त नहीं किये जा सकते। अत: एक ऐसी अर्थव्यवस्था की आवश्यकता महसूस की गयी जो दोनों अर्थव्यवस्थाओं के लाभों को एक साथ प्राप्त कर सके। इस आवश्यकता को पूरा करने हेतु मिश्रित अर्थव्यवस्था का उदय हुआ। इसमें पूँजीवाद तथा समाजवाद दोनों के लाभों का मिश्रण होता है। इस व्यवस्था में निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र का सह-अस्तित्व रहता है। इस अर्थव्यवस्था में उत्पादन, वितरण तथा राष्ट्र के आर्थिक विकास के कार्यक्रम न तो पूरी तरह से सरकार के हाथ में रहते हैं और न ही निजी उद्यमियों के हाथ में।

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